भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा इस बार वरिष्ठ लघुकथाकार सुरेश शर्मा की स्मृति में " लघुकथा उत्सव " रखा गया है । विषय " बुजुर्ग जीवन " को फेसबुक पर दिया गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के लघुकथाकारों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल अच्छी व सार्थक लघुकथाओं के लघुकथाकारों को सम्मानित करने का फैसला लिया गया है ।
वरिष्ठ लघुकथाकार सुरेश शर्मा का जन्म 06 मई 1938 को इन्दौर , मध्यप्रदेश में हुआ है । इन की शिक्षा बी. ए . व सिविल इन्जीनियरिंग डिप्लोमा है । इन का लघुकथा संग्रह " अन्धे - बहरे लोग " 2013 में प्रकाशित हुआ है । चालीस से अधिक लघुकथा संकलन में इन की लघुकथा शामिल हो चुकी हैं । इन के सम्पादन में काली माटी 2007 , बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ 2011 में लघुकथा संकलन प्रकाशित हुये हैं । कहानी और कहानी " वार्षिक संकलन के चार खण्ड प्रकाशित हुये है । इनके अतिरिक्त तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुये हैं । इन को अनेकों सम्मान प्राप्त हुये हैं । जिन में प्रमुख हैं :-
मिन्नी पंजाबी पत्रिका द्वारा 2002 में माता शरबती देवी सम्मान , श्री साहित्य सभा इन्दौर द्वारा 2003 में वाणी भूषण सम्मान , अक्षरधाम समिति कैथल - हरियाणा द्वारा अक्षर राज उपाधि , युवा साहित्य मण्डल व अखिल भारतीय राष्टभाषा विकास संगठन , गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश द्वारा लघुकथा शिल्पी सम्मान आदि प्राप्त हुये हैं । इन का देहावसान 13 अप्रैल 2015 को हुआ है।
सम्मान के साथ लघुकथा : -
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यादें
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"पापा आपसे कुछ नहीं बनता है । दवा भी नहीं पी पा रहे हैं । और चम्मच में भरी सारी दवा ही फैला दी । ऐसा कैसे चलेगा?" जवान बेटे ने बिस्तर पर लेटे, सत्तर वर्षीय रिटायर्ड बाप को डंपटते हुए कहा।
"हां बेटा दिक्कत तो है ।" बुदबुदाते हुए पिता बोले।
"लगता है कि धीरे-धीरे पापा की याददाश्त जा रही है ।" धीरे से बेटे ने अपनी पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए कहा।
पर यह बेटे का भ्रम था। पिता को गुज़रे वक़्त के सारे वाकया याद थे ।वे बेटे के बचपन के दिनों में पहुंच गए ।बेटा अब नन्हें बालक के रूप में उनके सामने था,और तीन पहिये की साइकिल चलाने की कोशिश कर रहा था।
"पापा-पापा,मुझसे नहीं बनेगी यह साइकिल चलाते! मैं तो बार-बार गिर जाता हूँ।" बेटे ने तुतलाते हुए कहा।
"नहीं बेटा, ज़रूर बनेगी ।क्यों नहीं बनेगी ?अरे मेरा स्ट्रोंग बेटा सब कुछ कर सकता है। मेरा बेटा, न केवल एक दिन साइकिल के साथ मोटर साइकिल,कार चलाएगा, बल्कि-बल्कि-बल्कि बड़ा होकर मेरा भी सहारा बनेगा।"
यादों की परतें खुलते ही पिता की आंखें भर आईं! वे वर्तमान में वापस लौट आए,और हिम्मत जुटाकर ख़ुद का सहारा ख़ुद बनने की तैयारी करने लगे।***
-प्रो.(डॉ) शरद नारायण खरे
मंडला - मध्यप्रदेश
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सच्ची श्रद्धांजलि
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कोलकता के वृद्धाश्रम के ' बहुउद्देशीय सेवा केंद्र ' द्वारा भेजे गए कोरियर में
" रीमा , बिल फॉर फ्युनरल यूअर मदर " को विस्मृत नेत्रों से पढ़कर इकलौती बेटी रीमा अपनी बूढ़ी माँ की अंतिम क्रिया में न शामिल होने के दुःख से फफक – फफक के रो पड़ी . उस की अंतरआत्मा उसे धिक्कार रही थी तभी पास बैठे उसके पति ने रीमा से रोने का कारण पूछा तो रीमा ने वह बिल दिखाया .
सांत्वना देते हुए पति ने उसका ढाढ़स बंधाया और फिर रीमा से कहा -
" तुम्हारे कहने से ही तो मैं अपनी माँ को वृद्धाश्रम में छोड़ आया था . चलो हम उसे वापस घर ले आते हैं . "
रीमा ने अपने पति को हाँ में गर्दन हिलाकर अपनी सहमती जताई .
रीमा ने मन ही मन में सोचा यही मेरी माँ के लिए मेरा प्रायश्चित और सच्ची श्रद्धांजलि होगी . ***
- डा. मंजु गुप्ता
मुम्बई - महाराष्ट्र
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पेंशन
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क्या है दादी आपने पेंशन के पचास हजार रुपए बर्थ डे पार्टी करने में खर्च कर दिये। शीला ने गुस्से में कहा तो दादी ने प्रेम से कहा
क्या हुआ बहू रोहन कितना रो रहा था?
तो आप कब तक उसकी जिद्द पूरी करती रहोगी ?
दादी ने मुस्कुराते हुए कहा - अभी छोटा है, आगे सब समझ जायेगा।
आप तो पूरा बिगाड़ लो , मुझे फिर मत कहना। अौर ये रखिये उसके बर्थ डे गिफ्ट के चार हजार रुपए ।
बेटी चार हजार रुपए मायने नही रखते । मायने रखती है खुशी।
रोहन कितना खुश हुआ ? अौर हम लोग भी।
इस बहाने हमारे दूर - दूर के रिश्तेदार भी आकर खुश हुए । बस यही खुशी मुझे चाहिए थी। मैं पेंशन को जोड़ कर क्या करुँगी री? ****
- विनोद नायक
नागपुर - महाराष्ट्र
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ठिकाना
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पिताजी ने आते ही अखबार लपक लिया।
आज सुबह ही तो उन्होंने अखबार लाने को कहा था।
विमल सुबह नौ बजे निकलता था। रश्मि को ऑफिस के लिए साढ़े नौ बजे निकलना होता था। घर के सब काम सलटा कर, पिताजी के लिए खाना टेबल पर लगाया, शाम की चाय की थरमस और नाश्ते का टिफिन रखा।
निकलते समय पिताजी से कहा "बाबूजी, खाना, नाश्ता सब रख दिया है। दवाई आपके कमरे में मेज पर रखी है। याद से ले लिजिएगा। दरवाजा अच्छे से बंद कर लीजिएगा। आजकल टीवी पर दिखा रहे हैं दोपहर मेअकेले बुजुर्गों को जरा सावधानी रखनी चाहिए। आपको कुछ और चाहिए तो बता दीजिए शाम को लेती आऊँगी।"
"बहू , एक आज का अखबार लेती आना।"
"बाबूजी, टीवी तो है ही, सारे ताजा से ताजा समाचार तुरंत टीवी पर दिखाते हैं।"
"अब टीवी भी कितना देखूं।"
खाना लेकर गई तो वे अखबार में किसी वृद्धाश्रम का पता खोज रहे थे।
"वृद्धाश्रम क्यों बाबूजी? क्या आपको यहां कोई तकलीफ है? हम तो आपका पूरा ध्यान रखते हैं।"
"अरे, नहीं नहीं बेटा, आपसे कोई शिकायत नहीं है। वो तो कल टीवी पर दिखा रहा था आजकल सभी वृद्धों का नया ठिकाना वृद्धाश्रम हो गया है।" ****
- कनक हरलालका
धुबरी - असम
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लफ़्ज़ों से भरी पर खामोश
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बुजुर्ग अम्मा बागीचे में बरगद के नीचे बैंच पर बैठी थी। ‘अम्मा किसी का इन्तज़ार कर रही हो क्या?’ एक नवयुवती ने पूछा। ‘.....’ अम्मा खामोशी से मुस्कुरा दी पर उसके चेहरे पर पड़ी लकीरों में लिखी पीड़ा के शब्द उभरने लगे थे। ‘घर कब जाओगी, मैं छोड़ आती हूं’ नवयुवती ने फिर कहा। ‘बेटी, तुम क्या मुझे छोड़ आओगी, अपनों ही मुझे कब का छोड़ दिया है, अब छोड़ने जैसी बात कहां’ अम्मा ने कहा ‘पर बेटी, तुम घर जाओ, तुम्हारे मां-बाप इन्तज़ार करते होंगे, तुम्हारा समय से जाना ठीक होगा।’ ‘क्या आपका कोई परिवार नहीं है!’ ‘था बेटी, जब से परिवार की जिम्मेदारी संभाली थी हरेक को उसकी मंज़िल तक पहुँचाती गई और हर कोई मुझे छोड़ता गया’। ‘आप मेरे साथ चलो’। ‘बेटी, तुम बहुत अच्छी हो, पर जब से मेरे जीवन की दूसरी पारी शुरू हुई है, मैं यही तो करती आ रही हूं, तो मुझे क्या घबराना?’ ‘क्या मतलब’। ‘बेटी! पहली पारी में मां-बाप का लाड़-प्यार मिलता और दूसरी पारी जिम्मेदारियों से भरी होती है, कितनी प्रश्नवाचक निगाहें आपकी हर हरकत को देखती हैं। दूसरी पारी चुनौती होती है। खैर, बेटी, अब ये दुनिया ही मेरा घर है। ये हरे-भरे पेड़, चहचहाते गीत गाते पंछी’ अम्मा कुछ खोई सी लगी। ‘आप तो पढ़ी लिखी मालूम होती हैं’। ‘हां बेटी, मैं बहुत पढ़ी लिखी हूं, ज़िन्दगी की कई किताबें पढ़ चुकी हूं।’ अम्मा ने गहरी सांस लेते हुए कहा। ‘तो क्या आपका कोई घर नहीं है, आप सारा दिन यहीं गुजारती हैं?’ नवयुवती ने पूछा। ‘घर! घर तो मेरा था छोटा-सा, पर अब बहुत बड़ा है, देखो कितना बड़ा है, जहां तुम मेरे साथ हो यही मेरा घर है’ ‘हां बेटी, जीवन के अन्तिम अध्याय का यह भी एक सत्य है’ ‘तो आप अपना दुःख दर्द किससे बांटती हो?’ ‘दुःख दर्द! बेटी मैंने ज़िन्दगी देखी है, रिश्तों की अमीरी देखी है तो रिश्तों की गरीबी भी देखी है, गरीबी इतनी देखी कि मैं रिश्तों की बचत करने लगी थी और अब तो बचत करने की इतनी आदत हो गई है कि मैं अपना दुःख दर्द भी अब कम ही बांटती हूं, कंजूस हो गई हूं। इस उम्र में मेरा सहारा बने हुए ये दुःख दर्द भी बांट दिये तो मैं कंगाल हो जाऊँगी, जीने का मकसद खो बैठूंगी, जब तक जीवन है कुछ तो सहारा चाहिए’ ‘अम्मा, आपको अपना जीवन जीने का पूरा अधिकार है, आप जैसे मर्जी अपना जीवन जिएं, पर मेरा घर इतना छोटा नहीं है कि आपके आने से तंगी का माहौल हो जाये। रात हो, आंधी हो, बारिश हो, आप हमारे साथ रहें’। ‘बेटी, तुम खुश रहो, पर मुझसे मेरी सम्पदा न छीेनो। दिन रात, आंधी-तूफान, बारिश, ये सभी मेरी सम्पदा हैं, देखो तो मैं कितनी अमीर हूं’ कहते हुए अम्मा जोरों से हंस पड़ीं। ‘मैं शाम को आऊँगी, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।’ परिवार के बारे में अम्मा ने कुछ नहीं बताया। जाते-जाते नवयुवती ने खुद से जैसे कहा हो ‘किताबों की तरह है अम्मा, लफ़्ज़ों से भरी पर खामोश।’ ***
- सुदर्शन खन्ना
दिल्ली
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बुजुर्ग जीवन
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रामू काका रिटायर हुए तो वे घर पर अपने लिखे नोट्स की कॉपी भी घर ले आए।घर पर उनका टाइम ही नही कटता क्योकिं उन्हें आदत थी।बच्चों को पढ़ाने की।घर पर उनका परिवार था यानि संयुक्त परिवार था।छोटे बच्चे घर मे उधम करते तो।रामूकाका उन्हें टीचर की तरह डांटते।बहू को उनकी ये बात अच्छी नही लगती।घर का वातावरण में खींचतान होने लगी।
पोतों ने अपने दादा की नोट्स की कॉपी निकाल ली।क्योकिं बारिश के मौसम में उन्हें नाव बनाने के लिए कागज नही मिल रहे थे।
बच्चों को नाव बनाना तो याद नही उन्होंने दादा से जिद्ध कि के वो उन्हें नाव बनाकर दे। दादा तमाम खींचतान को भूलकर बच्चों की मदद करने लगे।
बहुओं ने सोचा कि ससुरजी अपनी जान से प्यारी नोट्स की कॉपी।अपने बच्चों को नाव बनाने के लिए उन पन्नों का उपयोग कर लेंगे।
बच्चों के लिए एक दर्जन छोटी छोटी नाव बना दी।बच्चे उन्हें लेकर गड्डों में भरे बारिश के पानी मे नाव चलाकर खुश होने लगे।साथ ही अपने दोस्तों को गर्व से कहने लगे कि मेरे दादा ने बनाकर दी है।उन्हें नाव बनाना आता है।
घर की खींचतान खत्म अपने आप हो गई।बच्चों ने अपनी मम्मी को ये बात बताई। अनुभव के नोट्स वाली कॉपी जो संभाल कर रखी थी। समय पर कागज की अनुपलब्धता ने नोट्स कॉपी का उपयोग अपने पोतों की खुशी के लिए कर दिया।समय की बात थी।यदि समय पर नाव नही बनती तो बारिश का पानी जो गड्डो में भरा था वो चला जाता।और बारिश में नाव चलाने का मजा भी नही रहता।खुशी के लिए त्याग करना भी बडी बात होती है।
अब पोतों के संग उनके दोस्त भी नाव बनवाने के लिए आए।रामूकाका से नाव बनाने वाले दादा के नाम से बच्चों में मशहूर हो गए।
सेवा निवृति के बाद का समय और ज्यादा आनंद मयी हो गया। बच्चे अब उधम करते तो डाटने पर अब कोई नाराज नही होता।ऐसा लगता मानो परिवार कागज की नाव में बैठ कर खुशियों के गीत गा रहा हो। ****
- संजय वर्मा "दृष्टि"
मनावर(धार) - मध्यप्रदेश
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संरक्षक
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मोहन अपने माता-पिता का इकलौता बेटा था ।उसके दादा दादी का बहुत पहले निधन हो गया था। मोहन के पूछने पर उसकी मां ने उसे यही बताया था। इस रविवार को मोहन के विद्यालय में पिकनिक का प्रोग्राम बनाया गया जिसने उसने भी भाग लिया। स्कूल के शिक्षक एवं साथी विद्यार्थियों के साथ मोहन वृद्ध आश्रम के पास स्थित पार्क में पिकनिक मनाने के लिए गया। सारे दिन सही बच्चों के साथ मौज मस्ती के बाद लौटते समय वृद्ध आश्रम का बोर्ड देखकर बच्चों ने गुरु जी से वृद्ध आश्रम दिखाने का एवं बुजुर्गों से मिलने का अनुरोध किया। उनके इस नेक विचार से शिक्षक काफी प्रसन्न हुए और उन्हें वृद्ध आश्रम दिखाने ले गए। सभी ने जाकर वहां रहने वाले बुजुर्गों को प्रणाम किया और अपने पास बचे हुए खाने पीने के सामान को उनमें वितरित कर दिया। अचानक मोहन की नजर एक वृद्धा पर पड़ी ।वह उसके पास गया ध्यान से देखा ,उसकी शक्ल दादी की फोटो से मिलती थी। मोहन ने उस वृद्ध महिला से कहा कि आप मेरी दादी हो, आप यहां क्यों रहती हो? वह महिला भी उसे पहचान गई थी ।वह बोली कि हां बेटे मैं आपकी दादी ही हूं। आप बहुत छोटे थे तब आपकी मां मुझे यहां छोड़ गई थी। मोहन बोला, किंतु उन्हें तो मुझे बताया था कि आप मेले में कहीं खो गई थीं, ढूंढने पर भी नहीं मिलीं। इसीलिए आप को मृत मान लिया।
फिर मोहन ने अपने शिक्षक के द्वारा वृद्ध आश्रम से अपनी दादी को निकलवाया और उन्हें साथ में गाड़ी में घर तक चलने का कहा। घर पहुंच कर मोहन ने दादी को दरवाजे के बाहर ही छोड़ा और अकेला ही घर के अंदर गया। जाकर मां को आवाज लगाई और पूछा," मां दादी कहां है"? वह बोली," तुम्हें बताया तो था कि उनका निधन हो चुका है। फिर क्यों पूछ रहे हो"? तब मोहन ने दादी को आवाज लगाकर घर के अंदर बुलाया और मां से बोला कि आप झूठ बोल रही हो मेरी दादी जिंदा है। अगर बड़ा होकर मैं भी आपके साथ यही बर्ताव करूं तब आपको कैसा लगेगा? दादी तो हमारे घर की संरक्षक है। आपसे मुझे यह उम्मीद नहीं थी। आज से मैं आपसे कोई बात नहीं करूंगा। मोहन की बात सुनकर उसकी मां रोने लगी और बोली," मुझे माफ कर दो, मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है। अब मैं दादी को पूर्ण सम्मान के साथ घर में रखूंगी।
- गायत्री ठाकुर सक्षम
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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उदारता
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हरीराम अपनी पत्नी की दवाई लेने के लिए एक मेडिकल स्टोर में घबराए हुए पहुंचे।
हरीराम ने मेडिकल स्टोर वाले से कहा-"भैया मेरी पत्नी को बहुत तेज बुखार है। "
मेडिकल स्टोर वाले रतन ने कहा- तो मैं क्या करूं?
जाने कहां से चले आते हैं सुबह-सुबह।
मेडिकल स्टोर वाले के शब्द उसके कानों में गूंजने लगे।
हृदय में गहरी चोट की तरह चुभ गए। उनके मन में ताकि गरीब और गरीबी का हर कोई मजाक बनाता है। थोड़ी हिम्मत जुटा कर हरीराम ने कहा -"बेटा बुखार की कोई दवाई दे दो।"
रतन ने कहा -"थोड़ी देर रुकने के बाद ही दवाई मिलेगी ,अभी मैं हिसाब करने में व्यस्त हूं।"
हरिराम कहा -"बेटा मुझे जल्दी है।"
रतन चिल्लाकर कहा- हर कोई घोड़े पर सवार होकर आता है।
उसने दवाई निकाल कर दी ।
बिल बना कर कहा ₹500 दो।
हरीराम ने कहा-
" भैया मेरे पास तो इतने पैसे नहीं है तुम १०० रुपया ही ले लो।"
रतन ने कहा- देखो पैसे तो पूरे देने पड़ेंगे नहीं तो दवाई मत लेकर जाओ।जब पैसे नहीं थे तो दवाई लेने क्यों आ गए और सुबह सुबह मुझे काम भी नहीं करने दिया।
हरिराम चेहरा एकदम पीला हो गया ।
दवाई को लालच भरी नजरों से देख रहा था।
उस मेडिकल स्टोर में काम करने वाले नौकर को उसके ऊपर दया आ गई और उसने कहा सेठ जी इनको दवाई दे दो।
रतन ने कहा -ठीक है तुम्हें इतनी दया आ रही है तो तुम ही दे दो।
श्यामलाल ने कहा -मेरी तनखा में से काट लेना आप।
रतन ने कहा- फिर मत कहना कि मुझे कम पैसे दिए हैं।
हरिराम ने लपक कर दवाई उठा ली ।
हरिराम ने कहा- "बेटा तुम सदा सुखी रहो भगवान तुम्हारी सारी इच्छा पूरी करें बेटा तुम्हारा नाम क्या है।"
उसने कहा- "मेरा नाम श्याम लाल है।"
हरीराम ने कहा -"बेटा मैं तुम्हें पैसे अवश्य लौटा दूंगा।"
दोनों बात ही कर रहे थे तभी अचानक रतन जमीन पर गिर पड़ा।
हरिराम ने कहा-अरे !इसे क्या हो गया?
श्यामलाल ने कहा -बगल में अस्पताल है।
आप यहां रुको मैं डॉक्टर साहब को बुला कर लाता हूं।
डॉक्टर ने कहा - कमजोरी के कारण चक्कर आ गया है, थोड़ी देर बाद ठीक हो जाएगा।
यह सुनकर हरिराम ने गहरी सांस ली ।
श्यामलाल से कहा -"बेटा मेरी पत्नी बीमार है अब मैं घर जाता हूं।
तुम मेरा नंबर लिख लो और मुझे फोन करना और बताना कि तुम्हारे सेठ की तबीयत कैसी है।
मेरे मन में चिंता लगी रहेगी बेटा मैं तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगा।
बेटा तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद तुम्हारे जैसे उदार बेटे भगवान सबको दे।
श्यामलाल की निगाहें हरिराम को देखतेरहती है ।
कुछ क्षण बाद उसकी आंखों से ओझल हो जाता है।श्यामलाल सोचता है कि जीवन के कितने रंग हैं प्रभु........।
- उमा मिश्रा प्रीति
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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बुजुर्ग जीवन
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सीताराम पिछले ही हफ्ते अपनी पहली वृद्धावस्था पैंशन लेकर आया था।हमेशा की तरह चराहे वाले बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गए।लगभग दस बुजुर्ग जो कि हमेशा बैठकर बातें किया करते थे आज भी थे।सभी एक एक करके मानो सीताराम से पूछने लगे क्यों कैसा स्वाद आ रहा है इन रुपयों का।बताओ बताओ जरा हमें भी तो हम तो पुराने हो चुके हैं अब।
इन्हीं बातों का सिलसिला चलता रहा।सीताराम यही कहता रहा कि अरे अभी तक तो लगता था अभी उम्र बहुत बची है पर अब इस पैंशन से पूर्ण आभास हो गया है कि बुजुर्ग जीवन शुरू हो गया है।अब तो बस यही घर पर बैठकर और फिर यहां रोज शाम तुम सभी के साथ अपनी बहुओं की बातें करके ही जीवन बीतने वाला है।चलो यही सही।अच्छा अब अंधेरा होने लगा है जरा चलता हूं मुझे थोड़ा जल्दी जाना है आज वो घर पर कोई नहीं है तो सब मुझे ही देखना है।यही कहता हुआ वो एक हाथ में लाठी लिए अपने घर की तरफ निकल गया। ****
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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खोज
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टीवी पर न्यूज़ आ रही थी कि 90 वर्ष की महिला ने अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के दम पर पूरे परिवार को कोरोना होने से बचा लिया ।
इसी खबर को हाइलाइट करने हेतु घर पर मीडिया कर्मी एकत्रित थे । पूरे घर के लोग दादी के साथ बैठकर ग्रुप फोटो खिंचवाते हुए बड़े प्रसन्न दिख रहे थे । बस दादी का झुर्रियों से भरा चेहरा ही अलग राम कहानी कहता हुए दिखाई दे रहा था ।
तभी एक एंकर ने पूछा आप ने कोरोना से पूरे घर को कैसे बचाया?
दादी ने काँपती आवाज से कहा "जिस दिन से लॉक डाउन लगा ,उस दिन से घर पर हो हल्ला ज्यादा होने लगा था । चीख - चिल्लाहट बढ़ने लगी । जो भी परेशान होता मेरे कमरे में आकर सुकून तलाशता । पहले तो महीनों हो जाते थे कोई झाँकने भी नहीं आता था । उसी दिन मैंने सबको बुलवाया और बस इतना ही कहा कि मैं इतने वर्षों से अपने कमरे तक ही सीमित हूँ ,पर कभी उफ तक नहीं की । और तुम लोग कुछ दिनों में ही आपस में कलह करने लगे । जब मेरे जैसा एकांतवास झेलना पड़ेगा तब क्या करोगे ? बस इसी उत्तर की खोज में परिवार के सभी लोग आजतक लगे हुए हैं । ****
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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जल्दी आना
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"बेटी, बड़े दिन बाद आई हो ? यहां आओ मेरे पास," वृद्धा ने तीनों को बारी-बारी गले लगाया और फिर कहा, "बड़े दिन बाद आई हो, आ जाया करो मुझसे मिलने, मैं उदास हो जाती हूं, मेरा दिल घबराने लगता है," उसकी आंखों से आंसू झरने लगे।
वे तीनों भी भावुक हो गई ,
"नहीं अम्मा, बस ठंड बहुत ज्यादा पड़ रही है इसलिए निकलना न हो पाया, आगे से जल्दी जल्दी मिलने आएंगे। अच्छा अम्मा, यह उस कमरे की 'राधे-राधे' कहां गई और वह हंसने वाली 'बातूनी अम्मा' ? आज तो वह उसकी बगल में 'गुमसुमी अम्मा' भी दिखाई नहीं दे रही । कहां गई सारी की सारी ?"
"यहाँ उदासी क्यों छाई है ?" दूसरी ने पूछा
" क्या बताऊं बेटी, तुम लोग महीनों बाद आई हो इसलिए तुम्हें कुछ नहीं पता। राधे-राधे अस्पताल में भर्ती है उसे निमोनिया हो गया है। गुमसुमी चार दिन पहले दूसरे अस्पताल में भर्ती है क्योंकि वह खाना नहीं खा रही थी, उस हंसोड को याद करके उदास थी और वह बातूनी अपने वाहेगुरु को प्यारी हो गई है चार दिन हुए।"
तीनों की चीख निकल गई सुनकर।
" हां बेटी, उसे ठंड लग गई थी यहाँ ठंड बहुत है फिर हम सब की उम्र हो रही है । आज मेरी बहू ने मुझसे मिलने आना था, आई नहीं । कल मेरी बेटी पूरे एक साल बाद मुझसे मिलने आई थी। और जो मर गई है उसके बेटे बहु आए थे यही क्रियाकर्म निपटा गए हैं। हम चारों लड़ती थी, एक दूसरे को गालियां देती थी पर आज देखो, मैं अकेली हूं यहां। पता नहीं मेरा बुलावा कब आ जाए," उसके आंसू आंखों के मुहाने से टकरा कर बिखर गए। फिर कहने लगी," अच्छा बेटी, मेरे बेटे का नंबर मिला दो ।लो मेरा मोबाइल, आज मेरी बहू ने मिलने आना था, आए नहीं अभी तक।"
एक ने नंबर मिला दिया और स्पीकर चालू कर दिया ताकि अम्मा जी को सुनने में दिक्कत ना हो। "हां बेटा, तू बोल रहा है ? आज तो बहू के साथ मेरे पास आने वाला था, आया कोनी ?" "अम्मा, मैं बबलू , पापा मम्मी 'छोटे' को अस्पताल ले गए हैं, उसे थोड़ी चोट लगी है ।"
"अच्छा बेटा, तू ही आ जा मिलने,"
" अम्मा , जब टाइम मिलेगा तो आ जाऊंगा, पापा को बता दूंगा कि तेरा फोन आया था।"
फोन कट चुका था। उसने फोन मेज पर रख दिया। वे तीनों खाली पलंगों को घूर रही थी। "अच्छा अम्मा, अब चलते हैं फिर आएंगे।" "ठीक है बेटी, जल्दी आना , मेरा दिल घबरा जाता है ।" और बहती आंखों ने तीनों को फिर से आने का न्यौता दिया। ****
- डॉ अंजु दुआ जैमिनी
फरीदाबाद - हरियाणा
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प्रतीक्षा
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श्याम ने हरिद्वार जाने वाली रेल के सामान्य डिब्बे में अपनी वृद्ध अम्मा को बिठाया और बोला... “तू बैठ अम्मा! मैं पानी और खाने का कुछ ले आऊँ तेरे लिए।”
तब तक रेल चल पड़ी। अम्मा चिंतित सी इधर-उधर देखती रही। अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी। बहुत लोग चढ़े, पर श्याम न दिखा।
उसे परेशान देख सामने की सीट पर बैठा मुस्लिम बोला...” तेरा बेटा न आने का अम्मा! वो गाड़ी पर चढ़ा ही ना, छोड़ गया तुझे!”
“ पर तू चिंता न करियो अम्मा! वो छोड़ गया तो क्या? मैं हूँ न तेरा दूजा बेटा! हरिद्वार जा रो हूँ अपने काम वास्ते, अब तू मेरी अम्मा। साथ चल रे हम साथ ही लौटेंगे।
और जब अम्मा को लेके रफीक अपने घर लौटा तो उसकी बेगम शमा अम्मा कह गले लगी तो बच्चे दादी कह लिपट गए।
इतना प्यार तो अम्मा ने अपने घर भी न पाया था। वहाँ पूरे मन से रम गई अम्मा।
उधर श्याम ने झूठी खबर फैला दी थी अम्मा खो गई। अड़ोसी-पड़ोसियों ने खबर दी श्याम को... तू तो कहता था अम्मा खो गई, वो तो रफीक के घर में दिखी हमें। बेशरम! ले तो आ जाके।
लोगों की शरम कर पहुँचा श्याम रफीक के घर और पैर पकड़ दहाड़ सी मारते रोने लगा.. “ तू कहाँ चली गई थी अम्मा? कहाँ-कहाँ नी खोजा तुझे! कितनी राह देखी तेरी।अब चल घर।”
“ना रे श्याम! ना तूने मेरी राह देखी और ना मैंने तेरी। जिसने मेरी राह देखी मैं उसके साथ खुश हूँ। जिस दिन तेरी अम्मा खोई थी उसी दिन श्याम भी खो गयो।तू जा। यहाँ कोई नी तेरी अम्मा।”
“अरे रफीक! कहाँ गयो रे तू? अरी! बहुरिया! किवाड़ लगा के रखा कर। ऐरे-गैरे मुँह उठाए चले आते हैं।”.... कहते हुए मोहसिन और नगमा को कहानी सुनाने उनके कमरे में चली गई।
अब उन्हें किसी की प्रतीक्षा नहीं थी। ****
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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मेरे पतझड़
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अरी बन्तो! कहाँ मर गई? ये आँगन तेरा बाप बुहारेगा| कितने पत्ते बिखरे पड़े हैं!
"आ रही हूँ.... आग लगे इस मुए पतझड़ को; सारे दिन पत्ते बुहारूँ या घर का दूसरा काम-काज देखूं और ऊपर से ये बुढऊ.... सारा दिन चें चें... पें पें|" बन्तो बड़बड़ायी|
"कर लें जितनी बड़बड़ करनी है कर लें..एक दिन जब मैं चला जाऊंगा तो ये पतझड़ ही याद आएगा|",रग्घू बोला|
और एक दिन... एक्सीडेंट में रग्घू चल बसा|
"ओ बुढ़ऊ कहाँ चला गया मुझे छोड़कर.... "
बन्तो दहाडे़ मारकर रो रही थी कि पड़ोस की संतो चाची ने आ झकझोरा, "ओ काकी! क्यों दहाडे़ मार रही है? काका को गुजरे एक अरसा हो गया|"
"हाँ री, सो तो है| पर ये पतझड़ जब भी आता है, मेरे बुढ़ऊ की याद ला देता है.. कम से कम इस बहाने वो मुझसे बोलता तो था|",बन्तो बोली |
"सही है काकी, जीवन में जब अपनों का साथ न हो तो बसंत भी पतझड़ और जब अपने साथ हो तो पतझड़ भी बसंत लगता है|"
- अजय गोयल
गंगापुर सिटी - राजस्थान
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जरूरी तो नहीं
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सत्तर वर्षीय श्यामलाल जी पैदल जारहे थे, तभी अचानक वह गिर पड़े। यह देखकर उधर से जारहे एक युवक ने उन्हें उठाना चाहा, तो उसके साथी ने उसे रोक दिया --"यार ! कहाँ इस पियक्कड़ को उठाने जारहा है। पड़ा रहने दे। जब होश में आएगा, तो खुद ही उठ जाएगा।"
"नहीं यार ! मुझे नहीं लगता कि इन्होंने शराब पी रखी है। क्योंकि इनके मुँह से बदबू नहीं आरही है।" इतना कहकर उस युवक ने बुजुर्ग को सहारा देकर उठाया, और फिर अपने बैग में रखी पानी की बाटल निकालकर उन्हें पानी पिलाकर पूछा --"दादा जी ! आप कैसे गिर पड़े थे ?"
बुजुर्ग ने दूर खड़े दूसरे युवक की तरफ देखकर कहा --"बेटा ! जरूरी तो नहीं है कि सिर्फ शराब पिया व्यक्ति ही जमीन पर गिरे।" इतना कहकर वह फिर पास बैठे युवक से बोले --"बेटा ! दो दिन से बीमार हूँ । चक्कर आरहे थे। मैंने बेटे-बहू को कहा था कि किसी डाॅक्टर को दिखला दो, लेकिन दोनों ने मेरी बात नहीं सुनी। इसलिये मैं पास ही में एक डाॅक्टर के पास जारहा था कि तभी जोरों का चक्कर आगया, और मैं लड़खड़ाकर गिर पड़ा।"
- राम मूरत 'राही'
इंदौर - मध्यप्रदेश
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जुगाली
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सुखवंती अपने कमरे मे अकेली बैठी थी।भरापूरा परिवार है उस का।पर पति के स्वर्गवास के बाद कुछ अकेली पड गई थी।यूँ तो उसका अपना एक कमरा है,जिस मे पलंग, रेडियो अलमारी पूजा घर है।बच्चों ने पढने के लिए अखबार भी लगवा दी है।मानव और मानसी उसके पोता पोती हैं उसपर जान झिडकते हैं। वो प्रातः काल उनके बस्तो को उठा कर स्कूल बस पर बिठा कर आती है ।फिर बहू केआफिस जाने के बाद निचले कमरो की सफाई करती,बच्चों के वापस आने पर खाना, फल देना ,गृह कार्य के लिए बिठा देती
बहू की हिदायत है कि बच्चो के मामले मे कोताही नही।
नया जमाना है माँ जैसा मैं कहूं वैसा ही करना आप।शाम को बेटा बहू के आते ही चाय बना कर अपने कमरे मे चली जाती है।बेटा आकर बिस्किट. वगैरह दे जाता है।यह संकेत था कि अब बाहर उसकी जरूरत नही है।
पर आज उसका पोता दौडता आया, दादी की गोद मे बैठ कर बार बार उसका मुँह गौर से देख रहा था।फिर भोलेपन से पूछा, दादी आप गाय हो क्या। मानव थोड़ी देर चुप बैठा फिर बोला.,अभी माँ पापा से कह रही थी कि थोड़ी देर बाद ही माजी नीचे आकर जुगाली शुरू कर देगी। वही घिसी पिट्टी आप बीती बातें पुरानी कहानियां।आफिस मे सिर खपा कर आओ फिर घर पर इनकी जुगाली सहो।
. मानव तो यह कह कर नीचे चला गया और सुखवंती सोच रही थी हाँ वो दिनभर जुगाली करती है खाली कमरों से,कपड़ों से,बर्तनों से, झींकते बच्चों से। पास के कमरे से बहू की तेज आवाज आ रही थी।वह अमन को अपने आफिस के अक्षय के किस्से सुना रही थी। ****
- डा.नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
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बुजुर्ग जीवन
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हरीनाम एक प्रसिद्ध कबीर पंथी थे अपने काम में पारंगत भी तीन बेटी दो बेटो का पालन पोषण शिक्षा शादी विवाह करते करते अब उम्र अधिक हो चली थी अशक्त होने के कारण काम बन्द कर दिया था पत्नी के मरने पर वह परिवार को बोझ लगने लगे थे खाना भी ठीक से नहीं हो पा रहा था बड़ा बेटा बाहर रहता था उसने घर आकर जब पिता को देखा तो साथ ले गया बहू के सेवा करने से हरीनाम जब एक दम स्वस्थ हो गये तो बेटे से कहा समय काटने के लिए एक दुकान कर ले मै देख लूंगा बेटे ने विचार करके घरेलू सामान की दुकान खोल ली कुछ समय में ही दुकान बहुत अच्छी चलने लगी जब यह बात छोटे बेटे को पता चली तो उसे अपनी करनी पर पछतावा हुआ अब हरीनाम का जीवन बहुत आराम से बीत रहा था दुकान पर जब खाली समय मिलता तो वह बीजक का अध्ययन करते हुए बीतता वह अब बहुत खुश थे प्रभु से प्रार्थना कि सभी का बुजुर्ग जीवन खुशी से व्यतीत हो!
- डा. प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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बुजुर्ग जीवन
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रामू अजय सहाय अपने चारपाई पर बैठा था। चारों ओर सन्नाटा था। आज उसको 80 साल हो गए जीवन जीते हुए, एक-एक करके उसके सभी परिवार सदस्य उनका साथ छोड़ गए। तिल तिलकर जिंदगी काट रहा था। जहां उनकी पत्नी रेखा शादी के 10 साल बाद छोड़ गई, वहीं उनकी पुत्री की शादी कर दी गई। पुत्र रमन शराब का आदि हो गया जिसके चलते हुए अपने पिता की कोई देखरेख नहीं करता था। महज सरकार द्वारा 2500 रुपये पेंशन के मिलते थे। इसी है वह गुजारा कर रहा था। आज उसकी आंखों में आंसू थे। कहीं खाना बनाना हो तो घंटों इंतजार करता क्योंकि हाथ कांपते थे। खाना बनाना कठिन कार्य था। कई बार उसका हाथ पैर आग से जल चुके थे परंतु क्या करें ज्यादा भूख लगे तो खाना बना लेता था। वरना बेचारा भूखा ही सो जाता था। पानी भी गांव में कभी आता तो भर लेता,नल नहीं आते तो दूर से भर कर लाता था। बड़ी बुरी जिंदगी जी रहा था। आज वह प्रभु से प्रार्थना कर रहा था कि बुजुर्गों के साथ ऐसी बुरी कभी न बिताए। यदि बुजुर्ग जीवन जीना है तो उनके बेटे पोते जरूर ऐसे हो जो उनका साथ दें। वरना ऐसी जिंदगी से तो मरना ही बेहतर है। आज ही इसी उधेड़बुन के प्रश्नों में राम ूखोया हुआ चारपाई पर शांत भाव से बैठा हुआ था। कोई बेचारे को पूछने वाला नहीं था।****
- होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ - हरियाणा
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अपने पराये
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त्रिभुवन दास जी झूले पर बैठकर आज का अखबार पढ़ रहे थे।तभी बहु वन्या चाय लेकर आयी।
वन्या ने उन के चरण स्पर्श किये।उन्होंने ढ़ेर सारा आशीर्वाद दिया।
तभी वन्या का मोबाईल बजा।फोन पर काफी देर बातें होती रही।वन्या रो रही थी।फोन की समाप्ति पर त्रिभुवन दास जी ने पूछा-"किसका फोन था बेटी?और तुम रो क्यों रही हो?सब ठीक तो है न ?"
वन्या ने बताया उसकी माताजी का फोन था।वे परेशान थी। भाभी उन्हें ठीक से भोजन भी नहीं देती ।उनका ख्याल भी नहीं रखती हैं।भाई भी अब ज्यादा परवाह नहीं करता है।
त्रिभुवन दासजी ने कहा-"अपने को संभालो।ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जायेगा।"
उन्होंने तुरंत बेटे को बुलाया। समधनजी को लाने के लिये कार लेकर बहु के मायके भेजा।
शाम को बेटा अपनी सासजी के साथ लौट आया।
दरवाजे पर स्वागत करते हुए त्रिभुवन दासजी बोले-"आईये समधन जी।इसे अपना ही घर समझें।बेटा वन्या. जाओ माताजी को उनका कमरा दिखाओ।आज से ये यहीं रहेगी,हमारी बहन बनकर।"
वन्या की आँखों से खुशी के आँसू टपक पड़े।उसने पापाजी के पांँव
छुये।समधनजी की आँखों से भी अविरल आँसुओं की धार बह चली।
भीतर से नन्हीं वसुधा दौड़कर आयी,नानी...नानी..कह कर उनसे लिपट पड़ी। ****
- महेश राजा
महासमुंद - छत्तीसगढ़
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बाबा की लाडली
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मीरा जल्दी-जल्दी घर के सारे काम निबटा रही थी। उसे चश्मे की दुकान से बाबा का चश्मा लेकर उनके पास जाना था। उसका मायका ससुराल से बहुत दूर ना था। अम्मा के जाने के बाद उसकी कोशिश रहती थी कि जल्दी से अपने घर का सारा काम निपटा कर एक बार अपने बाबा का हालचाल ले ले ।जब भी वह अपनी सास से बोलती कि वह जरा बाबा को देखकर आती है तो उसकी सास ताना मारती," चली बाबा की लाडली की सवारी"। जब वह वहाँ पहुंचती तो उसका भाई बोलता ,"आ गई बाबा की लाडली की सवारी"। मीरा इन सारी बातों को नजरअंदाज कर देती। उसके लिए सर्वोपरि था अम्मा को दिया हुआ वचन, वह उनके जाने के बाद अपने बाबा का ध्यान रखेगी ।उसकी भाभी को उसके आने से कोई परेशानी नहीं थी ।वह जब भी आती, बच्चों और घर के कामों में उलझी अपनी भाभी की मदद कर देती थी।
पिछली बार जब वह गई थी तो उसकी भाभी बाबा की शिकायत कर रही थी, "पता नहीं पिताजी को क्या हो गया है? बाजार से कुछ भी मंगाती हूँ तो उल्टा पुल्टा उठाकर ले आते हैं।"
मीरा के कान खड़े हो गए। वह दौड़कर बाबा के कमरे में गई। देखा, बाबा चुपचाप बैठे शुन्य में निहार रहे हैं ।बाबा को पढ़ना बहुत पसंद था। उसने देखा टेबल पर किताबें पड़ी है ,उन पर धूल जमी हुई है। एक तरफ अखबार भी बिना खुले पड़ा हुआ है ।आखिर बाबा को हुआ क्या है? वह चिंतित हो गई ।तभी उसकी भाभी अंदर आई।बोली," देखो दीदी ,पिताजी एक्सपायरी दवा उठा कर ले आए हैं।"
बाबा तो हर चीज को अच्छे से देख कर उसके निर्माण का डेट को परख कर ही खरीदते थे। वह मुस्कुरा उठी। उसे अब सब कुछ समझ में आ गया था।वह बोली," भाभी, मैं थोड़ा बाबा को लेकर बाजार से आती हूँ।"
वह बाबा को लेकर आँख के डॉक्टर के पास गई। चश्मे का पावर काफी बदल गया था। जिस कारण उन्हें ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। "बाबा, जब लेंस बदल रहा है तो नया चश्मा भी ले लेते हैं।"..... वह बोली।
बाबा खुश हो गए। उन्होंने गोल्डन फ्रेम वाला चश्मा पसंद किया। चश्मे वाले ने 2 दिन बाद चश्मा लेने के लिए बुलाया।
मीरा जब दुकान पर पहुँची तो चश्मा तैयार था। वह उसे लेकर मायके पहुंची । बाबा बाहर ही उसका इंतजार करते हुए मिल गए ।उसे देखते ही उन्होंने झट से उसके हाथों से चश्मा ले लिया और खोलकर पहन लिया।
" बाबा ,कैसा दिख रहा है?"
" एकदम चकाचक।".... खुश होते हुए बाबा बोले।
" बाबा अपनी तकलीफ भाई को बताया कीजिए।"..... वह बोली।
" मुझे अच्छा नहीं लगता।"
" आप नहीं बताएंगे तो उसे पता कैसे चलेगा।"
" तुझे कैसे पता चल गया?...... वह बोले।
बाबा की लाडली निरूत्तर खड़ी थी।
- रंजना वर्मा उन्मुक्त
राँची -- झारखंड
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कुर्सी
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"मम्मी,आज मैं इस कुर्सी पर बैठूंगा.!"
सात वर्षीय यश ने कुर्सी पर बैठते हुये अपनी मां से कहा
"नहीं बेटा,इस कुर्सी पर तुम्हारे पापा बैठगें, यह कुर्सी हेड ऑफ द फैमिली का है,जो घर का बडा होता है,वह इस पर बैठता है.!"
"अच्छा,यह बात है ठीक है.!"
बोलते हुए यश अपने दादाजी के कमरे की ओर भागा,यश के दादाजी अपने पलंग के सामने रखे स्टूल पर खाना आने का इंतजार कर रहे थे।
"दादाजी-दादाजी..चलिये आज से आप यहाँ नहीं वहाँ बैठ कर खायेगें.!"
"नहीं बेटा.. रहने दो.. मैं रोज यही बैठ कर खाता हूँ..!"
"नहीं दादाजी..आज से आप यहाँ नहीं खायेगें, उठिये न..चलिये.!"
वह जिद करने लगा,उसने दादाजी का हाथ पकडा और ले जाकर उस कुर्सी पर बिठा दिया और बोला,
"दादाजी,यह कुर्सी हेड ऑफ द फैमिली की है..इस घर के हेड ऑफ द फैमिली तो आप है.. आज से आप इस कुर्सी पर बैठ कर खायेगें..है न मम्मा.!"
यह देख कर यश के माता-पिता का सर लज्जा से झुक गया.. दादाजी के आँखों से आँसूँ बरस रहे थे........।
- डॉ.विभा रजंन (कनक)
नई दिल्ली
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आंह - वाह
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शांतिदेवी ने आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस वृद्धाश्रम की महिलाओं के साथ खूब धूमधाम से मनाया खाना खजाना, गाना बजाना ,भजन कीर्तन और भी बहुत कुछ, वहां निवासरत महिलाएं भूल चुकी थी कि वे वृद्धाश्रम में रह रही हैं एक खुशनुमा माहौल, सभी के मध्य प्रसन्नता की बयार शाम पांच बजने पता तब चला जब बाहर कार का हार्न बजा , हार्न सुन शांति देवी सभी से पुनः आने का वादा कर सस्नेह हाथ जोड़ विदा लेते हुए जैसे ही बाहर जाने को मुड़ी तभी एक वृद्ध महिला की व्यथा जुबान पर आ ही गई -
' दीदी ! आप बहुत किस्मत वाली हैं जो आप को ऐसा बेटा मिला काश ! हमारे बेटे भी ऐसे ही होते तो हमें भी आश्रम का मुंह नहीं देखना पड़ता '
जवाब में सांत्वना भरे शब्दों में शांति देवी बोली -
' बहन जी ! आप निराश मत होइये यह मेरा बेटा नहीं दामाद है' ****
- मीरा जैन
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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एकांत का दंश
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“छोटका बाबूजी फिर से अकेले हो गए... दूसरी छोटी माँ भी हमारा
साथ छोड़ गईं मुनिया।” बड़े भैया से फ़ोन पर सूचना सुन, सोच में
गुम हो गई मुनिया। छोटका बाबूजी ने दूसरी शादी क्यों की, उसके समझ में कभी नहीं आ पाया...।
"जबकि उनको हमलोग छ: बच्चे, चार बेटे और दो बेटियाँ थीं। उन्हें क्या जरूरत आन पड़ी थी? फिर हमलोगों को पूछा तक नहीं, और तो और छोटी माँ के घरवालों को हमारे बारे में बताया तक नहीं...!" मुनिया के चचेरे भाई कौशल की बात; दादी को जब अपने बेटे के बारे में सुनकर बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह चीख पड़ी, “उसने कोई गलत नहीं किया...। तुमलोगों की माँ के गुजर जाने के बाद वो नितांत अकेला हो गया था...। तुमलोग अपने-अपने कामों एवं गृहस्थियों में व्यस्त थे...। उसको देखने वाला कौन था ? तुमलोगों ने कभी भी यह सोचा?”
जीवन की सच्चाई सुनकर सबलोग चुप रहे... तभी दादी ने उस दिन का अख़बार सामने करते हुए कहा, “यह समाचार आज का ही है पढ़े हो – एक वृद्ध बाप को उसके बच्चों ने मिलकर वृद्धाश्रम में पहुँचा दिया।”
यह पढ़ कर सबके चेहरे पीले पड़ गए। और सभी ने एक स्वर से
कहा था, “दादी! अबसे उनकी खुशहाली की जिम्मेदारी हमारी होगी।” *****
- विभा रानी श्रीवास्तव
- पटना - बिहार
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वैकुंठ
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सब्ज़ी का थैला ,दूध और फलों का थैला पकड़ाते हुए नारायण जी ने पत्नी से कहा “देख लो अलग से फल लाया हूँ, धुले हुए थैले में तुम्हारे ठाकुर जी के लिए और हाँ आज बढ़िया मालदा आम मिल गए...एक फाँक मुझे भी देना...तुम भी एक फाँक ही खाना।कभी -कभी खाने से शुगर नहीं बढ़ेगा।”
“बहुत अच्छा किया जो आम ले आए”
“कच्चा आम नहीं लाए आचार डालना था?”माधुरी जी ने पूछा।
“हाँ! हाँ !लाया हूँ...।”
शाम होते होते नारायण जी बुख़ार से तप रहे थे।
माधुरी जी ने पैरासिटामोल की दवाई दे दी थी लेकिन बुख़ार उतरने का नाम नहीं ले रहा था।
सौरभ बेटा,रीमा बहू,सीमा बेटी -दामाद सब विडियो कॉल करके ढाँढस बँधा रहे थे।डॉ ने ठंडी पट्टी रखने को बोला था।रात भर पट्टी रखने पर सुबह बुख़ार उतर गया।सौरभ बेटा भी शाम के फ़्लाइट से आने का जुगाड़ कर रहा था लेकिन फ़्लाइट रद्द हो गई।माधुरी जी अब घबराने लगी थी क्योंकि नारायण जी को बुख़ार फिर चढ़ गया था साँस लेने में भी दिक़्क़त होने लगी थी।सभी फ़ोन पर हिदायत दे रहे थे।
सौरभ फ़ोन करके बोला -मम्मी!”कैब भेज रहा हूँ।संजीवनी हॉस्पिटल में डॉ कमल से बात हो गई है।वहाँ पापा को भर्ती करवा दीजिए।मैं कोशिश कर रहा हूँ जल्दी आने का...।”
माधुरी ने ज़रूरी चीजें ब्रश ,चार्जर,तौलिया,आदि सब एक थैले में रख लिया।नारायण जी को सहारा देकर गाड़ी में बैठा कर अस्पताल पहुँच गई।डॉ कमल भी आ गए थे अस्पताल का मंज़र देख दोनों के होश उड़ गए।पैर रखने की जगह नहीं थी।ज़मीन पर ,गलियारे में हर तरफ़ चीख पुकार,कराहते मरीज़।
एडमिट कराने की प्रक्रिया पूरी हो गई थी नारायण जी की साँसें उखड़ रही थी।नर्स व्हीलचेयर पर बैठा कर बेड तक ले गई।डॉ कमल ने बोला जल्दी ऑक्सीजन लगाओ इनको...तभी नारायण जी की नज़र उस नवविवाहिता पर पड़ी जो डॉ के पैर पड़ रह थी “प्लीज़, मेरे पति को बेड दे दो।ज़मीन पर ही लिटा कर ऑक्सीजन लगा दो...।”
नारायण जी हाँफते हुए माधुरी को बोले “चलो घर चलो “और डॉ कमल को बोले “मेरा बेड इस नौजवान को देकर जल्दी ऑक्सीजन लगा दीजिए-मैंने तो अपना जीवन जी लिया है।” इसमें मुझे सौरभ दिख रहा जिसका इंतज़ार इसके माँ बाप कर रहे होंगे।घर पर ही रहकर मैं सुकून से वैकुंठ धाम जाऊँगा।” ****
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
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स्पष्टीकरण
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"आज क्या खाया?"
"आज तो सूखी सब्जी थी,आलू प्याज की,और वही दाल रोटी और थोड़े से चावल!"
"ओह ,थोड़े से चावल!तुम्हे तो ज्यादा चावल खाने की आदत थी न,खैर ।"
"और आपने?आपने क्या खाया?"
"आज तो मज़ा आ गया खाने में!बहुत दिनों बाद चटखारे लेकर खाया,"बोलते मुख में पानी भर आया,"रस मलाई,मटर पनीर की सब्जी ,फ्राइड राईस, मसालेदार दाल, और टेस्टी पूड़ियाँ!वाह"फिर बोलता स्वर एकाएक उदास हो उठा,"शायद कोई मेहमान आए हुए थे आज।"
उक्त वार्तालाप ,उपेक्षित हालात के मारे बुजुर्ग दंपती का है जो किसी होटल या पार्टी में नही , घर से दूर रोज़ ,अपने दो जवान बेटों के घर, खाना खाने जाते हैं।अलग-अलग घरों में ,एक अलिखित अनुबंध के तहत! ****
- संतोष सुपेकर
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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बर्फी की मिठास
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"ये तिल लाया हूँ। बर्फी बना लेना।" अरविंद ने तिल का पैकेट रखते हुए कहा।
"मुझे कहाँ आती है बर्फी बनाना। प्रसाद के लिए बाजार से बनी बनाई ले आते, झंझट खत्म।" मीरा खीज कर बोली।
"क्या करूँ दुकानदार ने जबरन पकड़ा दिए। इंटरनेट पर देख लेना बहुत सी विधियाँ मिल जाएँगी बर्फी बनाने की। इंटरनेट सबका गुरु है।" अरविंद बोला और ऑफिस के लिए निकल गया।
मीरा ने तीन-चार विधियाँ देख लीं लेकिन कुछ समझ नहीं आया। ठीक नहीं बनी या बिगड़ गई तो तिल बेकार हो जाएंगे। तभी पड़ोस की काकी का ध्यान आया। काकी से पूछकर बनाउंगी तो बिगड़ने पर पूछ तो पाऊँगी कि अब क्या करूँ। पर आज तक तो कभी उनके पास जाकर बैठी नहीं अब अपने काम के लिए जाना क्या अच्छा लगेगा। लेकिन कोई चारा नहीं था तो पहुँच गयी।
"अरी बिटिया आओ-आओ।" काकी उसे देखते ही खिल उठी।
"वो काकी मुझे तिल की बर्फी बनानी थी। क्या आपके पास समय होगा जरा सा" मीरा ने संकोच से पूछा।
"हाँ क्यों नहीं बिटिया अभई चलकर बनवा देत हैं। उ मा कौन बड़ी बात है।"
काकी सर पर पल्लू देती हुई तुरंत चली आयी मीरा के साथ। तिल की बर्फी बनाते हुए तिल के और भी न जाने कितने व्यंजन और यादें सुना दी काकी ने। मीरा देख रही थी कि काकी अनुभव और ज्ञान का जैसे खजाना है और वो अब तक पड़ोस में रहते हुए भी इस खजाने से वंचित रही। काकी से बात करते हुए कितना कुछ सीख सकती थी वो अब तक।
जरा सा अपनापन और मान देते ही स्नेह का झरना फूट पड़ा उनके हृदय से। आभासी गुरु में यह स्नेह, यह आत्मीयता, जीवंतता कहाँ मिलती है भला।
"ये लो बिटिया। बन गई तोहार तिल की बर्फी।" उनके पोपले मुँह पर प्रसन्नता और संतुष्टि थी।
मीरा चकित थी दूसरे की मदद करके इतनी खुशी भी हो सकती है किसी को।
"अब आप आराम से बैठिए काकी। मैं चाय बनाती हूँ। कितना कुछ सीखना है आपसे अभी।"
काकी के पोपले मुख पर छाए स्नेह के भावों की मिठास ने मीरा को तृप्त कर दिया। अब जो भी सीखना है, इसी जीती जागती गुरु से ही सीखूंगी। ****
- डॉ विनीता राहुरीकर
भोपाल - मध्यप्रदेश
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ज्ञान ज्योति
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उनकी दीवाल घड़ी पर नज़र बार- बार चली ही जाती है, सुबह होते ही लगता है कि कालेज की ओर चल पड़ेंगे।अवकाश प्राप्त प्रोफेसर हैं, परंतु मन बैचेन हो उठता है।
सौरभ ने देखा सैर से दादाजी वापस आ गए हैं, सौरभ कापी किताब लेकर दादाजी के पास आकर पढ़ने बैठ जाता है।
"दादाजी आपका तो हर सब्जेक्ट स्ट्रांग है मुझे भी आपके जैसा गणितज्ञ बनना है।"
दादा जी एक बात कहूँ, "मैंने कमला आंटी के बेटे को कचरे से टूटी पेंसिल उठा कर फर्श पर लिखते देखा, उसकी पढ़ाई में रुचि देखकर मैंने उसे अपनी पुरानी कापी से पेज निकाल कर एक कापी बना कर उसे पेन के साथ लिखने के लिए दे दी है। आपकी आज्ञा हो तो उसे अंदर बुला लूँ बाहर खड़ा है। आप पढ़ा देंगे ना मेरे प्यारे से दादू।"
" बुला लो जल्दी से।"
शरमाया हुआ दीपक अंदर घुसा तो प्रोफेसर साहब को लगा की ज्ञान की एक और ज्योति प्रज्ज्वलित हो गई।
- अर्विना गहलोत
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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कचरा
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प्रतिदिन गली में आने वाली स्वीपर प्रत्येक घर के सामने झाड़ू लगाते हुए अपना निर्धारित वाक्य दोहराती- " आंटीजी, कचरा" तथा प्रत्येक घर उसका आशय जान उसकी हाथ-ट्राली में कचरा डाल देते, परन्तु मेरे पड़ोस में जब भी वह आती तब उसके वाक्य में परिवर्तन हो जाता-" दादाजी, कचरा" क्योंकि दादाजी प्रतिदिन उसी समय अपने घर के आंगन तथा आसपास की सफाई कर कचरा डस्टबिन में डालते, फिर उस स्वीपर की हाथ-ट्राली में ।
आज भी दादाजी व्यस्त थे तथा उनकी बहू दरोगा की माफिक बरामदे में खड़ी अपने ससुरजी की गतिविधियों को देख रही थी । जैसे ही स्वीपर ने "दादाजी कचरा" कहा वैसे ही उन्होंने उससे प्रश्न किया -" तुम मुझे इस ट्राली में कहां डालोगी ?"
स्वीपर ने कहा- " क्यों मजाक करते हैं दादाजी....।"
"तुम ही तो रोज कहती हो दादाजी कचरा ।"
"वो तो दादाजी .... मैं कचरा मांगती हूं ।"
"नहीं बेटा, मैं तो अब रोज कचरा होता जा रहा हूं...।"
दादाजी की बात को वह तो हंसी-ठिठोली समझ आगे बढ़ गई । और बहू उनके आशय को समझ नाराजगी प्रकट करती, घर के अन्दर । ****
- मनोज सेवलकर
इन्दौर - मध्यप्रदेश
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सांझ की व्यथा
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राधा उठना चाह रही थी पर शरीर साथ नहीं दे रहा था। श्यामा से मिलने को मन बैचेन था। अपने आप को इतना असहाय तो कभी महसूस नहीं किया था।
श्यामा का जन्म उसके ही सामने तो हुआ था श्यामवर्ण माथे पर सफेद तिलक बड़ी-बड़ी मोहक आंखों ने सचमुच मन मोह लिया था। राधा ने श्यामा को कभी भी गाय नहीं माना था,राधा तो श्यामा की मां थी और श्यामा राधा बच्चों की मां। श्यामा का खाना पीना और दुलार राधा की दिनचर्या का अभिन्न अंग था। बच्चे भी राधा की हिदायत के कारण आज भी उसे श्यामा न कहकर श्यामा मां ही कहते हैं। नाती पोतों ने भी श्यामा का दूध चखा है।
पर अब श्यामा दूध नहीं देती बेटे को उसको खिलाना अखरने लगा है। पहले तो राधा वाॅकर की सहायता से आंगन तक पहुंच जाती थी और श्यामा की पीठ सहलाकर दोनों ही खुश हो लेती थी। अब आंगन में किसी और का कब्जा है। पोता गोलू कह रहा था "दादी पापा श्यामा मां को कहीं भेजने वाले हैं।" सुनते ही मन चीत्कार उठा "कहीं कसाई को...."
"नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।"
"बेटा, गोलू जो कह रहा क्या वह सच है।"
"हां मां।"
"बेटा अब तो उसकी खुराक भी कम हो गई है रहने दो न उसे यहीं।" मिन्नत भरे स्वर में
"जगह ख़ाली होगी तभी तो दूसरी गाय आ पाएगी।"
"लेकिन बेटा तुम उसका दूध पीकर ही बड़े हुए हो।" मनाने की एक और कोशिश करते हुए
"उसी दूध के कर्ज के कारण कसाई को नहीं दे रहा हूं, गौशाला भेज रहा हूं। वहां इसकी अच्छे से देखभाल हो सकेगी और खाना भी भरपेट मिलेगा।"
मां को उदास देख
"अरे! मां मैं कभी कभी उसे देख भी आया करुंगा।"
बुढ़ापे का ऐसा हश्र सोचते ही मृतप्राय अंग में भी सिरहन दौड़ उठी।
"श्यामा ने तो दस साल दूध पिलाया है और मैंने तो सिर्फ एक साल।" सोचते ही मन अनजानी आशंका से घिर उठा।"
- मधु जैन
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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मुक्ति
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'नहीं मनाऊँगी विवाहव की पचासवीं वर्षगांठ।' दृढ़ निश्चय किया सुलभा ने।
घर में तैयारी चल रही थी। मेहमानों की लिस्ट बनाई जा रही थी। आखिर सुलभा ने पति से पूछ ही लिया,"यह सब किसलिए?"
"हमारे विवाह की स्वर्ण-जयंती।"श्रीकांत ने कहा।
"यानि,आधी सदी से मैं आपकी हर नाजायज़ बातें झेलते-झेलते बूढ़ी हो गई।इसे सेलिब्रेट करना चाहते हैं आप?"सुलभा माथे पर झूलती बालों की सफेद लट को दिखाते हुए बोली।
"बूढ़ा नहीं हुआ मैं। कुछ हसरतें बाकी हैं।लोग आयेंगे, खुशी मिलेगी।"श्रीकांत निमंत्रण पत्र पर नाम लिखते हुए बोले।
"अठारह बरस की उम्र में ब्याह कर लाते थे आप मुझे।तब से लेकर अब तक आपने मेरी भावनाओं के साथ खेला, मुझे शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी। मैं खामोशी से सब कुछ सहते हुए रिश्ता निभाती रही।अब खुशी किस बात की?"सुलभा ने पूछा।
"अब भूल भी जाओ उन बीती बातों को।"
श्रीकांत की बात सुनकर सुलभा बिफ़र गई।"अपनी हसरतें पूरी करने के लिए आप मुझे भावनात्मक रूप से जो झिंझोड़ते रहे, उनकी सिलवटें बाकी हैं मेरे मन में। क्या उन यादों से मुक्ति मिल सकेगी मुझे इस स्वर्ण जयंती समारोह में?"
श्रीकांत क्या कहते? पत्नी को अर्धांगिनी माना ही नहीं कभी।
- शील निगम
मुम्बई - महाराष्ट्र
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घोंसला
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एक चिड़िया ने प्रियांश जी के घर के कोने में रखी अलमारी पर अपना घोंसला बना लिया, उसमे दो अंडे दिये। कुछ समय बाद अंडों में से दो प्यारे बच्चों का आगमन हुआ।
रविवार को प्रियांश जी के दोस्त संतोष जी आये। बात करते हुए उनकी नजर घोंसले में खेल रहे चिड़िया के दोनों बच्चों पर गयी। खेलते हुए दोनों जोर जोर से चीं चीं करने लगे, शायद वे झगड़ रहे थे। अपने बच्चों का शोर सुन चिड़िया आयी, उन्हें दाने खिलाये, बच्चे शोर मचाने को छोड़ खाने लगे।
संतोष जी ने प्रियांश जी से कहा," यार, इस घोंसले को अपने यहाँ से हटवाते क्यों नहीं, क्या इस शोर से तुम्हे सिरदर्द नहीं होता?" प्रियांश जी ने कहा," कैसे हटा दूँ संतोष? जब से इस चिड़िया ने यहाँ बच्चों को जन्म दिया, मेरा सूना घर एक बार फिर आबाद हो गया। इन्होंने मुझे चीनू व मीनू का बचपन याद दिला दिया, वे भी ऐसे ही शोर मचाया करते थे, तब तुम्हारी भाभी विमला भी इस चिड़िया के जैसे ही उन्हें चुप कराती थी। अब वे पढ़ लिखकर काम के सिलसिले में अलग अलग जगह जाकर बस गये। कहते कहते प्रियांश जी के चेहरे पर उदासी के बादल छा गये, आँसुओं की बूँदाबाँदी भी होने लगी, जब बादल कुछ छँटे तो उन्होंने दोस्त से दु:ख साझा करते हुए कहा कि और एक वजह है जिससे मैं घोंसला नहीं हटा रहा। संतोष जी ने पूछा कि क्या वजह है? प्रियांश जी ने कहा," एक दिन यह चिड़िया भी बूढ़ी हो जायेगी, उसके बच्चे भी बड़े होकर अपनी राह चल देंगे। तब चिड़िया और मैं अपने घर में रहकर अकेलेपन में एक दूसरे का सहारा बनेंगे।"
- दर्शना जैन
खंडवा - मध्यप्रदेश
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बुजुर्ग जीवन
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बाबूलाल काफी दिनो से घर से निकलनही रहा है। क्या बात है, विचारा अकेले है।आगे पीछे कोई होता तो शायद इसकी देखभाल करता।ऐसे ही बाते चौराहे में कुछ बुजुर्ग लोग आपस में चर्चा कर ही रहे तभी किसी ने आकर कहा बाबूलाल नही रहा। सभी लोग बाबूलाल के घर पहुचे और कहने लगें अच्छा हुआ कि चला गया।कब तक ऐसे ही जीवन यापन करता।पूरी जिंदगी इधर उधर करके काट लिया।बीमार भी था काफी दिनों से चलो अब दाह संस्कार की तैयारी करते है। और तैयारी करने तभी बूढ़े लाश को देखकर एक बुजुर्ग बात बात में कह ही डाला कि ये बुजुर्ग जीवन ही कुछ इस प्रकार का है। *****
- राम नारायण साहू "राज"
रायपुर - छत्तीसगढ़
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बुजुर्ग हमारे घर की शान
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रोहित अब बड़ा हो गया था। उसके जन्म के कुछ समय पश्चात ही किसी बीमारी के कारण उसकी माँ का देहांत हो गया था। उसे उसकी दादी ने पाला था।
रोहित की दादी 80 वर्ष की आयु में भी बड़े जोश के साथ जीवन जीती थीं। तब रोहित चौथी-पांचवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब रोज शाम को दादी उसे और उसकी बहन को अपने पास बिठाकर पूछती थीं कि "आपबीती" सुनाऊं या "जगबीती"। उन दोनों भाई-बहन को दादी की आपबीती अच्छी लगती थी। क्योंकि वे सच्ची होती थीं।
रोहित के पिताजी चार भाई थे परन्तु दादी ने उसके माता-पिता के साथ रहना इसलिए पसन्द किया क्योंकि यहां पर उन्हें पूरा सम्मान मिलता था जबकि अन्य पुत्र-पुत्र वधुओं से दादी का मन खट्टा हो गया था। वे कहती थीं कि रोहित, तेरे ताऊजी और चाचाजी के यहां उन्हें रोटी तो मिल जाती है परन्तु सम्मान नहीं मिलता। जबकि उन्होंने दादाजी के जीवित रहते हुए कभी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया।
दादीजी अक्सर कहती थी कि बड़े-बूढ़े माल-पकवान नहीं चाहते परन्तु अपने छोटों से मान-सम्मान के भूखे होते हैं।
समय का चक्र घूमता रहा..... रोहित बड़ा और दादी बूढ़ी होती गयीं। लगभग 95 वर्ष की आयु में उसकी दादीजी का देहांत हुआ।
उन दिनों दादी अक्सर पूजा करते समय कहती थीं, "हे भगवान! अब तो मुझे अपने पास बुलाले।"
तब रोहित के पिताजी कहते थे, "मां! तुझे क्या दुख है जो ऐसा कहती है?"
दादी कहतीं कि बेटा! मुझे कोई दुख नहीं है यही सबसे बड़ा सुख है और 95 वर्ष की उम्र में, मैं इसी सुख के साथ चलती-फिरती भगवान के पास जाना चाहती हूं। वे प्रार्थना करती कि" भगवान किसी को भी न तो लाचारी वाला जीवन देना और न लाचार मौत।"
तब रोहित के पिताजी कहते थे कि, माँ! बड़े बुजुर्ग का तो बैठे का भी बहुत सहारा है।
दादीजी सभी बच्चों से कहती थीं, कि बुजुर्ग घर का मान-सम्मान होते हैं। अपनी वाणी अथवा अपने किसी कार्य से उन्हें कभी ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए।
दादीजी अनेक बातें, बातों-बातों में समझा देती थीं, जो कि संस्कार बनकर जीवन भर रोहित के साथ चलीं। ****
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखंड
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बुजुर्ग जीवन
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कामताप्रसाद जी भारत सरकार के एक कार्यालय से अभी दो -तीन वर्ष पूर्व ही बड़े बाबू के सम्मानजनक पद से सेवानिवृत हुए थे। आज उनके पास जीवन में सब कुछ था - मकान, वाहन, संपत्ति वगैरह और उनका लड़का भी अच्छे पद पर कार्यरत था लेकिन वह अपने परिवार के साथ किसी दूसरे शहर में रहा करता था। तमाम प्रकार के सुख होने के बावजूद कामता प्रसाद जी के जीवन में एकाकीपन था और इसके कारण वे अपने बुजुर्ग जीवन से दुखी थे। एक दिन जब वे सड़क पर यूं ही चलते चलते शहर के एक अनाथाश्रम के आगे से गुजर रहे थे तो उन्होंने वहां भीड़ देखी। कौतूहलवश जब वे अंदर गए तो उन्होंने देखा कि उन्हीं की उम्र के कई बुजुर्ग लोग वहां अनाथ बच्चों को कुछ न कुछ बांट रहे थे और इस प्रकार उन अनाथ बच्चों की खुशी देख खुद भी खुश हो रहे थे। यह दृश्य देख कामता प्रसाद जी को अपने एकाकी बुजुर्ग जीवन को गुलज़ार करने का रास्ता मिल गया और वे उन बुजुर्ग लोगों के समूह में शामिल हो गए।
- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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बुजुर्ग का एहसास
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प्रोफ़ेसर समर वर्मा विश्वविद्यालय के प्रख्यात प्रोफ़ेसर माने जाते थे और दिलचस्प इंसान भी ऐसा लगता था उनके व्यक्तित्व पर उम्र की कोई छाप बड़ी ही नहीं देखने सुंदर में सुडौल आकर्षक व्यक्तित्व अचानक एक सभा का आयोजन हुआ सभी विद्यार्थी पूछने लगे क्या है तो मालूम हुआ प्रो साहेब का आज रिटायरमेंट।
उन्होंने अपने रिटायरमेंट के भाषण में कहा आज लोगों ने मुझे यह एहसास दिला दिया है कि अब मैं बुजुर्ग हो गया हूं।
प्रोफेसर साहब घर आ गए घर में पत्नी के साथ कुछ दिनों तक उन्हें बड़ा जिंदगी आसान लगा जिंदगी का रूटीन ही बदल गया लेकिन कुछ दिनों के बाद दुखी मन से कहने लगे बच्चे सब उनके दो थे दोनों विदेश में नौकरी करते थे उनके पास घूमने के उद्देश्य से गए वहां का रहन सहन उन्हें पसंद नहीं आया और पुनः वापस इंडिया उनकी उम्र 80 की हो चुकी है मानसिक तौर पर बिल्कुल स्वस्थ है लेकिन एक अनोखी चिंता से ग्रसित है और अपने अनुभव में इस बात की चर्चा करते रहते हैं एक समय रहता है जब बड़ी शान से कहते हैं कि मेरे बच्चे विदेश में पढ़ने गए हैं नौकरी करने का और हम लोग यहां आराम से पर आज यह महसूस हो रहा है मैंने गलत निर्णय लिया मैंने ही बच्चों को प्रोत्साहित किया था विदेश जाने आज हम उनकी उपस्थिति से बहुत दूर हो गए अब महसूस होता है कि मेरे बच्चे अगर इंडिया में रहते तो हमारे लिए और उनके यह भी एक अच्छा परिवार साबित होते।
इसी चिंता में वह परेशान होकर बहुत बीमार हो गए पहले तो साल में एक बार आ जाता था अब उसकी भी बड़ी के हस्ती हो गई है जिम्मेदारियां बढ़ गई तो आने में थोड़ी मुश्किल होती है और यही चिंता उन्हें सताए जा रही है उन्होंने अपने आने वाली पीढ़ी को यह संदेश दिया कोशिश करना कि जहां माता-पिता हो जिस देश में हो बच्चों को भी उसी देश में रखना विदेश भेजने की आशा कभी न करना आज जो मेरा है कल उसका भी होगा इसलिए मैं आज की पीढ़ी को यह संदेश दे रहा हूं । *****
- कुमकुम वेद सेन
पटना - बिहार
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सुहानी साँझ
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खाँसी के कारण नींद नहीं आ रही थी, तो बिस्तर से उठ कर लीविंग रूम में चहल-कदमी करने
लगे। महानगर में वो खुले खुले दालान, सेहन कहाँ मिलते है। फ्लैट में तो बरांड़ा, हाल -रूम,
ड्राईंग-रूम सबका काम ये लीविंग-रूम ही देता है। दीनानाथ जी को कुछ सुकून था तो बस यही
कि वो अपने बेटा बहु के साथ थे। आज खांसीं कुछ ज्यादा ही परेशान कर रही थी। चहल-कदमी करते करते उन्हें बेटा नितिन व बहु नीरा के कमरे से दोनों की बात करने की आवाज सुनाई दी। अपना नाम सुन कर बरबस ही उनका ध्यान उधर चला गया। नितिन नीरा को कह रहा
था ---" बाऊ जी को सुबह वृद्ध आश्रम ले के जाना है। अब सो जाओ, सुबह जल्दी उठ कर तैयार हो जाना। मैं वहीं से आफिस चला जाऊँगा।" दीनानाथ जी के मन में जैसे कुछ दरक सा
गया था। सोचा बेटा-बहु के कहने पर वो अपना छोटा शहर छोड़ कर यहां क्यों चले आये ?
उन्हें अपना यहां आना ठीक नहीं लग रहा था।
क्या इसी दिन के लिये इंसान सारी उम्र मेहनत करता है। सन्तान की इच्छानुसार े उन्हें कामयाब करने को धनोपार्जन के लिये जी तोड़ मेहनत करते करते कब जीवन की साँझ आ घेरती है पता भी नहीं चलता। बच्चे मनचाही मंजिल वजीवन साथी पा दूर बसेरा कर लेते हैं। अकेलापन, उदासी व वृद्धावस्था की बीमारियां आ घेरती है। रिटायर्मैंट के कुछ बर्ष बाद ही पत्नी का देहावसान होने से दीनानाथ जी नितांत अकेले हो गये थे। अकेलापन दुस्सह हो गया था।
इन्हीं विचारों में खोये हुये रात बीत गई। थक कर वो बिस्तर पर लेट गये।
नितिन बाऊ जी के लिए चाय रख कर जल्दी तैयार होने को कह खुद भी तैयार होने चला गया। बाऊ जी तैयार होकर आए तो बहु नीरा नेपाली नौकर से गाड़ी में सामान रखवा रही
रही थी। दीनानाथ जी ने सोच लिया था कि वो उनका कुछ सामान नहीं लेंगे उनके अपने दो-चार जोड़े पुराने कपड़े ही बहुत हैं।सभी गाड़ी में बैठ चुके थे। रास्ते में पड़ने वाले मंदिर के बाहर सभी उतरने लगे तो वो भी अनमने मन से उतर गए।मन ही मन बुदबुदाय -- हुंह्ह्....मंदिर....।
एक फीकी सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर फैल गई। थोड़ी देर में सभी फिर गाड़ी में आ बैठे।
वृद्ध-आश्रम आ गया था। सभी उतरे, नीरा सामान उतरवाने लगी, नितिन मैनेजर के रूम की तरफ बढ़ गया। उदास मन बाऊ जी नितिन के पीछे पीछे चल पड़े। हृदय के दर्द ने बुढापे की चाल को और मंदा कर दिया था। उनके पंहुचते ही मैंनेजर ने खड़े होकर उनका स्वागत कर नमस्कार किया " जन्म दिन मुबारक हो दीनानाथ जी।" वो जब तक कुछ समझ पाते बहु व बेटे नितिन ने एक साथ आकर बाऊ जी के चरण स्पर्श किये-" जन्म दिन मुबारक हो बाऊ जी, आपकी छत्रछाया सदैव हम पर बनी रहे।" बूढ़ी आखों में जल भर आया। इस अप्रत्याशित खुशी से लड़खड़ा से गए वो गिर ही जाते यदि नितिन व नीरा स्फुर्ति से उन्हें सहारा
देकर कुर्सी पर न बिठाते।
मैंनेजर ने पानी का गिलास थमाया। पानी पीकर कुछ राहत सी मिली। कुछ देर पहले का दुखी मन फूल सा खिल गया था। उन्हें अब सुहानी सांझ का अहसास होने लगा था।
थोड़ी देर बाद वो अपने बेटा-बहु के साथ मिलकर साथ लाया सामान कपड़े, शॉल, फल व बुजुर्गों की जरूरत की दवाईयां बाँट रहे थे। ****
- राजश्री गौड़
सोनीपत - हरियाणा
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सन्नाटा
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"बेटा! बेटा,ओ!बहु..!
" सुनो उठो!,देखो पिताजी इतनी सुबह सुबह क्यों आवाज लगा रहे है..!"
"क्या हुआ पिताजी?..इतनी सुबह सुबह आप क्यों ,उठ कर हमारी नींद खराब कर रहे है..!"
"सुबह सुबह..?...बेटा घड़ी में तो सुबह के आठ बज गए..!"
"गांव में तो चार से पांच में ही लोग जग जाते है..!"
"यहां अभी सुबह नहीं हुई...?"
"पिताजी !..ये महानगर है कब सुबह होती है कब शाम होती है और रात का तो पता ही नही होता....होता भी है या नही..!"
"वैसे आप आवाज क्यूं लगा रहे थे बताईए,कुछ चाहिए आपको ..?
"नहीं बेटा !बस जग गया तो अकेले मन नही लग रहा था...सो सोचा तुम्हारे संग कुछ देर बैठ लेंगें...!"
"ओह पिताजी..!क्या आप भी आराम करिए और हमें भी करने दिजिए....!"
"अब आपको आदत डालनी होगी यहां के माहौल के अनुसार..!"
"बेटा..!इस सन्नाटे को आदत बना लूं..?
" यहां इतनी भीड़ है फिर भी किसी को कोई नही जानता पहचानता..!
"सिर्फ चेहरे ही है सब..!" *****
- सपना चन्द्रा
कहलगाँव - बिहार
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ताराचन्द जी अब सौ की उम्र पार कर चुके थे। उनकी पत्नी लगभग 4 बरस पहले स्वर्ग सिधार चुकी थी। दोनों ने एक खुशहाल जीवन व्यतीत किया था। उनके 6 पुत्रो और 3 पुत्रियाँ थी। ताराचन्द जी के पुत्र और पुत्रियां धीरे-धीरे यौवन को प्राप्त हुए। अब शैन शैन ताराचन्द जी सबके विवाह करने लगे। इन सबकी बहुत सारी संतान देखकर ताराचन्द मन ही मन फ़ूले न समाते थे। आखिर वो सब पौते-पौती, नाते-नातिन ही तो उनके घर की रौनक थे। ताराचन्द जी जानते थे कि मेरे बुढ़ापे में मेरे पौते-पौती मेरे पास समय व्यतीत करेंगे जिससे मेरा बुजुर्ग जीवन भी उसी प्रकार से आसानी से कट जाएगा जिस प्रकार मेरे बच्चे अपने बचपन में मेरे साथ हर पल साथ रहते थे या मेरे पौते-पौतियो या नाते-नातिन के साथ मेरे बच्चे देखभाल करते थे।
ताराचन्द जी सोचते थे कि जितना प्यार मैने अपने बच्चों और उनके बच्चों को दिया, जिंदगी के कुछ पलो में मुझे भी जरुर मिलेगा। परंतु जो बच्चे उन्होंने बड़े प्यार से पाले थे और संस्कारी बनाए थे, आज अपने पिता को ही बोझ समझने लगे। नाते- नातियो को तो समय ही नहीं था अपने नाना से मिलने का। पिता द्वारा अपने पिता के साथ अच्छा व्यवहार न देखने के कारण पौते भी अपने दादा को आफ़त ही मानते थे।
कहते है कि आप जो कुछ भी करते है वो लौटकर आपको वापस मिलता ही है और ये ही हुआ इनके जीवन के साथ भी। बड़े पुत्र ने जिम्मेदारी निभाते हुए अपने बुजुर्ग पिता को अपने घर में रुकने की विनती की। बुजुर्ग जीवन था, क्या करते बेचारे, मान गए। अब पौतो की शादियाँ भी हो चुकी थी और घर में बहुएं आ चुकी थी। शुरु में तो बहुओं को सेवा करने में अच्छा लगा किंतु बुजुर्ग जीवन की मार झेल रहे ताराचन्द जी चाहते थे कि एक व्यक्ति उनके पास अवश्य बैठे, आखिर अकेलापन काटने को जो दौड़ता था। बार-बार आवाज लगाने से बहुएं परेशान हो चुकी थी और कई बार उनकी बातें भी अनसुना कर देती थी। किंतु बुजुर्ग जीवन है, एक छोटे से अबोध बालक की भाँति होता है जिसका हर पल ध्यान रखना और उसकी हर बात सुनना ही होता है, चाहे आपका मन हो या ना हो।
- विभोर अग्रवाल
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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इज्जत की जिंदगी
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"हाँ मैंने चोरी की है,मैं मानता हूँ।पर आज पकड़ा गया हूँ।इसका मुझे कोई मलाल नहीं है।"
"कड़े लहजे में दरोगा साहब बोले,"वाह!अंकल चोरी और सीना जोरी।शर्म आनी चाहिए इस उम्र में,अपने ही घर में चोरी करते हुए।"
दरोगा साहब,"अपना घर ! अपना घर कहाँ ? ये घर तो मेरे लिए तीन महीने पहले ही पराया हो गया था,जब मैंने अपनी सारी प्रोपर्टी अपने बेटे के नाम कर दी थी। प्रोपर्टी नाम होते ही बहू और बेटा इतने बदल गए हैं कि मेरे साथ पागलों जैसा व्यवहार करने लगे हैं और अब मुझे वृद्धाश्रम छोड़ने की बात कह रहे हैं।"
"इसलिए दरोगा साहब बीते कई दिनों से मैं 100-200 रूपयों की रोज चोरी करते आ रहा हूँ ताकि घर से निकालने पर मैं आश्रित न बनकर खुद का कुछ कार्य कर सकूँ और दर-दर भटकने की बजाय मैं इज्जत की जिंदगी जी सकूँ।"
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- राकेशकुमार जैनबन्धु
सिरसा - हरियाणा
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काकी खुश
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वादा तो किया था बेटे ने, मां जल्दी ही आऊंगा।
पर दो साल बीते वह जल्दी का इंतजार आज भी करती थी। बूढ़ी काकी ने अब यथार्थ को समझ लिया।
सुबह शाम पार्क में बच्चों के साथ खेलती।
पारिवारिक पेंशन तो मिल ही रही थी। काकी ने अपने पास एक कमरा रखकर बाकी दो कमरे किराए पर दे दिए।
किराएदार से ही कह दिया,बेटा सुबह शाम नाश्ता खाना तुम्हारे ही साथ रहेगा मेरा।जब तक जी चाहे रहो मेरे साथ। किराएदार खुश, उसके बच्चों को काकी का साथ मिल गया,और काकी भी खुश अकेलापन मिट गया। ***
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर उत्तर प्रदेश
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अहसास
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रामलाल अपने परिवार का अकेला पुत्र था, जैसे-तैसे होनहार निकला, शिक्षक की नौकरी ग्राम पंचायत के स्कूल में मिली, अपने गुणों से ग्राम स्तर पर बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करवाने लगें। रामलाल के पिता जी अभी जीवित थे, उनकी पत्नी का पूर्व में ही निधन हो गया था। अपना एकाकी जीवन जैसे-तैसे चला रहे थे। पुत्र-वधु आने के आने के बाद से घर का परिदृश्य बदल गया था, क्योंकि कुछ दिनों तक सब ठीक-ठाक चल रहा था, जैसे-जैसे रामलाल के पिता जी वयोवृद्ध होते जा रहे थे और एक दिन बिस्टर पकड़ लिया, तब उन्हें अपनी पत्नी का अहसास हुआ, वह रहती तो पूर्ण रूपेण सेवा करती? रामलाल पूरे दिन स्कूल में रहता, उसकी पत्नी, पिता जी की सेवा तो कर रही हैं, इसलिए बेफ्रिक था? उसकी पत्नी रामलाल के जाने बाद, दिन भर टीवी और मोबाईल, फेसबुक में बिजी रहती। उसके पिता जी की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं था, उनकी तबीयत दिनों दिन नाजुक होते जा रही थी। रामलाल के आने बाद उसकी पत्नी सामने-सामने सेवा करती थी। रामलाल के पिता जी को अंतिम समय याद आते गया, उन्होंने भी अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में सेवा नहीं करते हुए, वृद्धाश्रमों में भिजवा दिया था। उसी का परिणाम प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जो उनके साथ भी घटित हो रहा हैं। एक कहावत चरित्रार्थ हैं, -"जैसा कर्म करोगे तो, वैसा ही फल भोगेगा"। अपने बुजुर्गों के जीवन के बारे में सोचते-सोचते,स्वयं लाचार-अहसास सा होकर, स्वर्गवासी हो गये.....। ****
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर"
बालाघाट - मध्यप्रदेश
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इन्तजा़र
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एलिना के दो बच्चे थे। एक बेटा व एक बेटी दोनों शादीशुदा विदेश
में बस गए थे। पति की मृत्यु के बाद वह नितान्त अकेली रह गई थी। बच्चों को उसकी कोईपरवाह नहीं थी। एक दिन अचानक वह काफी बीमार पड़ गई।
पडो़सियों ने उन्हें फोन पर कहा
कि तुम्हारी माँ काफी बीमार है।वह तुम लोग को देखना चाहती है। अगले हफ्ते क्रिसमस है वह मिल कर सेलिब्रेट करना चाहती है। आप लोग जल्द आ जाओ ।
उनका जवाब आया हमारा आना
मुश्किल है। आप सभी उनके साथ मिलकर मना लेना।
इतना सुनते ही एलिना यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई और हमेशा के लिए इस बेरहम दुनिया से अलविदा कह गई मगर उसकी
आँखें अभी भी बच्चों के आने के
*इन्तज़ार* में खुली रहीं। आखिर
वह माँ जो थी। ****
- डाः नेहा इलाहाबादी
दिल्ली
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नैमत
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कोरोना महामारी में जब लॉकडाउन लगा तो मीना ने सोचा कि चलो अच्छा समय मिला है परिवार के साथ बैठने, बातें करने, मस्ती करने का। लेकिन किसी के पास समय नहीं था। बेटे बहू वर्क फ्रॉम होम में और पोते पोती चेटिंग में व्यस्त रहते। थोड़े दिनों में उसे बेचैनी होने लगी।
एक दिन मीना को बैठे बैठे पुरानी सहेलियों की याद आने लगी। उसने जैसे तैसे उनके फोन नंबर ढूँढ कर सबसे बात की व "हम सखियाँ" नाम से ग्रुप बनाया। फिर उसने सखियों को अपना व परिवार का फोटो डालने को कहा और साथ ही एक फोटो कुछ करते हुए डालने को भी कहा।
पहले तो सबने कहा कि अरे, साठ पैसठ साल की उम्र में कहाँ फोटो खींचे, अब वो पहले जैसी बात नहीं रही ।फिर मीना के यह कहने पर कि हम सभी के एक से हाल हैं और देखने वाले हम सहेलियाँ ही तो हैं, सबने खूब अच्छे अच्छे फोटो डाले।देखकर खूब मजा आया। अगले दिन मीना को अपनी सहेली निशा के बेटे का फोन आया तो उसके शब्दों से आंखें भर आयी। वह बोला," मौसी, आपने तो जादू कर दिया। पापा के जाने के बाद मम्मी एकदम उदास रहने लगी व खुद को बस अपने कमरे में कैद कर लिया। आपका फोन आया तो बात कर बड़ी खुश हुई। और जब मैंने फोटो भेजने की बात कही तो बोलीं 'रूक जा' और फिर बहुत दिनों बाद इतने अच्छे से तैयार होकर आईं और कुछ करते हुए फोटो डालने के लिए बोली 'चल मैं आज चकली बनाती हूँ, मीना को बहुत पसंद है। और मौसी, कईं दिनों बाद आज चौके में आकर इतनी तन्मयता से चकली बनायी व फोटो खिंचवाई कि हम सब देखते ही रह गए। आपने तो कमाल कर दिया. आपको क्या कहूँ, धन्यवाद दूं, कुछ समझ नही पा रहा हूँ।"
खुशी के आंसुओं में डूबी मीना इसे लॉकडाउन की एक बड़ी नैमत मान रही थी और उसके परिवार वाले इसे उसके छोटे से प्रयास का पुरस्कार बता रहे थे जो दोस्ती की ताकत के बलबूते पर हासिल हुआ था।
- सरोज जैन
खंडवा - मध्यप्रदेश
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घाव
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एक रात अचानक ,कौशल्या की बेटी का फोन आया !
" जमाईजी को कोरोना हो गया है,आक्सिजन लेबल कम होने के कारण अस्पताल भेजना पड़ रहा है" ।
बेटी के दुःख से विधवा कौशल्यादेवी बेचैन हो गयी ।बेटे से चार मील दूर बेटी के घर छोड़ने को कहने लगी ।
बेटा अनमना सा बोला , "अम्मा ! इतनी जल्दीबाजी न मचाओ , सुबह टैक्सी बुला दूँगा ।चली जाना ।"
कौशल्या का मन रात भर बेचैन रहा । सुबह अपना रोजमर्रे का समान पैक कर तैयार हो गयी ।
सोचा कि वहाँ जाने से बेटी का अकेलापन दूर होगा और रसोईघर में बेटी की कुछ मदद भी कर देगी । बेटी के घर पहुँच कर बेटी को दिलासा दिलायी । देखा खाना नही बना है , खाना बनाकर बेटी को प्यार से खिलाया ।आठ दिन गुजर गये ।वह रोज हाथ जोड़ जमाई के जीवन की प्रभु से भीख माँगती । रोज अस्पताल से खैरियत की सूचना मिल जाती थी ।सब ठीक चल रहा था । इधर दो दिन से बेटी का व्यवहार बदल गया था । बात -बात पर बीती बातों के ताने देती रहती थी ।कौशल्या बेटी का बुरा वक्त है , सोच कर चुप-चाप सब सहती रही ।
आज जमाईजी को छुट्टी मिलने वाली थी ,बेटी ने उसे बताया भी नहीं ।सुबह से रसोईघर की कोई चीज भी न छूने दी । कौशल्या आश्चर्य चकित थी ! समझ नहीं पा रही थी कि क्या बात है ? एक जगह बुत की तरह बैठी रही ।उसका एक -एक पल बहुत मुश्किल से गुजर रहा था । करीबन ...एक बजे बेटी ने कहा ,
" अम्मा ! तीन , बजे टैक्सी बुला दी है । रमेश के आने से पहले तुम चली जाना ।"
"मैं ...जरा ...रमेश से मिल तो लेती ! "
" बाद में मिलती रहना "।
टैक्सी आयी कौशल्या वापस भारी मन से घर लौट रही थी । इतनी भी ना समझ नहीं थी , सब कुछ उसकी समझ में आ रहा था ।
रास्ते भर बुदबुदाते रही ...
" ये जख्म शायद कभी न भरे ! "
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
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जड़ें
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अमेरिका के हवाई अड्डे पर उतर कर राम लाल और सावित्री के पांव ज़मीं पर नहीं लग रहे थे ।एक तो हवाई जहाज का पहला सुखद अनुभव, दूसरा सामने जिगर का टुकड़ा बेटा राजेश, बहु और गोल मटोल पोता- पोती देख कर फूले नहीं समां रहे थे ।घर को जाते रास्ते में खुला नीला आसमान, बहुमंजिल इमारतें ,हरियाली और सांप की तरह बलखाती, चमचमाती सड़कें देख कर सावित्री ने कहा, " लगता है हम स्वर्ग में ही आ गये हैं ।" सभी हँस पड़े ।
बेटे का महलनुमा घर देख कर पति पत्नी ने हाथ जोड़कर भगवान का धन्यवाद किया ।शनिवार और रविवार की छुट्टी होने के कारण पूरे परिवार को पता ही नहीं चला कि समय कैसे बीत गया । रविवार रात को बहु ने सास को गैस चूल्हा और माइक्रोवेव चलाना समझा दिया ।
सोमवार को बेटा, बहु और पोता पोती सुबह 8 बजे घर से चले जाते और रात को 8बजे तक थके -हारे घर वापस आते ।हर हफ्ते 5 दिन का यही रूटीन रहता ।शनिवार और रविवार को हफ्ते भर के काम और खरीदारी में निकल जाता । बेटे बहु की जिंदगी मशीन की भांति हो गई थीं ।
दो महीने बाद ही राम लाल का मन बेचैन रहने लगा ।उस को रह रह कर अपना घर, खेत-खलिहानों और दोस्त मित्रों जिन के साथ वह घंटों गप्पें मारा करता था, याद आने लगे ।यहां उनके साथ बातें करने वाला कोई नहीं था ।बच्चों की अंग्रेजी उन की समझ में ना आती ।बेटे बहु के पास समय कहाँ था?
सावित्री का दिन तो घर के काम काज में गुज़र जाता ।लेकिन राम लाल को ना दिन को चैन ना रात को नींद ।भूख प्यास जाती रही ।एक दिन रात को राम लाल की सांस घुटने लगी ।माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं ।सावित्री भाग कर बेटे बहु को उठा लाई।राजेश भी पिता की हालत देख कर घबरा गया ।झट से गाड़ी निकाली और हस्पताल पहुंच गए ।
डाक्टर साहब ने पूरे शरीर का मुआयना किया और राम लाल के साथ लम्बी बातचीत ।डाक्टर ने राजेश को समझाया कि घबराने की बात नहीं, बस बुजुर्ग एकाकीपन के कारण डिप्रेशन में है ।इस का यही इलाज है कि आप इन्हें वापस इंडिया भेज दो ।वहां इनकी जड़ें हैं ।वहां वे अपनी हँसी खुशी और मन के भाव प्रगट कर सकें ।अक्सर प्रवासी बुजुर्ग लोगों में शून्य का प्रवास हो जाता है ।राजेश ने वापस आते हुए जब पिता जी को डाक्टर की कही हुई बातें बताई तो राम लाल के चेहरे पर खुशी की एक लीक फैल गई ।
- कैलाश ठाकुर
नंगल टाउनशिप - पंजाब
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कैनवास
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"दादो सा, उठो चलो ना मेरे साथ खेलने।"
"अरे बेटा इस उम्र में अब मैं तेरे साथ कौन सा खेल खेलूंगा ?"
"दादो सा, अब तो आपको रोज मेरे साथ खेलना पड़ेगा।
" कैसी बात करता है तू !!?"
"जी दादो सा,अब मेरी संस्था वृद्ध-दिवस कुछ अलग अंदाज में ही मनाने जा रही है।"
'वृद्ध दिवस के उपलक्ष्य में वयोवृद्ध का सम्मान तो होगा ही,साथ ही बुजुर्ग लोग गीत,गज़ल गाकर, चेयररेस, मिमीक्री आदि खेलकर अपने बचपन और अपनी युवावस्था को याद करेंगे
और अपने दिल को नटखट बच्चा बनाएंगे। अब तो दादीसा भी आपके साथ खेलेंगी।
"क्या...!! ?"
आश्चर्य मिश्रित हो आँखों को फाड़ते हुए विक्रम सिंह जी
बोले -
"आज मैं ही तेरे को मिला हूँ,मज़ाक करने के लिए ?,
तू यहाँ से जा रहा है, कि नही।"
"दादो सा मैं मज़ाक नही,बल्कि सच कह रहा हूँ।अब
हमारी संस्था बुजुर्ग दंपतियों के ढलती शाम में उनके नीरस जीवन में खट्टे-मीठे एहसासों को ताजा करेगी।
1अक्टूबर को 'वृद्ध- दिवस' है, तो प्रशासन द्वारा भी इसे रोचक तरीके से मनाने की तैयारी की जा रही है,कि इस दिन को और किस तरह से बेहतर तरीके से वृद्धजनों को समर्पित कर उनकी खुशियों को और बढ़ाया जाए।"
वृद्धजनों के बीच विभिन्न खेल व स्पर्धाएं आयोजित की जाएंगी और फिर उन्हें पुरस्कृत भी किया जाएगा।
लेकिन जो 90-100 वर्ष के वयोवृद्ध हो चुके हैं,उन्हें सिर्फ़ सम्मानित किया जाएगा ।
पहले हमारा शहर यह पहल करेगा, फिर धीरे-धीरे दूसरे शहर में भी ऐसा होने लगेगा ।
"दादोसा,अब तो चलो मेरे साथ खेलने।"
पोते की कही हुई बातों का जादू थके हुए वृद्ध मस्तिष्क पर कुछ इस कदर हुआ,कि विक्रम सिंह अपनी लाठी उठा पार्क की तरफ चल दिए और बुझती हुई साँझ के कैनवास पर जीवन का एक स्वस्थ,सुखद चित्र उभरने लगा।
- डाॅ. क्षमा सिसोदिया
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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भारतीय नारी
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शांत, धीर, गंभीर मुद्रा में निर्मला बहुत गहरी सोच में डूबी हुई सोफ़े पर बैठी थी...
बेटी जिज्ञासा का आगमन होता है “माँ बहुत गहरी सोच में डूबी हुई हो क्या हुआ?”
बेटी नैना की आवाज़ पर सहमकर उठना और उसके सर पर प्यार भरा हाथ फेरना। पर! चेहरे पर खामोशी के भाव का नामोनिशान बिल्कुल न लाना, यही ख़ासियत निर्मला को औरों से अलग करती थी।
"माँ आज किस सोच में डूबी थीं?” बेटी जिज्ञासा का फिर प्रश्न आता है...
"आज तुम्हारे पापा को बिस्तरे पर पड़े हुए पूरे पंद्रह साल हो गए हैं। न जाने ज़िंदगी मुझे जी रही है या मैं ज़िंदगी को? बस यही सोचने की कोशिश कर रही थी।” निर्मला भावपूर्ण होते हुए कहती है।
"कहाँ... हो?” लहराती आवाज़ का कानों में पड़ना।
"आ रही हूं... अब इतनी ताक़त...इस बूढ़े शरीर में भी नहीं बची है... जो एक आवाज़ पर दौड़ी चली आऊँ..” लड़खड़ाती आवाज़ और लड़खड़ाते पैरों से निर्मला आवाज़ की तरफ़ चल पड़ती है...
उस दिन माँ को देखकर जिज्ञासा की आँखें नम हो गईं थीं, क्योंकि बूढ़ी हड्डियों में से ‘कचर-कचर’ की आवाज़ और कमर का झुकाव कुछ और ही बंया कर रहा था। आवाज़ में भी अब तरंगों का अनुपात नीचे की ओर करवट ले चुका था। परंतु भारतीय नारी होने का भाव आज भी अपना मुख खोले वहीं खड़ा था। यह सब देख जिज्ञासा का मन उहापोह की स्थिति में पहुँच चुका था।
- नूतन गर्ग
दिल्ली
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बुजुर्ग जीवन
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अरे सुनो बहू , मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है । कहते हुए रामलाल जी आगे बढ़े तो फूलदान से टकरा गए, फूलदान अब कूड़ा बन चुका था । बहु ने आवाज सुनी तो दौड़ कर आई कहने लगी- "दिखाई नहीं दे रहा है तो चिल्ला क्यों रहे हो ? वैसे भी अब देख कर करना ही क्या है ?
दूसरे दिन वे फिर चिल्लाए-
"अरे, मुझे कुछ सुनाई भी नहीं दे रहा है ।"
बहू के बड़बड़ाने में कुछ राहत के स्वर थे कि चलो अच्छा हुआ, बुड्ढे को ना दिखाई देता है ना सुनाई ।
अब ठंडी बासी सब्जी-रोटी, सब्जी को नमक- मिर्च का पानी कहें तो ज्यादा उपयुक्त था ।
बहु-बेटे ने सारा घर छान मारा, बुड्ढे के पास फूटी कौड़ी तक नहीं मिली ।
तीन दिन बाद एक दिन सवेरे से चिल्लाहट सुनाई नहीं दी तो बेटा-बहू उसके कमरे में पहुंचे देखा, उनका बिस्तर खाली था । तकिए के पास एक पेपर रखा था । धड़कते दिल से बेटे ने उसे खोला तो देखा उस पर आज की तारीख लगी हुई है लिखा था कि मैंने तो यह नाटक तुम्हारी असलियत जानने के लिए किया था, जिस संपत्ति को तुम लोग ढूंढ रहे थे वह मैंने मेरे जैसे लोगों के लिए वृद्धाश्रम को दान कर दी है । अब मैं लौट कर कभी नहीं आऊंगा मुझे ढूंढना भी मत । सदा खुश रहो मगर कभी बुजुर्ग मत बनाना......... सदा जवान बने रहना........ वरना मेरे जैसा जीवन जी नहीं सकोगे.......।
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान
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हुनर
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"हैलो बहू कैसी हो ?"--सावित्री देवी ने कहा
"प्रणाम माँजी"--मालती जवाब दिया
"क्या बात है बहू तुम्हारी आवाज़ क्यों ऐसी है ?"--सावित्री देवी ने पूछा ।
"वो क्या कहूं आपको माँजी चिंटू को एक विषय का ट्यूशन करना है और विवेक कह रहे हैं कि इतना ट्यूशन फीस देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं । उसके भविष्य का सवाल है इसीलिए मन दुखी हो रहा है । विवेक को तो आप जानती ही हैं । अपनी परेशानी आपसे भी नहीं कहते और चिंटू को भी हिदायत दे रखी है कि आप लोगों से पैसा वगैरह नहीं मांगे ।"
"अरे तुम तो मुझे बताती।--चलो कोई बात नहीं मैं तुम्हारे ससुर जी से बात करती हूँ।"
सावित्री देवी अपने पति से --"सुनिये जी चिंटू को ट्यूशन करना है। आप उसके फीस के पैसे दे देते तो अच्छा होता।"
"क्यों विवेक ने कहा ?"
"नहीं जी विवेक कब कहता है ? वो तो बहु को दुखी देखकर मैंने ही पूछ लिया।"
"देखो सावित्री, बैंक में कुछ पैसे हैं वो मैं रामेश्वरम जाने के लिए रखा हूँ।"
"अजी बच्चे परेशान रहे तो हमें तीर्थ करने में भी कैसे अच्छा लगेगा ?"--सावित्री देवी ने कहा
"चलो ठीक है कल भेज दुंगा बहू को बता देना।"
सावित्री देवी ने मालती को फोन करके बता दिया ।
मालती ने अपने बेटे चिंटू से सावित्री देवी से फोन पर हुई सारी बात बताई।
चिंटू--"जवाब नहीं मॅाम आपके हुनर का । अब इतने में बाईक तो आ ही जाएगी।"***
- पूनम झा
कोटा - राजस्थान
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साँझ की उदासी
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“अजी सुनते हो ... !”
“कुछ कहा क्या?”
“हाँ बाबा हाँ, कान में मशीन नहीं लगाई क्या?”
“लगाई है न।” उसने मशीन को हिलाया-डुलाया।
“फिर ... बैट्री नहीं बदली होगी?”
“जानू, बदल रहा था ... वो नन्हीं-सी बैट्री मेरे काँपते हाथों से लुढ़क कर न जाने कहाँ जा छुपी। बुढ़ापे की इस अकड़ी कमर के साथ उसे ढूँढ नहीं पाया। ... न जाने कैसे कटेगा, ये बदसूरत बुढ़ापा।”
“देखो जी, ऐसी बातें न किया करो, जी घबराने लगता है ...। मैं हूँ न, तुम्हारे साथ।”
“हाँ जानू, तुम ठीक कहती हो ...। अच्छा सुनो, आज रोटी मत बनाना।”
“क्यों?”
“मन नहीं है, दलिया बना लेना।”
“हूँ ... मुझे मालूम नहीं क्या कि दूध में भिगोई रोटी खाए बगैर तुम्हारा मन नहीं भरता। तुम तो चाहते हो, मुझे काम न करना पड़े और मैं आराम करूँ।”
वातावरण में उदासी छा गयी थी, सिर्फ उनकी थकी हुई साँसें सुनाई पड़ रही थीं।
अचानक वह फूलती साँसों के साथ चिहुँक उठी, “देखो तो, हमारी मुँडेर पर कौवा बोल रहा है।”
काँव-काँव सुनकर उसकी भी आँखें चमक उठीं, मगर दूसरे ही पल वह उदास होकर बोला, “कौन आयेगा हमारे यहाँ? जरा बताना तो?”
“तुम ठीक कहते हो। बच्चे सात समुन्दर पार हैं। यहाँ सुबह तो वहाँ रात होती है। समय निकाल कर बात कर लेते हैं, समझो यही हमारा भाग्य है।”
“हाँ, जहाँ भी रहें, सुखी रहें ...। अब कोई आयेगा, तो सिर्फ यमराज आएगा ... वो भी हमको लेने।"
“तुम ठीक कहते हो। लेकिन ... जाने से पहले, ईश्वर से एक प्रार्थना जरूर करूँगी ...।" गला रुंध गया, आँखें नम हो आयीं।
“क्या कहोगी?”
वह सिसक पड़ी “कहूँगी, अगले जनम मुझे ... नहीं-नहीं ... अगले जनम हमें कुछ भी देना, लेकिन लम्बी उमर न देना।”
- प्रेरणा गुप्ता
कानपुर - उत्तर प्रदेश
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बूढ़ी अम्मा
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शीतला सप्तमी होने से सास बहु नहा धोकर रात में ही रसोई में जुट जाती हैं।पूड़ी सब्ज़ी दही बड़े गुलगुले आदि भोग के लिए अलग रख दिए हैं। नौकरी पेशा बहु भलीभांति सासु माँ के आदेशों का पालन करती है। पिछली बार चुन्नू को चेचक के प्रकोप से देवी माँ ने ही बचाया ,ऐसा माजी का कहना था। बहु पूजा की थाल वगैरह तैयारियां कर लेती है ताकी बच्चे भी प्रसाद लेकर स्कूल जा सके।फिर भी सासू माँ याद दिलाती हैं," चना दाल भिगोना व दही ज़माना मत भूल जाना।दीया ठंडा ही रखना।याद है डॉ भी चेचक होने पर कमरा ठंडा रखने को कहते हैं।" हाँ माँ,आप हर साल दुहराती हैं,अब मैं पक्की हो गई हूँ।"बहु आश्वस्त करती है।
सुबह सवेरे बहु लाल चूनर ओढे ,पूजा की थाल लिए तैयार खड़ी है।सासु माँ बड़बड़ाती है,"मुई बरसात को भी आज ही आना था।" तभी सामने से पेट पीठ दोनों एक,,,लकड़ी टेकती बूढ़ी अम्मा दिखाई देती है।सासु माँ पूछ बैठती है,"भरी बरसात में कहाँ चली ?"अम्मा थरथराते हुए बोली," अरे माजी,जब से बेटे ने घर छोड़ा,बहु ही मेरा व पोते का पेट पालती है।आज बहु बुखार से तप रही है।सोचा मैं ही कुछ बासी कूसी का जुगाड़ करूँ।" सास बहू ने आँखों ही आँखों में इशारे किए।और बहु झटपट सब भोग सामग्री पैक कर अम्मा को थमा देती है।और हाँ अदरक की गरमागरम चाय पिलाना भी नहीं भूलती।सासु माँ हाथ जोड़ते हुए बोलती है,
" हे शीतलामाता,आप साक्षात हमारे घर पधारी।सबकी रक्षा करना माँ।"
- सरला मेहता
इंदौर - मध्यप्रदेश
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फैसला
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पापा अब आप किसका इंतजार कर रहे हैं ?
हम सब तो आ हीं गए हैं।
हाँ ! काटता हूं केक जरा और रूक जाओ।
आज रामलाल जी के घर में रौनक लगी थी।
एक तो वो कोरोना से जंग जीत चुके थे, साथ हीं बहुत दिनों के बाद इस घर में जन्मदिन मनाया जा रहा था। बेटा सोहन और बेटी सुनीता दोनों सपरिवार यहाँ आए हुए थे। सोहन ने पिता को पहले से हीं बोल रखा था अब यह घर बेच हमारे साथ रहना है आपको।
पिता को यह बात पंसद नही आया , कि वह सब बेच आजीवन पुत्र के साथ विदेश में जा बसे।
पत्नी के साथ एक बार घूमने और बेटा की जिद पर उसके घर गए तो थे, पर बहुत से कारणों से उन दोनों को, वहाँ रास ना आया और तीन महीने की जगह महीने भर में ही वापस आ, अपने घर में चैन की सांस ली।असमय पत्नी उनका साथ छोड़ भगवान को प्यारी हो गई। जबसे रामलाल जी अकेले हीं यहाँ रहते थे।
तभी लगभग पचपन वर्षीय संभ्रांत महिला फूलों का गुलदस्ता के साथ प्रविष्ट हुई।
आओ कांता-- तुम्हें सब से मिलवाता हूँ।
ये मेरे बाल बच्चे हैं जो भूले -भटके अपने पिता से मिलने आ जाते हैं। ये सब अपने परिवार और नौकरी में बहुत व्यस्त रहते हैं, दोष इनका भी नहीं।
मैं इनके पास जाऊंगा नहीं रहने , ये यहाँ कभी नहीं रहेगें । इसीलिए हम -दोनों ने यहाँ एक साथ रहने का फैसला लिया है। पिछले दो वर्षो से हम पार्क में मिलते रहे टहलने के दरम्यान।उसी समय परिचय हुआ। कोरोना जैसी भयावह परिस्थिति में कांता रोजाना दरवाजे पर काढा, खाना, फल सब रख जाती थी। इसने निःस्वार्थ भाव से मेरी सेवा की है। हम दोनों अकेले हीं रहते हैं अपने- अपने घरों में, लेकिन अब इस शुभदिन पर मैंने तुम सब के सामने एक साथ रहने का निश्चय किया है । कांता भी सहमत है मेरे इस विचार से। अब बहुत झेल चुके हम दोनों ये ऊबाऊ अकेलापन। बाकी की जितनी भी जिन्दगी बीते, हम एक साथ बिताएंगे। पिता के इस अद्भुत फैसले से बच्चे आवाक थे, लेकिन फिर थोड़ी देर बाद उन सभी को भी लगा पापा सही हैं।
चलिए-- पापा हम सब मिलकर केक काटते हैं। आपने जो फैसला लिया है वह सही है। घर में हैप्पी बर्थ डे की आवाज गूँज उठी। ***
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
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सदा सुखी रहो बेटा
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रिटायर्ड इनकम टैक्स ऑफिसर कृष्ण नारायण पांडे आज अपनी आलीशान कोठी में बहुत मायूसी महसूस कर रहे थे ,क्योंकि उनकी दो हफ्ते से बीमार पत्नी सुलोचना की तबीयत आज कुछ ज्यादा ही खराब लग रही थी ,और ऊपर से आस्ट्रेलिया में नौकरी के कारण जा बसा इकलौता बेटा राजन उर्फ बबलू पिता के बार-बार फोन करने पर भी फोन नहीं उठा रहा था ।
कृष्ण नारायण पांडे अजीब कशमकश में इधर से उधर चहलकदमी कर रहे थे ।वह अपनी बीमार पत्नी को लेकर अत्यंत चिंतित थे ।
रंजन की बुजुर्ग मां की स्थित सही नहीं थी वह अपने पति से बार-बार अपने आंखों के तारे बबलू को देखने की इच्छा जता रही थीं । उन्हें लग रहा था कि वह बहुत जल्द परिवार से ,संसार से विदाई लेने वाली हैं ।
सुलोचना की साँस की बीमारी तो पुरानी ही थी परन्तु इस बार कई दिनों से तबियत ठीक नही हो पा रही थी बल्कि अच्छे डॉक्टर के इलाज के बाबजूद सुधार नही हो सका ।
अनहोनी की आशंका से उनके आँसू थम नहीं रहे थे । वह सोच रहीं थी कि उनके बाद उनके पति का ख़याल कौन रखेगा ।
बीमार पत्नी की दशा देख बेचारे बुजुर्ग कृष्ण नारायण भी अत्यंत दुःखी थे ।
तभी अचानक सुलोचना पूरी शक्ति लगाकर बड़बड़ाई ....बबलू ....ओ बबलू ...।
फिर चुप हो गई ...उसके बाद पति से कहा ,सुनो जी वीडियो कॉल से ही बेटे को दिखा दीजिए मुझे उसकी याद बहुत आ रही है । कृष्ण नारायण जी ने वीडियो कॉल लगाया लेकिन अफसोस ..कॉल रिसीव नहीं हुई। वह बेहद मायूस होकर अपनी पत्नी को ढाँढस बंधाने लगे, कि कहीं बिजी हो गया होगा , शाम तक तो फोन उठा लेगा ,तुम परेशान मत हो ,ठीक हो जाओगी ।ऐसा कहकर कृष्ण नारायण ने डॉक्टर को फोन लगाकर अपने घर आने का निवेदन किया ।
तभी सुलोचना बोली ,सुनो जी ऐसा लगता है कि अब तो तुम्हें अकेले ही रहना होगा शायद मेरी विदाई का वक्त जो आ गया ,मेरी तबीयत जवाब दे रही है ।सुनो ..मेरी अलमारी में पुराना सीतारामी हार रखा है ,वह बहू को मेरी अंतिम गिफ्ट के रूप में दे देना और जब बबलू आए तो उसे मावे की कचौड़ी बनाकर जरूर खिला देना ,जो उस दिन मैंने तुम्हें बनानी सिखाई थी ... क्योंकि बबलू हमेशा घर आकर मेरे हाथ के मावे की कचोरी ही मांगता है और कहना .....मां बहुत याद कर रही थी और कहना ..... वह आपको अपने साथ ले जाए या यहीं अपने देश में कोई जॉब कर ले और हां यह भी कहना कि.....!! कहते कहते अचानक सुलोचना की आवाज थम सी गयी ,उनके अधूरे लब्ज हवा में खो गए ....!!
जब तक डॉक्टर साहब पहुँचे सुलोचना अनन्त राह पर चली गईं थीं ।
बेचारे बुजुर्ग कृष्ण नारायण पांडेय ने अपनी बीमार पत्नी को ,परदेसी पुत्र के वियोग में मरते देखा था ,वह अत्यंत दुःख से विलाप करते करते गश खाकर गिर पड़े .…...!!
उधर ऑस्ट्रेलिया में अगले दिन कृष्ण नारायण और सुलोचना के आँखों के तारे ,बुढ़ापे के एक मात्र सहारे, रंजन ने मोबाइल पर अपने पिता का मैसेज पढ़ा......बेटा तुम्हारी मां का अंतिम संस्कार हो चुका है .….तुम्हारे लिए कल उनका एक संदेश जो अधूरा रह गया था ,....वह भेज रहा हूं ......सदा सुखी रहो बेटा ....!!
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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बुजुर्ग जीवन अनबुझ पहेली
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लीला देवी अपने परिवार को खुश रखने हेतु उम्र को नजरंदाज कर हर पल काम में व्यस्त रहती। परिवार वाले भी तारीफ करते नहीं अघाते कि मां को बैठने की आदत नहीं--- बस तरह-तरह के व्यंजन बना कर खिलाना उनका शौक है--- परंतु उम्र के साथ कमजोर होते बदन को कोई महसूस करने का प्रयास नहीं किया।
कोरोना महामारी ने परिवार के एक सदस्य को अपने लपेटे में लिया जिसके कारण सभी को कोरेंटाइन होना पड़ा पर वह बेचारी सारा दिन लोगों की खातिरदारी में लगी रही।
उनका पति भी बहुरानी को खुश रखने के चक्कर में उन पर ध्यान नहीं देता। महामारी ने धीरे-धीरे लीला देवी को भी अपने लपेटे में ले लिया। बुजुर्ग शरीर इस महामारी से लड़ने में सक्षम नहीं हो पाया और वह ईश्वर को प्यारी हो गई।
लीला देवी के स्वर्गवास होते ही घर की हालात खराब होने लगी क्योंकि जो महिला सारा दिन चक्की की तरह पिसते हुए घर को संभाल रखी थी अब इस दुनिया से जा चुकी थी। घर के काम की जिम्मेदारी आते ही बहुरानी की तबीयत खराब हो गयी।
घर की साफ सफाई और खाना बनाने के लिए अब नौकरानी आ गई। उस बुजुर्ग महिला की स्थिति को अब महसूस किया जा रहा था--- जिसे न ही मोबाइल चलाने आता था न ही पड़ोसियों से बात करके मन बहलाने। बस अपनी मन की व्यथा को भुलाने हेतु झूठी मुस्कान दिखा कर घरवालों की सेवा में व्यस्त रहती थी।
वह अपनी उम्र को नजरअंदाज कर अपने काम की रुचि को प्रदर्शित करती रहती ताकि वह किसी को बोझ न महसूस हो। वह जानती थी कि बुजुर्गावस्था वह स्थिति है जहां अपने परिचित भी घर के युवा लोगों से लगाव रखने लगते हैं --बुजुर्गों की मनोदशा कोई जानने का प्रयास नहीं करता। ****
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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विखरते स्वप्न
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घंसू की आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।उसकी आंखों में अंधेरा सा छा रहा था क्योंकि आज उसके सारे स्वप्न बिखर गये थे । उसका इकलौता बड़ा पुत्र शादी के बाद अपनी पत्नी को लेकर अपनी नौकरी बाले शहर के लिए प्रस्थान कर रहा था।जाते समय उसने मुढकर अपने माँ-बाप से अपनेपन के दो शब्द नहीं बोले और दोनों छोटी बहनो की ओर भी नहीं देखा । घंसू को याद आ रहा था कि अपनी ज़िन्दगी में हमेशा कठिनाईयों का सामना करते रहने के बावजूद उसने बड़े लड़के अमन की पढाई पर कोई प्रभाव नहीं पढने दिया था ।अपनी मजदूरी और पत्नी की सिलाई की अधिकांश आय अमन की पढाई पर इस आशा में खर्च करता रहा कि पढ-लिखकर वह नौकरी करेगा,उसका सहारा बनेगा और अपनी दोनों छोटी बहिनों को संभाल लेगा।वृद्धावस्था में हुआ उसका उल्टा ही। विद्यार्थी जीवन में शहर की हवा का प्रभाव तथा शादी के बाद ससुराल पक्ष द्वारा हृदय परिवर्तन ने अमन को मां-बाप, बहिनों के प्रति पूरी तरह असंवेदनशील व निष्ठुर कर दिया था।सहारा तो दूर उसने अच्छी तरह बात करना भी उचित नहीं समझा ।
इसी को कहा जाता है कि पुत्र के विवाह के पश्चात जब उसकी "आंखें दो से चार होती हैं तो जिन्दगी माँ-बाप से बेज़ार होती है ।"
दोनों मासूम बहिनें माता-पिता से लिपटकर फफक-फफककर रो रही थी ।
- डाॅ अरविंद श्रीवास्तव 'असीम '
दतिया - मध्यप्रदेश
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अब मेरी बारी
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बाबूजी ।आ जाईये थाली लग गई है
अपनी ही तंद्रा में उब- डूब हो रहे रमाकांत बाबू झटके से उठ खड़े हुए लेकिन कानों में वे ही स्वर गूँज रहे थे। "सुन रहे हैं गोलू के पप्पा आ जाईये थाली लग गई है" और अनायास वे बोल पड़े "आ रहा हूँ भाई।क्या मुसीबत है।
लहजे की जानी-पहचानी कशिश से बड़ी बहू चौंक गई अरे - - अम्माजी की पुकार को दी जाने वाली प्रतिक्रिया है यह तो - - - और वह असहज होने के साथ-साथ दुखी भी हो गई।
बाबूजी पीढ़े पर बैठते बैठते सकुचा गए। सारा
अधिकार भाव लुप्त हो गया।
हाँ मैं स्वामी था मैं इस घर का तुम्हारी पुकारों में - - तुम्हारी शिकायतों में - - - तुम्हारी मनुहारों हिदायतों में मधु। अब तो इस देह में एक अस्तित्व हीन प्राण बसते हैं जिसकी कोई पहचान नहीं है। बच्चों पर निर्भर एक अनजान।
खाना खाकर बाबूजी बैठकर मन ही मन अपनी मधु से बातें करने लगे "नहीं मधु मैं तुम्हें अपनी दुनिया से इतनी आसानी से जाने नहीं दूँगा। मैं तुम्हें वापस लाउंगा--मैं पागलखाने में नहीं रहने दूँगा तुम्हें। डाॅ ने कहा भी तो था कि अपनों के साथ रहकर ये जल्दी ठीक हो जाएँगी।ज्यादा ठीक रहेंगी।
मधु को पिछले कुछ सालों से विस्मृति रोग हो गया था। वे किसी को नहीं पहचानतीं। कहीं भी उठकर चल देतीं। अडोसी-पडोसी जान-पहचान वाले हाथ पकड कर वापस ले आते। एक दिन तो पुलिस वाले ले आए। जिस मानसिक रुग्णालय में उनका इलाज चल रहा था वहां से पता लेकर पहुंचा गये अनेकानेक हिदायतों के साथ--कि अजी साहेब ध्यान रखा करो। एक्सीडेंट वेक्सीडेंट हो गया तो बाद में रोते बैठेंगे - - कि किसी गुँडे बदमाश के हाथ लग गई तो भिखारियों के साथ बैठा देंगे वो निष्ठुर लोग माताजी के हाथ-पैर तोड़ के।
ऐसी बातो से घबरा कर सबने मिल कर निर्णय लिया कि मानसिक रुग्णालय में रख देते हैं अम्माजी को जहाँ इलाज के साथ-साथ पूरी सुरक्षा होती है। कोई भी मरीज मानसिक रोगी बाहर नहीं निकल सकते।
बच्चों के निर्णय के आगे बाबूजी असहाय हो गए। बच्चे अम्मा को भरती करवा कर आ गए।
लेकिन आज खाने की थाली की पुकार के साथ बाबूजी के भीतर का सुप्त दबंग और शासक गृहस्वामी जाग उठा अर्धांगिनी के अर्थों को समेट कर ।
नहीं नहीं मैं अपनी मधु को इस तरह असहाय अंधेरों मे मौत का इंतजार करने के लिए नहीं छोड़ सकता। उसने मुझे चालीस बरस सँभाला है मेरी सारी शासक वृत्तियों के साथ । अब मेरी बारी है-उसे सँभालने की - - - -एकदम से उठ खड़े हुए बाबूजी और चल दिए मानसिक रुग्णालय की ओर बड़बड़ाते हुए---अब मेरी बारी है - - हाँ अब मेरी बारी है।
- हेमलता मिश्र "मानवी"
नागपुर - महाराष्ट्र
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दिलासा
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पति को पोती की फ़ोटो के सामने आँसू बहाते देख सुरेखा बिफर उठी,"सौ बार समझा चुकी, लेकिन आप तो औरतों से भी गये-बीते हैं। हे भगवान! पोती विदेश ही तो गयी है। साल भर बाद वापस भी तो आयेगी न। आप को कितनी बार कहा कि सब्र रखिये।"
सकपका कर विनोद जी ने फोटो मेज पर रख दिया और आँखें पोंछने लगे।
सुरेखा फ़ोटो को लेकर बैठक-कक्ष में रखने चली।
विनोद जी ने अपने आपको संयत किया। दो बरस की गुड्डो ने क्या हाल कर दिया है उनका। बार-बार उसका गोलमटोल चेहरा, तुतलाती बातें याद आती हैं।
इस से पहले कि फिर ध्यान भटके, विनोद जी अख़बार लेने बैठक-कक्ष की ओर लपके।
परंतु, दरवाजे पर ही उनके कदम ठिठक गये। काँच की अलमारी में गुड्डो की तस्वीर रख कर फुसफुसाती आवाज़ में सुरेखा बोल रही थी,"जादूगरनी। दादू को चुप न कराऊँ तो क्या करूँ? तू मुझे भी तो अकेली कर गई रे बिट्टो। कब साल बीतेगा, कब तू आएगी? तब तक हमें भूल तो न जायेगी!"
विनोद ने जा कर सुरेखा के कंधे पर हाथ रखा और मोबाइल से लाइव-कॉल का नम्बर डायल करने लगे।
- राजेन्द्र पुरोहित
जोधपुर - राजस्थान
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भावों की फसल
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" माँ..! आप समझो जरा.! महानगर में अकेले बुजुर्ग का घर में रहना कितना ख़तरनाक हो सकता है। कोई भी बाहरी व्यक्ति कुछ भी बहाना बना कर अंदर आकर आपको नुकसान पहुंचा सकता है, और फिर अकेले आप की तबीयत ख़राब हो गई तो...? बहु आगे बढ़कर बेटे के साथ खड़ी थी" ये आपका गाँव नहीं है मां..! यहां तो आस पड़ोस को भी एक दूसरे की खबर नहीं रहती। फिर हम आपके लिए नौकरी छोड़कर घर पर तो नहीं न बैठ सकते...!
"वृद्धाश्रम में आपको साथी मिलेंगे,समय पर खाना,दवा, सेवा आदि सभी सुविधाएं मिलेंगी..!
"अच्छा..! आपको देवर जी की शादी की चिंता है न..! चलो वादा रहा। शादी में कुछ दिनों के लिए आपको घर ले आएंगे।
भावों की सूखी फसल को माँ के आँसू हरा नहीं कर पाए।आज वृद्धाश्रम के कमरे ने माँ जी का स्वागत किया। द्वार पर मुस्कराहट मिली परन्तु अपनापन नहीं दिखा। कभी न बंद होने वाली प्रतीक्षा की खिड़की पर खड़ी हो कर माँ जी प्रतिदिन दूर- दूर तक भावों की फसल को निहारने की नाकाम कोशिशें करतीं।
"माँ जी..! देखिए आपसे कोई मिलने आया है..."
" मुझसे...? इतने महीनों बाद...?"
"चरण स्पर्श माँ जी..!"
"मैं हूं आपकी छोटी बहु। अपनी शादी में आपको नहीं देखा तो मिलने चली आई"
"सदा सुहागन रहो बहु। अच्छा हुआ जो तू मिलने आ गई। तुझे देखने की बहुत इच्छा थी।"
" मैं सिर्फ मिलने नहीं, आपको ले जाने के लिए आई हूं माँ जी...!"
"आज से आप हमेशा हम दोनों के साथ ही घर पर रहेंगी।"
"आज खुशी के आँसुओं से लहलहा उठी भावों की फसल"
- डॉ सुरिन्दर कौर नीलम
राँची - झारखंड
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बड़े घर की बात
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अक्सर रीमा किटी पार्टियों में अपनी संगी साथियों के साथ व्यस्त रहती। उधर रीमा का पति प्रशासनिक नौकरी के कारण घर में वृद्ध माता-पिता को समय न दे पा रहे थे। घर में खाने वाली, झाड़ू पौछे वाली चार - चार नौकरों के होते किसी बात की कोई कमी नहीं थी। वृद्ध माता-पिता के लिए खाने- पीने, लेटने- बैठने की सब व्यवस्था तो थी पर इस व्यवस्था में परिवार के साथ उनके मानसिक मनोरंजन का कोई साधन तथा समय नहीं था ।
एक दिन रीमा की सास को हार्ट अटैक आने से ससुर का मन व्यथित होना स्वाभाविक ही था। सोनू- मोनू ने अपने दादा की दुखी अवस्था को देखा तो तुरंत उसने अपने पापा रमेश को फोन किया-- "दादी के दिल में दर्द हो रहा है, पापा जल्दी आ जाओ"। उधर रमेश ने तुरंत रीमा से बात की
और शीघ्र अस्पताल में उनको एडमिट की करा दिया।
मोनू देख रहा था, सोच रहा था कि पापा नहीं आ पाए। दादी जबकि पापा को याद ही किए जा रही थी। उधर दादा रोज ही भगवान जी के साथ- साथ घर के मंदिर में पापा की फोटो भी रख करके पूजा करते हैं और हम सबके लिए बहुत ही पूजा से उठने के बाद बहुत सी दुआएं और आशीर्वाद देते हैं; यह सब बातें सोच- सोच कर सोनू- मोनू सोचने लगे कि ऐसी सुख-सुविधाओं का क्या??? जहां मेरी दादी के लिए पापा के पास समय नहीं है। सब नौकर चाकर, मिलने- जुलने वालों की कृपा पर यह घर चल रहा है।
डॉ.रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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बदलाव
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कामतानाथ आज अपनी नौकरी से रिटायर हो गए। बेटा बहू ने बहुत बढ़िया पार्टी का आयोजन किया हुआ था । बेटा बहू पोता पोती सब खुश थे कि अब सब मिलकर रहेंगे । हालाँकि कामतानाथ डर रहे थे उन्हें इसका कड़वा अनुभव था । अपने पिताजी की रिटायर्मेंट पर वो भी बहुत खुश होकर अपने पिताजी को साथ रहने के लिए गांव से शहर लाए थे । पिताजी के अंहकार और टोका टाकी की आदत से पत्नी और बच्चे उनकी इज्जत नहीं करते थे ।घर का सारा माहौल ही खराब हो गया था। अब पिताजी को वापिस भी नही भेज सकते थे । कूढन और चिड़चिड़ापन पत्नी के जीवन का हिस्सा बन गए थे ।इसलिए वह बीमार रहने लगी और उसे छोड़कर चल बसी । वह बहू के बारे मे सोचने लगे आज सबसे ज्यादा खुश वही हो रही है और बड़ी खुशी से सारा जरूरत का सामान पैक कर रही है । इतने में बड़ी बेटी आई और समझाने लगी ," पिताजी आप पूर्वाग्रह छोड़कर जाने के लिए तैयार हो । आप दूसरों को बदलने की बात ना करके स्वयं में बदलाव लाना । अब वो आपमें खुशियाँ नही ढूँढगे आप उनमें खुशियाँ ढूँढना। भाभी बहुत अच्छी है बस आप भी उन्हे प्यार और सम्मान देना उसकी इच्छानुसार थोड़ा बदलाव अपने अंदर ले आना । फिर देखना कैसे घर में रौनक बनी रहती है ।" बेटी की बात सुन मन ही मन एक नया संकल्प ले मुस्कुराते हुए जीवन की नई पारी के लिए तैयार होने चल दिए।
- नीलम नारंग
हिसार - हरियाणा
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मेरे पापा
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सुबह नौ बजते ही नरेंद्र ड्यूटी पर निकल जाता है। उसकी माँ सारा दिन घर के काम में जुटी रहती हैं । सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त पिता रोज़ घर में उसकी माँ के साथ छोटे-मोटे कामों में हाथ बँटाते हुए अक्सर एक ही बात कहते हैं 'मैं तो कुछ भी नहीं करता।'
नरेंद्र को पिता की यह बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती । वह सोचता है..'पापा ने अपनी प्रत्येक जिम्मेदारी को अच्छे से निभाया है और निभा रहे हैं । मुझे कमाने योग्य बनाया । थोड़ी सी तनख्वाह में छोटी बहन को पढ़ा -लिखा कर डाक्टर बना दिया। इससे भी बढ़कर उनकी स्वयं की आवश्यकताएँ ना-मात्र हैं । सर्वसम्पन्न घर में.... कड़कती ठंड में उन्हें ब्लोयर नहीं चाहिए..।
न ही उन्हें गीजर का गर्म पानी चाहिए...नल के पानी से ही नहा लेते हैं और ऊपर से कहते हैं कि ऐसे नहाने से शरीर बीमारियों से बचा रहता है।
गर्म कपड़े भी कई-कई दिन तक पहन लेते हैं ...कहते हैं रोज़-रोज़ धोने से कपड़े खराब हो जाते हैं और फिर पानी भी ज्यादा लगता है... कितने गिनाऊँ मैं उनके काम.. ।
घर में कोई टूटी खुली देखते हैं तो तुरंत कसकर बंद कर देते हैं।
गर्मी में बैठे रहते हैं पेड़ की ठंडी-ठंडी छाँव में... घर के छोटे-मोटे काम साइकिल पर ही निपटा आते हैं .. कितना करते हैं मेरे पापा..।
बिजली, पानी,पैट्रोल....हर छोटी- छोटी बात का ध्यान रखते हैं और फिर भी कहते हैं कि मैं कुछ नहीं करता । आप ही बताइए - क्या ठीक कहते हैं मेरे पापा ?' ****
- संतोष गर्ग
मोहाली - चंडीगढ
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दमदार व्यक्तित्व
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मेरे ससुर का व्यक्तित्व एक दमदार है आज 80 की उम्र होकर भी हर कार्य को करने की क्षमता रखते हैं।निधि के ससुर घर का सारा खर्चा आज भी चलाते हैं क्योंकि उसके पति की आय कम होने के कारण घर खर्च पूरी तरह से वहन नही कर पाते थे ।ससुर बहुत ही सुलझे विचारो के व्यक्ति हैं इसलिये घर मे हमेशा ख़ुशीहाली का वातावरण बना रहता हैं ,।घर मे शांति का माहौल रहता है।क्योंकि जिस घर के मुखिया सकारात्मक सोच के होंगे वहाँ 24 घंटे हस्ठ पुस्ठ माहौल बना रहेगा।
प्रभु से यही प्रार्थना करते हैं कि हर बुजुर्ग का आशीर्वाद हमेशा हम सभी पर बना रहे। बुजुर्ग के घर रहने से सुरक्षित महसूस करते हैं।
आज मुझे खुशी इस बात की होती हैं जहाँ जहाँ बो जाते हैं बाद में सब उनके बारे मे पूछते हैं कि कितना निखरता हुआ व्यक्तित्व है ,क्योंकि निधि के ससुर सबको खुश रखने की चेष्टा करते हैं बहुत ही सोच समझकर बात करते हैं।उनकी सकारात्मक सोच ही ने इतनी उम्र होने के बाबजूद उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा दिए हैं
हम उनकी छत्र छाया में यूँही खुशहाली बनी रहे ।
- सुनीता गुप्ता
,कानपुर - उत्तर प्रदेश
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अधिकार
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कई दिनों से पोता जिद्द कर रहा था की पानी की टंकी के साथ मोटर लगवा दी जाए तांकि पानी पूरे दबाव से बाथरूम में लगे शावर में आये |यह भी जिद्द थी की वह नहायेगा तभी जब पानी पूरे प्रेशर से आएगा |
छोटा बेटा फर्स्ट फ्लोर पर रहता था और टंकी भी वहीँ थी |
प्लम्बर को बुलाया |वह अभी लगा ही रहा था कि बेटे ने पैर से उसे धकेलते हुए कहा कि यहाँ मोटर नहीं लगेगी |
........और कहाँ लगेगी ?अगर टंकी यहां है तो मोटर भी यहीं लगेगी |पिता ने कहा |
.......नहीं लगेगी |
पिता लडखडाते कदमों से नीचे आ गए |खुद को शक्तिहीन अनुभव कर रहे थे
उनको लगा अब उनका कोई अधिकार नहीं रहा | ****
- चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री
पंचकूला - हरियाणा
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रिटायर्ड
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क्या बात है अंकल आप हर रोज सुबह सुबह मेरी रेहड़ी पर चाय पीने के लिए आ जाते हो,आप मुझे एक बड़े व्यक्ति लगते हो, अच्छे घर से दिखते हो फिर ऐसा क्यों ? अरे भाई यहां मेरे बेटे के पास रहता हूं । मेरी मजबूरी ये है कि पोता, पोती के मोह के चक्कर में मुझे इनके पास आना पड़ता है, रिटायर्ड हूं, पेंशन भी आती है, फिर भी बहू समय पर चाय बनाकर देती, इसलिए सुबह तुम्हारे पास तो शाम को किसी और रेहड़ी वाले के पास पी लेता हूं क्या करूं रिटायर्ड जो ठहरा।
- शुभकरण गौड
हिसार - हरियाणा
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बाबू जी
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जब से आये हैं शून्य में ही ताकते रहते हैं ।अभी तक एक शब्द भी नहीं बोले है ।पर आंखों से लगता कुछ कहना चाहते हो ।कहने के लिए ना कह पाने की उन की बेबसी मुझे झकझोर दे रही है ।
मेरे कुछ भी पूछने पर बस हाथ जोड़कर सिर उठा हां ना ,में ही जवाब दे देते है ।
जिस के सामने बोलते हुए कभी हम घिघियाने लगते थे ,उस की ये हालत ।
भरा हुआ चेहरा ,लम्बा गठीला बदन आज एक हड्डी का ढांचा जान पड़ता था । देखकर
कौन कह सकता था , कि ये वही बाबू जी है जिन के पास आते हुए हम बहन , भाई घबराते थे । मां को भी उन्होंने सिर्फ अपने जरूरत का ही सामान समझा था ।हमेशा अपनी मर्जी करना उन की कही हर बात को दबा देना ।हर बात में उन का अपमान ,करना जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे । मां को हमेशा रोते हुए ही देखा था ।किसी ना किसी बात पर ।
कुछ अगर किसी को घर में मान देते थे तो वह बड़ा भाई ही था ।
उस के बाद दो बहनों के जन्म से
ही मां से नाराज़ रहने लगे थे ।
जैसे मां ही उन के जन्म की जिम्मेदार हो। मेरे जन्म पर वो नहीं चाहते थे कि मैं इस दुनिया को देखु। मां को वैद्य के पास भी ले गये थे ।पर मां के इनकार करने पर नानी के पास छोड़ आए थे ।
मेरे जन्म की सुचना पा कर भी नहीं आए थे ।
फिर एक दिन नाना जी ही मां को
घर पर छोड़ गये थे ।
मुझे याद नहीं पड़ता की कभी बचपन में मुझे गोदी में उठाया हो।
दोनों बड़ी बहनों भाई की शादी हो जाने पर मां भी बीमार रहने लगी थी । दो-तीन बार तो लगा की बस अब उन का अन्त निश्चित है । जैसे मेरी विदाई का ही इंतजार कर रही थी ।
एक दिन मेरे ससुराल विदा होते ही वे भी संसार से विदा हो गयी थी ।
बाबू जी ने कभी हम बहनों की खबर नहीं ली थी ।भाई ही शहर उनको साथ ले आया था ।
हम बहने अपनी अपनी गृहस्थी में रम गयी थी ।
उस दिन जब वृद्धा आश्रम में एक बुजुर्ग को अलग बैठे देखा और सामान देने के लिए जैसे ही हाथ आगे किया था तो देखती ही रह गयी थी। बाबू जी इस हालत में !
अपने साथ घर ले आयी थी ।
आज तबियत खराब लग रही थी सुबह से कुछ खा भी नहीं पा रहे थे । डाक्टर को दिखाया था ।
दवाई देने लगी तो उस का हाथ पकड़ रो पड़े बोले बेटी मुझे माफ़ कर दो। मेरे हालात का जिम्मेदार मैं ही हूं । मैंने तुम को कभी प्यार नही .... ।सिसकने लगे ।
बरसती आंखों से उस ने बाबू जी
के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा
हो तो आप ही मेरे बाबू जी .....।
- बबिता कंसल
दिल्ली
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मेहमान
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महाराष्ट्र में पानी की थोडी़ किल्लत है ...जितना पानी मिलता है भावेश के परिवार के लिए काफी है.....
ऐसे में कोई आ जाये तो थोड़ी
तकलीफ होती है किंतु अपने माता-पिता अथवा सास-ससुर की गिनती तो कोई में नहीं होती !
भावेश के माता पिता इंदौर से कुछ दिनों के लिए अपने बेटे के घर यानि अपने घर अधिकार से आये हैं .....और क्यों नहीं उनका अपना घर है !
सीमा की श्रुति से पानी की चर्चा हो रही थी.... देख न श्रुति इसी समय मेहमान को आना था!
मेहमान कौन?
सीमा ने कहा मेरे मम्मी पापा... अरे मेरे सास -ससुर ... पानी की कमी उसमें मेहमान सीमा यह कहते-कहते व्यंग्यात्मक हसी बिखेरने लगी !
जिस बेटे पर उनका पूरा अधिकार है वृद्ध होने पर वहीं मेहमान कहलाते हैं!
वहां भी किसी भी तरह की स्वतंत्रता महसूस नहीं करते एक अदने से मेहमान बन कर कोने में दुबक कर रहते हैं कि कब उन्हें उनका अधिकार मिलेगा .... उन्हें पलपल यह एहसास दिलाया जाता है.... किसी तरह की इच्छा जागृत करने पर सुनने मिलता है उम्र हो गई समझदारी नहीं है...
सीमा सभी के सामने बार बार मेहमान कहती है ...
"मेहमान " बार-बार यह छोटा सा चार अक्षर का शब्द उनके दिल को सुई की तरह छेद रहा था ! ह्रदय का यह छेदन असहनीय था .... बेटे के घर में महीने भर रह सालों की खुशी बटोरने की जगह भावेश के माता पिता चार दिन में ही चले जाते हैं "मेहमान का खिताब लेकर"
बेटे बहु बच्चे इंदौर आने पर पूरी स्वतंत्रता होती है और क्यों न हो वो उनका अपना घर है... कोई मेहमान नहीं है.... यह बुजुर्ग माता पिता की सोच है!
माता पिता एक वृक्ष की तरह है जब तक है ....ठंडी छांव ही देंगे ....पर बच्चे क्यों नहीं समझते कि मां-बाप और बच्चों के बीच के संबंध इसी तरह रहेंगे तो
" यह एक परंपरा का रूप ले लेगी"
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
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