लघुकथा - 2018

             
   सम्पादकीय

                  लघुकथा के प्रति एक सोच

  साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह सबने सुना है । परन्तु समय का प्रतिनिधि भी करता है। इसी सोच के साथ " लघुकथा - 2018 " का सम्पादन का निर्णय लिया है। नये पुराने सभी लघुकथाकारों एक - एक लघुकथा के साथ मौका दिया गया है।
      सभी लघुकथाकारों की पृष्ठभूमि अलग अलग होती है।  अलग-अलग सोच के कारण लघुकथा की विषयवस्तु व लेखन की तकनीक विभिन्न तो होगी। इन सब को एक साथ पेश करने का प्रमुख उद्देश्य यही है।
      लघुकथा - 2018 में 15 से अधिक राज्यों के लघुकथाकारों को शामिल किया गया है। इसके पीछे सबको एक साथ पेश करने का उद्देश्य है।  लघुकथा की सार्थकता आप सब की विवेचना पर निर्भर करता है। इस आशा के साथ ........।
                                   - बीजेन्द्र जैमिनी
                                    लघुकथा-2018
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  लघुकथा - 01
                               उतरन 
                                           - सेवा सदन प्रसाद
    पति की मौत के बाद अनपढ़ कमला, कमला बाईं बन गई ।दाल - रोटी की जुगत तो हो गईं ।मेम साहब के बच्चों को देखकर अपने बच्चों को भी स्कूल भेजने लगी।पर्व त्योहार पे मेम साहब पुराने कपड़े एवं साड़ियां कमला बाईं को दे देती।उस उतरन को पर्व का तोहफा समझ कमला बाईं काफी खुश हो जाती और बच्चे भी निहाल हो उठते ।
               दिवाली करीब ही थी ।इस बार कमला बाईं की नजर मेम साहब की नीली रंग की साड़ी पे थी जिसे देने का मेम साहब वादा भी कर चुकी थी ।बच्चों के कपड़े भी सब फट चुके थे ।पर कोने में पड़ी उतरन के ढेर देख वह मन ही मन खुश हो रही थी कि इस बार शायद दो - तीन जोड़े मिल जायें ।
         धनतेरस के एक दिन पहले जब कमला बाईं मेम साहब के घर पहुंची तो अवाक रह गई ।पुराने कपड़ों के बदले बर्तन देने वाली एक औरत के सामने मेम साहब कपड़े का ढेर लगा रही थी और सबसे ऊपर थी - नीली रंग की साड़ी । ००
पता : 601 महावीर दर्शन सोसायटी प्लाट नंबर 11C सेक्टर 20 खारघर नवी मुंबई - 410210 (महाराष्ट्र )
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लघुकथा -02
               ‌   दुल्हन का श्रंगार
                       ‌‌          - रीता जयहिंद हाथरसी
घर बिजलियों की रंगबिरंगी रोशनियों से जगमग - जगमग कर रहा था ।दरवाजे फूलों और बंदनवार से सजे हुए थे... ।
मंदिर में ठाकुर जी अपनी राधारानी  के साथ मंद - मंद बांसुरी की धुन से वातावरण सुवावित कर रहे थे एक तरफ घर में मधुर संगीत  की ध्वनि से हम आपके हैं कौन  वाली फिल्म के गाने से सबको आनंदित कर रहे थे दुल्हन का श्रंगार  अच्छी ब्यूटीशियन से होने की वजह से और भी उसके चेहरे पर चार चाँद लगा रहा था ।
  रिशतेदारों और सगे संबंधियों की रौनक से चहलपहल कर रहा था बारात के आने का इंतजार सभी कर रहे थे तभी दूर से शहनाई की धुन सुनाई दी और बच्चे दौड़कर बारात आगई का शोर करते हुए द्वार की तरफ जाने लगे बारातियों का भव्य स्वागत और कुछ रस्मों के बीच बारात  मंडप तक पहुँची दुल्हन का श्रंगार इतना सुंदर प्रतीत हो रहा था मानो कोई दूल्हा अपनी दुल्हन को चाँद के पार से लेने आया हो ।
बढ़िया तथा आजकल की अच्छी आधुनिकता एवं दुल्हे के पिता जी द्वारा दहेज में केवल "सवा रूपया " ही स्वीकार कर बाकी राशि  "दुल्हन ही  दहेज है "कहकर सभी को चकित कर दिया और बदलते भारत की तस्वीर स्पष्ट रूप से नजर आ रही थी ।"अच्छे दिन " आ गये हैं । ऐसा प्रतीत हो रहा था ।"स्वच्छ भारत " हरेक कहे रहा था ।
माता  - पिता का आशीर्वाद पाकर दूल्हा और दुल्हन सभी बाराती रवाना हो चुके थे।और पीछे रखे डी जे पर हल्की - हल्की धुन में " बाबुल की दुआऐं लेती जा " के बाद  "साड्डा चिड़ियाँ दा चंबा वे " मद्धम आवाज में बज रहा था । ००
पता : हाउस नंबर - 3941 पहली मंजिल , थाना स्ट्रीट , पैलेस सिनेमा के सामने , ओल्ड सब्जी मंडी
दिल्ली - 110007
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लघुकथा - 03  
                             गठरी
                                        - डॉ नीना छिब्बर
   नीरजा, अपनी मौसी मोहिनी को  बस मे बैठाकर अपने पति के साथ घर वापस लौट आई। घर पर मौसी की उपस्थिति हर जगह आभासित ह़ो रही थी । मौसी के साथ बिताए कुछ दिन माँ की कमी को और जीवित कर गए। अनपढ़ बूढी मौसी किस तरह की गूढ बातें ,बातों बातों मे यूँ ही  बोल जाती। उम्र के अनुभवो की एक गठरी वह नीरजा के पास छोड़ गई थी।
              उसने विज्ञान की कक्षा मे पढा था कि लाल लिटमस पेपर रसायन मे डालने पर उस का रंग नीला हो जाता है। आज ना जाने क्यों  वह सब याद आ रहा था। यकिन  हो गया कि यादों की अदृश्य पोटलियाँ   खोलने पर भीतर कुछ और ही निकलेगा।
पहली पोटली जिसपर कंजूस लिखा था । उसके भीतर आत्म सुरक्षा के लिए धन संभालना लिखा था क्योंकि बुढापे मे पैसा होने पर कोइ पूछता है। जिस पोटली पर  बहू प्रशंसा लिखा था उसके भीतर अपनी ही बेटी को घर पर आने का प्रतिबंध लगने का भय था। जिस  पोटली पर धार्मिक लिखा था उसके भीतर  अकेलेपन की टीस थी।जिस पोटली पर सादा भोजन लिखा था उसके भीतर बच्चों की मनमानी व शासन लिखा था।जिस पोटली पर गहनों की लालची ,लोभी लिखा था उसके भीतर अपनी ही संचित कमाई से ,अपने मनमुताबिक बच्चों को उपहार एवं पुराने संस्कारो, यादों से जोडने का मन था।
        नीरजा ने घबरा कर पोटली को गठरी दूर फैक दिया।।ऐसा महसूस हुआ  विक्रम वेताल की कहानी की तरह  वह पीठ पर विराजमान हो गई है। ००
     पता : 17/653 , चौपशनी हाऊसिंग बोर्ड
              जोधपुर - 342008 राजस्थान
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लघुकथा - 04
               ज़िन्दगी का पहला वेतन
               ‎                           - बीजेन्द्र जैमिनी
               ‎
      कालिया जिन्दगी का पहला वेतन लेकर घर आ रहा था। घर के बाहर भिखारी ने रोक लिया और हाथ आगे कर के बोला - कुछ दे दो ?
        ‎कालिया ने जेब से पर्स निकाल कर, उसमें से एक सौ का नोट देते हुए बोला - कितने दिन तक भीख नहीं मांगेगा ?
        ‎भिखारी ने उत्तर दिया -   सिर्फ़ तीन दिन
        कालिया ने कहा - अगर पांच  सौ का नोट दे दूं तो ?
        ‎भिखारी ने कहा - कम से कम पंद्रह दिन तक।
        ‎कालिया ने फिर कहा - अगर दस हज़ार दे दूं तो ‌?
        ‎भिखारी का सिर घूम गया और कालिया की ओर घूरते हुए बोला - भिखारी की मज़ाक मत उड़ाओ ।
        ‎कालिया ने कहा- मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूं।
        ‎भिखारी ने तंवर घुमाते हुए बोला - जिन्दगी में कभी भीख नहीं मांगूंगा। इन पैसों से काम करूंगा।
        ‎कालिया ने तुरन्त जिन्दगी का पहला वेतन के पूरे के पूरे दस हजार भिखारी के हाथ पर रख दिए। भिखारी खुशी के मारें रौ पड़ा ।  कालिया तो भिखारी के पांव छू कर घर में घुस गया। यह सब नजारा कालिया के पिता जी देख रहे हैं और सोचने लगें कि मेरे पिता जी ने मेरा जिन्दगी का पहला वेतन का शनि मंदिर के बाहर लंगर लगाया था। परन्तु कालिया तो मेरे पिता जी से भी आगे निकल गया ।  ००
       # हिन्दी भवन, 554- बी, सैक्टर -6, हाऊसिंग बोर्ड कालोनी, पानीपत -132103, हरियाणा
           ‎ई-मेल : bijender1965@gmail.com
     ‎WhatsApp Mobile no.9355003609
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लघुकथा - 05
                        " विश्वास "
                                     - श्रद्धा दीक्षित
"बेटा, क्या अब बहू  भी ऐसे बाहर जाकर काम   करेगी! "
"तो क्या हुआ माँ  ??? मैं भी तो ऐसे बिजनेस टूअर पर जाया करता था , तब तो तूने कभी कोई सवाल नही किया? ?
तो अब ये सब"
"पर बेटा !!!!"
"माँ , हमें तो सांझ पर गर्व होना चाहिए, मेरे ऐक्सिडेंट के बाद से सब कुछ उसी ने ही तो संभाला है, मेरी, तेरी,  बच्चों की सारी जिम्मेदारी उसी के  कंधो पर  ही तो आ पड़ी है।
तू चिंता मत कर माँ,  जैसे अभी तक तूने अपने बेटे पर विश्वास किया है, वैसे ही अब तेरी अपनी बहू  पर विश्वास करने की बारी है ।।"
कुछ क्षण सोच कर....
"क्या हुआ मां, कहां चल दी????""कहीं नहीं  बेटा सोच रही हूं सांझ के सफर में खाने के लिए कुछ लड्डू और मठरी बना दूँ,
उसे अच्छा लगेगा।। "  ००
   पता :  लाल इमली चौराहा, दुर्गा कॉलोनी ,
              शाहजहाँपुर,उत्तर प्रदेश
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लघुकथा - 06
                          रंगीन तन
                                       - राजेश मेहरा
शादी को सात महीने गुजर गए थे। उसका पति उसे गांव से शहर में ले आया । इन सात महीनों में उसने महसूस किया कि उसका पति उससे खुश नही है।
उसका पति अक्सर ही अपने ऑफिस की उनकी एक महिला दोस्त को ले आते थे और फिर बन्द कमरे से उसे केवल हंसने और ख़िलखिलाने कि आवाजे आती थी। उसके पति की महिला दोस्त मेकअप करके उससे ज्यादा सूंदर ओर मॉडर्न लगती थी।
वो जब भी आती थी उसकी तरफ कुटिल हंसी के साथ देखती।
उसने महसूस किया कि उसकी गृहस्थी अब नही बचेगी।
वो दिल की साफ और दयालु महिला है लेकिन शहर में कहां इन चीज़ों का क्या मोल ।
उसके नाक नक्श भी ठीक है लेकिन ग्रामीण परिवेश में कहां कोई मेकअप पर ध्यान देता है।
उसने अपने पति को बहुत प्यार और सम्मान दिया लेकिन अपनी तरफ आकर्षित नही कर पाई।
उसने एक आखिरी कोशिश करने की सोची ताकि वो  अपनी गृहस्थी को बचा सके..।
उसने शाम को ब्यूटी पार्लर जाकर मेकअप करवाया और अंग दिखाऊ कपड़े पहन अपने पति का इंतजार करने लगी।
शाम को पति फिर उस अपनी दोस्त के साथ आये।
रोज की भांति वो दरवाजा खोल रसोई में चली गई। उसका पति लेकिन अब केवल उसको ही देखे जा रहा था। गांव का शरीर और ऊपर से मेकअप,वो लग भी बहुत सुंदर रही थी।
अन्य दिनों से उलट आज उसके पति ने उस महिला दोस्त को जल्दी विदा कर दिया और आकर उससे लिपट गया। वह उसे अपने प्यार की दुहाई देकर उसके रूप की बहुत तारीफ कर रहा था।
वो भी अपने आंखों में आंसू लिए अपने पति से लिपटी थी और शायद अपनी गृहस्थी को बचाने में सफल रही लेकिन अपना साफ मन और तन को रंगीन करके क्योंकि ये दोनों ही रंगीन न हो तो आज के जमाने मे इनकी कोई वैल्यू नही। ००
       पता : 280 , पूरन कैम्प , ताजपुर पहाड़ी,
                जैतपुर रोड़ , बदरपुर - दिल्ली - 44
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लघुकथा - 07
                            सवाल
                            ‎            - कमलेश भारतीय
मेरे पडोस में एक बच्चा रहता है । अभी वह मासूम बोल नहीं सकता । इसलिए दिल की भाषा में बात करता है । जब कभी बाहर जाने को होता हूं वह मेरे पीछे आ जाता है । जोर जोर से रोने लगता है ।
शायद हर बच्चा बाहर की दुनिया देखने और जानने को इतना ही उत्सुक होता है । एक दिन मैं मंदिर जा रहा था । वह आंखों आंखों में कहा रहा था कि मैं भी साथ चलूँगा । मंदिर में जैसे ही मैंने उसके माथे पर चंदन का तिलक लगाया उसने मुझे घूर कर देखा । जैसे कहना चाहता हो -अंकल , यह क्या कर रहे हो ? मैं तो इंसान के रूप में दुनिया देखने निकला था और आप मुझे लक्ष्मण रेखाओं में बांधने लगे ?
आपके पडोस में जरूर कोई बच्चा रहता होगा ।उसकी आंखों में भी ऐसा ही सवाल होगा -अंकल , क्यों जरूरी हैं तेरे प्रतीक ? जिनसे बोये जाते हैं बंटवारे के बीज ? अंकल क्या इसी से दंगों की बुनियाद नहीं पडती ?  ००
   पता : 1034- बी, अर्बन एस्टेट-11, हिसार - हरियाणा
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लघुकथा - 08
                         चरघरवा
                                          - सारिका भूषण
            " अरे ! सुगनवा काहे बात नहीं सुनता है ? जब देख तब पोटलिया बाँध लेता है । अबकी कस के लथाड़ेंगे ....... बता देते हैं । "
"जा! जल्दी से भीतरे से औरो दियरा और खिलौनवा ले आओ । अरे ! सुनता नहीं है का ? हम मरल जा रहे है धूपवा में बेच - बेच कर और ई है कि कनवा में ठेपिया लगाकर बईठा है ।" अबकी बार फुलवा कुम्हार अपने 10 वर्षीय बेटा , सुगना को चिल्लाते हुए बोला ।
पटना के फुलवारीशरीफ मोहल्ले में सभी फुलवा कुम्हार को जानते थे । शादी- ब्याह में और दीपावली के समय उसे ख़ास करके याद किया जाता था ।
फुलवा एक गरीब कुम्हार था । मगर बारीक काम के कारण लोग उसके बनाए मिट्टी के दीए और खिलौनों को काफी पसंद करते थे। जो भी थोड़े बहुत अपने गांव से बनाकर शहर में बेचने आता सभी हाथों - हाथ बिक जाते थे ।
सुगना दौड़ कर अंदर वाले बोरे से मिट्टी के खिलौने ... छोटा चुक्का , चूल्हा, सूप, गुल्लक सभी ले आया.......सिर्फ एक छोड़कर .....एक चरघरवा , जिसमे चार छोटे - छोटे चुक्के जुड़े रहते हैं एक टांगने की हैंडिल के साथ । क्योंकि दीपावली के दिन मालकिन से उन चारों चुक्के में लावा , भूंजा और चीनी की मिठाई मिलेगी .....जो कि उसकी छोटी हथेलियों से बड़े होंगे । ००
  पता   -  C / 258 , रोड - 1C ,
अशोक नगर , रांची - 834002 , झारखंड
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   लघुकथा - 09
                      इंद्र धनुष
                                       - लक्की राजीव
         
"ए भइया,हमको‌ फूटा बतासा ना खिलाना,और खिलाना तो‌ गिनना नहीं....पानी तो बढ़िया है, हींग पीस के मिलाते हो कि ऊपर से छौंका लगाते हो?....लेओ, फिर फूटा बतासा दिया,बीस के पांच यानि चार का एक हुआ, उसमें से दो तो फूटे निकल गये,...."
मैं सौरभ शुक्ला, मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर,जो कि हर महीने लाखों कमाता हूं,और ये मेरी पत्नी गीता,जो कि चार रुपए के लिए चाटवाले की जान लेने पर आमादा है! बाबूजी ने क्या देखकर इसे पसंद किया? मैंने लाख मना किया लेकिन ये फंदा मेरे गले डाल दिया गया...कहने भर को बी ए है, कोई तरीका नहीं, एकदम देहातिन।
ऐसे ही परसों मोहित मिल गया , मल्टीप्लेक्स में, मैं बच के निकलने लगा, उसने देख लिया,
"कहां बच्चू?अरे भाभीजी भी आई हैं, कैसी फ़िल्म पसंद है आपको?"
"अरे भइया,बस पीछे वाली सीट मिल जाए,टेक लगाने वाली,सभी पिच्चरें बढ़िया लगती हैं..."और एक फूहड़ ठहाका!
ऐसे ही अनगिनत प्रसंग हैं,मेरी बदरंग होती ज़िंदगी के !
"कब से बुला रहे हैं आपको,चालीस रुपए दीजिए, दो गजरे लेंगे"
"अरे यार, गाड़ी में बैठो, मुझे पैकिंग भी करनी है,भाड़ में जाए गजरा"
अगली सुबह मेरी फ्लाइट थी, मुंबई जाना था एक दिन के लिए एक सेमिनार में....सोमेश भी वहीं है, सचिन भी, सबसे मिलना हो जाएगा।
ऑफिस से सीधे सोमेश के घर गया, सचिन भी वहीं था,  पुराने दोस्त मिले, अच्छा लगा,
"साले,मोटा हो गया है,गीता खूब खिलाती है, हां?"
मैं ना नहीं कह पाया, बात सच थी।रात को
सबने खूब पी,नशे में सबके दर्द बाहर आ रहे थे,
"और सुना सौरभ,कैसा चल रहा है?"
"यार गलत लाइफ पार्टनर मिल जाए ना,लाइफ खतम समझ लो.... तुम तो मिले हो गीता से,पता तो है सब.."
"साले, तुम्हारी लाइफ खतम तो हमारी क्या है बे?घर से आना जाना बना हुआ है ना?खाना मिलता है ना?इज्जत करती है ना बीवी?... हम लोगों की तो मॉडर्न हैं बीवियां, इंग्लिश में टर्राती हैं....समझ लो बेटा, गालियां भी इंग्लिश में ही पड़ती हैं.... मां बाप यहां चार दिन को भी आ नहीं सकते, चोरी छिपे पैसे भेजते हैं घर....पूछो सचिन से , पिछले महीने क्या कांड हुआ इनके यहां..."
मैं स्तब्ध था, सचिन की ओर देखा,
"अबे, कुछ नहीं भतीजे का ऑपरेशन था, बीस हजार भेज दिए थे घर,...ऐसा बवाल,ऐसा बवाल हुआ,अभी तक मुंह फूला है मैडम का,नरक है यार नरक....
मैं और देर वहां नहीं बैठ पाया,गले में कुछ अटक रहा था, पानी पिया, आंखें बंद करके लेट गया,सब याद आ रहा था,....क्या मांगा उसने आज तक मुझसे? .....मेरा रात दिन ध्यान रखती है, रुपए पैसे से मतलब नहीं, मां बाबूजी आ जाते हैं तो उनको घुमाना, डॉक्टर को दिखाना..... कब आंख लग गई,पता नहीं!
अगले दिन वापस आना था,फ्लाइट से उतर कर कैब बुलाई,.... रास्ते में गजरे वाला दिखा, कुछ याद आ गया,२ गजरे लिए...तब तक चाटवाला दिख गया,
"भइया,पचास बताशे पैक कर देना," मैं कैब के अंदर से चिल्लाया,"देखना एक भी फूटा ना निकले!" ००
     ‌‌पता :  बी - 6, 704 सोनिगरा केसर ,
               कस्पटे वस्ती, पुणें
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लघुकथा  -  10  
                  डिलीवरी
                               -      ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
मोबाइल की घण्टी बजते ही उसने तुरंत अटैंड किया।"हैलो! कौन?"
"अरे,सोनसिंह!मैं सरकारी अस्पताल से एम्बुलेंस वाला तुम्हारा मित्र धनसिंह बोल रहा हूँ।इस पते पर अभी तुरंत
पहुँचो।एक नाजुक डिलीवरी केस है।न जाने रात को क्या हुआ,यह सरकारी एम्बुलेंस पंचर पड़ी है। शीघ्र पहुँचो भैया,ज़िन्दगी और मौत का सवाल है।"
         धनसिंह अपने मित्र से ऐसे गुहार लगा रहा था जैसे  उसकी पुत्री के ही डिलीवरी होने वाली हो। खैर।सोनसिंह ने तत्काल अपनी गाड़ी स्टार्ट की और डिलीवरी केस को लेकर तुरंत अस्पताल पहुँचा।
          सोनसिंह की तत्परता और निष्ठा ने अपना रंग दिखाया। सकुशल डिलीवरी हो गई ।जच्चा और बच्चा दोनों  सुरक्षित और सकुशल थे।ख़ुशी में मिठाइयां बटने
लगी।
       परिवार का मुखिया गाड़ी का किराया भुगतान करने के लिए ख़ुशी-ख़ुशी अस्पताल से बाहर निकला ,मगर सोनसिंह- ड्राइवर का कहीं अतापता नहीं था । ००
पता :  1/258 मस्जिदवाली गली
        तेलियान मोहल्ला, सिरसा (हरि.)
        पिन-125055
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लघुकथा - 11
                                फर्ज
                                    - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
" अशरफ मियाँ कहाँ थे आप ? "
" कहाँ थे आप ! मैं समझा नहीं  सर ?"
" अशरफ मियाँ  इ . ओ . सर ने औचक निरीक्षण किया तो आपकी क्लास खाली पड़ी थी .बच्चे धमाचौकड़ी मचा रहे थे . "
" सर आप भी बच्चों जैसी बातें कर रहे हैं ! क्लास के चक्क्रर में हम अपनी इबादत जैसी जरूरी आजमाइशें छोड़ दें क्या ?"
" कमाल है अशरफ साहब , क्या आप नहीं जानते कि क्लास खाली हो तो बच्चे  बातों - बातों में आपस में किसी का सर भी फोड़ सकते हैं ."
" सर जी , अगर मामला इतना संजीदा है तो स्कूल का हेड होने के नाते इसकी फ़िकर   आपको करनी चाहिए . मैं अपनी इबादत का टाइम किसी को नहीं दे सकता . भले ही कुछ भी हो जाए ."
" ठीक है अब तो चले जाओ क्लास में ."
       " पापा  ! जल्दी घर चलिए , भाई जान घर में बैठे  हैं और लगातार रोये चले जा रहे हैं . किसी के चुप कराये नहीं मान रहे ." अशरफ सर का बेटा उन्हें पुकारता हुआ बदहवास स्कूल के अंदर आ गया .
      " अकीब लगातार रोये चले जा रहा है ! क्यों क्या हुआ ?"
      " पता नहीं पापा ,भाई जान कुछ बताएं तब न ."
     "  कुछ तो कहता होगा . आखिर हुआ क्या ?"
     " लगता है उनकी नौकरी छूट गयी है ."
     " मुस्तैदी से काम नहीं तो करेगा  नौकरी तो छूटेगी ही . कम्पनी का मालिक क्या उसका चचा  लगता  है कि वो अपना फर्ज छोड़कर हरामखोरी करेगा और पगार भी लेता रहेगा ."
       अब अशरफ सर , प्रधानाचार्य की ओर मुखातिब होकर  बोले , " सर ! घर जाना जरूरी है नहीं तो साहबजादा इस उमर में भी बच्चों की तरह सिसक - सिसक कर अपनी अम्मी का जीना हराम कर देगा . न जाने हरामखोर कब सुधरेगा . "  ००
        
      पता : डी - 184  , श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - 201005  ( उ . प्र.)
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   लघुकथा - 12
                     आमना - सामना
                                         - कपिल शास्त्री
"नमस्कार जी,मैं दीपक अग्रवाल बोल रहा हूँ।"
"जी नमस्कार,बोलिए।"
"और राहुल की पढ़ाई कैसी चल रही है?"
"अच्छा राहुल के फादर हैं,वह थ्योरी में कमज़ोर है,वही सुधारने की कोशिश कर रही हूँ।"
"जी,अभी आते तीन महीनों में परीक्षाएँ सर पर हैं और उसकी पढ़ाई को लेकर हम बहुत गंभीर हैं।"
"जी अच्छी बात है,आजकल सभी पेरेंट्स ध्यान रख रहे हैं।"
"आपको तो मालूम ही है कि पहले बड़ी कोचिंग क्लास में डाल कर डेढ़ लाख खर्च कर चुके हैं,ये ज़रा शर्मिला है,छात्रों की भीड़ में प्रश्न पूछने से शर्माता है इसलिए इस पर विशेष ध्यान दें।"
"जी मैं जानती हूँ,इन क्लासेज में सिर्फ आई.आई.टी.प्रश्नों पर ही ज़ोर दिया जाता है थ्योरी पर नहीं और वहाँ आप अपने बच्चों को लेकर कोई प्रश्न भी नहीं कर सकते।"
"कल इसका टेस्ट था,कितने नंबर आये?"
"पर कल तो राहुल आया ही नहीं।"
"आप कुछ गलत समझ रही हैं,मैं वही दीपक अग्रवाल बोल रहा हूँ जो राहुल के साथ आपसे मिला भी था।"
"जी मैंने आपको पहचान लिया है,क्या राहुल का या आपका कभी एक्सीडेंट हुआ था?
"जी नहीं,उसका या मेरा कभी एक्सीडेंट नहीं हुआ।"
"कल ही राहुल का फ़ोन आ गया था कि एक साल पहले हुए एक्सीडेंट में हड्डी की चोट फिर उभर आयी है इसलिए नहीं आ सकता,मेरे पापा का एक्सीडेंट भी उसी स्थान पर हुआ था।"
"आज मैं उसके साथ आता हूँ और आमना-सामना करवाता हूँ।"
"जी करवाइये।"
क्लास के नियत समय पर नज़रे झुकाए अकेले राहुल ने ही प्रवेश किया।क्लास के बाद रागिनी ने फ़ोन लगाया "आप तो आमना-सामना करवाने वाले थे!"
"अरे छोड़िए मैडम,बच्चे हैं,हे, हे, हे।"
"अब इसकी खबर लेने की जिम्मेदारी मैंने इसकी मम्मी को सौंप दी है,आप राहुल को बिल्कुल टाइट रखिये और मैं इसकी मम्मी को राइट रखता हूँ लेकिन ध्यान रहे इस बात का पता राहुल को न चलने पाए।" 00
        पता : निरुपम रीजेन्सी , एस-3 , 231-ए,
                साकेत नगर, भोपाल -462024 म. प्र
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लघुकथा -13
                                बुत
                                              ‌ - डॉ मधुकान्त
उनकी पार्टी की सत्ता आई तब उन्होंने प्रमुख स्थानों पर अपने राजनैतिक मसीहाओं के बुत लगवा दिए ।जब सत्ता बदली तो दूसरी पार्टी वालों ने प्रत्येक चौराहे पर अपने संस्थापकों के चित्र लगवा दिए ।अलग-अलग जाति व संप्रदाय वालों ने अपने संप्रदायों के जन्मदाता के बुत सड़क के किनारे बनवाकर लगवा दिये। इतिहास में अमर रहने के लिए कुछ नेताओं ने अपने बाप दादाओं के बुत सभी पार्कों में लगवा दिए। पूरा कस्बा बुतो से भर गया। दिन प्रतिदिन नई नई समस्याएं पैदा होने लगी ।कभी कोई गाड़ी वाला बुत से टकरा जाता ,रात को ट्यूशन से लौटते बच्चों की टोली बुत पर निशाना साधने लगती या कोई शरारती तत्व बुत के साथ छेड़खानी कर जाता। फिर कई दिनों तक सांप्रदायिक झगड़े ,आगजनी कर्फ्यू, मार्च पास्ट ,शांति यात्रा बैठकर समझाना बुझाना। अचानक नई व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक बुत की निगरानी में पहरेदारी के लिए 2 कर्मचारियों को लगा दिया गया ।
अब वहां के तथाकथित गणमान्य व्यक्तियों की सुरक्षा और चौकसी के लिए कोई सिपाही उपलब्ध नहीं है। 00
पता : 211-एल , मांडल टाउन, डबल पार्क,
        रोहतक - हरियाणा
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लघुकथा - 14
                              होम वर्क
                                          - उदय श्री. ताम्हणे
रामलाल जी सेवा निवृत हुए तो घर के कामो में हाथ बांटने लगे , किन्तु परिवार वालो को कुछ न कुछ उनके काम में मीन मेख दिख ही जाता ! मायूस होकर
अब रामलाल जी टी वी देखने में समय बिताने लगे ! एक दिन परिवार के किसी सदस्य का जुमला आ ही गया ! टी वी देखने से फुर्सत मिले तब न ?
रामलाल जी कुछ लिख रहे थे कि मोन्टी कमरे में आया
" दादा जी ! आपने मेरा पेन लिया है , मुझे वापस करो , होम वर्क करना है ! "
उसके दादा जी ने कहा " हां मोन्टी ! अपना पेन वापस ले जाओ पर मेरा एक काम करो ! "
" जी "
" तेरे पापा ने फेसबुक पर मेरा जो अकॉउंट बनाया है , उसमे यह पोस्ट कर दो कहते हुये, उन्होंने कॉपी का पन्ना और एक कागज का पुर्जा मोन्टी को दिया जिसपर उनका id और कोड नम्बर लिखा था !
" जी दादा जी "
मोन्टी ने लेपटॉप लिया और तुरंत कॉपी के पन्ने पर उनका लिखा लेख टाइप कर पोस्ट कर दिया ! ठीक है ! अब आप अपना होमवर्क कर लीजिये !
शाम को मोन्टी होम वर्क पूरा कर खेलने जाने लगा तो राम लाल जी ने कहा " मोन्टी जरा मेरा फेसबुक अकॉउंट खोल कर देखना ! "
मोन्टी ने दादा जी कि टाइम लाइन वाल खोली और चहक उठा " दादा जी ! इस पर तो ५५ लाइक और साथ ही ४ बधाई सन्देश भी है ! "
दादाजी के मुख मंडल पर आत्म संतुष्टि के भाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहे थे ! 00
     पता : एच - ए   118/71, शिवाजी नगर,
              भोपाल - 462003 मध्य प्रदेश
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    लघुकथा - 15
                        प्यास दर प्यास
                                    - डॉ राजकुमार निजात
          दादा मधुकर जी को प्यास लगी तो वह उठे और सुराही की ओर मुड़े।  उनका पोता मनोज परसों राजस्थान के दौरे से लौटा तो  मिट्टी की दो  सुराही ले आया था। कल सुराही ने मनभावन ठंडा पानी दिया था। आज तो जैसे सुराही का पानी ठंडा गंगाजल हो गया था ।  जैसे ही उन्होंने सुराही को छुआ तो उन्हें कुछ  ध्यान आया और वह ऊपर चौबारे की छत की ओर दौड़ पड़े ।
          परिंदों के तीनों कुंडे खाली पड़े थे। उन्होंने उन्हें खुरच - खुरच कर साफ किया और बड़ी टंकी से पानी भरकर उन्हें छत के तीनों कोनो पर रख दिया । फिर वे  इत्मीनान से नीचे आ गए और बैठकर थोड़ा सुस्ताने लगे । तभी मनोज की बहू सुराही का ठंडा जल ले आई  ।
                  "   अरे बहु  !  तुझे कैसे पता लगा कि मुझे प्यास लगी थी । "                                                         तरुणा बोली  -- आपको कैसे पता लगा था कि गछिया को प्यास लगी थी   ?  " कुछ देर पहले गली में खड़ी आवारा गाय की बछिया को तरुणा ने पानी पिलाते हुए देख लिया था ।
          अभी-अभी जब वह ऊपर परिंदों के बर्तनों में पानी भरने के लिए गए थे ,  तो तरुणा ने देखा  कि  दादाजी पानी पिए बिना ही ऊपर दौड़ पड़े थे  , जैसे कि उन्हें अचानक कुछ याद आ गया हो ।
          पानी का लोटा हाथ में थाम कर दादाजी बस मुस्कुरा भर दिए और गटागट पानी पीकर लेट गए  ।
          बाहर झुलसा देने वाली गर्मी थी । ००
पता : मकान न  57, गली नं 1 ,हरि विष्णु कालोनी,
         कंगनपुर रोड़, सिरसा -125055 हरियाणा
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लघुकथा - 16
                               गुहार
                                                - सुरेश सौरभ
एक लाश चलते हुए अदालत में आई,जज से बोली -साहब मेरी बेटी के साथ एक विधायक ने रेप किया ,मैं जब शिकायत लेकर थाने गया ,रिपोर्ट लिखाने की जिद की ,तब मुझे पुलिस वालो ने पीट- पीट कर मार डाला।आप की कार्यवाहियों में वर्षों बीत गये ,पर मुझे और मेरी बेटी को न्याय नहीं मिला। कब न्याय मिलेगा जज साहब बताएं। जज बोले- मै सरकारी मशीनरी का एक कलपुर्जा हूं। सरकारी जांचों के आधार पर ही न्याय दे सकता हूं। सारी सरकारी जांचें और रिपोर्टे आने का इंतजार करो।
       वह लाश आज वर्षों से अदालत में खड़ी न्याय पाने का इंतज़ार कर रही है। फिर उसके पीछे न्याय के लिए और लाशें  भी श्मशान -कब्रिस्तान से आने लगीं। अब अदालत के बाहर लाखों लाशों का रेला न्याय की गुहार कर रहा था, पर उनके मुकदमें वर्षों से लंबित होते जा रहे थे,और कब तक होते रहेंगे यह सरकार जाने या खुदा। ००
पता  : निर्मल नगर लखीमपुरम- खीरी उ. प्र.
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लघुकथा - 17        
                    कागज़ का गाँव
                                                 - कान्ता रॉय
जीप में बैठते ही मन प्रसन्नता से भर रहा था। देश में वर्षों बाद वापसी। बार-बार हाथों में पकड़े पेपर को पढ़ रही थी। पढ़ क्या, बार -बार निहार रही थी।
सुना है सरकार ने पिछले दस सालों से लगातार इस प्रोजेक्ट पर काम करते हुए रामपुरा जैसी बंज़र भूमि को हरा-भरा बना दिया है। गाँव की फोटो कितनी सुन्दर है, मन आल्हादित हो रहा था। उसका गाँव मॉडल गाँव के तौर पर विदेशों में कौतुहल का विषय जो है!
बस अब कुछ देर में गाँव पहुँचने ही वाली थी। दशकों पहले सूखा और अकाल ने उसके पिता समेत गाँव वालो को विवश कर दिया था गाँव छोड़ने के लिए।
"अरे, ये कहाँ चक्कर पर चक्कर लगा रहे हैं आप? गाँव की तरफ गाड़ी घुमाइए।" -- मीलों निकल आने के बाद भी दूर-दूर तक सूखा-बंजर दिखाई दे रहा था, ह्रदय बैठा जा रहा था।
"मैडम, आप के बताए रास्ते से ही जा रहे है, मुझे तो यहाँ आस-पास बस्ती दिखाई ही नहीं दे रही। सन्नाटा ही सन्नाटा है, इंसानो की तो क्या, लगता है कि चील-कौए की भी यहाँ कोई बस्ती नहीं है।"
"क्या? सामने जरा और आगे चलो, पेपर में तो बहुत तरक्की बताई है गाँव की, इसलिए तो हम गाँव में बसने की चाहत लिए विदेश में सब कुछ बेच आये है!"
"और कितना आगे लेकर जाएँगी, गाड़ी में पेट्रोल भी सीमित है।"
"रुको गूगल सर्च करती हूँ।" - कहते हुए लैपटॉप निकाली , ओह! नेटवर्क ही नहीं .........। बेचैन होकर फिर से गाँव को पेपर में तलाशने लगी।
"मैडम, कागज़ का गाँव था लगता है उड़ गया।" 00
पता : एफ -2 , वी -5 , विनायक होम्स,
          मयूर विहार, अशोका गार्डन ,
          भोपाल -462023 मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 18
‌                        स्वर्ग की सीट
                                          - ऊषा भदौरिया
“सभा शुरु की जाये। बाबू प्रसाद हाजिर हो.......”
एक कांतिमय चेहरे वाले आदमी को लाया गया। अब वकील अपनी दलीले देने लगे।
“ प्रभु इसने अपना पूरा जीवन सच्चाई व ईमानदारी से बिताया है। आप चाहे तो ये कागज देख सकते हैं जिस पर इसके एक एक काम के बारे में लिखा हुआ है। “ चित्रगुप्त ने अपनी दलील पेश करते हुए एक मोटी सी फाइल यमराज के सामने रख दी।
“ नही महाराज, इसके तथाकथित अच्छे कामों ने ना जाने कितने लोगों को परेशानी में डाला, इसका आपको अंदाजा भी नहीं होगा ।” दूसरा वकील चिल्लाया
“ वो कैसे भला?” यमराज कुर्मी से उछल पड़े
“ इसकी ईमानदारी की वजह से कई लोगो के काम लटके रहें क्योंकि इसके आगे के अफसर उन कामों को बिना रिश्वत होने नहीं देते।जिसकी वज़ह से लोग काफी परेशान हुये. इन सबके मद्देनज़र इसको नर्क ही दिया जाये । ”
“ नहीं महाराज, अगर ऐसे ईमानदार सच्चाई पर चलने वालों को ही सही न्याय ना मिले तो लोगों का अच्छाई पर से विश्वास ही उठ जायेगा, बाबू प्रसाद को स्वर्ग ही मिलना चाहिये।”
कुछ पलों के लिये यमराज ने अपनी आंखें बन्द की, बहुत सारे भ्रष्टाचारी भक्तो द्वारा दिये खूब सारे लालच से भटके मन पर कंट्रोल कर अपने परमानेन्ट मार्कर से यमराज ने बाबू प्रसाद को स्वर्ग की सीट दे कर एक बार फिर ईमानदारी व सच्चाई को जिता दिया। ००
पता:  315- डी , पाकिट- सी , मयूर विहार ,
           फेज -2, दिल्ली - 110091
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लघुकथा - 19
                     युगबोध
                                        -डॉ. शील कौशिक
राजेंद्र ने पेंट का कार्य पूरा करने के बाद मालिक से अपनी मजदूरी के पैसे देने को कहा।
मालिक ने कहा, “मार्किट का रेट सवा-सौ रुपये दिहाड़ी का है, पर मैं तुम्हें सौ रुपये दिहाड़ी के ही दूँगा क्योंकि तुम रामधन के बेटे हो। रामधन दफ्तर में मेरी ख़िदमत करता है और उसी के कहने पर ही मैंने तुम्हें काम पर लगाया था।”
“साहब, बापू ने कहा था कि पूरे मन से काम करना। शिकायत का मौका मत देना। इसलिए मैं पूरी लगन से काम करता था और रोज़ाना दो घंटे ज्यादा भी। मुझे उम्मीद थी कि आप मेरे काम से खुश होकर मुझे मार्किट रेट से कुछ ज्यादा ही देंगे।”
“देखो बेटा, तुम जैसे रामधन के बेटे हो, वैसे ही मेरे भी बेटे हुए। अब अपने घर में भी कोई काम के पैसे लेता है? चलो सारा फैसला रामधन पर छोड़ देते हैं।”
पास खड़ा रामधन हाथ जोड़कर बोला, “जो देवो सोई देई दो साब!”
मालिक ने उसे सौ रुपये के हिसाब से बीस दिन के दो हज़ार रुपये देने के लिए हाथ बढ़ाया।
“नहीं साहब, मैं इतने रुपये नहीं लूँगा।” कहते हुए राजेंद्र स्कूटर स्टार्ट करते हुए चलने लगा।
“अरे बिटुआ, साहब का स्कूटर काहे लेई जात है?” पीछे से रामधन ने पुकारा।
“अब तो साहब ने मुझे अपना बेटा मान लिया है बापू। जब तक अपना स्कूटर नहीं ले लेता, इससे ही काम चला लूँगा।”
रामधन और मालिक निरुत्तर उसे देखते रह गए। ००
                                                      
पता : मेजर हाऊस, 17, हुडा , सैक्टर - 20,
         सिरसा -125055 हरियाणा
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लघुकथा- 20
                             चापलूसी
                                            - नरेन्द्र श्रीवास्तव
एक अमीर के कुत्ते ने एक गरीब को काट लिया।
पड़ोसी ,अमीर से बोले-कोई बात नहीं हम झाड़फूंक करा लेंगे।
एक दिन गरीब के कुत्ते ने एक अमीर को काट लिया।
पड़ोसी गरीब से बोले-कुत्ते पालने का शौक है तो भुगतो। अब इनका इलाज कराओ वरना कोर्ट-चहरी के चक्कर लगाते-लगाते परेशान हो जाओगे।
जब मुझे इनके कुत्ते ने काटा था तब आप सभी ने इनसे तो  ऐसा नहीं बोला था-वह गरीब जिसे कुछ दिन पहले कुत्ते ने काट लिया था,पड़ोसियों से बोला।
यह सुनकर सब खामोश हो गए। ००
               पता : पलोटन गंज ,गाडरवारा,
                 जिला -नरसिंहपुर म.प्र.पिन 487 551
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लघुकथा - 21

                           अहसास
                                              - कुणाल शर्मा
"आपरेशन तक तो तेरे बेटे-बहू ने निभा दिया, अब बाद में तेरी देखभाल कौन करेगा? दोनों कामकाजी मानस हैं। तुझे सोच-विचार कर शहर आना चाहिए था।’’ बड़ी बहन के इन शब्दों ने अस्पताल के बेड पर लेटी बिमला के चेहरे पर चिंता के भाव गहरा दिए ।
"बेटे-बहू ने ही जिद की थी कि आपरेशन शहर में कराना है। दोनों अक्सर शिकायत भी करते थे कि माँ कभी हमारे यहाँ भी रहने को आओ।" बिमला ने आने का मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहा।
"कथनी-करनी में बहुत अंतर होवे है, तू भी देख लेना कितने दिन तेरी तीमारदारी करते हैं। चल बहन..... भुगतना तेरे को ही है.... अपना ख्याल रखियो।" वह उठते हुए बोली । उसके इन शब्दों ने बिमला को अंदर तक हिला दिया।
अस्पताल से छुट्टी कराकर बेटा-बहू उसे घर ले आये।
"माँ जी, आप बेफिक्र रहो,’’ बहू आरती  दवा की खुराक उसकी ओर बढ़ाती हुई बोली, ‘‘आपकी देखभाल के लिए मैंने ऑफिस से छुट्टियाँ ले ली हैं।"
बिमला के सोने का प्रबंध भी दोनों ने अपने बेडरूम में ही कर लिया । उसे राहत तो महसूस हुई, पर रही कुछ असहज ही। आधी रात को उसे पेशाब की हाजत हुई। शरीर में ना तो खुद बाथरूम तक जाने की ताकत थी, ना ही बेटे या बहू को जगाने का साहस। वह काफी देर प्रेशर को दबाये पड़ी रही। यकायक आँखों के सामने दिवंगत सास का बीमार चेहरा उभर आया—उसके होते हुए, ना जाने कितनी ही सर्द रातें उस बेचारी ने बिस्तर पर मूतते, तड़पते हुए गुजारी थीं। अतीत की स्मृतियों के साये काले भूत-से उसके सिर पर नाच उठे। वह सिहर उठी। डर के कारण पेशाब को रोकना असहनीय हो चला तो पेट को पकड़कर वह उठने का उपक्रम करने लगी।
हल्की-सी आहट होते ही बेटे की आँख खुल गईं। वह घबरा-सी गई।
"क्या बात है, माँ?"
"बेटे.... वो… पेशाब जाना था।"
"माँ, मुझे या आरती को जगा लिया होता!" कहते हुए वह उठा। सहारा देकर बाथरूम तक ले गया। लौटकर आने तक आरती भी जाग चुकी थी। उसे देखकर अतीत की परछाइयाँ पुनः जीवंत हो उठीं। वह अपराधिन-सी सहम गई।
"बेटी, मैंने तुम लोगों को परेशान कर दिया है।" वह संकोच भरे स्वर में बोली।
"नहीं माँ जी, कैसी बात करती हैं आप!’’ पलंग पर सही से लिटाकर आरती ने रजाई ओढ़ाते हुए कहा, ‘‘आपका ख्याल हम नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा?"
“हाँ…ऽ…” यह सुन बिमला के गले से हूक-सी निकली और रोकते-रोकते भी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। ००
   पता : 137, पटेल नगर ( जण्डली ),
            अम्बाला सिटी - 134003 हरियाणा
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लघुकथा - 22
                  कलयुग के श्रवण कुमार
                                   - डॉ नन्दलाल भारती
मुंशीजी बहुत दर्द में हो।क्या बात है क्यूं घुट रहे हो ? इंजीनियर बेटा, उच्च शिक्षित बहू,ऐसा क्या गम है कि घुट घुट कर जी रहे हो दशरथ बोले।
बहू घास नहीं डाल रही होगी क्यों काका चंकी झट से बोला।
कुछ तो शर्म करता बदमिजाज, मानता हूँ जादूगर की बेटी का दिया हुआ दर्द हम ढो रहे हैं, तू ऐसे कैसे भूल गया कि बहू बेटी समान भी होती है।
माफ करो काका  सच उगलवाने का यही तरीका था।
मुंशीजी बेटा बहू का दिया दर्द रहे हो जमाने को खबर नहीं।
दशरथ जब बेटा ही जादूगर सास ससुर और उनकी बेटी का गुलामी हो गया तो असहाय मां बाप का दर्द कौन सुनेगा।हो सकता है बेटा की परवरिश में हम से ही कोई चूक हो गई हो।
काका आपसे कैसे चूक हो सकती है, आपने तो बच्चों के भविष्य के लिए जीवन पूँजी स्वाहा कर दिया, आप तो गाँव के आदर्श हो चंकी बोला।
बेटा वो हमारा फर्ज था।
जादूगर सास ससुर और उनकी बेटी के गुलाम का माँ बाप घर परिवार के प्रति कोई फर्ज नहीं चंकी बोला।
दशरथ बोले वाह रे कलयुग के श्रवण कुमार  जादूगर सास ससुर और उनकी बेटी के गुलाम तुमसे अच्छे तो अनपढ़ औलादें हैं जो माँ बाप के दुख में साथ तो हैं। ००
            पता : आजाद दीप, 15- एम, वीणा नगर
                     इन्दौर - 452010 मध्यप्रदेश
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   लघुकथा - 23          
                       सितारों से उतरी
                                            -ज्योतिर्मयी पंत
सात साल का सौरभ आज  बेहद खुश था। उसकी माँ लौट आई है.घर में शादी की  चहल पहल थी.सौरभ की माँ उसे छह महीने का छोड़ कर सितारों में जा बसी थी.यही उसे बताया गया था .
दूसरी  माँ न जाने कैसी हो ? विवेक ने फिर विवाह किया ही नहीं कि कहीं  बिन माँ के बच्चे से उसका पिता भी छिन जाय. उसका तर्क था कि बच्चा इस परिस्थिति को समझने लायक हो जाय .
‘’फिर सोच सकता हूँ’’कह कर वो टाल देता.
अब माँ बापू बूढ़े हो रहे थे अतः उनकी बात मान पुनर्विवाह किया  पर मन आशंकित ही था. वह रीता को सब कुछ  बता चुका था .नाते रिश्तेदार खुश थे पर जिस तरह वे सौरभ  के सर और गालों  पर हाथ फेर सहानुभूति दिखा कर बोल रहे थे. विवेक को अच्छा नहीं लग रहा था.
बारात,पार्टी की धूमधाम में सौरभ  खुश था.वह दिन भर उन्हें न देख पाया. घूँघट में लोगों से घिरी थी माँ. रात को  चाची उस  को अपने कमरे में सुलाने की कोशिश करने लगी तो सौरभ  अचानक जोर जोर से रोने लगा .वह हमेशा विवेक के साथ ही सोता था फिर आज तो उसकी माँ भी आ गयी है तो माँ के पास ही जायेगा.
 तभी नयी बहू रीता  विवेक के साथ आ गयी.सौरभ को अपने कमरे में  ले जाने .सौरभ ने उनका चेहरा देखा तो परेशान हो गया.शायद इसीलिए सब नई माँ  कह रहे थे.
‘’माँ क्या तुम ! कौन हो ?तुम्हारी सूरत..?"
"हाँ मेरे प्यारे बेटे ! इतने वर्षों से तुम से दूर सितारों में थी न?
इसलिए,पर वही तो हूँ "
अरे ! हाँ माँ! मैं ये तो भूल ही गया था.कह कर वह नयी माँ से लिपट गया और माँ ने उसे गोदी में उठा लिया ‘’
सच माँ नया रूप लेकर  सितारों से ही उतर  कर आई थी.
 सभी की आंँखें खुशी के आँसुओं से झिलमिलाने लगीं. ००
      पता : ए -45 , रीजेंसी पार्क 1
               डी.एल.एफ फेस 4 ,गुरुग्राम,
               हरियाणा -122009
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लघुकथा - 24
                         जलतरंग
‌‌‌                                            - ज्योति जैन
जबसे दादी ने सुना कि गणगौर की ‘गोठ’ के लिए पुरानी बावड़ीवाले मन्दिर के बगीचे जा रहे हैं, वे अपनी युवा पोती श्रीती से बार-बार उन्हें भी ले जाने का आग्रह कर रही थीं।
“तुम क्या करोगी दादी?” श्रीती ने कृशकाय दादी को आश्चर्य से देखते हुए पूछा।
“बस म्हारे को एक बार ले चल!…”
आगे उनका पुराना रिकॉर्ड चलता उससे पहले ही‒“ठीक है ! शाम को चार बजे चलेंगे!” कहकर श्रीती ने मानो जान छुड़ाई।
बावड़ी वाले बगीचे में जब सब औरतें गणगौर में व्यस्त थीं, तब दादी उस कचरे से बुर चुकी बावड़ी की मुण्डेर पर बैठी अपना कैशोर्य याद कर रही थीं। तब पानी से लबालब भरी बावड़ी में उन्हें स्वयं और बालसखा प्रताप के बिम्ब स्पष्ट नजर आ रहे थे। प्रेम की परिभाषा तो शायद तब वे नहीं जानती थीं, किन्तु उस पवित्र और अव्यक्त रिश्ते को महसूस कर सकती थीं। मगर कहाँ वे स्वयं कट्टर गौड़ ब्राह्मण की कन्या और कहाँ वह राजपूत प्रताप! उस जमाने में कल्पना ही नहीं की जा सकती थी।
“चलो न दादी! सब औरतें जा रही हैं।” श्रीती ने उनका कन्धा छुआ तो वह चिहुँक उठीं। लगा जैसे प्रताप ने बावड़ी में कंकर फेंका हो। अपने अस्तित्व में उस जल की तरंगे महसूस करती दादी ने युवा पोती का मजबूत हाथ थामा और बावड़ी को अन्तिम प्रणाम करके चल पड़ीं।
अब जलतरंग उनके हृदय में बज रहा था। ००
            पता : 1432/24, नन्दा नगर,
                    इन्दौर - 452011 मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 25
                         ममता
                            -  डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
नये साल की वह पहली सुबह जैसे बर्फानी पानी में नहा कर आई थी। दस बज चुके थे पर सूर्यदेव अब तक धुंध का धवल कंबल ओढ़े आराम फरमा रहे थे। अनु ने पूजा की थाली तैयार की और ननद के कमरे में झांक कर कहा, "नेहा! प्लीज नोनू सो रहा है, उसका ध्यान रखना। मैं मंदिर जा कर आती हूँ।"
शीत लहर के तमाचे खाते और ठिठुरते हुए उसने मंदिर वाले पथ पर पग धरे ही थे कि उसके पैरों को जैसे जकड़ लिया, एक बोतल, जिसमें से शराब रिस रही थी, उसके पैरों के नीचे आते-आते बची थी।
“ये भिखारी, नये साल का स्वागत भी शराब से करते हैं..." सर्दी से कांप रहे होंठों से बुदबुदाते हुए उसने पास ही फुटपाथ पर बनी तम्बूनुमा झोंपड़ी की तरफ घृणा से देखा और शराब की बोतल से दूर हट गयी।
वह फिर से मंदिर जाने के लिये बढ़ने ही वाली थी कि उस झोंपड़ी से कुम्हलाये हुए चेहरे वाली एक महिला बाहर आकर बैठ गयी। उसकी गोद में लगभग दो महीने का बच्चा था, जो चिल्ला-चिल्ला कर रो रहा था। उस महिला को देखकर अनु के चेहरे पर घृणा के भाव और भी अधिक उभर आये। वह क्रोध में कुछ कहने ही वाली थी कि, उस महिला ने अपना फटा हुआ आँचल हटाया और बच्चे को अपना दूध पिलाने लगी। वह बच्चा उसकी छाती से मुंह हटा रहा था, अनु समझ गयी उस महिला के दूध नहीं आ रहा है।
तभी हवा थोड़ी तेज़ हुई और झोंपड़ी की दिशा से बदबू का एक भभका आया, अनु उसे सहन नहीं कर पाई और नथूने बंद कर चल पड़ी। मंदिर से आती आरती की घंटियों की आवाज़ ने उसकी चाल को और भी तेज़ कर दिया।
अनु के कदम बढ रहे थे, लेकिन उसकी निगाहों से वह दृश्य नहीं हट रहा था। वह कुछ सोच कर मुड़ी, और महिला के पास जाकर, अपनी पूजा की थाली में रखा दूध का लोटा उसकी तरफ बढ़ा दिया। महिला ने कृतज्ञता भरी नजरों से अनु की तरफ देखा और लोटा अपने रोते हुए बच्चे के मुंह से लगाने लगी, लेकिन अनु ने उसका हाथ पकड़ कर उसे रोक दिया और कहा,
"यह दूध तुम्हारे लिए है।"
कहकर अनु ने उसके बच्चे को लिया और अपनी शाल में छिपा कर दूध से गीली हो रही छाती से लगा दिया। ००
पता - 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर - 5,
          हिरण मगरी, उदयपुर - 313002 राजस्थान
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लघुकथा - 26
                       बेचारी सबीना
‌‌                                -मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
रात के तकरीबन दस बजे होंगे | सबीना अपने दोंनो बच्चों  को लिए खाट पर भूखे पेट करवटें बदल रही थी | तभी जोर - जोर से कोई दरवाज़ा पीटने लगा... लड़खड़ाती आवाज में ' कित्ते मर गई... खोल ना रही... भौ&&&की,कौनसे खसम के संगे कालो मुंह कर रही है | '
बेचारी डरी - सहमी सबीना समझ गई, आज फिर आया है जुआ हार के और शराब में धुत्त होके | सबीना ने कांपते हाथों से किवाड़ की सांकल खोल दी | सांकल खुलते ही भूखे भेडिये की तरह वो टूट पड़ा और तब तक पीटता रहा जब तक कि वो स्वयं बेहोश न हो गया |
कोने में पड़ी - पड़ी सबीना सिसक - सिसक कर अपनी फूटी किस्मत पर रो रही थी ' मरघटा बारे, तेरी छाती पै कंड़ा जरैं, तेरी कढ़ी खाऊं... तू आजु ही मरि जावै तोऊ मैं तो अपने बच्चन कूं पाल लूं | पागल हती मैं जो तेरी चिकनी - चुपड़ी बातन में आके कोर्ट मेरिज करिलई... | '
सबीना अपने पति से मार खाकर बुदबुदाती रही... | सबीना ने भी क्या किस्मत पाई है | ठीक तीन साल पहले वो कॉलेज की छात्रा थी | मंगल के प्यार - व्यार के चक्कर में फसकर अपने माँ - बाप, भाई - बहिन की मर्जी के खिलाफ उसने मंगल से कोर्ट मेरिज करली |
आज सबीना इतनी बेबस है कि वो अपने मायके भी नहीं जा सकती, क्योंकि तीन साल पहले ही वो सारे रिस्ते - नाते तोड़ चुकी थी, अब बस मंगल के अत्याचार सहने के सिवाय उसके पास कोई दूसरा चारा भी नहीं... बेचारी बेबस सबीना !

पता : गॉव रिहावली, डाक तारौली गुर्जर,
          फतेहाबाद, आगरा, 283111 उत्तर प्रदेश
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  लघुकथा - 27
                          कम्पंसेशन
                                      - मंजु शर्मा
       " सुनो आज मधुरा का अट्ठारहवाँ जन्मदिन है, उसके लिए कुछ अच्छा सा गिफ्ट लेते आना " रश्मि ने अदालत जा रहे पति प्रभात से कहा।
        " हूँ s..s.. मुझे याद है " तनावग्रस्त प्रभात अनमने लहजे में जवाब दे कर चला गया। महीनों पहले अदालत में सुना दिए गए फैसले का आज क्रियान्वित होने का दिन था। रश्मि को गुजरता एक एक पल दिन भर पहाड़ सा लगता रहा। शाम ढलने लगी थी। ख़ुशी से चहकती मधुरा स्कूल से आकर माँ के गले में बाहें डाल कर कहने लगी -
          " माँ आज मेरा बर्थडे है ना तो इस बार मुझे बर्थडे गिफ्ट क्या दोगी " ?
           " भई इस बार हम अपनी बिटिया को स्पेशल गिफ्ट देंगे " संतुष्टि और जीत से जगमाते चेहरे के साथ प्रभात ने दरवाजे से अंदर आते हुए कहा और मधुरा के हाथ में एक लिफाफा रख दिया।        " थैंक यू पापा " खुश हो कर मधुरा ने पापा के गले लग उनके गाल को चूम कर लिफाफा खोलते हुए कहा।
          " पापा s..s..s.. ये क्या है ,..  डेढ़ लाख का चेक ..क्यों ? डेढ़ लाख मेरे लिए हैं क्या ? " आश्चर्य चकित मधुरा ने कहा।
          " हाँ बेटा ,... ये डेढ़ लाख तेरे लिए ही है ,.....दो साल पहले तू पाँच वर्ष की अवस्था मे, एक नीच आदमी के गंदे इरादों की शिकार होते होते बच गयी थी....   "
        " पापा मुझे तो याद भी नहीं मेरे साथ कब क्या हुआ था " बीच में ही मधुरा बोल उठी,उसकी आवाज में डर गुलचूका था , प्रभात ने कहना जारी रखा --
      " क़ानूनी लड़ाई के बाद उसे सजा मिली और तुझे आज मिला है अदालत से कम्पंसेशन का ये चैक,....... बेटा तेरा कड़वा अतीत का भूल जाना और कम्पंसेशन ये चेक ही तेरा स्पेशल बर्थडे गिफ्ट है "
         " जी ...पापा। " डेढ़ लाख की राशि भी रश्मि की नज़रों से मधुरा के चेहरे पर छा गया खौफ का साया और आवाज में निहित सहमापन छिपा नहीं रह सका। ००
         पता :  द्धारा - वी के शर्मा ,
                   56 / 4 ,ऑफिसर्स एन्क्लेव ,
                    एयर फोर्स स्टेशन ,हलवारा
                     पँजाब - 141 106
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लघुकथा - 28
                         ससुराल
                                             - रुबी प्रसाद
आज क्ई दिनों के इंतजार के बाद हाथों में स्वंय की लिखी किताब की तिसरी किस्त पा खुशी से निहाल हो गयी मीरा व अपने मन पे लगे जख्मों को कुछ पलों के लिए भूल सी गयी  ।अभी ख्यालों से निकली भी न थी कि घंटी की आवाज ने तंद्रा तोड़ दी ____टिंग टांग~~~
दरवाजा खोलते ही हतप्रभ रह गयी क्योंकि बाहर प्रेस जो खड़ी थी मीरा का इंटरव्यू लेने । उसकी किताब _"मन की पीड़ा" के लिए । जो नारी की मन की व्यथा पर लिखी थी मीरा ने, जो आजकल काफी चर्चा में थी । सबों को चाय नाशता दे स्वंय तैयार होने जाने लगी तभी फिर से घंटी बजी _____टिंग टांग~~~~~
इस बार बाहर मीरा के सास ससुर व पति थे । अन्दर प्रेस वालों को देख तीनों मुंह बनाते वही कुछ दूरी पर बैठ एक दूसरे का मुंह देखने लगे ।
कुछ क्षणों के बाद ही मीरा तैयार हो इंटरव्यू देने के लिए सबके बीच बैठ गयी तो क्ई प्रश्नों के बाद जब प्रेस वालों ने उसकी सफलता का राज पूछा तो उत्तर में ससुराल को सारा श्रेय दिया उसने  ।
प्रेस वालों के जाते ही सबके मौन व प्रश्नों को तोड़ती मीरा बोली _जानती हूं आपलोग क्या सोच रहे है । यही न कि मैनें ऐसा क्यों कहा, क्योंकि अगर आज आपलोग मुझे इतनी मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना न देते तो शायद मैं मन की पीड़ा को पन्नों पर न उकेड़ती न ही "मन की पीड़ा" लिख आज इस मुकाम पर पहुंचती । बहुत बहुत धन्यवाद आप सभी का मुझे इतने कष्ट व एक अदद पहचान देने के लिए । बात खत्म कर पीछे सिर्फ व सिर्फ शर्मिंदगी छोड़ कमरे में अपनी सखी के पास चली गयी जो उसके भरे पूरे ससुराल के गंदे माहौल में सदैव उसकी साथी रही थी ।
उसकी सखी _"डायरी व कलम" । ००
पता :  W /0 Raj kishore Prasad,
         C /0 MOBILINC, GURUNG BASTI, 
         UPPER ROAD ,
         PRADHAN NAGAR ,
          SILIGURI -734003 ,
          WEST BENGAL
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लघुकथा - 29
                        पेट की चिन्ता
                                            - सुभाष नीरव
लंच का समय होने जा रहा था। एक एक कर सभी अपना अपना काम छोड़कर खड़े हो गये। हॉलनुमा कमरे के दायीं ओर खिड़की के पास हीटर पर सबके लंच बॉक्स रखे थे। सब उस तरफ़ ही बढ़ रहे थे। वे सब एक खाली टेबल के गिर्द खड़े होकर एक साथ लंच किया करते थे।
“अरे राकेश, अब छोड़ भी काम…खाना ठंडा हो रहा है।” सहकर्मी चड्ढ़ा ने ऊँची आवाज़ में कहा।
“अरे यार, आ भी जा… बहुत जोर की भूख लगी है…।” गुप्ता अपना टिफिन खोलता हुआ बोला।
“तुम लोग शुरू करो, मैं बाद में कर लूंगा।” राकेश ने अपनी सीट पर बैठे बैठे कहा।
“अब आ भी जा… पेट में चूहे कूद रहे हैं।” कुलकर्णी ने खीझते हुए कहा।
“मैं इस फाइल को निपटा लूँ जो बहुत ज़रूरी है।” फाइल में गड़े राकेश का उत्तर था।
उसके सामने एक फाइल खुली हुई थी। यह फाइल दफ़्तर के चपरासी हरिदत्त की थी। हरिदत्त पिछले बीस दिनों से अस्पताल के बैड पर पड़ा था। एक शाम दफ्तर से घर लौटते समय भीषण सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया था। घर में उसके बूढ़े माता-पिता थे, पत्नी थी, और दो छोटे छोटे बच्चे। राकेश दफ़्तर के कुछ लोगों के साथ उससे मिलने गया था। कुछ पैसे भी इकट्ठा करके राकेश ने उसको दिए थे। आज सुबह हरिदत्त ने किसी के हाथ फंड से कुछ पैसा निकलवाने की दरख्वास्त भिजवाई थी।
“ऐसा भी क्या है यार ?” चड्ढ़ा खीझा।
“आज तीन बजे तक यह फाइल कैश अनुभाग में भिजवानी ज़रुरी है।” राकेश ने फाइल का काम पूरा कर उठते हुए कहा।
“एक दिन लेट हो जाएगी तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा ?” कुलकर्णी ने मुंह में बुरकी डालते हुए कहा।
राकेश ने एक बार अपने सहकर्मियों की ओर देखा। फिर फाइल उठा साहब के केबिन की ओर उनके दस्तखत के लिए बढ़ते हुए बुदबुदाया, “तुम अकेले अपने एक पेट की सोच रहे हो, मुझे पाँच पेटों की चिंता है !” ००
        पता : आर जेड एफ-30ए ( दूसरी मंजिल ),
                  एफ ब्लॉक, वेस्ट सागरपुर
                  नई दिल्ली -110046
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लघुकथा  - 30
                             पानी पानी
                                             - कृष्ण मनु
रमरतिया बाल्टी में झाकी, गैलन  पलट कर देखी, डेकची को भी खंघाल ली । वो सब बर्तन उलट पलट दी लेकिन घर में एक बूंद पानी नहीं। उसका मन सिसक उठा। आंख में पानी भर आया जिसे मैला अंचरा से पोछकर  मियादी बुखार में सूखकर कांटा हुए घरवाले को देखा। जी में हूक सा उठ गया-' कितना गबरू जवान था मेरा मरद। मेरी छोटी से छोटी इच्छा पूरा करने के लिए दौड़ पड़ता था। आज कितना लाचार है! कब से पानी मांग रहा है। लेकिन इ कोलयरी में एक बूंद पानी के लिए तरसो। आग लगे अइसन कमाई में।'
-' अब चाहे जो हो अपना मरद को हम पेयासे तो मरने नहीं देंगे।' कहती हुई रमरतिया तसला लेकर निकल। पड़ी बाहर।
लहलह दुपरिया। दूर तक कोयले का धूल, जमीन से निकलता धुआं और आग।आसमान से आग बरस रहा था वो अलग। नजर गई उस नलका पर जहां तीन बजे राते से नंबर लग जाता है तसला, डोलची, डराम का। पीनेवाला पानी का जरिया यही नलका है पूरे धौड़े* का। लेकिन चार पांच दिनों से एक बूंद पानी नहीं आया है। एक एक चुरूआ पानी बचाकर रमरतिया आजतक चलाई। अब क्या करे? कहां जाए? वह गरमी पसीने से लथपथ तसला माथे पर रखकर सामने उबड़ खाबड़ रस्ते पर चलती रही। चाहे जहां से हो, पानी जुगाड़ करेगी वो। ऐसे थोड़े ही पानी के बिना मरद को मरने देगी।
सामने गोकुल बाबू का फारम दिख गया। हां, यहां पानी मिल जाएगा। बोरिंग से पानी निकलता रहता है। एक ही डेकची पानी की जरूरत है। बबूआ मना थोड़े करेगा। वह गेट के भीतर घुस आई।
-' अरे अरे, कहां घुसी आ रही हो?' भारी खुरदरी आवाज सुनकर कर वह सहम कर खड़ी हो गई-'एक डेकची पानी चहिए भइ......।' रमरतिया अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाई। बीच में ही रोक दिया उस आदमी ने।
-'अच्छा तो तुमको पानी चाहिए।' रमरतिया नजर उठाकर देखी और हां में सिर हिला दी। आदमी मोटा सा लट्ठ लिए बड़ी बड़ी मूँछों पर ताव देते हुए ओठों में मुस्करा रहा था। उसकी नजर रमरतिया के फटी पुरान साड़ी में लिपटे बदन को बेध रही थी। वह सीकुड़ सी गई।
-' मिलेगा, जितना चाहो मिलेगा। लेकिन बदले में तुम क्या दोगी? बोलो।' उसके ओठों की कुटिल मुस्कान और गहरी हो गई।
-' मेरे पास क्या है भईया?'
-'खबरदार, भईया नहीं। आओ, जरा अड़ोत में चलो। बताते हैं, तुम्हारे पास क्या है।'
रमरतिया को काटो तो खून नहीं। गोकुल बाबू के बारे मेें सबकोई जानता था कि वह रंगरसिया है लेकिन उसका लठैत भी.... । रमरतिया को पानी चाहिए था। उसका मरद मरा जा रहा था। वह लाश बनी कदम बढ़ाने को हुई कि रौबदार आवाज कोठे की खिड़की से आई-' के है रे रमलोचना?'
-' मालिक, एगो औरत है। पानी लेने आई है।'
-' ठहरो मैं आ रहा हूं।' रमरतिया सिर से पैर तक कांप उठी। अब वह नहीं बचेगी- सोचकर घबड़ा गई वह।
गोकुल बाबू धड़धड़ाते हुए आ धमके। सिर से पैर तक रमरतिया को देखा-' इ दुपरिया में पानी लेने आई हो। का हुआ?'
रमरतिया डरते डरते अपना दुख बता दी। सुनकर गोकुल बाबू बोले-' तो जाके भर ले। खड़ी काहे है। जा।' उन्होंने लाल आंखों से रमलोचना को देखा-'अब एतना भी हम नहीं गिर गए रे कि पानी खातिर किसी का पानी उतारें।'
*कोयला मजदूरों के रहने के लिए छोटे छोटे घर ००
           पता : शिवधाम, पोद्दार हार्डवेयर एण्ड आंटो स्टोर के पीछे, एम एस एम ई के पास, कतरास रोड़, मटकुरिया , धनबाद - 826001 झारखण्ड
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लघुकथा- 31
                           'विकल्प'
                                      - विरेंद्र ' वीर ' मैहता
            "तो फाइनल रहा भाभी जी, मैं सुबह देवकी को लेकर नर्सिंग होम आ जाऊंगा।" कहते हुए उधर से फ़ोन बंद कर दिया गया लेकिन इधर सुधा की आखों से नींद उड़ गयी।
एक ही वर्ष में यह दूसरी बार था जब वह देवकी को 'अटैंड' करने जा रही थी। हालांकि वह इस अनैतिक कार्य के पक्ष में नहीं थी लेकिन पति के रिश्ते के भाई होने और देवकी के पहले से ही दो बेटियाँ होने के कारण उसे हालात के चलते अपने निजि नर्सिंग होम में सब कुछ करना पड़ा था।
"....लेकिन अब एक बार फिर से! आप नागेश को समझाते क्यों नहीं?" बेचैनी में उसने पति की ओर करवट बदली।
"ये बात हम पिछली बार भी कर चुके हैं, वह अपने परिवारिक बंधन और पुत्र मोह में समझना नहीं चाहता।" पति का लहजा गंभीर था। "और मैंने तुन्हें तब भी कहा था कि तुम बिना किसी दवाब के अपना निर्णय ले सकती हो।
"मैंने वह सब भावनाओं के दवाब में किया था लेकिन इस बार मैं काफी तनाव में हूँ। वह अजन्मी बच्ची अभी तक रातों में आकर मुझसे जवाब माँगती हैं।" वह अपनी नम आखों को पोंछने लगी।
"तुम मना कर सकती हो सुधा।"
"हाँ! पर शायद ये कोई हल नहीं हैं न।" एकाएक वह गंभीर हो गयी। "हमारा इंकार, हमारे रिश्तों के लिये बेहतर नहीं होगा और फिर मना करने के बाद भी वे इस समय मेरा कोई और विकल्प ढूंढ ही लेंगे।"
"तो फिर...!"
"इस बच्ची को तो जन्म देना ही होगा देवकी को... भले ही 'कृष्णा' की तरह इसका पालन-पोषण यशोदा के पास ही क्यों न हो?"
"तुम कहीं मिसेज यशोदा के बारें में तो नहीं सोच रही..." पति ने उसके मन के भाव को पढ़ लिया। "....जो संतान के लिये काफी समय से तुम्हारे पास इलाज के लिये आ रही है।
"शायद हाँ !"
चलो मान लिया कि नागेश और उसका परिवार इसके लिये मान भी गया, लेकिन अगर यशोदा नहीं मानी तो!" पति ने सवालिया नजरों से उसे देखा।
"तो..........!" सुधा की विश्वास भरी आँखें बहुत देर तक पति की आखों में झांकती रही। "......हमारे 'पुरू' को भी तो एक बहन की जरूरत हैं न।" ००
पता : एफ – 62/8,  स्टीट नं 7, नजदीक मंगल बाजार,लक्ष्मी नगर , दिल्ली – 110092
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लघुकथा - 32
                   दहेज़ की पहली किस्त
                                                - अंजु गुप्ता
“अरे रीमा, जरा चेक साइन कर देना। अमाउंट मैं भर लूंगा । दो-तीन लाख तो होगा ना तुम्हारे एकाउंट में ?” आफिस जाती हुई रीमा से रमेश बोला ।
रमेश-रीमा की शादी हुए अभी एक माह ही गुजरा था। बिन दहेज की इस शादी के अखबारों और स्थानीय न्यूज़ चैनल में खूब चर्चे हुए थे ।
यकायक इतनी बड़ी रकम सुन कर रीमा थोड़ा चकरा सी गई । इससे पहले कुछ समझती, बड़े प्यार से रमेश बोला – “खुश हो जाओ जान…. फ्लैट खरीद रहा हूँ और जल्द ही तुम्हें, तुम्हारे अपने खुद के घर ले जाऊँगा और हाँ, जॉइंट बैंक अकाउंट के लिए पेपर साइन कर दिए हैं, जमा करवा देना।”
डबडबाई आँखों से चैक साइन करते हुए रीमा समझ चुकी थी कि वो दहेज की पहली किस्त भर रही है । ००
पता  : 875  , सैक्टर -9 & 11, इंडस्ट्री एरिया ,  
           हिसार -  125 005 , हरियाणा
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     लघुकथा ‌- 33
                           तथास्तु
                                                 - मधु जैन
अनूप आंखें बंद करके घुटनों में सिर को छुपाए बैठा है। आंखों में आंसू नहीं, पर रो रहा था।आंसू लाकर वह कमजोर नहीं होना चाहता था।
"नर्स ने आकर पूंछा क्या निर्णय लिया आपने?"
"अभी बताता हूं।"
"जल्दी कीजिए, पेसेंन्ट की हालत बिगड़ रही है।"
"जी,ओप्फो मां भी अभी तक नहीं आई।"
शादी के सात साल बाद कितनी मन्नतों के बाद पत्नी गर्भवती हुई। मां के तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था।हो भी क्यों न अनगिनत व्रत, उपवास का फल उन्हें मिला ऐसा उनका मानना था।
वह घड़ी की ओर देखता है।कांटा चल रहा है। मां का इंतजार भारी हो रहा है।
"आज तक उसने मां से पूछें बगैर कोई भी निर्णय नहीं लिया हिम्मत ही नहीं हुई।जो मां ने कहा उसे ही माना।पर आज.... "
अनूप जी देरी हो जाने से हम जच्चा ,बच्चा दोनों को ही नहीं बचा पाएंगे को।जल्दी सोचिए किसे बचाना है। डॉ ने कहा।
"इसमें सोचने की क्या बात है। मेरी बहु को बचाइए हांफते हुए बोली।"
अनूप ने आश्चर्य से मां की ओर देखा।और गले लग गया अब उसने आंखों से आंसुओं को बहने दिया।00
      पता : 593, संजीवनी नगर ,‌ जबलपुर
              मध्यप्रदेश - 482003
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लघुकथा - 34
                         दीपक का तेल
                                              - नवल सिंह
छोटे शहर में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन था। नितीश को विज्ञान के क्षेत्र  में उल्लेखनीय उपलब्धि के लिए सम्मानित किया गया था। नितीश अपनी मेहनत व काबिलियत से जाना-पहचाना चेहरा हो गया था। समारोह के उपरान्त मंच के करीब खड़े गु्रप में कुछ व्यक्ति वार्तालाप में व्यस्त थे। उन्हीं के बीच साधारण वेशभूषा के एक बुजुर्ग चुपचाप खड़े सब सुन रहे थे।
        तभी एक व्यक्ति ने उनसे पूछा -आप से कभी मुलाकात नहीं हुई, क्या आप इसी शहर से हैं जवाब में साधारण वेशभूषा में सिकुड़े बुजुर्ग ने संकुचित स्वभाव को तोड़ते हुए जवाब दिया- जी हाँ, इसी शहर से हँू। पहले वाले ने फिर सवाल दागा-पर आप कभी दिखाई तो दिए नहीं। भाई साहब सामाजिक कार्यक्रमों में आते रहना चाहिए,तभी तो जानकारी बनती है, ऐसा भी क्या काम में व्यस्त रहना। नितीश इस वार्ता में कब उनके पास आकर खड़ा हो गया किसी को मालूम ही नहीं चला। तभी नितीश ने बात को काटते हुए कहा- सर अगर ये अपने काम में न खटते तो शायद ये आयोजन ही नहीं होता। ये दीपक में तेल के रूप में जले तभी तो मैं रोशन हुआ। ये मेरे पिता जी हैं।
     नितीश एक साँस में सब कह गया। नितीश की भावनात्मक वाणी ने सभी को इतना प्रभावित किया कि समूह में तालियां गूंज उठी। नितीश के पिता की आँखों में गर्व का मौजू उठा और ऐसा लगा जैसे सागर की लहरों से सूरज का उदय हो रहा हो। ००
          पता : 785/13 , आजाद नगर, टोहाना
                जिला फतेहाबाद -125120, हरियाणा
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लघुकथा- 35
                    रिश्ता नहीं बदलते
                                - ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश
“ पापा ! अनवरजी की लड़की से मैं शादी क्यों नहीं कर सकता है. जब कि आप जातिपाति भी नहीं मानते है ?”
“ मेरे मानने , न मानने से क्या होता है ? कोई इसे कबूल नही करेगा ?”
“ पापा जी ! आप लोगों की परवाह कब से करने लगे. जब कि ईद पर आप उन्हीं के घर खाना खाते हैं और दीवाली पर वे अपने घर.”
“ बेटा ! वो और बात हैं.”
“पापा ! मुझे रजिया से ही शादी करनी है ?” 
“रजिया के अब्बु से पूछा है ? वे राजी होंगे इस शादी के लिए ?”
“ आप राजी हो जाइए. उस के अब्बु को का भला क्या ऐतराज होगा ? मुसलमानों में तो बहन भाई की शादी हो जाती है. फिर मैं कौन सा उस का भाई हूँ ?”
सुन कर पिता जी की आँख में आंसू आ गए, “ बेटा ! ये जो चित्र देख रहे हो जिस में मैं मुस्लिम ड्रेस में हूँ. दंगे के समय अनवर मिया ने मुझे अपना बड़ा भाई बता कर दंगे में मेरी रक्षा की थी. तब से हम सगे भाई है.” पिताजी ने यह कहते हुए बरसों पुराना मुल्लेपंडित वाला दूसरा चित्र पुत्र के सामने कर दिया. ००
        पता : पोस्ट आफिस के पास, रतनगढ़,
                जिला - नीमच - 458226 मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 36
                            डर
                                       - मृणाल आशुतोष
पार्क में बैठे गौतम का ध्यान मोबाईल पर ही टिका हुआ था। इंतज़ार की घड़ी लम्बी होती जा रही थी । अभी तक न तो निशा आयी और न ही वह फोन उठा रही थी। उसके मन में आशंका के बादल मँडराने लगेे कि मोबाइल बज उठा।
फोन उठाते ही वह बरस पड़ा,
"फोन क्यों नहीं उठा रही थी?"
" अरे वो.... वो फोन साइलेंट था।"
"ओफ्फो ! निशा, कहाँ हो तुम? मैं घण्टे भर से पार्क में तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।"
" मैं झील के पास, तुम भी झील आ जाओ न। आज बहुत मन है यहाँ बैठने का |"
"अरे! आज अचानक झील का ख्याल कैसे आ गया?"
" कुछ नही |तुम आओ न पहले , फिर बताती हूँ।"
वह भागकर झील पहुँचा तो निशा बोट में बैठी उसी की राह तक रही थी।
"क्या बात है! आज हमारी दिलरुबा कुछ परेशान सी लग रही है? "
"नहीं तो!"
"तो फिर कुछ हुआ है क्या ?किसी ने कुछ कहा तुमसे ?"
"नहीं। पर आज मैं कुछ जरूरी बात करना चाहती हूँ तुमसे।"
"ओह्ह! जरूरी बात ! हाँ ..हाँ... जरूर कीजिये।" और उसने निशा का हाथ अपने हाथ में ले लिया।
"गौतम, हमें जल्दी शादी कर लेनी चाहिए।"
"वाह, तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली। मैं कल ही अपने मम्मी-पापा के साथ तुम्हारे घर आता हूँ।"
" नहीं! हमारी अरेंज मैरिज नहीं हो पायेगी।"
"क्यों?"
"क्योंकि मेरे पापा की समाज में बहुत इज्जत है। वह दूसरी जाति में मेरी शादी नहीं कर सकते।"
"तो!"
" शायद हमें घर से भागकर शादी करनी पड़े?"
....
"क्या हुआ ? तुम चुप क्यों हो गये?"
.....
"तुम,जबाब क्यों नहीं दे रहे हो?"
"सॉरी यार! पर मैं भागकर शादी नहीं कर पाऊँगा।"
"इसका मतलब है कि तुम मुझसे प्यार नहीं करते।"
"करता हूँ न! बहुत ज्यादा प्यार करता हूँ पर बिना माँ-बाप के आशीर्वाद के यह शादी अच्छा लगेगा?"
"सुनो न ! न जाने क्यों मुझे इसमें पापा की भी मौन सहमति महसूस हो रही है।" निशा ने पानी पर खिंच रही लकीरों को एकटक देखते हुये कहा।
"क्या मतलब ? जब सहमति है तो अरेंज मैरिज में क्या दिक्कत है ? क्या वह तुम्हें प्यार नहीं करते?"
" वह मुझसे प्यार तो करते हैं पर...पर समाज से डरते हैं।" कहते हुए निशा की आँखें छलछला गयी। ००
पता : पुत्र श्री तृप्ति नारायण झा
          ग्राम+पोस्ट-आरसी नगर एरौत
          भाया-रोसड़ा
          जिला-समस्तीपुर(बिहार) - 848210
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लघुकथा - 37
                        अंधेर नगरी
                                               - अशोक दर्द
      धर्मचंद ने ज्ञानचंद से कहा – यार सरकार ने इस बार कृषि विभाग के दफ्तर में गेहूं का जो बीज बिक्री के लिए भेजा है ,बहुत अच्छा भी है और सस्ता भी | सरकार सब्सिडी इतनी दे रही है कि बाजार के मूल्य से आधे से भी कम है |
  मुझे अस्सी किलो बीज चाहिए था परन्तु चालीस ही मिला | कृषि अधिकारी बोल रहा था – खत्म हो गया है और मंगवा रहे हैं | परन्तु पता नहीं अब कब आएगा | तब तक फसल का समय भी निकल जायेगा | धर्मचन्द ने उदास होते हुए कहा |
ज्ञानचंद ने मुंह बनाते हुए कहा – यार मैंने यह फायदा तो पहले ही उठा लिया है | पूरे अस्सी किलो ले आया हूँ | धर्मचन्द ने कहा – तुम्हें इतना बीज कृषि अधिकारी ने कैसे दे दिया | तुम्हारी तो इतनी जमीन भी नहीं है | तुम इतना बीज क्या करोगे ?
   यह सुनकर ज्ञानचंद तपाक से बोला – यार कृषि अधिकारी भी अपना यार बेली है ,दे दिया तो ले लिया | इस गेहूं को धो कर सुखाऊंगा और पिसवा कर आटा बनाऊंगा , बाजार से आधे रेट पर बढ़िया गेहूं का आटा ...|
    कहते कहते उसके चेहरे पर ऐसे भाव उभर आये थे मानो उसने कोई मोर्चा फतह कर लिया हो |००
     पता : प्रवास कुटीर ,बनीखेत , जिला चंबा ,     हिमाचल प्रदेश - 176303
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लघुकथा - 38
                         बेअसर
                                         - विजयानंद विजय
" तुमने आज की ये न्यूज पढ़ी ? बिलकुल सही इलाज किया है भ्रष्टों-बेईमानों-घूसखोरों का, इन गाँव वालों ने....। " मार्निंग वॉक पर रोज की तरह निकले कैप्टन सावंत आज बहुत खुश नजर आ रहे थे।उनकी भाव-भंगिमा ही बदली हुई थी।युद्ध में अपना एक पैर और सीमा पर बेटा गँवा चुके रिटायर्ड कैप्टन सावंत बोले जा रहे थे - " ....इन जैसे बेईमानों के कारण ही आज देश की ये हालत है। "
" कौन-सी न्यूज़ सर ?" - साथ चल रहे रिटायर्ड हवलदार रामलाल ने उत्सुकतावश पूछा।
"  कृषि अनुदान के लिए ब्लॉक वाले रिश्वत माँग रहे थे, तो गाँव वाले बोरे में ढेर सारे साँप भरकर लाए और ऑफिस में छोड़ दिया।ये देखो...। " कैप्टन ने अखबार रामलाल को दे दिया। न्यूज के साथ छपी फोटो देखकर रामलाल ने भी सहमति में सिर हिलाया।
कैप्टन सावंत ने फिर कहा - " अच्छा हो, अगर ऐसे ही विषधर साँप ले जाकर हमारे रहनुमाओं की उस सभा में भी छोड़ दिए जाएँ जहाँ बैठकर वे नियम-नीतियाँ तय करते हैं....। " देश में आए दिन होते घोटालों, दंगों, हत्या, बलात्कार की घटनाओं और सीमा पर लगातार बिगड़ते हालात से कैप्टन सावंत का खून खौल उठा था।
" लेकिन सर...! उनपर  विषधरों के जहर का असर होगा क्या ? "- हवलदार रामलाल ने पूछा।
कैप्टन साहब अब निरूत्तर हो गये थे और रामलाल का मुँह देख रहे थे। ००
           पता : आनंद निकेत ,बाजार समिति रोड ,
           पो. - गजाधरगंज ,
           बक्सर(बिहार)-802103
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 लघुकथा - 39
                               भूत
                                     - डॉ. पूरन सिंह
    बाबा बहुत मेहनत करते थे लेकिन जमींदार बेगार तो करवाता था, पैसे नहीं देता था। कभी-कभार दे दिए तो ठीक नहीं तो नहीं। उन्हीं पैसों से किसी तरह गुजर होती थी।
   एक दिन दोपहर को मैंने मां से कहा,‘‘बहुत भूख लगी है।’’
   मां कुछ नहीं बोली उसने मिट्टी के बरतन उलट कर दिखा दिए थे।
   मेरी भूख और तेज हो गई थी। भूख के तेज होते ही मस्तिष्क भी तेज हो गया था। पास ही श्मशान घाट था जहां बड़े .बडे लोग अपने बच्चों को भूत-प्रेत से बचाने के लिए नारियल, सूखा गोला पूरी-खीर कई बार मिष्ठान भी रख आते थे। यह सब काम दोपहर में होता था या फिर आधी रात को।
    मैं श्मशान घाट चल दिया था। संयोग से वहां खीर पूरी और सूखा गोला रखा था। गोले पर सिंदूर और रोली लगी थी। मैंने इधर-उधर देखा। कोई नहीं था। मैंने जल्दी-जल्दी आधी खीर पूरी खा ली थी और गोला झाड़ पोंछकर अपनी जेब में रख लिया। आधी खीर पूरी लेकर मैं घर आया था। मेरा चेहरा चमक रहा था।
   चमकते चेहरे को देखकर मां ने पूछा, ‘भूख से भी चेहरा चमकता है क्या¬। तू इतना खुश क्यों हैं?
    मैंने बची हुई आधी खीर-पूरी मां के आगे कर दी थी। मां सब कुछ समझ गई थी। मां की आंखें छलक गई थी और उसने मुझे अपने आंचल में छिपा लिया था मानो भूत से बचा रही हो कि उसके होंठ फड़फड़ाने लगे थे, ‘भूत, भूख से बड़ा थोड़े ही होता है।’
  मैं कुछ नहीं समझा था। मैं मां के आंचल में और छिपता चला गया था। ००
      पता : 240 बाबा फरीदपुरी , वेस्ट पटेल नगर ,
               नई दिल्ली  110008
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लघुकथा - 40
             गुलाम बचपन की नयी जिन्दगी
                                                   - मंजु गुप्ता
  "  बंधुआ मजदूर  की बेटी रमिया दबे - कुचले वर्ग , महिला कामगारों और बंधुआ मजदूरों के हकों ,  पीड़ाओं , समस्याओं को सुलझा कर देश का सुरक्षित भविष्य तैयार करने में जुट गयी   थी . "
      रमिया का बचपन अपने माता - पिता के अभिशिप्त बंधुआ मजदूरी के तहत ईंट भट्ठे के मालिक के घर में गिरवी रख कर गुलामी की मार से अभिशापित था . उन्हें कितनी बार तो भूखे ही सो जाना पड़ता था .
        गँवार रमिया खेल - खिलौने , शिक्षा के बारे में न जानती थी . कोल्हू की बैल की तरह दिन - रात मालिक के कामों में जुटी रहती थी . उसका हाथ कभी खाली न रहता था . एक काम निबटाने के बाद दूसरा काम मालकिन का करना पड़ता था . जैसे बर्तन मांजना , सफाई करना , जूते  पोलिश करना आदि . उनके अन्याय , अत्याचारी रवैया , जुल्मी  हुक्मों का पालन उन सबको करना ही पड़ता था .उन्हें ऐसा महसूस होता था कि मालिक की आत्मा में मानवीयता , संवेदनाएं जैसे मर गयी हो . रमिया अपने माता - पिता के साथ ईंटो के भट्ठे में भी जाकर भी काम करवाती थी .
       रमिया को भट्ठे में जाना अच्छा न लगता था क्योंकि जब ईंटें को  तसले में भर कर ट्रक में रखती थी . ड्राइवर की बुरी नजरें उसे घूरा करती थीं  . एक दिन तो ड्राइवर ने सीमा ही लाँघ दी थी .
       जब ड्राइवर ने उसकी चुन्नी ही खींच दी थी . अचानक उसी वक्त पर माँ ने आकर ड्राइवर  को एक ईंट उसकी आँख पर मारी थी . ड्राइवर की आँख बच  तो गयी थी , लेकिन भोंह का घाव इस वारदात की गवाह था  .
        यह वारदात देख के ईंट भट्ठे के मालिक ने ड्राइवर से कहा , " इस छोटी बच्ची के साथ ऐसा करना तुम्हें शोभा नहीं देता है . माफी मांगो रमिया से . "
     ड्राइवर ने ईंट भट्ठे के मालिक से कहा - " नहीं साहब ! मैं नहीं मांगूगा माफी , उसकी माँ ने ईंट मुझे मारी है . वो मेरे से माफ़ी माँगे "
    तभी ड्राइवर ईंटों से भरे ट्रक को ले के वहाँ से तेजी से रफा दफा हो गया .
    ईंट भट्ठे के मालिक ने  इस छेड़ - छाड़ की घटना को वहीं दबा दिया और  रमिया की माँ  से कहा -" तेरे  मुँह से इसके लिए आवाज नहीं  निकलनी  चाहिए .  अगर आवाज निकली तो उसी समय तेरा और तेरी  छोकरी का राम नाम सत्य कर दूँगा . "
        कांपते हुए हाथों को  जोड़ते हुए लाचार , निरीह , पीड़िता रमिया की  माँ ने उसके समर्थन में हाँ में गर्दन हिलायी और मन ही मन बुदबुदाई कि बंधुआ मजदूर होने के कारण  इस ताकतवर भट्टे के मालिक के खिलाफ  हमारी फरियाद कौन सुनेगा ?
      तब से मासूम , पीड़ित रमिया इस छेड़- छाड़ की  घटना से डरी , सहमी- सी  रहने लगी . मालिक के उत्पीडन , शोषण , दुर्व्यवहार से  रमिया का पूरा परिवार दुखी और पीड़ित रहता था . उन्हें यह सब सहना ही था , अभिशाप तो जन्म से ही भाग्य में जो लिखा था .
       कहते हैं जिनके हाथ नहीं होते हैं उनकी भी किस्मत लिखी होती है . घूरे के दिन भी बदलते हैं .
     रमिया के भाग्य से करिश्मा हो गया .
     एक दिन ' मजदूर मुक्ति मोर्चा ' का एनजीओज जब इस गाँव में आया तो ईंटो के भट्ठे के मालिक के यहाँ बंधुआ मजदूरों  का पता लगा तो वहाँ रमिया के पीड़ित परिवार से मुलाक़ात हो गयी , उन्हें रमिया के पिता  ने आप बीती सुनायी .
    कैसे तैसे अदालत के द्वारा   एनजीओज  ने इन बंधुआ मजदूरों को आजाद कराके आश्रय देके बच्चों को बाल गृह में रख कर  ' सर्व शिक्षा अभियान '  की  तहत रमिया को शिक्षा दिलायी . स्वावलम्बी रमिया ने  शिक्षिका बन के समाज में शैक्षिक मूल्यों और ज्ञान की रौशनी से कानूनों , अधिकारों, हकों , शोषण , यौन उत्पीडन , घरेलू हिंसा  के प्रति लोगों को जागरूक कर  जानकारी देने लगी और सबला , सशक्त रमिया ' मजदूर मुक्ति मोर्चा ' के  एनजीओज से जुड़ कर बेगारी प्रथा , महिला उत्पीडन आदि को मिटाने में जुट  गयी और ऐसा लगा जैसे ज्ञान का दीया दिन के उजाले  में अज्ञान के   अँधेरे दीयों को बालने में जुट  गया हो .
   वाकई "  बंधुआ मजदूर  की बेटी रमिया दबे - कुचले वर्ग , महिला कामगारों और बंधुआ मजदूरों के हकों ,  पीड़ाओं , समस्याओं को सुलझा कर देश का सुरक्षित भविष्य तैयार करने में जुटी गयी   थी .  " ००
      पता : 19 ,द्वारका ,प्लाट - 31 , सेक्टर 9 A ,
              वाशी , नवी मुंबई  - 400703 , महाराष्ट्र
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लघुकथा - 41
                        मासूम सी अदा
                                              - नीता सैनी
छोटी बच्ची दीवार से उखड़ी हुई सफेदी छुड़ाकर खा रही थी। काम करते करते माँ उधर से निकली बच्ची को देखा और झाड़ लगाई -- "नहीं मानेगी तू ? ला रस्सी लेकर आ, इसके हाथ बांध दूँ ताकि फिर ये मिट्टी ना खा सके।"  माँ ने बेटे से कहा जो कि बच्ची से कुछ ही बड़ा था ।
बच्ची ने सकपका कर दोनो हाथ की  उंगलियां आपस में फंसाकर हाथ नीचे करके सरेंडर कर दिया।
   शोर सुनकर पिता भी बाहर निकल कर आये और पत्नी से पूछा -- "क्या हुआ क्यों  चिल्ला रही हो ?"
"ये आपकी लाडली , जहाँ भी मौका मिले मिट्टी खाने लगती है। देखो तो जरा, और कुछ नहीं मिला तो दीवार की उखड़ी हुई सफेदी ही खाने लगी।
पिता मुस्कुरा कर माँ से बोले -- "देख तो जरा कैसे आँखे बंद करके  मासूम भोली सी बनकर खड़ी है, सोच रही है कि इसको कुछ नहीं दिख रहा तो ये भी किसी को नहीं दिखाई दे रही।"
"बस हर बात हँसकर ही टाल देते हो । जब इसके पेट में कीड़े पड़ जाएंगे ना तब तुम ही  इधर उधर लेकर दौड़ते फिरना।"  गुस्सा , चिन्ता और भय के मिले जुले भाव माँ के चेहरे पर आ जा रहे थे।
पिता बच्ची को गोद में उठाकर भीतर ले जाते हुए प्यार से उसे समझा रहे थे -- "मेरी प्यारी बिटिया, अब से कभी मिट्टी नहीं खायेगी ना?"
बच्ची ने अपने दोनो कान पकड़कर कहा -- "छोली पापा, अब तबि नहीं ताऊँदी।"
बच्ची की इस मासूम सी अदा पर मुस्कुराए बिना माँ भी नहीं रह सकी। ००
        पता : जगदम्बा टैण्ट हाऊस, एल- 505/4, शनि बाजार,‌ संगम विहार, नई दिल्ली-110080
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लघुकथा - 42
                         शर्मसार
                             - राजेन्द्र शर्मा ' निष्पक्ष '
बच्चे आज देर से जगे थे,इसलिए स्कूल की बस छूट गयी।उसने जल्दी जल्दी तैयारी की,अपना स्कूटर निकाला, और बेटे बेटी को पीछे बिठाकर उन्हें पब्लिक स्कूल में छोड़ने चल पङा।स्कूल घर से सात किलोमीटर दूर जंगल में बना था,काफी बङा आकार ,पूर्ण वातानुकूलित ,स्मार्टक्लास व अन्य नवीनतम सुविधाओं से परिपूर्ण होने के कारण,स्कूल को शहर में अव्वल दर्जे का माना जाता था।मध्यम वर्गीय होने के बावजूद उसने बच्चों को इस स्कूल में दाखिला दिलाया था।कम वेतन के कारण कितनी ही इच्छाओं का दमन करना पङता,मगर बच्चों
की पढ़ाई अच्छी हो,उनमें हीन भावना न आए,पड़ोसियों और रिश्तेदारों के बच्चों को देखकर,कितनी ही बातें
थीं इसके पीछे। बीस मिनट के बाद खेतों से भरा इलाका आ गया,लगभग एक किलोमीटर दूर पब्लिक स्कूल की
आलीशान इमारत नजर आने लगी,कुछ ही मिनटों में स्कूल करीब आ गया।
"पापा,स्कूटर रोक लो।"अचानक पीछे से बच्चों
की आवाज आई। उसने स्कूटर रोक लिया।
"पापा,अब हम चले जाएँगे।"बेटी ने कहा।
"मैं तुम्हें स्कूल के मुख्यद्वार पर छोड़ आता हूँ।"
"नहीं रहने दो हम चले जाएँगे।"बेटे ने कहा और दोनों बहन भाई एक दूसरे की तरफ देखने लगे।
"क्या हुआ बेटा?"उसने हैरान होते हुए कहा।
"पापा,आपने दाढ़ी नहीं बनायी है,कपङे भी
नाईटड्रेस वाले पहने हैं।आपकी स्कूटर भी पुरानी हैै।हमारी कक्षा के बच्चे अपनी कारों में आते हैं,उनके
मम्मी पापा भी....।"इससे पहले कि बेटा कुछ आगे बोलता, उसने स्कूटर से बच्चों को उतार दिया।
"हाँ,ठीक कह रहे हो तुम लोग......अपनी वजह से मैं तुम लोगों को क्यों शर्मसार करूँ?"अपनी भीगी आन्खें छिपाने के लिए उसने स्कूटर मोङ लिया। ००
       पता : 185 , आठ मरला कालोनी, पानीपत
                हरियाणा -132103
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लघु कथा - 43
                         खुलती गांठें
                                       - देवराज डडवाल
दोनो भाइयों मे वहुत स्नेह  था । दोनो ही सरकारी नौकरी मे थे अत: एक अपने लिए कुछ खरीदता तो दूसरे के लिए भी उसी प्रकार की पेंट शर्ट या शुज़ खरीद लेता । इंश्योरेंस व बैंक जमा दोनो साथ साथ करवाते थे । इस प्रकार शादी तक एक दूसरे के खातों और बैंक जमा की उनको पूरी जानकारी थी । पहले तो सब ठीक था लेकिन जब छोटे भाई इन्द्र  ने मकान का काम लगाया तो बड़े की पत्नी अंदर खाते जल भुन गई ।
" देखो जी, आप तो कहते थे यह मुझसे कुछ नही छुपाता तो अब आप बताओ कि यह इतना पैसा आया कहाँ से । आप भी डालो भला इतना बड़ा मकान । आपकी सेलरी इससे कम तो नही है न " -पैर पटकती हुई वह चली गई ।
" मोनू , रुको तो सही " - चन्द्र ने रोकने की कोशिश की थी परन्तु मोनिका कहाँ रुकने बाली थी ।
" मैँ जानती हूँ कहाँ से आया यह सब पैसा । आप तो बने रहो मर्यादा पुरषोतम बड़े भाई राम " - मोनिका अब पूरी तरह से आपे से बाहर थी ।
किचन से इन्द्र की पत्नी सब सुन रही थी । मकान बनकर तैयार भी हो गया लेकिन मोनिका ने उस तरफ का रुख तक नही किया । दोनो भाइयों के वीच अब वात भी कम रह गई थी ।
" देख इन्द्र, मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ । मेरे दिल मे तेरे लिए कुछ नही है तो तुम क्यों गांठ वांध कर बैठ गए ? " - बड़े ने जब कहा तो छोटा उससे आकर लिपट गया । ००
पता : गाँव सरनूह डा सुखार तहसील नूरपुर
         जिला कांगड़ा , हिमाचल प्रदेश - 176051
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लघुकथा - 44
                          पॉकेटमार
                                          - मुरलीधर वैष्णव
    “आइए यजमान, किसकी अस्थियाँ लाए हैं?” नज़रें आगन्तुक की जेब पर डालते हुए करुणा मिश्रित मीठी जुबान में पण्डा बोला।
  “पिताश्री की।” यजमान ने कहा।
   “अरे-अरे कब…कै बरस के थे वे?” पीकदान में शोक संवेदनाएँ उगलता हुआ पण्डा बोला।
     एक सौ दो बरस के।” उसने गर्व से कहा।
   “बड़े भाग्यवान हो भैया! फिर तो खुलकर दान करो।” पण्डे ने ‘ज्ञान’ दिया।
    अस्थि-प्रवाह से पूर्व इक्कीस प्रकार के दान करने का वचन यजमान से लेकर पण्डे ने आधे घण्टे में उक्त कार्य को निपटा दिया। कुछ हील-हुज्जत के बाद भी यजमान को ग्यारह सौ रुपए उसे दान-दक्षिणा के देने ही पड़े। यजमान उसके चंगुल से मुक्त होने को छटपटाने लगा।
   “बही में नाम लिखाई नहीं कराओगे तो कल कौन मानेगा कि तुम यहाँ पिताश्री की अस्थियाँ लेकर आए थे।” पण्डे ने आखिरी पटकनी मारी।
    यजमान घबरा गया। जाते-जाते एक सौ रुपए बही में नाम लिखाई के उसने और दिए।
    यजमान की जेब में अब जयपुर के निकट अपने गाँव लौटने का भाड़ा मात्र बचा था। वह हरिद्वार से दिल्ली पहुँचा। जयपुर की बस में बैठने से पूर्व एक कप चाय पीने की उसकी इच्छा हुई। जेब संभाली तो पैसे गायब थे। यजमान की दुखी आत्मा यह सोचती ही रह गई कि असल में उसकी जेब कटी कहाँ? दिल्ली या हरिद्वार में। ००
        पता : गोकुल,  ए -77, रामेश्वर नगर ,
                बासनी प्रथम, जोधपुर - 342005
                राजस्थान
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लघुकथा - 45
                              पानी
                                            - सीमा जैन
                         
    मेरी माँ ससुराल में पानी भरने के लिए ही लाई गई थी।  राजस्थान के गाँवों में जो व्यक्ति थोड़ा खर्च उठा सकते है; वे दो शादियाँ कर लेते हैं। एक पत्नी अच्छे परिवार से, घर में राज करने के लिए और दूसरी गरीब घर से, पानी लाने के लिए। ऐसा करना नौकर रखने से सस्ता जो पड़ता है। माँ  सुबह तीन बजे उठती, कोसों दूर से पानी लाती और फिर दिन भर घर के काम में लगी रहती।
   माँ के सुबह अँधेरे उठ जाने के कारण, मैं भी जल्दी ही उठ जाता था। तभी परिश्रम कर मैं पढ़-लिख गया। कार में बैठे माँ की बार-बार कही बात दिमाग में आ रहीं थी, “लाला, मन लगाकर पढ़ ले, पढाई तेरे काम आएगी।"
  दो साल बाद गाँव जा रहा हूँ, माँ को लेने। अब माँ शहर में मेरे साथ ही रहेगी। सुबह चार बजे घर पहुँचा। माँ घर पर नहीं थी। ध्यान आया, वह तो पानी लेने गई होगी।  हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड थी। शीत भरे अँधेरे में कार पानी वाले रास्ते पर दौड़ा ली। पिछले पच्चीस सालों से माँ कितना कठिन जीवन जी रही है! सोच लिया था, आज के बाद माँ कभी इस सूने रास्ते से पानी लेने नहीं जाएगी।
   मुझे देखकर माँ ने गले से लगा लिया, बोली -"यहाँ क्यों आया लालता? कितनी ठण्ड है। चल, घर चल, मैं पानी ले कर आती हूँ।"
  मैने माँ का हाथ थाम कर कहा- "माँ, घड़ा यहीं छोड़ और मेरे साथ घर चल।"
   माँ के लिए पानी छोड़ना किसी आश्चर्य से कम नही था, वह बोली, "बेटा, फिर दिन भर...?”
   मैने माँ को बीच में ही रोक कर कहा- "उनको एक दिन बिना पानी के भी रहने दे न माँ!"
   विधवा  माँ को अपने साथ लेकर शहर आ गया।  सोसायटी में मेरा फ्लैट है, सारी सुविधाओं से युक्त। सायंकाल  माँ को स्विमिंग पूल पर ले गया। वहाँ माँ उदास हो गई। मुझे तैरता देख वह रोने लगी।  घर पहुँचकर माँ से पूछा- "क्या बात माँ, तुम उदास क्यों हो गई?"
   माँ ने दर्द भरे स्वर में कहा- "जिन चार घड़े पानी ने पूरी ज़िन्दगी का सुख ले लिया, उस पानी का ये हाल...!"  00
          पता : 201, संगम अपार्टमेंट ,
          माधव नगर ( विजय नगर ),
          ग्वालियर - 474009 मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 46
                            अचीवमेंट्स
                                              - रेखा राणा
       "हाँ ......अपने बूते पे ये मुकाम हासिल किया है ,कोई सिफारिशी नहीं हूँ ......!"सब पक चुके थे शगुन का ये बार-बार का डायलॉग सुन कर !
         बहुत घमंड था शगुन को अपनी अचीवमेंट्स पर और अक्सर वो अपनी रौ में वो अपने  कम कमाने वाले पति को उल्हाना दे देती !
         आज शगुन अकेली रह गई ........अपनी अचीवमेंट्स के साथ ........! ००
           पता :  1505/ 13,  अर्बन एस्टेट ,करनाल  
                  हरियाणा -132001
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लघुकथा - 47
                                  कर्ज
                                          - सुनीता त्यागी
   पूरे तीन महीने के बाद गेट पर खड़े बेटे को देख कर वसुधा चौंक सी गयी।बेटे की उपेक्षा से नाराज दरवाजा खोल कर वह बिना कुछ बोले सोफे पर जा बैठी। बेटा भी माँ के सामने आ कर चुपचाप  बैठ गया।
   कुछ देर तक वहाँ सन्नाटा पसरा रहा, फिर वसुधा ने ही सन्नाटे को तोड़ते हुए उसके बच्चों का हाल चाल पूछा,
" सब ठीक हैं " विशाल ने जवाब दिया और कुछ पल के लिये फिर से वहाँ मौन पसर गया।
वसुधा ने ही दोबारा चुप्पी तोड़ी -" बेटा क्या मांँ की कभी याद नहीं आती ,पापा के जाने के बाद तेरी माँ कैसी है, क्या ये जानने का भी मन नहीं होता  "।
" नहीं! ऐसा नहीं है, ...माँ वो...बेटे ने नजरें चुराते हुए संक्षिप्त सा जवाब दिया।
" तो फिर आज कैसे रास्ता भूल गया, क्या ये देखने आया है कि बुढ़िया मरी या नहीं " आहत माँ के शब्दों में इस बार दर्द और कड़वाहट झलक रही थी।
" कहा ना!  इसलिए नहीं आया हूँ  ,"विशाल ने तैश में आते हुए कहा।
" मांँ वो मेरे कुछ पैसे निकल रहे हैं आप पर,बस उन्हीं के लिये ... उसने अपने वाक्य को अधूरा ही छोड़ दिया ।
" परन्तु बेटा हमने तो कभी तुम से कोई पैसे नहीं लिये, न मैंने, न तेरे पापा ने, फिर..."
" वो क्या है ना माँ ! पापा के अन्तिम सँस्कार के वक्त मैं आप से मांँग न सका था,  तब सामान लाने में मेरे पाँच हजार रुपये खर्च हो गये थे,अब तो पापा की पेंशन भी आने लगी होगी "। विशाल ने निर्लज्जता से जवाब दिया।
    सुन कर माँ का मुँह खुला का खुला ही रह गया।
   " ओह!  ऐसा? तो बेटा हमारा भी कुछ कर्जा है तुम्हारे ऊपर!"
  "माँ मुझे आपने दिया ही क्या है जिसे मैं उतारूँ।
  " तुम भूल गये बेटा !,तुम नौ माह मेरी कोख में रहे, डेढ़ वर्ष मेरा दूध पिया, तुम्हारे बीमार पड़ने पर मैं रात रात भर जागी।तुम्हें कोई कमी न हो, तुम्हारी जरूरतों को पूरा करने के लिये तुम्हारे पापा पूरी सर्दियाँ एक फटे कोट में निकाल देते थे। क्या पहले हमारे इस कर्ज को चुका पाओगे।"
     इतना कह कर आँखों की कोरों में ढुलकआये पानी को साड़ी के पल्लू में समेटती हुई वसुधा अलमारी खोलने चली गई।वापस लौटने पर उसकी दोनों मुट्ठियाँ बन्द थीं।
" ले बेटा ये तेरा उधार ! एक मुट्ठी से रुपए निकालकर दे दिए और ये मेरे अन्तिम संस्कार के लिए ,क्यों कि तब मैं न रहूँगी " ।दूसरी मुठ्ठी भी खोल दी वसुधा ने बेटे के सामने ।ये सुन कर विशाल की सोई हुई आत्मा बिलख उठी और वह रोते हुए माँ के क़दमों में गिर पड़ा। ००
      पता : 262/6 , जागृति विहार,
               मेरठ - उत्तर प्रदेश
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लघुकथा - 48
                              जिन्दा मैं
                                              - अशोक जैन
   कई हफ्तों बाद आज वे फिर मिले। दोनों भरे थे, पर चुप्प! बात वहीं से शुरू हुई जहाँ से अब तक हर बार शुरू होती रही है। छुटका आज मानसिक रूप से तैयार होकर आया था।
   “कहाँ थे इतने दिन?” बड़के ने प्रश्न किया।
   “यहीं।” संक्षिप्त-सा उत्तर छुटके का।
   “…स्कूल का क्या रहा?”
   “बन्द कर दिया।”
  “क्यों?” बड़के ने अपनी निगाहें उसके चेहरे पर गड़ा दी।
  “आपस में कॉन्फ्लिक्ट्स हो गए थे, फिर एडमिनिस्ट्रेशन का नोटिस…”
   “नोटिस-वोटिस में बहलाने की कोशिश मत करो। तुम्हारे काम करने का आपरेशन ही गलत है, सफलता मिले कहाँ से?”
    छुटका चुप रहा।
    “तुम्हारी असफलता का कारण है, तुम्हारा अपना गलत क्लैरिफिकेशन…तुम्हारी अपनी कमजोरी…।”
   “क्या मैँ नहीं चाहता ‘सेट’ होना।” छुटके ने कुछ कठोर होने का प्रयास किया।
   “पिछले चार सालों में तुमने अपने कैरियर में क्या जोड़ा? तुम्हारी चाह से ही रास्ते नहीं खुल जाएँगे।”
   फिर थोड़ी देर खामोशी छाई रही। भावज चाय रख गई थी। बड़का चाय को सिप करने लगा था।
  “रोटी तो कुत्ता भी खा लेता है। जितना तुम ट्यूशनें करके कमाते हो, उतना तो एक पानी की टंकी धकेलनेवाला भी कमा लेता है। फिर तुम…”
    छुटके को कड़वाहट झेलते देख, बड़का बोलता रहा।
   “आपने शायद कुछ ‘प्रूफ’ पढ़ने के लिए बुलाया था…!” छुटके ने विषय पर आते हुए कहा।
  “पहले अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करो, फिर आना। जिन्दगी में कुत्तों की तरह रोटी खाना ही ध्येय…।” बड़का निरन्तर मन की बातें उगलता रहा। तभी ध्यान दूसरे भरे प्याले की ओर गया।
  “चाय पियो” बड़के ने भरा प्याला उसकी ओर सरकाते हुए कहा।
  छुटके का ध्यान उस ओर न था, वह खामोश कुछ सोच रहा था। उसे चुप देख बड़के ने दुबारा कहा, “पियो न!” उसके स्वर में तल्खी थी।
  “नहीं, मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ।” छुटके ने दृढ़ता से कहा।
  वह उठा और उसके कदम दरवाजे की दहलीज लाँघ गए। ००
    पता : 908, सैक्टर -7, एक्सटेंशन, अर्बन एस्टेट,
            गुरुग्राम - 122001 हरियाणा
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लघुकथा - 49
                             आग
                                  -डॉ. रामनिवास मानव
   मोहल्ले में आग लग गई थी। वह यह सोचकर निश्चिंत था कि आग बहुत दूर है। उसका घर पूर्णतया सुरक्षित है।
   आग कुछ नजदीक आ गई तो वह थोड़ा चिंतित हुआ, लेकिन कुछ करने की आवश्यकता उसने अब भी नहीं समझी।
  आग उसके पड़ोसी के घर तक आ गई तब भी वह हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा।
   ‘पड़ोसी के लिए अपने हाथ क्यों झुलसाए!’ वह सोचता रहा।
   अब जलने की बारी उसके घर की थी। आग बुझाने के लिए वह कुछ कर पाता, इससे पूर्व ही आग उसके घर को राख में बदलकर अगले घर तक जा पहुँची थी। ००
      पता : 706, सैक्टर - 13, हिसार - 125005
                हरियाणा
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लघुकथा - 50
                   मेहनत की कीमत
                                            - डॉ. अर्चना दुबे  
   माता – पिता अपने परिवार यानी अपने बच्चों से बहुत ज्यादा उम्मीदे रखते है । य्हां तक कि अपना सपना वो अपने बच्चों में देखने लगते है । अपना पूरा जीवन बच्चों के परवरिश में निकाल देते है ........ लेकिन जब उसी बच्चों में काबिलियत नजर आती है तो उनके खुशी का ठिकाना नहीं रहता है ..............बात यह है कि सियाराम की आमदनी कम होते हुए भी बच्चों के प्रति हौसलें बुलंद है । वे अपने बच्चों के शिक्षा – दीक्षा में गरीबी का रोना नजर नहीं आने देना चाहते है । खुद को भूखा रखकर, कपड़ों की तंगी हालत सहकर बाकी के अरमानों की बात ही छोड़ दो, वे हर कठिन से कठिन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करते है ।
     दो पुत्र व एक पुत्री के पिता सियाराम जीवन के झंझावातों व कठिन परिस्थितियों से गुजर रहे थे, परंतु बच्चों के भविष्य से कोई खिलवाड़ नहीं करना चाहते है । अपना क्या ? पर बच्चे मेरी तरह जीवन न जिये । बड़ा बेटा बारहवीं में दुसरा दसवीं में और बेटी नौवीं कक्षा की पढ़ाई वाणिज्य से कर रहे थे । खर्च का अधिक बोझ होने के कारण वे दो – दो जगह काम करने जाते थे । सुबह के तीन बजे ही चारपाई छोड़ देते थे तो वही रात के ग्यारह बजे के पहले नसीब नहीं होती थी । उनका कमरतोड़ मेहनत लोगों के होशों – हवास उड़ा दे रहा था ।
      ईश्वर की भी इतनी मेहरबानी थी कि उनके तीनों बच्चें बहुत ही संस्कारी व कक्षा में भी अव्वल आते थे । सबके मुँख पर सियाराम के बच्चों का ही उदाहरण रहता था कि बच्चे हो तो ऐसे । लेकिन सियाराम हमेशा काम के फिराक में रहता था, छुट्टी लेना तो उसके लिए सपना सा हो गया था ............. उनका सोचना यही रहता था कि किसी भी हालत में मुझे बच्चों को सही दिशा देना है ..... चाहे क्यू ना मुझे अधिक मेहनत ही करना पड़े ?
     मेहनत अधिक व खान – पान सही न रहने के कारण सियाराम का स्वास्थ्य भी बिगड़ता जा रहा था । दिन पर दिन तबियत गिरती जा रही थी , पत्नी को ये बात खाये जा रही थी कि यही हालत रही तो आगे क्या होगा ? एक दिन तो सियाराम को इतना तेज बुखार था कि काम पर जाने की उसे ताकत ही नहीं थी । पूरा शरीर ताप से जल रहा था । डॉक्टर ने भी सलाह दिया कि इनको आराम की शक्त जरूरत है ..... नहीं तो भगवान ही मालिक है ........... ऐसी हालत में बच्चों का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा । सबकी शिक्षा आधे – अधूरे पर ही रूक जाय...... यह बात पत्नी रमावती को खाये जा रही थी । दिनों – रात उसके जेहन में एक ही बात घूमती रहती कि हालात का सामना मैं किस तरह करूँ ?
     ..... काफी जद्दोजहद के बाद कुछ करने को सुझीं । पति के सपने को साकार करना है । ......... आखिर एक कम्पनी में पैकिंग के काम में लग ही गयीं । सुबह तड़के उठकर घर का सारा काम करने के साथ – साथ पति का भी पूरा इंतजाम करके जाती थी । बाकी देख – रेख में सहयोग बच्चे भी कर देते थे । इसके बावजूद भी पैसो की कमी थी । रमावती जरूरत को देखते हुए काम का समय और बढ़ा दिया ... लिकिन चिंता की लकीरे रमावती के चेहरे पर साफ – साफ नजर आर ही थी ।
   .... एक दिन उनका सेठ पूछा कि आप की परेशानी क्या है ? रमावती पूक्काफोड़ रोने लगती है और घर के सारे हालात को सेठ के आगे बयां कर दी । सेठ भी करूण हृदय वाला था । रमावती को आश्वासन दिया ईश्वर सब ठीक कर देगा ।
    सच्चाई क्या है ? पता करने सेठ घर पर आते है ...... घर की हालात को देखकर शायद उन्हें दया आयी । .......बड़े बेटे को होनहार देखकर सेठ ने हिसाब – किताब के लिए अपने यहां रख लिए ....... और कुछ उधार के रूप में रूपयों की भी मदत कर दिये ।....... जिससे पति की अच्छे से इलाज करवायीं । एक महीने के अंदर ही सियाराम पूर्ण रूप से ठीक हो गये । .... और काम पर जाना भी शुरू कर दिये । बड़ा बेटा काम के साथ – साथ स्नातक पूरा कर लिया और सीविल की तैयारी में लग गया । ईश्वर की कृपा से दो ही साल में उसका चौबींसवें पद पर नियुक्ति हो गयी । छोटा बेटा स्नातकोत्तर करने के बाद ही लिमिटेड कम्पनी से अच्छी तनख्वाह पर बुलावा आ जाता है । बेटी भी सीविल की तैयारी में लगी है .... पूरे परिवार का सहयोग है उसके साथ ।
     सियाराम अपने को बहुत भाग्यशाली समझता है .... कि ईश्वर की ही कृपा है कि मुझे कर्मठी व सुशील पत्नी मिली। बुरे हालात में भी हिम्मत से काम लेकर परिवार के ऊपर आंच तक न आने दिया । बच्चों के अंदर भी इतना अच्छा संस्कार का असर था कि माता – पिता ही उनके लिए सब कुछ थे । हालात को समझकर हर कमियों को सहते हुए शिक्षा की जो ऊँचाई को उन्होने छुवा है..... हर पिता के लिए यह गर्व की बात है ।
   पति – पत्नी के कठिन मेहनत का कीमत बच्चों की शिक्षा में रंग लायी । ००
 पता : रूम नं.— 102 , पहला महला ,
          ओम साई शान्ती अपार्ट्मेंट ‘बी’
    गाला नगर, नीयर क्रिस्टराज स्कूल ,             
    आचोले रोड , नालासोपरा (पूर्व) ,
    जिला- पालघर, मुम्बई - 401209 महाराष्ट्र
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लघुकथा - 51
                     दाए हाथ का शोर
                                -  सविता मिश्रा 'अक्षजा'
चेतन का फेसबुक अकाउंट पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा था । आज अचानक उसको वें तस्वीरें दिखी, जो उसने पांच साल पहले पोस्ट की थी।  दूसरों की मदद करते हुए  उसकी ऐसी तस्वीरों की अब उसे जरूरत ही कहाँ थी। उसने स्क्रॉल कर कर दिया ।
    कभी समाजसेवा का बुखार चढ़ा था उस पर। 'दाहिना हाथ दें तो बाएं को भी न पता चले, सेवा मदद ऐसी होती है बेटा।'  माँ की दी हुई इसी सीख पर ईमानदारी से चलना चाहता था वह |
    लोग एनजीओ से नाम, शोहरत और पैसा कमा रहे थे और वह, वह तो अपना पुश्तैनी घर तक बेचकर किराये के मकान में रहने लगा था।
पत्नी परेशान थी उसकी मातृभक्ति से | कभी-कभी वह खीझ कर बोल ही देती थी कि 'यदि मैं शिक्षिका न बनती तो खाने के भी लाले पड़ जाते' चेतन झुंझला कर रह जाता था। उसी बीच उसने गरीब बच्चों को खाना खिलाते, उन्हें पढ़ाते हुए तस्वीरे पोस्ट कर दी थी।
      यादों से बाहर आ उसने पलटकर फेसबुक पे वही अल्बम खोल लिया। तस्वीरों को देखकर बुदबुदाया- "सोशल साइट्स न होती, तो क्या होता मेरा। यही तस्वीरें तो थी, जिन्हें देखकर दानदाता आगे आये थे और पत्रकार बंधुओ ने अपने समाचार पत्र में जगह दी थी। फिर तो मैं दूसरों को मदद करते हुए  सेल्फ़ी लेता और डाल देता था फ़ेसबुक पर, ये कारनामा फेसबुक पर शेयर होता रहा और मैं प्रसिद्धी प्राप्त करता रहा। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा ।"
      "अरे! कहाँ खोये हो जी ! कई लोग आएँ हैं।  " पत्नी की आवाज ने उसे आत्मग्लानि से उबारा।
"कहीं नहीं! बुलाओ उन्हें।"
"जी चेतन बाबू, यह चार लाख रूपये हैं। हमें दान की रसीदें दे दीजिए, जिससे हम सब टैक्स बचा सकें।" कुर्सी पर टिकते ही बिना किसी भूमिका के सब ने एक स्वर में बोला |
हाँ, हाँ ! क्यों नहीं, अभी देता हूँ।" रसीद उन सबके हाथ में थमाकर वह  मुस्कराया । अचानक माँ की तस्वीर की ओर देखा आँखे झुकी फिर लपकर उसने  तस्वीर को पलट दिया | ००
वर्तमान पता :
w/o देवेन्द्र नाथ मिश्रा (पुलिस निरीक्षक )
फ़्लैट नंबर -302 ,हिल हॉउस
खंदारी अपार्टमेंट , खंदारी
आगरा -282002 उत्तर प्रदेश
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 लघुकथा - 52
                    दो टके की नौकरी
                                   -  रतन चंद 'रत्नेश'  
    बाबू हरकिशन लाल झंडे-बैनरों से सजी-धजी अपनी कार से उतरे। वे अभी-अभी चुनाव-प्रचार से लौटे हैं।   अंततः बड़ी मेहनत मशक्कत के बाद वे इस बार पार्टी का टिकट हासिल करने में कामयाब हो पाए हैं।
अपने आलीशान बंगले में प्रवेश करते ही वे चिल्लाए ---
‘‘कहाँ है रामकिशन? जल्दी से भेजो उसे मेरे पास।’’
ढूँढकर उनके युवा बेटे को हाजिर किया गया।
‘‘कहाँ रहते हैं जनाब, दिखते ही नहीं इन दिनों ?’’ उन्होंने बेटे से पूछा।
‘‘पिताजी, फाइनल की परीक्षा सर पर है, उसी में जुटा हूँ। साथ ही इस बार आई.ए.एस. में बैठने की तैयारी में भी हूँ।’’
बेटे की बात सुनकार बाबू हरकिशन लाल भन्नाए---
    ‘‘लो सुनो इसकी बात। चुनाव सामने है और इसे पढ़ाई की पड़ी है। ये नहीं कि बाप का हाथ बँटाए। घर में घुसा किताबें चाट रहा है कमबख्त। कोई समझाए इसे।......... अरे भई मेरे चुनाव-प्रचार में जोर-शोर से जुट जा। मैं जीत गया तो तुझे दो टके की नौकरी के लिए इस तरह किताबों में मगज खपाने की जरूरत नहीं पड़ेगी...... समझे।’’ ००
     पता :  म. नं. 1859, सेक्टर  7-सी ,
               चंडीगढ़ - 160019
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लघुकथा - 53
                             जवाब
      ‌                                - किशनलाल शर्मा
     
"तुम रोज मेरे पास क्यो आते हो?
"तुम तन से ही नही,मन से भी सुन्दर हो।जिस दिन से तुम्हारे पास  आया हूँ,कहीँऔर जाने का मन ही नही करता"
"सच कह रहे हो?
"झूँठ क्यो बोलूँगा।"
"शादी हो ग ई तुम्हारी?
"नही"वह बोला"अचानक शादी की बात क्यूँ?
"मतलब तुम्हे मेरे पास आने से रोकने वाला कोई नही है"वह बोली"शादी करने का इरादा नही है?
"क्यूँ नही जरूर करूँगा।अगर तुम्हारी जैसी अच्छी लडकी मिली तो"
"मेरी जैसी क्यूँ?मुझसे ही कर लो शादी।"
"तुमसे?उसकी बात सुनकर वह चौका फिर धीरे से बोला"तुमसे शादी कैसे कर सकता हूँ?
"मै सुन्दर हूँ।तुम्हे अच्छी लगती हूँ।इसलिए मेरा जिस्म भोग सकते हो.तो फिर मुझसे शादी क्यो नही कर सकते?उसकी बात का आशय समझते हुये वह बोली"मर्द एक औरत को वेश्या बना सकता है,तो एक वेश्या को पत्नी क्यो नही?
उसने उसके प्रश्न का कोई उत्तर नही दिया था.लेकिन उसे जवाब मिल गया था।उस दिन के बाद वह उसके पास आया जो नही था । ००
    पता : 103 रामस्वरूप कालोनी , शाहगंज,
             आगरा - 2828010 उत्तर प्रदेश
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लघुकथा - 54
                    लेखनी की आत्महत्या
                                  - विभा रानी श्रीवास्तव
         बिहार दिवस का उल्लास चहुँ ओर बिखरा पड़ा नजर आ रहा... मैं किसी कार्य से गाँधी मैदान से गुजरते हुए कहीं जा रही थी कि मेरी दृष्टि तरुण वर्मा पर पड़ी जो एक राजनीतिक दल की सभा में भाषण सा दे रहा था। पार्टी का पट्टा भी गले में डाल रखा... तरुण वर्मा को देखकर मैं चौंक उठी... और सोचने लगी यह तो उच्चकोटी का साहित्यकार बनने का सपने सजाता... लेखनी से समाज का दिशा दशा बदल देने का डंका पीटने वाला आज और लगभग हाल के दिनों में ज्यादा राजनीतिक दल की सभा में...
    स्तब्ध-आश्चर्य में डूबी मैंने यह निर्णय लिया कि इससे इस परिवर्त्तन के विषय में जानना चाहिए... मुझे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी... मुझे देखकर वह स्वत: ही मेरी ओर बढ़ आया।
     औपचारिक दुआ-सलाम के बाद मैंने पूछ लिया , "तुम तो साहित्य-सेवी हो फिर यह यह राजनीति?"
     उसने हँसते हुए कहा, "दीदी माँ! बिना राजनीति में पैठ रखे मेरी पुस्तक को पुरस्कार और मुझे सम्मान कैसे मिलेगा ?"
  मैंने पूछा "तो तुम पुरस्कार हेतु ये सब...?
 बन्धु! राजनीति में जरूरत और ख्वाहिश पासिंग बॉल है...
   पढ़ा लिखा इंसान राजनीति करें तो देश के हालात के स्वरूप में बदलाव निश्चित है...
     दवा बनाने वाला इलाज़ करने वाला नहीं होता... कानून बनाने वाला वकालत नहीं करता...
     तो साहित्य और राजनीति दो अलग अलग क्षेत्र हैं तो उनके दायित्व और अधिकार भी अलग अलग है..."
   मेरी बातों को अधूरी छोड़कर वह पुनः राजनीतिज्ञों की भीड़ में खो गया... साँझ में डूबता रवि ना जाने कहीं उदय हो रहा होगा भी या नहीं...
      अगर स्वार्थ हित साधने हेतु साहित्यकार राजनीतिक बनेगा तो समाज देश का दिशा दशा क्या बदल पायेगा... मैं अपनी मंजिल की ओर बढ़ती चिंतनमग्न थी... ००
       पता : 104/मंत्र भारती अपार्टमेंट ,
                 रुकनपुरा बेली रोड ,
               पटना 800014 बिहार
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लघुकथा - 55
                              फ्रॉक
                                             - उर्मि कृष्ण
   “चित्रकूट जा रहे हो भाई!”
     “हाँ।”
      “वहीं ठहरोगे। उस चायवाली की दुकान के सामने?”
      “हाँ, शायद वहीं।”
      “हाँ, तो सुनो भैया, उस चायवाली मुनिया के लिए एक फ्रॉक देती हूँ। लेते जाना।”
      “भाभी, अब तो वह बड़ी हो गई होगी।”
      “हाँ, बड़ी तो हो ही गई होगी। मैं बड़े नाप का फ्रॉक देती हूँ। तब उसे दे नहीं पाई थी। बेचारी माँगती रह गई।”
      दस दिन बाद आए शेष ने फ्रॉक भाभी के सामने रख दिया।
    “क्यों दिया नहीं? या गए ही नहीं?”
    “गया भी था और फ्रॉक मुनिया के सामने रखा भी था।”
   “फिर?”
   “अब वह फ्रॉक नहीं धोती पहनती है। बड़ी हो गई है, बारह साल की।”
   “ओफ हो!” मेरे मुँह से उसाँस निकली। छह साल की मुनिया पूरा घर संभालती थी।
बारह साल की तो पूरी जिम्मेदार महिला बन गई होगी! इनके लिए बचपन कहाँ होता है?”
   तभी चौदह साल की बिटिया ने गले में झूलते हुए कहा, “मम्मी, वह फ्रॉक लेने चलो न जो कल शोकेस में देखा था।” ००
       पता : कृष्णदीप , ए-47 , शास्त्री कालोनी ,
                अम्बाला छावनी - 133001 हरियाणा
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लघुकथा - 56
                            गुलफ़ाम
                                              - अशोक वर्मा
          भवानी मंदिर के अहाते में पहुंचकर गुलफ़ाम ने बगल से बैसाखी निकाली और पेड़ के सहारे पीठ टिकाकर बैठ गया। ढपली को कंधे से उतारा और दोनों हाथ मंदिर की तरफ़ उठाते हुए आलाप लेना शुरू कर दिया।
      कुदरत ने गुलफाम के गले को ऐसा जादू बख्शा था कि उसका भजनसुनकर मंदिर में आने वाले स्त्री पुरुष कुछ देर के लिए उसके नज़दीक आकर भजन का आनंद लेने रुक जाते थे और देखते ही देखते सिक्को का ढेर उसकी चटाई पर लग जाता था। यूँ तो वह मज़दूरी किया करता था, लेकिन एक दुर्घटना में उसका पांव क्या टूटा कि चलने के लिए बैसाखी और पेट भरने के लिए उसे अपनी गायकी का सहारा लेना पड़ा।
        अभी गुलफ़ाम ने आलाप शुरू ही किया था कि भिखारियों की पंक्ति में से एक टुंडा भिखारी उसकी तरफ़ आते हुए बोला,,,,,
   ओए, उठा अपनी ढपली,,,,चल फ़ूट यहां से।
   क्यों, तुझे क्या तकलीफ़ है। गुलफ़ाम ने कहा।
   अबे सांझ तक नोट इकठ्ठे करके ले जाता है। हमारे पेट पे लात मारता है। कह रहाहै क्या तकलीफ है। टुंडा अकड़ रहा था।
  मैं कोई उनसे मांगने जाता हूँ क्या। लोग अपनी खुशी से देते हैं।
अबे, वहां मज़ार पे गा ले सड़क के पल्ली तरफ।। मंदिर पे भी कब्ज़ा कर लिया हरामी। तेरे बाप का है।
    हाँ, मेरे बाप का है। मेरे बाप ने अपना खून पसीना बहाया था। बरसों चिनाई करी थीमंदिरंदर में।।   गुलफ़ाम को भी थोड़ा गुस्सा
आ गया था।
     अबे,बाप ने चिनाई करी थी तो तू ठेकेदार लगा है क्या।। टुंडा गुलफ़ाम के और नज़दीक आ गया था।
     हाँ, मैंने भी ईंट गारा ढोया है यहां। जान झोंकी है अपनी। मंदिर तो सबका है। क्यूँ जाऊ  मैं यहां से। मैं कहीं नहीं जाऊंगा।। कहीं नहीं जाऊंगा मैं। गुलफ़ाम एक सांस में कहता चला गया।
          अबे जाएगा कैसे नही लंगड़े। दूसरी भी तोड़ दूंगा। ये ले।।   कहते हुए टुंडे ने गुलफ़ाम की बैसाखी में लात मार दी।
    ये बात ठीक नही है।।  गुलफ़ाम चीख़ उठा।
            तभी टुंडे ने देखा कि एक सेठ और उसकी पत्नी भिखारियों को कम्बल और पैसे बांट रहे है। वह बेशर्मो की तरह  खी खी करके हंसता हुआ भिखारियों की लाइन में जा मिला।
       जाहिल कहीं का।। कहकर  गुलफ़ाम ने गर्दन झटकते हुए  नज़दीक रखी बोतल  के पानी से गला तर किया और संयत होते हुए ढपली सम्हाल ली।
          भवानी मंदिर की फ़िज़ा गुलफ़ाम के मधुर आलाप से खिलखिला उठी थी । ००
          पता : 110, लाजवन्ती गार्डन
                  दिल्ली - 110046
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लघुकथा - 57
                            चुगलखोर
                                  - डॉ सरस्वती माथुर
"इस बार बिजली का बिल बहुत ज्यादा आया है पद्मा।"
"हाँ,तो आयेगा ही ,तुम्हारे माँ बाबूजी सारे दिन कूलर में पड़े रहते हैं ।एक मिनट को बंद नहीं करते ।"
"गरमी भी कितनी पड रही है ना?"
"तो फिर बिल तो आयेगा ही।"
"हाँ ,समझा दूँगा कि कमरा ठंडा हो जाये तो बीच -बीच में बंद कर दें ।"
"चलो चिंता मत करो पद्मा ,रात ज्यादा हो गयी है ,अब सो जाओ।"
"गरमी बड़ी है ,जरा ए.सी.तो ऑन कर दो।"
पापा,मम्मी सारे दिन ए.सी.चलाये रहती है।एक पल को भी बंद नहीं करती।"
चादर से मुँह निकाल कर दस वर्षीय बबलू बोला तो पद्मा उसे एक धप्प लगा कर इतना ही कह पायी-"चुप कर चुगलखोर!" ००
    पता : ए - 2, सिविल लाइंस ,
             जयपुर - 302006, राजस्थान
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लघुकथा -  58
                        हॉकर
                                         -डॉ नीरज सुधांशु
रोज़ की तरह आज भी वह सुबह चार बजे उठ गया, उसे अख़बार बाँटने जो जाना था।
“उठ मुन्ना की माँ, इसकी दवा का भी टैम हो गया है। डॉक्टर ने हर चार घंट में पिलाने को कहा था न।” रशीद ने आँखें मलते हुए सायरा को भी उठाया।
“हाँआँआँ… मैं तो सोयी ही काँ थी। बस, अभी जरा देर के लिए झपकी लग गी थी।” आँखें मलती हुई उठ बैठी सायरा।
“देखियो, सरीर तो ठंडा बरफ़-सा है, बुखार उतर गया सा लगे है। पर कुछ हरकत क्यों ना दिख री?” उसने हड़बड़ाकर मुन्ना को टटोला और अनहोनी की आशंका से घबरा गई।
बड़ा बल्ब जलाकर रशीद ने बच्चे को ध्यान से देखा तो सन्न रह गया और फिर पत्नी की ओर देखकर सुबक पड़ा, “मुन्ना… तो ग…या सायरा।”
“ऐऐ…ऐ…से कैसे, तनक ठीक से देख्खो, मुन्ना के अ…अ…अब्बू।” उसने रशीद को लगभग झिंझोड़ते हुए कहा। और फिर बदहवास-सी मुन्ने को छाती से चिपटाकर रोने लगी।
रशीद ने अपने आप को संभाला व सायरा के मुँह पर हाथ रखकर नम आँखों से न रोने का इशारा किया।
“कैसे संभालूँ मैं अपने को? इत्ता सखत दिल ना है मेरा।” उसने मुँह से रशीद का हाथ हटाते हुए कहा और बुक्का मारकर रोने को हुई कि फिर रशीद ने उसे रोका, “जानूं हूँ, इतना भी असान ना है। देख, मैं भी बाप हूँ इसका, इन बाकी तीन बालकों के बारे में भी सोच। खुदा के लिए मेरी बात मान ले। बस, थोड़ी देर काबू रख ले खुद पै, बस मैं फटाफट अखबार बाँट आऊँ तब…। एक भी नागे का मतलब जाने है य तू?” ००
पता : सरल कुटीर , आर्य नगर, नई बस्ती,
         बिजनौर - 246701 उत्तर प्रदेश
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लघुकथा - 59
                            रमाबाई
                                          - नेहा शर्मा
रमाबाई की कॉलोनी में कदम रखते ही सभी के मुंह पर एक ही सवाल था -क्यों रमाबाई कल कैसे नहीं आई? चूकी  रमाबाई कॉलोनी में सफाई कर्मचारी थी और बरसों से वही काम करती थी। इसीलिए रमाबाई ने सभी के दिलों में अच्छी ख़ासी जगह बना ली थी ।रमाबाई ने सभी के सवालों का जवाब देते हुए कहा कि - कल हमारी तबीयत थोड़ी ठीक नहीं थी ।इसी कारण नहीं आ पाए। ऐसा कहकर रमाबाई अपने काम में जुट गई ।रमाबाई के एक दिन नहीं आने पर कॉलोनी में कचरे का ढेर हो गया था। हर तरफ कूड़ा - कर्कट फैला हुआ था। ऐसा लग रहा था कि - कॉलोनी के सभी लोग अपंगों की भांति रमाबाई पर निर्भर हो। रमाबाई की उम्र सत्तर साल के ऊपर हो चुकी है ।लेकिन रमाबाई में अपने देश को साफ रखने का जज्बा अभी भी कायम है ।रमाबाई ने धीरे-धीरे अपने कांपते हुए हाथों से कॉलोनी की सड़कों को चांदी की तरह चमका दिया। इतनी ही देर में मिश्राइन ने रमाबाई को आवाज़ लगाई --  रमाबाई तेरा काम खत्म हो गया है तो जरा इधर भी आ।रमाबाई धीरे-धीरे चलकर मिश्रा इन के पास पहुंची। मिश्राइन ने रमाबाई को कहा कि -- रमाबाई तेरी तबीयत इतनी खराब थी तो तू आज भी क्यों आई। रमाबाई हल्की सी मुस्कुराई। जैसे कह रही हो कि एक दिन नहीं आए तो तुम लोगों ने कॉलोनी का यह हाल कर दिया है । जैसे तुम्हारी इस कॉलोनी व देश के प्रति कुछ जिम्मेदारी ही न हो ।तुम सभी को तो कूड़ा फैलाने से मतलब है। मिश्राइन ने रमाबाई को चाय पिलाई। रमाबाई चाय पी कर चुपचाप वहां से चली गई ।दूसरे दिन सुबह के दस बज गए थे ।लेकिन रमाबाई अभी तक नहीं आई थी। कॉलोनी में फिर से वही गंदगी बिखरी पड़ी हुई थी। सभी लोग शान से सड़क पर कचरा फैलाते हुए चल रहे थे। इतनी ही देर में सोहन ने मिश्राइन  को आकर बताया कि -- कल रात को रमाबाई की मौत हो गई है ।धीरे-धीरे यह ख़बर पूरी कॉलोनी में आग की तरह फैल गई।यह हृदय विदारक समाचार सुनकर पूरी कॉलोनी में सन्नाटा छा गया।सभी लोग 'क्या हुआ' , ' कैसे हुआ' , 'कल ही तो आई थी झाड़ू निकालने'।जैसी अनेक बाते कर रहे थे। इतनी देर में रमाबाई की बेटी पिंकी झाड़ू हाथ में लेकर आती दिखाई दी ।सभी लोग आश्चर्य भरी नज़रों से पिंकी की ओर देख रहे थे ।सभी लोग पिंकी के पास गए और उन लोगों के कुछ पूछने से पहले ही पिंकी बोल  पड़ी कि -- आप सभी लोग मुझे यहां देखकर हैरान मत होइए ।मैं यहां अपनी मां की अंतिम इच्छा पूरी करने आई हूं। माँ ने अपनी  पूरी जिंदगी हर जगह सफाई करते हुए बिताई।उन्होंने अपने इस काम को जातिगत नौकरी के रूप में कभी नहीं लिया ।बल्कि इसे अपने देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी मानती थी। जिसे उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बखुबी  निभाया ।और मरते वक्त मां ने ये  जिम्मेदारी मुझे सौंप गयी। लोग रमाबाई के जज्बे को सलाम कर रहे थे और अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेने के लिए शर्मिंदगी महसूस कर रही थे ।पिंकी की आंखों में आंसू थे ।लेकिन माँ रमाबाई की अंतिम इच्छा पूरी करने को पूरी निष्ठा व साहस के  साथ तत्पर थी। ००
पता : बीजवाड़ चौहान ,अलवर  ,
        (राजस्थान) - 301401
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लघुकथा - 60
                           निरुत्तर
                                        - संदीप ' सरस '
'भैया जी दस रुपये दे दो। सुबह से भूखा हूं।'
मैंने सरसरी निगाह से उसे ऊपर से नीचे तक देखा। दस बारह साल का एक मासूम सा लड़का मेरे सामने खड़ा था। जिज्ञासावश  पूछ लिया 'क्यों पैसे दे दूं, घर में खाना नहीं मिलता क्या? कहीं घर से भागा तो नहीं।"'
वो बड़े कातर भाव से बोला 'भैया भागा तो नहीं बस एक-दो दिन में भागने वाला हूं।'
मेरा ध्यान उसकी तरफ और केंद्रित हुआ 'क्यों भागना चाहता है।'
वो बोला 'भैया!मां लखनऊ में झाड़ू पोछा करती हैं, बाप मर चुका है।मुझे यहां मामा के घर रखा है पढ़ने के लिए।लेकिन मामी बहुत मारती भैया। बेल्ट से मारती है, पतली रबड़ से मारती है।जो हाथ में आ जाता है, उसी से मारती है। पेट भर खाने को भी नहीं देती।दिन रात नौकरों की तरह काम कराती है।मामा भी कुछ नही कहते,उनसे डरते हैं।'
'तो अपनी मां के पास क्यों नहीं चला जाता'मैंने पूंछा।भैया वहाँ उसने दूसरी शादी कर ली तब से पलट के कभी फोन भी नहीं किया।
'अच्छा चलो यह पैसे रखो कुछ खा लेना।और ये बता कहाँ रहता है। कल मैं पुलिस को लेकर आऊंगा वो तेरी मामी को पकड़कर जेल में बंद कर देगी।फिर तुझे कोई तंग नहीं करेगा।'
वो परेशान हो उठा 'नहीं भैया! ऐसा मत करना मेरी तीन बहनें हैं,उनकी जिंदगी खराब हो जाएगी।'
मैं रोष भरे स्वर में बोला 'अरे इतनी देर में तूने यह नहीं बताया कि तेरी तीन बहनें भी हैं।'
'नहीं भैया मेरी कोई सगी बहन नहीं है।मेरी मामी की तीन बेटियां हैं न!उनकी पढ़ाई खराब हो जाएगी,वह बहुत अच्छी हैं।"
उफ!ये क्या कह दिया इस ।दस बरस के लड़के ने।मैं तो बस उसे देखता ही रह गया।आंखों की कोर गीली हो गई। भरे गले से सिर्फ इतना ही कहा 'बेटा खूब मन लगाकर पढ़ो,भागने की कभी मत सोचना।कभी कोई जरूरत हो तो मेरे पास चले आना।'
वो चला तो गया लेकिन जाकर भी मेरे दिल से नहीं जा सका। ००
पता-शंकरगंज,बिसवां(सीतापुर)उ प्र-(261201)
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लघुकथा - 61
                            परदा
                                            - आनन्द रोहिला
छह महिनों से संस्कारों की ओट लेकर बैठी जुबां से आज वास्तविक अल्फाज़ छलक पड़े और बरसों से पूत का सहारा लेकर जिंदगी निर्वाह करने वाली अम्मा का नया बिस्तरा लगा दिया गया ।
" इतने दिनों से देख रही हूँ ,बस पड़ी-पड़ी बातें बनाती रहती है । मुझसे तुम्हारे ये फालतू के काम नहीं होते , अपना बना और खा ।"
अम्मा के हिस्से के दो बर्तन उठा कर फैंक दिए । क्षण भर के लिए सन्न रह गई कि शालीनता का पल्लू सिर से ना उतारने वाली बहू के अधरों से ये अल्फाज़ कैसे उतर गए । बेटा नौकरी के सिलसिले में महिने-भर घर नहीं आता था । इसकी अनुपस्थिति के घावों पर मरहम लगाने वाली बहू ने स्वयं इन्हें खरोंच दिया । दमा के आगोश में बंधी अम्मा एक फूंक चूल्हे में फूंकती तो कई बार खाँसती , इधर बहू के चेहरे की मुस्कान किसी रणविजयी से कम न थी । बहू का मन किया कि क्यों न नवेली भाभी से मिल कर आँऊ ?
रातभर बैग तैयार करके , सुबह मायके के लिए निकल गई । बेचारी अम्मा लज्जा का घूंट कंठ से उतारती रहती । महिने पहले दुल्हन बनी भाभी से मिलने की उत्सुकता साफ झलक रही थी । काफी देर भाभी के साथ ठहाके लगे । अचानक पूछ बैठी , " माँ कहाँ है भाभी ?" भाभी के ठहाके गायब हो चूके थे और कहने के लिए कुछ न था । बाहर आई तो देखा , कमरे की दूसरी तरफ शिखर दोपहर में माँ चूल्हे पर रोटियाँ पका रही थी । चेहरे की मायूसी और आँखों की गहराई सब कुछ बयां कर देती है और शायद इसी दर्द को ढंकने  के लिए  माँ की आँखों में आँसू छलक आए थे । ००

     पता : गांव व डाकघर - अमीन ,
             जिला - कुरूक्षेत्र , हरियाणा
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     लघुकथा - 62
                        माँ के चरण
                                     - रोहित शर्मा
माँ की चिता को अग्नि देने के बाद दोनों भाई पैरों के सामने आकर खड़े हो गये। उनकी नज़र सिर्फ और सिर्फ माँ के चरणों पर थी । हवा का रुख भी उसकी ओर होने से आँखों से झर झर आंसूं गिर रहे थे। वहाँ सभी व्यक्ति दोनों के माँ  से  लगाव और श्मशान के लिए बने विषय 'सारहीन संसार' पर चर्चा कर रहे थे ।
सब जाने लगे लेकिन वे दोनों भाई जाने को तैयार नहीं थे। वे वहीं बैठकर बस चिता के  ठंडी होने का इंतज़ार कर रहे थे।
माँ ने पैरों में जो चांदी की मोटी मोटी कड़ियाँ पहनी थी वे गरम होकर अब भी चमकती नज़र आ रही थी। दोनों ने एक बार माँ के जीते जी कड़ियाँ उतरवाने का प्रयास किया था लेकिन माँ कड़िया उतरते देख रो पड़ी थी इसलिए रुक गये थे। मगर अब आश्वस्त थे। दोनों ने मन ही मन चरणों का बँटवारा कर लिया था। ००
पता : 195/24, प्रताप नगर , सांगानेर,
         जयपुर - 30203 राजस्थान
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लघुकथा  - 63
                               भूख
                                                -  अर्चना राय
"लो बेटा लड्डू"
" तुम भी लो"- मंदिर के बाहर  भूख से रोते बच्चों को देखकर कविता ने कहा।
और लड्डू निकालकर बांटने लगी।
"अरे बहु कितनी बार कहा है, कि मंदिर आकर सबसे पहला भोग भगवान को लगाना चाहिए ।"
"बाद में दूसरों को ".....
पर तू है कि.............
यह आज की आधुनिक पीढ़ी, न रीति रिवाज से मतलब है न धर्म से, बात मानना तो इनको आता ही नहीं है ।
बड़बडाते हुए शारदा मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने लगी ।
"मां जी आपका अपमान करना मेरी मंशा नहीं है"पीछे आती कविता ने कहा।
भगवान तो सिर्फ श्रद्धा और भाव के भूखे हैं।
और वह आपके और मेरे पास बहुत है।
" और रहा सवाल भोग का तो ये  पाषाण प्रतिमा तो केवल भगवान का प्रतीक है"और
इनके लिए भोग लगाने हजारों लोग  मंदिर में लाइन लगाकर खड़े हैं। पर मंदिर के बाहर जो भूखे-प्यासे दीन ,दुखी लोग बैठे हैं। जिनके अंदर  भगवान का वास है।"
"जिन्हें सचमुच खाने की जरूरत है। उनके  बारे मे कितने लोग सोचते हैं "
वास्तव में भगवान प्राणी सेवा से प्रसन्न होते हैं, न कि भौतिक आडंबर से"
"मां जी दूसरे की सेवा ही सच्चा धर्म है"
और इसी से पुण्य और सुख  दोनों मिलते है। कहती हुई कविता मंदिर में भगवान के दर्शन करने लगी।
और शारदा अपनी आधुनिक बहू के विचार जानकर भाव विहल हो उठी। ००
    पता - दिलीप राय आदर्श होटल ,
              पंचवटी भेड़ाघाट जबलपुर ,
               मध्य प्रदेश  -483053
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लघुकथा -‌64
                          सालगिरह
                                                  - प्रभास शर्मा
      हर वक्त हड़बड़ी करता है..... बुदबुदाते हुए स्मिता ने दरवाजा बंद किया । ऑफिस जाते समय , जल्दी में देवेश ने मोबाइल छोड़ दिया था , जिसे अभी - अभी स्मिता ग्राउंड फ्लोर तक दौड़ कर देवेश के हाथों में दे आयी थी ।
     बच्चों को टिफिन देकर भेजा और घर के सारे काम निबटाकर , पूजा कर उठी ही थी कि डोरबेल बजा।
    इतनी जल्दी ! ! .... , दरवाजा खोला तो सामने देवेश मुस्कुरा रहा था।स्मिता को आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई , जब देवेश ने मूवी के टिकट दिखाते हुए जल्दी तैयार को कहा ।
     स्मिता थकान महसूस कर रही थी , फिर भी थोड़ी नानुकुर के बाद दोनों घर से निकल गये । रास्ते में देवेश ने बच्चों को बताया कि घर की चाबी कहाँ रखी है ।
     फिल्म शुरू हो चुकी थी , दोनों उसमें खो गये । कोई दस मिनट बीते होंगें, देवेश स्मिता के तरफ हंसते हुए मुड़ा ..पर अरे ये क्या ? स्मिता तो बेसुध सो रही है । देवेश को बहुत खीझ हुई,पर खुद को सम्भाला और सोचा , चलो इसे दो घंटे सोने ही देते हैं । घर में आराम का समय कहाँ मिलता है, हर वक्त काम , काम और काम । देवेश के दृष्टिपटल पर , स्मिता की दिनचर्या चलचित्र के भांति चलने लगे। देवेश सुकून अनुभव कर रहा था और काफी देर तक स्मिता को सोता निहारता रहा ।
      शो खत्म हो चुका था , देवेश ने उसे जगाया। दोनों पूर्णतः खामोश थे ।हाँ , स्मिता के चेहरपर अपराध बोध स्पष्ट झलक रहा था । भारी मन लिये दोनों घर पहुंचे ।
       रात के ग्यारह बज रहे थे, सब सो चुके थे , स्मिता भी सोने ही जा रही थी कि सोचा मोबाइल चेक कर लूँ ..मेसेज पढ़ते ही उसके चेहरे पर अनेकों प्रकार के भाव आने लगे . एक मेसेज देवेश का था " शादी की बीसवीं सालगिरह की बधाइयाँ " जो उसने फिल्म देखने के दौरान ही भेजा था ।
         उसने देवेश की ओर विस्मय से देखा , वह निश्चिंत सो रहा था. स्मिता के स्मृतिपटल पर देवेश की व्यस्त जीवन शैली कौंध रही थी। इस बार निष्चेत देवेश को निहारने की बारी स्मिता की थी ।
          कौन कहता है पुरुषों को यह सब याद नहीं रहता यह सब सोचते हुए वह कब सो गई पता ही नहीं चला । ००
        पता : SICPA India Private Limited
                Mamring - namthang Road,
                (near Rangpo), Mamring
               South Sikkim,
                Sikkim-737132
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   लघुकथा - 65
                             दो बूँदें
                            
                               - डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज
       नौकरानी किचेन में खाना बना रही थी | आज छुट्टी के दिन माँ अपने साल भर के बेटे को भरपूर प्यार देना चाहती थी | कभी गाय का दूध पिलाती, कभी रंग-बिरंगे खिलौने देती, पर बेटा कि चुप होने का नाम नहीं लेता | इधर एक मिनट के लिए बाथरूम गई माँ | लौटी तो वहाँ रूप को नहीं पाया | न ही उसकी कोई आवाज |
        “राधा ! राधा ! किट्टू कहाँ है ?” घबराती इधर-उधर दौड़ पड़ी माँ |
    “झूला झूल रहे हैं दीदी |” नौकरानी ने बेफिक्री से कहा | और, माँ ने देखा – किट्टू राधा की गर्दन में हाथ लपेटे उसकी पीठ पर लेता है और राधा आता गूँधती हुई अपनी पीठ झूला रही है | टप- टप दो बूँदें ढुलक पड़ीं माँ की |
          पता : शेखपुरा, खजूरी, नौबतपुर,
                     पटना - बिहार
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लघुकथा - 66
                              एक मई
                                       - रामनिवास बाँयला
       शामियानों से सजे चौराहों पर आज सुबह,  मतलब 11 बजे के आसपास कुछ सफ़ेदपोश लोग, चंद बुद्धुजीवियों के साथ उन लोगों को उपहार दे रहे हैं, गले लग रहे हैं, सेल्फ़ी खिंचवा रहे हैं जिन्हें हर दिन उनकी उम्र व शारीरिक बलिष्ठता के  नाप  पर एक दिन के लिए ख़रीद कर ले जाया जाता है।
      उसके बाद  सभी थके शरीर शामियानों में बैठ कर  उन्हीं आयोजकों के भाषणों संग नाश्ता करके अपने को गौरवान्वित समझ रहे हैं जिन्होंने उन्हें उनकी कमजोर देह के चलते आज नहीं ख़रीदा जबकि बलिष्ठ शरीर तो आज भी ख़रीदे गए चाहे  एक मई  ही क्यों न हो । ००
     
पता : केंद्रिय विद्यालय , ईटाराणा ,
          अलवर ,राजस्थान
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लघुकथा - 67
                             मुखाग्नि
                                   - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
       आज सुबह उस चाय की गुमटी पर गरमा गरम चाय पीते-पीते कुछ मुखों से शब्दों के अग्नि-बाण से निकल रहे थे।
    -"अरे सुना तुमने, मज़हब की बंदिशें तोड़ ग़रीब दोस्त संतोष को मुस्लिम युवक रज़्ज़ाक ने कल मुखाग्नि दी !"
   यह सुनकर एक  पंडित जी बड़बड़ाने  लगे- "सारा अंतिम संस्कार अपवित्र हो गया, पता नहीं आत्मा को कैसे शान्ति मिलेगी ?"
    इस पर एक शिक्षित युवक बोला- "अरे ये सब वो धर्मान्तरित मुसलमान हैं जो आज भी अपने मूल धार्मिक कर्मकांड गर्व से करते हैं।"
    तभी एक दाढ़ी वाले ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुये धीरे से कहा-" सही कहते हैं हमारे चच्चाजान, इस्लाम संकट में है !"
   एक छिछौरे ने चुटकी लेते हुए कहा- " अरे, मुझे तो लगता है उसकी पत्नी से पहले से कोई यारी रही होगी !"
        इन बातों को सुनकर चाय वाला बोला-"छोड़ो भैया, रात गई, बात गई, आप तो चाय पियो। मेन बात तो समझ नईं रये, मूंह चलाये जा रये !" ००
            पता :  379/28,
                    फिज़ीकल पुलिस थाने के     सामने, 
                    मदीना मस्जिद गली में,
                   इन्दिरा कॉलोनी,
                   फिज़ीकल कॉलेज रोड,
                   शिवपुरी (मध्यप्रदेश) 473551
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लघुकथा - 68
                                  फूली
                                                  - भगीरथ
   पौ फट रही थी।
   फूली माँचे से उठी और दालान में आकर गाय, भैंस का गोबर करने लगी। गोबर करने के बाद बाँटा चूल्हे पर चढ़ाना था। दूध दोहना था। दिन उगते तो मक्खियाँ तंग करने लगती हैं।
    फूली का आदमी भानियाँ पूरा भगत है। सुबह पैली उठकर वीर बावजी का धूप करता, आरती उतारता। अक्सर आरती उतारते-उतारते उसे वीर बावजी का भाव आने लगता। पूरा शरीर काँपने लगता, धूजता और बड़बड़ाता।
     उस दिन भी भानियाँ के शरीर में वीर बावजी आए तो फूली दालान से ही चिल्लायी, “सुबह पैली काम के टैम काई भांड्यो है। हें वीरजी! मैं थारा हाथ जोड़ूँ, क्यूँ म्हारे पीछे लागों हों!”
    भानिया का भाव और तेजी पकड़ने लगा। शरीर बुरी तरह काँपने लगा। गरदन तो ऐसे घूम रही थी, जैसे कील पर रखी हो।
     वह देखते-देखते दुखी हो गई थी, यह सब। भाव उतरने के बाद उसका शरीर दुखता और वह खेत में खाट पर पड़ा रहता था। फूली से कहता, “जरा दबा दे। आज तो वीरजी ऐसे पड़ में आए कि हाड-हाड दुख रहा है।”
     घर में खटे तो फूली, और खेत में जुते तो फूली। कई बार फूली आँसुओं सनी आँखें लेकर वीरजी के मन्दिर में गई। खूब हाथ जोड़े, पाँव पड़ी, मगर भानियाँ में कोई फर्क नहीं पड़ा।
     फूली ने गाय की टाँगों में बंधी रस्सी खोली, दूध की चरी वहीं पटक, औले में गयी और भानियाँ से बोली, “थारा हाथ जोड़ूँ, वीरजी थे उठाऊँ पधारो।” प्रार्थना बेअसर होती देख फूली गुस्से में आई। नारियल फोड़ा, चूल्हे से सुलगता कंडा लाई। उस पर धूप और नारियल डाला, धुआँ उठते-उठते आग भभक उठी।
     “जायगा कि नहीं जायगा!” कहती हुई वह आग को भानियाँ के मुँह तक ले गयी।
आँच लगते ही उसकी मूँछों के बाल जल गए। मूँछ जलते देख भानियाँ होश में आया और एकदम पीछे हटा, मगर फूली तो आग और आगे कर रही थी।
   भानियाँभानियाँ बोला, क्या कर रही है तू. मैं कोई भूत-प्रेत हूँ जो तू ऐसे भगा रही है। मैं तो देव हूँ देव!”
     फूली बोली, “दीखता नहीं है! सुबह पैली काम तेरा वीरजी करेगा, बता? आज तो वीरजी को भगा के ही मानूँगी। मेरा घर बरबाद हो रहा है और मैं देखती रहूँ। भगती भाव को भी कोई टैम ह्वै है।” कहते हुए आग को उसकी ओर बढ़ाया। अगर भानियाँ पीछे नहीं हटता तो आग उसके मुँह में घुस जाती।
     भानियाँ एकदम पलटा, दालान में आया और चरी उठाकर दूध दुहने लगा। ००
      पता : माडर्न पब्लिक सीनियर सेकेंडरी स्कूल,
                रावतभाटा, वाया कोटा,
                राजस्थान - 323307
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   लघुकथा - 69
                                 नर्स
                                         - सुभाष सलुजा
     लम्बी बीमारी के बाद आज हॉस्पिटल से छुट्टी मिल रही थी ।अब डॉक्टरों ने कह दिया था कि आप बिलकुल ठीक हॆं अपने घर जा सकते हैं।
एक एक कर हास्पिटल के स्टाफ़ वाले शुभकामनाएं देकर विदाई दे रहे थे । जूनियर डाक्टर नर्सें वार्ड ब्वॉय उन से जॆसे एक रिश्ता सा हो गया था । अब गुरप्रीत आई थी , आंखें नम सी थी लेकिन चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयास करते हुए कहा
      " अब आप बिलकुल ठीक लग रहे हैं । चेहरे पर रोनक आने लगी हॆ । घर में अपना अच्छे से ख्याल रखना । हां परहेज तो जरूर रखना ।"
बङी आत्मीयता से सब कह रही थी ।
      याद हॆ जब वह पंजाबी लङकी नर्स पहले दिन मेरे कपङे बदलने आई थी तो मॆने कहा था
" मेरे कपङे बदलने के लिए किसी वार्ड ब्वॉय को बुला लो । मुझे अच्छा नहीं लगता आप मेरी बेटी के समान हॆ ऒर मेरे कपङे बदलें ।"
     उसने मुस्कराते हुए कहा था
     " हमारा रिश्ता नर्स मरीज का हॆ । हमें अपनी ड्यूटी करनी हॆ । हमें यही शिक्षा दी जाती हॆ । सेवा हमारा फर्ज हॆ ।आप भावुक न हों । क्या कोई बेटी अपने पापा की सेवा नहीं करती ।कल से वार्ड ब्वॉय को बुला लेंगे ।"
     झट से वह मेरे कपङे बदल कर चली गयी ।ज्यादा तर उसी नर्स ने मेरी सेवा की ।
    आज विदाई के समय वह भावुक थी।
    " पापा घर जा रहें हैं जाने के बाद भूल तो नहीं जाओगे । जाने के बाद सब भूल जाते हैं , तू कोन ते मॆं कोन ।?"
    " नहीं बेटा मॆं तेरी शादी पर जरूर आऊंगा , मुझे बुलाना भूल नहीं जाना ।
   एक अनजान से मासूम रिश्ता मुखर हो रहा था  ।
     पता : रानियां , जिला सिरसा , हरियाणा
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लघुकथा -  70
                      औरत के नाम
                                                  -  नीरू तनेजा
एक प्लाट की रजिस्ट्री करवाने तहसील गई थी !वहां की
खानापूर्ति के पश्चात मैं एक तरफ बैंच पर बैठ गई! वहीं
कुछ पुरूष और दो महिलाएं आई, पुरूष तो  कार्यालय की
तरफ चले गए, दोनों महिलाएं वहीं खड़ी हो गई! थोड़ी देर
की चुप्पी के बाद एक महिला दूसरी से बोली-
         ‘ ‘ हमारा प्लाट आपने खरीदा है क्या ? “
‘’जी हां ! “;
‘’ जी, कितने का खरीदा है? “
‘’पता नही ! आपको तो पता होगा कि आपने हमें कितने
का बेचा है ! “
‘ ‘ नही जी ! पर ये प्लाट कहां पर है ! “
‘’ जी, मुझे नही मालूम ! आपको तो पता होगा ! “
‘’ मुझे नहीं मालूम ! “
थोड़ी देर में फिर एक महिला बोली –‘’ये प्लाट कितने गज
का है ! “
‘’ जी मुझे नही मालूम ! “
मैं  उठकर उनके पास गई और बातों – बातों में पूछ लिया –
‘’ आप दोनों उस प्लाट के बारे मे क्या जानती हैं !”
उनमें से एक हिचकिचाते हुए बोली  - ‘’जी, बस  इतना कि
अगर जमीन वगैरह औरत के नाम हो जाए तो कुछ फायदा
हो जाता है इसलिए मेरा आदमी जब भी कुछ खरीदता है तो
कागज पर मुझसे साईन करवा लेता है और मै कर देती हूँ  !”
‘’मुझे भी बस इतना ही पता है  !” दूसरी महिला बोली  !
मैं समझ गई क्योंकि मेरी स्थिति भी कुछ कुछ उनके  जैसी थी ! हम मात्र प्रापर्टी की स्टांप  ही तो थी। ००
      पता : पत्नी श्री ज्ञान चंद तनेजा
              405/3 ,रेलवे रोड, समालखा,
              पानीपत , हरियाणा -132101
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 लघुकथा - 71
                         शर्म और बहादुरी
                                        - किशोर श्रीवास्तव
      उसने अपने प्रेम के नाटक के ज़रिये, बहला फुसला कर उस चौथी मासूम युवती को भी अपनी वासना का शिकार बना लिया था। उस युवती का यह पहला अनुभव था। पर युवक इस मामले में सिद्धहस्त था।
     जब उसने यह बात अपने दोस्तों को बताई तो सभी उसकी पीठ ठोकने लगे थे। किसी ने उसके भाग्य को सराहा तो किसी ने उसके पौरुष और बहादुरी को सलाम किया।
   उधर युवती के परिचितों को इसकी भनक लगते ही उसे कुलटा, छिनाल, वेश्या आदि के विभिन्न विशेषणों से नवाजा जाने लगा।
    कुछ दिनों बाद ही शर्म और उलाहनाओं से तंग आकर उस युवती ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली थी। उसने एक सुसाइड नोट भी छोड़ा था जिसमें उसने आत्महत्या का कारण जीवन में असफल होना और इसे अपना व्यक्तिगत निर्णय लिखा था।
    युवक का अभियान अभी भी जारी था। ००
   
          पता : सैक्टर - 4/321 , आर के पुरम ,
                  नई दिल्ली - 110022
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लघुकथा - 72
                           नई दुनिया
                                            - सनत कुमार जैन
      खुशबू बदल गई है शादी के बाद!
कल से तीन बार ये बात बुआ ने कही थी। मैं आईने के सामने बैठी खुद को देख कर बदलाव को खोजने की कोशिश कर रही थी।
     "एक फोन तो करती!! शादी हुए बीस दिन हो गए।"
      अब तक के जीवन की घटनाओं से बून्द बून्द भरी किताब में मिटा मिटा कर इबारतें लिखने की कोशिश बिल्कुल नहीं करी थी बल्कि शब्दों को खिसकाने की कोशिश में थी। नई अपेक्षाओं के अनुरूप!! ००
     पता : सन्मति इलेक्ट्रिकल्स ,
             दुर्गा चौक के पास ,
              जगदलपुर -494001 छत्तीसगढ़
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लघुकथा -  73
                             मापदंड
                                              - मधु मिश्रा
      आज शाम को गाँव से नानी और मामीजी लोग भोपाल हमारे घर आये । उनके आते ही मम्मी ने नौकरानी से कहा - गीता चल तो बेटा,अम्मा जी लोगों के लिए पहले ठंडा पानी ला,,,, हाँ दीदी, कहते हुए वो जैसे ही कि‍चन गई तो नानी, मामी जी से कहने लगीं,,, जा तो सुधा, मंजु से पूछ ये नौकरानी कौन सी जाति की है,,, अंदर जाकर ये बात मामी जी, मम्मी से पूछने ही वाली थीं कि मम्मी ने मुँह बंद करते हुए इशारे से कहा -अभी बिल्कुल चुप रहो,फिर धीरे से बोलीं.. अम्मा से कह दो,, अच्छी जाति की है.. तब तो दीदी उससे काम करवा रही हैं, मामी जी ने नानी जी से वैसा ही कहा ।
    और रात में जब गीता घर चली गई, तो मम्मी ने मामी जी से कहा-भाभी हम लोग अगर शहर में काम वाली बाई से जाति धर्म पूछने लगे तो कोई हमारे घर में कदम भी नहीं रखेगा, ये तो गाँव में चलता है कि इसके हाँथ का पानी नहीं पीना है, उसको... छूना नहीं है!!
     भाभी, सच तो ये है आजकल शहर समुद्र की तरह हो गया है, जहाँ अपनी रोजी रोटी के लिए भिन्न भिन्न जाति धर्म के लोग आकर भीड़ में शामिल हो जाते हैं, यहाँ जाति का मापदंड अब छुआछूत के साथ नहीं,,! बल्कि योग्यता के साथ देखा जाता है,,! अब आप ही बताइए बड़े बड़े होटलों में जाकर आप रसोइए का धर्म पूछ कर खाना तो नहीं खायेंगी ना,,!!!
   मैंने देखा, मम्मी का तर्क सुनकर मामी जी ख़ामोश थीं  । ००
          पता : पति  श्री मनोज कुमार मिश्र,
                 पोस्ट ऑफिस के पास ,
                  कोमना, जिला-नुआपड़ा,
                  ओडिशा - 766106
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लघुकथा - 74
                             आशादीप
                                                   - आभा सिंह
       घर पर कुछ मित्र अपने परिवार के साथ मिलने आये। हँसी मज़ाक चुहल चल रही थी। बच्चे अलग चहक रहे थे। बातचीत फिर आजकल की पीढ़ी की संस्कारहीनता पर आ गई। सभी अपने अपने तर्क दे रहे थे। अनुभवों के आधार पर आज के ज़माने की तुलना अपने ज़माने से कर रहे थे। कौन ज़िम्मेदार सिनेमा, टीवी, कम्प्यूटर, मोबाईल...।
   अपने को उम्रदराज़ महसूसती यशोदा उठकर टैरेस पर आ गई।
    अरे आप यहाँ क्यों खड़ी हैं ? नौ दस बरस की बच्ची पास आ खड़ी हुई।
      बस ऐसे ही..,तुम बताओ, ड्रॉइंग रूम में नहीं खेल रहीं।
       खेल चुकी.....बच्ची गुनगुनाने लगी।
       गाती हो.....डाँस भी करती हो ?
        करती हूँ न पर घर में...स्कूल में तो बच्चे खराब- खराब गानों पर डाँस करते हैं। मैं तो अच्छे वर्डस वाले गाने पर डाँस करती हूँ।
        अच्छे वर्डस ...वह कैसे होते हैं ?
          बत्तमीज़ दिल...बत्तमीज़ दिल माने न...बच्ची ने झूम कर नाचना शुरू कर दिया। उसके चेहरे पर खुशी का उजाला छिटक गया।
     तुम्हारा नाम क्या है ?
       लावण्या
        प्यारा नाम है..बड़ा मॉडर्न।
         नानी ने रखा है, मुझे नानी बहुत अच्छी लगती हैं, मेरे दो मामा हैं, सब ज्वाइंट फैमिली में रहते हैं।
          मेरी दादी के छः लड़कियाँ न होतीं तो हम भी ज्वाइंट फैमिली में रहते।
           नासमझ बच्ची का संदर्भ से कटा अटपटा सा वाक्य यशोदा को चौंका गया।
           ज्वाइंट फैमिली क्या ?
           मेरे दोनों मामा साथ रहते हैं वो ज्वाइंट फैमिली। हम वहाँ राखी पर जाते हैं। भाइयों के राखी बाँधते हैं। खूब मज़ा करते हैं। अच्छा ? वे भाई रियल होते हैं क्या ?
          यशोदा विचलित हुई- रियल ही कह दूँ क्या – पर बहलाने के नाम पर बच्ची को भ्रम में रखना ठीक न लगा। गुज़रने दो जो गुजरती है, एक ही बार तो गुज़रेगी।
       नहीं बेटे, मौसी, मामा, चाचा, ताऊ, बुआ के बच्चे कज़न्स होते हैं।
        ओह, तो मेरा कोई रियल भाई नहीं, बस हम तीन बहनें ही हैं।- स्वर में दर्द की खनक थी।
          बेटियों के बारे में उसके उद्गार परिवार की परवरिश की चुगली कर रहे थे।
           लावण्या ने यशोदा का हाथ पकड़ा और झूले तक ले आई -आइये यहाँ बैठते हैं- झूले पर बैठ कर उसने उनके गले में बाहें डाल दीं।
          आप बहुत सारी बातें जानती हैं, मम्मी- पापा ये सब नहीं बताते- उसने यशोदा को कोई सम्बोधन नहीं दिया था फिर भी स्नेह से चिपक गई।
         यशोदा को ड्रॉइंग रूम में चल रही बातचीत याद आ गई। लावण्या की मासूम सोच - संयुक्त परिवार की अवधारणा को पोसती, गीतों में सार्थकता ढूँढती,बुज़ुर्गों से लाड़ लड़ाती - संस्कारों के बीज हैं तो सही, वक्त के सहारे फल फूल भी जायेंगे। ००
   पता : मकान न .  80 - 173, मध्यम मार्ग, मानसरोवर, जयपुर 302020 राजस्थान
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लघुकथा - 75
                        सहिष्णुता
                           - आचार्य सजीव वर्मा ' सलिल '
    'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
      ''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
      ''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी। 
     इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।  ००
   पता : विश्व वाणी हिंदी संस्थान,
            ४०२ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
             जबलपुर ४८२००१ मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 76
                            रक्षक
                                        - सत्या शर्मा ' कीर्ति '
     शिप्रा का रिजर्वेशन जिस बोगी में था उसमें लगभग सभी लड़के ही थे । टॉयलेट जाने के बहाने शिप्रा पूरी बोगी घूम आई थी, मुश्किल से दो  या तीन औरतें होंगी । मन  अनजाने भय से काँप  सा गया ।
पहली बार अकेली सफर कर रही थी इसलिये पहले से ही घबराई हुई थी ,अतः खुद को सहज रखने के लिए  चुपचाप अपनी सीट पर मैगजीन निकाल कर पढ़ने लगी ।
     नवयुवकों का झुंड जो शायद किसी कैम्प  जा रहे थे, के हँसी - मजाक , चुटकुले उसके हिम्मत को और भी तोड़ रहे थे ।
      शिप्रा के भय और घबराहट के बीच अनचाही सी रात धीरे - धीरे उतरने लगी ।
सहसा सामने के सीट पर बैठे लड़के ने कहा --
      " हेलो  , मैं साकेत और आप ? "
भय से पीली पड़ चुकी शिप्रा ने कहा --"  जी मैं  ........."
      "कोई बात नहीं नाम मत बताइये ।वैसे कहाँ जा रहीं हैं आप ?"
      शिप्राशिप्रा ने धीरे से कहा --"इलाहबाद "
       "क्या इलाहाबाद... ?
        वो तो मेरा नानीघर है। इस रिश्ते से तो आप मेरी बहन लगीं " - खुश होते हुए साकेत ने कहा ।
और फिर इलाहाबाद की अनगिनत बातें बताता रहा कि उसके नाना जी काफी नामी व्यक्ति हैं , उसके दोनों मामा सेना  के उच्च अधिकारी हैं ,और ढेरों नई - पुरानी बातें ।
      शिप्रा भी धीरे - धीरे सामान्य हो उसके बातों में रूचि लेती रही ।
      रात जैसे कुँवारी आई थी वैसे ही पवित्र कुँवारी गुजर गई ।
         सुबह शिप्रा ने कहा - " लीजिये मेरा पता रख लीजिए कभी नानी घर आइये तो जरुर मिलने आइयेगा ।
        " कौन सा नानीघर बहन ? वो तो मैंने आपको डरते देखा तो झूठ - मूठ के रिश्ते गढ़ता रहा ।मैं तो कभी इलाहबाद आया ही नहीं ।"
        "क्या..... ?" --  चौंक उठी शिप्रा ।
"बहन ऐसा नहीं है कि सभी लड़के बुरे ही होते हैं कि किसी अकेली लड़की को देखा नहीं कि उस पर गिद्ध की तरह टूट पड़ें ।हम में ही तो पिता और भाई भी होते हैं ।"
      कह कर प्यार से उसके सर पर हाथ रख मुस्कुरा उठा साकेत । ००
        पता :   डी - 2 , सेकेण्ड फ्लोर ,
                 महाराणा अपार्टमेंट ,
                  पी .पी .कम्पाउंड ,
                  रांची - 834001  झारखण्ड
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लघुकथा - 77
                            बात चीत
                                     - बबिता चौबे 'शक्ति'
     पृथ्वी और चांद की बाते चल रही थी ।कुछ और ग्रहों ने सुनी और वायरल कर दी
"ओ चाँद भाई कैसे हो ।क्या चल रहा है ।"
     'बस बहन ठीक हूँ ।आप केसी हो?"
    "मैं तो ठीक ही हूँ । जनसंख्या विस्फोट की कगार पर हूँ पर तुमको देख कुछ हल्की हो जाती हूँ अच्छा है तुम शांति में हो।"
    "नही बहन ! मैं भी कहा शांति में हु आये दिन तुम्हारे वाशिंदे यहां आते है जल की तलाश करते रहते है उनको अब तुम छोटी लगने लगी हो अब बो मुझ पर रहना चाहते है।"
       "हूँ ...लंबी स्वास भरते हुए उफ यह नर दानव अब तुम्हे भी वरवाद करने की मंशा बना रहे है ।मुझे तो खोद खोद कर नाश कर दिया है।पेड़ ,वन,पर्वत,सब सब कुछ खा चुके है अब तुम्हारी बारी है।"
      "हूँ बहन बहि तो.. इनकी भूख कब शांत होगी ऐसे तो यह पूरे ग्रह खा जायेगे।"
दोनो सोच में है एक प्रजाति से ।मानव प्रजाति से । ००
  पता : कृष्ण कुमार चौबे ,
           माँगज , वार्ड नं. 3
           स्टेशन रोड , होस के पास ,
           दमोह - 470661 मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 78
                                दोष
                                                 - पंकज शर्मा
        सुरेश अपने परिवार के साथ अपने लिए लड़की देखने गया हुआ था। अच्छी-खासी आवभगत के बीच एक परिवार का दूसरे परिवार के साथ परिचय हुआ और फिर सामान्य बातचीत आरम्भ हो गई। लड़के वालों ने लड़के का और लड़की वालों ने लड़की के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी। थोड़ी देर में लड़की को भी लाया गया और फिर चाय-पानी हुआ। लड़की अच्छी पढ़ी-लिखी, सुन्दर और सुशील थी। घर का सारा कामकाज भी अच्छी तरह से जानती थी, और सबसे बड़ी बात यह कि वह एक अच्छे सरकारी संस्थान में सेवारत थी। उसमें सभी गुण ही थे,  सिर्फ एक मामूली से शारीरिक दोष के। वह एक पैर से पोलियोग्रस्त थी और मामूली सा लंगड़ा कर चलती थी, जिसका सामान्यतया पता नही लगता था, जब तक की उस पर अधिक गौर न फरमाया जाए। वैसे ऐसा ही दोष सुरेश के बाएं हाथ में भी था।
      कुछ ही देर बाद लड़के-लड़की को बातचीत के लिए अकेला छोड़ दिया गया। दो-चार सामान्य से सवाल-जवाब के बाद अचानक लड़की ने पूछा, ”क्या आप और आपके परिवार वाले मुझे अपना लेंगे?”
        सुरेश को लगा जैसे उसके सिर पर किसी ने जोर से हथौडा मार दिया था। उसका मन भर आया, ‘यह लड़की इतनी पढ़ी-लिखी, सुन्दर और सुशील है। इतनी अच्छी सरकारी सेवा में है, और शायद मुझसे भी ज़्यादा वेतन पाती होगी, ...फिर मुझमें भी तो ऐसा ही शारीरिक दोष है। बावजूद इसके यह लड़की होने और मामूली से शारीरिक दोष होने के कारण ही कितनी हीनभावना से ग्रस्त है और स्वयं को कितना असुरक्षित महसूस कर रही है। जब इसकी यह हालत है तो उन बेचारी अनपढ़ या कम पढ़ी-लिखी और ज्यादा विकलांग लड़कियों की क्या मानसिक हालत होती होगी, इसका तो अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता।’
        उसके रुंधे गले से सिर्फ इतना ही निकल पाया, “क्यों नही...।” ००
         पता : 19, सैनिक विहार, जंडली,
                  अम्बाला शहर-134005
                  हरियाणा
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लघुकथा - 79
                               गाय
                                            - देवेन्द्र दत्त तुफान
जून का महीना चिल्चिलाति गर्मी गाय सेवा सुरक्षा को लेकर दिल्ली मे एक सभा थी । गखचा खच भरी बसे एक के बाद एक रवाना हो रही थी । हम सभी पदाधिकारी अंतिम बस की तरफ़ जा रहे थे ।  अचानक मेरी नज़र एक गर्मी को झेल्ती गाय पर पड़ गई । वो प्यास के मारे मर गई थी । सभी चिल्लाते रहे ,आ जाओ ,ये अंतिम बस है । पर मै नही गया । मुझे तो बस ! एक तरफ़ श्री कृष्ण जी के प्रति अपना गुन्हा , दूसरी तरफ़ गाय की मूक चीख सुनाई पड़ रही थी । शाम को जत्था दिल्ली से लोट आया था । सभी ने रेलि की भरपूर तारीफ़ की और मुझे भरपूर गाय भक्ति का ताना दिया । पर मुझे तो सिर्फ कुछ सुनाई पड़ रहा था , तो वो थी , उस बेजुवान लाचार प्यास से तड़पती , प्राण छोड़ती गाय की आवाज और मै अपने को श्री कृष्ण जी का दोषी मान रहा था!! ००
     पता : मकान न 310/4 , खारी ‌कुई ,
             पानीपत -132103 हरियाणा
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   लघुकथा - 80
                              माॅर्निंग अखबार
                                                - विनोद खनगवाल
         "अनुपमा, इस पुलिस की नौकरी की तनख्वाह से तो घर चलाना बहुत मुश्किल हो रहा है। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। कैसे इनको हम उच्च शिक्षा और सही परवरिश दे पाएंगे?"
        "आप ठीक कह रहे हो लेकिन इसका समाधान भी तो नहीं है।"
       "समाधान तो है अगर तुम साथ दो तो.....।"
       "पहले बताओ तो! क्या समाधान है?"
      "तुम्हें बस एक बार मंत्री जी के पास माॅर्निंग का अखबार लेकर जाना होगा। फिर मेरा ट्रांसफर ऐसी जगह हो जाएगा जहाँ तनख्वाह से कई गुना ऊपर की कमाई होगी।"
अनुपमा की माॅर्निंग अखबार की सहमति ने परिवार की सारी आर्थिक परेशानियों को दूर कर दिया।००
           पता : 354/4, देवीनगर, गोहाना-131301
                  जिला सोनीपत (हरियाणा)
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लघुकथा - 81
                           काफ़िर लड़की
                                         - दिलीप कुमार सिंह
       पौ फटने वाली थी ,अँधेरे ने रात का दामन नही छोडा था। उन दोनों  के बार्डर पार करने का यही सबसे मुफीद वक्त था,जब फौजी दरयाफ्त कम से कम होती थी। हाड कंपाती ठंड मे एक ने दूसरे से पूछा "अमजद ,तूने सच मे गोली मारी थी उस लडकी को?
     दूसरे ने ठंडे स्वर मे कहा "हाँ सुबेह,तुम्हें शक क्यों  है? ये मेरी अहद है,सो किया। "
     सुबेह को उस पर यकीन न हुआ उसने पूछा "पर तू तो कह रहा था कि उस लडकी ने तुझे फौजियो से उस रात छुपाया था,फिर कत्ल कैसे किया तूने उसका,हाथ न काँपा तेरा?"
अमजद झल्लाते हुए बोला"जिबह नही किया था उसको,हलाली नही करनी थी। दूर से गोली चलानी थी ,सो चला दी। हम मुजाहिद है गोली चलाते वक्त ये नहीं सोचते कि ये गुनाह है या शबाब।अल्लाह का काम करने मे क्या हिचक?"
      सुबेह अमजद का लीडर था। उसी की गवाही पर अमजद को पगार मिलनी थी। सुबेह ने मोबाइल निकालकर अपने आका को इत्तला देनी चाही कि मुजाहिदीन ने कत्ल करके शबाब का काम किया है,सो उसकी पगार दे दी जाये।        अमजद भी यही सोच रहा था कि सुबेह आकाअो को खबर कर दे तो उसके घर पैसे पहुँच  जाये अौर उसकी बीमार बेटी का इलाज जारी रह सके।
      सुबेह ने मोबाइल आन किया,मगर उसका दिल खटका।उसने फिर पूछा"सच-सच बता अमजद,खा अल्लाह की कसम कि तूने उस लडकी को गोली मारी थी।  अल्लाह की झूठी कसम का नतीजा जानता है ना"।
     अमजद की आँखों से आँसू  बहने लगे। वो बिलखता हुआ बोला "मेरी बेटी बीमार है,इसीलिए अल्लाह कसम मैने उस काफिर बच्ची को गोली मार दी थी,अल्लाह बेहतर जानता है"ये कहते हुएउसका गला रुध गया।
      सुबेह ने मोबाइल पर इत्तला दे दी कि मुजाहिदीन अमजद की पगार उसके घर पहुँचा दी जाये क्योकि उसने शबाब का काम कर दिया है।
    ये खबर शाया करने के बाद सुबेह की आँख भी नम थीं।  वो दोनों  जानते थे कि काफिर बच्ची मरी नही होगी । ००
          पता : मालती कुंज कॉलोनी,आनंदबाग ,
                   बलरामपुर -उत्तर प्रदेश
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लघुकथा - 82
                  राष्ट्रीय साक्षरता मिशन
                                                 - घनश्याम अग्रवाल
      वह उस मलेच्छ बस्ती से स्कूल आता था, जहाँ गरीबी का एकछत्र राज्य था। माँ-बाप सिर्फ इसलिए स्कूल भेजते थे कि एक तो स्कूल की फीस नहीं लगती थी और दूसरे अभी उसे कहीं काम नहीं मिला था।
    आज स्कूल का इंस्पेक्शन होने वाला था। मास्टरों ने पहले ही खास-खास हिदायतें दे रखी थीं। वह रोज की तरह आज फिर लेट आया था, और रोज की तरह ही डाँट खाकर खड़ा हो गया।
    भूगोल के मास्टर अपने विषय के अनुसार सख्त थे। आते ही उन्होंने उससे पूछा— “बताओ, भारत के किस प्रान्त को गेहूँ का भण्डार कहते है?”
    वह चुप रहा। सड़ाक से एक बेंत उसके हाथ पर पड़ी, मानो कह रही हो, बता दे पंजाब को। पर वह उसकी बात नहीं समझ सका और चुपचाप अपना हाथ भूखे पेट पर सहलाने लगा।
     मास्टर ने गुस्से से दूसरा सवाल पूछा—“अच्छा बताओ, भारत में कपड़े की मिलें सबसे अधिक कहाँ पर हैं?”
    वह फिर चुप। सड़ाक से दूसरी बेंत उसके दूसरे हाथ पर पड़ी, मानो कह रही हो, बम्बई में। उसे फिर बेंत की बात समझ में नहीं आई। वह चुपचाप खड़ा रहा। उसकी आँखें छलछला आईं। उसने एक हाथ अपनी चड्ढी के विशेष फटे भाग पर रखा और दूसरे हाथ की आस्तीन से अपने आँसू पोंछने लगा। पर आस्तीन इतनी फटी थी कि उसकी पूरी बाँह भीग गई।
    आँखें मलते-मलते उसके जी में आया कि वह चीख-चीखकर कहे कि न तो भारत में गेहूँ के भण्डार हैं और न ही कपड़े की मिलें। वह तो चुप ही रहा, पर उसकी चुप्पी पूरी शिक्षा-प्रणाली से पूछ रही थी, “क्या ये प्रश्न उससे पूछने का किसी को हक है?” ००
    पता : अलसी प्लाट्स , अकोला - 444004 महाराष्ट्र
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लघुकथा - 83
                                 तनाव
                                                         - रेखा मोहन
      “जीवन में ऐसा भी होता है जब बच्चे और पति को बात करने की फ़ुरसत नहीं और घर की  लक्ष्मी यदि ख़ुद को व्यस्त ना रखे तो डिप्रेशन की शिकार हो जाती है। लक्ष्मी पति को उलाहना देती हाथ छुडा भाग जाती है|” पति बलराम बोले, “काम से समय ही नहीं मिलता हम क्या करें? तुम भी घर की सजावट, नये पकवान और टी.वी में मज़े लों|” लक्ष्मी सोचती ये अधेड़ उम्र भी अजीब सी मनोस्थिति  हो जाती है, सभी मैगज़ीन, सभी ज़िम्मेवारिओं के बाद भी मन उचाट रहता है| मैं भी जेठानी जी की तरह मानसिक रोगी न बन जाऊं, फिर दवाई के सहारे जीना पड़े|
       अचानक उसे याद आया कि काम वाली ने पडोस में नई आई नौकरी पेशा मिसेज़ शर्मा का नंबर दिया था । जो सामाजिक कार्यकर्ता भी थी| लक्ष्मी ने बात की, वो उसको अपने संगठन में मैम्बर बनाने को मान गई| इस प्रकार लक्ष्मी बच्चों को पढ़ाने के लिये एन.जी.ओ में कार्यरत हो गई| रोज़ सुबह काम से निवृत्त हो तैयार हो जाने लगती पति बोलते, “बला की सुंदर लग रही हो, हमें खतरा हैं कोई हमसे छीन न ले|” पति बार-बार फोन करते कभी बच्चे अब तो फोन कर पूछते ,” माँ तुम कब घर आओगी,मुझे काम हैं|” लक्ष्मी उत्सुकता से इंतज़ार करती| अब तनाव भुला सबकी चाह पास थी । ००
      पता : E-201, Type III ,
              Behind Harpal Tiwana Auditorium
              Model Town, PATIALA.[Punjab]
               Pin - 147001
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लघुकथा - 84  
                         विश्वास की गंध
                                         -जयराम कुमार सत्यार्थी
     
'रात आठ बजे तक तो थे । कहाँ गए पैसे ?' निधि सुबह सात बजे ही अपने पति के बैग से गेहूँ पीसाई देने के लिये पैसे ढूँढ़ते हुए न मिलने पर भनभनाई। पैसे सच में गायब थे। वह पानी का एक मात्र स्रोत सरकारी सप्लाई के नलके जो सिर्फ रोज एक घंटे के लिए ही आती है की ओर दौड़ी-
'पैसे आप निकाले हैं क्या जी ?'
'नहीं तो !'
'देखिए न। नहीं हैं।'
'वही लिया होगा !'
'आप तो और हैं। झूठ मूठ के शक करते रहते हैं।'
पूछने पर किसी ने नहीं बताया।
मधुसूदन ने निधि की दीदी के बेटे सिद्धार्थ को बुलाया तो 'वह आते हैं..' कहकर दोपहर तक कमरे में नहीं आया। वह समझ चुका था कि क्यों बुलाया जा रहा है । निधि पूछ जो चुकी थी और उसने न कह भी दिया था। खैर ! बड़ी मुश्किल से चार बजे आया।
'क्यों बुलाए हैं पता तो होगा ?'
'हाँ। मौसी साठ रुपए बारे में पूछ रही थी। पर हम नहीं लिए हैं मौसा।'
'हम कैसे मान लें ?'
'सच बोल रहे हैं हम नहीं लिए हैं।'
'ठीक है। आज तक सात आठ बार चोरी किए हो । पैसे,मोबाइल, इमरजेंसी लाईट.. वगैरह वगैरह। एक बार भी पहले सच बोले क्या ?'
'नहीं!'
'हर बार पीटने पर ही कबूल किए और दिए भी की नहीं ?'
'हाँ।'
'कम से कम एक बार भी सच बोल देते तो हम विश्वास कर लेते! ये सब चोर,लुटेरे और डकैत बनने के लक्षण हैं बेटे। और धीरे धीरे तुम बड़े होते जा रहे हो। हिम्मत करके सच बोलना और ये बुरी आदतें छोड़ना ही चाहिए बेटा। जाइए हम किसी से नहीं कहेंगे...अब तो कुछ कहिए..।'
'हाँ मौसा हम लिए हैं.. खर्चा भी कर दिए... खा पी गए।'
'चलो खुशी हुई। अब से ख्याल रखना..हमेशा सच बोलना है और चोरी नहीं करना है .. तुम जा सकते हो।'
वह चला गया। निधि आश्चर्यचकित थी।  उसका शिक्षक पति मधुसूदन ने कहा-
जानती हो निधि! जब कई बार बुलाने पर नहीं आ रहा था..तभी से मुझ तक "विश्वास की गंध" निरन्तर पहुंच रही थी। ००
             पता : दीघासीन, बांकेबाजार , गया - बिहार
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लघुकथा - 85
                         देशभक्ति बनाम मानवता
                                               -अनिल शूर आज़ाद
        देशभक्ति एवं मानवता में एक बार बहस छिड़ गई कि बड़ा कौन, किसका महत्व ज्यादा। दोनों के एक से बढ़कर एक अपने तर्क। अंततः दोनों एक सिद्धपुरुष के यहां पहुंचे। कहा - अब आप ही फैसला कीजिए।
        उस महात्मा ने उन्हें एक बड़े देशभक्त से मिलवाया। देशभक्त से पूछा कि इसी देश में क्यों जन्म लिया? देशभक्त हंसा - यह कैसा सवाल है, कोई किसी देश-विशेष में पैदा, अपनी मर्जी से थोड़े होता है! महात्मा ने फिर प्रश्न किया -  किसी अन्य देश में पैदा हुए होते तब भी क्या इसी देश का गुणगान करते? देशभक्त गुस्साया - कैसी बात करते हो, जहां जन्म होगा गुणगान तो उसी जन्मभूमि-मातृभूमि का किया जाएगा ना।
        इस पर सिद्धपुरुष हंसे। फिर बोले - देशभक्ति का सम्बन्ध जन्मस्थान से है जिसके निर्धारण पर हमारा कोई वश नहीं, जबकि मानवता सार्वभौमिकता का उच्च गुण रखती है। अतः निश्चय ही यह देशभक्ति से अधिक मूल्यवान है।
      लड़ने वाले दोनों पक्षों ने सहमति में सिर झुका दिए।००
      पता : ए जी -1/33 बी , विकासपुरी ,
               नई दिल्ली - 110018
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लघुकथा - 86
                                  वयसन्धि
                                             - कनक हरलालका
                                                
     नए कपड़ों का ढेर, मेकअप का सामान, अलग अलग पर्स सारा सामान सामने डाले रंजना बड़बड़ाए जा रही थी,
"पता नहीं इस लड़की को कब ज्ञान आएगा। पंद्रह साल की होने को आई, पर सामान का खयाल है न पैसों का।  बोलो तो तुरंत गुस्सा हो जाती है। रोज नए फैशन की दीवानी बनी रहती है। इतने सारे नए के नए कपड़े दो ही दिन में आउट फैशन हो गए, महारानी पहनेंगी नहीं। ऊफ्फ्फ ये वयसन्धि काल। अब क्या करूँ इन कपड़ों का...?"
     "अरे जरा सफाई से काम कर"
तभी उसकी निगाह साप्ताहिक सफाई करने आई विम्मो और उसकी चौदह पंद्रह वर्षीय बेटी ललिया पर पड़ी,
      "अरे विम्मो, तेरी बेटी भी तो इतनी ही बड़ी है, ये कपड़े उसे फिट  आ जाएंगे।  पहन तो लेगी।"
       "देखूं मेमसाब।"
"अच्छा एक बात तो बता, तेरी लड़की भी तो वयसन्धि में है, तुझे परेशान नहीं करती।"
"अरे मेमसाब, हम गरीबों की लड़कियाँ बचपन से सीधे बड़ी हो जाती हैं। "
       तब तलक  कपड़ों को खोल कर देखती ललिया को देख कर विम्मो बोली "अरेरे मेमसाब, ये कैसे कपड़े है। हम गरीबों को मुहल्ले में जीना नहीं है क्या? छोरी का रास्ता चलना मुसकिल हो जाए। चल रे ललिया, कपड़ा सब तहा कर वापस रख दे। ....अरे वहां आईने के सामने कहां तहा रही है? और इतनी देर क्यों लगा रही है, बहुत काम बाकी है अभी।"
        उधर आईने के सामने के सामने कपड़ों की तहें खोलती बदन से लगाकर सहलाती समेटती ललिया कह उठी "अम्मा, यहां जरा ज्यादा खुली जगह है सो झाड़ झाड़ कर सुन्दर से तहा दे रहें है।"
          पता : हरलालका बिल्डिंग , एच . एन . रोड,
                  धूबरी - 783301 असम
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लघुकथा - 87
                        अंतर्मन की औरत
                                                      - कमल कपूर
         गर्मियों की एक सूखी सूनी और बोझिल सांझ थी वह, रश्मि पीहर गई हुई थी , जब माँ ने रजत से कहा," बेटा ! रश्मि हर बात में इक्कीस है तुमसे•••तुमसे ज्यादा पढ़ी-लिखी है, ऊँचे ओहदे पर है, जी भर कर सुंदर है और सबसे बड़ी बात है कि मेरी बहुत इज्जत करती है, फिर क्यों तुम हर वक्त उसे नीचा दिखाने पर तुले रहते हो?"
      " माँ! " रजत मुस्कुराया," दरअसल ऐसा करके मैं उसे जताता रहता हूं कि दफ्तर में भले ही वह अफसर है पर घर का राजा तो मैं ही हूँ और माँ अगर मैं ऐसा नहीं करूँगा न तो एक दिन वह हमारे सर चढ़ कर नाचेगी। "
    " गलत•••एकदम गलत सोच है तुम्हारी•••बिलकुल अपने पापा की यरह्।वह भी अपनी आखिरी साँस तक मुझे बेवजह  सताते रहे और अफसोस की बात तो यह है कि तुम्हारी दादी भी उनका साथ देती रही," कह कर माँ खामोश हो गयीं , फिर एक लंबी साँस ले कर उन्होंने मौन तोड़ा " देखो बेटा ! तुम अब भी सुधर जाओ। रश्मि  अभी लक्ष्मी सरस्वती का रूप है पर तुम्हारा यही रवैया रहा न तो उसे चंडी बनते देर नहीं लगेगी और तब मैं उसका साथ दूंगी  , तुम्हारा नहीं।कहे देती हूँ।"
    " क्यों? क्यों देंगी आप उसका साथ? आप मेरी माँ हैं या उसकी? "रजत ने तुनक कर कहा तो जैसे साक्षात दुर्गा ही उतर आई माँ के भीतर ," बेशक•••बेशक मैं तुम्हारी माँ हूँ पर जिस दिन रश्मि ने इस घर में कदम धरे थे , उसी दिन मैंने उसे अपनी बेटी मान लिया था इसीलिए उसके साथ हुए किसी भी अन्याय या अत्याचार में अगर मैं तुम्हारा साथ देती हूँ या तुम्हारे पक्ष में बोलती हूँ तो मेरे अंतर्मन की औरत मुझे कभी माफ नहीं करेगी•••ठीक वैसे ही जैसे मैंने तुम्हारी दादी को कभी माफ नहीं किया।" ००
                  पता : 2244 / 9सेक्टर ,फरीदाबाद-121006
                   हरियाणा
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    लघुकथा - 88
                                अच्छा घर
                                           -  अशोक भाटिया
काफ़ी समय से वे पुत्र के लिये अच्छे घर की तलाश में हैं। एक बार वे हमारे पड़ोस में भी एक घर में आये।
    बात कुछ जँच गई, तो सुमन जी बोले - ‘‘सब अच्छा है, लड़की पढ़ी-लिखी है।‘‘
     ‘‘जी यह तो आपकी सोच अच्छी है...बाक़ी और कोई डिमांड हो, तो अभी तय कर लेते हैं...‘‘
       ‘‘नहीं बस, जिसने लड़की दे दी, समझो सब-कुछ दे दिया...‘‘
        यह सुनकर ओजसिंह के हाथ जुड़ गये। वक्त देखकर सुमन जी ने कहा- हाँ, एक वह रेडियो होता है न, जिसमें तस्वीरें आती है...वह दे देना।‘‘
         ओज सिंह के हाथ जुड़े रह गये।
          “एक बोतल ठंडी करने वाला बक्सा भी दे देना, बच्चों के काम आयेगा।”
          ओजसिंह के हाथ खुलने लगे।
         ‘‘तेल से चलने वाली साइकिल तो दोगे ही" सुमन जी ने हँसते हुए कहा- “घूमने-फिरने के लिए ठीक रहती है।‘‘
       ओजसिंह ने उठकर हाथ जोड़ते हुए कहा - ‘‘सुमन जी, हम इस कदर लायक नहीं हैं, आप कोई और घर देखिये।‘‘
         थुलमुल सुमन जी तत्काल उठकर चले गये।
          तभी बाहर से एक भिखारी ने गिड़गिड़ाकर भिक्षा-पात्र बढ़ाते हुए कहा- ‘‘कुछ दे दो, अंधा ग़रीब हूँ।‘‘
          ओजसिंह ने कहा- ‘‘कोई और घर देखो।‘‘ ००
पता : 1882 , सैक्टर -13 , अरबन एस्टेट, करनाल
          हरियाणा -1321001 ---------------------------------------------------
लघुकथा - 89
                                मास्टर जी
                                             - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र '
      सड़क के दोनों ओर पेड़ों की कतारे थी । पेड़ो की कतारो से सड़क की शोभा को चार चाँद लगे हुये थे । सैकड़ो की संख्मा में हर आयुवर्ग के लोग प्रभात-भ्रमण हेतु उस ओर खिंचे चले आते थे । पिछले कुछ दिनों से एक शिक्षक भी हमारे संग घूमने आने लगे थे वो अभी -अभी
स्थानांतरित होकर इस शहर में आये थे । अचानक एक सुबह हम सब को रोक कर शिक्षक बोले-" आप सब इन नीमों को देखकर क्या सोचते हो ? जरा बताइये । " हम में से एक बोले - सोचना क्या ? हम सब घूमने आते हैं और रोज इनसे दातुन तोड़ कर दातुन करते हैं , बताया भी गया है कि नीम की दातुन स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है ।
"क्या आपने अन्य पेड़ों की तुलना में इन नीम के पेड़ो की दशा पर भी ध्यान दिया , शिक्षक ने कहा , ये नीम के पेड़ कक्षा में कुपोषण के शिकार बच्चों की भाँति सबसे अलग-अलग से दिखाई नहीँ दे रहे , इनकी इस दशा के दायी क्या हम सब नहीं ! बताइये ,आधे शहर की दातुन की जिम्मेदारी क्या यें निभा पायेंगे !! हम सब उनकी बात सुनकर चकित रह गये । हममें से एक बुजुर्ग ने कहा- मास्टरजी, इस तरह तो हमने सोचा ही नही , लेकिन देर आयद-दुरस्त आयद अब हम दातुन नही तोड़ेंगें साथ ही अन्य को भी समझायेंगे । कुछ दिनों बाद गर्मियों की छुट्टी बिताने मास्टरजी अपने गाँव चले गये ।
      आज एक जुलाई है । मास्टर जी ,अपने गाँव से छुट्टीयां बिताकर सुबह वाली बस से शहर आ रहे है । जैसे जैसे शहर करीब आने लगा , उनकी आँखे कुछ अधीर होने लगी अचानक बस की खिड़की से क्या देखते हैं कि उन नीमों की डालियों पर नव कोंपलें हिल-हिल कर आने जाने वालो का अभिवादन कर रही थी ,अब वो कुपोषित बच्चों जैसे नहीं लग रहे थे । ये दृश्य देखकर मास्टर जी के चेहरे पर मुस्कान बिखर गयी । इस रहस्य को बस में अन्य कोई भी नही समझ पाया । ००
        पता : कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,
                 स.मा. (राज.)322201
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लघुकथा - 90
                     परिस्थितियों का दास
                                                       - मनोज कर्ण
    
      कुछ ही दिनों मे कुकुरमुत्तो की तरह उग आये शुभ चिन्तकों से उबरने की उपाय ढूंढती रही.पर कहीं न कही कभी न कभी इन से सामना करना ही पड़ता.
      आज फिर मौन !, उदास सा चेहरा लिये बैठी उपाय ढूँढने मे लगी रही...!
     " जय गोविन्द ! सोचते ही मन ही मन चहक उठी. फिर....नही,पहली बार का  मेरे द्वारा ठुकराया ऑफर को वह भूला तो नही होगा.और फिर दुसरे के आगोश मे समा जाने से वाकिफ तो है ही, अब अपनायेगा क्या ?"
इन अवसर वादियों से तो कई गुणा बेहतर है.और पहला पहला प्यार ! क्यों न ट्राय करूँ !
        " इस बार ऑफर मेरे तरफ से........!.स्वीकार पाते ही फुला नही समा रहा !"
        -- रोको .....रोको इन्हे कोइ .....हे भगवान ! बचाओ इन दरिन्दों से.पूजा की सजी थाल लिये चित्कारती हुइ रागिनी मन्दिर की चौखट पर आ गिरी.
        -- ठहर जाओ.....!
        -- अरे ! जयगोविन्द तू ? तू इसका साथ दे रहा तुझे पता नही ये विधवा है ?
        -- पता है, पर अब विधवा नही रहेगी.
        -- अरे इतनी भीड़, शोर गुल.तुम लोग बारात मे आये हो क्या ?
       -- न...ही, नही पंड्डिज्जी......आज सुहागिनो का पर्व है.और ये....ये तो विधवा है न ?
       --" बेटा ! इंसान परिस्थितियों का दास है.और वैधव्यता एक विषम परिस्थिति है, कोइ अपराध नही ! "
      " आगे आओ.........., ये लो दोनो फूल की माला और डाल दो एक दूजे के गले मे ! ००
      पता : मिथिला जनरल स्टोर ,विनयनगर ददसिया रोड ,
             सुरज बिल्डर वाली गली , सुर्या विहार -३,
              सेक्टर- ९१ फरिदाबाद( हरियाणा )-२१०००३
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लघुकथा - 91
                 ठक-ठक...ठक-ठक 
                                                   - मधुदीप गुप्ता
      जेठ की तपती सुबह है | अभी दस ही बजे हैं मगर लू चल रही हैं | भुवनेश्वर दत्त झुंझला रहे हैं, इतना समय भी नहीं मिल पाता कि कार का एयर-कंडीशनर ही ठीक करवा लें |  भागदौड़...दौडभाग... भागदौड़... प्रकाशन का भी यह कैसा व्यवसाय है कि इतनी भागदौड़ के बाद भी ठीक-सा जुगाड़ नहीं हो पाता |
     लालबत्ती पर कार रुक गई है | भुवनेश्वर दत्त की झुंझलाहट और बढ़ रही है | यह लाल बत्ती... उफ...कितनी लम्बी...तीन मिनट की...वे बेचैन हो उठे हैं |
     “बाबूजी ! बाल पैन...दस रुपये के चार...लेलो बाबूजी...”फटी फ्राक पहने, एक दस साल की बच्ची कार की खुली खिड़की पर ठक-ठक कर रही है |
    “क्या करूँगा इनका...!” वे मुँह दूसरी तरफ घुमा लेते हैं |
     “लेलो बाबूजी...रोटी खा लूँगी...भूख लगी है...” खिड़की पर ठक-ठक बढ़ रही है |
     “ओह ! भीख माँगने का नया तरीका...!” वे व्यंग्य से मुस्कराते हैं | हरी बत्ती होते ही कार आगे बढ़ जाती है |
     मुस्कराहट में भुवनेश्वर दत्त की झुंझलाहट डूब गई तो उन्होंने कार की स्पीड बढ़ा दी, ‘साढ़े दस बज रहे हैं...सिन्हा साहब ने तो दस बजे ही मिलने को कहा था...कहीं निकल न जायें ... आज उनसे बात पक्की कर ही लेनी है...चाहे कुछ भी माँगें...इस बार भरपूर आदेश चाहिए उन्हें...’
     कार चीं...की आवाज के साथ सिन्हा साहब की कोठी के सामने रुकी |  सिन्हा साहब बाहर लॉन में ही कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे | देखकर भुवनेश्वर दत्त को तसल्ली हुई |
     “सिन्हा साहब, नमस्कार !”
     उत्तर में सिन्हा साहब ने अखबार सामने रखी मेज पर दिया तथा उँगली से भुवनेश्वर दत्त को पास पड़ी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया |
     “सर ! इस बार आपकी विशेष कृपा चाहिए |” चुप्पी को तोड़ते हुए भुवनेश्वर दत्त ने कहा |
     सिन्हा साहब की प्रश्नभरी दृष्टि उनकी ओर उठी |
     “सर ! इस बार बिटिया की शादी तय हो गई है |”
    “बहुत खूब भुवनेश्वरजी ! सब यही कह रहे हैं...क्या यह कोई नया तरीका है...?”
     सुनकर भुवनेश्वर दत्त सन्न रह गए हैं |
     ठक-ठक...ठक-ठक...कार लालबत्ती पर खड़ी है...खिड़की पर लगातार ठक-ठक हो रही है | ००
         पता : 138/16 त्रिनगर , दिल्ली—110 035,
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    लघुकथा - 92
                                  फैसला
                                                - बलवीर सिंह पाल
   "मैंने उसी समय कहा था......फिर भी तूने इस जूठन को लाकर घर में रख लिया......अब भुगत।"
   कुसमा बड़बड़ाये जा रही थी। श्यामा को रह रह कर उल्टियां आ रहीं थीं, सिर दर्द कर रहा था, पाँव भारी हो रहे थे। अर्विन्द ने श्यामा को कुल्ला करा कर चारपाई पर लिटा दिया और आँगन में पड़ी गंदगी
को साफ करने लगा।
      कुसमा फिर बकने लगी, "कुतिया, हरामजादी। मर क्यों नहीं गयी। तारने चली आई हमारे खानदान को।"
"माँ......।" अर्विन्द गुस्से से काँप उठा।
"बोल-बोल! चुप क्यों रह गया? क्या यही एक इन्द्र की परी बची थी?? उधर ही मर खप जाने देता इस कलमुँहीं को, मैं तेरी एक नहीं
दस शादियां करवा देती।"
"माँ मुझे हैरत है! एक स्त्री हो कर तुम........इसमें श्यामा का क्या दोष है.....? उसके साथ बलात्कार हुआ है, उसने जान बूझ कर तो नहीं किया?? सोचिये कि उसकी जगह पर आप होतीं और आपके साथ....... ।"
"नहींऽऽऽऽऽऽऽ ऐसा मत कहो।ईश्वर करे दुश्मन के साथ भी ऐसा न हो।" श्यामा फफक-फफक कर रोने लगी।
"श्यामा तुम चुप हो जाओ। मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूँ। यह मेरा फैसला है।" ००
           पता : पुरा चंद्रहंस , सहसों , इटावा - उत्तर प्रदेश
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लघुकथा -  93
                               असली चेहरा
                                                      - अर्चना मिश्र
            
        अंकिता को लगा कोई जोर- जोर से दरवाज़ा खटखटा रहा है। घर मे बेल लगी है  फिर भी....
      भुनभुनाते हुये जैसे ही अंकिता ने दरवाजा खोला। सामने  साँवले रंग की,  बिखरे बाल ,रंग उतरी फ्रॉक पहने  एक लड़की खड़ी थी।
          " माँ ने मुझे भेजा है। "
       वो अस्पताल में है । मैं काम करने आयी हूँ।
        अब चौकनें की बारी अंकिता की थी। अभी तो "तीसरा महीना " ही चल  रहा था लक्ष्मी का। 
    अस्पताल में क्यों है तेरी माँ ?
     डॉ. ने बताया " लड़की " है  तो बाबू ने भर्ती करवा दिया।
       ठीक है, अंदर आ जाओ।  
  आधे घंटे बाद वो फिर सामने थी।
         "अब क्या हुआ ? "
    हो गया आंटी । अब मैं जाऊँ।
  रुको!  मैं देखती हूँ कोई काम छूटा तो नही।  हाँ, अपना नाम तो बताओ।
      " गुंजन "
     गुंजन से बात करने में अंकिता को मज़ा आ रहा था।
    गुंजन !  तुम पढ़ने जाती हो ?  एक दो दिन गई थी, फिर माँ ने मना कर दिया।
        क्यों ?
हमारे यहाँ लड़कियाँ नहीं पढ़ती।
   " पढ़ने से कुछ नहीं मिलता।"        
     खाने के लिये काम पर जाना पड़ता है। माँ ने बताया है।
     ऐसा नहीं है ।  खूब पढ़ने से बहुत सारे काम मिलते हैं।
     " सचमुच आंटी?"
      " हाँ । "
      गुंजन सब काम करने के बाद फिर अंकिता के पास आ खड़ी हुई।
      क्या है ? कुछ कहना है मुझसे ?
     गुंजन ने 'हाँ ' में सिर हिलाया।
         आंटी मैं पढूँगी।
  सुनते ही अंकिता खुश हो गयी।
    कल से मैं स्कूल जाऊँगी। सुबह काम पर नहीं आऊँगी।
        सुनते ही अंकिता चिंतित हो गयी। कामवाली कितनी मुश्किल से मिलती है यहाँ।
      इसे कहते हैं।
   "अपने पैर पर आप कुल्हाड़ी मारना।"   ००

    पता : 6/8 अमलतास परिसर ,मनीषा मार्केट के पास ,
              शाहपुरा ,भोपाल 462039 मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 94
                                  बंधन
                                      - अम्बिका कुमार शर्मा(राजा)
     "इसे इतना सुंदर बनवाने की और इतना पैसा खर्च करने की क्या जरूरत थी?" विधायक पत्नी मीरा, अपने विधायक पति के करोड़ो की लागत से बने नये कार्यालय को देख कर सोच रही थी।
    "आइये भाभी जी मैं आपको इस बंगले का कोना कोना दिखाता हूँ" विधायक जी का पी ए मख्खन लगाने बाली भाषा मे बोला । 
        "हूँ"
          बोल कर मीरा पीछे पीछे चल दी।
          दरअसल जब नये बंगले कार्यालय का उदघाटन था तब मीरा के मायके में शादी पड़ जाने के कारण मीरा आ नही पाई थी तो आज अचानक बिना किसी को बताये मीरा अपना घर जिसे विधायक जी ने कार्यालय नाम दिया था, देखने चली आई।
       विधायक जी क्षेत्र गये थे तो उनका पी ए मीरा को घर दिखा रहा था।
       हर कमरा बड़ी खूबसूरती से सजाया गया था।एक कमरे में दो खूबसूरत लड़कियां बैठी थी जिन्हें देख कर मीरा ने लगभग चौकते हुये पूँछा "ये कौन है?"
"ये विधायक जी से मिलना चाहती है उनकी प्रतीक्षा कर रही है" पी ए ने बताया।
      "तुम लोगो को सुबह आना चाहिये  अब रात होने जा रही है कब तक इंतजार करोगी?" मीरा ने उन लड़कियों से कहा।
"मेम, हम सुबह ही आई थी विधायक जी से बात भी हो गई है उन्होंने ने ही शाम को मिल कर जाने के लिये कहा है" एक लड़की बोली।
      मीरा शाम को मिल कर जाने का अर्थ अच्छे से समझ रही थी। कुछ नही बोली, घर देखने को आगे बढ़ गई।
      "अरे मीरा तुम यहाँ? कैसा लगा अपना नया घर?" क्षेत्र से वापस आकर विधायक जी ने झूठी खुशी दिखाते हुये पूँछा।
       "घर तो ठीक है, लेकिन आप नही मानेंगे? मैं पहले भी कई बार कह चुकी हूँ,जब इन निर्बल, असहाय और मजबूर की आह लगेगी तब आपको अपने भागने के लिये जमीन नही मिलेगी, ये शाम को मिल कर जाने बाला कार्य बंद कर दीजिये" मीरा ने एकांत में बहुत प्यार से विधायक जी को समझाया।
        "वो क्या है तुम रोज तो साथ नही रहती न और ये दिनभर की भागदौड़ चिंताये सबको दूर करने के लिये कुछ तो मनोरंजन भी चाहिये न" विधायक जी वेशर्मी से मुस्कुराते हुये मीरा के गले मे हाथ डालते हुये कहा।
      मीरा कुछ नही बोली।
       समय बीता, एक दिन एक लड़की ने विधायक जी के विरुध्द आवाज उठा दी फिर क्या था सोसल मीडिया, प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सब पर विधायक जी के महिलाओं के शोषण की खबरे छा गई। पार्टी हाईकमान से भी चेतावनी मिल गई। विधायक जी पुलिस, सीबीआई से भागते छिपते घूम रहे थे।
       "मैंने कई बार आपको आगाह किया था इन बेबस मजलूम की आहे न लो लेकिन आप नही माने" मीरा ने अपने कमरे में छिपे विधायक जी से कहा।
       "तुम मुझे ज्ञान न दो बस इतना बताओ आज मैं फसा हूँ तो मेरा साथ दोगी या नही?"विधायक जी ने क्रोध भरे लहजे में पूँछा।
      "जिस दिन पत्नियों ने अपने पति और माँ ओ ने अपने पुत्रों के ब्याभिचार के विरुद्ध आवाज उठानी शुरू कर दी उस दिन ब्याभिचार की घटनाये नाममात्र की हो जायेगी" सोचते हुये मीरा ने पूँछा "मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ?"
      "बाहर मेरे समर्थकों की, विरोधियों की, पत्रकारों की भीड़ खड़ी है उन्हें समझाओ की मैं चरित्रवान हूँ, वो लड़की झूठ बोल रही है" विधायक जी ने कहा।
     मीरा कुछ सोचते हुये बाहर की ओर चल दी।
     "साथियों, आप सब जानते है कि आपके विधायक जी हमेशा दूसरों का भला करने की बात ही सोचते है, जब उनके विरोधियों को कुछ नही मिला तो ये पैसों में बिकी हुई लड़कियों का प्रयोग आपके विधायक जी को फसाने में करने लगे, ये चंद पैसों में बिकी लडकिया आपके विधायक जी को बदनाम करने का षणयंत्र रच रही है। मेरे पति तो हमारे घर मे काम करने बाली औरतों को अपनी बहन बेटी जैसा सम्मान देते है, वो क्या किसी लड़की का शोषण करेंगे? मैं उनकी पत्नी हूँ मैं बता रही हूँ विधायक जी की उम्र हो चली है उनमें आज इतनी क्षमता ही नही है कि वो किसी भी स्त्री से संबंध बना सके,विश्वास कीजिये कोई भी महिला अपने पति के ये राज भरी सभा मे नही बताती लेकिन आज जब उनके विरोधियों ने उनके खिलाफ साजिस की है तो मैं सच्चाई बताने पर मजबूर हूँ। ये सब आपके विधायक जी के खिलाफ साजिश रची गई है जिसका जबाब आपको देना है" बोल कर मीरा सीधे अपने कमरे में आ गई।
     "जबाब हम देगे विधायक जी जिंदाबाद" के नारे गूँज रहे थे, सुन कर विधायक जी मुस्कुरा रहे थे।
      इधर मीरा अपने कमरे में दर्पण के सामने खड़ी मंगलसूत्र को हाँथ में पकड़े मंगलसूत्र से बोल रही थी
     "तुम्हारे बंधन के कारण मुझे और कितनी बार सब जानते हुये भी मख्खी निगलनी पड़ेगी?" ००
    पता : अमृत नगर कालोनी, गाँधी नगर,
              महोबा - उत्तर प्रदेश
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लघुकथा - 95
                            पिता की सोच
                                                     - सुनील प्रकाश
"मां,आज फिर उसने मेरा पीछा किया।मुझे बड़ा डर लग रहा है।"मनु सिसकते हुए बोली।
"क्यों बाहर अकेली जाती हो?कितना समझाया पर अक्ल में कुछ घुसता ही नहीं।कुछ ऊंच नीच हो गयी तो भुगतना।भइया के साथ जाया करो।।"मां परेशान सी बड़बड़ाये जा रही थी।
"अरे तुमको भी समझ नहीँ आता।लड़की बाईस की हो गयी।अब तो शादी की बात करो।"तभी पिताजी को घर में घुसते देख मां बरस पड़ी।
पिताजी ने मनु को सिसकते देख कर स्थिति भांप ली।
"चल बेटी,आंसू पोछ और मेरे साथ जूडो-कराटे की क्लास में चल।तू अपने हौसले बुलंद कर । खुद को मजबूत बना।मैं और भइया तो तेरे साथ है ही।"
पापा की बात सुन मनु को लगा  कि सूर्य अभी उदित होकर अपनी रश्मियों से उसका मार्ग प्रशस्त कर रहा हो। ००
पता : ई-14 शालीमार गार्डन
कोलार रोड, भोपाल-462046  मध्यप्रदेश
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लघुकथा - 096 
                             असली हिजड़े
                                               -    सुधीर कुशवाह
      टैम्पो से वे छः सात ठसाठस लोग एक साथ नीचे उतरे.
हाय हाय और तालियों के अलग अन्दाज ने बता दिया कि वे आ गये हैं.आसपास के घरों के लोग अपने अपने छज्जों से किसी तमाशे झगडे और नंगनाच की उम्मीद में झाँकने लगे थे.
        सुरेश फटाफट दौड़कर नीचे गया..उसने मुस्कराते हुये उनमें से कुछ से हाथ मिलाया और कुछ से हाथ जोड़कर नमस्ते की.और सुरेश के बेटे ने बड़ों के नाते सबके पाँव छुए .उन्होंने पूछा क्या इसी की शादी हुई है .सुरेश के हाँ कहते ही सबने बेटे का हाथ और माथा चूमते हुये बहुत दुआएँ दीं.सुरेश सबको सम्मान से ऊपर घर में लाए.उनके घर में आते ही पूरे घर ने खड़े होकर उनका सम्मान किया .बहू ने कुछ सगुन दे देकर सबके पाँव छुए और जीभर उनकी दुआएँ लीं .सब साथ बैठे ,जमकर पूरे परिवार के साथ चाय नाश्ता हुआ ..इसके बाद सुरेश ,सुरेश के बेटे बेटी और बहू सब इनके साथ देर तक नाचे और जमकर मस्ती की..फिर सबने साथ खाना खाया..
       आख़िर में पान खाकर जब ये सब वापस चलने को हुये तो सुरेश ने इनके हाथ पर एक लिफाफा रख दिया, लेकिन बहुत अनुनय विनय और आग्रह के बाद भी इन्होंने यह कहते हुये लिफाफा वापस कर दिया कि सर जी हम सब जिन्दगी भर जहाँ गये हिजड़े ही बनकर गये ..आज पहली बार आपने अपने बच्चे की शादी में हमें कार्ड देकर इन्सान की तरह बुलाया है .बहू ने शगुन दे दिया अब कुछ भी लेना बाकी न रहा .
        इसके बाद वे सब जाने के लिये नीचे उतर आये ..और वे अपने परचित टैम्पो वाले को काल करने लगे तो सुरेश ने उनका हाथ पकड़ लिया .इसी समय सुरेश का बेटा इनोवा के दरवाजे खोलते हुये बोला ..चलिये बैठिये मै आपको घर तक पहुँचाकर आता हूँ .
         वे हतप्रभ से सुरेश को देखते हुये इनोवा में बैठने लगे .तभी किसी ने अपने छज्जे से सामने वाले छज्जे पर खड़े व्यक्ति को आवाज लगाई ..ओए देख हिजड़े इनोवा से जा रहे हैं ..अचानक सबसे आगे की सीट पर बैठने वाला शख्स गाड़ी से नीचे उतरा और छज्जों की ओर सर उठाकर अपना सीना ठोंकते हुये दहाड़ा ..ओए सुन ..हाँ हम हिजड़े हैं ..हैं हिजड़े ..लेकिन तुम सब भी मर्द नहीं हो ..मर्द तो बस ये हैं सुरेश जी , इन्होंने हमें इन्सान समझा ..इन्सान की तरह कार्ड देकर बेटे की शादी में बुलाया और इन्सान की तरह ही इनका बच्चा हमें भेजने जा रहा है .
         और सुन हम तो वो हिजड़े हैं जो कहीं भी दुआएँ देने के लिये जाते हैं , लेकिन तुम सब तो वो हिजड़े हो जो इंसानियत के नाम पर बददुआ होते हैं .थू है तुम सब पर..
फिर वे गाड़ी में बैठकर चले गये थे और अपने पीछे असलीहिजड़े छोड़ गये थे. ००
               पता :  316 तानसेन नगर - ग्वालियर (म.प्र.)
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लघुकथा - 097
                                वह खत
                                          -  पं.संजीव शुक्ल "सचिन"
मन बड़ा उदास था कई दिनों के निर्थक भाग दौड़ का आज समापन जो हुआ था वह भी घोर अनिश्चितता के साथ। आज मैने निश्चय कर लिया था अब बस …… कल ही घर वापस चला जाऊंगा , नौकरी ना मिली ना सही ……अब घर चल कर वहीं कोई रोजी रोजगार कर लूंगा किन्तु अब फिर कभी …..भूल कर भी….. किसी बड़े शहर का रुख नहीं करूँगा।
लेकिन कुछ ही पल बाद मन के किसी कोने से निकलने अनिश्चितता के बादलों ने आश रूपी उस सूर्य को अपने आगोश में ले लिया…. कि घर में कौन सा खजाना गड़ा हुआ है जो वहाँ पहुचते ही खोद कर निकाल लूंगा और उससे अपने रोजगार का श्री गणेश कर लूंगा।
इन्हीं सोचों के कारण मन अत्यधिक उद्विग्न व दुखी था।समझ नहीं पा रहा था करूँ तो क्या करूँ …? ……इस व्यथा से मन को बहलाने के लिए मैने वह ब्रिफकेस खोल लिया जिसमें अपना फाईल दो चार कपड़े लेकर मैं दिल्ली आया था ।
उस फाईल में मेरे सर्टिफिकेट के आलावा जो सबसे बहुमूल्य समान रखे हुए थे वह वे तमाम खत थे जिन्हें मैने कालेज टाईम से लेकर शादी के बाद तक किसी को लिखा था पर पोस्ट नहीं कर पाया था …..या जो खत किसी और ने मुझे भेजा था
……उन खतों को मन बहलाने के लिए बारी बारी से खोलने व पढऩे लगा….पापा एवं माँ के हाथो रचित खत …..मेरे जीवन के प्हले प्यार का पहला खत ….किन्तु फिर भी मन को चैन न मिला …..किन्तु तभी वह खत मेरे हाथ लगा जिसने मेरे जीवन को एक नया आधार प्रदान किया और मैं खुद को दिल्ली जैसे शहर में स्थापित करने में कामयाब हो सका।
वह खत मेरे मित्र चन्द्र शेखर ने अपने उन संघर्षकाल में मुझे लिखा था।
उस खत के कुछ अंश……
“मित्र हार और जीत के बीच मामुली सा अन्तर होता है जो आपके सोच में समाहित होता है, मन के सोचे हार है मन के सोचे जीत …..मित्र मैनें बहुत कठिन संघर्ष किया एक अनजान शहर में बिना थके , बिना डरे और बिना हारे, परिणाम आज खुद को बेहतर और अति व्यस्त हालत में पा रहा हूँ”……!!!   00
पता : मुसहरवा (मंशानगर)
        पश्चिमी चम्पारण - 845455 ( बिहार )
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 लघुकथा - 098
                     बाबूजी के बचाये हुए पैसे
                                                - डा दाता राम नायक
छोटे परिवार में बेटे-बहू सरकारी नौकरीपेशा, महीने चालीस पचास हजार की आय, जो गांव देहात के लिए पर्याप्त है। माँ-बाप ने गरीबी और खराब माहौल के भारी प्रदूषण से बेटे को तराशा, हीरा बनाया था। क्या नहीं किया उन्होनें? सब कुछ जो कर सकते थे, किसान पिता का अपनी खेती से दुसरो की मजदूरी तक। एक-एक पैसा कमाया और बचाया, यही मजबूरी आज आदत हो गयी जो बेटे को पसंद नही। बेटा उनको समझाता है पांच-दस में क्या रखा है, पांच-दस से क्या होगा…आदि। किन्तु माँ बाप कहाँ मानते उन्होंने एक-एक पैसा से ये हीरा तराशा है।
वेतन आते ही लग्जरी समान आ जाते। महीने की तनख्वाह फिर मिली, इस बार नई स्कूटी घर आयी। पखवाड़ा शेष था कि अचानक बीमा की क़िस्त का आगमन..पुराना बकाया, लेप्स हो चुका था। उसका रिनीवल जरूरी था वरना जमा पूंजी मुसीबत में आ जाती। घर मे बचे रुपयों को जोड़ा गया, 7 हजार कम पड़े, सबके चेहरे में शिकन, हो भी क्यो ना…सरकारी दांव पेंच में फंसना, जमा पूंजी के मिलने न मिलने की उलझन, और कई सवाल। दुसरो से उधारी मांगने की बनी। उधारी कोई भी देता सरकारी तनख्वाह जो है किंतु गाँव में जहाँ फसल कटने पर किसान वेतन पाते हैं उनके लिए बड़ी रकम थी। कुछ हाथ खड़े कर दिए। तभी बाबूजी खेंतों से आए, स्थिति को भाँपा…फिर अपनी पोटली निकाली। जमा पांच-दस रुपये जो सौ-पचास हो गए थे, उनकी गिनती किये। बेटा उत्सुकता से देखता रहा….पूरे 11 हजार, सबके चेहरे में खुशी आयी घर के इस ग्रामीण बैंक से…..।
तनख्वाह से कम लेकिन बेशकीमती, इन पैसों ने बेटे की आंखे खोलते हुए इनमें लक्ष्मी के प्रति सम्मान की मोतियाँ भर दी । बेटा सोचता रहा, कैसे खर्च करूँ इनको, कोई धरोहर से कम नही है……..बाबूजी के बचाये हुए पैसे । ००
पता : ग्राम- सुर्री, पो.आ.- तेतला, तह.- पुसौर
         जिला – रायगढ़ (छत्तीसगढ़) 496100
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 लघुकथा - 099
                                माईन्ड गेम
                                                      - राजू गजभिये
मोहन भाई और श्याम भाई दोनों बहुत खुश नजर आ रहे थे।
क्योंकि दोनों जादूगर के समान अपने माईन्ड गेम से पूरा गेम ही
अपने पाले में करते थें।
वह कैसे भाई ….
बहुत सरल हैं भाई , मोहन भाई का गेम …..
सबसे पहले ऐसे सदियों से मांगने वालों को दरकिनार करों , मांग खत्म करों , उनके मांग में दरार डालों। उसके बाद मांगने वाले तिलमिलाहट हो गये कि ऊपरवाले खुश फिर श्याम भाई का गेम …..
यह कैसे हो सकता है, ” मांगने वालों की मांग हमेशा-हमेशा मिलते ही रहेगी ….. ।
यह दो शब्द बोल दो …. यह कभी खत्म ही नहीं हो सकती? अब मांगने वाले खुश …..।
वाह …. ! वाह …. ! क्या बात है,
कमजोर करों तो ऊपरवाले खुश ….
हमेशा-हमेशा मिलतीं रहेंगे बोल दो तो नीचे वाले खुश …. ।
ऊपरवाला-नीचेवाला को खुश करते रहों , जो मुलभुत आवश्यकता उसे फुस्स करों ।
क्या दग़ा, क्या साज़िशों का
माईन्ड गेम है भाई। ००
पता : दश॔ना मार्गदर्शन केन्द्र , बदनावर
          जिला धार - मध्यप्रदेश
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   लघुकथा - 100
                                उपाय
                                          - प्रमोद कुमार गोविल
                                         
वे महकमे में ऊंचे पद पर थे। देखते-देखते उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे।एक दिन प्रेस कांफ्रेंस में मीडिया द्वारा घेर लिए गए-"आपके ख़िलाफ़ शिकायतें बढ़ती क्यों जा रही हैं?"
कभी बचपन में किसी कारण थोड़ी  रामायण पढ़ी थी। उन्हें याद था कि लांछन लगने पर सीता ने धरती माता को पुकारा था और धरती फट गई थी। सीता उसमें समा गई थी।
उन्होंने भी धरती मां को पुकारा। और शिकायत करने वाले एक - एक कर धरती में समाने लगे। ००
         पता : बी -301, मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी ,
                  447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर ,
                   जयपुर-302004 (राजस्थान)
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Comments

  1. बहुत शानदार प्रस्तुतिकरण. सभी रचनाकार साथियों को हार्दिक बधाई.
    35 नम्बर की लघुकथा में- मेरे पते में राजस्थान की जगह मध्यप्रदेश अंकित कर दीजिएगा. सादर निवेदन हैं. मैं मध्यप्रदेश के रतनगढ़ में रहता हूँ.

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    1. आप की इच्छा अनुसार पतें में सुधार कर दिया गया है।

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    2. सर नमस्कार . एक खूबसूरत अंक के लिए आपको एवं सभी सम्मानित रचनाकारों को हार्दिक बधाई . आप यूं ही रचनारत रहें यही शुभेच्छा है .

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    3. बहुत सुंदर व प्रभावी लघुकथाओं का संचयन एक साथ साहित्य उसमें भी लघुकथा के लिए महत्वपूर्ण आरम्भ सभी को शुभकामनाएं

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  2. सभी लघुकथाकारों को एक जगह लाने का यह प्रयास निस्संदेह सराहनीय है | शुभकामनाएँ |

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  3. लघुकथाओं का एक और संसार।
    बधाई प्रेषित है

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  4. बहुत आभार कि आपने मुझे स्थान दिया । सभी रचनाएँ पढ़ूँगा तब विस्तृत लिखूंगा

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  5. बेहतरीन लघुकथाकारों को एक जगह लाने और उम्दा कथाओं का एक अनूठा संकलन बनाने का यह प्रयास निस्संदेह सराहनीय है| मेरी ओर से सभी मित्रों को शुभकामनाएँ| और आदरणीय बिजेंदर को मेरी रचना को ( ३१ ) स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद के साथ साधुवाद...

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  6. बेहतरीन सृजन संग्रह। संग्रहणीय व‌ मार्गदर्शक। आप सभी को तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और शुभकामनाएं।
    - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
    शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
    473551
    9406589589
    8717910089

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    Replies
    1. आप भी अपनी श्रेष्ठ लघुकथा शीघ्र भेजने का कष्ट करें। ई-मेल : bijender1965@gmail.com

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    2. ई-मेल एड्रेस पर एक रचना अवलोकनार्थ प्रेषित कर दी है।‌
      शेख़ शहज़ाद उस्मानी
      शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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    3. आदाब। क्रमांक 67 पर मेरी पसंद की गई लघुकथा 'मुखाग्नि' यहां प्रतिस्थापित करने के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया और आभार। अगले संस्करण की सूचना की प्रतीक्षा रहेगी। सादर
      - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
      (12-05-2018)

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  7. शानदार प्रस्तुतिकरण, रचनाकार साथियों को हार्दिक बधाई. मेरी रचना को स्थान देने के लिए साधुवाद !

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  8. सर, लजाबाब संग्रह है अच्छे लघुकथाकारों का। सराहनीय प्रयास। हार्दिक आभार मेरी लघुकथा "डर" को स्थान देने के लिये।

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    Replies
    1. प्रयास है कि सभी लघुकथा कारों को शामिल किया जा सके। कोई भी लघुकथाकार अपनी श्रेष्ठ लघुकथा ईमेल से भेज कर शमिल हो सकतें हैं।
      ईमेल : bijender1965@gmail.com

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  9. मेरी कथा को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय ।
    साथ ही इतनी लघुकथाओं को एक जगह संग्रह करने के प्रयास हेतु हार्दिक शुभकामनाएं । साधुवाद

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  10. आदाब।
    आज इस संकलन की कुछ बेहतरीन लघुकथाएं पढ़ सका। अपने वरिष्ठजन की सार्थक और मानकों पर संतुलित उद्देश्यपूर्ण लघुकथाएं पढ़ कर बहुत कुछ सीखने और अपनी रचनाओं के मूल्यांकन करने का अमूल्य अवसर मिलता है।
    सभी लघुकथा अभ्यर्थियों की बेहतरीन पसंदीदा लघुकथा शामिल करते जाने का विचार बहुत ही भावपूर्ण, सराहनीय और महत्त्वपूर्ण है। सादर हार्दिक बधाइयां आप सभी को और सम्मानित सम्पादक प्रकाशक महोदय को तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार।
    (जब कभी भी दूसरी रचना इसी संकलन में जोड़ने का विचार या निर्णय हो, तो लाभान्वित होना चाहूंगा। क्या पुस्तक प्रकाशन हार्ड कॉपी की भी योजना है?)

    - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
    शिवपुरी (मध्यप्रदेश) 473551

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  11. Good Efforts in the field of literature through not even the collection but demand of views of writers and readers too .
    I appreciate all .

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  12. आदरणीय मित्र,
    जय हिन्दी ! जय भारत !

    आशा है स्वस्थचित्त होंगे । कृपया निम्न जानकारी WhatsApp No. पर शीध्र भेजें : -

    1. आपकी प्रथम लघुकथा (नाम भी दीजिए) किस पत्र/पत्रिका/पुस्तक में तथा कब प्रकाशित हुई?

    2. आप अपना जीवन परिचय ( नाम , जन्म दिनांक व स्थान , शिक्षा , प्रकाशित पुस्तकों का विवरण आदि ) तथा एक फोटों

    कृपया उपरोक्त समस्त जानकारी टाइप कर के भेजें। केवल WhatsApp के माध्यम से शीघ्र भेज दीजिए।
    इस एकत्रित सामग्री का उपयोग समयानुसार blog पर प्रसारित किया जाऐगा ।

    निवेदन
    बीजेन्द्र जैमिनी
    निदेशक
    जैमिनी अकादमी
    पानीपत
    WhatsApp Mobile No 9355003609

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