लोकतंत्र का चुनाव ( लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

सम्पादकीय      
                विश्व में लोकतंत्र का अपना महत्व है । जो समय समय पर परिवर्तनशील होता है । भारत भी लोकतंत्र पर ही कामयाबी हासिल हुई है । चुनाव के लिए अनेक तरह की कार्यप्रणाली अपनाई जाती है ताकि जनता अपने मत का प्रयोग हमारे पक्ष में करती रही है । कार्यप्रणाली के विभिन्न रूपों को देखने के उद्देश्य से इस लघुकथा संकलन का सम्पादन किया जा रहा है ।  
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क्रमांक - 01                                                             

                                आजमाइश
                                        - डा. अंजु लता सिंह 
                                                  दिल्ली

आज कनक का मैसेज पढ़कर उसके आग्रह पर  दस सशक्त चुनावी नारे लिखकर मैंने उसे भेज दिये.
पार्षद के पद पर चुनाव लड़ रही है मेरी छोटी ननद.उसके आमंत्रण पर मैं उसके पास अगली सुबह ही पहुंच गई .
-भाभी!आपके आने से जी खुश हो गया मेरा तो.रैलियों में दिन-रात साथ देना मेरा...आप आगे आगे चलोगी मेरे साथ..जाने कैसे इस बार तो इन्होंने खुद की जगह मुझे ही खड़ा करा दिया.
-अरे मम्मी! गांव में महिला संख्या जादे है ना इस दफै...फिर  आपकी महिला मंडली,समाज सेवी संस्था, किट्टी पार्टी,स्कूल की सखियां वगैरहा..
पापा का दिमाग खूब चला है इस दफै तो...
ननद का किशोर बेटा छूटते ही बोला
-कुछ भी हो बेटा हमारी कनु जीतनी चाहिये..बस..मैं बोली.
-मामी जी!रैली में बोलने के लिये  चुनाव-चिह्नों पर आधारित दो एक धांसू स्लोगन और लिख मारो..आप तो हिंदी की धुरंधर टीचर रही हो.
सुबह नहा धोकर छै:बजे से रात बारह बजे तक रोज ही गांव के सभी मुहल्लों में पैदल मार्च करना,  मीठा बोलकर झूठे सच्चे वादे करना,परले मुहल्ले के लगभग हर घर में जाकर कुछ बालकों की बहती नाक पोंछना,  वहां चूल्हे पर चढ़ी गुड़ की मीठी चाय पीना,भिनकते कूड़े के ढेरों पर जाकर पाॅलीथीन चुगना,बड़ी बूढ़ियों के पैर छूकर आशीष लेना सहज से काम हो गए थे   मेरी ननदरानी के लिये. 
    महिलाओं में कनु की बढ़ती  लोकप्रियता का अनुमान भोर में रैली के लिये घर के आगे रोज ही बहुसंख्यक  औरतों का हुजूम लगना था.फ्री खाना,पीना भी आगंतुकों के लिये आकर्षण का केंद्र बिंदु था.
रैली में लाउडस्पीकरों पर घर की सेविका हीरा  तैनात रहती उसका पूरा परिवार  नारे लगाने का काम दिहाड़ी पर कर रहा था 
सबके चेहरों पर अलग सी रौनक नजर आती थी.
-लगता है कुछ... भाभी जी!कुछ कर  भी पाएगी आपकी ननद?
-अरे क्यों नहीं नंदोई जी!पक्का जीतेगी. झांसी की रानी बन गई  है बिल्कुल..आपसे तो ज्यादा ही मेहनत कर रही है कनु.
-कल विधायक आ रही हैं अपनी पार्टी  की..गांधी मैदान में भाषण होगा.अपना एजेंडा भी रखेंगी. इन्हें सपोर्ट  करने,माहौल का जायजा लेने भी ...कुछ बताएंगी भी.आप गांव में ही देखना हम वहां संभाल लेंगे वैसे भी वहां मर्द वगैरह ज्यादा होंगे गुंडागर्दी  का भी डर है.
तभी घर के गेट से नियमित रूप से रवाना होती रैली के कारवां से
आते हुए ऊंचे स्वर हवा में तैरने लगे थे..
-उगता सूरज ...अपना है
  रोशन सब जग ..करना है
  नारी को... देंगे अधिकार
खुश होगाअब...हर परिवार
    वापस लौटते हुए ननद के सर पर हाथ रखकर मैंने कहा-सब ठीक होगा कनु...गीता का सिद्धांत याद रखो बस. 
फोन की घंटी बजी
कान से लगाया तो कनु की रूआंसी आवाज गूंज रही थी
-भाभी!मैं हार गई ..बस पचास  वोटों से.विरोधी पार्टी वालों ने वोटिंग से पहले दिन वाली रात में घर-घर छपे हुए मंत्रों वाले कागजों के बीच दो दो हजार  के कड़क नोट और शराब की छोटी बोतलें धरवा दी थी.
अबकै फेर खड़ी  होऊंगी... हार ना मानूं..
आपने बड़ा  हौसला दिया था भाभी. इसी बहाने अपने पराए  को तो आजमा ही लिया.अगली बार फिर आजमाऊंगी अपने भाग्य को.ये चुनाव होते ही भाग्य आजमाने के लिये हैं. ***
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क्रमांक - 02                                                            

                                एनकाउंटर
                                            - विजयानंद विजय
                                                बक्सर - बिहार 

         टीवी पर न्यूज फ्लैश हो रही थी  - " आईपीएस रविंद्रन जेल से रिहा। "
                  मुरली बाबू पाँच साल पहले की कयामत की उस रात को नहींं भूूूल पाए थे, जब ऑफिस से घर लौटते समय एनकाउंटर मेें पुलिस ने उनके इकलौते बेटे विशाल को भी  मार दिया था और, व्यवस्था और पुलिस ने मारे गये आतंकवादियोंं केे साथ उसे भी आतंकवादी घोषित  कर दिया था....। 

              मुरली बाबू के घर आज न तो चूल्हे जले, न ही किसी के गले से एक घूँट पानी उतरा । तड़पती-कलपती बूढ़ी आँखों से बेबसी के दो बूूँँद टपके, और.... संंवेदनाओंं का समंदर मानो सूख गया। न्याय की दहलीज़ पर तड़प-तड़पकर सत्य ने दम तोड़ दिया था।

                 समय-चक्र अनवरत चलता रहा। न्याय की अंतहीन आस में मुरली बाबू की उम्मीद की आखिरी डोर भी टूट गयी, जब चुनाव के महायुद्ध मेंं जीतकर हत्यारा ही जनता का रहनुमा बन गया।
         स्वार्थ, सत्ता और राजनीति की सड़ांध भरी नदी में डुबकी लगाकर  झूठ पवित्र और पापमुक्त हो गया। झूूूठ के हाथों  सत्य का ही एनकाउंटर हो गया, और.... इंंसानियत  के किसी अँधेरे कोने से उठती बेबसी की बेआवाज़ चीख सन्न्नाटे को चीरती रही.....।***
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क्रमांक - 03                                                               

                        चुनाव भी एक त्यौहार हैं 
                                                 - अंजली खेर
                                              भोपाल - मध्यप्रदेश

कहते हैं ना "जस नाम तस गुण"   सो गहना को गहनों से बेहद लगाव था !  कोई भी छोटा -बडा अवसर हो ..वह इतने अच्छे से तैयार हुअा करती कि देखने वाला भी खुश हो जाता  !
उस दिन भी उसने नये गुलाबी लहंगे  के साथ वेंदी ..पायल ..झुमके और हाथों में दर्जनों गुलाबी चूड़ियाँ पहन रखी थी ! घर से निकलते समय उसके पति ने पुछा -"अरे गहना..ये कोई शादी ब्याह थोडे ही  ना हैं जो इतना saj-धज के जा रही हो !"
गहना ने ज़वाब दिया -"अजी ..चुनाव भी तो त्यौहार की तरह ही हैं यदि मेरे मतदान से अच्छा काम करने वाली पार्टी की सरकार बनेगी तो देश में हर ओर खुशहाली रहेगी और जब लोग खुश रहेंगे तो हर दिन उत्सव की तरह रहेगा   और हर उत्सव के लिए मैं यू हीं सजुन्गी ...-धजूंगी  !"
अरे वाह गहना ..कितना गहरा सोचती हैं रब तू - पत्नी की दूरदर्शी सोच पर मुस्कुराता गहना का पति बोला 
फिर दोनों कदमताल मिलाते हुये मतदान केंद्र की ओर चल पड़े .. । ***
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 क्रमांक - 04

 एक फिल्मी चुनाव 
                                       - सेवा सदन प्रसाद
                                          मुम्बई - महाराष्ट्र
                                          
" देखिए डायरेक्टर साहब , आज नेता जी का रोड शो है।आपको उसपे एक शार्ट फिल्म बनाना है।"
" ठीक है , पर शूट क्या करना है ? "
" इस रोड शो के दौरान रास्ते में एक बूढ़ी औरत मिलती है।उसकी दुर्दशा देख नेता जी द्रवित हो जाते हैं फिर एयरकंडिशन कार से उतर कर उस औरत के पास जाकर उसका पांव छूते हैं, अपना  शाॅल उसे ओढा देते हैं और हाथ में एक लिफाफा पकड़ा देते हैं ।"
" पर अच्छा होता उस बुजुर्ग महिला को नेता जी कुछ रूपये पकड़ा देते।" डायरेक्टर ने अपनी डायरेक्शन का नमूना पेश किया।
" अरे ! डायरेक्टर साहब लिफाफा में रूपये ही हैं  , कोई संवेदना पत्र या सम्मान पत्र नहीं है।अगर खुले आम नोट देंगे तो आचार संहिता का उल्लंघन होगा और विपक्ष को एक मुद्दा और मिल जाएगा।"
" ठीक है , मैं समझ गया ।आप जैसा चाहते है , वैसा ही होगा।"
" सुनिए शार्ट फिल्म एकदम जोरदार एवं भावपूर्ण होना चाहिए।खर्च जो भी  होगा , मिल जायेगा।"
" मुझे खर्च नहीं चाहिए।" डायरेक्टर ने कहा।
" क्यों ? " स्पूनलाल ने आश्चर्यचकित हो पूछा ।
" अरे साहब टी वी सर्वे के अनुसार इनकी जीत तो पक्की है।जीतने के बाद मेरी फिल्म जो डब्बे में बंद है , उसे सेंसर बोर्ड से पास कराने करा दें।"
" अरे डायरेक्टर साहब , यह तो इनके बायें हाथ का खेल है।बस इनकी जीत पक्की करें।" ***
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क्रमांक - 05

 कंबल
                                       - शशांक मिश्र भारती 
                                       शाहजहांपुर -उत्तर प्रदेश

ठण्डक से ठिठुरते होरी ने नेताजी से पूछा
साहब वोट कब पड़ेंगे
अभी तो जनवरी चल रही है ।अप्रैल में पड़ेंगे ।नेताजी ने जबाब दिया ।
जल्दी पड़ते तो तन ढकने के लिए एक कंबल मिल ही जाता ।
अपनी फटी कमीज से अधनंगे तन को ढकने का प्रयास करता होरी मन ही मन सोच रहा था । ***
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क्रमांक - 06

जागरूक मतदाता
                                               - मधु जैन
                                          जबलपुर - मध्यप्रदेश

  "कल हम न आही मेमसाब।"
"अरे! क्यों ? कल तो कोई तीज त्यौहार भी नहीं है। फिर क्यों छुट्टी ?"
सकुचाते हुए "वो का हे कल बड़े वाले मंत्री जी आ रहे है तो उका भाषण...."
"अरे वा! तुम कबसे नेताओं का भाषण सुनने जाने लगी।"उत्सुकता से
"हमें भाषण वाषण कछु समझ नई आत, बस चिल्लौट सुनाई देत हे। हम तो कानन में रुई ठूंस के जेहे।"
"फिर जा ही क्यों रही हो ?"
"ऊं का हे, हमें उते जाके झंडा पकड़ने हे,और उनकी जय जय बोलने हे। पांच सो रुपैया मिल हे ऊपर से खावे भी।"
वाह! क्या करेगी इन पैसों का।
 "मेमसाब उत्ते पैसन में दोई मोड़ियो को नई फराक ले देहे खुश हो जेहे कब से नए कपड़ा नई पहनों हे।"कहते हुए आँखें चमक उठी।
परसों तो यह कहकर नहीं आई थी।पर आज आएगी भी या नहीं सोच ही रही थी कि वह आ गई।
"बड़ी देर कर दी आज तो " 
खुश होते हुए "मेमसाब जा साड़ी देखो कैसी लग रई।"
"सुन्दर है। रंग भी अच्छा है। तू तो कह रही थी लड़कियों को फ्राक लाएगी पर अपने लिए साड़ी ले आई।"
"अरे! न मेमसाब, नेता जी बांट रए थे, लेवे में ही तो देरी हो गई, कह रहे थे हमई को वोट दईओ।"
"फिर तो तू उन्हीं को वोट देगी।"
"नाहीं! मेमसाब, वोट कोई सब्जी-भाजी तो हे नहीं, जो कोनऊ को भी दे दे।"
"फिर किसको देगी ?"
"जो अच्छो काम करहे भलई वो कछु दे न दे।"
 "बड़ी समझदार हो गई तू तो।"
"संझा को वे शहर वाले नेताजी लुगओ को दारु की बोतल और कंबल देहे । हमाओ मरद जाहे लेवे।" चहकते हुए बोली।"
"वह तो कहकर अपने काम में लग गयी और मुझे भी काम में लगा गयी।"
" सोचने के "  ***
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क्रमांक - 07

छब्बीस जनवरी
                                          - मृणाल आशुतोष
                                           समस्तीपुर - बिहार

आज वोट का दिन था। मंगरू और चन्दर दोनों तेज़ी से मिडिल स्कूल की ओर जा रहे थे।
" अरे ससुरा, तेज़ी से चलो न! देर हो जाएगा।"
" भाय, वोट के कारण सवेरे से काम में भिड़ गए थे। ठीक से खाना भी नहीं खा पाये।"
स्कूल पर पहुँचते ही देखा कि पोलिंग वाले बाबू सब जाने की तैयारी कर रहे हैं।
"मालिक, पेटी सब काहे समेट रहे हैं?" चन्दर ने हिम्मत दिखाया।
"वोट खत्म हो गया तो अब यहाँ घर बाँध लें क्या?"
"लेकिन अभी तो पाँच नहीं बजा है। रेडियो में सुने थे कि...."
" रेडियो-तेडीओ कम सुना करो और काम पर ध्यान दो। समझे।
" जी मालिक। पर पाँच साल में एक बार तो मौका मिलता है हम गरीब को, अपने मन की बात...
"तुमको ज्यादा नेतागिरी समझ में आने लगा है क्या?" सफेद चकचक धोती पहने गाँव के ही एक बाबू साहेब पीछे से गरजे।"
"चल रे मंगरु। लगता है कि इस बार भी अपना वोट गिर गया है!"
" भाय, एक चीज़ समझ में नहीं आता है कि हम निचला टोले वाले का वोट हमरे आने से पहले कैसे गिर जाता है?"
इससे पहले कि वह कुछ जबाब देता, पुरबा हवा बहने लगी और उसके अंदर से दर्द की गहरी टीस उठी,"आह!" ***
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क्रमांक - 08

उलटी चुनावी चाल
                                 - डा० भारती वर्मा बौड़ाई
                                      देहरादून - उत्तराखण्ड  
                                                                          
       दाँत काँटी रोटी वाली मित्रता थी, इसी कारण जब मित्र को पार्टी ने टिकट दे दिया तो उसे जिताने के लिए दूसरे मित्र ने अपने सारे सम्पर्कों का पूरा उपयोग कर मित्र को जिता कर ही दम लिया।
            धीरे-धीरे जिताने वाला मित्र भी अपने मित्र से अति महत्व पाने को महत्वाकांक्षी होने लगा। कुछ मित्र की सीमाएँ आड़े आई, कुछ पद का गर्व भी सिर चढ़ कर बोलने लगा होगा...उसने अपने मित्र को समझाने का प्रयास किया, पर जिताऊ मित्र ने तो न समझने का जैसे निश्चय ही कर लिया था। तो दाँत काँटी रोटी वाली मित्रता पाँच वर्षों में दुश्मनी में बदल गई।
         चुनाव आए तो मित्र का पार्टी से टिकट का पत्ता कट गया। उसने अपने दम पर चुनाव लड़ने की ठान ली। जिताऊ मित्र ने इस बार अपने सम्पर्कों का पूरा उपयोग हराने में कर डाला।
             होना तो वही था... न माया जीती न राम जीते। किसी तीसरे ने इस आग में अपनी रोटियाँ सेंक लीं।
             चुनावों की राजनीति किस करवट बैठ जाती है, रणनीति बनाने वाले नहीं समझ पाते। 
    मित्र बस आपस में उठा-पटक कर अपनी झूठी जीत का ढोल बजाने में लगे रह गए। लोकतंत्र का चुनाव संपन्न होते ही तीसरा जीत का झंडा लिए मुस्कुरा रहा था।  ***
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क्रमांक - 09

  शेर की खाल 
                                                - मधुकांत 
                                           रोहतक -   हरियाणा

लंबी तगडी मूछों ने आज ही जॉइन किया था।
 हेड ऑफिस से फोन आया --बस्ती के सभी गुंडे बदमाशों को बुलाकर शख्त कर दो ,कहीं कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए ।
मुस्तैदी से पालन करने के लिए उन्होंने तुरंत चौकीदार को बुलाया और बस्ती के  सब गुंडे बदमाशों को एकत्रित करने के लिए कहा।
" पर साहब अब तो इस बस्ती में एक भी गुंडा- बदमाश नहीं है--" चौकीदार ने बताया !
क्यों ,कहां चले गए ,,,,,? विश्वास ना आया था उन्हें ।
साहब, पंचायत के चुनाव हुए थे ना ,सब के सब जीत गए ,,,,कहते हुए उसकी आंखें चारों ओर से चौकन्नी  थी । ***
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क्रमांक - 10

 प्रचार से प्यार 
                                                   - मीरा जैन
                                                उज्जैन - मध्यप्रदेश

नेता जी के घर मे कदम रखते ही बरस पड़ी श्रीमती जी-
' प्रचार प्रचार प्रचार मै तंग आ गई हूँ तुम्हारे इस चुनाव प्रचार से ना खाने
के ठिकाने है ना सोने के , पार्टी ने इस बार आपका टिकट काट दिया फिर
भी जेब से लाखो खर्च कर पार्टी को विजयी बनाने मे जी जान से जुटे हुए
 हो मैंने ऐसी पार्टी भक्ति कहीं नहीं देखी इससे बड़ी मूर्खता और क्या होगी
मेहनत करे मुर्गी अंडा खाये फकीर----'
पहले ही तनाव , थकान ऊपर से श्रीमती जी की रोज की बकबक आखिर
खीझ व रोष भरे शब्दों मे नेताजी ने भी अपने मन की व्यथा कुछ यूँ प्रगट की -
' तुम्हारे जो इतने ऐशोआराम है वो सब इसी नेतागिरी की बदौलत है एक 
समय था जब खाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती थी मालूम है तुम्हें
अगर हमारी पार्टी हार गई तो इस करोड़ो की सम्पत्ति को बचाना मुश्किल
हो जायेगा और तो और हो सकता है मुझे घर के खाने के ही लाले पड़ जाये ---'
                  अब नेताजी से कहीं ज्यादा श्रीमती जी तनाव मे आ गई और
फटाफट खाना लगा बोली-
' मै भी प्रचार के लिए आपके साथ चलूंगी ' ***
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क्रमांक - 11

टिकट
                                              - महेश राजा
                                           महासमुंद - छत्तीसगढ़

बारिश हो रही थी।तालाब मे पानी भरने लगा था।शाम होते ही मेढकों ने टर्राना शुरु कर दिया था।
मेंढकी ने अपने मेंढक से कहा,क्यों जी।यदि अपने तालाब में चुनाव होने लगे तो क्या तुम चुनाव लडोगे?
मेंढक संयत स्वर मे बोले,डियर?साँपों के रहते हुए मुझे कौन टिकट देगा?. ***
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क्रमांक - 12

खिलते हुए चेहरे
             
                                - विभा रानी श्रीवास्तव 
                                       पटना - बिहार

अस्सी-पचासी वर्ष का रामधनी जब-जब गाँव के युवकों को असमाजिक कार्य करते हुए देखता है तो उसे भीतर से बहुत दुःख होता है कि कभी यही गाँव नैतिकता के सिर मौर के रूप में जाना जाता था और आज...। उसे समझ में नहीं आता है कि वह क्या करे? इस उम्र में जहाँ हाथ-पैर साथ नहीं दे रहे...। जिन्हें यानी राजनीतिक दलों के नेताओं को इनका नेतृत्व करना चाहिए वो भी तो...।
        वो स्मरण करता है कि प्रत्येक राजनीतिक दल जब चुनाव आता है तो तरह-तरह के झूठे वायदे करते हैं... युवकों को सब्ज-बाग दिखलाते हैं कि उनकी पार्टी सत्ता में आयेगी तो हर हाथ को काम तथा हर खेत को पानी मिलेगा... गरीबी का नामोंनिशान नहीं रहेगा... किन्तु जैसे ही उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो सिवा अपने घर-पेट भरने के किसी की भी स्मृति नहीं आती...।
    कुछ सोच-विचारकर वह गाँव के हर घर के विषय में सोचता हुआ और उसके समझ में जो लोग वास्तव में बुद्धिजीवी हैं उन्हें इकट्ठा करता है और कहता है,"अपने गाँव के युवकों की स्थिति को देख रहे हो?"
  "हमलोग क्या कर सकते हैं?"
"आप ही लोग तो कर सकते हैं... , अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवियों को पुनः राजनीति में आना चाहिए। *मतदान करने की प्रतिशत ज्यादा से ज्यादा हो।"*
  "इस दलदल में कौन जाएगा ?"
"इसी सोच ने तो इस गाँव क्या इस देश की यह हालत कर दी है , आपलोग आगे बढिये... इस दलदल को साफ कीजिए... यह सही है इसमें देर लगेगी किन्तु साफ अवश्य हो जाएगी... नहीं तो आपलोग सोचें आपके जो बच्चे बड़े हो रहे हैं... उनका क्या होगा?"
"बच्चे बड़े हो रहे हैं... उनका क्या होगा?" यह वाक्य कानों में पड़ते सब भीतर तक हिल जाते हैं... और उन्हें लगने लगता है... हाँ 
! रामधनी बाबा की बातों में दम है... गाँव और देश के उज्ज्वल भविष्य हेतु उन्हें जो भी संघर्ष करना होगा, वे लोग जरूर करेंगे।
एक संकल्प के साथ बुद्धिजीवी चले जाते हैं किन्तु रामधनी के आँखों मे चमक के साथ आने वाली युवा पीढ़ी के चेहरे खिले हुए दिखने लगते हैं। **
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क्रमांक - 13

मासूम  चाहत
                                               - अपर्णा गुप्ता
                                            लखनऊ - उत्तर प्रदेश
                        
आज वोट पड़ने का दिन था स्कूल  कालेज  सब बन्द  थे सुबह से ही गांव में गहमा गहमी  थी आज मिनी बहुत खुश थी आज पहली बार वोट जो देगी सुबह से ही गुलाबी  सूट पहनकर सहेलियों  के साथ वोट देने पहूंच गई थी अठारह  साल की कमसिन  गुलाबी  सूट सहेलियों  का साथ कालेज परिसर साथ पढ़ने वाले सहपाठी  जिसमें की अंसारी उसे बचपन से ही अच्छा  लगता था साथ खेलना कूदना साथ साथ बड़े होना और साथ साथ अब शरमाना भी तो आने लगा था तु तु मै मै से बात इशारों मे होने लगी थी
 अंसारी ने भी तो इस बार पहली बार ही वोट देना था समय तो इशारों  इशारों मे कल ही तय हो गया था तभी तो कतार में भी अगल बगल चल रहे थे पुरूषों  की कतार थोड़ी आगे थी अंसारी पहले बाहर आया तो मिनी ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी और देखा तो अंसारी ने उसे हाथ दिखा कर आश्वस्त  किया ।हाथ देखकर मिनी ग़ुस्से  से भर गई पैर पटक कर गुस्सा  जाहिर किया और अन्दर गई लौटकर देखा तो बाहर अंसारी उसी का इंतजार  कर रहा था ।गुस्से से मिनी ने उसकी तरफ नही देखा तो अंसारी ने उसे फूल फेंक कर मारा और भाग गया। मिनी मुड़ी और मुस्कुरा  कर उसने फूल उठाकर सीने से लगा लिया । ***
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  क्रमांक - 14                 

जंगल में चुनाव
                                       - नरेन्द्र श्रीवास्तव
                                    गाडरवारा - मध्यप्रदेश
                                    
चुनावों की घोषणा होते ही पूरा जंगल चुनावी माहौल से गरमा गया। दलों ने
अपने-अपने सदस्यों की बैठक बुलायी।
सभी दलों की बैठक में मिला जुला ही निर्णय हुआ -जंगल में जितने भी खुंखार जानवर और कीड़े-मकौड़े हैं,उन्हें हर प्रकार से प्रयास करके अपने दल में सम्मिलित करें,दल का सदस्य बनायें।रात-दिन प्रचार - प्रसार में लगे रहें।यह चुनाव हर हाल में जीतना है।
      इस बार मतदाता सूची में जंगल के पशु-पक्षी, चील, चमगादड़, गिद्ध, बाज़, कौए, चींटी,झींगुर,बर्र आदि जोड़े जाने से मतदाताओं की संख्या ज्यादा ही हो गयी थी।
जंगल के भोले भाले पशु-पक्षियों पर इन खुंखार जानवरों तथा जहरीले कीड़े-मकौड़ों ने अपने दल के प्रत्याशी को वोट देने का दबाव बनाया।
मतदान के दिन ,मतदान केन्द्र के निर्धारित फासले के बाहर चुनाव में खड़े प्रत्याशियों के समर्थक खुंखार जानवरों और जहरीले कीड़े-मकौड़ोंं से डरे-सहमे मतदाताओं ने मतदान किया।
मतगणना के दिन मतपेटियां खोलीं गयीं।
मतपत्र देखकर सब दंग रह गये।
सभी प्रत्याशियों के चुनाव चिन्ह पर मुहर लगी हुई थी।
मतलब - उन्होंने अपना मत सभी को दिया था।
मतलब - उन्हें भय था कि जिस प्रत्याशी को वोट नहीं देंगे वही नाराज हो जायेगा और उसे खा जायेगा।
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क्रमांक - 15

हमारा पावर  
                                        - अनिता रश्मि
                                        रांची - झारखण्ड

बबलू दौड़ते हुए घर में घुसा। सोनम ने झट हाथ पकड़ लिया। 
- अंदर कहाँ चले?... आज फिर लड़ाई करके आए ना? - ....नहीं मम्मी। ऊ ना.... ऊ ना। 
-  झूठ मत बोलो। बताओ, क्या हुआ? 
- समीर ने मुझे गाली दी मम्मी। बार-बार दी। बस, मैंने भी...। 
मैं तेरा लाल भभूका चेहरा देखकर ही समझ गई थी। मैंने क्या सिखाया है, भूल गया ? फिर से सुन, कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे बढ़ाने का।... ऐसा गाँधी जी ने कहा था। उन्हें किसी ने गाली दी थी, तो उन्होंने ....। 
- ....बस! मम्मी बस!! जास्ती शिक्षा मत दो। उधर देखो। 
उसने टी. वी. की ओर इशारा किया। चैनलों को बदल-बदल कर दिखलाया। 
नेतागण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ उठा रहे थे। चैनलवाले टी. आर. पी. बढ़ा रहे थे। खूब घमासान मचा हुआ था। गालियों की बौछार! बौछार पर बौछार! ज़ाहिर है, चुनाव सर पर था। 
- पहले इन्हें रोक। तुम इन्हें नहीं सिखा सकती? 
- म... मैं कैसे? 
- तुम, पप्पा और तुम्हारे, पप्पा के सारे साथियों के पास वोट का पावर है ना बाबा। लोकतंत्र है मम्मी।  ***
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क्रमांक - 16

तूलिकायें 
                                  - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
                                      शिवपुरी - मध्यप्रदेश


नयी सदी अपना एक चौथाई हिस्सा पूरा करने जा रही थी। तेज़ी से बदलती दुनिया के साथ मुल्क का लोकतंत्र भी मज़बूत होते हुए भी अच्छे-बुरे रंगों से सराबोर हो रहा था। काग़ज़ों और भाषणों में भले ही लोकतंत्र को परिपक्व कहा गया हो, लेकिन लोकतंत्र के महापर्व 'आम-चुनावों' के दौरान राजनीतिक बड़बोलेपन के दौर में यह भी कहा जा रहा था कि अमुक धर्म ख़तरे में है या अपना लोकतंत्र ही नहीं, मुल्क का नक्शा भी ख़तरे में है! कोई किसी बड़े नेता, साधु-संत, उद्योगपति, धर्म-गुरु या देशभक्त को चौड़ी छाती वाला इकलौता 'शेर' कह रहा था, तो किसी को गीदड़, कुत्ता, बंदर, देशद्रोही या कठपुतली! कोई किसी अभिनेत्री या राजनेत्री को 'शेरनी' कह रहा था; तो कोई किसी मुंहफट साधवी या बुरकाधारिणी को!

तकनीकों, डिजीटलीकरण, आतंक, प्रदूषण, जनसंख्या या बेरोज़गारी की बेइंतहा तरक़्क़ी के दौर में मुल्क की युवा और बाल-पीढ़ी सुविधाओं, घोषणाओं या योजनाओं से घिरे होने के बावजूद दुविधाओं से परेशान थी।

मीडिया से अपडेटिड रहते हुए इक बेचारा हार कर वापस पुराणों, वेदों, धर्म-ग्रंथों का सरसरी तौर पर अध्ययन करने के बाद अपने कक्ष में बैठा हुआ अब स्वामी विवेकानंद जी के उपदेश पढ़ने लगा।

कुछ देर बाद पता नहीं उसे क्या सूझा! खड़ा हुआ। अपनी अक़्ल के ताले खुलने पर अपनी शक्ल आइने में देखने लगा। बस, फिर क्या था! ख़ुशी से उछल कर अपने आप से ही, किंतु चिल्ला कर बोला, "मैं ही तो शेर हूँ न!"

उसने वापस अपनी टेबल तक जाकर स्वामी विवेकानंद जी के उपदेशों की वह पुस्तक उठाई और आइने के सामने फिर खड़ा हो गया। उसे लगा कि उस पुस्तक रूपी तूलिका ने उसका असली चित्र उसे दिखा दिया हो; एकदम चौड़ी छाती वाला बब्बर शेर!"

वह मुल्क का, विशाल लोकतंत्र का आम नागरिक था; युवा था; मतदाता था!

"सारी शक्ति तुम में ही निहित है! अकेले हो, तो क्या हुआ! उठो; जागो; आगे बढ़ो; अपनी शक्ति को पहचानो और बाधाओं या फल की चिंता किये बिना भले कर्म में सदैव संलग्न रहो!" स्वामी विवेकानंद जी के उपदेशों के कुछ ऐसे ही शब्दों के रंग उसके असली चित्र को उसके मन-मस्तिष्क में चित्रित कर रहे थे, उसमें नवीन जोश के रंग भर रहे थे।***
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क्रमांक - 17

रणनीति
                                              - कनक हरलालका 
                                               धुबरी - असम
                             
"अजी! सुनते हैं!!" नेता जी की धर्मपत्नी ने चिन्तित स्वर में कहा "इस बार तो जनता आपसे नाराज दिख रही है। मीडिया वाले भी विरोधी पार्टी का ही प्रचार और गुणगान ज्यादा कर रहे हैं ।"
"अरे तो तुम चिंता काहे कर रही हो।"
"आप तो ऐसे निश्चिंत होकर बैठे हैं जैसे जीत आपकी ही होगी ।"
"हाहाहा..! अरे पगली, देखो!! जीत इन्सान की नहीं रणनीतियों की होती है। और अपनी,, अपनी रणनीति तो बिल्कुल पक्की है।"
"आखिर मैं भी तो सुनूं क्या है आपकी चुनाव की रणनीति।"
"देखो! अपने परिवार के चारों सदस्यों को चारों भिन्न भिन्न प्रमुख पार्टियों से खड़ा कर रहा हूं। अब किसी भी सदस्य की जीत हो, जीत तो अपनी ही है न !
"पर पापा मैं ? मुझे भी किसी पार्टी से चुनाव में खड़ा होना है!" घर की सबसे छोटी सदस्य और प्रथम बार मतदाता बनी पुत्री ने इतर कर पूछा।
"अरे तू...। तू तो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। तू तो जनता है न! बहुत भोली है। जिसे मर्जी उसे वोट देना पगली ! पड़ेगा तो अपनी ही झोली मे न!" ***
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क्रमांक - 18

लोकतंत्र 
                                                    - कृष्ण मनु 
                                                 धनबाद - झारखण्ड

बूढ़ा सोमर बड़ी कठिनाई से अपनी झोपड़ी के देहरी तक आ सका। एक मिनट की भी देर होने पर वह रास्ते में ही बेहोश हो सकता था। बाबू साहब के खेतों में कभी दिन दिन भर काम करने वाले सोमर के जर्जर शरीर में अब चार कदम चलने की भी शक्ति नहीं बची थी।

आहट पाकर हुक्का गुड़गुड़ाती हुई बुढ़िया बाहर आयी। देहरी पर उसका मरद बैठा हाँफ रहा था। वह उसे सहारा देकर खाट पर सुलाती हुई बिगड़ने लगी-" मैं पहिले ही कहत रह्यो कि इ कलमुंहन के बात पर मत जाओ। भला देखौ तो कैसे बुढ़ऊ को अकेला छोड़ दिहिन नासपीटेन। लै जाए के टैम तो जीप लै आए, खुशामद करत रहे कि चलो बाबा भोट दै दो  आऊ भोट पड़तै छोड़  दिहिन।  का कहैं, अपना पैसा ही खोट तो परखैया के का दोस। बुढ़ऊ को कितना मना किया, दम्मे के रोगी हौ, कहाँ जात हौ? पै मेरी कौन सुनत है? झट जीप पर जाय बैठे।"

बूढ़े के पानी माँगने पर बुधनी का प्रलाप रुका।  वह टीन के मग में पानी देती हुई बोली-" ठीक हौ न, ई धूप और गरमी मा परेसान होबे से का फायेदा रहा?"

पानी पीकर बुढा कुछ स्वस्थ हो गया था। बोला- " चुप ससुरी, तू का जाने फायदा नुकसान की बात?"

इस पर बुढ़िया किलस गई-" जा जा देख लिन्हि तोरी अकलमंदी। दुसमन के भोट दै के आयी गये। हम पूछत हैं, नरेंदर बबुआ कौन है? वही जमींदार के बिटवा न, जो तोहे
आऊ तोहरे बाप को उल्टा टंगवाय के पिटवाया करत रहा। बाँस से बाँसे न  फूटी। अब ई खद्दड़ के धोती-कुर्ता पहिन के घूमत है। कल तक तो गुंडई करत फिरत रहा। औ ओ ही के तू वोट दिएवा। तोरे जाए के बाद बेचारा लाल झंडी वाला आया रहा। कहत रहा, वही गरीबन के राज दिलावे वाली पार्टी है। तोसे ओहका भोट देते न बना।"

अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट न देने के कारण बेटे की डांट खा कर सोमर पहले से ही झुंझलाया था, पत्नी को लाल झंडी वाले की तरफदारी करता देख वाह आपे से बाहर हो गया- " चुप रह हरामजादी, जवान लड़ाय रही है। तुम लोगन के कहे में रहतेब तो अबकिऊ कुछ हाथ न अउएतै। कुछ नहीं तो कम से कम महीनन से अंधेरी पड़ी झोपड़िया में कुछ दिन ढिबरी तो जली।" कहते हुए बूढ़े ने टेंट से दस का नोट निकाल कर पोते को दिया- " ले रे बिदेसिया, मिट्टी का तैल लै आ रे।" ***
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क्रमांक - 19

प्रचार 
                                      - मनोरमा जैन पाखी
                                      भिण्ड - मध्यप्रदेश

"अरे सुनो तो सही तनिक राउत सा'ब। कहाँ जात हो इतेक जल्दी में?" अवस्थी जी ने पूछा
"का हो अवथ्थी जी ।जरा जल्दी बोलो ।ऊ का है ना कि हमार बिटवा शहर से आय रहिन।त़ ऊ को लेन बस स्टेंड जात रहे।" पान चबाते बोले मास्टर रावत जी
"ओ हो ...ऐसो कछु जरुरी नाय हती बात ।बस जे पूछ रहे कि चुनाव आय गये ।को खडो है रहो है ?अपये गोट को खड़ो होतो तो फायदा हुई जातो।अपनो ही दबदबा हुई जात।और का?"
"अरे ,ई बार तो ऊ सुरेशवा खडो है रहो।बाको टिकिट है गयो।"
"ओ...ऊ सुरेश जाकी घरारी शहर की है।गाम माँ सबसे जियादा पढ़ी लिखी।"
"हाँ,उही ..पढ़ी लिखी तो है ही अदब कायदा वाली भी है। लंबो घूँघट ले के निकलती है।"
 चुनाव की तारीख घोषित हो चुकी थी। सुरेश जी निश्चिंत थे जीत के प्रति।उनको सपोर्ट करने वाले हवा दे रहे थे।पर मोती को चिंता थी।मुकाबला तगड़ा था ।विरोधी ने प्रचार शुरू कर.दिया था।
"जी ,सुनिये न।आप ने अब तकप्रचार शुरू नहीं किया ।छै:सात दिन ही तो हैं ।"
"तू न अपने काम से काम रख। ज्यादा चिंता है तो कर ले प्रचार ।"कुछ हिकारत और गुमान से कहा सुरेश ने।
मोती ने अपने आसपास की कुछ महिलाओं को साथ लिया और निकल गयी। पूरे गाँव में चक्कर लगा कर घर आकर बाकी काम निबटाये। चिंता और मेहनत से बुखार आ गया पर वहरुकी नहीं।पति की जीत उसके लिए मान का सवाल था।सुरेश अपने दोस्तों के कहने पर बेफिक्र थे ।
वोटिंग वाले दिन सुबह जल्दी उठकर  अकेले ही निकल गयी जितने लोगों को आखिरी समय पर जागृत कर सकती थी किया।अपनी मेहनत से संतुष्ठ थी पर सुरेश के निर्विकार  और तनाव रहित रहने से लग रहा था कि वह हार जाएगी। चिंता से बुखार उतर नहीं रहा था। 
आज परिणाम की घोषणा होनी थी। सुबह से ही मंदिर में दीया लगा कर बैठी थी। पाँच चरण में गिनती होनी थी।पहले चार चरण के रुझान आ चुके थे जिनमें सुरेश  विरोधी से 1000 वोटो से पीछे थे। मोती उम्मीद हार चुकी थी।आँखों से आँसू रुक नहीं रहे थे।आने वाले फोन भी सारी मेहनत पर पानी फेर रहे थे। 
"सुरेश 20वोटो से जीत चुके हैं।"फोन पर मिली सूचना पर मोती को भरोसा नहीं हुआ।1000वोटो से पीछे रहने वाला आखिरी चरण में बीस वोटों से जीत दर्ज !!!
घर पर बधाई देने वालों का आना जाना शुरू हो गया। मोती अपने बुखार को भूल चाय पानी के इंतजाम में लग गयी।
"रे सुरेशवा, बहुरिया को अहसान मान ।वाने बहतै मेहनत करी जातें तू बच गयो ।न त़ जमानत हू न बचती।" अवस्थी जी लड्डू पर हाथ साफ करते बोले
"हं ,जे बात तो सही कही ।जा की सूरत न देखी कबहूँ वो पूरे गाम भर में सबके हाथ पाँव जोडती रही इकैक वोट खातिर ।"रावत जी भी समोसे पर हाथ साफ करते बोले ।
"अरे ना,ऐसा कछ नाही। बड़े घर की बिटिया है ना। पूरे गाँव भर में घूमवै को अच्छो मौका मिल गयो और खुद की वा वाही। हमाये लोगन ने पहले ही जीत पक्की कर दयी थी।"गर्व से सीना फुलाते बोले सुरेश 
दरवाजे से अंदर आती मोती के पाँव जैसे धरती  से चिपक गये।दो आँसू चाय के प्याले में घुल गये। ***
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क्रमांक -20

चुनाव 

                                                 - रूबी सिन्हा 
                                                 राँची झारखंड 

हर पांच साल के बाद आता है यह चुनाव । लेकिन कभी इतना उत्साह नज़र नहीं आया ।बच्चों और पति की आफिस से छुट्टी का दिन, घर में पत्नियों के अच्छे व्यंजन बनाने का दिन, एक साथ बैठ कर T.Vदेखने का दिन ।आज तक यही तो था चुनाव ।
इस उम्मीद में चुनाव के एक दिन पहले पति से पुछ बैठी कल क्या बनाऊं आप के लिए ।बच्चे बड़े दिनों से समौसे की ज़िद कर रहे हैं, नाश्ते में वही बना लूँ क्या ।पति मोबाइल में लगे थे तो कोई जवाब नहीं दिया,फिर मैंने कहाँ ।दोपहर में चिकेन बना लूंगी ।पति एकदम से भड़क गए ।पगला गईं हो ।कल चुनाव हैं, मैं कहीं हाँ वो तो हैं पर हर बार यही तो करती हूँ मैं ।पति ने कहाँ इस बार कुछ खास है ।मोबाइल दिखा कर बोले सारा फेसबुक, वाट्सप सभी पर ये मुद्दा बहुत गर्म है ।इस बार वोट डालने जरूर जाना है ।तूम भी चलोगी समझी ।
मैं भी हाँ में गर्दन हिला दिया ।सोचने लगी किसी के अच्छे दिन आऐ या ना आऐ, पत्नियों के तो अच्छे दिन आ गये ।
पतियों को तो आफिस से छुट्टी हर चुनाव में मिलती है ।इस बार पत्नियों को भी किचन से मिलेगी  छुट्टी । ***
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क्रमांक -21

सत्ता की गर्मी 
                                                - सीमा निगम 
                                              रायपुर- छत्तीसगढ़
         
                     वातानुकूलित कमरों में रहने वाले नेताजी भीषण गर्मी में पसीने से तर बतर कार्यकर्ताओं के साथ झुग्गी झोपड़ी में घूम रहे थे जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है उनका प्रचार अभियान भी तेज हो रहा है और गर्मी भी चरम सीमा पर है लेकिन वे कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रहे साथ ही कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ा रहे हैं कि बस इस धूप व गर्मी को सहन कर लो फिर तो चुनाव जीत गए तो पूरे पांच साल सत्ता की गर्मी रहेगी।फिर तो सभी कार्यकर्ता दुगने जोश से नेता जी को जिताने के लिए जुट गए । ***
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क्रमांक - 22                                                           

फर्ज
                                                 - अर्चना राय
                                            जबलपुर - मध्यप्रदेश

"ये भाई! दो कप अदरक वाली चाय तो देना,  बड़ी ठंड है, आज तो इस वर्फीली पहाडी पर घूमने का मजा ही आ गया"
" जी साब"
" और हमें दो प्लेट नूडल्स चाहिए"
" अभी बना कर लाता हूं"- दुकान पर आए ग्राहकों से वह विनम्रता से बोला।
  अन्य दिनों की अपेक्षा आज उसकी चाय नाश्ते की छोटी सी गुमटी पर बहुत भीड़ थी, रोज  वह चाय पानी का थोडा सा सामान, सिर पर रखकर  लाता और दुकान लगाता।जिससे हुई कमाई से अपने परिवार का भरण पोषण करता था।  
"ऐ लडके जल्दी से दो पैकेज बिस्किट और चाय चाहिए" 
"जी मेडम अभी लाया"- जल्दी से हाथ चलाते हुए वह बोला।
 जैसे जैसे समय गुजर रहा  भीड़ बढती जा रही,  साथ ही उसके मन की असमंजस्यता भी बढ़ती जा रही थी, क्या करें? एक मन कहता  बहुत दिनों बाद आज उसकी अच्छी कमाई हो रही है, तो कभी दूसरा मन कहता की फर्ज निभाना भी जरूरी है।
 "दो कप चाय  और देना"- ग्राहक की आवाज सुनकर वह विचारों से वर्तमान में लौटा।
" माफ करना साब  दे नहीं पाऊगां ,दुकान बंद करना है"- अपने आप को दृढ करते हुए वह मजबूती से बोला।
 " क्यों भाई? चुनाव के कारण मिली छुट्टी  से हम लोग आये और तुम्हें दोपहर में ही गुमटी बंद करने की पडी है।"
हाँ, साब जी, आज मतदान दिवस है, तो  मुझे भी वोट डालने जाना है"
" अरे भाई! ग्राहक भगवान होता है, और उसकी जरूरत पूरा करना तुम्हारा धर्म है"
" जानता हूँ,  ग्राहक की सेवा करना हमारा कर्तव्य है पर भारतीय होने के नाते वोट देना हमारा अधिकार ही नहीं बल्कि सबसे पहला फर्ज होता है"- कहता हुआ वह अपनी दुकान समेटने लगा। ***
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क्रमांक - 23

चुनाव
                                               - योगध्यानम
                                             राँची - झारखण्ड
                                             
उम्र पचास के लगभग हो गई थी । बाल भी आधे काले , आधे सफेद हो गये थे । सुबह पत्नी ने चाय के लिए उठाया, तो मैं अकचका गया ।सजी सवरी नहा धोकर पूरी तरह तैयार थी, हर रोज तो नाईटी और बिखरे बालों में ही आ कर चाय दे देती थी । मैं सोच में पड़ गया अखिर आज ,जन्मदिन है या शादी की सालगिरह अभी सोच ही रहा था कि पत्नी ने फिर कहा चाय लो। मैं ने भी घबड़ाहट में जन्मदिन मुबारक हो कह दिया, फिर क्या था तूनक कर बेड पर बैठ गई । आपको कुछ भी याद नहीं रहता,मैं धीरे से बोला शादी की सालगिरह है क्या,बोली नही चुनाव है ।
  मैंने कहा चुनाव ? हाँ तो क्या हुआ मैं जाकर वोट डाल दूँगा । दोपहर तक वो कही इस बार मैं भी जाऊगी मैं कहा चलना ,इतनी जल्दी क्या है । इतनी तैयार होकर, कहने लगी चुनाव भी तो पर्व है ।
कप ले कर जाती हूई बोली जल्दी करो , देर से गई तो धूप में मुझे सनबर्न हो जाएगा। मैं सोचा कौन समझाये इन्हे । देश कौन चलाये क्या फर्क पड़ता है । इन्हे तो अपने सनवर्न की पड़ी है । वाह रे चुनाव । ***
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क्रमांक - 24

कर्तव्य 
                                     - डॉ लता अग्रवाल 
                                     भोपाल - मध्यप्रदेश
                                     
" सोमित! अब तो एम् टेक कम्प्लीट हो गया, आगे क्या सोच है ?"

" अजय ! सोच तो बहुत पहले लिया था। अभी तो खुद को उस काबिल बनाने में लगा था। "

" क्या ! किसी कम्पनी में अप्लाय कर  रखा है ?"

" नहीं यार! मैं किसी कम्पनी में नोकरी नहीं कर रहा ।"

" अच्छा ! तो खुद का बिजनेस करना चाहता है हमारा दोस्त। "
"नहीं दोस्त ! मैंने पॉलिटिशन बनने का सोचा है। "

"यू मीन, तू  राजनीति में जाना चाहता है..?" 

हाँ मित्र! मैं राजनेता बनना चाहता हूँ।"

"हा! हा ! हा ! जनता है राजनीति में कितना कीचड़ हैं ? "

"हाँ मित्र! जानता हूँ इसीलिए तो यह प्रोफेशन चुना। आखिर ! उस कीचड़ को साफ करना हम युवाओं का ही तो कर्तव्य है।  " ***
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क्रमांक -25

भारत भाग्य विधाता 
                                        - योगराज प्रभाकर
                                        पटियाला - पंजाब
दूर खड़ा हुआ लोकतंत्र सुबह से ही यह दृश्य देख रहा थाI देश के बिगड़ते हुए राजनैतिक माहौल से बेख़बर गाँव की चौपाल पर ताश की महफ़िल पूरे शबाब पर थीI खेलने वालों से अतिरिक्त देखने वाले भी पूरे उत्साह में थेI हुक्के-बीड़ी के धुएँ के बीच उठते ठहाकों से माहौल खुशनुमा हो रहा थाI 
“इलेक्शन आ रहे हैं मुखिया जी, इस बार वोट किस को दे रहे हो?" लोकतंत्र ने पास आकर मुखिया के पाँव छूते हुए पूछा
"जीते रहोI” उसकी तरफ़ सरसरी नज़र फेंकते हुए मुखिया ने कहाI “अरे हमें तो अभी तक ये ही नहीं पता कि इस बार ससुरा खड़ा कौन कौन है।" ज़ोर से पत्ता फेंकते हुए मुखिया ने उत्तर दियाI
"एक तो वही कुर्सी पार्टी वाला है।" लोकतंत्र ने मुखिया के पास बैठते हुए कहाI
"अरे वो चोर पार्टी? छोड़ो! साले पूरा देश लूट कर खा गए।" मुखिया ने उसे घूरकर देखते हुए कहाI
"इस बार एक फूल वाली पार्टी वाला भी खड़ा है।" मुस्कुराते हुए लोकतंत्र के बतायाI 
"कौन? वो जो आपस में लोगों को लड़ाते फिर रहे हैं? दफ़ा करो उनको।"
"एक नीली पार्टी वाली भी है न।" लोकतंत्र ने चेहरे पर कृत्रिम सी मुस्कान लाते हुए कहा।
"अरे उसको वोट दे दिया न तो पीछे वाली बस्ती सिर पर मूतेगी हमारे।" ताश खेल रहे एक अधेड़ ने हिकारत भरे स्वर में कहाI 
"तो फिर क्यों न इस बार कामरेडों को ही वोट किया जाए?" लोकतंत्र ने एक सुझाव उछाला। 
माथे पर त्योरियां चढाते हुए मुखिया ने खीझ भरे स्वर में कहा:
"कौन वो ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद वाले बुर्जुए? मरा हुआ साँप गले में लटकाए बीन बजाते घूम रहे हैं मुद्दतों से। अरे वो तो होम्योपैथी की दवाई जैसे हैं, न कोई फ़ायदा न नुकसान।"
लोकतंत्र ने मुखिया के पास बैठते हुए चिंतित स्वर में पूछा:
"तो आख़िर वोट डालोगे किस को काका?"
"भाई कुछ हो जाए, हम तो वोट अपनी जात वाले को ही डालेंगे” बीड़ी का धुंआ एक तरफ़ फेंकते हुए बहुत ही शांत भाव से मुखिया ने अपना निर्णय सुनायाI
“मगर मुखिया जी! इस बार तो आपकी जात बिरादरी का कोई भी उम्मीदवार मैदान में नहीं हैI”
लोकतंत्र की यह बात सुनकर मुखिया ने अधजली बीड़ी ज़मीन पर मसलकर भड़कते हुए उत्तर दिया: 
“तो हमारा दिमाग़ ख़राब है जो किसी दूसरे को वोट देंगे? वोट ख़राब करना है क्या?”
यह सुनकर पूरा वातावरण फिर से निश्चिंतता के ठहाकों से गूँजने लगा, लेकिन लोकतंत्र की आँखें सजल थीं। ***
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क्रमांक - 26                                                           

चुनाव
                                               -  नीलम नारंग 
                                                हिसार - हरियाणा
                                                
       मतदान का दिन होने के कारण आज पुरे परिवार की छुट्टी है। सबकी छुट्टी एकसाथ हो ऐसा बहुत कम ही होता है। दिहाडीदार मजदूर होने के कारण उनहे छुट्टी करना बहुत मंहगा पड़ता है। मीता बड़ी बेचैनी से घर के सारे काम कर रही है  उसके आस पास वाली सारी औरतों का ही यही हाल है । सबके मर्द बाहर गली में ताश खेलने में मशगूल होने का दिखावा कर रहे है। असल मे वे सब इतंजार कर रहे है कौन सी पार्टी ज़्यादा पैसा देगी और उन सब के वोट एक ही व्यक्ति को जाएँगें । औरतें बेचैन है वोट भी आदमी की मर्ज़ी से डालना पड़ेगा पैसे से खूब दारू पीयेगें और औरतों पर हाथ आजमाएगें। बाहर देबां की आवाज़ आई जो ललकार कर कह रही थी इस बार हम अपनी करेगी कुछ और औरतें भी उसके साथ थी । मीता सिहर उठी कि जो आज रात होगा वो लोकतन्त्र की हत्या के साथ साथ उनहे अगले पाँच साल के लिए सड़क पर रहने के लिए भी   मजबूर कर देगा । ***
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क्रमांक - 27                                                        

लोकतंत्र बनाम जनतंत्र 

                                                    - सतीश राठी
                                                 इंदौर - मध्यप्रदेश


           जंगल में राजा शेर ने  अब यह तय कर लिया था कि, यदि जंगल का राजा रहना है तो सबके हित में काम करना पड़ेंगे। पहले जब वह एक छोटे से जंगल में था  तब उसकी मनमानी भी चल जाती थी।  लेकिन अब तो  जंगल के  जानवरों की  मांग इतनी अधिक बढ़ चुकी थी  कि उसे  अपना स्थान बनाए रखने के लिए  सबको साथ में लेकर आगे बढ़ना था। उसने अब तय कर लिया था कि योग्यता  अनुसार सबके लिए काम की व्यवस्था करना है। बीमार जानवरों के लिए अस्पतालों की उचित व्यवस्था करना है। उसने अपने विश्वस्त खरगोश को कहा कि, तुम सारे जंगल का निरीक्षण करो।  जहां पर भी कोई कमी दिखती है, वहां पर उस कमी को दूर करने के उपाय तलाश कर मुझे बताओ, ताकि सारे जंगल में सुख शांति और खुशहाली रहे ।

         शेर ने इन दिनों लोमड़ी का साथ भी छोड़ दिया था। लोमड़ी की चालाकी उसकी समझ में आ गई थी। गीदड़ की हरकतों से भी  वह वाकिफ हो गया था। भेड़िए तो वैसे भी वफादार नहीं होते हैं यह वह जानता था। इन सबका साथ छोड़ देने से यह सब लोग बड़े ही दुखी थे। जब वह सब शेर के साथ में रहते थे तो शेर के सारे शिकार  में से उन्हें भी हिस्सा मिल जाता था। लेकिन जब से शेर ने अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं को प्रारंभ कर दिया था ,तब से शेर शाकाहारी हो गया था। लेकिन लोमड़ी , गीदड़,भेड़िये और उनकी पूरी टीम अपनी जुबान पर चढ़े हुए मांस का स्वाद भूल नहीं पा रही थी। 
         आखिरकार उन्होंने यह सोचा कि जंगल के सारे  पशु, पक्षियों  को भुलावा और लालच  देकर शेर को अपने पद से हटा दिया जाए ,और उसके स्थान पर लोमड़ी को राजा का पद दिया जाए। लोमड़ी वैसे ही बड़ी चालाक थी और इस बार तो उसने सबको लोभ लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया था।  लोमड़ी के लिए उन्होंने सारे जंगल में घूम घूम कर चुनाव का प्रचार भी किया और यह घोषित कर दिया कि, शेर की दादागिरी अब नहीं चलेगी। यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र में अब लोमड़ी को  भी शासन करने का मौका मिलना चाहिए। लोमड़ी ने यह भी घोषणा कर दी कि, यदि उसे राजा बना दिया गया तो, सभी जानवरों को कोई मेहनत नहीं करना पड़ेगी। उनके घर बैठे उनको उनके खाने की वस्तुए मिल जाएगी। यह भी कहा कि ,सबको रहने के लिए गुफाओं को उपलब्ध कराया जाएगा। यह भी कहा कि जंगल में सबके लिए पानी की व्यवस्था हो जाएगी। 
लोमड़ी बड़ी चालाक थी। उसे समझ में आ गया था कि अब  यह बंदरों की रोटी भी उसे बंदरों को ही देना पड़ेगी। अब वह पहले जैसा  तोल तराजू में बंदरबांट नहीं कर  सारा माल खुद नहीं खा सकेगी। इसलिए बंदरों को भी उसने अपने पक्ष में कर लिया था ।
       लेकिन सारे जंगल में हाथी बड़ा समझदार प्राणी था। वह यह समझ गया था कि यदि लोमड़ी एक बार  सरकार में आ गई तो फिर सारे जंगल का बंटाधार बिल्कुल तय है। उसने जाकर शेर से मुलाकात की । उसे लोमड़ी की हरकतों के बारे में  बताया । फिर दोनों ने मिलकर सारे जंगल में लोकतंत्र के इस चुनाव में सारे पशु पक्षियों से मिलकर,उन्हें लोमड़ी की वास्तविकता  बताते हुए जंगल में राम राज्य कायम करने की अपनी घोषणा जारी कर दी ।
शेर और हाथी दोनों की योजनाबद्ध मुहिम से लोमड़ी अपनी चाल नहीं चल पाई। उसके साथ उसकी टीम में गीदड़ और अन्य साथी थे वह सब कुछ नहीं कर पाए। उन्होंने अपने पाले हुए कुत्तों की टीम को भी शेर के पीछे लगाया , लेकिन शेर और हाथी किसी दबाव में नहीं आए।
      अंततः लोकतंत्र का चुनाव शेर और हाथी तथा उनकी सारी टीम जीत गई। लोमड़ी, गीदड़, भेड़ियों और कुत्तों की टीम लोकतंत्र का चुनाव हार गई ।

         सारे जंगल में शेर ने रामराज्य स्थापित कर दिया। इस तरह लोकतंत्र का चुनाव जंगल में बड़ा कामयाब रहा। ***
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क्रमांक - 28

लोकतंत्र का चुनाव
                                         -  गीता चौबे
                                            रांची - झारखंड
                                            
    आज सुबह से सगुनी बहुत खुश थी। आज उसके पांव जमीन पर नहीं थे। आज मंत्रीजी उसके घर आनेवाले थे। सगुनी एक दलित महिला थी । जो मैला ढोने का काम करती थी। समाज के ऊँचे तबके की औरतें उससे घृणा करती थी।
               सगुनी ने अपने दो कमरों के पक्के मकान को जो ' प्रधान मंत्री आवास योजना ' के अंतर्गत उसे मिला था, अच्छे से साफ सुथरा कर चमका दिया था। पुराने बक्से में सहेज कर रखे गए गुदड़ी को झाड़ कर अपनी टूटी हुई खाट पर करीने से बिछा दिया था। मंत्री जी को उसपर बैठाना जो था।
              हारी - बीमारी के लिए थोड़े से पैसे बचा के रखे थे उससे थोड़ी सी भिंडी खरीद के लाई। साथ में थोड़ी गुड की डली भी ले लिया। बड़े प्यार से उसने भिंडी की सब्जी और रोटी बनाई।
            समय पर मंत्रीजी पधारे। सगुनी के घर के आसपास लोगों की भीड़ लग गई थी, उसमें गाँव के मुखिया जी सबसे आगे थे और ऊँचे तबके की वही संभ्रांत महिलाएं जो सगुनी को देख नाक - भौं सिकोड़ती थी, आज उसके भाग्य से ईर्ष्या कर रही थीं। सबकी जुबान पर सगुनी का ही नाम था।
   जैसे ही मंत्रीजी ने सगुनी के घर में कदम रखा, उसने मंत्रीजी को माला पहनाई और उनके पैर छुए। मंत्रीजी ने भी दिल खोलकर आशीर्वाद दिया। सगुनी ने बड़े प्यार से भिंडी की सब्जी और रोटी मंत्रीजी के सामने परोसी। मंत्रीजी ने भी बड़े चाव से भोजन किया और अंत में गुड़ खाकर शीतल जल पिया।
  अपने शब्दों में गुड़ सी मिठास लाते हुए सगुनी से कहा, '' कोई भी तकलीफ हो तो मुझे बताना, मैं जनता की सेवा के लिए सदा तत्पर रहूंगा। '' सगुनी मंत्रीजी के इस आश्वासन से अभिभूत हो गई।
   अगले दिन टीवी और अखबार में यही खबर छायी रही, '' मंत्रीजी ने दलित के घर भोजन किया '' गर्रीबों के सच्चे हमदर्द ''। सबकी नज़र में मंत्रीजी की छवि '' दलितों और गरीबों के मसीहा '' के रूप में उभरकर सामने आई।
         कुछ ही दिनों बाद लोकसभा का चुनाव हुआ। मंत्रीजी भारी मतों से विजयी हुए। और इसबार सत्तारूढ़ सरकार के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुए।
सगुनी बहुत खुश थी कि जिन्हें अपनी थाली में भोजन कराया वो आज प्रधानमंत्री बन गए।
     एक दिन सगुनी के गाँव के मुखिया ने कहा कि सरकार की तरफ से आदेश आया है कि जो पक्के मकान ' प्रधानमंत्री आवास योजना' के तहत बनाए गए थे, उनका नए सिरे से आबंटन किया जाएगा। इस तरह सगुनी के मकान को किसी और के नाम पर आबंटित कर दिया गया।
   सगुनी ने मुखिया जी से बहुत मिन्नतें की मकान को बचाने की। कहा कि मुझे एक बार प्रधानमंत्री जी से मिलवा दीजिए। उन्होंने कहा था कि ' कोई तकलीफ होने पर मुझे बताना, मैं सेवा के लिए सदैव तत्पर रहूंगा '। उसे विश्वास था कि मंत्रीजी उसकी बात अवश्य सुनेंगे।
       मुखिया जी ने एक जोर का ठहाका लगाया और कहा कि  'अरे सगुनी, कैसी बातें करती है? जिस वक़्त मंत्रीजी तुम्हारे घर आए थे वो चुनाव का समय था और उनकी बातें  ' चुनावी आश्वासन। ' क्या तुम्हें नहीं पता कि यह ' लोकतंत्र का चुनाव ' है जिसमें जनता को तरह-तरह के चुनावी वादों से प्रलोभन दिए जाते हैं और चुनाव जीतने के बाद उसी जनता को हाशिये पर रख दिया जाता है।
         अब मंत्रीजी जो प्रधानमंत्री बन गए हैं उन्हें भला तुम और तुम्हारी भिंडी की सब्जी कहाँ याद होगी। तू भी भूल जा इस बात को। ***
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क्रमांक - 29

उत्सुकता 
                                            -  डाँ. रेखा सक्सेना
                                             मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश

दिन  निकलते ही एक अजीब सी हलचल थी ।सुबह- सुबह घर के वह सब जो 18 साल  के हो  चुके थे,दौड़े -दौड़े अपने  पास के मतदान बूथ तक जाकर लम्बी लाइन लगने से पहले सबसे  पहले 7बजे अपना वोट डाल आये।मां ने  कहा-- तुम सब तो  अपना वोट डाल आये पर तेरे बाबा दादी ने तो नाक मे दम ही कर दिया  है कि "हम तबही कुछ खायेंगे पहले हम दोनो का भी,कैसे भी हो वोट डलवाओ"।बेचारे गणपति लाल वृद्धावस्था के कारण न चल पाते, न ठीक से दिखाई देता पर वोट डालने के लिए अजीब सी  छटपटाहट और उमंग थी ।बुड्ढी मैया से बोले -- तुम्हु चलो, याद है, हर चुनाव मे दोनो साथ जाकर सबसे पहले वोट डाल कर घर आवत थे।पीछे खड़े चारों पोते यह बात सुन रहे थे । श्रवण नौजवान था उसने तुरन्त काका को अपने कंधे पर बैठाया और दूसरे पोते हरि ने  काकी को अपनी पीठ के सहारे उनको बड़े  प्यार से  लादकर बूथ तक पहुंच गये। पत्रकारों फोटोग्राफर ने उनकी  फोटो खींची।
   "   लोकतंत्र मे चुनाव क्या है  एक ने ऐसा  कहा।तो दूसरे ने कहा -- त्यौहार है ।फिर  क्या  वहां  खड़े  सब ही  कहने लगे --लोकतन्त्र का यह चुनावी त्यौहार अमर रहे ।ऐसे  मंत्र मुग्ध  वातावरण  में दोनो वृद्धों की  उत्सुकता देखते बन रही  थी ।वोट डालने पर लगी  स्याही की उंगली को ऊपर उठाकर वह दोनो कितने खुश थे ........। ***
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क्रमांक - 30

     चाणक्य और चन्द्रगुप्त 

                                         - हरिनारायण सिंह 'हरि'
                                             समस्तीपुर - बिहार

         मंत्रिमंडल से निकाल दिये जाने के पश्चात् चाणक्य प्रतिशोध की ज्वाला में जलता हुआ राजमार्ग से गुजर रहा था।अपनी गाड़ी को उस दिन वह स्वयं ही 'ड्राइव' कर रहा था ।एकाएक उसकी विचार -गति में व्यवधान आया ।उसे ऐसा लगा कि पास में कहीं खतरनाक ढंग से मारपीट हो रही है ।उत्सुकतावश उसने अपनी गाड़ी उसी ओर मोड़ दी ।निकट जाने पर उसने देखा, संभ्रांत घरानों के बालकों जैसे कपड़े पहने, किन्तु गले में ताबीज और माथे पर लाल चंदन धारण किये कुछ लड़के आपस में धींगा -मुश्ती कर रहे हैं ।वे कुर्सियों से एक-दूसरे को मारने का अभिनय भी कर रहे थे।कुछ दूर हटकर एक कुर्सी पर असहाय -सा बैठा एक लड़का उन लोगों से शांत हो जाने की अपील कर रहा था,किन्तु उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज -सी होकर रह -रह जा रही थी ।
        चाणक्य ने बड़ी मुश्किल से उनलोगों को जैसे-तैसे शांत किया ।पूछने पर पता चला कि यह विधानसभा का सत्र चल रहा था ।चाणक्य ने उन चन्द्रगुप्तों में से कुछ को अपनी गाड़ी पर बैठाया और चल पड़ा 'महानंद ' के किले की ओर ---। ***
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क्रमांक - 31

गुरूमंत्र
                                                - दर्शना जैन
                                            खंडवा - मध्यप्रदेश

     चुनाव का समय था, प्रचार का दौर चल रहा था। लोकतंत्र में सभी को बोलने की आजादी होती है, मौसम चुनाव का हो तो नेताओं की यह आजादी उफान पर होती है, उसी उफान के साथ विपक्षी दल का प्रत्याशी अपनी जीप पर प्रचार करते हुए चिल्ला रहा था," सत्ता पक्ष ने आजतक क्या किया, सड़कें बेहाल कर दी, अस्पताल बीमार कर दिये, शिक्षा का स्तर गिरा दिया, उन्होंने बुजुर्गों और निःशक्तजनों के लिए क्या किया, महिलाओं के लिए क्या योजना बनाई, कुछ नहीं।" कुछ समय पश्चात सत्तारूढ़ दल का प्रत्याशी आया, वह अपना गुनगान करने लगा व विपक्षी दल, जब वह सत्ता में था, की नाकामियाँ गिनाने लगा।
     अगले दिन घर घर जाकर वोट की अपील करने दोनों प्रत्याशी बारी बारी निकले, एक बुजुर्ग व्यक्ति के यहाँ पहुँचे तो वे बोले," बेटा, यह लोकतंत्र का चुनाव है, इसे जनता को साधे बिना नहीं जीता जा सकता इसलिये तुम्हारे पास समय हो तो मैं तुम्हे जीत का एक गुरूमंत्र बताना चाहता हूँ।" अब कोई जीत का मंत्र बताने वाला मिल जाये तो फिर समय निकल ही जाता है। दोनों बड़ी विनम्रता से बोले," बताइये ना चाचाजी, आपकी बड़ी कृपा होगी।" बुजुर्ग बोले," बहुत आसान है, तुम ये जो दूसरों ने क्या नहीं किया लोगों को बता रहे हो उसकी बजाय तुम उन्हें बताओ कि तुम जब जीतकर आओगे तो क्या और कैसे करोगे।" दोनों प्रत्याशी दमखम से बोले कि इसके लिए हम घोषणा पत्र बनाते तो हैं। बुजुर्ग बोले," खाली लोक लुभावन घोषणा पत्र मत बनाओ, घोषनाओं के सब्जबाग की सैर तो जनता ने बहुत कर ली, तुम तो जनता को घोषनाओं पर अमल करने की लिखित में गारंटी दो। तुम्हारे ऐसा करने से लोगों पर प्रभाव पड़ेगा।" पूरा मंत्र बताने के बाद बुजुर्ग ने दोनों से पूछा कि कैसा लगा मेरा यह मंत्र? दोनों प्रत्याशी बगलें झाकने लगे, उनका दम बेदम हो चुका था और वे कुछ उत्तर दिये बिना वहाँ से चलते बने। **
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क्रमांक - 32

 सीख भरी सहानुभूति   
  
                                   -  डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज 
                                         पटना- बिहार     
                                                       
       “क्या है ?” मंत्री जी का भैंस जैसा शरीर गद्दे में धँसा था । तला हुआ मुर्गा लीलने में पसीने से तर थे । रमुआ ने कलपक अपना दुखड़ा सुनाया । मंत्री जी ने दूसरे हाथ से पैक हलक में उतारते कहा, “ उनलोगों ने तुम्हारी बेटी की इज्जत लूटी, फिर जान से मार दिया । यह कैसे कह सकते हो ? हो सकता है तुम्हारी बेटी ने आत्महत्या की हो ?” 
 रमुआ गिड़गिड़ा पड़ा, “नहीं हूजुर , उसके साथ उन पापियों ने...। चलकर देखा जाए । अभी भी उसके हाथ- पाँव बँधे हैं । उन दरिंदों को सजा मिलनी चाहिए । मैं सबको पहचानता हूँ।” और उसने नाम गिनाने शुरू किए , “ बिहारी ,कबीला , धनपत , मंगरू....।”
   अपनी जेब से पाँच सौ रुपये निकाल रमुआ के हाथों में थमाते बोले मंत्री , “जा, इससे दाह- संस्कार करना, और पैसे बाद में मिल जाएँगे । चर्चा मत करना । जल में रहकर मगर से बैर ठीक नहीं ।” और बाकी पैग पीने से फुर्र से ओझल ।
 रमुआ स्तब्ध रह गया –‘ क्या यही है मंत्री जी की गरीबों के लिए सहानुभूति ! क्या इसीलिए हमने अपना अमूल्य वोट देकर जिताया है ?’ रुपए पंखे की हवा से उसके इर्द-गिर्द घूम जैसे रमुआ की इज्जत का मूल्यांकन कर रहे थे । ***
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क्रमांक - 33

चुनाव का नतीजा  
                                            -अलका पाण्डेय 
                                            मुम्बई - महाराष्ट्र
              

         गंगाधर जी चुनाव मे किस्मत आजमाने की सोच रहे थे ,
अपनी पत्नी यामुना देवि से पूछा भाग्यवान अपनी रामायण मे प्रश्नोंतरी में जरा देखना 
में चुनाव लड़ूँगा तो क्या जीत जाऊँगा 
यमुना देवी ने मूंह बिचका कर कहा कल पूजा में बैठूँगी तब बताऊँगी आज नाश्ता कर लिया है ! 
गंगा धर को सोते जागते बस चुनाव ही नजर आता आज रात को भंयकर सपना देखा ,
सपने में चुनाव प्रचार कर रहे है गली गली घूमरहे है , चुनाव हो गया , आज नतीजा आना था गंगाधर सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहन दो चम्मचों को साथ ले पहूच गये मतगणना कक्ष में पर ये क्या उन्हें मात्र एक वोट मिला 
वो बहुत परेशान हो गये फिर कुछ सोच कर उन्होने सरकार से जेड प्लस सुरक्षा की मांग की..
जिले के (डी एम ) ने समझाते हुए कहा “आप को सिर्फ एक वोट मिला है आप को जेड प्लस कैसे दे सकते है”

गंगाधर - क्या आप को नतीजा देख कुछ समझ में नही आया 
मेरे घर वालो ने भी मुझे वोट नही दिया आप समझे मेरी हालत 

जिस शहर के सारे लोग मेरे खिलाफ हो और घर वाले मिले हो तो मुझे सुरक्षा मिलनी ही चाहिए।
और गंगाधर निंद में ही चिल्ला रहे थे सुरक्षा मिलनी चाहिये , सुरक्षा मिलनी चाहिये में ख़तरे में हूँ बचा लो मुझे बचा लो । ***
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क्रमांक - 34                                                             

आचार-संहिता
                                       - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
                                         गंगापुर सिटी - राजस्थान

          नेताजी ने एक आवश्यक बैठक में अपने सभी कार्यकर्ताओं को बुलाया और कहा- वैसे आप सबको पता होगा ही फिर भी मैंने आपको यहाँ एक अरुचिकर सूचना देने के लिए बुलाया है । प्यारे कार्यकर्ताओं पिछले कल से चुनाव आयोग ने 'आचार-संहिता' लगा दी है । अब हमें आचार-संहिता का पालन करना होगा, जो हमारी आदत में नहीं है । पर ये आचार-संहिता का डंडा रहता कितने दिन है इसके बाद तो हम अपना मन चाहा करते ही हैं । मुझे विश्वास है आप लोग इस घड़ी में धैर्य से काम लेंगे । सभी कार्यकर्ताओं ने मुस्कराकर तालियां बजाई और सभा स्थगित कर दी गई । ***
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क्रमांक - 35

वोट की पावर 
                                               - डॉ . मंजु गुप्ता 
                                                 मुंबई - महाराष्ट्र
                                                 
      " अरे माँ ! छुट्टियाँ पड़ गयी नानी के घर चलो ।" 

   " हाँ , चलेंगे कुछ दिनों बाद ।"

" क्यों माँ ?  "

 " होठों पर मुस्कान बिखरते हुए  लोकतंत्र का त्योहार ' चुनाव ' पाँच साल बाद जो आ रहा है । हमें अपना अनमोल मत  सुयोग्य उम्मीदवार को देना है । जिससे हमारा देश विकसित - समृद्धशाली बने ।बेटी , तुम्हारा भी यह पहला मतदान है ।  " 

उत्सुकता से "  हाँ ! माँ मैं अठ्ठारह साल की हो गयी । मेरे को मतदान करने का अधिकार मिला है । एसएमएस के जरिए  मैंने खोज लिया है कि मेरा नाम मतदान सूची में है और वोटर गाइड कार्ड में भी  । पर माँ चुनाव में खड़ा हर राजनैतिक दल के प्रत्याशी वादों की नई फसल ले कर आता है और खूब सब्जबाग दिखलाता है । लेकिन सब झूठे होते हैं  ।  "

    " हाँ !  बेटी तू सही कह रही है । "

"  माँ नानी का गाँव वर्षों से पानी , बिजली की किल्लत से जूझ रहा है । एक बार तो नानी के संग सारे गाँववालों ने हंडी , मटके , बाल्टियों के संग जुलूस भी निकाला था । उन्हें अपने पैसों से पानी का टैंकर से सूखे कुएँ को भरकर गुजारा करना पड़ता है । "

 "  हाँ में हाँ मिलाते हुए बेटी का समर्थन किया ।लेकिन अब समय आ गया पूरा गाँव जागरूक हो गया है , उसी बुद्धिजीवी प्रत्याशी को मतदान देंगे जो बिजली  , जल संकट की समस्या को

 सुलझाएगा ।  " 

    आँखों में चमक लिए बेटी बोली , "  माँ ,  यही तो लोकतंत्र है । वोट की पावर यानी शक्ति जनता के  हाथों में है । जिसे सत्ता की कुर्सी    पर बिठाए या फिर कुर्सी से उतार दे ।" ***

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क्रमांक - 36

विलुप्तप्राय: प्रजाति
                                               - बीना राघव
                                              गुरुग्राम - हरियाणा

जंगल में चुनाव हुआ। गौरेया ने कहा-"बहन मोरनी, तुमने किसको वोट दिया?" 
"देना क्या है बहन, लकड़बग्घे को दे दिया पर सुनने में आ रहा है भेड़िया जीतेगा इस बार!"- मोरनी उबासी लेते हुए बोली।
"वैसे तो कोऊ जीते बहन हमें का!! राजा तो शेर हुआ करता था जो अब विलुप्त प्राय: है।  मज़ाल है जो उसके रहते जंगल में कोई नियम भंग कर दे।अब बघेरा खड़ा होता नहीं।" गौरेयाँ चीं-चीं कर रही थीं।
थोड़ी देर में जंगल में आग की तरह ख़बर फैल गई कि एक बार फिर से कई वर्षों बाद भेड़िया जीत गया है जिसे गिद्धों का भी समर्थन है। 
गाय और मोर शेर की तलाश में निकल पड़े....शायद कोई मिल जाए इस विराने विजन में....। ***
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क्रमांक - 37

 वोट
                                            - राम मूरत 'राही'
                                            इंदौर - मध्यप्रदेश

"मैने सुना है कि नेता जी तुम्हारे परिवार के प्रत्येक सदस्य को वोट के बदले पाँच-पाँच सौ रुपये दे रहे थे,लेकिन तुमने लेने से इंकार कर दिया। क्या ये सच है?"

"हाँ...।"

"तुमने ऐस क्यों किया ?"

"क्योंकि अगर हम वोट के बदले रुपये ले लेते और अगर हमें उनसे भविष्य में कोई काम पड़ जाता, तो वो भला हमारा काम क्यों करेंगे ?" ***
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क्रमांक - 38                                                           

मुद्दा 
                                              - मिनाक्षी सिंह 
                                                पटना - बिहार
                                                
         मीडिया कर्मी रवि ने अगली चुनावी सभा में जाने से पहले एक कप चाय का आर्डर देकर नजर इधर उधर घुमाई तो उनकी नजर एक शख्स पर पड़ी , जो अपने बेटे से कह रहा था  ‘चलो गली की दूसरे नुक्ककर पर एक और नेता का भाषण है और वहांँ खाने का भी इंतजाम है यह लोग तो सिर्फ चाय बिस्कुट पर ही भाषण सुना कर चले गए ।’
         रवि को याद आया कि इस सभा में वे दोनों बाप बेटे बहुत ही बढ़ चढ़कर नेता जी जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे जिससे खुश हो नेता जी ने उनकी पीठ थपथपाई थी रवि ने जब उससे पूछा,‘अभी तो तुमने इन नेताजी की जोर शोर से नारेबाजी की और अब विपक्षी पार्टी में जाने और खाने की बात कर रहे हो’, तो वह बोला ‘बाबूजी सवाल नारे का नहीं सवाल है हम गरीबों के गरीबी का और भूखे पेट का जब-जब चुनाव होते हैं नेताजी के तरफ से वादे और खाने का इंतजाम होता है वादे जो नेता जी कर कर भूल जाते हैं और खाना जिसे हम खा कर भूल जाते है, इस चुनावी माहौल में ही बाबूजी हम गरीबों को कुछ अच्छा खाने को मिल जाता है और फिर बाबू जी जिन्होंने मेरी पीठ थपथपाई थी वह मेरी नहीं गरीबी की पीठ थपथपाते हैं ।’इस देश का सबसे अहम मुद्दा है गरीबी आप ही बताइए बाबू जी क्या यह नेता इस मुद्दे को खत्म होने देंगे ,कभी नही।’ ‘तो फिर क्या करोगे विपक्षी नेता को वोट दोगे  ’वह बोला बाबूजी वोट तो इस बार हम पूरे होशो हवास में ही देंगे पर ऐसा लगता है कि आपको भी अखर गया मेरा यहाँं से वहाँं जाना अब हम आपसे पूछते हैं कि क्या आपने नेताजी को कुछ कहा ,जो पिछले चुनाव में दूसरी पार्टी से चुनाव लड़े थे और इस बार दूसरी पार्टी से लड़ रहे हैं अगर पार्टी कमजोर थी तो उसे मजबूत करते पर सवाल तो सिर्फ गरीबों से ही होती है और वह रवि का जवाब सुने बगैर वहांँ से कसमे वादे प्यार वफा सब वादे हैं वादों का क्या गाता हुआ गली के दूसरे नुक्कड़ की ओर बढ़ चला ।’ ***
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क्रमांक - 39

चुनाव
                                             - चंद्रिका व्यास 
                                             मंबई - महाराष्ट्र
                                             
      कल से ललिता का चूल्हा  ठण्डा था किंतु पेट में आग धधक रही थी ! 

मैदान में नेता जी का भाषण चल रहा था !सभी कार्यकर्ता लोगों से शांति बनाये रखें कहते हुए ईमानदारी से अपनी वालींटरी का फर्ज निभा रहे थे ! 
ललिता का 13-14 साल का लडका सानंद भी उस भीड में शामिल था ! भई क्यों ना हो आखिर लोकतंत्र के चुनाव का मुद्दा है ! सभी जानना चाहेंगे के आने वाली सरकार से हमे क्या मिलने वाला है !
सानंद दौडते हुए हाफता हुआ अपनी मां को आवाज देता है मां मां जल्दी मैदान में जाओ वहां खाना मिल रहा है...जल्दी जाओ ...हां मैं भरपेट खाकर आया !

ललिता जब काम पर आई तब मेरी पडोसन ने कहा मैं तो उसे वोट दूंगी जो अपनी सडक के गड्ढे भर देगा ! 
तुरंत उसने ललिता से पूछा तुम किसे वोट दोगी ?

कमल सी ताजगी भरी मुस्कान बिखेरती हुई
ललिता ने तपाक से जवाब दिया जो हमारे पेट का खड्डा भरेगा मैं उसे वोट दूंगी ! ***
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क्रमांक - 40

लोकतंत्र का चुनाव
                                                  -  अर्चना मिश्र
                                                भोपाल - मध्यप्रदेश

         रामू इस बार बहुत ही खुश था क्योंकि उसके साहेब को टिकट मिल गया था ।  उसका काम था कि सुबह भीड़ को इकट्ठा कर दिन भर साहेब की पोस्टर लगी गाड़ी में बैठ उनका प्रचार करना।
    आजकल  उसे सोने की फुर्सत नहीं मिलती थी। दो  दिन से वह घर भी नहीं जा पाया था । आज उसके घर से खबर आई है कि उसका बेटा बीमार है ।
उसे घर जाना है सुनकर साहेब बिफ़र गये। रामू अब तो आखिरी समय है चुनाव प्रचार का। बहुत काम सर पर है, अभी छुट्टी 
देना संभव नहीं है। उसने  गिड़गिड़ाते हुए साहेब  के पैर पकड़ लिये। मेरा बेटा बीमार है उसे
अस्पताल ले जाना है। बड़ी मुश्किल से साहेब ने एहसान जताते हुये इजाज़त तो दी पर यह कहकर कि अगर तू नहीं आया तो मैं काम से  हटा दूँगा ।
     जैसे ही वह घर पँहुचा पत्नी ने रोते- रोते बताया कि बेटे को दो दिन से बुखार है।  बेटे को लेकर  वह तुरंत अस्पताल गया ।  पता चला कि बेटे को टाइफाइड हो गया है उसे भर्ती करना पड़ेगा। जिसके लिये पाँच हज़ार रुपये  जमा कराने पड़ेंगे ।  सुनकर रामू के  पैरों तले धरती खिसक गयी ।
 कहाँ जाए ?  किससे मदद माँगें?
 पत्नी के समझाने पर  वह साहेब से पैसा माँगने चला गया।

 किसी तरह हिम्मत जुटाकर साहेब से बोला। 
   मेरा बेटा बीमार है उसकी हालत ठीक नहीं है मुझे उसको अस्पताल में भर्ती करने के लिये पाँच हज़ार रुपये चाहिये। 

 सुनते ही साहेब आग बबूला हो गए । क्यों रे!  काम तो पूरा भी नही किया नहीं तूने। जब चुनाव प्रचार  के दो-तीन दिन बचे है तो तुझे पैसों के साथ- साथ छुट्टी भी चाहिए। 
  मैं  नहीं दे सकता न पैसा न छुट्टी।   मुझे  तेरे जैसे धोखेबाज की कोई जरूरत नही।
     सुनकर  रामू सन्न रह गया। 
    साहेब मैंने इतनी ईमानदारी से आपका काम किया है, ऐसा मत करिए ।  मेरा लड़का मर जाएगा कह रामू रोने लगा। 
    मेरा दिमाग खराब मत करो, इसे कोई बाहर निकालो। कल से इसे काम पर मत लेना, कह साहेब जैसे ही उठने को हुये ,पता नहीं  रामू के अंदर इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी कि सीना तान उसने  साहेब से कह दिया साहेब ! फिर मैं विपक्ष के पास चला जाता हूँ । सुनकर साहेब अवाक रह गए। तुम ऐसा कैसे कर सकते हो रामू ? 
  " यह लोकतंत्र का चुनाव है 
साहेब । "
   यह सुनते ही साहेब की आवाज़ धीमी हो गयी।  रुक रामू!  कहते हुये साहेब का हाथ जेब की तरफ चला गया। ***

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क्रमांक - 41

कालिया का चुनाव
                                               - बीजेन्द्र जैमिनी
                                               पानीपत - हरियाणा

       मां अपने मकान में घुसती है । तभी लड़का दौड़ता हुआ आता है -
     " मम्मी - मम्मी ! कालिया अकंल आये थे । जो चुनाव में खड़े है । दो हजार रुपये दे गये है । कहँ रहे थे । वोट मुझे ही देना । नहीं तो जिन्दा नहीं रहोगे ।"
     " नहीं बेटा ! कालिया को वोट नहीं देगें । इसने चार - पांच हत्या कर रखीं हैं । अब तो पुलिस पकड़ भी लेती है । चुनाव जीतने के बाद तो पुलिस भी नहीं पकड़ेगी । नहीं बेटा ! किसी कीमत पर कालिया को वोट नहीं देगें । चाहे कुछ भी हो जायें । " 
     देखते - देखते कालिया चुनाव हार जाता है । अगले दिन हत्या के अपराध में पुलिस , कालिया को पकड़ लेती है। परन्तु हाई कोर्ट से जमानत मिल जाती है । हर कोई कालिया से घबराया हुआ है । चुपचाप एकत्रित हो कर जीतने वाले नेता से मिलते हैं । नेता आश्वासन देता है कि इस समस्या को समाधान शीध्र निकाल लिया जाऐगा । परन्तु आप सब इतने  सावधान रहें ।
     कालिया की कोर्ट की तारीख टूट जाती है । कोर्ट के आदेश पर पुलिस छापेमारी शुरू कर देती है । परन्तु कालिया पुलिस की गिरफ्त में नहीं आता है। एक दिन पता चलता है कि पुलिस की मुटभेड़ में कालिया मारा जाता है। ***
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क्रमांक - 42

बे दाग
            
                                  - लज्जा राम राघव "तरुण"
                                       फरीदाबाद - हरियाणा     
                                       
              चुनाव की घोषणा हो चुकी थी । सभी दल अपनी रणनीति बनाने में जुट गए थे। सभी ने अपने अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए थे। सभी प्रत्याशियों ने पूरे जोर-शोर से अपना चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया था। हर प्रत्याशी का लक्ष्य था "जीत"! हर कोई येन् केन् प्रकारेण् यह चुनाव जीतना चाहता था। उसी के अनुरूप अपनी रणनीति बनाने में लगा हुआ था।
             इधर इस चुनाव को लेकर आमजन भी राजनैतिक चर्चा से अछूता नहीं रह गया था। चाय की दुकान से लेकर गली के नुक्कड़ तक,.. चौपाल से लेकर धर्म स्थलों तक यही चर्चा थी। क्या विद्यालय, क्या पंचायत घर, सभी मंत्रणाओं के केंद्र बने हुए थे।अब चर्चाओं का मुख्य विषय था, 'प्रत्याशी का चुनाव'... "कि-किसे वोट दिया जाए?"  इसी को लेकर आमजन की निगाहें दो प्रत्याशियों पर आकर टिक गईं थीं। पहला प्रत्याशी एक पढ़ा-लिखा, प्रखर वक्ता, नौजवान था। .....परंतु,.. वह राजनीति में नया था।'..... और,... दूसरा वही पुराना, "राजनीति का मंजा हुआ खिलाड़ी!"
                आमजन इन दोनों को ही, 'उनके गुणों, अवगुणों की तराजू पर तोल रहा था ।जाति समीकरण भी एक अहम् मुद्दा था ।इसी पैमाने के आधार पर कुछ लोग नवयुवक का पक्ष ले रहे थे, तो कुछ पुराने में ही अपना भविष्य तलाश रहे थे ।
                     अन्ततः आमजन अब दो गुटों में बंट चुका था । एक पक्ष नवयुवक के पक्ष में,.. तो वहीं दूसरा पक्ष,... 'पुराने राजनीतिज्ञ के हक में आमने सामने आ चुका था।'  यहां तक कि अब एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका था।
               आज एक पक्ष के प्रत्याशी का गांव में चुनावी दौरा था। उस पक्ष ने अपने प्रत्याशी का बड़ी धूम-धाम व गाजे-बाजे से स्वागत किया, तथा उसके पक्ष में पूरे जोशो-खरोश से नारेबाजी भी की। प्रत्याशी ऐसे स्वागत से गदगद हो गया, और अपने भाषण में कई योजनाओं, घोषणाओं, का पिटारा खोल तथा भविष्य के कई सुनहरे सपने दिखा वहां से चला गया। उसके पक्ष के लोग बहुत खुश थे,तथा अपने प्रत्याशी की जीत पर आश्वस्त भी।
                 उधर यह सब कुछ देख दूसरा पक्ष तिलमिला उठा । वह ये सब कुछ बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था।... बातों ही बातों में, तू-तू, मैं-मैं, होने लगी और...! तकरार यहां तक बढ़ गई कि लाठियां चल गईं। दोनों तरफ के बहुत लोग घायल हो गए। कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए, जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। 'तनाव' दोनों तरफ पूरे यौवन पर था।...... परंतु..! 'अभी तक किसी भी पक्ष के प्रत्याशी ने गांव में आकर ना तो दर्शन ही दिए थे, और ना ही उनकी खोज खबर ली थी।'... हां......! प्रशासन ने एहतियात के तौर पर गस्त जरूर बिठा दी थी, 'ताकि दोबारा......?'
                 दूसरे दिन का अख़बार दोनों ही पक्षों के लिए एक बेहद चौंकाने वाली खबर लेकर आया। "अखबार के मुख्य पृष्ठ पर दोनों प्रत्याशी बाहें फैलाकर मिलते दिखाई दे रहे थे, तथा एक प्रत्याशी ने दूसरे के पक्ष में बैठने का निर्णय ले लिया था!"
                   आमजन जो दो धडों में बंटा था, "अस्पताल के बिस्तर पर पडे, 'एक दूसरे से नजरें चुराते हुए, 'अपने दुखते जख्मों को सहला रहे थे ।" 'वे' दोनों 'बे दाग' थे । ***
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क्रमांक - 43                                                              

लोकतंत्र का चुनाव 
                                                - शारदा गुप्ता
                                              इन्दौर - मध्यप्रदेश
                                              
        दामोदर व संतोष की दाँतकटी दोस्ती ने पता नहीं क्यूँ आज विकराल रूप धारण कर लिया था ।
     “हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिए तो हम आज चैन से जी रहे है ।”दामोदर का कहना था ।
    
      “लोकतंत्र वनतंत्र कुछ नहीं होता। सब बकवास है । अनपढ़ व ग़रीब जनता को बेवक़ूफ़ बना कर वोट कबाड़ना व कुर्सी हासिल करना यही लोकतंत्र का मतलब रह गया है । “संतोष बोला ।
      “वोट कबाड़े बिना कुर्सी भी तो नहीं मिलती ना। वोट पाने के लिए ग़रीबों की थोड़ी सी मदत कर दी तो हर्ज ही क्या है ? “दामोदर का तर्क था ।
    “हाँ हाँ क्यों नहीं , इस तरह की मदत करके ही तो गुंडे मवाली कुर्सी हड़प कर राज करते है।”संतोष थोड़ा टैश में आकर बोला।
     “भाई कोई भी जीते हारे हमारी तूटी तो हमेशा बजती है। “ दामोदर बात यहीं ख़त्म करने के लहजे में बोला।
      “हाँ हाँ क्यों नहीं , उच्च वर्ग के अमीर जो हो ना? लोकतंत्र जाए भाड़ में।”संतोष का चेहरा तमतमा गया।वह बाँहें चढ़ा कर लड़ने को तैयार हो गया ।
      “तो तुम ही क्यों नहीं लड़ते चुनाव।पढ़े लिखे व सभ्य कहलाते हो दुनिया की नज़र में।”दामोदर ने भी ग़ुस्से से कहा।
       “हाँ हाँ मैं लड़ूँगा चुनाव । इस लोकतंत्र में आइ गंदगी को साफ़ करूँगा। अपने जैसे पढ़े लिखे व देश भक्तों को राजनीति में लाऊँगा। पढ़ा लिखा आज का नौजवन  व सच्चा देश भक्त ही इस लोकतंत्र को बचाएगा ।”
      संतोष के अंदर उबलते लावे को देख कर लोगों में आशा जागी कि सच्चा लोकतंत्र आने वाला है। ***
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 क्रमांक - 44

लोकतंत्र का चुनाव 
                                               - गोकुल सोनी
                                            भोपाल - मध्यप्रदेश
                                     
     गुड्डू भैया भारी तनाव में दिखे कार्यकर्ताओं ने पूछा- बताइए भैया कल किस गांव में प्रचार के लिए चलना है? गुड्डू भैया सिर पकड़कर खीझते हुए बोले- क्या बताऊं तुम लोगों को? सब "गुड-गोबर" हो गया। तुम लोगों को तो पता ही है। हम लोग हमेशा कक्का जी के साथ रहे हैं। उन्होंने चार साल पहले से ही हम लोगों को काम पर लगा दिया था, कि इस बार सत्तारूढ़ पार्टी का टिकिट उनको ही मिलना है। हमने भी पार्टी के झंडे और चुनाव चिन्ह से पूरे संसदीय क्षेत्र को पाट दिया था। दिन-रात घर-घर जाकर लोगों को पार्टी की अच्छाइयां बताई और विरोधी पार्टी को खूब कोसा। अनपढ़ तक को समझा दिया कि 'पतंग' चुनाव-चिन्ह देखकर ही बटन दबाना है। अब कक्का जी का फोन आया है, कि सत्तारूढ़ पार्टी ने उनकी पतंग काट दी है और उनको टिकिट न मिलने से वे विरोधी पार्टी में शामिल हो गए हैं। उनको टिकिट भी मिल गया है। अब रातों-रात हम पूरे संसदीय क्षेत्र को कैसे समझायें की हम जो चार साल से समझा रहे थे, वह गलत था और हम जिनको पानी पी-पीकर कोस रहे थे, वे सही थे। उनके चुनाव-चिन्ह 'गिरगिट' पर ही मोहर लगाना है, पतंग पर नहीं।
     सीनियर कार्यकर्ता बोला- गुड्डू भैया, अब कुछ भी हो, 'कक्का जी' को तो जिताना ही पड़ेगा। "थूक कर चांटने" का नाम ही तो राजनीति है। ***
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 क्रमांक - 45

लोकतंत्र और चुनाव
                                                  - संगीता  सहाय
                                                  राची - झारखण्ड

सिमरन बचपन से ही बड़े आज़ाद किस्म की लड़की थी।फिर शादी हुई एक राजनैतिक परिवार में,ससुर जी और जेठ जी राजनीति में ही थे।सिर्फ उसका पति समरेश इंजीनियर था।ससुराल में वैसे तो कोई कमी नहीं थी लेकिन औरतों पर बहुत बंदिशें थीं।जब चुनाव का समय नज़दीक आया तो सिमरन बड़ी उत्साहित थी क्योंकि वो पहली बार वोट देने वाली थी।वो रोज पेपर पढ़ती ,उम्मीदवारों के विषय में सारी बातें जानने की कोशिश करती।वोट से एक दिन पहले ससुर जी आए और सभी औरतों को समझाने लगे कि मुहर किस चिन्ह पर लगाना है,उसने बीच मे ही टोका "लेकिन बाबूजी मुझे तो इस पार्टी के उम्मीदवार बिल्कुल अच्छे नहीं लगे पढ़े लिखे भी नहीं लगते",सास ने कहा "चुप कर बहु जिसे ये कह रहे हैं उसे ही वोट देना",सिमरन ने कहा कुछ नहीं लेकिन मन में तो उसने तय कर ही लिया था कि अपने पसंद के उम्मीदवार को ही वोट देगी।रात में बगल के कमरे से अचानक बड़ी भाभी के रोने की आवाज़ आई तो वो उधर जाने लगी तभी उसके पति ने रोक दिया"उनके आपस की बात है तुम बीच मे मत पड़ो" सुबह जब भाभी को देखा तो कई चोट के निशान दिखे "भाभी ये क्या हुआ,भैया ने मारा है आपको?लेकिन क्यों।"वो मैं भी इनके बताए उम्मीदवार को वोट देने से मना कर रही थी" "तो अब?"सिमरन ने पूछा?भाभी ने कहा "अब इनका कहा तो मानना ही होगा", फिर तीनों सास बहुएँ घूंघट डाल कर वोट देने निकलीं,सास ने रास्ते भर समझाया "बहु उन्हें ही वोट देना जिसे इन्होंने कहा है"ससुर जी की आंखे बता रही थीं कि सिमरन की बातें उन्हें पसंद नहीं आईं थीं,उन्होंने  सास की ओर देख कर कुछ इशारा किया तो सास ने भी इशारे से उन्हें बताया कि बहु को समझा दिया है सिमरन खड़ी सोंच रही थी ये कैसा लोकतंत्र जहाँ औरतों को अपने मन से वोट देने तक की आज़ादी नहीं। ***
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 क्रमांक - 46

दूरदर्शी
                                     भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
                                         गुड़गांव - हरियाणा
                                         
चुनाव नजदीक थी, गांव का प्रधान बहुत चिंतित दिखाई दे रहा था। चुनाव के सिलसिले में नेता जी का खत एक महिना पहले आ गया था। पांच साल बीतने को है और दुवारा चुनाव होने वाली है। एक भी काम ठीक से न हुआ। न तो पिछले वादे के मुताबिक जिनका नाम वृद्धावस्था पेंशन से कट गया था वही जुड़ पाया, न ही विद्यार्थियों को सहयोग में मिलने वाले वजीफा ही बांटा गया और न ही अनन्त उदय योजना में दिए गए अनाज ही बांटा गया करने के लिए बहुत सारे कामों की लंबी फेहरिस्त है। फिर भी चुनाव तो नेता जी को जिताना ही पड़ेगा। माथे पर हाथ रख प्रधान कुछ सोच रहा था। तभी रहमू काका वहां से गुजर रहे थे। और साथ ही गुजर रही थी एक चुनाव प्रचार गाड़ी तेज आवाज में लाउडस्पीकर पर मधुर गीत बजते बीच-बीच में इस बार नेता नहीं बेटा चुने। आवाज सुनकर एक वृद्ध महिला वोली क्या ख़ाक बेटा चुने चुनाव जीतने के बाद यह भी उसी गिरोह में शामिल हो जाएगा जो कि हर चुनाव में झूठे वादे करते हैं। प्रधान की तंद्रा भंग हुई।रहमू काका क्या सोच रहे हो प्रधान अरे होना किया है चुनाव ही तो है एक दिन की मजदूरी छोड़ कर अपना मत किसी को भी दे आएंगे होना जाना कुछ है नहीं नेता जी पांच साल के लिए निश्चिंत हो जाएंगे। लेकिन आप तो प्रधान हैं?रहमू काका मन में अनायास ही तैरने लगे। चुनावी भंवर में कितने सूरज उगेंगे और अस्त हो जाएंगे ऐसे ही माथे पर हाथ धरे मत बैठो प्रधान जी कुछ करो। प्रधान जी उठे और सड़क पर झाड़ू लगाने में व्यस्त हो गए।
चुनाव प्रचार गाड़ी बहुत दूर निकल चुकी थी। ***
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क्रमांक - 47                                                     

लोकतंत्र का पर्व
                                      -  प्रियंका श्रीवास्तव "शुभ्र"
                                             पटना - बिहार

आज मेरे शहर में लोकतंत्र का पर्व मतदान दिवस मनाया जा रहा है। हर पर्व से ज्यादा उत्साह लोगो के हृदय में दिख रहा है। सही में यह भाईचारा का पर्व है। इसे हर जाति, हर धर्म के लोग एक समान उत्साह से मना रहे हैं। 
    हर पर्व के समान शहर में कोलाहल नहीं है। कितनी शांति है। आज गाड़ियों का प्रयोग भी बहुत कम हो रहा है। अतः वातावरण बिल्कुल शांत और पवित्र लग रहा है।
    राम, रहीम जोसेफ सभी एक साथ निकले और अपने-अपने बूथ अर्थात अपनी मन्दिर तक पहुँचे और आस्था का भजन गा अपने कर्तव्य का निर्वहन कर घर को प्रस्थान किए।
     ये लाखिया चाचा पचासी वर्ष की अवस्था में भी पोते के कंधे का सहारा ले अपने बूथ तक जाने को तत्पर। इनमें तो जवानी सी जोश है। पर ये क्या बूथ पर सिपाही ने तो पोते को टोक दिया -
  "ए बच्चा तुम तो अभी अठारह साल के नहीं लगते। तुम बूथ तक नहीं जा सकते।"
  हाँ चाचा मैं तो अठारह का नहीं पर ये मेरे दादाजी पचासी के हैं। इन्हें तो आप नहीं रोक सकते और ये मेरे सहारा के बिना वहाँ तक नहीं पहुँच सकते। अतः आप मुझे इन्हें ले कर जाने से नहीं रोक सकते। मैं इन्हें इनका कर्तव्य निभाने में मदद कर रहा हूँ। 
    " किसे वोट दिलवाओगे ?"
चाचा कैसी बात करते हैं। ये गुप्त मतदान है। किसी को बताया नहीं जाता। दादाजी को जिसे देना होगा देंगे। ये उनके अपने विचार हैं।
"अरे तुम इतने छोटे हो कर इतनी बड़ी-बड़ी बातें कहाँ से सीख गए।"
 चाचा मतदान तो हमारे लोकतंत्र का पर्व है। हमें स्कूल में पढ़ाया जाता है। घर में बड़ों से भी सुनते हैं।
      सभी बालक की तीक्ष्णता पर मुग्ध हो उसे इस पर्व मनाने वाले पचासी वर्षीय दादाजी की मदद करने के लिए आशीर्वाद देने लगे। ***
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क्रमांक - 48                                                         

चुप्पी 
                                           - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 
                                          साहिबाबाद - उत्तर प्रदेश

             चुनावों के लिए जब टिकटों का बंटवारा हुआ तो विरोधिओं को लगा उनके हाथ मुद्दा लग गया है । यह मुद्दा  इतना तो है ही कि चुनावों में इसे न केवल  बड़े अच्छे ढंग से भुनाया जा सकता है ,अपितु पार्टी में विरोध के स्वरों को भी मुखरता दी जा सकती है ।
" जो व्यक्ति अपनी ही पार्टी  के  वरिष्ठ लोगों  को दूध में पड़ी  मक्खी  की तरह निकाल  कर राजनीति से  जबरन  सन्यास के लिए मजबूर कर दे  , उन वरिष्ठ लोगों को जिन्होंने पार्टी को ही फर्श से अर्श तक नहीं पहुंचाया , उसे भी पार्टी का शीर्ष नेता बनाया , अवसर मिलते ही उन्हीं को बाहर का रास्ता दिखा दिया । जिस व्यक्ति के चलते  पार्टी में अपने ही उन बड़ों का सम्मान नहीं , वो देश और देशवासिओं का क्या भला करेगा । " 
             अखबार और मिडिया में जगह - जगह , जहां भी मुमकिन था , इस प्रकार का प्रचार जोर - शोर से शुरू हो गया । 
आमलोगों के बीच आम बात चीत में  भी सुगबुगाहट होने लगी कि उन वरिष्ठों की जीवनपर्यन्त सेवा के बदले , उनका इस प्रकार अपमान नहीं होना चाहिए था । बढ़ती  उम्र के दबाव   शारीरक दृष्टि से निर्बलता का यह अर्थ थोड़े ही होता  है की उसे  बौद्धिक दृष्टि से भी अपंग घोषित कर दिया जाय । जो मानसिकता  बड़ो को  सम्मान और स्वीकार्यता नहीं देती , देश को ऐसी   तरक्की से कुछ नहीं मिलेगा । 
            विरोधियों के प्रचार तंत्र ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि और अधिक अपमान के डर से वरिष्ठों ने कुछ न कहने में ही अपनी भलाई समझी है । आम  जनता के  एक वर्ग के बीच भी यही  धारणा बनने लगी कि उनका नेता अपने बड़ों का सम्मान नहीं करता ।
            वरिष्ठों को एक बार फिर  लगा कि वर्षों तक  लोगों को मूर्ख बना कर सत्ता का स्वाद चख चुके धूर्तों को सबक नहीं सिखाया गया तो वे अपने धूर्त इरादों को साकार करने में फिर से सफल हो जायेंगें ।  उन्होंने अपनी चुप्पी तोडना उचित समझा और आनन - फानन में  मतदान से ठीक दो दिन पूर्व प्रेस वार्ता की घोषणा कर दी । पार्टी और उसका नया नेतृत्व सकते में आ गया । पत्रकारों के साथ - साथ  जनता को विशवास था  कि वरिष्ठ इस नए उपजे नेतृत्व के प्रति  अपनी नाराजगी जग जाहिर करेंगें । वार्ता कक्ष पत्रकारों की भारी भीड़ से खचाखच  भर गया । 
     वरिष्ठ तो वरिष्ठ ही थे । पार्टी को उन्होंने अपने  जवान रक्त और  जनसामान्य की वर्षों पुरानी समस्याओं के निवारण के  संघर्ष से निकली ऊर्जा से सींचकर इस लायक बनाया था कि पार्टी आज सत्ता के गलियारों से लोगों की वर्षों पुरानी दिक्क्तों  से निजात दिलाने की स्थिति में आ सकी थी । सब लोगों की  उत्सुकता आज उनके अंदर घर किये दर्द को निकलते हुए देखना चाहती थी ।
       सबसे वरिष्ठ ने प्रारम्भिक अभिवादन के बाद कहना शुरू किया , "  हमारी पार्टी आज इस स्थिति में है कि देश की जनता की  वर्षों पुरानी समस्याओं का निदान प्रभावी ढंग से कर सकती है । पार्टी को इस स्थिति में पहुंचाने में भले ही हमारे जैसे अनेक कार्यकर्ताओं ने अपने जीवन का सबकुछ समर्पित कर दिया हो परन्तु देश की जनता के सहयोग के बिना अब तक के  शासकीय जंगल को हरियाली की राह पर ले जाना सम्भव नहीं था । इसलिए हम और हमारी पार्टी  देश की जनता के प्रति अपना आभार व्यक्त करती है । हम अब भी चाहते हैं कि पहले की तरह आपकी सेवा करें परन्तु प्रकृति का काल चक्र ही ऐसा है कि शरीर , एक समय के बाद अपनी ऊर्जा अगले जन्म के लिए संजोना शुरू कर देता है ।  हमारी इच्छा का सम्मान करते हुए नई और युवा पीढ़ी ने देश के विकास की महती जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली है । हम उनके आभारी हैं ।  हमारा आशीर्वाद और शुभकामनाये उनके साथ हैं ।  आपसे अनुरोध है कि हमसे बिना कोई अतिरिक्त प्रश्न किये हमारी प्रेस वार्ता को यहीं समाप्त समझे । "
              कक्ष में सन्नाटा पसर गया । कहीं से आवाज आयी , " सभी नेता एक से नहीं होते । " ***
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मतदान की खुशी
                                                        - रीतु देवी
                                                      दरभंगा - बिहार

'भाग्यवान!चलो, मतदान कर आते हैं।'शिव सिंह बोले।
   'हाँ, हाँ मैं तैयार हूँ।आप आटो रिक्शा वाले को बुलाइए ।'
शिवानी देवी उत्साह से लबरेज होकर बोली।'
    दोनों पति-पत्नी के मुख पर आज अजीब तेज था।दोनों सवेरे-सवेरे तैयार होकर लोकसभा चुनाव के महापर्व में सम्मिलित होने के लिए मतदान केन्द्र पर पहुँच गए।
      'आप दोनों इस उम्र और इस अवस्था में भी मतदान करने आए।आप दोनों समाज के  प्रेरणा स्त्रोत हैं।'सोहनलाल ने कहा जो कि उनके पड़ोस में रहता था।
     शिव सिंह 75वर्ष  के हैं।दोनों पैर में अक्सर दर्द रहता है। शिवानी देवी 70वर्ष की हैं और दोनों पैर से विक्लांग है।दोनों अपने अधिकार का समुचित उपयोग करते हुए मतदान देकर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।***
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क्रमांक - 50                                                           

लोकतन्त्र
                                                - सत्य प्रकाश भारद्वाज
                                                          दिल्ली
               
                  चुनाव प्रचार अभी जोर नहीं पकड पाया था । न हीं पोस्टर दिखाई देते थे। कहीं-कहीं इक्का दुक्का रिक्शा लाउडस्पीकर वाला पार्टी चुनाव प्रचार कर रहा था। 
              यह आजादी की स्वर्ण जयंती का और  इक्कीसवीं शताब्दी का तीसरा चुनाव है  लोकतंत्र की रक्षा के लिए वोट के अधिकार का प्रयोग करें। आपका कीमती वोट भारत का भविष्य निर्माण करेगा। 
       फिर फिल्मी गीत बज उठा- 'अपनी आजादी को हम हरगिज भुला सकते नहीं!' 
      रामू काका अपने मित्र रहीम मियां से कह रहे थे- 'देखो मियां पचास वर्ष यूं ही बीत गए, जैसे कल की बात हो। इस दौरान गरीब और गरीब बन गए,.... और अमीर.! और अमीर! क्या गरीबों का वोट बटोर कर उन्हें गुमराह करके अमीर हुकूमत चलाएं!..'क्या यही हमारे शहीदों के लोकतंत्र का प्रतीक है?' 
              "ठीक कर रहे हो भाई रामू, 'जिस आजादी के लिए सभी भारतवासी एक झंडे के नीचे लड़े, आज उन्हें ही अपमान का घूंट पीना पड़ रहा है।' प्रशासन को अफसरशाही व गुंडा-तंत्र ने जकड़ रखा है। ऐसा लोकतंत्र चलता रहा तो जनता भी उनके पैंतरे समझ जाएगी,... फिर देखना!" 
           कुछ दिनों के बाद चुनावी नतीजे चौंकाने वाले थे। घोटालों में लिप्त नेता बुरी तरह हारे थे। लोकतंत्र पुन: अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रहा था। ***
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क्रमांक - 51                                                       

चुनावी नज़ारा
                                         -  वन्दना पुणतांबेकर
                                             इन्दौर - मध्यप्रदेश
     

          हमेशा जीन्स ,पेण्ट में घूमने वाली एक प्रत्याशी टिकिट मिलते ही सूती साड़ी में गली-मोहल्लों में प्रचार करती नजर आने लगी।गरीब बस्तियों में जा-जा कर अपनी बड़ी -बड़ी बातो से भोली भाली गरीब अनपढ़ जनता को झांसे के ठंडे-ठंडे घुट पिलाकर गर्मी का एहसास कम करवा रही थी।तभी उसने एक झोपड़ी के अन्दर झाँक कर देखा।तो वहाँ एक वृद्ध महिला चारपाई पर बीमार पड़ी थी।उसे चारपाई सहित झोपड़ी के बाहर लाया गया।उसके ईलाज के लिए रुपये देने के वादे किये गए।उसे हर प्रकार की दवाइयां उपलब्ध करवाई जायेगी।ऐसा कहकर बस्ती वालो को अश्वासन की ताजी-ताजी रोटियां परोसी जा रही थी।तभी सामने से एक युवक दौड़ता हुआ आया।झोपड़ी के बाहर जनता की भीड़ देख घबरा गया।पास जाकर देखा तो माँ की चारपाई को घर के बाहर देखकर चीख़ उठा..,"बोला मेरी मरी हुई माँ के देह को भी तुम लोगो ने नही छोड़ा,उसे भी अपने प्रचार का माध्यम बना लिया।जब उस प्रत्याशी महिला ने उस युवक के हाथ मे कफन देखा ।तो एक व्यक्ति को भेजकर उसके हाथ मे पकड़े कफन पर दो हजार का नोट रख कर उसका मुँह बंद करवा दिया गया। ओर उसे रोजगार देने की लालच का मीठा पेड़ा उसके मुँह में रख कर उसे खामोश रहने को कहा, वह खामोश नजरो से कभी अपनी माँ की मेरी देह को देखता तो कभी उस महिला प्रत्याशी उम्मीदवार को जो इस मोहल्ले में वोट की खातिर पहली बार आई थी। लोकतंत्र की निगाहों ने उसे इस चुनावी नजारे को खामोशी से देखने का इशारा किया। ***
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क्रमांक - 52                                                           

                           लोकतंत्र  सुनो                          
                                                - सन्तोष सुपेकर     
                                                उज्जैन - मध्यप्रदेश
                                                                                          
        बहुत समय बाद दिखा रामेन्द्र, बिल्कुल   थका थका सा - - -पस्त चेहरा ,निस्तेज आंखे ,बिखरे बाल- -                               अरे रामेन्द्र कहाँ हो भाई आजकल?         यहीं हूँ सर।                           अच्छा?दिखे नही बहुत दिनों से, इसलिए पूछा' ऊपर से नीचे तक उसे निहारते हुए मैने कहा,"अभी कहाँ से आ रहे हो?"                     बस , ड्यूटी से ही आ रहा हूँ सर।         ड्यूटी से?पर तुम तो ऐसे लग रहे हो जैसे किसी- - -                      "अस्पताल से आया लग रहा हूँ न सर"मेरी बात पूरी करते हुए  फीकी मुस्कुराहट से उसने कहा", सही पहचाना आपने। मरीज ही हूँ काम के बोझ का मारा मरीज।" कहते हुए वह असली मुद्दे पर आया "वो क्या जी सर कि मेरे एरिये में बहुत लो वोटिंग हुआ था    आयोग के निर्देश हैं कि वोटिंग परसेंटेज बढाओ, रैलिया निकालो,पर्चियां बांटो,घर घर जाओ- - - बस वहीँ से आ रहा हूँ,पर लोग हैं कि कुछ समझते ही नही,कोई साला पानी को भी नही पूछता,दरवाजे पर खड़ा नही रहने देते,अपमानित से घूमता रहता हूँ-    " कोई बैकवर्ड एरिया होगा"          " नही सर, शहर की सबसे paush कालोनिया आती है मेरे एरिये में,कोई डॉक्टर, कोई ब्यूरोक्रेट ,कोई बड़ा ठेकेदार, कोई सी ए । हर किसी के घर- - गसॉरी, बंगले में महंगे फोर व्हिलर, विदेशी नस्ल के कुत्ते, बड़े बड़े लॉन, स्विमिंग पूल, क्या बताऊँ सर ,सबके पास वहाँ सब कुछ है, बस नही है तो वोट देने का टाइम- - -" ***
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क्रमांक - 53                                                           

 मोहरा
                                             - नीरू तनेजा                
                                समालखा - हरियाणा 

            वह बस एक मोहरा थी अपने वार्ड के लिए ! नामांकन पत्र भरने से लेकर चुनाव-प्रचार व फिर पार्षद बनने के पश्चात भी वह पति का मोहरा ही बनी हुई थी! वार्ड के लिए उसे क्या करना है और क्या नहीं, इन सबका उसे कोई हक नही ! यदि कुछ अच्छा हो जाए तो पति बाहर से ही तारीफ बटोर लेता है, गलत कार्य के लिए उसे ही भुगतना पड़ता है क्योंकि मौहल्ले की भीड़ उसे घर में आकर घेर लेती है और काफी हंगामा कर देती है! 
             आज लोकसभा चुनाव हो रहे हैं व वह भी मतदान करने जा रही है ! पति ने फरमान सुनाया –“ याद है न कहां बटन दबाना है या दोबारा याद दिलाऊ !”
    “ नही जी, सब याद है! “ कहकर वह मतदान करने चल दी ! वोटिंग
मशीन के आगे खड़ी हुई और पति के बताए चिन्ह पर एक सरसरी निगाह डाली ! आसपास कोई नहीं था पति भी नहीं , तो दबा दिया बटन अपनी पसंद की सरकार का ! 
      आज वह स्वयं को काफी हल्का महसूस कर रही थी क्योंकि वह अपने ही लोगों पर अपनी मर्जी से राज तो नहीं कर सकी लेकिन अपनी पसंद की सरकार तो चुन सकी ! ***
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क्रमांक - 54                                                             

बेरोजगार 
                                         - इन्दु भूषण बाली 
                                        जम्मू - जम्मू कश्मीर 

       कमल रोज-रोज के मतदान से अत्याधिक परेशान था। वह अत्यंत पढ़ा-लिखा होने के बावजूद बेरोजगार था। उसकी बीवी भी तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद बेरोजगार ही थी। जबकि वह एक उच्च कोटी के नेता का चहेता भी था। जो सफलता के लिए दल भी बदल लेता था।
     यही नहीं ज्योतिष विद्या का एक महान विद्वान भी उसका परम मित्र था। वह मित्र हर प्रकार के धार्मिक उपाय कर चुका था। मगर निराशा के अलावा उसे कुछ ना मिला।
     उसने नौकरी में अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध माननीय उच्च न्यायालय में भी गुहार लगाई हुई थी। जिस पर अभी फैसला आना बाकी है।
     वह चारों ओर से टूट चुका था और अब अपने मत का प्रयोग 'नोटा' का बटन दबा कर करना चाहता था। मगर वह अपने चहेता दलबदलू नेता के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहता।
    जबकि वह लोकतंत्र की सब से बड़ी 'हानि' को जान व पहचान चुका था। वह भलीभांति जान चुका था कि लोकतंत्र में पांच मूर्ख मतदाताओं में से जिस तरफ तीन मूर्ख मतदाता अपना मत देंगे। वह ही उचित एवम विजयी माना जाऐगा।  इससे लोकतंत्र को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी सोच में लीन कमल की आंखों से कब मोटे-मोटे आंसु टपक पड़े, कमल को भी मालूम ना हुआ।  ***
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क्रमांक - 55                                                         

 विकसित सोच 
                                         - डॉक्टर चंद्रा सायता 
                                             इंदौर - मध्यप्रदेश

       हरदेवी दस वर्षों से वैधव्य् भोग रही थी
।पांच वर्षों पहले उसका  इकलौता   बेटा एक दुर्घटना में चल बसा ।
        "अम्मा। कहां की तैयारी है?"पडौस  में रहने वाले बन्टी ने बाहर की साड़ी  पहन रही  हरदेवी   से सवाल किया ।
   "तुझे नहीं  पता कि आज अपने यहाँ चुनाव  है।"
  " अच्छा   अम्मा । ये बताओ।  तुम वोट किसको दोगी?" 
    हरदेवी बन्टी की शरारत को जान चुकी थी।" तू क्या सबके सामने मशीन का बटन  दबाएगा?"
  " कल जो  पांच सौ  दे गये थे, उनको वोट नहीं  दोगी?" बन्टी मजे ले रहा था।हरदेवी बिना उत्तर दिये वोट डालने चल दी। 
लगभग   आधे घन्टे  बाद जब बन्टी हरदेवी   के घर की अगली  गली से लोट रहा था,उसने गली में स्थित भव्य  माता के  मन्दिर की ओर नज़र उठा कर देखा।अचानक उसे सीडियाँ  उतरते हुए हरदेवी दिखाई दी।
   "अम्मजी। अभी वोट डालने नहीं  गईँ आप?"  
  " नहीं । तू भी चल रहा है।"उसका चेहरा दिल से किसी बड़े  बोझ उतर  जाने के   बाद   तरोताजा लग रहा था।
     हरदेवी बन्टी के पास पहुंच कर  बोली--"बेटा। बिना परिश्रम के धन पर  मेरा कोई अधिकार नहीं। तेरे दद्दा की   पेंशन मेरे लिए बहुत है,पर मेरे  वोट पर भी किसी का अधिकार नहीं । मैने वो पांच  सौ रुपए गरीबों में  बांट दिये।अब चल वोट डालकर  आते हैं।" 
   बन्टी मन ही मन  सोच रहा था।काश!   सभी की सोच अम्मा की   कांच  माफिक साफ सुथरी होती। ***
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क्रमांक - 56                                                                

 गठबंधन
                                            - डाँ. राजकुमार निजात
                                                सिरसा - हरियाणा

           दोनों कुत्ते एक ही पड़ोस के उन दो घरों में बचपन से ही आ गए थे । उनमें एक घर राजनीतिज्ञ का था तो दूसरा घर एक व्यवसायी का था ।
           दोनों कुत्ते जन्मजात भाई थे । राजनीतिज्ञ किसी और दल से था तो व्यापारी किसी अन्य दिल से । अब क्योंकि उनके मालिक अलग अलग थे तो कुत्ते भी अपनी स्वामी भक्ति उसी तरह अलग-अलग दिखाते । 
           दोनों व्यक्ति एक दूसरे को देख कर भी राजी नहीं थे । कुत्ते भी एक दूसरे को देखकर भोंकते रहते । 
           पाँच साल तक इसी तरह चलता रहा । अपने मालिकों की तरह कुत्ते भी एक-दूसरे के धुर विरोधी हो गए थे ।
           लेकिन इस बार उन दोनों दलों में गठबंधन हो गया और वे एक दूसरे के प्रति नकारात्मकता छोड़कर सकारात्मक हो गए । दोनों एक दूसरे के साथ नाश्ता - पानी करने लगे । पार्टी की रणनीतियाँ बनने लगीं और वे घुल मिलकर  रहने लगे । 
          दोनों कुत्ते समझ नहीं पाए कि उनके दोनों मालिक दुश्मन से दोस्त कैसे हो गए ? उन्हें जब भी मौका मिलता वे एक-दूसरे को खूब भोंकते  लेकिन मालिक उन्हें चुप करा देता । 
          यह उनका केवल चुनावी गठबंधन था । 
          चुनावों के बाद परिस्थितियां बदल गई । अब वे दोनों फिर एक दूसरे के आमने सामने थे । 
          बेचारे स्वामी भक्त कुत्ते कुछ भी समझ नहीं पाए ? और धीरे-धीरे वे दोनों पागल हो गए । पागल हो जाने पर उनसे तंग आकर मालिकों ने उन्हें आजाद कर दिया । 
           अब वे दोनों  कुत्ते अपने दोनों मालिकों को खूब भोंकते हैं लेकिन उन दोनों ने अब नए कुत्ते पाल लिए हैं । ***
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क्रमांक - 57                                                           

चुनाव के वादें
                                                    - सविता गुप्ता
                                                  रांची - झारखण्ड

अबकी बार ....सरकार।...छाप पर पंजा लगाना है।सुबह से शाम तक कान फोड़ू आवाज़ गुंजते रहते है घर के बाहर।विनीत पहली बार वोट देगा;बेहद उत्साहित है दिन गिन रहा है कब आएगा वो मौक़ा जब उँगली पर स्याही लगेगी।
            दरवाज़े को धाड़ से बंद करके झल्ला कर मेरे पास आकर पुछा मम्मा क्या इनके इस तरह चिल्लाने से कोई वोट देता है क्या ?ये क्या बोल रहे है ये ही साफ़ साफ़ सुनाई नहीं पड़ता।क्या पता बेटा मै भी ये ही सोचा करती थी।अॉटो वाले की कमाई तो ज़रूर हो रही है,स्पीकर वाला भी दो पैसा कमा रहा है।
         रिक्शावाले की घंटी सुन विनीत छोटी बहन वाणी को लेने नीचे गया।वाणी ने भी आते ही सवाल किये -मम्मा चुनाव क्या होता है?बेटा जैसे आपके विधालय मे अलग अलग समूह होते है जिसमें से मॉनिटर चुना जाता है ,उसी तरह सरकार बनाने के लिए कई समूहों मे से किसी एक को चुना जाता है ।वो क्या करते हैं?वाणी ने फिर सवाल किए।वो सरकार बना कर हमें कई तरह के सुविधाएँ देते है ताकि हम सब अच्छे से रह सके ,अच्छे से खा सके ।हम सब का जीवन ख़ुशहाल हो....हाँ हाँ बड़ा ख़ुशहाली ;विनीत बोल पड़ा ‘भगत (रिक्शावाला)को देखो ‘बारह साल से देख रहा हूँ फटा पहनता है,बीमार है फिर भी रिक्शा चला रहा है टूटी हुई झोपड़ी मे रहता है।छह महीने पहले दवा के अभाव मे उसकी पत्नी की मौत हो गई।ये चुनाव ,सरकार सब बेकार के चोचले हैं।
           चुप रहने मे ही भलाई समझी।मुझे पता है जितनी जानकारी मुझे है उससे ज़्यादा विनीत को भी है सरकार की उप्लबधियों के विषय के बारे मे पर ,बहस मे समय व्यर्थ करना बेकार था। ***
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क्रमांक - 58                                                              


मतदान
                                           - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
                                             सिरसा - हरियाणा

शहर में सभी दलों की चुनावी रैलियां हो चुकी थी। प्रत्याशी उम्मीदवारों ने अपने-अपने समर्थन में मतदान करने की अपील की थी और बहुत सारे आश्वासन  भी दिए थे , तथा उन्होंने विरोधी-दलों पर  निम्न स्तर की टीका- टिप्पणी भी की थी । मनीष ने सभी उम्मीदवारों के उद्बोधन को बड़े गौर से सुना था क्योंकि उसका नाम प्रथम बार मतदाता सूची में सम्मिलित हुआ था। उसे प्रथम बार अपनी इच्छा से अपनी पसंद के उम्मीदवार को मतदान करने का शुभ अवसर मिला था । उसके घनिष्ट मित्रों ने, परिवारजनों ने एवं अन्य अड़ोसी-पड़ोसियों ने उसे अमुक पार्टी के अमुक उम्मीदवार के  पक्ष में मतदान करने को कहा था। वह सब की बातें धैर्य से सुनता और मुस्कुरा कर उनका समर्थन कर देता ।आज मतदान करने के लिए पोलिंग बूथ पर जाते समय भी सभी ने उसे समझाया कि अमुक पार्टी को वोट देने से अमुक फायदे होंगे ।
मनीष के मन में तीव्र आक्रोश था , यह बात सत्य है कि वह प्रथम बार मतदान करने जा रहा है पर क्या वह इतनी सी भी बात नहीं समझता कि उसे किसे मतदान करना है, यदि ऐसा ही है तो कानून ने उसे क्यों इस उम्र में अपनी मनपसंद के उम्मीदवार को चुनने का अधिकार प्रदान किया है? अभी तक परिजनों ने भी उस पर अपनी इच्छाएं ही थोपी हैं ,उसे अपनी मर्जी से कोई कार्य करने नहीं दिया ,पर आज वह स्वतंत्र है, अपनी इच्छा से अपना मत व्यक्त करेगा। गुप्त मतदान प्रणाली का यह भी एक राज है कि बिना किसी को जाहिर किए अपनी इच्छा से, अपनी पसंद के, अपने उम्मीदवार को, अपना मत प्रदान करें। यह सोचते-सोचते वह मतदान केंद्र में प्रविष्ट हो गया। ***
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क्रमांक - 59                                                           

हम होंगे कामयाब 

                                    - श्रुत कीर्ति अग्रवाल 
                                         पटना - बिहार
                                         
"पापा मुझे आप से कुछ बात करनी है, बहुत जरूरी!"

इतनी-इतनी व्यस्तता के बीच, बेटी रेखा ने आकर कहा तो जल्दी में मुँवह में दाल-चावल ठूँसते हुए रामसेवक जी का हाथ रुक गया...
"हाँ, कहो!"
"पापा मुझे वोट देने नहीं जाना!"

चौंक से गए वह। इस बार, जब इसका पहला वोट है, इसे तो उत्साह से भरा होना चाहिए था। फिर ये 'उनकी' बेटी है... पार्टी के उस कर्मठ कार्यकर्ता की, जो चुनाव का एनाउंसमेंट होने के बाद से ही पागलों की तरह भागदौड़ कर रहा है। रैलियों के लिए मंच सज्जा से लेकर भीड़ जुटाने तक, सुदूर गांवों के घर-घर तक पँहुचकर सबको अपनी पार्टी के पक्ष में कर लेने तक, शहर भर में पोस्टर विज्ञापन से लेकर बूथ संचालन तक... है कोई दूर-दूर तक जो इन कामों में उनकी बराबरी कर सके? उनकी पार्टी के सारे बड़े नेता उनको जानते पहचानते हैं, इज्जत करते हैं, यहाँ तक कि उनके घर में भी आते-जाते रहते हैं। लाखों की संख्या में नवयुवक उनके हाथ के नीचे काम करते हैं और एक इशारे पर कुछ भी कर जाने के लिए तैयार रहते हैं। उनको अच्छी तरह मालूम है कि कुछ तो ऐसा है उनके व्यक्तित्व में, कि उनके घर में भी कोई उनसे नजर मिला कर बात करने की हिम्मत नहीं करता। 
"क्यों नहीं देना है वोट?"   बच्ची की ना समझी भरी जिद को समझने की नीयत से पूछा उन्होंने!
स्पष्ट देखा कि रेखा थोड़ा सहम सी गई थी। थूक निगलते हुए बोली,
"हमको कोई कैंडिडेट पसंद नहीं है।"
अब गुस्सा आ गया उनको! 
"अपने नेता को जिताने के लिये तुम्हारा बाप धूप में भूखा-प्यासा ऐसे-ऐसे लोगों की चिरौरी विनती करता घूमता रहता है जिसके पास तुम खड़ी तक नहीं रह सकोगी और तुमको कोई पसंद नहीं है? भूल गईं कि तुम्हारा ये सारा ऐश-आराम इन्हीं नेताओं की बदौलत है।"

पिता ने कहा तो रेखा के चेहरे पर तैश की लकीरें सी खिंच गईं।
"नहीं पापा, ये सब आपकी मेहनत और वफादारी की बदौलत है, किसी की कृपा से नहीं!"
फिर हिकारत से बोली
"ये लोग तो सिर्फ अपनी चिंता में मगन है, देश के लिए कोई नहीं सोंचता। किसी भी पार्टी की सरकार हो, बस वही लोग अपने दोस्तों यारों के साथ अमीर होते हैं, साधन संपन्न होते हैं। जनता अपनी रोजी-रोटी और जरूरतों के लिए जान भी दे दे, किसी को परवाह नहीं।"

बेटी का आक्रोश देखकर वे कुछ सोंच में पड़ गए। 
"इतनी छोटी सी उम्र में इतने बगावती तेवर?"
"हाँ पापा, हम पढ़ी लिखी जेनरेशन हैं। सोंचते समझते भी हैं, देख भी सकते हैं कि क्या-क्या हो रहा है। हमें न बेवकूफ बनाया जा सकता है न हम किसी की चाल में आएँगे।"
समझ गए रामसेवक कि इस पीढ़ी को डाँटकर या दबा कर अपनी बात नहीं मनवाई जा सकती।
"तो वोट न देकर तुम क्या बदल लोगी? बल्कि अगर तुम्हारी अपनी भागीदारी न हो तो बाकी लोगों के चुनाव पर ऊँगली उठाने का अधिकार तुम्हें क्यों मिले?"
इस बार रेखा सोंच में पड़ी हुई थी।
"पढ़ी लिखी हो तो पलायन मत करो। सोंचो समझो, सही कैंडिडेट चुनो। सिर्फ टीवी वगैरह देख कर बड़े बड़े नेताओं की बात करने के बजाय अपने एरिया के कैंडिडेट्स के बारे में पता करो। अच्छे लोग भी हैं समाज में, बदलाव चाहती हो तो उन्हें खोजो!"
सही तो कह रहे हैं पापा, रेखा सोंच रही थी। उन्होंने तो एक बार भी अपनी पार्टी को वोट देने की बात नहीं की! 

आक्रोश पिघलने लगा था। वह युवा है, स्थितियों को सुधारने की जिम्मेदारी है उसपर।
"ठीक है पापा, मै अपने देश से प्यार करती हूँ इसलिए वोट देने जरूर जाऊँगी।"
उसके चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान खिल उठी थी।***
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क्रमांक - 60                                                     

  नेता नम्बर एक
                                               - आशा शैली
                                         नैनीताल - उत्तराखण्ड
                   
        वह नम्बर दो का नेता था। यानि नम्बर एक के नेता की जी हजूरी करने के लिए लाचार। माहौल में गर्मागर्मी चल रही थी। उनका आन्दोलन चरम सीमा पर  पंहुच चुका
था। रोज़ जुलूस निकाले जाते, सभाएँ होतीं, नारे लगते लेकिन कुछ बनता-बनाता तो नज़र नहीं आ रहा था।
        ऐसे में केंद्रीय मंत्रालय से फोन आया तो वह चौंक गया, ‘उसे क्यों बुलाया गया है? कायदे से बुलाया तो मुख्य नेता को जाना चाहिए था।’ सोच-विचार करते-करते ही वह निर्दिष्ट स्थान पर पँहुच गया।
        दूसरे दिन अख़बार में उसका बयान था, ‘‘यदि हमारी माँगें नहीं मानी गईं तो हमारे नेता बारी-बारी आत्मदाह करेंगे। भीड़ ने नारे और भी  तेज़ कर दिए। नम्बर एक के नेता ने स्पष्टीकरण माँगा तो छुटभैया नेताओं ने नम्बर दो का
ही समर्थन किया। कहने लगे, ‘‘कुछ तो करना ही पड़ेगा।’’ किन्तु समझौते के आसार नज़र नहीं आरहे थे। निश्चित तिथि पर पैट्रोल, कैरोसीन आदि का प्रबन्ध् चौराहे पर कर के नेता नम्बर एक के आत्मदाह की घोषणा के साथ ही भीड़ के मध्य शोले भड़क उठे। पुलिस हमेशा की तरह देर से पँहुची। तब तक नेता नम्बर एक इतना जल चुका था कि उसे बचाया न जा सका। आन्दोलनकारी जलते शोलों के साथ ही भड़क चुके थे। तोड़-फोड़ के बीच नेता नम्बर दो ने समझौता होने की सूचना दी।
        अब उसके पास लाल बत्ती वाली गाड़ी थी, बढ़िया कोठी और विशिष्ठ नागरिक सुविधओं की कमी नहीं थी। अब वह नम्बर एक का नेता था । ***
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क्रमांक - 61                                                         

एक दिन की रोटी
                                       - डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी
                                         उदयपुर - राजस्थान

       चुनाव के अगले दिन दो बच्चे, जो भाई-बहन थे, छुप कर एक जीप में बैठ गये।

भाई ने कहा "कल भी इस गाड़ी में बैठे, आज भी बैठ गये... अरे अब, आँख मींच कर क्या सोच रही है?"

"इस गद्दी पर बैठ कर तो रानी बन गयी हूँ... अब ऐसा लग रहा है कि दादा, माँ, बापू, मैं, तू सब बैठ कर कल जैसे मिठाई खा रहे हैं, लेकिन...."

“लेकिन क्या?”

“बहुत तेज़ भूख लग रही है...” कहते हुए उसकी आखों में आँसूं आ गये। ***
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क्रमांक - 62                                                           

चुनावी प्रक्रिया
                                                  -  प्रतिभा सिंह
                                                 राँची - झारखंड

        जैसे-जैसे चुनाव का दिन नजदीक आ रहा था वैसे-वैसे रंजीता के पति की बेचैनी बढ़ती जा रही थी । उन्हें याद आ रहा था पिछला चुनाव जब उन्हें गाँव में मतदान कराने के लिए भेजा गया था । वहाँ उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था । सरकारी मुलाज़िम होने के नाते उन्हें इस बार भी यही डर सता रहा था कि उनकी चुनावी ड्यूटी फिर से किसी ऐसी जगह पर न लग जाए जहाँ परेशानियों से दो-चार होना पड़े । 

आज आफिस से लौटने के बाद पतिदेव थोड़े गंभीर दिखे ।रंजीता ने पूछा, " क्या हुआ? ......ऐसे मुँह लटकाए हुए क्यों हो ? ".........." जिसका डर था वही हुआ"  पतिदेव ने खीजते हुए जवाब दिया और  बैग रखकर बाथरूम की तरफ जाने लगे, ......"आज जमाना कितना आगे निकल गया है । इंटरनेट की सुविधा के कारण हर चीज आनलाइन उपलब्ध है  पर चुनाव के मामले में हम आज भी लकीर के फकीर हैं । आज जब लोग हाईटेक होने के कारण दूर बैठे अपने लोगों तक अपनी बात के साथ पैसे भी कुछ सेकंड में पहुँचा पाने में समर्थ हैं तो फिर चुनाव में बेकार  की फिजूलखर्ची क्यों ?  सरकारी कर्मचारियों की चुनाव-कार्य मे नियुक्ति के कारण दफ्तरों का कामकाज प्रभावित होना एवं सरकारी खर्च  में अनावश्यक वृद्धि  व   अन्य कई तरह की परेशानियों से बचा जा सकता है ।"  यह कहते हुए पतिदेव ने तौलिया उठाया और बाथरूम का दरवाजा जोर से लगा लिया । ***

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क्रमांक - 63                                                             

वंशज 
                                               - मनोज सेवलकर 
                                                इन्दौर - मध्यप्रदेश
                                                
          देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी के शहरी अध्यक्ष महोदय ने शहरी मुख्यालय के एक बंद कक्ष में शहर की राजनैतिक हलचल को लेकर कुछ महत्वपूर्ण स्थानीय नेताओं के साथ एक गोपनीय बैठक का आयोजन किया ।  इस बैठक का प्रमुख मुद्दा था निरंतर पार्टी की छबि जनता के बीच धूमिल होना तथा कार्यकत्र्ताओं का बेबाक हो जाना । 

बहुत देर तक चर्चा चुहूल के बाद भी नतीजा नहीं निकला पाने के कारण शहर अध्यक्ष भड़ककर बोले-" ये भी कोई बात हुई, हर कोई अपने अपने लोगों को बचाने के लिए तर्क पर तर्क दिये जा रहा है ।  आलाकमान को मैं क्या जवाब दूंगा ।  यही कि सभी नेता पार्टी के बैनर तले स्वतंत्र होकर कार्य कर रहे हैं ।  अपनी मर्जी के मालिक हैं ।"

"अध्यक्षजी, ऐसा नहीं है ।  वोटों की जुगाड बनाये रखने के लिए हमारे कार्यकर्ता क्षेत्र में दबाव बनाये रखते हैं और जनता के छोटे मोटे कामों को करवाकर पार्टी की छबि बनाये रखते हैं ताकि जनता भी खुश और आर्थिक लाभ उठाते हुए स्थानीय कार्यकर्ता भी ।"  शहर के युवा कार्यकारिणी के प्रतिभाशाली अध्यक्ष ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हुए जोश खरोश के साथ अपनी बात रखी । 

"यह कहिये कि गुण्डागर्दी और भ्रष्टाचार के बल पर पार्टी की बुनियाद रखी जा रही है ।" अध्यक्षजी ने युवक के तैवरों पर कटाक्ष करते हुए कहा ।" 

"हुजूर, ये सफेद कपड़े हम लोगों ने क्यों पहने हैं ? आप बताईये।" एक पार्षद ने अध्यक्षजी से उलट प्रश्न पूछ लिया । 

"पार्षदजी, ये पार्टी का गणवेश है । इसी गणवेश की शक्ति से हमने उन श्वेत वर्णी अंग्रेजों को बे-दखल किया था सत्याग्रह, आंदोलन, पद यात्रा आदि अनेक कार्य किये थे । यह गणवेश ही अंग्रेजों के जाने के बाद हमारी पहचान है ।" अध्यक्षजी ने स्टार्च किते श्वेत वस्त्रों को ठीक करते हुए कहा ।

"हुजूर, हम अंग्रेजों के रंग के तो नहीं है ना, लेकिन उनके श्वेत वर्ण को आवरण रूप में पहन कर उनकी नीतियों पर चलकर उनकी सल्तनत चलाने की सीख को बरकरार तो रख ही सकते हैं ।" पार्षद ने अपना तर्क देते हुए अध्यक्षजी की ओर झुककर ऐसे सलाम किया मानों सामने अंग्रेजों का थोपा गया गवर्नर बैठा हो।

पार्षदजी के तर्क व सलाम करने के तरिके से सभा कक्ष में तेज हंसी की बाढ़-सी आ गई । इस बाढ़ में तरबतर अध्यक्ष महोदय अपने आपको अंग्रेजों का वंशज मानते हुए मंद मंद मुस्कुराने लगे। ***
                                 
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क्रमांक - 64                                                       

दांव पर आजादी 
                                               - सविता इन्द्र गुप्ता 
                                               गुरुग्राम - हरियाणा

            पिछले कई दिनों से गन्दी झुग्गी-बस्ती  में साफ़-सुथरे अमीर लोग जुटने लगे हैं। भोले  को  कुछ समझ नहीं आ रहा कि ये लोग बहुत कुछ मुफ्त में देने की बात क्यों कर रहे हैं ? आज वोट डालने का दिन है उसे घबराहट हो रही है -  
" भीखू दद्दा, यह सब क्या हो रहा है, हम किस्मत के मारे गरीबों पर आखिर मेहरबानी क्यों ?"
" भोला, कई पार्टियों ने मुफ्त चीजें देने का वादा किया है, जिससे हम उन्हीं को अपना कीमती  वोट दें।"  
" कीमती  ...... मतलब ?  पेट भरने तक को रोटी नहीं, फिर हमारे पास कुछ भी कीमती कैसे हो सकता है ? " 
" यही मुझे भी समझ नहीं आ रहा। "  
 " दद्दा,  मेरे  बाबा ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। वे कहा करते थे कि आजादी सबसे कीमती  होती है। कहीं ये सब वोट ले कर मेरी आजादी तो नहीं छीन लेंगे ?"   
 लोगों का हुजूम अपनी तरफ आता देख भोला ने अपनी झुग्गी का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया है। लोग दरवाजा खटखटा रहे हैं - 
" भोले, वोट देने चलो  ...अपनी कीमती वोट खराब मत जाने दो।"
वह अंदर से ही चीख कर  बोला -
" किसी को नहीं दूंगा, चले जाओ सब, तुम वोट ले कर मेरी आजादी छीन लोगे।" 
" भोले, वोट जरूर दो और वो भी सही व्यक्ति को। तभी तुम अपनी कीमती आज़ादी को कायम रख सकोगे। " 
"लेकिन सही कौन है, पहले ये तो पता लगा लूँ ?"  ***
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क्रमांक - 65                                                           

चुनाव
                                                - डॉ वर्षा चौबे
                                              भोपाल - मध्यप्रदेश

        " सुनो भाभी, जी मैं कल काम पर नहीं आऊंगी।" पोंछा लगाती हुई रेखा बोली।
" क्यों...?"
" अरे कल हमारे चुनाव की रैली है, बहुत लोग आने वाले हैं।"
" तो रैली में तेरा क्या..?"
" काम वाम नहीं भाभी जी, साड़ी, मिठाई बटेगीऔर सुना है आज रात में पैसा और......" फुसफुसाते हुए पास जाकर बोली।
" तुम लोग भी, बस ज़रा सा कुछ बटा नहीं कि लालच में आ जाते हो। सब  बिक जाते हो।"

" बिकते विकते कुछ नहीं भाभी जी, लेकिन अब मुफत में सामान बटे और फिर आई लक्ष्मी को  ठुकराना भी तो ठीक न।" बड़ी समझदार बनती हुई बोली।
" अच्छा तो फिर वोट..... आधी बात आश्चर्य से उसके मुंह में ही रह गई।
"वह तो हम उसी को देंगे भाभी जी जिसने हमारे झुग्गियों में काम किया और देश में काम किया। हम भी टीवी देखते हैं, हमको सब पता है।" कहते हुए रेखा ने पौंछे के कपड़े को जोर से रगड़ कर फर्श के दाग को मिटा दिया। ***
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क्रमांक - 66                                                              

राजनीति 
                                        -  तेज वीर सिंह ' तेज '
                                             पुणे - महाराष्ट्र
                                        
आज शहर में देश के जाने माने और सबसे बड़े नेता जी की चुनावी रैली थी। समूचा शहर उमड़ पड़ा था। हर तबके और हर समुदाय के लोग मौजूद थे। पिछले चुनाव की तरह इस बार भी लोगों ने नेता जी से बड़ी आशायें लगा रखी थीं।
एक तो पहले ही नेताजी तीन घंटे देरी से आये। धूप और गर्मी से लोग परेशान थे। मगर फिर भी सब डटे हुए थे क्योंकि अधिकाँश लोग तो पैसे लेकर सभा में आये थे। बचे हुए लोग भविष्य में कुछ मिलने की आशायें लगाये थे। नेताजी ताबड़तोड़ डेढ़ घंटे अपना चिर परिचित  भाषण देकर चले गये।
जिसका विश्लेषण सभा स्थल पर संध्या कालीन भ्रमण  करते हुये एक परिवार ने कुछ इस प्रकार किया।
"बापू, ये नेताजी तो बहुत उस्ताद निकले। इस बार कोई  नयी घोषणायें नहीं की।"
"बेटा, अभी पिछले चुनाव की सभी घोषणायें ज्यों की त्यों पड़ी हैं।"
"ये अपने विरोधियों को इतना गरियाते क्यों हैं?"
"जब किसी के पास अपने कार्यों का बखान करने को कुछ नहीं होता तो ऐसे ही तरीके प्रयोग करते  हैं।"
"तो फिर ऐसे लोग जीत कैसे जाते हैं?"
"ये लोग साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाते हैं।"
"वह क्या होती है?"
"इस नीति के अंतर्गत ये लोग सब तरह के हथकंडे अपनाते  हैं। कुछ तो इनके अंध भक्त होते हैं। शेष को ये लोग धन और अन्य वस्तुओं का लालच देकर खरीदते हैं। जो इस लालच में नहीं आते, उनको धमकी देते हैं। जो इस पर भी अडिग रहते हैं, उन्हें हमेशा के लिये शाँत कर देते हैं।"
"इसका मतलब ये लोग तो बहुत ही खतरनाक हैं।"
"अब तुम सही समझे।"
"बापू, आप अभी अपने समाज के अध्यक्ष हो।अपनी सोसाइटी के सेक्रेटरी हो।कालेज के दिनों में छात्र संघ के महा सचिव रहे थे। आप भी एक बार देश की राजनीति में भाग्य आजमाओ ना?"
"नहीं बेटा, अब यह शरीफ़ लोगों के वश का काम नहीं है।" ***
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क्रमांक -67                                                                 

चुनाव का खेल
                                     - संगीता गोविल
                                         पटना - बिहार
                                         
       "का हो रामू भैया! कहाँ के तैयारी बा। चुनाव खातिर जा रहल बाड़ का?"
"अरे,का कहीं। खेतवा के फसल कटवा लीं तब न चुनाव में क लगल जाई। खेसारी लालजी के बुलावा त रोजे आ रहल बा।"
"हाँ हो। ठीके कह रहल बानी। उ सब त दू-चारे दिन के खेला बा। बाकी दिन त कोई पुछहूँ वाला नइखे ।"
"अरे किसनवा! सबहूँ के अभी ओसारा पर बुला ल। हमहुँ पहुंच तानी।" 
सामने किसन को देख कर मुखियाजी यह काम भी निपटाने लगे। चुनाव आ रहा है और नेता जी ने अपना वोट पक्का करने की जिम्मेदारी मुखिया को सौंप दी है । जब खेत से लौटे तो सब ओसारा पर जमा थे । 
"का हो सबनी के हालचाल ठीक बा न?"
"हाँ मुखिया जी। अप ने के कृपा बा।" सभी बोल पड़े।
"हाँ तो भाइयन लोग के घर-गृहस्थी निमन से चलावे ख़ातिर कौनो दिक्कत नइखे न? तोहनी के हाल जाने खातिर बुलइनि ह। फसल तैयार बा। तोहनि के फसल बर्बाद ना होखे के चाही।"
"नहीं भैया कवनों परेशानी नइखे। सभन के गोदाम के मरम्मत हो गइल बा। चिंता के कोनों बात नईखे ।"
"हाँ, त ई सब के बरकरार रखे के खातिर हमनि सब के भी कुछो करे के पड़ी ना।"
"मतलब?" किसी ने पूछा ।
"अरे, ओतना गहराई से विचार करेके थोड़े न जरूरत बा। बस एगो भोटवा देवे के पड़ी ।"
मुखिया जी थोड़ा रुक गए । अनुमान लगाया क्या असर हुआ है । फिर पकड़ मजबूत करते हुए बोले ,"सभे के काम करवावे खातिर खेसारीये लाल जी न बाड़न। उनका के जितायब तबबे न ई सब मिलत रही। अउर पैसवो दिहन ।" 
"तोहनि सब के भोटवा देवे में का जा तआ।" जादू का-सा असर हुआ ।
सब मुखियाजी की हाँ-में-हाँ मिलाने लगे ।
=====================================क्रमांक - 68                                                              

चुनाव माहौल
                                                - विमला नागल
                                                अजमेर - राजस्थान

घर में  रात के खाने के बाद सभी परिवार वाले  टी.वी पर चुनावी चर्चा देख आपस में राजनीति पर वार्तालाप कर रहे थे। यह इन  दिनों रोज का ही नियम बन गया।
    घर की नन्ही स्वधा को टीवी पर रोज की चिकचिक, आपस में छीटाकशी, आपस में चिल्लाना..बिल्कुल अच्छा नही लगता।
  "दादाजी!ये सब अंकल-आंटी रोज-रोज लड़ते क्यों है?स्वधा ने पूछा।
    दादाजी हँसने लगे और प्यार से उसे पुचकारते हुये बोले.."बेटा!हमारे देश मेंअभी चुनावी माहौल है,इस कारण सब अपने पक्ष में बात कहते है।"
   "चुनाव का मतलब आपस की लडाई।"दादाजी
  नही रे बेटा!चुनाव में सब वोट देंगे फिर हमारी सरकार बनेगी ,वो हमारा देश चलायेंगे।
 ओहह....दादाजी!आप तो कहते हो कि जो लड़ते झगडते ,गन्दी बातें बोलते वो तो गन्दे बच्चे होते है...तो ये तो सब रोज रोज लडते है फिर गन्दे लोग.......।
पूरा परिवार उस बालमन की सोच पर स्तब्ध रह गया और प्रण किया कि सोच समझ कर ही देश हित में मतदान करेंगे। ***
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क्रमांक - 69                                                                

 मतदान
       
                                     - शराफ़त अली ख़ान
                                     बरेली - उत्तर प्रदेश

    गांव के मतदान केन्द्र पर विधानसभा के चुनाव के लिए मतदान चल रहा था.मैं एक पार्टी की ओर से अभिकर्ता नियुक्त किया गया था. मतदान तेज़ी से चल रहा था.तभी एक वृद्धा अन्दर आई. नाम आदि पूछकर और अन्य औपचारिकता पूरी कर मतदान अधिकारी ने उसे मोहर तथा बैलट पेपर थमा दिया. वह वृद्धा उन दोनों चीजों को हाथ में लेकर मेरी ओर देखकर बोली-," लल्ला, निसान कहां पे लगाऊं?"
       मैं एकाएक झल्ला गया-," मेरे सिर पर!"
       वृद्धा सहम गई, मैं ने सामान्य होकर उससे समझाते हुए पूछा," तुम किसे वोट देने आई हो?किसी को जानती हो तो बताओ?"
        --"लल्ला, मैं तो इन्दिरा पर मोहर लगाना चाहूं."
       मैं एक पल खामोश रहा फिर पीठासीन अधिकारी की ओर मुखातिब होकर बोला,"-आप इनकी मोहर कांग्रेस उम्मीदवार के चिन्ह पर लगवा दीजिये."
      अधिकारी भड़क गया," वाह साहब, मैं क्यों लगवाऊँ?इसे जहाँ मोहर लगाना है, अपने आप लगाएगी."
        अभी हम लोग आपस में बहस कर रहे थे और वह वृद्धा बैलट पेपर के पीछे वहीं पर खडे खडे मोहर लगा कर  बैलेट बाक्स में डाल रही थी. ***
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Comments

  1. बहुत सुंदर व समसामयिक उपादेयता दर्शाने वाला प्रयास ।आप सभी को बहुत बहुत बधाई व सहभागी रचनाकारों शुभकामनाएं

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  2. जय हिन्दी जय भारत


    " लोकतंत्र का चुनाव " पर आधारित मौलिक लघुकथाएं आमन्त्रित है

    लघुकथा के साथ अपना पता व अपना एक फोटों शीध्र ही नीचें दिये गये WhatsApp पर भेजने का कष्ट करें । लघुकथाओं को ब्लॉग bijendergemini.blogspot.com पर प्रसारित किया जा रहा हैं ।

    निवेदन
    बीजेन्द्र जैमिनी
    भारतीय लघुकथा विकास मंच
    पानीपत
    WhatsApp Mobile No.
    9355003609

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  3. बेहद सुन्दर प्रयास ,समसामयिक राजनैतिक परिदृश्य को परिलक्षित करती हुई बेहतरीन रचनाओं को एक पटल पर लाने के लिए निश्चित ही आप बधाई व साधुवाद के पात्र हैं ।नमन आपके प्रयास को ।

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  4. उम्दा विविधरंग में रंगी लघुकथाएँ।चुनाव पर बहुमूल्य संकलन 👌🏻👌🏻🙏🏻🙏🏻👏🏻
    - मनोरमा जैन पाखी
    ( WhatsApp से साभार )

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  5. लघुकथा पर आपका कार्य सराहनीय। लोकतंत्र का चुनाव समसामयिक विषय। साधुवाद।

    - अनिता रश्मि
    रांची - झारखण्ड
    दिनांक : 22 अप्रैल - 2019
    ( WhatsApp से साभार )

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  6. आदरणीय बीजेन्द्र जैमिनी जी मैं आपका हृदय तल से आभारी हूँं। क्योंकि आपने मुझे बुद्दिजीवियों का एक हिस्सा बनाया, कठोर लेखनी को लचीला बनाया। सम्माननीयों
    जय हिंद
    - इन्दु भूषण बाली 
    पत्रकार, समाजसेवक, एसएसबी विभाग का पीड़ित पूर्व कर्मचारी, लेखक हिंदी डोगरी व अंग्रेजी एवं भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी
    जम्मू - 181202
    ( WhatsApp से साभार )

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