लोकनायक जयप्रकाश नारायण की स्मृति में लघुकथा उत्सव
घर के द्वार पर बैठा बलबीर नीम की डालियों को होले होले से हिलते हुए देखकर बीते दिनों की यादों की परत दर परत उधेड़ने लगा ।
"पत्नी बेटे की उम्र छः साल की थी तभी चल बसी ।"
" मैंने बेटे को बहुत कष्टों से पाल पोस कर बड़ा किया और समय आने पर अपने बेटे का ब्याह भी बड़े चाव से किया था । "
"मगर कहते हैं कि किस्मत एक कदम आगे ही चलती है । "
बहू ने आते ही बेटे को ना जाने कौन सा पाठ पढ़ाया कि वह अपने ससुर के यहाँ घर दामाद बनने पर राजी हो गया।
"मेरा तो उसे ख्याल तक न आया ।"
"मैं बूढ़ा लकवाग्रस्त अकेला कैसे रहूँगा ? "
"बेटा मुझसे अपने हिस्से के पैसे लेकर चला गया । "
"कुछ दिन मेरी पड़ोसियों ने मदद की लेकिन यह हुआ कि रोज रोज कौन करे और आखिर कब तक ,?"
सभी पड़ोसी ने मिलकर सरपंच के साथ बैठकर सलाह मशविरा किया ।
"सब की बात सुनकर सरपंच ने कहा एक तरकीब है ।"
"एक धोबी का लड़का है मेरी नजर में जिसके माता पिता नहीं रहे उसे इनकी देखभाल में रख देते हैं ।"
इनके खेत खलिहान की भी देखभाल हो जायेगी उस बेचारे को भी एक घर मिल जायेगा ।
"सरपंच ने बलबीर से पूछा तुम क्या कहते हो ।"
"सरपंच जी आप का यह फैसला मेरे बचे कुचे दिनों की शायद किस्मत बदल दे । "
"भगवान पर भरोसा रखो बलबीर ।"
"इसके अलावा मेरे पास कोई चारा भी तो नहीं है ।"
"भूपेंद्र ने आकर मेरे घर खेत और मुझे भी संभाल लिया लेकिन किस्मत अब भी एक कदम आगे ही ...आगे भाग रही थी ।"
"सालों बाद बेटा बहू बच्चों सहित लोट आया ।"
मुझसे जो पैसा ले गया था , ..उसे उसके ससुर ने शेयर में लगा दिया था ।
"शेयर में पैसा डूबते ही घर से निकाल दिया ।"
"तुम्हारी इस कहानी पर मुझे विश्वास नहीं है ।"
"तुम अब यहां क्या लेने आए हो?"
"पिता जी मुझे क्षमा कर दें । "
"मैं कौन होता हूँ क्षमा देने वाला "
"क्षमा देने वाला ऊपर वाला है ।"
" पिता जी अब भूपेंद्र की क्या जरूरत है ।"
"मैं आ गया हूँ ।"
"मुझे पता था तुम ऐसा ही कुछ कहोगे ।"
भूपेंद्र मेरी देखभाल करता है वह यहीं रहेगा ये बात कान खोलकर सुन लो ।
तुम को में डेढ़ बीघा खेत और खलिहान में घर बनाने के लिए जगह देता हूं , तुम वहीं जाकर रहो ।
"पिता जी , मैं आप का पुत्र हूँ । "
"आप मुझे इस तरह घर से बेघर कैसे कर सकते हैं ? "
"बेटा बबूल के वृक्ष से आम की चाहत करना मेरे लिए फिजूल है ।"
आज तुम मुफलिसी में हो इस लिए मेरी शरण में हो कल फिर पैसा आ जाने पर मुझे कब छोड़ दो तुम्हारा क्या ऐतबार ?
"मेरे इस कड़े फैसले को सुनकर बेटा बहू चले गए।"
"दरवाजे पर खड़ा मेरी हम उम्र नीम का पेड़ खुश हो अपनी डालियां हिला रहा था।"
मानो मुझसे कह रहा हो नीम बूढ़ा ही सही अपने औशधिय गुण नहीं छोड़ता
- अर्विना गहलोत
गौतम बुद्ध नगर - उत्तर प्रदेश
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"इस महामारी के कारण लॉक डाउन में शहर में तो बोर हो गया हूँ यार मैं ।"रोहन अपने चाचा के लड़के से फोन पर बतिया रहा था,"सोच रहा हूँ तेरे गाँव आ जाऊं।खुली हवा मिलेगी,शुद्ध खाना-पानी मिलेगा,वहीं पढ़ाई कर लूंगा ,ऑन लाइन और तेरे साथ ट्रैक्टर चलाना भी सीख लूँगा।"
"आजा-आजा ,मज़ा आएगा,पर हाँ, पढ़ाई करनी है तो पहले बन्दर बनना भी सीखना पड़ेगा।"
"ऐं!"रोहन चौंका,"बन्दर?क्या मतलब?"
"मतलब ये कि "दीपक तनिक हँसा,"गाँव में पढ़ाई करनी है तो बन्दर की तरह पेड़ पर चढ़ना सीखना पड़ेगा।हमारे गाँव में कोई ज्यादा ऊंचा मकान नही है न!और मोबाइल फोन का नेटवर्क तो हाइट पर ही मिलता है,यानी पेड़ पर !अभी भी मैं पेड़ पर ही बैठकर तो तुझसे बात कर रहा हूँ।"
- सन्तोष सुपेकर
उज्जैन - मध्यप्रदेश
========= बरसाती आँखें
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आज कई दिनों से पानी लगातार बरस रहा था।
बादलों ने जैसे सारे आसमान का पानी लेकर उसके गांव में उडेल दिया था।
सड़कों पर कमर तक पानी भरा हुआ था। घर द्वार सब बाढ़ में जलमग्न हो गए थे।
दस ही दिन पहले बुधुआ खेत की मुंडेर पर बैठा सूनी आँखों से आकाश को ताक रहा था।
भयंकर गर्मी में ईश्वर से बरसात भेजने की प्रार्थना कर रहा था। खेत पानी के बिना तड़क रहा था। न ही हल चले थे और न ही बीजनों की बुआई हुई थी।
तभी अचानक से घिरे बादल उसके लिए खुशियों की उम्मीद लेकर आए थे। बस वह इन्तजार कर रहा था कि जमीन जरा सी भीजे तो वह हल चलाए पर पानी ने जो मूसलधार लगाई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।
घर द्वार तो बाढ़ में बह ही गए घर में रखी बीजन भी सारी पानी में सड़ गई।
पहले सूखा, फिर बाढ़...
"हे भगवान.. ये कैसा खेल दिखाय रहे हो..।" बुधुवा बड़बडा़ उठा।
बस बचा रह गया था बुधुआ... केवल बुधुआ... बेबस किसान और उसकी अनवरत बरसती आंखें...
- कनक हरलालका
धूबरी - असम
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जब से रामजी शहर हो कर आया था तबसे अपने सूने खेत पर बैठकर ,एक कोनें में पत्नी द्वारा लगाई कुछ हरी सब्जियों को देख रहा था। चेहरे पर कभी मुस्कान और कभी माथे पर रेखाएं धूप छांव की तरह आ जा रही थी। रानी पानी लेकर आई, फिर चुपचाप देखती रही, जानती थी किसान रमजी नया सोच रहे हैं। रामजी ने कहा,"रानी तू सही थी,शहर के बाजार, लोग,ढ़ाबे, हवा-पानी सब कड़वा -कड़वा लगा ।"
तू हसे नहीं तो कमाने का एक आईडिया दिमाग में आया है।देख खेत तो पानी मांगते हैं, बादल हम बना नही सकते।पेट रोटी मांगता है मेहनत हम कर सकते हैं।कुछ नया सोचा है। रानी, अपना गाँव शहर के करीब हो गया है । यहाँ से ट्रक, कारें गुजरती हैं यदि हम "चूल्हा -चौंका" नाम से सादा सा ढ़ाबा खोलें। घर के ही पुराने पीतल व मिट्टी के बर्तन, मिट्टी का चूल्हा, घर की सब्जी ,तेरे हाथों की रोटियां ,यहाँ तू पहले मैं पीछे ।सब कुछ गाँव का। सुनने में तो अच्छा लग रहा था पर पड़ोसी क्या कहेंगे ।कोई नहीं आया तो गरीबी में आटा गीला हो जाएगा।
सोचते -सोचते सप्ताह बीत गया।जब रविवार को पुत्र गोपाल शहर से मित्र राजेश के साथ घर आया तो बाहर के आँगन में लीपापुता चूल्हा, पुराने बर्तन, मांड़ना देखकर चकित रह गया। माँ ने पुरी बात बताई तो उसने थोडी देर में ही कागज पर "चूल्हा-चौका" नाम का पोस्टर बना कर बसस्टैंड पर लगा दिया।
शाम को तीनों ने नये "चूल्हा चौका "में खाना खाया ,माँ बना रही थी ।बाबा,गोपाल और मित्र चटकारे लेकर खा रहे थे । राजेश ने इस तरह चटाई पर बैठकर कभी नहीं खाया था ।बोला, आंटी मैं दो चार टमाटर ले जाऊँ । सबने हस कर हामी भरी।
कुछ दिनों बाद एक कार में परिवार के चार सदस्य आए। रामजी ने पहले लोटे से हाथ धुला कर मटके का पानी पिलाया।फिर पास में उगी सब्जियाँ दिखाई। भिंडी, टमाटर, हरी मिर्च, तोरी। एक छोटे बच्चे ने लपक कर टमाटर तोड़ा और मुँह में ड़ाला। उसकी माँ ने डांटा कि धोया नहीं केमिकल लगा होगा। रामजी ने कहा, नहीं जी ।एकदम शुद्ध है। बच्चा भी चिल्लाया, वाह ,माँ मजेदार, रसवाला फेनटास्टिक।
फिर रानी के पास चटाई पर चारों बैठ गए। थाली में दाल सब्जी मिर्च का कूट्टा. और चूल्हे की धीमी आँच पर सिकी गोल रोटी। एक एक कर सब की थाली में आती जाती और उदरस्थ हो जाती। साथ में छाछ व अंत में गुड़ की डली। भोजन के बाद चारों ने वादा किया कि वो अपने मित्रों को भी बताऐंगे।
उस दिन रामजी और रानी बन गए सचमुच अन्नदाता। अब दोनों कम पानी में सब्जियाँ उगाते और चूल्हे की आँच से नये अरमान सजाते। गाँव के बाकी निराश किसान भी हिम्मत को साथी बना बढ़ने का सोचने लगे।
- डा़ . नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
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रेल गंतव्य स्थान की ओर चलने को त्यार थी! गर्मी से बचने को मैं खिडक़ी के साथ बैठा था !तभी एक ग्रामीण परिवार मेरे पास सामने की सीट पर आ बैठा !गाड़ी के चलते ही सामने की सीट पर बैठी महिला ने मुझे कहा : आप वहां से उठ उसके साथ वाली सीट पर बैठ जाइए ! कारण पूछने पर उसने कहा : इस बहु का जेठ उसके सामने बैठा है,वह आपकी सीट पर बैठ जाएगा तो बहु को घूंघट में नहीं बैठना पडे़ गा !चुटकी लेते हुए मैंने कहा :क्या आपको मैं जेठ जी से छोटा लग रहा हूँ ? सभी ठहाका मार हंसने लगे ! मैंने जेठ जी से पूछा - जेठ जी अगर घूंघट में चलती बहु कहीं गिर गई तो उसे कौन उठाए गा ?जेठ जी ने तपाक से कहा : मैं उठाऊं गा !सलाह देते हुए मैंने कहा :बहु का घूंघट उतरवा दो, फिर वह न गिरे गी, न आपको उसे उठाना पडे़ गा !इतने में जेठानी बोली :जो नयी बहु आईं हैं वे तो घूंघट करती ही नहीं !तब मैने तपाक से कहा - इस बहु को भी नयी करलो !सभी हंसने लगे !मैंने जेठ जी से कहा :ग्यारह रु का नेग बहु को दो और घूंघट उतरवा दो !आज्ञा कारी जेठ ने कहना माना ! घूघट के बन्धन से बहुरानी को छुटकारा मिलते ही आंखों में अश्रुधारा लिए ,मेरे पेरों की ओर उसके हाथ बढ़ते देख ,मैंने उसे स्वतन्त्र सुखी जीवन का आशीष दिया और चुटकी लेते हुऐ मैंने कहा - लो यह बहु भी नयी हो गई !
- सुभाष भाटिया
पानीपत - हरियाणा
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झक्क सफेद कपड़ों में नेता जी गाड़ी से उतरे और पूरी हनक से गाँव की ओर चल पड़े।आगे-आगे नेता जी, पीछे से उनकी जयकार करते उनके भक्त और समर्थक।कच्चे-धूूूल भरे रास्ते पर पड़ती कदमों की थाप से उड़ती धूल नेता जी के सफेद कपड़ोंं को धूूमिल कर रही थी। कंधेे पर कुदाल लिए कीचड़-मिट्टी से बुुुुरी तरह सना एक वृद्ध किसान उनके पास आया और उनसे पूछा - आपलोग कौउन हैं भाई ?
- अरे ! हमको नहीं पहचाना ?
- नाहीं।
- अरे, मैं नेताजी हूँ।
- कौउन नेताजी ?
- तुम्हारे क्षेत्र का नेता।तुम्हारा विधायक।
- हाँ।तो..?
- मैं तुमलोगों से मिलने आया हूँ।तुम्हारी समस्याएँँ सुनने और उन्हें दूर करने आया हूँ।
- अच्छा ! पाँच बरिस बाद हमरी याद आई है तुमको ? आँएँ...!
- वो क्या है कि.....!
- चुनाव आय गये तब आए हो... ?
- नहीं, नहीं।ऐसा नहीं है चचा।
- अइसने है बचवा।अइसने है।
- मैं तुमलोगों की गरीबी,परेशानी दूर करके तुमलोगों के जीवन में खुशियाँ भरने आया हूँ।
- हमको मुरूख समझे हो का बबुआ ? अरे, तुम का भरोगे ? तुम तो खुदे भरे-पूरे हो।
- क्या मतलब ?
- अपना शरीर देखे हो ? बहुत विकास कर लिये हो तुम ?
- वो तो... खाया-पिया हुआ, स्वस्थ शरीर है, इसलिए..।
- वही तो ? खाया-पिया हुआ शरीर। पहिले तो तुम हमरी ही तरह दुबले-पतले थे।इसी धूल-मिट्टी में खेलते थे।साइकिल से चलते थे।और, आज ई गाड़ी, ई ठाट-बाट...?
- वो तो पार्टी वालों ने....।
- अच्छा ! पार्टी वाला दिया है ? गरीबे का पैसा लूटके न तुम अपना पेट भरा है ? मगर हम तो हड्डी का ढाँचा ही रह गये बबुआ, देखो।
- तुम्हारी यह ढाँचे वाली हालत पहले की सरकारों की बदौलत हुई है। हमने तुम्हें ज़िंदा तो रखा है ?
- बस, ज़िंदा इसलिए रक्खे हो कि हम तुमको वोट दे सकें।और किसी काम का हमें समझे भी हो का तुमलोग ?
- हाँ, तो अगर ज़िंदा रहना है, तो हमको वोट दो।बस, यही तो कहने आए थे हम। चलो भाई चलो। राम..राम।
- हाँ, तुम नेता हो। हमरे नेता।फटी बनियान पहिनकर जीने वाले इ गरीब-मजदूर-किसान सब का नेता, जो दिन में चार बार कपड़ा बदलता है, मँहगी गाड़ी में चलता है और काजू-बादाम खाता है।इ कइसा परजातंत्र है भाई ?
वृद्ध किसान की आवाज खेतों के सन्नाटे में गूँजती रही। नेता जी तो कब के जा चुके थे !
- विजयानंद विजय
बोधगया - बिहार
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शहर में पहली बार रामू दावत पर क्या पहुंचा अपितु अपने साथ गिलास एवं थाली लेकर गया। ठेठ ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी ही परिपाटी रही है। बेचारा दावत में क्या घुसा गेटकीपर ने उसके धोती एवं कुर्ता देखकर पहले तो रोक दिया किंतु रामू ने पूरी कहानी समझाई तब कहीं अंदर जाने दिया। देखकर दंग रह गया कि लोग क्या क्या खा रहे हैं। चूंकि रामू ठहरा गांव का आदमी। उसने तो अपनी थाली में चपाती और सब्जी डाली तथा गिलास में पानी भरकर धरती पर बैठ गया टूटे फूटे मंत्र भजने। लोग खाना तो भूल गये उस रामू पर नजर टिकाने लगे। मंत्र भजकर आलती पालती मारकर खाना शुरू किया। बड़े ही इतमीनान से खाना खाया और थाली एवं गिलास को धोकर घर की ओर रवाना हुआ। लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। कभी वे खुद के खड़े होकर खाने को देखते तो कभी रामू का सभ्य तरीके का खाना याद आता। सचमुच रामू ने वो छाप छोड़ी कि रामू जब तक आंखों से ओझल नहीं हो गया तब तक उसे निहारते रहे। सहसा एक आवाज आई-गांव के लोग बेशक असभ्य कहलाए किंतु खाना खाने में सभ्य लोगों को भी मात दे जाते हैं। कोई हंस रहा था तो कोई मन ही मन सोच रहा था कि काश! खाना खाए तो रामू की भांति।
- डा.होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ - हरियाणा
===============नई पतलून लाओ - बोला वो गांव का आदमी
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अभी अभी फोन की घंटी बजी थी और तभी चेहरे पर मुस्कुराहट ओढ़े न जाने क्यों इतना इतराते हुए वो बोले "सुनो वो मैं जो कल नई पतलून लाया था वो देना जरा।" मैं असमंजस में पड़ गई कि आखिर अचानक इस आदमी को क्या हो गया है।सोच ही रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी मैंने एक हाथ में पतलून थामी ही थी कि दरवाजा खोलने भागी।दरवाजा खुला तो देखा सामने मेरे पिता जी खड़े हैं।प्रणाम किया और अंदर आने को कहा।
मेरे मन में अभी भी यही चल रहा था कि कितना पैसा खर्च करते हैं ये भी रोज नए कपड़े उठा लाते हैं।तभी वो आए और पिता जी पैर छूकर बोले "आप को आज जाना है ना अपने दोस्त की बेटी की शादी में और वो पतलून जरा पुरानी सी लग रही थी सो बाबू जी मैं आपके लिए नई पतलून लाया हूं।वही पहनकर जाना आप।" इतना बोलकर वो ऑफिस के लिए निकल गए और मैं एक हाथ में पतलून लेकर केवल मुस्कान भरे मुखड़े से पिता जी को निहारती हुई उनको दुआएं देती रही।ये गांव का आदमी भी ना कितना अलग सोचता है।
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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मित्र की शादी में गांव आया था वह।पता ही न चला कब आठ दिन बीत गये दादी,चाचा, भाई, दीदी किसी ने भी एहसास ही नहीं होने दिया कि वह पारिवारिक सदस्य नहीं।सारे गांव वालों के व्यवहार में अपनत्व का भाव था।
उसे याद आ गयी मामाजी के यहां शहर में हुई शादी की।जहां एक अनजाने की तरह उसे सुबह से शाम तक का समय कितना भारी लगा था। गैरों की तो बात ही क्या अपनों का भी, अनजानों के जैसा व्यवहार।आज भी उसकी याद एक अजीब सा अहसास कराती है।
वह सोच रहा था अनजाने लोग यह हैं या मामाजी के यहां थे अनजाने लोग।
डॉ. अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर, उत्तर प्रदेश
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"रोटी-शोटी खा ले।" कपड़े में लिपटे रोटीदान को कंधे से उतारते जस्सी बोल उठी।उसके दूसरे हाथ में छाछ की तपेली थी। बिंदा आ ,लस्त सा जमीन पर बैठ गया।
"बहुत गर्मी गिर रही है इस बार।"
जस्सी ने बिंदे को देखा। जेठ ने उसका सारा रंग ले लिया था।"हम्मम" कह उसने के बिंदे के आगे थाली रख दी।
"दो कौर तु भी ठेल ले। सुऐरे से काम में बनी है।"
" मैं खा लूँगी ।पहले तू मुँह झुठा कर ले।" जस्सी को बिंदे की फ्रिक अच्छी लगी।
वह सुच्चे मन से बैठ गयी।सामने लहलहाता खेत खड़ा था। जस्सी का मन जुड़ गया।
"रब्बा खैर करे।इस बार खेत पूरा भरा है। सोने के दाने उग रहे है।"जस्सी के आगे गिरवी रखी सोने की बालियाँ चमक गयी।
बिंदे को जस्सी की ये टोक खल गयी।"अरे निगोड़ी,तुझे हर काम में टोक देनी है।पिछले बार की याद है ,आधा खेत नुच गया था ।"
जस्सी की भवे तन आई,"पिछला न सुना। तेरा आधा खेत साहूकार का गोदाम खा गया था। वहाँ तो तेरी जुबान गीली लकड़ी रहती है। बस, धुआं छोड़ती है ,आग न दिखती।"
बिंदे का हौसला मरा था। वह अपनी हथेलियाँ बाँचने लगा। मन में सोच उठी," इन लकीरों को सारी जिदंगी उधेड़ा पर जाने वो कहाँ रूठी बैठी है।
जस्सी ने जब बिंदे का ये हाल देखा तो पिघल गयी," तु हौल क्यों खाता है। इस बार तुझे साहूकार की कैसी आब।तूने बैंक का लोन लिया है, सूद भी चढ़ेगा तो साहूकार सी पकड़ नहीं रखेगा। बीज-खाद भी देख ,कितने सुच्चे है। तुझे खबर है कि अबकी आधा गाँव साहूकार की ओर से मुड़ गया है। इस बार साहूकार का गल्ला खाली जायेगा। "
फसल कटने के पहले साहूकार की ऐलानी आई,सारे गाँव के लिए। अगले दिन बैठक जुड़ेगी।
बैठक में साहूकार अपनी करनी पर उतरा,"तुम सब खूब सयाने हो गये हो। बैंक की ओट लगा रहे हो। जाओ,जहाँ बसर हो पर मेरा बकाया दे कर।"
"हाँ आज सारा हिसाब-किताब होगा। देखे,किसके नाम कितना ब्याज लिया और कितना सूद चढ़ा?सबके बहीखाते यही मँगवाओ।"बैंक के बड़े अफसर का फरमान आया।
साहूकार को ऐसी कुछ उम्मीद नहीं थी। पुराने बहीखाते तो हेर-फेर दिये गये थे,पर नये में कलम की नोक नहीं चल पायी थी।
"आज देखे बकाया किसका निकलता है।" अफसर के रौब के नीचे साहूकार दबा था।
इस बार साहूकार बकाये के लपेटे में घिरा था और आज उसके हाथ की सीवन उधड़ रही थी।
- अंजू निगम
नई दिल्ली
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राकेश मां की दवाई लाने,गाँव के दूसरे की बाइक मांगकर निकला।पुलिस वाले ने रोका और पूछा"लाॅकडाउन में घर से क्यों निकले,बताओ?"
राकेश - "साहब मां की दवाई लाने जा रहा हूँ। लाॅकडाउन है तो माँ को मरने तो नहीं दे सकता,ना।"
पुलिस- "गाँव का आदमी होकर जबान लड़ाता है।मास्क तो पहना नहीं है, हेलमेट कहाँ है?"
राकेश- "सर मैं अपने मित्र की गांव से बाइक मांगकर लाया हूँ। मैं गरीब आदमी हूँ। बाइक रखने की औकात नहीं है। मुझे जाने दीजिये। मुझे दवाई तुरंत लेकर जाना है।"
बहस होती देख इंसपेक्टर आ गया।सिपाही से पूछा,जानकारी ली।फिर राकेश से कहा -"डाक्टर की पर्ची है।"
राकेश ने वह पर्ची दिखा दी।
संतुष्ट होकर सिपाही से कहा -"इसे जाने दो।गाँव का है,गरीब है,जरूरतमंद है।इसकी मदद हमें करनी चाहिए यार।"
सिपाही - "सर कितना लेना है।"इंसपेक्टर "यार डायन भी सात घर छोड़ती है।एक घर इसे मान लो।"
वे दोनों मिलकर हंसने लगे।
- डाॅ •मधुकर राव लारोकर "मधुर "
नागपुर - महाराष्ट्र
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हाय हाय रे मोर कन्हैया मोर छोटु-- ये मरी कौनसी बेमारी आई है गाँव में। मोर दो दो लल्ला को खा गई। रामदेई ताई का करुण क्रंदन पूरे गाँव को दहला रहा था लेकिन सांत्वना का एक स्वर भी कहीं नहीं था। हर आदमी अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित और स्वार्थ से मजबूर था।
कोरोना का कहर चारों ओर बरस रहा था। गांव के कितने ही घरों के चिराग बुझ चुके थे। रामदेई ताई के बड़े बेटे की तबियत हमेशा ही नरम-गरम चलती रहती थी। छोटा भाई बडे़ भाई को लेकर शहर के अस्पताल गया वहाँ जाकर पता चला कि उसके भाई को कोरोना हो गया है। लिहाजा उसे भी कोरोना पाजीटिव निकला। ऐसी घड़ी से निकले रामदेई ताई के दोनों लडके घर से कि सूरत भी देख नहीं पाया कोई। शहर के अस्पताल में ही उनका क्रिया कर्म हो गया।
घूंघट की आड़ में सदैव घर की देहरी तक जिन्हें झाँकने की इजाजत नहीं थीं वे बहुएं 25/50एकड़ खेती के हिसाब किताब क्या जाने। बच्चों के स्कूल के कामकाज क्या जानें?
- - और वाह रे मेरे भारत के संस्कार और कुटुंब के प्रति सद्भावी कर्तव्य भावना। रामदेई ताई का तीसरा बेटा जो शराब की अधिकता से अर्धांग का शिकार हो कर बिस्तर से लग चुका था उसके दिल में भीतर तक बसा गाँव जाग उठा। ---उसे अपने गाँव में पिता की प्रतिष्ठा और भाईयों की असमय मौत ने झकझोर दिया। खानदान की बहुओं, बूढ़ी माँ और दुधमुंहे बच्चों की चिंता से वह उठ खड़ा हुआ - - गाँव की मिट्टी हवा पानी के साथ दायित्व बोध ने उसे इतनी मानसिक ताकत दे दी कि घिसट-घिसट कर बाहर ओसारी में गद्दी सँभाल कर वह सारा कामकाज सँभालने लगा। कोरोना ने दो जिंदगियां छीन लीं उस घर से--- लेकिन एक मरी हुई जिंदगानी को बेहिसाब मनस्विनी शक्ति देकर गाँव के जुआरी - - शराबी मगर भोले-भाले कर्मठ इंसान को फिर से इंसान बना दिया। शत-शत नमन है मेरे भारत के गाँव की मिट्टी और संस्कृति को।
- हेमलता मिश्र " मानवी "
नागपुर - महाराष्ट्र
===================हर गंगे
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"आओ गुड्डन की अम्मा . ....... अब नहला दो हम का......... आज गंगाजल भी मिला लेहो पनियन की बाल्टी मा . ..हमहु गंगा नहा जाई...... आज हमरी आत्मा को शांति मिलिहै और आज गुड्डन की अम्मा हमरी गुड्डन का भी शांति मिल गई रे......।हर गंगे. . हर गंगे .. ..आज उसकी आत्मा भी तृप्त होकर बैकुंठ धाम चली गई न. .आ.. ना औउर ला हमका भींगा दे पानिया से" और गुड्डन की अम्मा ने सर से पानी डालकर गुड्डन के पिता को नहला दिया.. .. मन ही मन सोचने लगी बहुत अच्छा हुआ आज मन की साध तो पूरी हुई .....।जिसनें गुड्डन के साथ प्यार का झूठा नाटक रचाया फिर उसको बेवकूफ बनाकर खेत में उसके साथ दुष्कर्म कर उसे मारने की कोशिश की... वो तो कहो खेत से लौटते समय गुडडन की माँ ने उसे बुरी हालत में देखा । मरते मरते गुडडन ने गांव के ही उस अवारा लड़के का नाम बता दिया......गुडडन मर गई और बूढ़े माँ बाप तरसते रह गयें ..... ठेठ गांव ना थाना ना चौकी........ अपनी इज्जत को चुपचाप फूंक कर बैठ गया.....पर चिगांरी सीने में दबा कर रख ली थी आज मौका मिल गया उसी खेत में गंडासे से गन्ना काटते काटते उस लड़के की गरदन ही गन्ना समझ कर रेत डाली और गंगा नहा गया बुढ़ऊ... ।
- अपर्णा गुप्ता
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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“किटी पार्टी भी इन्हें आज मकर संक्रान्ति के दिन ही रखनी थी”..उठते ही अवनि बड़बड़ाने लगी।
“क्या हो गया भई…..आज सुबह से ही गरज के साथ धुआँधार बैटिंग?”
“तो क्या करूँ? इलाज के नाम पर जमे हुए हैं तुम्हारे गाँव से आए ताऊ-ताई जी। अब इन्हें भी झेलूँ और किटी पार्टी की तैयारी भी करूँ यह तो नहीं होगा। छोड़ो, तुमसे कह कर फायदा भी क्या? जौमेटो से ही मँगवा कर चलाऊँगी काम। इतना ही तो होगा दुगुना-तिगुना बैठ जाएगा खर्च।”
बात कमरे में बैठी ताई जी के कानों में पड़ी तो वे उठ कर बहू के पास गई और बोली…” मेरी बिटिया इतनी छोटी सी बात से परेशान है। तू ऐसा कर, बबुआ को भेज कर तिल, गुड़, मूँगफली आदि मँगवा दे जल्दी से बस।”
“अब बोल रहीं हैं तो मँगवा ही देती हूँ, मेरे कहने से भी ये मानने वाली तो हैं नहीं।”…सोचते हुए विहान को उसने सामान लाने भेज दिया।
नाश्ता निबटने के बाद ताई जी ने रसोई संभाली और पूरा काम निबटा कर ही दम लिया।
बैठक से किटियों के चहचहाने की आवाजें आ रही थीं…..वाओ! तिल के लड्डू, तिलकुट, तिलपट्टी, मूँगफली वाली गुड़ पट्टी! बहुत ही मजेदार! मकर संक्रान्ति मनाने का आनंद आ गया।बाजार की तो नहीं लग रही। घर पर बनाई तुमने?
“हाँ, पर मैंने नहीं, गाँव से आई मेरी ताई जी ने। अभी मिलवाती हूँ उनसे”…कहती हुई वह ताई जी के कमरे की ओर
दौड़ गई।
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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व्यवहार
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"पापा,हमने जो पार्टी रखी है, उसमें उद्योग जगत के बड़े-बड़े लोग आ रहे हैं।अफसर, राजनेता आ रहे हैं। कंपनी के बड़े-बड़े पदाधिकारी रहेंगे,ऐसे में गांव से ताऊजी और उनकी फेमिली को पार्टी में बुलाना क्या उचित होगा।उनका रहन-सहन, बोलचाल सबके बीच में अपने को ऑड फील नहीं कराएगा।"बेटे आकाश ने अपने पिता से असहमति जताते हुए कहा।
बेटा, यदि तुम्हारे ताऊजी ने मेरे लिए सेक्रीफाइज नहीं किया होता तो आज हम भी गांव में खेती-बाड़ी ही कर रहे होते। उन्हीं के कारण आज हम लोग इस पोजीशन पर हैं। यदि जीवन में तुम्हें त्याग और सहनशीलता का पाठ सीखना हो तो गांव के आदमी से ही सीख सकते हो। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैं बिजनेस के कई मामलों में आज भी भाईसाहब से ही राय-मशविरा करता रहता हूं।अब तुम ही बताओ कि यदि हम भी गांव में ही रह रहे होते और शहरी क्षेत्र में हमसे इस तरह का व्यवहार होता तो क्या तुम इसे उचित मानते!
- डा प्रदीप उपाध्याय
देवास - मध्यप्रदेश
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जन्मदिन*******
पोते के जन्मदिन पर शहर जाना है।दीनू व रामी के पैर धरती पर नहीं टिक रहे हैं।
" रामी ! तू भी ना, ये सूखी मैथी, अमचूर के लिए सूखी केरी के काचरे व तमाम अचार पापड़ बड़ी क्यों बाँध रही है। मठरी व बेसन की चक्की रात में ही बना लिए, खुशबू आ गई थी।
अब ये तेरे कंडे पर सिके बाटे के लड्डू कौन खाएगा ? "
" नहीं जी, यूँ खाली हाथ जाएँगे तो बहू क्या सोचेगी। " रामी हाँफते हुए बोली।
जैसे तैसे दोनों शहर पहुँचे। कर्फ्यू के कारण ऑटो नहीं मिलने से सिर पर पोटला रख पैदल ही घर पहुंच गए।
" बिटवा ! ये मुँह क्यों लटका रखा है रे तूने। "
उदास बहू चिंता जताती है, " सब मेहमान और खासकर इनके बॉस आने वाले हैं। पर ये बन्द की वजह से होटल वाले ने मना कर दिया है। "
" बहू ! तू फ़िकर मत कर। मैं हूँ ना। "
दीनू व रामी दोनों काम में भिड़ गए। केरी के काचरे से लौंजी बना ली व पापड़ तल लिए। मैथी की पूरियों का आटा लगा लिया । महकते अचार आदि सब आदि सजा दिए।
रामी ने पूछा, " बहू ! आलू तो होंगे ही, अपने हिसाब से आलू बड़ी की सब्जी बनालो। दही हो तो रायता बनालो, मैं एक छोटा सा कद्दू भी लाई हूँ।और चावल का क्या बनाती हो तुम...। "
" माजी ! पुलाव। "
बस रामी ने लड्डू के साथ आरती की थाल सजा ली। और मन गया हैप्पी बर्थडे। शंकित बहू बेटे ने मेहमानों को खाने के चटकारे लेते देख राहत की साँस ली, " हे भगवान ! हमारे गाँव के माँ बापू ने आज हमारी इज्जत बचाली। "
- सरला मेहता
इंदौर - मध्यप्रदेश
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अंतर****
क्या ये रामपाल जी का मकान है?
मेरे पास उनका यहाँ का पता किसी ने दिया है।
नहीं- अब वो यहाँ नहीं रहते,
महिला ने झल्लाते हुए जबाब दिया।
ओह ! फिर वो फिलहाल कंहाँ रहते हैं?
अपने गाँव चले गए दोनों।
दोनों ? सुरेश ने दबी जुबान से पूछा।
फिर-- बेटा -बहू उनका ?
मुझे ज्यादा नहीं पता- लेकिन सुनी हूँ वो किसी और जगह इसी शहर में , इस घर को बेच कर रहते हैं।
अब मैं उनके बारे में कुछ और नहीं जानती, मुझे- और भी बहुत काम है, कहते हुए महिला ने दरवाजा फटाक से बन्द कर लिया।
पानी की प्यास सुरेश की खुद -ब -खुद शहरी महिला की बेरुखी से बुझ सी गई।
गली की नुकड़ पहुंच, दुकान से बोतल खरीद अपनी प्यास बुझाई।
वहीं दुकानदार से पूछ्ने पर उसे रामपाल जी के गाँव का पता मिला जो बहुत पास ही था।
मिलना जरूरी था सो पहुँच गया अपनी फटफटिया से।
दोपहर के लगभग 2 बज रहे थे। गर्मी अपने पूर्ण यौवन पर थी।
पहले घर के गेट को खटखटाते हुए रामपाल जी का घर पूछने लगा।
पुनः एक महिला ने दरवाजा खोला।
सुरेश को महिला ने बड़े आदर से अंदर आ जाने को बोल, बेटी को आवाज देने लगी।
आईये तनिक बैठिये ।
बेटी तब तक पानी और एक कटोरे में गुड़ के कुछ टुकड़े डाल लें आई थी।
भाई -बहुत गर्मी है पहले पानी तो पी लो।
हाँ- रामपाल जी का घर अगले मोड़ पर ही है । सबसे पहले उन्हीं का घर पड़ेगा आप सीधे आगे जाकर मुड़ जाना।
अच्छा- बहुत धन्यवाद आप दोनों का।
अरे- राह बताना किसी को -ये तो हमारा फर्ज है।
सुकेश अभिभूत होता हुआ रामपाल जी के घर की ओर बढ़ गया।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
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बदल गया********
राजनाथ जी इस बार दस साल के बाद गांव आये थे । गांव आते भी क्यों ? अपने बुजुर्ग माता-पिता को भी साथ ले गए थे । जो उनके साथ ही शहर में रहते हैं ।
हाँ ! गांव अब पहले जैसा नहीं लगा । बहुत कुछ बदल गया था । जहाँ पगडंडियां थीं , वहाँ अब चौड़ी-चौड़ी सड़कें हैं । इसलिए घर तक पहुंचने में इसबार परेशानी भी नहीं हुई। रास्ते में जहाँ पहले कुछ नहीं था , वहाँ बिल्डिंग और कई बड़ी-बड़ी दुकानें भी दिखी ।
राजनाथ जी ने ताला खोलकर घर में सामान रखा । अकेले आये थे । पूरा घर गंदा और मकड़ी के जाले से भरा हुआ था ।
'सबसे पहले सफाई करवाना होगा' यह सोच ही रहे थे कि एक व्यक्ति आंगन में प्रवेश किया और -"राजे बाबू ! हम त पोखरिक भिरे पर सं देख लेलियै जे कियो गोटा एलखिन हें । त दौड़ल-दौड़ल एलौं ।"
"की हाल-चाल किशुन ?"
"ठीके-ठाक ... । अहां सब त गाम बिसरिये गेलियै । कक्का-काकी सब ठीक छथीन न ?"
"हं सब ठीक छथीन ।"
तब ही आंगन में किसी और की आवाज आई "की हऊ राजे ! सब कुशलमंगल न ?"
"हं,हं,कक्का सब ठीक छै ।" कहते हुए राजनाथ ने काका जी के पैर छूए ।
"दीर्घायु रह ! चलह हमरे अंगना ओतहि चाह भोजन करियह आ बैस क गप्प करब ।"
"ठीक छै कक्का हाथ-पैर धो क अबै छी ।"
उधर से किशुन बोल उठा -"अहां जाऊ बौआ हम रमना के माय के पठा दै छियै घर-दुआरि साफ-सुथरा क देत ।"
"हूँ...।" बोलकर राजनाथ हाथ पैर धोते हुए मन-ही-मन 'बहुत कुछ बदला यहाँ, बस व्यवहार नहीं बदला । शहर में तो कोई झांकता तक नहीं ।'
- पूनम झा
कोटा - राजस्थान
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चींटी के पर********
जैसे ही चुनाव की तिथी घोषित हुई, नेता जी की आँखों से नींद उड़ गई।वैसे तो उन्होंने सोशल मिडिया पर काफी समय पहले से मुफ्त सहूलतों की झड़ी लगा रखी थी।अब लोगों के बीच जाकर उनकी नब्ज टटोलने की बारी थी।नेता जी ने अपने वर्कर्स को बुलाकर सारी रणनीति बनाई कि पहले शहरों की बजाय गाँव-गाँव में जाएंगे क्योंकि गाँव के लोग बहुत सीधे होते हैं।हमारे फैलाए भ्रम जाल में जल्दी फंस जाते हैं।
नेता जी आपनी पार्टी के वर्कर्स के साथ एक गाँव में गए।गाँव के मुखिया को पहले सूचित कर दिया था और खाने पीने के लिए सभी गाँव वाले के लिए अच्छा प्रबन्ध करवा दिया था।नेता जी से पहले प्रमुख वक्ता पार्टी की प्रशंसा के पुल बांधते रहे कि नेता जी ने पिछले कार्य काल में आप को कितना कुछ दिया ,फ्री गैस सिलेंडर, सिलाई मशीनें,बेटियों की पढ़ाई और सुरक्षा आदि आदि।
अब नेता जी की बारी आई। नेता जी ने बड़े शिष्टाचार से सभी को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और कहा,"मैं तो आप लोगों की तरह गाँव का आदमी हूँ।मैं हमेशा गाँव की भलाई के लिए काम करता रहा हूँ और करता रहूँगा वगैरह-वगैरह।
जैसे ही नेता जी भाषण करके नीचे उतरे,गाँव का गरीब घसीटा राम उठा और बोला,साहब अब तक हम अपने पेट की आग के लिए मुफत राशन,मुफ्त सिलेंडर, पैसे के लिए बिकते रहे हैं।अब बहुत हो गया।हमें मुफ्त कुछ नहीं चाहिए। बस हमारे बच्चों के लिए रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का उचित समाधान कर दो।जो अब की बार यह आश्वासन देगा,उसी को वोट।अब नेता जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी।मन ही मन में सोचने लगे,अब तो चींटी को भी पर निकल आए हैं।
- कैलाश ठाकुर
नंगल टाउनशिप - पंजाब
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चंदन****
"बाबा रे! इतनी गंदगी। गीली मिट्टी से मेरे पैर गंदे हो
जाएँगे। कीचड़ में फिसलकर पाँव भी मुचक सकता है।"
"अब इतनी नाजुक भी ना बनो।"
"तुम्हारे कहने से मैं इन पगडंडियों पर चल रही हूँ। नहीं,
तो...मैं घर में भली। तुम्हारी जिद ना...!"
तब तक वे दोनों उस खेत के पास पहुँच गए थे। बादलों की छाँव तले, धरती की धूसर गोद में अनेक किसान जमे हुए थे।
वह फिर बोल उठी - "कैसे इतने कीचड़ में...?"
"...कीचड़ नहीं मेमसाब, चंदन बोलो... धरती मैया का चंदन।"
एक किसान ने प्रतिवाद किया। फिर वह अपने हल के साथ खेत में उतर गया। थोड़ी ही देर में वह पिंडली तक मिट्टी में धँसकर अपने बैलों को टिटकारी मारते हुए मगन हो, हल चला रहा था। और उसका आखिरी वाक्य हवा में तैर रहा था,
"इसी चंदन से अन्न देवता मिलते हैं मेमसाब!"
- अनिता रश्मि
राँची - झारखंड
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कड़वी सच्चाई***********
वर्षों पहले मनोहरलाल जी सरकारी नौकरी मिलने के कारण शहर आ गये थे। परन्तु गाँव में पले-बसे मनोहरलाल का मन कभी भी शहर में नहीं लगा। सेवानिवृत्ति के बाद जब वह गाँव की मधुर यादें हृदय में समेटे पुन: गाँव जाकर बस गये तो कुछ दिनों के बाद ही उन्हें मालूम हो गया कि अभी भी गाँवों में सुविधाओं का अभाव है। इन अभावों के कारण ही गाँव का युवा पलायन कर गया है।
एक दिन वे, गाँव के कुछ बुजुर्गो के पास जाकर बोले कि "आज भी ग्रामीण जीवन कठिन ही क्यों है?" एक बुजुर्ग ने उसका हाथ पकड़कर धीरे से कहा, "यह एक कड़वी सच्चाई है....कि 'गाँव का आदमी' अब गाँव के लिए मेहमान जैसा हो गया है। बुजुर्ग ने कहा" मनोहर! स्वयं से प्रश्न करो कि..... तुम गाँव में पैदा हुए, परन्तु यहीं शिक्षा पाकर जब किसी योग्य हुए तो शहर जाकर बस गये। गाँव के होने के बावजूद भी क्या तुम स्वयं को 'गाँव का आदमी' कह सकते हो?
मनोहरलाल निरुत्तर हो गये!!
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखंड
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महिमा******
ठंड का दिन.... बुधिया चायवाला दूर से घंटियों की आवाज सुन रहा था....! ऐसा लग रहा था मानों पुजारी घंटी बजा भगवान को जगाने की कोशिश कर रहा हो!
गांव में संगमरमर का एक ही मंदिर था ! मंदिर के प्रांगण में दोनों पैर को समेट उकडकर एक पतली सी चादर ओढ़े जिसे शायद किसी गरीब ने ही दया कर ओढा़ दी होगी, एक 11-12 साल का बच्चा सोया था!
पुजारी ने उसे गुस्से से चिल्लाते हुए उठाया ...! उसके उठने पर पंडित जी ने एक लंबी सांस ली मानो मंदिर के परिसर से कचरा साफ कर दिया हो!
मकर संक्रांति होने की वजह से भक्तजनों की भी भीड़ लगी थी! सभी शायद मंदिर में दान दे इस ठंड में घंटी बजा प्रभु को प्रसन्न कर पूण्य कमाने आये हो!
इन सबसे परे गांव का वह छोटा बच्चा जिसका किसी से कोई लेना देना नहीं है निर्बोध वहाँ से उठकर बुधिया की चाय की दूकान के बाहर बैंच पर सो जाता है...! बुधिया ने ठंड से कांपते बच्चे पर अपनी अनेक छिद्रों वाली (फटी, पुरानी ) चादर उस पर डाल दी ! बच्चा गर्मी पा खुश होता है! बुधिया गांव का आदमी था... तकलीफ क्या होती है जानता है!
गांव में मंदिर एक ही होने की वजह से मकर-संक्रांति में भगवान के मंदिर में दान देकर पुण्य कमाने की भीड़ लगी थी!
आखिर क्यों ना हो...? भगवान के प्रति आस्था जो गहरी थी!
बुधिया ने जैसे ही अपनी दूकान खोल दीप अगरबत्ती की तभी उसे 50 कप चाय का आर्डर आता है ! मकर-संक्रांति में दूसरे गांव से भी लोग आये थे! बुधिया बहुत खुश था! पूरे सप्ताह की कमाई एक ही दिन में.... आदमी ने कहा जरा जल्दी ....और लोग आ रहे हैं चाय का आर्डर और बढे़!
बच्चे के उठते ही बुधिया ने पहले उसे चाय बिस्कुट दिया और अपने काम में लग गया !
मंदिर की घंटियां जोर जोर से बज रही थी ! चाय वाले ने मुस्कुराते हुए मन ही मन कहा ...! बजा लो घंटियां कितनी भी जोर से भगवान होंगे तो उठेंगे ना ....
भगवान तो यहां बैठकर चाय बिस्किट खा रहे हैं और वह मुस्कुराता हुआ 50-100 कप चाय बनाने की तैयारी में लग जाता है !
गांव का आदमी अपनी निखालसता से ईश्वर को भी पा लेता है!
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
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अनपढ़******
सोनिया तीन बहनों में सबसे बड़ी थी छोटे भाई बहनों को संभालना उसका काम था इसलिए ज्यादा पढ़ नही पाई उसकी शादी गाँव के अनपढ़ किसान से हो गई| बाकी भाई बहन पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे थे और सभी बडे़ शहर में रहते थे | गंगा धर के अनपढ़ होने की वजह से कोई उससे ढंग से बात भी नहीं करना पंसद करते थे | यहाँ तक की उसके सास ससुर भी उसकी कोई इज्जत नही करते थे | एक दिन उसके पास खबर आई कि उसके ससुर का बुरी तरह से एकसीडेंट हो गया है और वह आई. सी. यू में है वह उसी समय पत्नी को लेकर और कुछ पैसे का इंतजाम करके अस्पताल पहुँच गया| बाकी भी सब पहुंचे तो परन्तु एक दो दिन रूककर जल्द ही वापस चले गए | गंगा धर आखिरी समय तक वहाँ रहा और ससुर की सेवा में लगा रहा | अब सही मायने में सबको उसकी कीमत पता चली | वह अनपढ़ गंवार दामाद अब सबको पसंद आने लगा अपनी अच्छाई से उसने सबके दिलों में अपनी जगह बना ली
- नीलम नारंग
मोहाली - पंजाब
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आशा का सूरज************
"हीरा के बापू, कित्ते सौक से बनवाया था ये गले का हार तुमने, पहलौठी पर बेटा जनने की खुसी में, आज भी याद है, खुद तुमने अपने हाथों उसे मुझे पहनाया था, आज उसे ही ले जा रहे हो गिरवी रखने साहूकार के पास," भीगी आँखों को पोंछते मातादीन खेतिहर की लुगाई चिरौंजा उससे बोली।
"अरे चिरौंजा, हीरा की सौं, चीनी मिल की सारी बकाया रकम चुकाते ही मैं इसे छुड़ा कर तुझे सौंप दूँगा। देख यूं जी छोटा मत कर। इस बरस दो लाख रुपये बाकी हैं मिल पर। पिछले साल के भी डेढ़ लाख बाकी हैं। देर सवेर भुगतान कर ही देवेगी मिल । चल ला दे अपना हार, बैंक के कर्जे की किस्त चुकानी है, फसल कटाई करने वाले मजदूरों को भी पैसा देना है। और भी सौ खर्चे हैं जान को। अब तू ही बता, क्या करूँ, और कोई चारा भी तो ना है।"
"हम किसानों की तो तक़दीर ही खराब है। मति मारी गई थी मेरी जो फिर से ईख की बुवाई खेत में कर दी।"
बीवी का हार हाथ में कस कर थामे साहूकार के घर जाते हुए मातादीन होठों ही होठों में बुदबुदाते हुए अपनी भड़ास उतार रहा था, "सोचा था, सरकार ही गन्ने की फसल की कीमत लगा मिल को उस कीमत पर हमसे खरीदने को पाबंद करे है। सो खुले बाजार में फसल बेचने को बिचौलियों और बड़े व्यापारियों के पैर न पकड़ने पड़ेंगे। लेकिन मुझे क्या पता थी कि चीनी के भाव ही गिर जाएंगे।"
कि तभी साहूकार का घर आ पहुंचा और मातादीन बोल पड़ा, "परनाम साहूकारजी, बड़ी विपदा आन पड़ी है, हुजूर, सीत , घाम, बरसात में हाड़ तोड़ गन्ना उगाया। फसल भी आला हुई। तक़दीर से चीनी मिल को अपना गन्ना बेचवे की खातिर सरकारी सप्लाई टिकट भी जल्दी से मिल गई। कानूनन मिल हमारे बैंक में पिराई खत्म होते ही चौदह दिनों के भीतर भीतर रुपया जमा करवा देती। लेकिन कोढ़ में खाज, मिल के पास भी हम गरीबन को देवे के लिए पैसा ना है। मुई देनदारी सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है। ये पाँच तोले का हार गिरवी रख कर मुनासिब रकम दे दो माई बाप।"
बड़ी हीलहुज्जत, बहस मुहाबिसे के बाद बहुत अहसान जताते हुए साहूकार ने हार की कीमत की आधी रकम मातादीन को थमाई और वह क्षुब्ध मनःस्थिति में घर पहुँच पत्नी से बोला, "ये रईस साहूकार अपने आप को न जाने क्या समझते हैं? पाँच तोले का हार ले कर भी उसकी आधी कीमत थमाई है, वो भी इत्ते नख़रों के साथ। सच री, आज जित्ती बेबसी पहले कभी महसूस ना हुई," कहते कहते मातादीन की आँखों में आंसू छलक आए।"
"अजी, क्यूं हलकान होते हो जी, कभी तो हमारा दलिद्दर भी कटेगा।"
"हाँ री, मैं अपने हीरा पन्ना को खूब पढ़ाऊंगा। पढ़ लिख कर, जब दोनों नए ढंग से नइ तकनीकी से खेती बारी करेंगे, हमारी धरती सोना उगलेगी,"और मातादीन की आँखों में आंसुओं की बदली के बीच आशा का सूरज चमक उठा।
- रेणु गुप्ता
जयपुर - राजस्थान
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संस्कार******
ट्रेन रवाना हुए एक घण्टे से ऊपर हो चुका था। भोजन का समय था। परेश के पास टिफिन था, परन्तु उसमें तो चार ही रोटियां थीं। नमिता ने कितना कहा था कि कम से कम छह रोटी ले जाओ, परन्तु वह नहीं माना। अब समस्या थी सामने बैठा धोती-कुर्ता पग्गड़ धारी व्यक्ति। शक़्ल और पहनावे से ही परेश को लग गया कि यह बाड़मेर या जैसलमेर अंचल का ग्रामीण है।
परेश ने मन ही मन सोचा कि एक-दो स्टेशन देख लेता हूँ। यह उतर जाए, तो टिफिन निकालूँ। अभी निकालता हूँ तो इसे पूछना ही पड़ेगा। ज़ाहिर है यह खायेगा तो चार रोटी से न तो इसका कुछ होगा, न परेश का।
अचानक उस ग्रामीण ने अंदर से एक साफ-सुथरी पोटली निकाली। पोटली में से स्टील का एक डिब्बा निकला। डिब्बे में से निकली बाजरी की दो रोटियाँ, लहसुन की चटनी और दो प्याज़।
ग्रामीण ने बिना पूछे भोजन के दो हिस्से किये और सकुचाते हुए एक हिस्सा परेश की तरफ़ बढ़ा दिया, "बाऊजी। थारे शहर जेसो तो कोनी, पण है जको हाजर है सा। जीमो भाईसा।"
परेश पर मानो घड़ों पानी पड़ गया। तुरन्त अपना टिफिन निकाल कर बोला, "कोई बात कोनी भाया। दोनों भाई मिल-बाँट ने जीम लेवों।"
- राजेन्द्र पुरोहित
जोधपुर - राजस्थान
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वेदना*****
“रामू, जा..फिर से स्टूल उठाकर ले आ..|” दीपक बाबू ने जब अपने नौकर को आदेश देते हुए कहा तो स्टूल सावधान हो उठा।
“मालिक, अभी कुछ ही देर पहले तो लाया था.. उसी पर चढ़कर सभी पंखों की सफाई की थी |” सुनकर उसे अच्छा लगा।
“पंखा साफ़ हो गया..पर, अभी भी बरामदे के कोने में जाला लटक रहा है।” स्टूल को मालूम हो गया कि फिर उसे जाना पड़ेगा।
“जी, मालिक..अभी लाया..|” रामू स्टूल को उठा लाया और जाला साफ़ करने लगा | सफाई खत्म करते ही रामू ने स्टूल को यथास्थान जाकर पटक दिया |
स्टूल कराह उठा, “ अरे...आराम से रख नहीं सकते ...मैं, तुम्हारे बूढ़े मालिक के उम्र का हूँ! आज के लोग उम्र का भी लिहाज नहीं रखते..!ह़ूं ह..! क्या जमाना आ गया! औकात देखकर ही खोज खबर ली जाती है !देखो, घर के बाकी महंगे फर्नीचर को , बच्चों की तरह उनकी नित्य देखभाल होते रहती है , और मैं परित्यक्ता की तरह कोने से सब देखता रहता हूँ !
तभी, गाँव से आये बूढ़े मालिक को लाठी के सहारे रास्ता टटोलते.... इधर आते देख, अपनी वेदना को तत्क्षण भूल , बूढ़े मालिक के डगमगाते कदम को मैं निहारने लगा । फिर अपने चारों पाए पर जोर डाला, शुक्र है कि वह अभी डगमगा नहीं रहा है।
- मिन्नी मिश्रा
पटना - बिहार
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गांव का आदमी************
महामारी का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। शहरी क्षेत्र में सारे एहतियात के बावजूद भी लोग बीमार पर रहे थे। रमेश वर्कफ्रौम शुरू होते ही अपने बीवी-बच्चों के साथ गांव चला आया।
गांव के परिवेश में ताजी हवा सबका मन प्रफुल्लित कर दिया। पहली बार बहुरानी ज्यादा समय के लिए घर आई थी, काम में भी हांथ बंटाती पर कभी थकान नहीं महसूस करती। बिना एसी के खुशहाल जिंदगी जी रहे थे।
कहीं कोई महामारी का नाम नहीं था ,सभी स्वस्थ इधर उधर घूम रहे थे।खाना बनाने का तौर तरीका ,खान-पान और रहन-सहन सब सलीके से होते देख बच्चों को बहुत कुछ सीखने के लिए मिल रहा था।
गांव के आदमी के स्वस्थ रहने का राज उन्हें समझ में आ रहा था। मुर्गे के बाग के साथ ही सुबह का उठना---तरो ताजी हवा में बाहर घूमना नियमित दिनचर्या-चारो तरफ हरियाली, प्रदूषण का नामोनिशान न होना--मन को सुकून प्रदान कर रहा था।
किताबों में पढ़ी हुई बातें वास्तविकता में सामने देख बच्चे आनन्दित थे वे महसूस कर रहे थे कि आधुनिक सुविधाएं न होने के बावजूद भी गांव का आदमी शुद्ध पर्यावरण के कारण स्वस्थ रहता है-- उनकी लंबी उम्र का राज भी यही है।
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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सुबह का भूला***********
सेवानिवृत्ति के बाद उम्र के पैंसठवे वर्ष में कदम रखते ही महेश मास्टर जी के साथ बहुत बुरा हुआ.बेटे तो थे ही परदेसी,उधर पत्नी पार्वती भी स्वर्ग सिधार गई.
दोनों बेटे सपरिवार विदेश में ही बस गए थे.
शहर में रहकर उन्होंने जी जान से परिश्रम और ईमानदारी के पैसों से दो मंजिला मकान बनवाकर वसीयत में बेटों के नाम बराबरी का हिस्सा भी लिख दिया। वह भी पार्वती की जिद के कारण.
इतने बड़े घर में एकाकी रहना उन्हें दूभर लगने लगा है।दिवंगत
पत्नी की बातें पीछा ही नहीं छोड़ती थीं उनका।वह अक्सर कहा करती थी-
--हमरे मरने के बाद ही आप गांव जैहो का?चलिये भी अब गांव में..
--बटाई दार काम करत ही हैं सो हम तो बस ध्यान रखब अपनी खेतीबाड़ी के. अपने हरे भरे खेतन को देखब कितना रोज हुई गवा...गांव का रहन सहन भूलबेइ ना करे हमसे.
अंगना में तोरी,लोउकी,पालक,पुदीना सब लगैहें ..ताजी साग भाजी खइहें तो हमरा तन मन भी ठीक रहबे करेगा.
-अरे अब सहर की आबो हवा की आदत पड़ गई है. नाही रह पाएंगे गांव मा .. समझा करो..
वह सदा ही उसे यही दो टूक जवाब देता.
आम और जामुन के घने पेड़ों की महकार से उसका मन प्रफुल्लित था.
खेत की मेड़ पर चलते हुए महेश के दिलो- दिमाग में यादें दस्तक दे रही थीं. लहलहाती फसल उसे परबतिया की तरह मुस्कुराती हुई सी लग रही थी,मानो कह रही हो-हम बहुतइ खुस हैं आज....तुम लऊट जो आए हो इहाँ.
महेश ने आसमान की ओर निहारा.
बादलों की ओट से सप्तरंगी इंद्रधनुष झांक रहा था ..लगा जैसे किवाड़ों की ओट से पार्वती ताकते हुए कह रही है-
तुमने हमाई बात मान लई...बहुतइ बढ़िया..सब खुस रहो बस।
कल दोनों परदेसी बेटे भी गांव आ रहे हैं।कोरोना के कहर ने गांव घर का रास्ता जो दिखा दिया है। कितनी ही प्राइवेट कंपनियां घाटे के कारण बंद जो हो गई हैं।गांव की जड़ों से जुड़ा आदमी अपनी जन्मभूमि को भूल ही नहीं पाता।
सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला हुआ नहीं कहते.
- डा. अंजु लता सिंह
नई दिल्ली
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सत्रहवीं*****
गांव में रिवाज था की जब भी कोई बुजुर्ग पोते पढ़पोते वाला मरता था तो सत्रहवीं यानी मृत्यु के बाद स्त्रहवा दिन करते थे। जिसमें सारे गांव को दोपहर का भोजन यानी हलवा पूरी लड्डू आदि अनेक पकवानों से करवाते थे। सभी रिश्तेदारों को भी बुलाया जाता था। मोटा खर्च करके लोग गांव में अपनी शान बढ़ाने में लगे रहते थे। भवानी सिंह के बापू की 90 साल की उम्र में मृत्यु हुई। उसके भी काज करने यानी सत्रहवीं की बात हुई।
पर भवानी सिंह की बेटी बसंती ने कहा ,," हम काज नहीं करेंगे।"
भवानी सिंह की पुत्र वधू विमला जो स्कूल में टीचर थी एकदम बोली, " यह कैसे हो सकता है ?सारा गांव क्या कहेगा?"
" हमें गांव वालों के कहने के पीछे नहीं लगना। हमें यह देखना है की क्या सही है? किससे जाने वाली आत्मा को ज्यादा दुआएं मिलेंगी?" बसंती ने अपनी बात रखी।
"तो जीजी सबको बढ़िया खाना खिलाने से अच्छा क्या है? लोग खाएंगे और कहेंगे कि वाह !भाई क्या काज किया है।" विमला अपनी धुन और समझ से बोली।
"यह एक दिन की वाहवाही है। फिर भरे पेट वालों को खिलाकर क्या दुआएं। गांव में लड़कियों का स्कूल तो है पर उसमें शौचालय नहीं है। लड़कियों को भारी दिक्कत आती है। हम स्कूल में इन्हीं पैसों से दो शौचालय बनवाएंगे। फिर यूं ही काज करने की जगह गांव के अन्य लोग भी गांव की जरूरतों पर खर्च करने लगेंगे तो मरने वालों की आत्मा को भी संतोष मिलेगा और गांव के विकास के साथ ही पैसे की बर्बादी भी रुकेगी।" बसंती ने पूरे आत्मविश्वास से अपनी बात कही। अब किसी के पास विरोध के लिए कोई कारण नहीं था। अचानक भवानी सिंह ने कहा, "शाबाश मेरी बच्ची,आज ऐसी ही सोच की समाज को जरूरत है।"
- डॉ अंजना गर्ग
रोहतक - हरियाणा
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सम्मान******
अपने स्कूल से बिजनौर आने के लिए एक - एक घंटे बस या जीप की इंतजार करनी पड़ती थी, वन्हा बस स्टॉप नहीं था,कोई सवारी देख कर ही बस या जीप रुकती ।
सड़क के पास ही एक किनारे वाले घर से एक बुजुर्ग रोज ही देखते थे, और एक दिन अपनी चारपाई ही उठकर ले आए और कहने लगे कि
' ले लाली इस खाट पर बैठ जाएकर ,तू तो खड़ी खड़ी थक जाती होगी " मैंने कहा नहीं - नहीं ताऊजी
कोई नही ,बस अभी बस आती होगी।
मैं सड़क किनारे शर्म के मारे खाट पर नहीं बैठी ,
ऐसे ही दूसरे दिन वो मूड़ा लेकर आ गए
कहने लगे ले बेटी -आज तो इस मूढ़े पर बैठ जा ।
या कुर्सी पर बैठेगी ।
उनका इतना प्यार देखकर -
मैं मूढ़े पर बैठ गई।
मेरे बैठने के कुछ देर बाद ही रोडवेज बस धूल उड़ाती हुई निकल गई।
अगले दिन भी वो ताऊजी मूड़ा लेकर आ गए और कहने लगे , ले बेटी तू आराम से बैठ
आज मैं खड़ा हुआ हूं।
मैने देखा उस दिन शायद ताऊजी भी बिजनौर चलेंगे ,किन्योकी नए कपड़े पहन रखे थे।
- पर नहीं
मैने देखा - बीच सड़क में ही खड़े होकर उन्होंने दूर से आती किसी चीज को हाथ दिया
पर ट्रक देखकर साइड हो गए।
फिर दूसरे वाहन को हाथ दिया
वो रोडवेज बस उन्होंने रूकवाकर मुझे बस में चढ़ने की ओर इशारा करके ड्राइवर की ओर बस में नीचे से ही जो कहा- मेरा मन और भी श्रद्धा से गदगद हो गया।
ऐसे ही उन्होंने हमारी समस्या हल कर दी।
बस वाले भी बस रोज ही रोकने लगा।
- रंजना हरित
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
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गांव का आदमी************
मास्टर भोलाराम की पत्नी की अल सुबह से अचानक तबीयत खराब हो जाने की वजह से वे उसे शहर में ले आए। उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें अपना पता दिया था ।रिक्शेवाले को बताकर दोनों पति पत्नी उसके यहां पहुंचे। जाकर बैठे ही थे कि अचानक अंदर कमरे से आने वाली आवाज ने दिल व्यथित कर दिया ।रिश्तेदार की पत्नी उससे कह रही थी कि इनको दरवाजे से वापस क्यों नहीं किया ?अब इनकी व्यवस्था कौन करेगा? जाओ उनको जाकर मना कर दो।
मास्टर जी के कानों में मानो लावा पड़ गया हो। फिर भी हिम्मत करके उठे और चुपचाप पत्नी के साथ वापस हो लिए। रास्ते में थक कर एक जगह बैठ गये।
तभी अचानक एक आवाज सुनाई दी ,"अरे मास्टर जी आप और मालकिन सड़क पर बैठे ,क्या हुआ?"
मास्टर जी ने उसे सारी बात बताई। सुनकर उस व्यक्ति ने, जिसका नाम कलुआ था ,उन्हें अपने साथ चलने को कहा।
कलुआ बोला ,"आपकी दी हुई शिक्षा की बदौलत ही आज मैं यहां सरकारी नौकरी कर रहा हूं। मुझ पर आपका बहुत एहसान है ।इसी बहाने उसे उतारने का अवसर मिल जाएगा। मैं तो गांव का गँवार था। आपने ही मुझे काबिल बनाया था।
भोलाराम जी कुछ कह न सके, केवल उस गांव के आदमी को देखते रह गए।
- गायत्री ठाकुर सक्षम
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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सपने*****
"पूस की सर्द रातें कैसे कटेंगी लाडो की माँ" अलाव की ठंडी हो रही आग को कुरेदते हुए पति ने कहा।
"परिवार के लिए दो जून रोटी का जुगाड़ तो किसी तरह हो जाता है। कंबल और कपड़ों के बिना जीना मुश्किल हो जायेगा।" पत्नी की बातों में दर्द था।
"भगवान भी हम गरीबों की परीक्षा लेते हैं। महामारी में भैया भाभी चल बसे। उनके बच्चों का सहारा भी हम ही हैं।"
"सुनो जी,हमलोग अब स्लम बस्तियों में नहीं रहेंगे। चलो गाँव वापस चलते हैं। थोड़ी- सी रकम बचा रखी है, दो जोड़ी कट पीस कंबल खरीद लेते हैं,सेठ जी से कम दाम में मिल जायेंगे।" पत्नी ने कहा।
"गाँव में क्या करेंगे हमलोग?"
"अब गाँव में भी काम मिल रहा है। अपनी झोपड़ी भी है। गाँव में साग- सब्जी और अनाज सस्ते हैं। किसी तरह निर्वाह हो जायेगा।"
"और बच्चों की पढ़ाई भी हो जायेगी सरकारी स्कूल में। सुनते हैं सरकार खाना और ड्रेस भी देती है।"
" हमारे भी दिन बहुरेंगे।" पत्नी के शब्दों में सुनहरे कल की तस्वीर झलक उठी।
- निर्मल कुमार डे
जमशेदपुर - झारखंड
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समग्र क्रांति********
आजकल सब तरफ चुनाव की सरगर्मियां चल रही हैं।रैली,भाषण नारों की गूंज हर तरफ सुनाई दे रही है।ऐसे में सभी लोग अलग अलग पार्टी और उम्मीदवारों की बहस में लगे हैं।छोटा निखिल भी आजकल कालेज नहीं जाता कोरोना के कर ऑनलाइन पढ़ाई जारी है।दादा जी भी हर चर्चा में अपनी बात करते हैं।उन्हें आजकल की राजनीति से संतोष नहीं है।
निखिल के पूछने पर उन्होंने बताया किस तरह वे
अपने छात्र जीवन में राजनीति में भाग लेते थे।उनके विचार में राजनीति तभी सफल मानी जाती है जब समाज का आर्थिक,बौद्धिक,सांस्कृतिक ,विकास हो। समानता और जन शक्ति का विकास हो।उन्होंने बताया वे अपने समय के महान राजनीतिज्ञ और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अनुयायी बने।उस समय की सत्ता के विरोध में संपूर्ण क्रांति का नारा बुलंद किया लोगों में राष्ट्रवाद की भावना को उजागर किया। उनकी बातें सुनकर निखिल ने
देश सेवा करने का अपना सपना बताया। दादा जी बोले
"अगर तुम्हारी इच्छा तो तुम्हे आज की राजनीति नहीं बल्कि सचमुच देश की उन्नति चाहते हो तो फिर से संपूर्ण क्रांति के लिए कार्य करना होगा।
जनता के शोषण और विषमता को समाप्त करने
के प्रयास करने होंगे। आज के युवावर्ग को भी इसमें सहयोग करना होगा।"
दादा जी की बातों से निखिल इतना अभिभूत हुआ कि अपने सभी मित्रों को उसने इस कार्य में शामिल होने का आमंत्रण दिया।उसमें नई ऊर्जा का संचार हो रहा था।
- ज्योतिर्मयी पंत
गुरुग्राम - हरियाणा
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आशंका******
कैम्पस में रहते हुए अक्सर गाँव से सामान बेचने वाले घरों में आते रहते थे। सातवीं मंजिल पर रहने के कारण झट से बाहर आने में भी सवेरा को थोड़ा सोचना पड़ता था।
जैसे ही उसने घंटी की आवाज़ सुनी तो जाली में से झाँक कर देखा। अठारह - बीस वर्षीय एक लड़का खड़ा था। जिसके सिर पर एक बड़ी गठरी थी।
जब उसने प्रश्नात्मक निगाहों से उसकी ओर देखा तो वह कहने लगा, " कुछ कपड़ा दिखाना है दीदी!..।"
"हमने नहीं लेना " सवेरा ने कहा।
"दीदी! देख लो एक बार ?"
"नहीं भाई! हम ऐसे कोई चीज़ नहीं खरीदते ।"
"ऐसे तो हम बेचते भी नहीं जी! मैं तो ट्रक - ड्राइवर हूँ।"
इतना सुनते ही सवेरा की तो जैसे दाईं आँख फरकने लगी। सामने वाले भी घर में नहीं हैं .. उसने झटक कर दरवाजा बंद कर लिया।
वह सीढ़ी उतरने लगा तो एक बार फिर से सवेरा ने दर को खोलकर देखा तो वह जाते हुए उसी की ओर निहार रहा था।
उसे पक्का विश्वास हो गया कि यह कोई गलत व्यक्ति है .. जरूर किसी के घर में घुसेगा।
जल्दी से बालकनी में जा कर देखने लगी तो.... नीचे एक वयोवृद्ध खड़ा था। उसकी ऊंगली पकड़कर वह लड़का धीरे- धीरे चलने लगा... निराशा को कंधे पर टांगे .... ऊँची इमारत को तकते हुए... जिसमें उसे सारा कपड़ा बिकने की उम्मीद थी।
- संतोष गर्ग
मोहाली - पंजाब
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सभी एक से एक है सभी विद्वानों को बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteआदरणीय जैमिनी जी का हार्दिक आभार ।सभी को बधाई।
ReplyDeleteआदरणीय बीजेंद्र भाई जी! आप सभी साहित्यकारों को जोड़ने का, सकारात्मक सोच पैदा करने का, लेखनी निरन्तर चलती रहे..राष्ट्र हित बड़ा काम कर रहे हैं। बधाई ..शुभ मंगल भावनाएँ 🙏😊🙏🇮🇳 वन्दे मातरम् 🇮🇳🙏
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