बाबा खाटू श्याम के आर्शीवाद से फेसबुक कवि सम्मेलन
जैमिनी अकादमी द्वारा 35 वाँ फेसबुक कवि सम्मेलन बाबा खाटू श्याम के आर्शीवाद से रखा गया है । विषय " मैं कौन हूँ ? "
बाबा खाटू श्याम का संबंध महाभारत काल से माना जाता है। इन का बचपन का नाम बर्बरीक है । ये पांडुपुत्र भीम के पौत्र है। इनके पिता भीम पुत्र घटोत्कच है तथा माता दैत्य मूर ( नाग कन्या ) की पुत्री मोरवी है । युद्ध कला मां व भगवान श्री कृष्ण जी से सीखीं है । इन्होंने भगवान शिव की घोर तपस्या कर उनसे तीन अभेद वाण प्राप्त कर रखें हैं व
अग्निदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया।
बर्बरीक ने कौरवों व पांडवों के बीच महाभारत युद्ध में सम्मलित होने की इच्छा मां से जताई। इस पर मां ने हारे पक्ष का साथ देनेे का वचन लिया। वचन देने के बाद वह तीन वाण व धनुष के साथ नीले घोड़े पर सवार होकर युद्ध के लिए निकल पड़े। सर्वव्यापी भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक को रास्ते में रोक लिया। तीन वाण से युद्ध में शामिल होने की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण जी ने इनकी हंसी उड़ायी और चुनौती दी कि वह जिस पीपल पेड़ के नीचे खड़े हैं, उसके सभी पत्तों को वाण से भेदकर दिखाओ तो जानें। इस पर बर्बरीक ने भगवान शिव का स्मरण कर वाण छोड़ा। वाण सभी पत्तों का भेदन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण के पैरों के चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता पैर के नीचे दबा रखा था। भगवान श्री कृष्ण जी के पूछने पर बर्बरीक ने बताया कि वह युद्ध में पराजित पक्ष का साथ देगा। भगवान श्री कृष्ण जी जानते थे कि कौरव हार रहे हैं। अगर बर्बरीक ने साथ दिया तो परिणाम बदल जाएगा। इस पर भगवान श्री कृष्ण जी ने बातों - बातों में बर्बरीक से दान में शीश की मांग रखी । बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तविक स्वरूप में आने को कहा। श्री कृष्ण की जानकारी पर बर्बरीक ने उनसे विराट रूप के दर्शन की इच्छा प्रकट की तो भगवान ने अपना रूप दिखाया। भगवान ने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध भूमि की पूजा के लिए वीर क्षत्रिय के शीश की जरूरत है। इस पर बर्बरीक ने युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की और अपना शीश दान कर दिया। भगवान ने शीश को युद्ध भूमि में पहाड़ी पर स्थापित कर दिया। बर्बरीक का सिर महाभारत युद्ध का साक्षी बना। श्री कृष्ण वीर बर्बरीक के बलिदान से प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि कलियुग में श्याम नाम से जाने जाओगे। बाबा खाटू श्याम का मंदिर राजस्थान के सीकर जिले में है।
बड़ा कठिन है यह कह पाना
कि मैं कौन हूं,
प्रकृति का अंश मात्र
या ईश्वर का दूत हूँ,
या फिर चलता फिरता
मात्र एक आकार हूँ।
जिसे अदृश्य शक्ति चलाती है,
इस काया पर हमारा
जरा भी अधिकार नहीं।
हम अहम में जीते हैं
यह तो जानते तक नहीं
कि हम कौन हैं,
फिर भी गर्व से इतराते हैं
बार बार दुनिया को बताते हैं
मैं कौन हूँ।
जब हम एक साँस भी
खुद से ले नहीं सकते
एक कदम चल नहीं सकते
हम आजाद नहीं हैं
अनजानी अनदेखी सत्ता के
सदा ही अधीन हैं,
हम कुछ भी नहीं हैं,
तब भी व्याकुल हैं
अकुलाते हैं, भटकते हैं
धरा पर आखिरी सांस तक
इधर उधर बेचैन दौड़ते भागते हैं
पर ये नहीं जान पाते
कि मैं कौन हूं
या समझ नहीं पाते कि मैं कौन हूं।
आत्मावलोकन करते नहीं
भ्रम में डूबे
भ्रमित बने रहना चाहते हैं
वास्तव में हम जानना ही नहीं चाहते
कि हम कौन हैं,हम कौन हैं।
- सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा - उत्तर प्रदेश
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यक्ष-प्रश्न अकसर मन में मेरे गूँजता रहता है
सदैव ही अंतर्मन को मेरे व्यथित कर देता है।
पूछती हूँ सदैव स्वयं से एक प्रश्न मैं कौन हूँ?
एकांत में आत्ममंथन इस विषय में चलता है।।
बहुत खोजने पर यक्ष-प्रश्न मैंने यह सुलझाया
ईश्वरीय सत्ता की प्रतिच्छाया खुद को ही पाया।
नज़र आया नारी के हरेक रूप में ही विधाता
माँ-पत्नी-बहन रूपों में अस्तित्व नज़र आया।।
अद्भुत चितेरे ने मनोयोग से सृजन मेरा किया
ममता की निर्झरणी से सराबोर मुझे कर दिया।
विद्यमान है ईश्वर की सुंदर सृष्टि कण-कण में
हर रूप ही नारी का जुदा उसने सबसे बनाया।।
अनंत सत्ता ने पंच-तत्वों से सृष्टि बनाई सारी
रिश्ते-नातों की डोर से बंधी हुई हैं हम नारी।
कर्तव्य की पराकाष्ठा नारी ही ईश्वर का रूप
देवी के हर रूप में ही समाई हुई है नारी प्यारी।।
मैं कौन हूँ? प्रश्न का उत्तर अंतर्मन में है निहित
गहराई से मंथन करने पर सत्य होगा प्रज्वलित।
- अर्चना कोहली
नोएडा - उत्तर प्रदेश
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कौन हूँ मैं ?
पुकारने पर यही प्रश्न
लौट आता है।
स्वयं को जैसे आज
भूल चुकी हूँ।
ज़रुरत कहूँ कि ज़िम्मेदारी
या नियति का खेल।
कभी-कभी मैं एक
पिता का लिबास पहनती हूँ
कि अपने बच्चों की
ज़रूरतों के लिए दौड़ सकूँ।
कभी-कभी ख़ामशी ओढ़े
मूर्तिकार का लिबास पहनती हूँ।
कलेजे पर पत्थर रख
उन्हें दिन-रात तरासती हूँ।
कभी-कभी ही सही
कुछ देर के लिए
मैं एक माँ का लिबास पहनती हूँ ।
उन्हें ख़ूब लाड़ लड़ाती हूँ।
सरल स्वभाव के साथ
प्रेम का मुखौटा लगाती हूँ।
अपनी माँ को यादकर
उसके पदचिह्नों पर चलती हूँ
कि अपने बच्चों के लिए
ख़रीद सकूँ ख़ुशियाँ।
कभी-कभी मैं
ज़मीन से भी जुड़ती हूँ
खेतिहर की तरह।
ख़ूब मेहनत करती हूँ
कि पिता-पति के लिए ख़रीद सकूँ
मान-सम्मान और स्वाभिमान।
परंतु फिर अगले ही पल
स्वयं से यही पूछती हूँ
कौन हूँ मैं ?
- अनीता सैनी 'दीप्ति'
राजस्थान - जयपुर
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भागीरथी की धार सी
कल्पांत तक मैं बहूँगी
अपराजिता ही थी सदा
अपराजिता ही रहूँगी।
वंचना विषपान करना ही
मेरी नियति में है,
पर मेरा विश्वास निशिदिन
प्रेम की प्रगति में है।
संवेदना की बूँद बन मैं,
हर नयन में रहूँगी !
अपराजिता ही थी सदा
अपराजिता ही रहूँगी।
पारंगता ना हो सकी
व्यापार में, व्यवहार में!
हरदम ठगी जाती रही
इस जगत के बाजार में।
फिर भी सदा सद्भाव का,
संदेश देती रहूँगी ।
अपराजिता ही थी सदा
अपराजिता ही रहूँगी।
मैं वेदना उस सीप की
जो गर्भ में मोती को पाले,
मैं रोशनी उस दीप की
जो ज्योत आँधी में सँभाले !
अंबुज कली सी कीच में
खिलती हूँ, खिलती रहूँगी !
अपराजिता ही थी सदा
अपराजिता ही रहूँगी ।।
- मीना शर्मा
उल्हासनगर - महाराष्ट्र
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मैं कौन हूं
मुझे अपनी खोज करनी है
अपने बारे में
मुझे सब कुछ जानना है।।
कहां से आया
कौन भेजा है मुझे यहां
कौन संचालन करता है
मेरा संचालक कौन है।।
मुझे जानना होगा
मुझे तप करने जाना होगा
मैं कौन हूं
यहां क्यों आया हूं।।
- आचार्य आशीष पाण्डेय
अमेठी - उत्तर प्रदेश
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गुलों सी महकती हूँ
चिरैया सी चहकती हूँ
तूफ़ान सी उड़ती हूँ
नदिया सी ठुमकती हूँ
सूरज की तरह जलती हूँ
चाँद सी शरमाती हूँ
कोई प्रेम देता है तो
ख़ुश हो लेती हूँ
कोई दुत्कारे तो
रो लेती हूँ
सरल जीवन मेरा
सहज ही जीती हूँ
प्रकृति की कृति हूँ
प्रकृति से प्रेम करती हूँ
- पूजा अनिल
उदयपुर - राजस्थान
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मैं कॉन हूं कोई मेरी पहचान बता दे, या
मुझे आज मेरे ही वजूद से मिला दे
मैने बहुत तलाशा कोने कोने में,
जीवन के जागे स्वप्न सलोने में,
हर वक्त सहेजा उन्हें संजोने में
वक्त बिताया हंसने और रोने में
पर कहीं मिला न कोई मुझे,
जो मुझको आकर यह बतला दे
कि,
मैं कॉन हूं?
पता लगाने बात यह मन की,
मैं आई लक्ष्मण रेखा से बाहर।
पर सब ही तो उलझे थे उलझन में,
कॉन मेरी पीड़ा को करता हर।
तब मैने ही खुद चाहा पाना,
और लगाना पता गहन यह कि
मैं कॉन हूं?
बैठी खोजने मन का हल,
और शांत हो करके बंद आंखें,
लगी निहारने अंतरतम में तब,
खुलती गई परत दर परत शांखे,
और दिखी इक मोहक छबि,
जिसने बतलाया आ कानों में कि ,
मैं कॉन हूं
बतलाया उस आकृति ने मुझको,
जो थी मेरी ही सचमुच मेरी
जिसने समझा था अपनत्व भाव से,
पीड़ा मेरी करुणा और दर्द भरी गहरी ।
बोली सत्य छुपा है मन के अंदर
तुम खोज रही क्यों उसको बाहर।
कि मैं कॉन हूं
जब सागर की गहराई में जाओ,
मोती तब ही तो तुम पाओ।
बंद करो अपना यह उपक्रम,
और दूर करो मन की व्यथ।
कभी मिलेगा न हल तुमको,
है अनुतरित यह प्रश्न प्रथा
कि,
मैं कॉन हूं?
पर देख उदास सी मेरी सूरत,
फिर उसने अपने पास बुलाया।
और बिठाकर बड़े प्यार से,
फिर होले से मुझको समझाया
बोली आओ आज बताऊं
इस जीवन का मर्म सिखाऊं
कि,
तुम कोन हो ?
बोली आकर सुनो ध्यान से,
बात बड़ी है गहन गूढ़तम।
मानव तन पाया है तुमने तो ,
करो कार्य भी श्रेष्ठ श्रेष्ठतम।।
समझो इस रहस्य को तुम।
फिर न होना गम में गुमसुम।
कि
तुम कोन हो?
इस सृष्टि की इस रचना में हैं ,
भांति भांति के लाखों प्राणी।
पशु ,पक्षी, भूत प्रेत यक्ष किन्नर संग,
हैं कितने ज्ञानी और अज्ञानी।
पर तुम हो अनुपम निधि प्रभु की,
तुमको तो हरनी है पीड़ा सबकी
कि,
तुम समर्थ एक मानव हो
तुम समर्थ एक मानव हो
तुम समर्थ एक मानव हो।।
- ममता श्रवण अग्रवाल
सतना - मध्यप्रदेश
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खुद को तलाश रहा हूं "विजय" कौन हूं।
"मैं" "मैं" हूँ मैं बस नाम की वजूद है मेरा।।
कोई या बिन बलूच के मन के भाव लिखता है।
मन के भाव आते हैं तो लिखता हूं दिल में दर्द
होता है तो लिखता हूं।।
किसी का कुछ ना लेता हूं,
केवल स्वयं से रू-ब-रू होने का लक्ष्य
बनाकर खुद के तलाश में हूं।।
लिखना छोड़ी और कमाने लग गए।
जो आया नसीहत देकर चला गया,
समझा किसी ने नहीं, सभी समझाने लग गए।।
लिखना मेरी खुली किताब थी जिंदगी मेरी थी।
पढ़े-लेते, तुम्हें भरोसा नहीं, आजमाने लग गए।।
तहजीब होती है इश्क में आंखों से कहने की।
हम नासमझ ने हाल-ए- दिल सुनाने लग गए।।
तुम चाहते तो हर मुकाम कदमों में।
खुद उठे नहीं, औरों को गिराने लग गए।।
इतने दूर चला आया मैं खुद की तलाश में।
कई बरस मुझको वापस आने मे लग गए।।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
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कुछ सवाल घेरे रहते है मुझको
जब भी कोई पूछता है
मुझसे ही वजूद मेरा
हैरत में पड़ जाता हूँ
जब परिचय देते हुए बोलती हूँ एक शब्द
इंसान सिर्फ इंसान
और अगला प्रश्न उछलता है
धर्म जात किसकी बहु बेटी हो किसकी
बारहां उलझाते है ये प्रश्न मुझे
कभी कभी क्रोधित हो उठती हूँ
और कभी हँसी में टाल जाती हूँ
व्यथित हो उठती हूँ इस तरह के सवालों से
पूछती हूँ मै आप सबसे
क्या मेरा व्यथित होना जायज है
- नीलम नारंग
मोहाली - पंजाब
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हे अनंत सत्ता के स्वामी,
पारब्रह्म, परमेश्वर ।
तू एक, फिर भी तेरे नाम अनेक।
वृंदावन के कृष्ण कन्हैया,
राजस्थान में खाटू श्याम।
कण- कण में है तेरा बास ।।
प्रश्न करे, जनता जब मुझसे,
पूछे-- कि तू है कौन ?
मैंने तो जाना है यह,
बस मैं तेरा ही अंशी हूँ।
इस अंशी की भी महिमा है,
दृश्यमान जगत में।
परिवार, समूह, समाज,
राष्ट्र की मैं भी हूँ एक मुख्य कड़ी।
जिसको कहते हैं सब 'व्यक्ति'।
व्यक्ति का फूलत्व न कुचले,
अनावश्यक युद्धों में,
वन कैसे बन पाए उपवन,
मैं हूँ अस्तित्ववाद का दर्शन ।।
अब समझो - "मैं कौन हूँ"
- डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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आपकी नज़रों की इनायत जैसी हो,
मैं वैसी ही हूं...
घर में सबके बीच रहती,
बाहर पाठकों के बीच रहती,
कुछ कलम की आवाज सुनती,
कुछ कलम को भी सुनाती,
कोरे कागज़ को नीली स्याही से भर देती,
कुछ पाठकों की सुनती,
कुछ अपने मन की सुनती,
कभी भगवान को पूजती,
कभी अपने बड़ों को पूजती,
कभी बच्चों को संभालती,
कभी जीव-जन्तुओं को संभालती,
कभी कुछ करती, कभी कुछ करती,
पूरे दिन कुछ न कुछ करती ही रहती,
हर दिन-रात काम ही काम!
पर! हमेशा सबसे एक पृश्न पूछने हेतु,
रहती उतावली यह नन्हीं सी जान,
आखिर मैं कौन हूॅं?
जो आज़ तक मेरी समझ न आया!
अगर आपको आया हो तो कृपया बतलाईएगा जरूर!
- नूतन गर्ग
दिल्ली
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मैं भारत की नार हूं
कमियां, कमजोरियां, लाचारियां
मिलती रही, मिलती रही, मिलती रही,
मैं हारी नहीं, हारी नहीं, हारी नहीं ।
बचपन मैं मिली तो
अपने ही घर के दालान में
मैंने छिपा दी थी ये सब
मिट्टी के बहुत नीचे और
उस पर रख दी थी बहुत सारी ईटें।
मुझे जब जब ये मिलती है बाहें फैला कर
मैं उनको झटक देती हूं ,
उनसे हार नहीं मानती ,
उनसे लोहा लेती हूं ,
बहुत मशक्कत करती हूं,
भले ही रातों की नींद खराब करती हूं ,
अपना रक्तचाप बढ़ाती हूं, घटाती हूं ,
आंखों से निरंतर अश्रु धारा बहा कर
इनको बहाने का प्रयास करती हूं,
पर मैं दूसरों के द्वारा दिए इन बेवजह के उपहारों को
कभी स्वीकारती नहीं
लाचारी से घबराती नहीं , हारती नहीं।
- सविता चडढा
दिल्ली
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जग में हूँ मैं कौन जी , ईश अंश की नार।
नारी गुण का गान जी ,करता है संसार ।।
नारी जग में श्रेष्ठ है , करती सबसे प्यार।
देती सबको मान है , दो कुल को दे तार।।
जन्मे नारी कोख से , नर ध्रुव रत्न समान ।
उससे सर्जन वंश का ,करना मत अपमान।।
नारी ममता प्रेम की , करुणा की है मूर्ति।
छप्पन व्यंजन को खिला , करे उदर की पूर्ति।।
नारी शक्ति स्वरूप है, धरे कई वह रूप।
काली , लक्ष्मी -सी लगे , पूजें नर जन भूप।।
गंगा -सी शीतल लगे , जाड़े जैसी धूप।
आती वह संसार में , लेकर ईश्वर रूप ।।
जिस घर में स्त्री पूजते , देव वहाँ पर वास।
लगता है वह स्वर्ग -सा , फलती सबकी आस।।
नारी अब अबला नहीं ,करती सारे काम।
सबला बनी कमा रही , दुनिया भर में नाम।।
- डॉ. मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
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तुम क्या हो, कौन हो ?
ज्ञानी जी ने बोला....
मैंने भी खुद को टटोला.....
मैं कौन हूँ, क्या हूँ???
पर कुछ समझ नहीं आया.....
थोड़ा दिमाग पर जोर लगाया---
तो बस यही समझ में आया.....
कि मैं---एक बेटी हूँ
बहन हूँ, पत्नी हूँ, और एक माँ हूँ।
और इस सबसे बढ़ कर
हूँ एक नारी
जो होती है एक प्रतिरूप
ममता का।
रिश्ते नाते सब....
होते हैं टिके
प्रेम, ममता, स्नेह
और कर्त्तव्यों पर
स्थिर खड़े।
मैंने ज्ञानी जी की ओर देखा और बोला....
मैं नहीं जानती धर्म, शाश्वत आत्मा
और परमात्मा.....
किसी के लिए कुछ भी हो
खुद की पहचान
मेरे लिए तो ......
प्रेम है,ममता है, स्नेह है
कर्त्तव्य है मेरी पहचान
जिसमें मिलता है मुझे
अपार सुकून और सम्मान।
- राजश्री
सोनीपत - हरियाणा
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पराई अमानत कह पली बड़ी
अमानत परायों को सोंप दी गई
मैं कौन हूं?
अमानत या पराई!!
कोख में बेटी तो मनहूस
बेटा हो तो लक्ष्मी
मैं कौन हूं?
मनहूस ! लक्ष्मी ! या एक मां
एक महिला से हर रिश्ता पूर्ण
होता है।
परन्तु हर रिश्ता अपने ना होने पर
महिला को अपूर्ण समझता।।
मैं कौन हूं?
रिश्तों पर आश्रिता या रिश्तों की परिपूर्णता।
है जवाब किसी के पास !
कितनी भी शिक्षित हो जाऊं।
किसी भी पद को हासिल कर लूं।।
रहूंगी मैं!
कौन हूं मैं??????
- ज्योति वधवा " रंजना "
बीकानेर - राजस्थान
==============================
कभी कभी सोचती हूँ,
कि क्या दूँ निज परिचय ?
क्या है पहचान मेरी,
कौन हूँ मैं?
फलां की पत्नी या
फलां की माँ।
पुत्री किसी की या
किसी की बहू हूँ मैं।
कितने टुकड़ों में बँटा,
जाने वजूद मेरा।
कितने रिश्तों के बीच,
स्वयं को ढूँढती मैं......
- रश्मि सिंह
रांची - झारखंड
==============================
गहन प्रश्न है?
रचा विधाता ने मुझको,
माँ की कोख से जन्म लिया
बनी बहिन,बेटी,पत्नी और माँ
हर रिश्ते में खुद को ढ़ाला ।
प्रश्न यथावत है,
मैं कौन?
कहाँ अस्तिव मेरा ?
मेरी अपनी पहचान कहाँ?
मै कौन हूँ?
- सुनीता मिश्रा
भोपाल - मध्यप्रदेश
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मैं कौन हूं!
हां मैं कौन हूं !
तो ,सुनो ! मैं एक पुरुष हूं
एक त्याग की मूरत
जो न्योछावर कर देता
अपने अरमानों को
तिलांजलि दे देता
अपनी इच्छाओं को
हरदम खड़ा रहता
एक ढाल बनकर
सदा संघर्षरत रहता
मुस्कुराहट बिखेरने हेतु
अपने परिवार के
हर सदस्य के लिए
बेशक कितनी भी
कठिनाइयां समक्ष क्यों न हों
हार नहीं मानता
परिस्थितियों से हर संभव
सामना करने का करता रहता
यथेष्ठ प्रयत्न
एक छत बनकर
परिवार के सभी
सदस्यों को सहारा देता
सींचता सभी को
एक माली की मानिंद
जो अपने प्राणों से भी
अधिक लाड़ प्यार करता है
अपने पौधों की
रक्षा करता है
बारिश और धूप से
खुश होता है
अपनी फसलों को
लहलहाता देखकर
झूम उठता है
आनंद के अतिरेक से
नारी का संबल
और परछाई बनकर
संग संग चलता है
क़दम दर क़दम
और साथी बनकर
निभाता है साथ
उसके हर सुख-दुख में !
- राजीव भारती
पटना - बिहार
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पहचान!
करूँ, कैसे अपनी ।
मरुस्थल के उस कोने में जो,
जल बिंदु गया निद्रा में सो...
गहन..
कहीं मै वो तो नही !
या फिर --
सघन वन के मध्य,
वृक्षों की उस लंबी कतार के बीच,
वह कैसे हैं ?
पदचिन्ह !
उनके बीच --
निरर्थक - निस्सहाय
रेत कण हूँ मैं ....
अथवा -
किसी के वेदनाप्राय
उर के शोकावेग से उन्मत्त,
बहते हुए अश्रु की बूंद हूँ...
नहीं !!
अवश्य!
उस मदोन्मत वनराज के,
पदस्तंभों के नीचे,
कुचली हुई ..
कलिका का अवशेष हूँ मैं।
अथवा -
हूँ किसी व्याकुल कवि की लेखनी,
जो चल रही है
निरर्थक - निरूपाय
मसि की वैसाखियों के सहारे..
वैसाखियाँ !!
हाँ ! हाँ मैं हूँ वैसाखियाँ!
अपने आप को ढोने की !
ढोने की अपने अंदर के कवित्व को!
जो चला जा रहा है...
उस
गहन अंधकार में...
जहाँ कभी सवेरा नहीं होता।।
- अंजू अग्रवाल 'लखनवी'
अजमेर - राजस्थान
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कौन हूं मैं
यह प्रश्न कौंधा
कई बार ज़हन में।
सूरज से पूछा
तो बोला किरण
हो तुम मेरी।
चांद मुस्कुरा दिया
सफ़ेद चांदनी
जैसी हो
मुझ में तो दाग है
तुम तो श्वेत
बर्फ़ के फाहों
जैसी हो।
सागर की लहरें
भिगो रहीं तन - मन
हमसे तो है मन में
तुम्हारे उथल- पुथल।
फूल बोले सुन्दर हो तुम
बिल्कुल हमारे जैसे
हरी पत्तियां तो हंस दीं
अरे ताज़गी पायी है
हमसे तुमने।
तितलियों का रंग
भंवरों का गुंजन हूं मैं
शायद सौंधी मिट्टी की
मनमोहक खुशबू हूं मैं।
कोंपलें जब फूटती हैं
उनका सौंदर्य हूं मैं
दर्पण जब बोलता है
तो दिखता है अक्स
वे धुंधली यादें हूं मैं।
प्यार मुहब्बत के अफ़साने
लैला मजनू की कहानी
हीर रांझा की दास्तान
सब का अमिट अंग हूं मैं।
पल - पल बीत रहा
रिश्ते बनते बिगड़ते
इन सब के बीच
रहती ज़िन्दगी हूं मैं।
- डा. अंजली दीवान
पानीपत - हरियाणा
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कौन तुम
मौन खड़ी
द्वार पर सिसक रही
आँचल से मुँह ढका
भू पाँव से कुरेदती
किसकी प्रतीक्षा में
साँझ सी ढली-ढली
लुटी-लुटी
बिखरे माँग के सिंदूर-सी ।
कौन हूँ मैं
कलंकित है मस्तक मेरा
आँचल से ढक रही
प्रतीक्षा में रत मैं
द्वार पर सिसक रही
बुझी-बुझी
भोर के प्रदीप-सी
हाथों मानव के लुटी
मानवता हूँ मैं
पहचान हूँ तुम्हारी
बस इतना जान लो
तुम मुझे पुकार लो
तुम मुझे दुलार दो।
- सुदर्शन रत्नाकर
फ़रीदाबाद - हरियाणा
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प्रश्न बहुत ही सुंदर है
मैं कौन हूँ...?
उम्मीदों की सप्त किरण धर
सूरज रथ पर आयी ।
मातु नर्मदा पश्चिम वाहिनि
शिव तनया कहलायी ।
अमरकण्ट से उद्गम होता
बिंदु सिंधु को धारे ।
रत्ना सागर संगम मैया
शंकर बने सहारे ।।
चट्टानों को काट- काट कर
राहें नयी बनाई ।
रुकना थमना कभी न सीखा
रेवा मातु कहाई ।।
धुँआधार संगमरमर सोहे
कल- कल है तिलवारा।
घाटों की महिमा मन मोहे
माहेश्वर जग न्यारा ।।
विमलेश्वर में आय ठहरती
सागर आन समाती ।
कलिमल पाप हरण को मैया
आप जगत में आती ।।
कभी मेकला सुता कहाती
कभी शांकरी बनतीं ।
जन- जन तारणहारी मैया
प्रलय काल भी रहतीं।।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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मैं अपनी पहचान के लिए,
आज तक लड़ रही हूं
आखिर क्यों?
यह सवाल खुद से पूछती हूं
जन्म लिया धरा पर
नारी बनकर
फिर कितने रूपों में ढली
बेटी ,पत्नी ,प्रेयसी ,माँ , बहिन
घर- बाहर सभी कुछ
संभाला
अपने आँचल की अमिय पिलाकर
सभी नर को पाला
हमारे बिना जीवन की हर
खुशी अधूरी है ?
मेरी पहचान अब हर के दिल
में अंकित होनी चाहिए
पूछने की अब जरूरत नहीं
मैं कौन हूँ।
- अनिता मिश्रा सिद्धि
पटना - बिहार
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हूं अंतर्यामी सर्वव्यापी मैं,
हूं कण-कण में व्याप्त मैं।
हर पल सांसों में निवास,
हूं असीमित निर्विकार मैं।
बांधने की मत कर चेष्टा,
त्याग अहंकारी पराकाष्ठा।
ब्रह्मा भी मैं, विष्णु भी मैं,
राम-कृष्ण मैं श्याम खाटू।
अल्लाह भी मैं ईश्वर भी मैं,
विधमान कई रंग रूप में मैं।
विराजमान हूं मैं घट-घट में,
सर्वशक्तिमान एकेश्वर हूं मैं।
न हो भ्रमित तू मायाजाल में,
महसूस कर हमें अंतर्रात्मा में।
प्रकाशमान अजर-अमर हूं मैं,
न ढूंढो हमें मंदिर-मस्जिद में।
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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मैं कौन हूँ ?
एक अनुत्तरित
प्रश्न सदा से,
क्या मैं हूँ..
चर्म आवरित
एक अस्तित्व मात्र,
या हूँ मैं..
ऊर्जा का एक पुंज
विकीर्ण सा,
आत्म मंथन करता
सतत यह मन,
निरुद्देश्य विचरित
पशु सम जीवन,
दिव्यता का अभाव,
अंतर्दृष्टि निष्प्रभाव,
मिश्रित स्वभाव,
गंतव्य से अंजान,
सम्मोहित प्राण,
संबंधों की डोर
बंधे हैं छोर,
नौ द्वारे के पिंजर में
व्याकुल अंतरात्मा
अजब सी छटपटाहट
आत्म अवलोकन
अति मुश्किल
प्रश्न व्यूह में उलझे
निष्कर्षतः
मैं हूँ कौन ?
- सीमा वर्णिका
कानपुर - उत्तर प्रदेश
================================
जैसे-जैसे
समझने लगी
करने लगी छोटे-छोटे सवाल
बड़ी होती गई तो
मेरे छोटे-छोटे सवाल भी
मेरे साथ बड़े होते चले गए......
खुद के अस्तित्व को जानने की चाहत
और अपने - परायों के रिश्तों
में जकड़ी मैं.....
पर मैं कौन हूं ?
किसी की बेटी
किसी की बहू
तो किसी की माँ
होने से पहले मैं कौन थी ?
कहां से आई और
कहां जाना है मुझे ?
कई ग्यानी-ध्यानी महात्माओं
से पूछा मगर किसी का
प्रत्युत्तर संतुष्ट न कर सका मुझे .....
नहीं जान पाई कि
" मैं कौन हूं ?"
और कहां जाना है मुझे ?
इस प्रश्न के भंवरजाल में
आज भी उलझी हूं मैं.......
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान
================================
मैं नारी
उलझ जाती हूँ
अक्सर देखकर दर्पण
उम्र के इस पड़ाव में
कभी महकती थी कली बन
अधरों पर होती थी
गुलाब सी मुस्कान
अखियों मे चमकती थी ,
काली घटा संग बिजली
बातों मे होती थी बंशी की धुन
चहकती थी ,चिरैया सी
चलती बलखाती मोरनी सी
स्वभाव मे गैया सी
देखें खुबसुरत पड़ाव जिन्दगी में
कुछ उलझनें भी ,
उम्र की साझं में उलझी
.साझं की ओर बढती दोपहर
चाँदी होते बाल ,
बदलती चेहरे की आभा ....
शिथिल होता शरीर ..
सांसों की धीमी होती प्राण वायु
ऑखो की कम होती बिजली
उलझनों में भी...
उम्र के इस पड़ाव में
निडरता से
थामें रखें हौसलें
थकी थी कुछ पल .....
उठी चल पड़ी अपनी डगर
मैं नारी हूं ,हौसलों के साथ
अब भी सुलझाती हूं..
उलझनों को ,जीवन में रखती
असीम संभावनाओं को
क्षितीज पर जैसे
नये सुरज की पैदाइश ।
- बबिता कंसल
दिल्ली
================================
सोच रहा इंसान है, चुपचाप और मौन।
आया मैं किस लोक से, मैं हूँ आखिर कौन ।
दुनिया से अनजान रह, रहा बड़ा परेशान।
कैसा मेरा कर्म हो ,जीवन को आसान।
मिलता सब कुछ भाग्य से, नहीं मांगना भीख।
जीवन के हर मोड़ पर, मिले यही तो सीख।।
आयें क्यों संसार में, क्या है मेरा धर्म ।
चले सदा हम सत्य पे, समझे अपना कर्म ।।
रहा समझता कौन है, सदा यहाँ इंसान ।
कठपुतली था मात्र वो, डोर रखे भगवान ।।
- रंजना वर्मा उन्मुक्त
रांची - झारखंड
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थोड़ी मनचली हूं मैं
मस्ती भरी परी हूं मैं
साथ जो आओगे
रम जाओगे
जो दोगे
दुगुना पाओगे
सबको मैं खुशियां देती
सबके गम को हर लेती
खुद को भी कर दू न्यौछावर
जो थोड़ा सा प्यार मिले
दुनिया मे खुशियां भर दू
उसको रंगों से भर दू
शहद से मीठे शब्दो से
सबका आँचल मैं भर दु
थोड़ी मनचली हूँ मैं
मस्ती भरी परी हूँ मैं
- रेनूका सिंह
गाज़ियाबाद - उत्तर प्रदेश
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मैं परम ब्रह्म ब्रह्मांड का ,
एकमात्र पिंड स्वरूप हूंँ।
मैं शरीर और जीवन का,
संयुक्त साकार स्वरूप हूंँ।
शरीर जीवन सहअस्तित्व में,
भौतिक स्वरूप में मानव हूंँ।
पंचतत्व सप्त धातु से रचित,
पूर्ण मधस तंत्र उत्कृष्ट शरीर हूंँ।
शरीर मेरा क्षणिक, क्षण भंगूर है ,
आत्मा मेरा अमर अविनाशी है।
मानव स्वरूप साकार रूप में ,
धरा का एक अकिंचन अंशी हूंँ।
मेरा प्रयोजन मानत्व में जीना ,
सौभाग्य से मानव पद है मिला।
इस पद को सार्थक बनाऊंँ मैं ,
मनु होने का दायित्व निभाऊँ मैं।
मना कार को साकार करने वाला,
मै मनः स्वस्थता का आशावादी।
धीरता, वीरता, उदार भाव से ,
सदैव जीना चाहती मानवतावादी।
मैं मानव हूँ मानत्व मेरा आचरण,
श्रेष्ठता का मैं करूं अनुकरण।
मानत्व के बिना जीवन अधूरा ,
सुख की अपेक्षा है शाम सवेरा।
मैं मानव हूंँ,मानत्व मेरा सत्त्व,
मै मानव हूँ ......
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
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मेरे तन में बैठा मन
कभी-कभी तन्हाई में
पूछ बैठता है मुझसे
कौन हो तुम?
इस धरती पर उतरी हो बनकर
देवी!सुकन्या!उड़न परी!
शक्ति! धारिणी! गृहणी!
फिर भी अपनों से डरी..
ठीक कहते हो मेरे अंतस!
हां!भयभीत होती हूं मैं
मुखौटे ओढ़े हैवानों से
अबला कहने वालों से
पिता की लाड़ली
मां का सहारा
अपनों में बांटूं
नेह का पिटारा
'मैं बेटी हूं' घर की शोभा
पलती हूं पलकों में
पालकों पर करती हूं
सुखद,सच्चा भरोसा
मां हूं मैं,आधार शैशव का
वात्सल्य की प्रतिमूर्ति
गृहलक्ष्मी का कर्तव्य निभाती
सबकी मांगों की करूं पूर्ति
घर की बगिया की हूं मालन
खिलखिलाते रहें फूल
चटकती रहें कलियां
सुरभित रहे घर-आंगन
मैं एक अदना सी कलमकार
भावों को शब्दों में पिरो कर
उतार देती हूं कागजों पर
अनुभवों की कश्ती पर होकर सवार
मैं हूं प्रिया प्रियतम की
लजाती हूं, खुद को सजाती हूं
पतिव्रता धर्म निभा कर
उन पर बलिहारी जाती हूं
यही है मेरा परिचय
वसुधा पर आई
नि:स्वार्थ सेवा करने की
आजीवन,मैंने शपथ उठाई
- डा.अंजु लता सिंह 'प्रियम'
नई दिल्ली
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न समझा आज तक,
उलझा रहा परवाज़ तक,
बोलती रही दुनिया,
मैं डटा रहा अंत तक,
सुबह चलता हूं,
शाम को फिर रुक जाता हूं,
काम यही मैं रोज,
बिना रुके दोहराया करता हूं,
कभी खुद से,
कभी आईने से,
वजूद अपना भी,
पूछ लिया करता हूं,
कई बार जिंदगी के,
हासिए पर बैठा,
खुद को निहारता रहता हूं,
फिर उत्तर से पहले ही,
खुद से प्रश्न किया करता हूं,
मैं कौन हूं,
इसी फेर में,
जीवन का सत्य संघर्ष,
करता ही जाता हूं,
बस निरंतर जीवन संग,
उसके करीब भी जाया करता हूं,
मैं कौन हूं,
इसे उत्तर की तलाश में,
इधर उधर भेज दिया करता हूं।
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
============================
सब पूछते हैं यही
खुद से
किसी विशेष अवस्था मे
मैं कौन हूँ?
क्या हूँ ?
कहाँ से आया हूँ ?
और क्यो?
हैरान ,परेशान
कुछ अनजान सा
पगलाया
मन में प्रश्न लिए
बहुत अकुलाता है ।
हर ओर झाँकता है
कई कई बार पूछता है
पर उत्तर
फिर प्रश्न बन कर रह जाता हैं
क्योकि
खोज उससे होती नही
और
मंथन करने की शक्ति
उसमें है ही नही ।
प्रश्न खड़ा रह कर
हँसता है
उसके सामर्थ्य पर
लेता है जी भर कर
आनन्द
उसकी बेबसी पर
- सुशीला जोशी विद्योत्तमा
मुजफ्फरनगर - उत्तर प्रदेश
==============================
सृष्टि की एक रचना हूँ
सुख- दुख से रची
पल- पल ढली
जिन्दगी की हर
क्षण से गढी ।
कभी सोचती,
कौन हूँ मैं?
क्यों आई इस धरती पर
क्या करना? क्यों रहना?
जब जाना कहीं ,
बहुत दूर है इक दिन।
शायद नियति की
यही नियती
होती हो शायद।
भेजता हमें यहाँ
करने को नाटक।
जिसका अभिनय
पूरा हो जाता,
उसका पल में,
पर्दा गिर जाता।
कौन हूँ मैं ?
बार- बार आता मन में।
लगा रहेगा,
प्रश्न सदा ये जीवन में।
कौन हूँ मैं ?
इस प्रश्न पर ,
अब मौन हूँ मैं।
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
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मैंने जब जन्म लिया,
ममतामयी थी माया,
ऑचल छाँव काया,
शनैः-शनैः आया।
समय बीतता गया,
पग-पग थी छाया,
बढ़ रहे थे कदम,
अपनों की साया।
बचपन बीता था,
सपनों का समुंदर था,
जवानी का सिलसिला था,
आंख मिचौनी में था।
कब कैसे समय गया,
धीरे-धीरे बिखर गया,
अपनी पहचान बनाने,
मैं कौन हूँ कैसे बौया!
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
बालाघाट - मध्यप्रदेश
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मैं परम पिता की दिव्य किरण,
मैं पाप पुण्य अविचल प्रकरण,
मैं विधी विधान लेखा जोखा,
मैं आगम निर्गम जन्म मरण।
भटक रहा भ्रमित मन जग में,
बह रहा मिथ्या मान रंग में,
पोषित इंद्रियों में बंधकर,
ढो रहा बेड़ियां निज पग में।
मैं चिर काल सनातन सत्य यही,
मैं वेद पुराण महातम नित्य कही,
मैं अमर सुरत नित नव रुप धरुं,
उलझ रहा तन मन सुकृत्य नहीं।
- सुखमिला अग्रवाल ' भूमिजा '
जयपुर - राजस्थान
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इतनी चुप्प क्यों हो,कुछ तो बोलो,
अब तो खोलो अपने मन को
और उसके दिग्भ्रमित
अंतरण परिदृश्य को,
चल रहे हैं जो अंदर सतत विचार,
उसमें होते अन्तर्द्वन्द को...।
अपने सपनों के निश्चल अंबर को
मैं कैसे विभाजित कर दूँ....!
कैसे जताऊँ अपने सूने होते
सूखते बंजर जज्बातों को।
कौन जानता है कि मैं क्या हूँ !
अब तो तोड़ दो सब अपने-अपने
धर्म-बंधनों को हाँ अब तोड़ दो।
अब वह समय आ गया है,
जब तुम सब एक साथ मिलकर
अमन-चैन का परचम लहराओ,
इस धरा की यही असली पहचान है।
वक्त की लहरों के संग-संग चोटिल हुई मैं,
ठोकरें खाती हजारों थपेड़े सही और
नापती रही सागर की गहराइयों को ।
तब जाकर कहीं आज यह सीप का मोती
और बंसती बहार ले-कर आई हूँ...।
मुझसे मत पूछो कि मैं कौन हूँ,
खुद को मैं कैसे परिभाषित करूँ!
मत पूछो कि मैं कौन से धर्म
जाति और गोत्र की धरती हूँ ।
मैं तो अपने में हजारों खज़ाने को
समेटे हुए कहने को एक धरा हूँ ,
लेकिन
तुम सबकी 'माँ' हाँ मै 'धरती-माँ' हूँ।
- डाॅ.क्षमा सिसोदिया
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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सुबह भोर की पहली किरण
घर का उजाला हूं
पूजि का दीप जला
ईश्वर का गुणगान हूं
मैं आदि हूं अनादि हूं
मैं सुभीता घर की शोभा
मैं सुनीता मैं वनीता
मैं नारी सुशीला हूं
मैं पत्नी जीवन संगिनी
मैं अर्द्धांगिनी हूं
मैं मां हूं मैं बेटी हूं
मैं बहू फिर सास हूं
मैं सारे गम सहकर जीने वाली
मैं ही वसुधा हूं
मैं ही जीवन देने वाली
जन्मदात्री हूं
फिर भी पूछते हो
मैं कौन हूं
क्या वजूद है मेरा
मैं ही सावन मैं सरिता
मैं जीवन की हरितीमा हूं
मैं निराशा में आशा की किरण
फिर भी पूछते हो
मैं कौन हूं
हां मैं नारी हूं
मैं सृष्टि हूं
मैं तुम्हें जीवन देने वाली
मैं शक्ति का संचार हूं
जब जब अनर्थ हो
मैं बनूं दुर्गा काली हूं
मैं शक्ति अनुरूपा हूं
हां मैं नारी हूं
अब मत पूछना क्या
वजूद है मेरा
मैं कौन हूं।
- डॉ. संगीता शर्मा
हैदराबाद - तेलंगाना
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मैं कौन हूं,यह जानना
इतना सरल होता अगर।
महावीर,नानक,बुद्ध ने
छोड़ा कभी न होता घर।।
मैं कौन हूं की तलाश में
भटक रहे थे जब दयानंद।
यह ज्ञान देने के लिए तब
मिल गये गुरु विरजानंद।।
मैं हूं शरीर या आत्मा,
इसको ही हम न जानते।
अज्ञानी,मूढ़मति है हम,
जो ज्ञान अपना बघारते।।
मैं कौन,बस समझा यही,
परमात्मा का अंश हूं।
मैं राम कृष्ण शिवाय हूं मैं,
मैं ही तो रावण,कंस हूं।।
पल पल चला करता सतत,
हर समय ही गतिमान हूं।
मैं हूं 'अनिल' संज्ञा मेरी,
इस सृष्टि में पवमान हूं।।
- डॉ अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
===============================
'मैं' वो हूँ जिसने हाथों को शीश झुकाया,
मन को शीश झुकाया।
गंगा में झुककर किया स्नान, शिव पर जल चढ़ाया।
यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, शिप्रा, नर्मदा, गोदावरी
सरयू , महानंदा, अलकनंदा, सबमें किया स्नान
मंदिरों में माथा टेका, सतगुरु को शीश झुकाया।
चारों धाम, चारों कुंभ, अनेक तीर्थों पर जहाँ-जहाँ गई मैं, शीश झुकाया।
स्वयं धरा पर रह- रह कर
झुक- झुक के जिसने, सब कुछ पाया।
सबका मान बढ़ाया, कुछ नहीं घटाया..।।
- संतोष गर्ग
मोहाली - चंडीगढ़
==============================
बतला दिया अच्छे से जग को-
कहाँ हूँ - मैं कौन हूँ?
मैं ही जनक हूँ सभ्यता का,
ज्ञान का-विज्ञान का!
संसार के उत्थान का,
संस्कार, धारण-ध्यान का!!
सत्य, शिव, सुन्दर उपासक,
अहिंसा मय प्रेम से,
मूल्य समझाता, समझता-
रहा है जो प्राण का!!
सदियों से चुप था,असल में-
मैं वही मुखरित मौन हूँ!
बतला दिया अच्छे से जग को,
कहाँ हूँ -मैं कौन हूँ!?
चन्द वर्षों में ही काया-
पलट मानो हो रही!
बाह्य भीतर की मलिनता,
आज मानो धो रही!!
जैसे को तैसा भाव रखकर-
शत्रु से या मित्र से,
सत्ता हमारी राष्ट्वादी-
बीज मानो बो रही!!
सदियों से चुप था असल में-
मैं वही मुखरित मौन हूँ!
बतला दिया अच्छे से जग को-
कहाँ हूँ-मैं कौन हूँ!!?
- आचार्य चिर आनन्द
सैनवाला - हिमाचल प्रदेश
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किसी ने विवेक को जगाया है
खुद को पहचानने का
अवसर पाया है
मेरी धड़कन पूछे बार -बार
मैं कौन हूं , मैं कौन हूं ।
जैसे पानी में डूबे - उतराए
कागज की नाव ,
वैसे मन हिचकोले खाता है बार-बार ,
ज़बाब नहीं मिल पाता है
मन शून्य हो जाता है
प्रश्न शेष रह जाता है
मैं कौन हूं , मैं कौन हूं ।
मां ने आकृति दिया
पिता ने दिए संस्कार
दोनों के गुण अवगुण
निहित अंदर , फिर भी,
जीवन तो शाश्वत नहीं रहता है
प्रश्न घुमड़ता बारंबार
मैं कौन हूं , मैं कौन हूं ।
अंतर मन ने आवाज लगाई
स्वप्न सुन्दर है पर झूठा है
तेरा नहीं यहां ठिकाना
दूर परदेश तुझे है जाना
माटी से उपजा माटी में मिल जाना है ।
सत्य , धर्म , त्याग की राह पर चल ,
पर ब्रह्म का अंश तू है
अंत उसी में मिल जाना है।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
==============================
हां मैं नारी हूं।
मैं नारी हूं,मैं शक्ति हूं,मैं जननी हूं,
नर का अस्तित्व बनाने वाली मैं नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।
दिया प्रभु ने जो कुछ नर को,
सब कुछ समान दिया नारी को। धैर्य दिया धरती सा मुझको, सहनशील है मुझे बनाया शिष्टाचारी, मैं नारी हूं।
नर का अस्तित्व बनाने वाली मैं नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।
ममतामयी स्वरूपा हूं मैं,
दया धर्म के प्रतिरूपा हूं मैं ।
बर्बरता भी झेल झेल में ना बिखरी,
नहीं सहारा मुझे चाहिए पूर्ण सशक्त, मैं नारी हूं।
नर का अस्तित्व बनाने वाली, मैं नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।
दुर्गा स्वरूप कामिनी सुंदर,
ज्ञानदा सम बोले वाणी मधुरम।
घर परिवार समृद्ध करें लक्ष्मी सम,
अन्नपूर्णा सम अन्न धन सरसाती, मैं नारी हूं।
नर का अस्तित्व बनाने वाली मैं नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।
विरह वेदना की अभिव्यक्ति ,
ह्रदय द्रवित है हरदम सहती।
घाव हृदय के सदा छुपाती,
सजल नयन में अश्रु के मोती भर चपला, मैं नारी हूं।
नर का अस्तित्व बनाने वाली मैं नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।
ठंड की ठिठुरन हो या तपती गर्मी हो।
हर हाल रसोई में पकवान बनाती हूं।
ध्यान सभी का रखकर घर भर खुशहाल बनाती हूं।
ममता के मोती चहुं ओर लुटाती, मैं नारी हूं।
नर का अस्तित्व बनाने वाली, मैं नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।
हे नर! क्यों समझ रहे मुझको अबला
देख दुष्टता अत्याचारी की बनती सबला
रणचंडी बन बजाती दुष्टों का तबला।
ईश्वर की अनुपम रचना कहती 'अलका,' मैं नारी हूं।
नर का अस्तित्व बचाने वाली, मैं नारी हूं।
हां मैं नारी हूं।
- अलका गुप्ता 'प्रियदर्शिनी'
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
============================
मै कौन हूँ
ये दुनिया जानती
जो मुझे मेरे कर्म से पहचानती
जो मेरे विश्वास से पहचानती
जो मेरी मित्रता से पहचानती
मै कौन हूँ
मै नही जानता
अच्छाई से मुझे पहचानते
सेवा भावी से मुझे पहचानते
मददगार से मुझे पहचानते
मै कौन हूँ
मुझे नही मालूम।
- संजय वर्मा " दॄष्टि "
मनावर - मध्यप्रदेश
===============================
मैं ,,,!!!
मैं नहीं हूं ,
मैं सब कुछ हूं ..
फिर भी
मैं , मैं नहीं हूं..... !!!
मैं माँ हूं ,
मैं पत्नी हूं ,
मैं बहन हूं ,
मैं बेटी हूं ,
मैं निर्भया हूं ,
मैं झण्डा हूं ,
मैं आन्दोलन हूं ,
पर मैं ,,,!!!
मैं नहीं हूं ,
मैं,,,!!!
सब कुछ हूं ,
फिर भी
मैं , मैं नहीं हूं,,,,
मैं घर हूं , आंगन हूं
मैं कमरा हूं ,रसोई हूं
मैं पलंग हूं ,अलमारी हूं
दरवाजा हूं ,
मैं घर की नींव हूं
पर मैं ,
घर नहीं हूं ,,,
मैं ,
मैं ,नहीं हूं....
मैं ,,,!!!
सब कुछ हूं
फिर भी ,
मैं , मैं नहीं हूं ,,,,
मैं धरती हूं ,
मैं कर्त्री हूं ,
मैं नारी हूं ,
मैं देवी हूं ,
मैं सृष्टि हूं ,
मैंने तुम्हें सृजा है
तुम ,तुम हो ,,,
पर मैं ,,,
मैं नहीं हूं...
मैं ,,,,!!!
मैं नहीं हूं ,
मैं सब कुछ हूं,,
फिर भी
मैं , मैं नहीं हूं ...!!!
- कनक हरलालका
धुबरी - असम
=============================
सबसे सुंदर बड़ा अनुपम
"सरला" है सरल सा नाम
सीधी सरल इक रेखा सी
हर आकार में आती काम
पुकारने में भी सरल सहज
तीन अक्षर ही चाहिए महज
नहीं ग़फ़लत व ना उलझाव
ना मंदिर गिरजा या मज़हब
यूँ तो है यह बहुत पुराना
स्वागत करे नया ज़माना
मेरा नाम मुझको भाता है
अर्थपूर्ण भई इसका बाना
उम्रदराज जब मैं लगी होने
साहित्य के ख़्वाब लगे आने
हिंदी अंग्रेजी मालवी भाषाएँ
लेखनी को बड़ी रुचिकर लगे
गद्य पद्य की सभी विधाओं में
डायरी के पन्ने रंगीन होने लगे
स्मार्टफोन और फेसबुक मिली
दिनरात यूँ मौज में गुज़रने लगे
- सरला मेहता
इंदौर - मध्यप्रदेश
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मैं ही सृष्टि
मैं ही विध्वंस हूँ
मैं ही सूर्य
और मैं ही चंद्र हूँ
मैं ही जीवन
और मैं ही मृत्यु हूँ
मैं ही परिवर्तन की बयार हूँ
मैं ही विगत
मैं ही आगत हूँ
मैं ही पुरातन
मैं ही नवीन हूँ
सब अपने में समेटे
मैं ही भूत/वर्तमान/भविष्य हूँ
परिवर्तित होती है संख्या मात्र
मैं अजर/अमर
सर्वत्र विद्यमान हूँ।
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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शिष्य को जो आकृति दे, शिक्षक वो कुंभकार है
शिक्षा -सागर में जो तैरे, उस नाव की पतवार है।
भोले - अबूझ शिष्यों का वही परवरदिगार है
शिक्षा -सागर में जो तैरे, उस नाव की पतवार है।
मां -बाप ने जन्म दिया
शिक्षक उन्हें सिखाता है
बच्चों को जो समस्या आती
समाधान उसका लाता है
ईश्वर से भी ऊंचा दर्जा, ऐसा पालनहार है
शिक्षा -सागर में जो तैरे, उस नाव की पतवार है।
श्रेष्ठ आचरण जो हो उसका
सबको प्यारा लगता है
खुश हो प्रगति से विद्यार्थियों की
ऐसा न्यारा लगता है
गागर में जो सागर भर दे, ज्ञान की वो रसधार है
शिक्षा - सागर में जो तैरे उस नाव की पतवार है।
- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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संसार माया जाल है ,ईश ही आधार है
पंचतत्वों का बना मानव का आकार है
जन्म मरण, गति सदगति ,आना जाना
अजब गजब खेला है, हर क्षण मन सोचता
नियति यदि प्रभू हाथ,अंश सबमें पमात्म
तो मैं कौन हूँ ।
बीज धरा मैं लुप्त हो जीवन देता
शाखाएँ, पत्ते, फूल फल सब ढ़ोता
सह लेता घोर अंधकार, खपाता अस्तित्व भी
रोशनी ,हवा, सौंदर्य, प्रशंसा पाता बस वृक्ष ही
सोचता तब बीज मैं कौन हूँ।
नींव का पत्थर, स्वयं को गाढ़ देता
अपने तन पर बढ़ा सा बोझ लेता
नित खामोश रह चुपचाप सोचता
बाहर की मजबूती, प्रगति और शान
सब कंगूरे को समर्पित सोचता वो बलशाली
इस ईमारत में ,मैं कौन हूँ ।
- ड़ा.नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
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ये जग सारा रैन बसेरा
यें जाने मै कौन हूँ ?
मायाजाल गुथा संसार है ।
कर्मों से बताता इंसान है ।
पूछता है -मै कौन हूँ
ईश्वर की अमुल्य भेंट है ।
अनुपम ग़ुणो की खान है ।
क्या लेकर आया
क्या लेकर जायेगा
खुद ही तेरी पहचान है
राम ,कृष्ण ,सीता ,सावित्री
रहीम ,कबीर ,अब्दुल कलाम ,
मदर टेरेसा से किसी ने ना पुछा तु कौन है
इंसानियत ही इंसान की पहचान है ।
आभाषी दुनिया में सारगर्भित नाम हैं ।
जग में रोशन किया
मै से मै की पहचान है ।
इंसानों हर इंसान
पूछता मै कौन हूँ ?
हितकारी गुणकारी औषधि दुर्लभ हैं ।
बुद्धिमान इंसान मिलना भी दुर्लभ हैं ।
ये जग सारा रैन बसेरा
यें जाने सारा संसार है
मै कौन हूँ ?
- अनिता शरद झा
यू एस अटलांटा
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स्वयं से टकरा जाना यूँ ही
जीवन से आँख मिलाना यूँ ही
अह्सास ही नहीं कौन हूँ मैं
क्यूँ जन्म लिया क्या खोया पाया
पैसा रूतबा अहंकार और
भौतिक सुख पर इतराना यूँ ही
जीवन भर का प्राप्य हमारे
झोली भर सिक्के महल इमारत
गर खरीद ना पाए तुमको
पत्थर से टकराना यूँ ही
भव्य मनोहर निर्मल सुन्दर
हर अक्स प्रकृति दिखलाती ईश्वर
नश्वर तन के अहंकार में
सच को अक्सर झुठलाना यूँ ही
कसकर बंद करी थी मुट्ठी
मगर बिछड़ गईं सभी नेमतें
समय रूप और आयु बिछड़ गये
अंत समय पछताना यूँ ही
- श्रुत कीर्ति अग्रवाल
पटना - बिहार
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मैं आया या भेजा गया हूँ
भगवान ने या उसकी रचना द्वारा।
इच्छा या अनिच्छा से आकर
जीवन पाया धरा पर मैं कौन हूँ।
कभी दरख्त से अलग होकर
पत्ता बन उडूं,दर बदर भटकूं।
कभी समन्दर की लहरों जैसा
उठूँ फिर मिट जाऊं मैं कौन हूँ।
कभी अपनों ने ठुकराया
कभी वक्त ने आंसू में बहाया।
अपना वजूद तलाशता ही रहा
खोज न पाया मैं कौन हूँ।
आशावादी नजरों से देखता रहा
अपने और पराये को आजमाया।
किसी ने हाथ भी ना बढ़ाया
रहा बिलखता मैं कौन हूँ।
कहते हैं भगवान को बंद रखते
उनके अपने देवालयों में।
इंसा भी न मिला देवता जैसा
जो दामन थामे मेरा मैं कौन हूँ।
- डाॅ . मधुकर राव लारोकर 'मधुर '
नागपुर - महाराष्ट्र
===============================
मैं कौन हूं ?
मैं भी जानू
मैं भी पहचानूँ !!
मैं एक मां हूं ,
जिसकी हर सांस ,
में रहती है चिंता !!
मैं एक गृहणी हूं !
गृह कार्यों में व्यस्त ,
हौसले ना होते पस्त !!
मैं एक बहन हूं ,
करती भाइयों का मार्गदर्शन ,
हितैषी भाइयों की हरदम !!
मैं एक पत्नी हूं !
पति सेवा में लीन ,
शक्ति ना होती क्षीण !!
मैं एक बेटी हूं !!
मानती मां पिता का कहना ,
हौसला जिसका गहना !!
मैं इन सब का संगम ,
किरदार देखो मेरा ,
विस्तृत व विहंगम !!
- नंदिता बाली
हिमाचल प्रदेश
===============================
युद्ध की विभीषिका
झेलती निरीह प्रजा
पूछती प्रश्न
दो देशों की राजनीति में
क्या अस्तित्व मेरा
मैं कौन हूँ?
पिता की पुत्री
पति की पत्नी
पुत्र की माँ
पहचान यही
घर के मुख्य दरवाज़े पर
अपने नाम की पट्टीका
ढूंढती स्त्री
पूछती ज्वलंत प्रश्न
मैं कौन हूँ?
मुझसे ही पाते जीवन
मुझे ही करते नष्ट
साँस लेना भी दुष्कर
चेत समय अभी
खोज ले मुझे अभी
मैं कौन हूँ?
क्योंकि
मैं तो मौन हूँl
- सावित्री कुमार
देहरादून - उत्तराखंड
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मैं हूं इस देश की बेटी हूं।
मैं सब कुछ कर सकती हूं ।।
मैं बेटी हूं पर एक बेटे के बराबर काम करती हूं ।
कभी नहीं सोचती मैं कौन हूं ।।
मैं ईश्वर की सबसे सुंदर कृति हूं । मां बाप की लाडली हूं ।।
और देश का मान सम्मान हूं ।
लोग पूछते हैं तुम कौन हो ,?
मैं गर्व से कहती हूं ।।
मैं एक नारी हूं।
जो अपने अंदर सब कुछ समेटने की ताकत रखती है ।।
.मैं सृजन करता हूं ।
मैं इस समाज को संस्कार देती हूं।।
और नित्य नया इतिहास गृढ़ती ह
मैं आसमान में सुराख कर सकती हूं।।
तो अपनी हिम्मत और हौसले से बड़े-बड़े शुरमाओ को मात देती हूं।।
हां मैं एक नारी हूं ।
मैं तमाम किरदार निभाती हूं ।।और सब कुछ बहुत कुशलता से सहेजती हूं ।
मैं कभी भी नहीं घबराती
तूफानों का भी मुकाबला कर लेती हूं ।।
क्योंकि मैं एक नारी हूं।
संघर्षों में तप कर निखरी हूं।।
- अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
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हर व्यक्ति जो धरा पर आया,
जीवन के किसी न किसी स्तर पर,
पूछ ही लेता है प्रश्न स्वयं से,
कि मैं कौन हूं ?
उत्तर है सहज,
मैं सच्चिदानंद स्वरूप आत्मा हूं-
शाश्वत हूं,चैतन्य हूं और आनंद स्वरूप,
प्रकाश स्वरूप आत्मा हूं।
अविनाशी हूं।
मेरा शरीर क्षेत्र है और इसको जाननेवाली मैं क्षेत्रज्ञ हूं।
परमात्मा का अंश जीवात्मा है,
मैं परमात्मा की श्रेष्ठ रचना हूं।
मेरा शरीर पंचभूतों से मिलकर बना–
जल,पृथ्वी,वायु,आकाश और अग्नि।
परमेश्वर की आज्ञा पाकर सभी पंच महाभूतों
के देवता इंद्रियों में प्रविष्ट हो गए।
- प्रज्ञा गुप्ता
बॉसवाड़ा - राजस्थान
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मैं जग जननी,
ममता की मूरत,
भोली भाली सूरत,
मेरा आदि न अन्त,
कहीं बूंद पानी की,
कहीं विशाल समुद्र,
मैं धारा नदिया की,
मैं कल कल बहती,
मैं हर वृक्ष हर डाल,
हर फूल हर पत्ता हूँ,
हर मन भावन सौरभ,
कण कण की सत्ता हूँ,
मैं धरा और धरणी,
नभ की घटा और,
चमकती दामिनी भी,
मैं शीतल हवा भी,
क्रोधित आंधी भी,
खुशी का फव्वारा,
आंसू की धारा भी,
मन की शान्ति भी,
सुखद अनुभूति भी,
एक रूप में समाये
अनेकों मेरे रूप है,
सभी में विद्यमान,
होकर भी नहीं हूँ,
मैं सबमें सबकी,
सखी सहेली हूँ,
समझ न सका है,
कोई मुझे अब तक,
इसलिए तो आज तक,
अनबुझी पहेली हूँ ॥
- शीला सिंह
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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नदियाँ दूब पर दौड़ा नहीं करती
जुझारू और जीवट
जोश और संकल्पों से लैस
सामाजिक-राजनीतिक चादर की गठरी में कैद
सामाजिक ढाँचे में छटपटाती-कसमसाती
नए रिश्तों की जकड़न-उलझन में पड़ कर
पर पुराने रिश्तों को भी निभाकर
हरदम जीती-चलती-मरती हूँ।
रिश्तों में जीना और मरना काम है मेरा...
ऐसे ही रहती आई हूँ।
ऐसे ही रहना है मुझे ?
उलझी रहती हूँ उनसुलझे सवालों में
जकड़ी रहती हूँ मर्यादा की बेड़ियों में
जीतने हो सकते हैं बदनामी का ठिकरा
हमेशा लगातार फोड़ा जाता है मुझ पर
लेकिन
हँसते-हँसते सब बुझते -सहते
हो जाती हूँ कुर्बान।
कब-कब , क्यूँ-क्यूँ , कहाँ-कहाँ , कैसे-कैसे
छली , कुचली , मसली और तली गई हूँ
मन की अथाह गहराइयों में
दर्द के समुद्री शैवाल छुपाए
शोषित, पीड़ित और व्यथित
मन, कर्म और वचन से प्रताड़ित
मानसिक-भावनात्मक और
सामाजिक-असामाजिक
कुरीतियों-विकृतियों की शिकार
पुराने रीति-रिवाजों से तक़रार
करती हूँ अपने बच्चों को सुरक्षित
अंधविश्वासों की आँधी से
खुद रहती हूँ हरदम अभावों में
पर देती हूँ सबको अभयदान मैं
हाँ! मैं एक स्त्री हूँ।
विष पीना शिवत्व है
स्त्री होने में महत्त्व है
हाँ! मैं एक स्त्री हूँ।
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
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मैं कौन हूँ ?
कोई पूछ ले अगर मुझसे,
मैं कौन हूँ?
कह दूँगी,
कुछ भी खास नहीं।
मिट्टी से पैदा हुई,
मिट्टी में ही मिल जाना है।
मेरा ही क्यों अंत में,
हर किसी का यही ठिकाना है।
फिर क्यों इतराए फिरते हैं,
क्या वह जानते नहीं।
जिंदगी दो पल का बसेरा है,
यह क्यों समझते नहीं।
यह दुनिया एक मेला है,
हर राही यहां अकेला है।
मिलन की घड़ी न समझना इसे,
यही तो विदाई की बेला है।
- सीमा वर्मा
लुधियाना - पंजाब
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मैं हूं ईश्वर का सुंदर उपहार,
बेटी हूं, नारी हूं,धरा का शृंगार।
हूं परिवार की धुरी, सृष्टि की जनक,
मेरे सागर में अनमोल हीरे, मोती, कनक।
हूं आधी दुनिया पर, संपूर्ण में समाई,
मैं हूं खनक, झनक मधुर शहनाई।
पीहर की दुलारी ससुराल का मान हूं,
मैं उपजाऊ मिट्टी, उपवन की शान हूं।
हूं व्रत, उपवास, रीतिरिवाज, त्योहार,
अपनी लहरों में बहाती पीढ़ियों के संस्कार।
बेशक चाँद, फूल, तितली कहलाती हूं,
वक्त पड़े तो शोला भी बन जाती हूं।
मेरे वजूद को कोई हिला नहीं सकता,
जन्मदात्री हूं कोई मिटा नहीं सकता।
नहीं चाहिए मुझे चांद,तारे,नभ का पार,
सपनों को पंख दो,खोल दो पिंजरे का द्वार।।
- डॉ. सुरिन्दर कौर नीलम
राँची - झारखंड
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अक्सर
उठता है मन में
यह प्रश्न
मै कौन हूँ
पूछता हूँ अपने
अन्तर्मन से
तो मिलता है
बस एक
यही उत्तर
उसी असीम सत्ता
का पवित्र
अंश ... आत्मा
जो व्याप्त है
समूचे विश्व में
हर एक कण में है
हर वस्तु में है
जिसकी ऊर्जा
जो है निराकार
निर्विकार
सर्वशक्तिमान
सर्वश्रेष्ठ
- डॉ. प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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कर लो मुट्ठी में मुझे
मत जाने दो यूँ ही।
भोग लो मुझे
चलायमान हूँ सदैव।
एक बार निकला तो वापस
नहीं पाओगे मुझे।
क़ीमती हूँ।
पता है ना मेरी कीमत
अनमोल हूँ।
जिसने पहचान लिया मुझे
व्यर्थ नहीं गँवाया
सही उपयोग कर
जी लिया मुझे
वहीं सिकंदर।
त्याग कर आलस के कीड़े को,
वक्त पर वक्त निकालकर,
सँवार लो ख़ुद को।
पहचाना मुझे
मैं कौन हूँ?
हाँ समय हूँ मैं।
मत आँसू बहा बेवजह
मत कमजोर समझ
मत फँस झूठ औ फ़रेब
के चक्रव्यूह में…
नहीं आऊँगा वापस तुझे बचाने।
स्वयं का संबल बन
पहचान निज को
आगे बढ़ मेरी तरह
पीछे मुड़कर मत देख
बता दें दुनिया को
कि तू कौन है?
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
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मेरे मालिक बँधा हुआ है,संसार तेरे हाथों मे
है जन्म मरण का सारा व्यापार तेरे हाथों में
तूने भेजा मुझे जग में, मैं नन्ही सी हूँ आत्मा
जब चाहे बुला ले वापिस, तू है मेरा परमात्मा
यह बेहद मुश्किल काम तो है करतार तेरे हाथों में
जग सारा वंश है तेरा, मेरे दिल में तेरा डेरा
बन आत्मा तन में बैठा, यह आत्मा अंश है तेरा
हम सब की धड़कन का है, हर तार तेरे हाथों में
- सुदेश मोदगिल नूर
पंचकूला - हरियाणा
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विचारों के प्रवाह में जब बहता हूँ।
खुद की बात खुद से जब कहता हूँ।।
प्रश्न यह सामने आता है 'मैं कौन हूँ'।
उत्तर पाने को खुद से लड़ता रहता हूँ।।
स्वयं को छलने वाला व्यवहार हूँ।
सत्कर्मों के मार्ग में प्रतिकार हूँ।।
अन्तर्मन चीख-चीख कर कहता है।
दुर्बलता का झरना यहाँ बहता है।।
शारीरिक सौष्ठव देख इतराता हूँ।
देख स्वयं को भ्रमित हो जाता हूँ।।
कुटिलतायें मेरे मन की बताती है।
आत्ममुग्धता मेरे मन की थाती है।।
मृगतृष्णा के घने जाल में फँसा हूँ।
मोह-माया के दलदल में धँसा हूँ।।
लोभ का मोहपाश बुलाता है मुझे।
घना स्याह प्रकाश लुभाता है मुझे।।
स्वार्थ के भँवर में घूमता रहता हूँ।
अहंकार के नशे में झूमता रहता हूँ।।
दान-दया-क्षमा संस्कार नहीं मेरे।
सहज-सरल-सरस विचार नहीं मेरे।।
क्षुद्रता मन-मस्तिष्क में समेटे हुए।
सबल खरपतवार हैं मुझमें बैठे हुए।।
कंटीले नागफनी जैसा मर्म है मेरा।
विषैले साँप जैसा हर कर्म है मेरा।।
मानव होकर मानवता नहीं मुझमें।
सौरभ जैसी पावनता नहीं मुझमें।।
निष्ठुरता अंग है मेरे जीवन पथ की।
जिंदगी मेरी बिन सारथी के रथ सी।।
आत्मचिंतन ने मन में सद्भाव जगाया।
आत्ममंथन ने मन को सद्मार्ग दिखाया।।
खुद को जानने का अवसर जब आया।
'मैं कौन हूँ' का तब उत्तर मिल पाया।।
- सतेन्द्र शर्मा ' तरंग '
देहरादून - उत्तराखंड
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सांझ के धुंधलके में
दृष्टिगत होती परछाईं
जो;
कभी महकती थी,
कुछ चहकती थी
पर, समय के आवेग में
ढलते हुए सूरज के साथ
मुरझाने सी लगी थी।
जब टिमटिमाती रोशनी
तारों कीआसमान पर
आच्छादित होने लगी
रात्रि के प्रथम प्रहर में
तब जाकर महसूस हुआ
कि यह तो वही परछाई है
जो बचपन की दहलीज पार कर
खिलखिलाती, मुस्कुराती
नए नए सपने संजोए
कभी आन पहुंची थी
ख्वाबों और ख्वाहिशों का
दामन थाम धूप बन
किसी के आंगन में
और बिखेर दी थीं
सारी खुशियां अपनी झोली में से।
समय के साथ गहराता गया
रूप यौवन उस अक्स का
जो उभरा था कभी
सबके मन के कैनवास पर
उकेरते हुए कई रंग इंद्रधनुषी
उन रंगों की परत में छिप गया था जो
अपना एक रंग;
वह रंग ढूंढने में लगी हुई हूं अब भी
जीवन के इस तरेपनवें पायदान पर
पांव रखते हुए हौले से
कि किसी तरह वापस लौटा सकूं
खुद को ही वह पहचान
जो सिर्फ एक परछाईं बन कर जीती रही
अब एक मुकम्मल आसमां चाहती हूं मैं भी.
- सीमा भाटिया
लुधियाना - पंजाब
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नारी हूँ मैं
हाँ एक नारी हूँ मैं !
नहीं हूँ मैं किसी कवि की कविता
न ही किसी शायर की शायरी हूँ
बस एक ओजस्वी शब्द हूँ मैं
नारी हूँ मैं
हाँ एक नारी हूँ मैं।
न ही मैं चाँद हूँ, न ही चाँदनी
न नदी हूँ, न ही निर्झर रागिनी
न ही सुघडता की मूरत हूँ
न मधुरता की हूँ चाशनी
नारी हूँ मैं
हाँ बस एक नारी हूँ मैं।
न रूप रंग का संगम हूँ
न कद-काठी का उपहार
मृगनयनी सी हूँ नहीं मैं
न पंखुरियों सी कोमलता का पाश
आँचल में मेरे केवल शीतलता नहीं
न चरणों में है स्वर्ग
बस अदम्य साहस का परिचय हूँ मैं
एक नारी हूँ
हाँ बस एक नारी हूँ मैं !!
दो ना अलंकारों का उपहार मुझे
न ही मुझे महिमामण्डित करो
न दुर्गा, न काली
न लक्ष्मी न ही सरस्वती कहो
पहाड़ों सी पदवी दे कर
अहल्या बनने पर न विवश करो
मानव जन्म लिया है जग में
मानव सा सम्मान ही दो
करने दो ज़िद थोड़ी सी
पंखों को थोड़ा उड़ान दो
लक्ष्मण रेखा के बाहर बैठा रावण
इसकी पहचान तो करने दो
स्वप्न देखे इतना हक़ तो दे दो
स्वच्छन्दता से कदमताल तो करने दो
जीवन के हर क्षण को बोती- काटती
सन्तुष्टि का अभिमान तो दो
नारी हूँ, बस नारी सा मान तो दो
बस नारी सा मान तो दो.......
- मधुलिका सिन्हा
कोलकाता - पं.बंगाल
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मानव तन जब से पाया,
सोच रहा हूं मैं !
कैसे हुई उत्पत्ति मेरी ?
कहां से आया मैं ?
रह रहकर यह प्रश्न है उठता,
दिल को मेरे है झिंझोड़ता ।
कर रहा दिमाग मंथन मेरा,
कुछ उत्तर फिर मुझको मिलता।
मैं हूं आत्मा का एक अंश ,
अजर ,अमर और अनश्वर ।
बतलाया यह खाटू श्याम ने ,
महाभारत निर्णय सत्वर।
सब कुछ है माया का खेल,
भ्रमित हो जाता इंसान ।
हम सब हैं कठपुतली उसके ,
नाच नचाता 'सक्षम' भगवान।
- गायत्री ठाकुर सक्षम
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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मैं कौन हूँ ?
पूछती हूँ मैं
ख़ुद ही ख़ुद से
उत्तर मिलता है
मैं
ईश्वर की
अनुपम कृति हूँ।
वरदान हूँ
ईश्वर का
जिसे ईश्वर ने
बड़े ही
मनोयोग से रचा है
इस जगत का
उद्धार
करने के लिए
कष्ट सह कर
सभी को
निष्कंटक
रखने के लिए
रातों को
जागकर
सबको
मीठी नींद
सुलाने के लिए
अपना काम
विधाता ने
बाँट दिया है
हमें
इसीलिए
बनाया ईश्वर ने
अपनी प्रतिकृति
नारी
इस जग में
हाँ
मैं नारी हूँ
मैं कौन हूँ ?
का उत्तर
ईश्वर का
प्रतिरूप !
- डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘
फरीदाबाद - हरियाणा
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किसी को राह दिखाने वाला
किसी को समझाने वाला
मैं कौन हूँ।
अपना बताने वाला
अपनापन दिखाने वाला
मैं कौन हूँ।
प्यार जताने वाला
प्यार से समझाने से समझाने वाला
मैं कौन हूँ।
अपना अधिकार दिखाने वाला
दूसरे को समझने वाला
मैं कौन हूँ
प्यार का रंग लगाने वाला
प्यार का अहसास कराने वाला
मैं कौन हूँ।
सबको साथ लेकर चलने वाला
सबको अपना मानने वाला
मैं कौन हूँ।
मंदिर जाने वाला, मस्जिद जाने वाला
गिरजाघर और गुरुद्वारा जाने वाला
मैं कौन हूँ।
मैं कौन हूँ।
मैं एक मेमोरी हूँ।
- राम नारायण साहू " राज "
रायपुर - छत्तीसगढ़
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मैं और मेरा मन दोनों बेचैन है यह प्रश्न करूं किससे?
मैं कौन हूं....
मेरा मन का दर्द है, यह प्रश्न
कविता की आजादी नहीं महंगाई का है,
जा रही है, निरिह जनता
भूख प्यास से बेबस मरते गरीब है।
आखिर जिम्मेदार कौन है??
मैं और मेरा मन यह प्रश्न करूं किससे?
मैं कौन हूं......
पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ाता,
तेल कंपनियों पर आरोप लगाता।
जनता के पूछे जाने पर, मंत्री बना मौन । आखिर जिम्मेदार कौन है??
मैं और मेरा मन यह प्रश्न करूं किससे?
मैं कौन हूं.....
जब जब चुनाव आता है नेता
सब घबराते क्यों आखिर क्या ??
संसद में जाकर सोते हैं,
5 बरस का होता है ?
आते चुनाव फिर वह अपनी किस्मत पर रोता है,
मैं और मेरा मन यह प्रश्न करूं किससे ?
मैं कौन हूं......
जनता के घर पर जाने में,
अब वह क्यों कतराते है,
जब चुनाव आता है सब नेता क्यों घबराता है?
जिम्मेदार कौन इस सवाल से हर कोई कतरात है, आखिर जिम्मेदार कौन?
मैं और मेरा मन यह प्रश्न करूं किससे?
मैं कौन हूं......
आज का रावण कौन है यह समझाता नहीं कोई सलाह तो सब देते हैं पर सुलझा ता नहीं कोई??
मैं और मेरा मन यह प्रश्न करूं किससे ?
मैं कौन हूं.....
- उमा मिश्रा " प्रीति "
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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हम अपने " स्व " को पहचाने
हम औरौ से मिलते मिलते
अपने को ही भूल गये है।
सबको दे डाली बगियां हैं
खुद अपनों के शूल सहे है।
समय मिला सत्य को जाने
हम अपने " स्व " को पहचाने ।।
हम समाज के ही आराधक
हमनें ही संस्कृति रचाई।
आर्य सभी प्राणी बन पालें
अलख विश्व में खूब जगाई
पाना अपना गौरब ठाने
हम अपने " स्व " को पहचाने ।।
मक्कारी और छल प्रपंच से
असुर भाव के क्रूर तंत्र से
सदियों से हम छले गये हैं
हमसे ही जो पले गये है
सत्य-वोध इसका भी जाने
हम अपने " स्व " को पहचाने ।।
हम ही वंशज हैं राणा के
ऋषियों की संतानें हम ही।
विश्व विजय इतिहास हमारा
दावा करते हैं हम कम ही।।
शौर्य सूर्य फिर से चमकाने
हम अपने " स्व " को पहचाने ।।
हमें तोड़ने असुर लगे हैं
खण्ड खण्ड में बाँट दिया है।
सुविधा भोगी मकड़जाल से
हमको हमसे काट दिया है।
जागें खतरे सभी मिटाने
हम अपने " स्व " को पहचाने ।।
- राज किशोर वाजेपयी " अभय "
ग्वालियर - मध्यप्रदेश
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खाटू श्याम जी का आशीर्वाद मिला ।आदरणीय बीजेंद्र जैमिनी जी का हार्दिक आभार
ReplyDeleteजय श्री श्याम
Deleteबहुत सुन्दर जानकारी । जय श्री श्याम 🙏
ReplyDeleteजय श्याम खाटू जी महाराज
ReplyDeleteआपने बहुत ही सुन्दर आयोजन रखा।सबको लेखन के लिए प्रेरित करने और फिर मंच प्रदान कर सम्मानित करने की आपकी कार्यशैली प्रणम्य है। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
हार्दिक आभार
Deleteसराहनीय आयोजन।
ReplyDeleteसभी को बधाई एवं शुभकामनाएँ।
स्वयं को मंच पर पा कर अत्यंत हर्ष हुआ।
हृदय से आभार।
सादर
हार्दिक धन्यवाद ।
Delete