सुनील गंगोपाध्याय स्मृति सम्मान - 2025

          दूसरों के कर्म से दुखी नहीं होना चाहिए। अपने कर्म से खुश होना चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं है। जो बिना मतलब के ‌परेशान है। यह सोच का परिणाम होता है। बाकि सोच अपनी-अपनी होती है। सोच को बदलना चाहते ।तभी आप संयम से जीवन को जीना सीखते हैं। जैमिनी अकादमी ने इस परिचर्चा के माध्यम से ऐसे विषय की ओर ध्यान खिंचने का प्रयास किया है। अब आयें विचारों को देखते हैं:-
      मनुष्य चाहे तो दूसरी से सीख ले अपने व्यक्तित्व कर्म विचारों से गरिमायुक्त बना परिवार समाज में उदाहरण प्रस्तुत कर खुश रहना जान सकता है ! चींटी से लेकर पक्षी भी जीवन प्रकृति से जोड़ चढ़ कर गिरना गिर कर चढ़ना चढ़ाना ।उड़ाना ,उड़ना  सीखा परिंदे पेड़ पौधे से ले कर ऊँची अट्टिलकाओं में अपना घर बसा लेते है! मनुष्य बुद्धि ज्ञान है जिसका उपयोग स्वभावगत करता है! सुविधा संपन्न होते है असंतुष्ट होना जानता है! सब कुछ रहते हुए भी आभाव ग्रस्त जीवन में जीना चाहता है उसे अपनी मजबूरी साबित कर लिप सेम्पेथी लेना चाहता है और हमेशा लाइट में रहना चाहता है निरीह जान सब उसकी सेवा सुश्रसा में लगे रहे । कमजोर नहीं पर कमजोरी साबित कर स्नेह बटोर खुश रहना चाहता है  !ऐसे मनुष्य को बहुत से नामो की उपमाए दी जाती है कंजूस मंखीचूस एहसान फ़रामोश मनहूस  उदासीनता का शिकार बन अपनी नाकामियों को दूसरों पर डाल अपनी गरिमा धूमिल कर कहता है ! दुखी हूँ ,मैं दूसरो के कर्मों से मनुष्य चाहे तो दूसरी से सीख ले ,अपने व्यक्तित्व कर्म विचारों से गरिमायुक्त बनाए रख सकता है !  वही अपनी आदतें बदल सकता है ! कर्मठ कर्तव्य परायण प्रेम ,त्याग समर्पण की भावना लेकर राष्ट्रहित समाजहित से निः स्वार्थ जुड़ा होता है ! जो ख़ुद की चरित्र की रक्षा करता वही दूसरों की रक्षा कर सकता है !  जो ऐसा नहीं कर सकता खुश कोई नहीं है अपने कर्मों से दुखी है ! वह दूसरो के कर्म से “

 - अनिता शरद झा 

 रायपुर - छत्तीसगढ़ 

" संतोषी सदा सुखी " , 

" जब आवे संतोष धन, सब धन धूलि समान "

आदि...आदि ये ही जीवन के मूल मंत्र हैं। जो हमें धैर्य और शांति की सीख देते हैं। कहते भी है कि लोग अपने सुख से उतने सुखी नहीं  होते, जितने औरों की खुशी देखकर दुखी हो जाते हैं। अजब-गजब है हमारा स्वभाव। हमें आदर्श जीवन जीने के लिए जो सिखाया जाता है, हम उसका मन,वचन और कर्म से पालन नहीं करते और और अपनी ही कोरी निरर्थक धारणा बनाकर अनावश्यक दुखी रहकर, खुशी के अनमोल पलों को व्यर्थ में गंवा देते हैं और संघर्ष करते रहते हैं। हाँ, कुछ लोग जरूर ऐसे होते हैं जो अपना जो कुछ वर्तमान में है, उससे संतुष्ट रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं। दूसरों के दुख से दुख से द्रवित भले ही होते हैं मगर दूसरों के सुख से कभी दुखी नहीं होते। वे यह मानकर चलते हैं कि उनका, उनके हिस्से के कर्मों का फल है और हमारा , हमारे कर्मों के हिस्से का। सच पूछा जाए तो  जीवन में संतोषी बनकर अच्छे कर्म करते हुए सुख में वृद्धि करना ही सच्ची जीवन यात्रा है। 

         - नरेन्द्र श्रीवास्तव

       गाडरवारा - मध्यप्रदेश 

         सच में परीक्षा में 95% नम्बर प्राप्त करने वाले भी दुखी होकर कहते कि 99%आने चाहिए थे। मेरी राय में_खुशी और दुखी होने  की भावना हर मनुष्य की अपनी मानसिकता और परिस्थितियों पर निर्भर करती है।कहते भी है इंसान अपने पडोसी के सुख से ज्यादा दुःखी है। अक्सर लोग अपने कर्मों को तो नहीं। देखते परन्तु  दूसरों की तुलना में अपनी स्थिति को देखकर और भी अधिक दुखी हो जाते हैं। और ऐसे इसान अपने किए कर्म का ठीकरा भी दूसरे के सिर फोड़ कर सारी उमर दूसरो को भी दुखी करते रहते हैं। बोया पेड़ बबूल का तो , आम कहाँ से होए। दूसरों की तुलना में अपने जीवन को देखने से हमें लगता है कि हमारे पास वह नहीं है जो दूसरों के पास है, यानि "दूसरे की थाली में ज्यादा ही घी दिखाई देता है। "औरों इससे हम दुखी हो जाते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि हर किसी के अपने संघर्ष और चुनौतियाँ होती हैं, । अत:हमें अपने जीवन को दूसरों से तुलना करने के बजाय अपने लक्ष्यों और मूल्यों के अनुसार जीने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मेरी राय में खुश रहने के लिए, हमें अपने जीवन को स्वीकार करना सीखना चाहिए और अपने कर्मों और सोच को सकारात्मक दिशा में लगाना चाहिए।  सुख -दुःख ही तो जीवन की गाड़ी को चलाते हैं । हमें अपने जीवन को दूसरों से तुलना करने के बजाय अपने लक्ष्यों और मूल्यों के अनुसार जीने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिससे जीवन में सुख और संतोष धन की प्राप्ति होती है। 

       - रंजना हरित

   बिजनौर - उत्तर प्रदेश 

       अपने कर्म से हमें संतुष्ट रहना चाहिए, हम जितना प्रयास करते हैं प्रयासों के साथ भाग्य भी साथ देता है तो सफलता संतुष्टि प्राप्त होती है, किंतु कभी-कभी हम हमें जो मिल रहा है उससे संतुष्ट न होकर हमारे प्रतिस्पर्धी के द्वारा की गई तरक्की को देखकर अपनी खुशी को भूल जाते हैं। इसीलिए उपरोक्त कथन सत्य प्रतित होता है।जबकि होना यही चाहिए कि हमें जो अपने कर्मों से मिल रहा है हमारा भाग्य और हमारी मेहनत जो हमें दे रही है उससे संतुष्ट रहकर सदा खुश रहना चाहिए यही जीवन का सत्य है। कई बार देखा यह गया है की जिन लोगों के साथ वह कार्य करता है उनमें ही उसे दोष नजर आता है उसे हमेशा अपने द्वारा किया गया कार्य सही दिखता है व साथी कार्यकर्ताओं द्वारा किया कार्य से हमेशा असंतुष्ट रहता है इसलिए वह खुश नहीं रह पाता है। जिस दिन हम खुद को संतुष्ट कर पाएंगे उसे दिन से हम उपरोक्त विषय को झुठला कर जीवन का सही आनंद ले पाएंगे। 

   - रविंद्र जैन रूपम

      कुक्षी - मध्य प्रदेश

      खुश नहीं है कोई अपने कर्म से क्योंकि व्यक्ति सोचता है कि वह और बहुत कुछ कर सकता था , जो वह अपने निजी कारणों से नहीं कर पाया !! दूसरे शब्दों मैं लगभग हर व्यक्ति अपने ही प्रयासों से असंतुष्ट है , कुछ और करने की चाह , जो कर नहीं पाया , उसे खुश नहीं होने देती !! दूसरों की सफलता , उनके किए गए कर्म , देखकर वह सोचता है कि काश वह भी वो सब कर पाता , जो दूसरे ने किया है , अपने सतत कर्मों या प्रयासों से !! दूसरों के कर्म , दूसरों की सफलता , मात्र एक खूबसूरत भ्रम है , जिसे देखकर व्यक्ति दुखी हो जाता है !! जितने मर्जी अच्छे कर्म कर लो , जिंदगी मैं कष्ट, संघर्ष , कठिनाइयां ,सबकी जिंदगी मैं आती हैं !! स्वयं पर विश्वास रखें , स्वयं के स्वाभिमान को बरकरार रखते हुए ,यथासंभव यत्न करें , सफलता मिलेगी !! दूसरों से कभी अपनी तुलना न करें , व दुखी न हों !! प्रयास करके छोड़ दें , सफलता समयानुसार ही मिलेगी !!

      - नंदिता बाली 

  सोलन - हिमाचल प्रदेश

      मनुष्य का स्वभाव बड़ा विचित्र है। वह अपने कर्मों से कभी संतुष्ट नहीं रहता। चाहे कितनी भी मेहनत कर ले, उसे लगता है और कुछ करना चाहिए था। दूसरी ओर वह केवल दूसरों का ही कर्म देखकर दुखी होता है क्योंकि उसके पास समय नहीं कि वह एक बार अपने गिरेबान में भी झांक कर देखे। दूसरे की सफलता हमें खटकती है, दूसरे की खुशहाली हमें ईर्ष्या से भर देती है। हम भूल जाते हैं कि हर किसी का जीवन अलग है, उसकी मेहनत, परिस्थितियाँ और भाग्य अलग हैं। सच तो यह है कि यदि मनुष्य अपने कर्मों पर ध्यान केंद्रित करे, अपनी कमियों को सुधारते हुए संतोष के साथ आगे बढ़े, तो वही जीवन को सुखमय बना सकता है। दूसरों को देखकर दुखी होना केवल समय और ऊर्जा की बरबादी हैऔर कुछ नहीं।

         - सीमा रानी      

          पटना - बिहार 

     जीवन में गम गमन खुशी उतार-चढ़ाव आते-जाते रहते है, अपने-अपने कर्मों से खुश रहते है, दु:खी वही है, दूसरों के कर्म को देखकर, स्वयं अच्छा कर्म नहीं कर सकता देखते-देखते जलन भावना घर कर लेती है, बीमार वही होता, जिसका इलाज हो ही नहीं सकता है। दुख और खुश एक सिक्के के दो पहलू है। किसी की आत्मा को दुखाने से कोई मतलब नहीं है।  जैसा कर्म करोगें वैसा फल भी मिलेगा, दुदृर्ष्टि बनायें रखने में अच्छे कर्म की पहचान है। वहीं इंसान भाग्य शाली है, जो दूसरों के उत्थान को देख स्वयं प्रफुल्लित हो, उसे उसका फल भी मिलता....।

- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर"

           बालाघाट - मध्यप्रदेश

     इंसान प्रायः अपनी परिस्थितियों और कर्मों को स्वीकार नहीं करता, परन्तु दूसरों के कार्यों और उपलब्धियों को देखकर दुखी हो जाता है। अर्थात अपनी कमी से उतना व्यथित नहीं जितना दूसरों की सफलता या भिन्न कर्म देखकर। हम अपनी मेहनत का मूल्यांकन करने के अपेक्षा दूसरों से तुलना करने लगते हैं। यह ईर्ष्या और दुख का कारण बनती है। जो मिला है उसे पर्याप्त मानने की जगह हम हमेशा और अधिक की चाह में रहते हैं। अगर व्यक्ति अपने कर्म पर ध्यान केंद्रित करे और उसे ही सुधारता रहे, तो संतोष और सच्ची खुशी मिलेगी। दूसरे का कर्म प्रेरणा बने, पीड़ा नहीं – यदि हम दूसरों को देखकर दुखी होने के बजाय उनसे सीखें, तो उनका कर्म हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। "तुलना छोड़कर अपने कर्म में निखार लाना ही सच्चा सुख है।"

   - डॉ. छाया शर्मा 

  अजमेर - राजस्थान 

      आज की परिचर्चा आज की सच्चाई को बयां करती है. शायद दुनिया में बहुत कम लोग ही होंगे जो अपने कर्मों से खुश होंगे. सबको लगता है कि हमसे अच्छा उसका कर्म है. और लगता है कि उसके कर्म से किसी और का कर्म बेहतर है. और इसलिए मनुष्य सदा ही दुःखी रहता है. इसी नियम के तहत लोग अपनी पत्नी के बजाय दूसरे की पत्नी को सुन्दर कहते हैं और पत्नियां दूसरे मर्द को समझदार कहती हैं. आज भी गाँवों में शहर में भी मैंने देखा है कि लोग अपने लड़के के  स्कुल फाइनल परीक्षा फेल होने पर दुःख नहीं होता है जबकि दूसरे के लड़के के पास होने से दुःखी होता है.उसी तरह अपने लड़के के पास होने से उतनी खुशी नहीं होती है जितनी खुशी दूसरे के लड़के के फेल होने से होती है. आजकल लोगों की यही प्रवृति  हो गई है. अपने दुःख से कम दूसरे की खुशी से ज्यादा दुःखी है. अपनी नौकरी कितनी भी अच्छी हो अच्छी नहीं लगती दूसरे की नौकरी अच्छी लगती है. उसमें अधिक कमाई है, कम मेहनत है. फांकी मारने की सुविधा है. इत्यादि इत्यादि.इसलिए ये बात एकदम सत्य है कि लोग अपने कर्म से खुशी नहीं है बल्कि दूसरे के कर्म से दुःखी हैं. 

 - दिनेश चंद्र प्रसाद " दीनेश "

          कलकत्ता -प. बंगाल 

        मानव की यह प्रवृत्ति होती है कि उसके पास जो भौतिक सुख होता है, उससे वह संतुष्ट  रहता है, कब तक? जब तक अपने से ऊपर किसी के घर जाकर उसका भोतिक सुख नहीं देखता। हम अपने कार्य से भी असंतुष्ट हो जाते हैं जब हम देखते हैं कि अरे मेरा यह मित्र तो मेरे साथ ही पढ़ता था ।पढ़ने में ठीक ठीक था।मेरे जितना ही पढ़ा है।मुझसे सीनियर पोस्ट में है।उसे देख वह दुखी हो जाता है। हालाकि उसका भी ओहदा कम नहीं है किंतु दुख इस बात का है कि उससे सीनियर है। धमाल लेता उसका भाग्य साथ दे रहा है।
हमें अपने कर्म पर पूरा भरोसा होना चाहिए। हममें आगे बढ़ने का जूनून होना चाहिए ना की दूसरे के कर्म को देख दुखी।कर्म करते रहो परिश्रम और संघर्ष का फल अवश्य मिलेगा।

  - चंद्रिका व्यास 

   मुंबई - महाराष्ट्र 

      देखा जाए सुख और दुख  मनुष्य के जीवन की भावनाओं का मूल आधार है जबकि दुख मनुष्य के जीवन के वो भाव हैं जो  संपूर्णता की और बढ़ने  नहीं देता और मोह माया को जन्म देता है देखा जाए आजकल लोग अपने  कर्मों से नाखुश होकर और दुसरे के कर्मों से  दुखी  होकर अपने अंदर अशांति और ईर्ष्या फैलाते हैं, जिससे पता चलता है कि व्यक्ति अपने जीवन के कर्मों से संतुष्ट नहीं है और दुसरों की सफलता को सहन नहीं  कर  पाता तो आज की चर्चा का विषय इसी बात से करते हैं कि खुश कोई नहीं है अपने कर्म से दुखी है वह दुसरे के कर्म से बिलकुल सही  बात है, क्योंकि ऐसी भावना तब उतपन्न होती है जब कोई व्यक्ति दुसरों की खुशी या सफलता को अपनी कमी समझता है और उससे जलने लगता है इसका मुख्य कारण यह भी होता है कि जो लोग खुद के कामों में व्यस्त नहीं होते वे दुसरों के कार्यों  पर ज्यादा ध्यान देते हैं और उनकी सफलता को सहन नहीं कर पाते और जलते हैं क्योंकि दुसरों के सुख में खुश होने वाले बहुत कम लोग होते हैं और दुखी होने वाले ज्यादा और वोही लोग दुसरों को सुखी देख कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं क्योंकि कुछ लोगों का स्वभाव तुलनात्मक होता है उसी स्वभाव के कारण उनका दुख बढ़ता है, जब वो दुसरों के साथ अपनी तुलना करते हैं उन्हें अपनी चीजें कम दिखने लगती हैं तो वो दुखी हो जाते हैं क्योंकि वो पहले ही अपने कार्यों से असुन्तिष्ट होते हैं और दुसरों को देख कर और दुखी हो जाते हैं अन्त में यही कहुँगा कि जीवन में  हुई हर घटना के दो पहलु होते हैं आप उस परिस्थिति से क्या  लेना चाहते हैं यह आप पर निर्भर करता है कि आप संतुष्ट रहना चाहोगे या दुखी क्योंकि लोग अनावश्यक उम्मीद पाल लेते हैं जो लोभ मोह को बढ़ावा देती हैं और ईर्ष्या का भाव बढ़ातीं हैं तथा भौतिक सुख न पा कर दुखी रहते हैं इसलिए दुसरों के कर्मों को देख कर दुखी होना  स्वाभाविक रूप से लोगों में मौजूद होता है, जबकि दुख मनुष्य के जीवन का वो भाव है जो संपूर्णता की और बढ़ने नहीं देता और मोह माया को जन्म देकर आपने कार्यों को सही दिशा में नहीं होने देता जिससे व्यक्ति अपना कर्म सही ढंग से नहीं कर पाता और अपने कर्म से खुश नहीं हो पाता और दुखी रहता है हाँ यदि हम न्युनतम अपेक्षाओं के साथ कर्म करते हैं और अपनी क्षमता के अनुसार अधिकतम प्रयास करते हैं तो हम जीवन में खुश रह सकते हैं नहीं तो अपने कर्म से इंसान दुखी इसलिए होता है कि जीवन में  वो अपनी तुलना दुसरों से करने लगता है और अधिक पाने की लालसा रख कर दुसरों की सफलता से  दुखी होता है जिससे ईर्ष्या और असंतोष की भावना जन्म लेती है और वो चाह कर भी खुश नहीं रह पाता। 

 - डॉ सुदर्शन कुमार शर्मा

    जम्मू - जम्मू व कश्मीर

         आज कल का इंसान जो है वह अपने दुख से  कम   दुखी  है, दूसरे को खुश देखकर ज्यादा दुखी है । इंसान की मानसिकता इतनी बिगड़ गई है कि वह किसी को खुश देखना ही  नहीं चाहता है वहां अपने  गम की परवाह नही करता । दूसरों  की जिन्दगी मे अधिक दखल रखता है,दूसरो के काम  बिगाड़ना उनके बनते काम में टागं  अडाना,और उनके सुख को देखकर जालना और दुखी होना दूसरो के  दुख मे   खुशिया  मनाना  और दूसरे की खुशहाली देख  तरक्की देख  इन सबसे ज्यादा दुखी होता है उसकी अपने कर्मो पर ध्यान नही है, दूसरो का लेखा जोखा रखने मे अधिक दिलचस्पी रहती हैं ।

 - अलका पान्डेय

   मुम्बई - महाराष्ट्र 

" मेरी दृष्टि में " सभी के कर्म अपने -अपने होते हैं और परिणाम भी अलग अलग होते हैं।‌ यही कर्म ही आपको भगवान बना सकता है। जैसे भगवान श्री राम को देखा जा सकता है। भगवान श्री राम के कर्म ने ही ऐसी स्थिति को प्राप्त किया है कि आज भी भगवान श्री राम नारा घर घर में गुजता है। यही कर्म का खेल है। बाकि भाग्य से कर्म बनता है और कर्म से भाग्य बनता है। यही भाग्य और कर्म का खेल है। 

      - बीजेन्द्र जैमिनी 

   (संचालन व संपादन)

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