पद्मश्री विजयदान देथा ' बिज्जी ' की स्मृति लघुकथा उत्सव
भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा पद्मश्री विजयदान देथा ' बिज्जी ' की स्मृति में " लघुकथा उत्सव " का आयोजन फेसबुक पर रखा गया है । अभी तक जगदीश कश्यप , उर्मिला कौल , पारस दासोत , डॉ. सुरेन्द्र मंथन , सुगनचंद मुक्तेश , रावी , कालीचरण प्रेमी , विष्णु प्रभाकर , हरिशंकर परसाई , रामधारी सिंह दिनकर , आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री , युगल जी , विक्रम सोनी , डॉ. सतीश दुबे , पृथ्वीराज अरोड़ा , योगेन्द्र मौदगिल , सुरेश शर्मा , लोकनायक जयप्रकाश नारायण , डॉ स्वर्ण किरण , मधुदीप गुप्ता, सुदर्शन ' प. बद्रीनाथ भट्ट ' , डॉ. सतीशराज पुष्करणा , डॉ. शंकर पुणतांबेकर की आदि की स्मृति पर ऑनलाइन " लघुकथा उत्सव " का आयोजन कर चुके हैं ।
पद्मश्री विजयदान देथा ' बिज्जी '
पद्मश्री विजयदान देथा ' बिज्जी ' का जन्म 01 सितम्बर 1926 को बोरूंदा ( जोधपुर ) राजस्थान में हुआ है । ये राजस्थानी भाषा के साथ - साथ हिन्दी में भी लिखते थे । इन्होंने विभिन्न विधाओं में लेखनी को चलाया है । पद्मश्री व साहित्य अकादमी के साथ - साथ अनेंक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं । 2011 में इन का नाम साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हुआ था । इन के लघुकथा संग्रह अलेखन हिटलर (1984 ) , चौधरायन की चतुराई ( 1996 ) , अन्तराल (1997 ) , सपनप्रिया (1997 ) , प्रिया मृणाल ( 1998 ) प्रकाशित हैं । राजस्थानी में 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं । इन्हें राजस्थान का शेक्सपियर भी कहाँ जाता है । इन्होंने करीब 800 छोटी-बड़ी कहानियां लिखीं है ।जिनका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। इनकी कई कहानियों पर कई हिंदी फिल्म का निर्माण और नाटकों का मंचन हुआ है। प्रकाश झा की परिणीति, श्याम बेनेगल की चरणदास चोर, मणि कौल की दुविधा और अमोल पालेकर की शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन अभिनीत पहेली उनकी प्रमुख फिल्में हैं। इसी साल सर्वप्रिय कहानी "केंचुली" पर आधारित फिल्म 'काँचली' का भी निर्माण हुआ है। इन का देहावसान 10 नवम्बर 2013 को बोरूंदा ( उदयपुर ) में हुआ है ।
कुछ लघुकथा के साथ डिजिटल सम्मान
बन्द आँखें
बस छूटने ही वाली थी।दरवाजे की तरफ से अजीब सा शोर उठा,जैसे कोई कुत्ता हकाल रहा हो।परेशानी और उत्सुकता के मिले जुले भाव लिये मैंने उस ओर देखा तो पता चला कोई बूढा व्यक्ति है,जो शहर जाना चाह रहा है।वह गिडगिडा रहा था,'"तोर पांव परथ ऊं बाबू.मोला रायपुर ले चल।मैंगरीब टिकीस के पैसा ला कहां ले लाववुं।"उसका शरीर कांप रहा था।
-"अरे चल चल।मुफ्त में कौन शहर ले जायेगा।चल उतर।तेरे बाप की गाडी है न।कंडक्टर की जुबान कैंची की तरह चल रही थी।"।किसी गाडी के नीचे आजा,शहर क्या सीधे उपर पहुंच जायेगा."एक जोरदार ठहाका गुंज उठा।
एक सज्जन जिन्हें ड्यूटी पहुंच ने के लिये देर हो रही थी बोले,इनका तो रोज का है।इनके कारण हमारा समय मत खराब करो।निकालो बाहर"।
एक अन्य साहब ने चश्मे के भीतर से कहा,और क्या।धक्के मार कर गिरा दो।तुम भी उससे ऐसे बात कर रहे हो.जैसे वह भिखारी न हो कोई राजा हो।
और सचमुच।!एक तरह से उसे धक्के मार कर ही उतारा गया।यात्रियों ने राहत की सांस ली।डा्ईवर ने मनपसंद गाना लगाया।बस चल पडी।
मेरी सर्विस शहर में थी।रोज बस या ट्रेन से अपडाउन।अपने कान और आंखे बंद कर लिये थे।नहीं तो और भी जाने क्या क्या सुनना पडता।
पर साथ ही पिछले सप्ताह की एक घटना याद हो आयी।इसी बस में एक सज्जन जल्दबाजी में चढे।बाद में जनाब को याद आया कि बटुआ वे घर पर ही भूल आये है।।मुझे अच्छे से याद है,चार चार लोग आगे बढे उनकी सहायता करने को,उनकी टिकीट कटाने को।अंत में कंडक्टर स्वयं, यह रोज के ग्राहक है।कल ले लूंगा कह कर अपने रिस्क पर उन्हें शहर ले जाने को तैयार हो गये।
सोचना बंद कर एक बार पीछे मूडकर देखा।सभी अबतक वही बात कर रहे थे।जल्दी से आगे की तरफ नजर धूमा लेता हूँ।तभी मेरी नजर सामने की तरफ लगे,दर्पण पर पडी।उसमें मुझे अन्य लोगों के साथ अपना भी चेहरा साफ नजर आया। धबरा कर मैंने अपनी आंखेँ बंद कर ली।
- महेश राजा
महासमुंद - छत्तीसगढ़
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जीवन के इस दौर में मैं अकेली वृद्धाश्रम की चारदीवारी के बीच कैद अक्सर बचपन और जवानी के सुनहरे दिनों के रास्ते पर चल पड़ती हूँ।
बच्चे सब अपनी जिन्दगी में स्थापित हैं और जीवनसाथी स्वर्ग की राह पर चल पड़ा है।.
मैं लौट जाती हूँ प्रभु के दिखलाए हुए प्रकृति के स्नेहिल आँचल में जब मैं पहरों वृक्षों पर चढ़ते उतरते फलों से ही पेट भर लेती थी,
जवानी में गृहस्थी के जंजालों के मध्य भी सांध्य बेला गुरु जी के आश्रम में दो घंटे चुपचाप बैठ कर वृक्षों के नीचे माँ प्रकृति के सान्निध्य में शान्ति प्राप्त कर लेती थी।
आज फिर जब ईश्वर और माँ प्रकृति का आह्वान है तो मैं क्यों यहां बंध कर रहूं।
अपने पैसे मासिक प्राप्ति के आधार पर जमा करवा चल पड़ी हूँ अपने थके पाँव लेकर माँ प्रकृति की गोद में चिर विश्राम की तलाश में...
- कनक हरलालका
धूमरी - असम
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मै बस में मुंबई से इंदौर जाने के लिए चढ़ी अपनी सीट पर बैठ गई ।
मेरे पहले एक माँ जी बैठी हुई थी , हमारी आपस में बात चीत शुरु हुई फिर ईश्वर व उसके सृजन , करिश्मे पर चर्चा होने लगी पर माँ जी उन बातों को नकार रही थी ईश्वर पर विश्वास नही जता रही थी , लग रहा था मां जी भगवान से कुछ अधिक ही नाराज थी ।
मैं कोई तर्क देती फ़ौरन उसका काट वो तैयार रखती , काफी तर्क हमारे बीच हो रहे थे हमारी बहस अभी युद्ध का रूप लेने ही वाली थी , की बस चरमराकर रुक गई , बारिश की वजह से सड़क में बड़े बड़े गढ़े हो गए थे और पानी बहुत ज़्यादा बह कर आ गया है बस को पूल पार करने में मुश्किल हो सकती थी ।
पूल के दोनों ओर वाहन क़तार मे लगे थे तभी एक ट्रक आया ट्रक चालक नीचे उतरा पानी का अंदाज़ा लगाया ओर चला गया , बस वाले को भी जोश आया वह भी ट्रक के पीछे हो लिया बस वाला बोला सब ईश्वर को याद कर लो और बस थोड़ा आगे बड़ी बीचों बीच पहूच कर धक्का खाने लगी , सबने एक स्वर मे भगवान का जयकारा लगाया सबसे पहले जय बोलने वाली वही बग़ल वाली माता जी थी ।
जो कुछ देर पहले ऊपर वाले के अस्तित्व को ही नकार रही थी ।
- अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
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जैसे ही ट्रेन स्टेशन पहुँची, मंजरी के चेहरे की भावभंगिमा बदलने लगी थी।
बच्चे अपनी माँ के इस खिलते चेहरे का रहस्य तो नहीं समझ पाए पर इतना जरुर जान गए कि माँ बहुत खुश है।
जीप पर बैठने और खुलने के मध्य मंजरी का उतावलापन जाहिर कर रहा था कि अरसे बाद मायके आना कितना सुखद है।
गाँव की एक झलक मिलते ही बोल पड़ी-जल्दी से जूते पहन लो। अब आ ही गया देखो मेरा गाँव।
जीप के रुकते ही ,इंतजार में खड़े अपने पिता को देख दौड़ कर लिपट पड़ी थी।
बच्चे चुपचाप इस दृश्य को देखे जा रहे थे।
बाबा!.वियाह दिया मुझे तो क्या याद भी नहीं आती मेरी..?
कबसे मन कर रहा था हमारा आपसब से मिलने का।
चल !.पहले घर चल,सब इंतजार कर रहे है तेरा।
रोते -रोते ही आँगन की देहरी पार की थी । जब ससुराल जा रही थी तब भी और आज भी।
माँ-बेटी की नजर क्या मिली,दहाड़े मारते गले लग गई। अस्त-व्यस्त कपड़ों का भी होश नहीं।
अरे!.रोती ही रहोगी क्या..?
देखों !.बच्चे चुपचाप से हैं।
जाओ हाँथ-मुँह धो लो। सफर का थकान उतर जाएगा।
अपने आँसू पोछती हुई ,बच्चों का हाथ थामे नलका की ओर बढ़ ही रही थी कि उसे अपने कमरे की तस्वीर बदली हुई लगी।
कलेजा मुँह को आ गया था। कहाँ गई मेरी सारी चीजें..?
माँ!,बाबा!,..मेरा कमरा ,मेरा सामान ऽऽऽ...सब किधर है..?
सब है ,रखवा दिया है गल्लावाला कमरा में।
गल्लावाला..?????कमराऽऽ..
हाँ बिटिया,अब वो कमरा तुम्हारी भाभी का है।
अपनी बहन के उतरे चेहरे देख छोटी बहन ने कह-दीदी!,..चलो न !चिंता क्यूँ करती हो ?मेरा कमरा है न। जबतक रहोगी वो तुम्हारा कमरा रहेगा।
अरे नहीं छोटी..मैं ही पागल ठहरी। आते ही मेरा -मेरा करने लगी। ये घर मेरा है तो सारी जगह ही मेरी है। क्यूँ...??
"सही तो है!.,जहाँ मन करे वहाँ सो लो उठ लो,बैठ लो। कोई मना करने वाला तो नहीं है यहाँ तुम्हें। दो -चार दिन के मेहमान के लिए क्या सोंचना।"
अपनी आँखों की कोर पोछती ,दिल में उठती हूक को दबाने का भरसक प्रयत्न करती रही।
अपना होकर भी अब सारी चीजें परायी सी क्यूँ लग रही थी ?..किसी चीज को हाथ लगाने से भी मन रोक देता।
दो दिन ही गुजरे थे,मन उबने सा लगा।
कितनी हुल्लस लिए निकली थी अपने सामान के साथ।
पंद्रह दिन की छुट्टी कहकर,पति विनय को हिदायत देती हुई आई थी..".देखना बुलाओगे तब भी जल्दी नहीं आ पाऊँगी।"
" इतनी सारी सहेलियाँ,गाँव भर की रिश्तेदारी और माँ-बाबा का साथ। कैसे हो पायगा इतनी जल्दी वापस आना। "
अगली सुबह मंजरी अपनी माँ से इजाजत माँगती है।" कुछ जरुरी काम आ गया है आपके जमाई को,मुझे जाना पड़ेगा। "
"अरे !..कल ही तो आई है और कल ही जाना है। ऐसा भी क्या आना-जाना। "
"अब बियाह दी गई बेटी पर जोर थोड़े न है। जमाई बाबू का काम है रोकना भी सही नहीं। आखिर वही तुम्हारा घर है। "
मंजरी अपना सामान समेटने के लिए मुड़ पड़ी।" मम्मा हमलोग जा रहे हैं..?"
हाँ बच्चों!..अपने घर जाएँगे हमलोग।
वापसी के लिए जीप पर पैर रखते हुए उसने एक लंबी साँस ली थी।
"फिर कब आओगी बिटिया..??"
"समय मिला तो आऊँगी। इस बार जाते-जाते वह सामने ही देखती रही।"
- सपना चन्द्रा
भागलपुर - बिहार
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उस दिन अनुज का आठवीं कक्षा का परीक्षाफल आने वाला था। उस समय आठवीं कक्षा की भी बोर्ड परीक्षाएं होती थीं और परीक्षा परिणाम भी दसवीं-बारहवीं की तरह समाचार-पत्र में आता था।
सुबह से जारी प्रतीक्षा दोपहर में जाकर समाप्त हुई। उसके बड़े भैय्या अखबार खरीदकर ले आये।
अनुज ने अपना रोल नंबर (अनुक्रमांक) पहले तो तृतीय श्रेणी में देखा, उस स्थान पर नहीं मिला तो द्वितीय श्रेणी में ढूंढा। परन्तु वहाँ पर भी जब नहीं मिला तो उसकी आँखों में आँसू आ गये।
उसके भाई ने कहा कि, "प्रथम श्रेणी में भी देख लेते हैं"।
परन्तु अनुज ने कहा "मेरी प्रथम श्रेणी तो आ ही नहीं सकती।"
इसके बावजूद भाई ने देखा तो उसका अनुक्रमांक प्रथम श्रेणी में दिखाई दिया।
हर्ष के आवेश में अनुज ने कहा कि...."प्रथम श्रेणी की तो मुझे आशा ही नहीं थी।"
तब उसके भाई ने कहा कि....." स्वयं को कभी भी कम मत आंको।"
उन्होंने कहा....."अनुज! तुम्हारी जीवन यात्रा अभी प्रारम्भ हो रही है। इस यात्रा में तुमने विभिन्न रंग देखने हैं। उतार-चढ़ाव, सफलता-असफलता और सकारात्मकता-नकारात्मकता के विभिन्न रंगों से तुम्हारा सामना होगा। तुमने न तो इन रंगों की चकाचौंध में खोना है और न ही धुंधले रंगों के प्रभाव में आकर यात्रा में अपने कदमों को रुकने देना है।
साथ ही यह भी ध्यान रखना कि...."चलना भले ही, नीचे से शुरु करो परन्तु दृष्टि सदैव ऊंचाई पर रखो।"
यह घटना और भाई की सलाह अनुज की जीवन यात्रा में एक सबक बनकर सदैव मार्गदर्शक का कार्य करती रही।
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखंड
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"भाई साहब, आपका चार्जर फ्री दिख रहा है, क्या मैं मोबाइल चार्जिंग के लिए ले सकता हूँ। "
राजेश ने ट्रेन के सपर में सहयात्री से निवेदन किया। उसे अपने सामान में चार्जर नहीं मिला था।
सहयात्री खडूस सा व्यक्ति था।उसने कहा "अरे क्या भाई साहब, मोबाइल रखते हो पर पर चार्जर दूसरों से मांगते हो?मोबाइल आपका ही है न।"
कटू वाक्य सुनकर राजेश को अपना अपमान महसूस हुआ।राजेश"आप मेरी सहायता नहीं करना चाहते तो कोई बात नहीं। परंतु आप मेरे मोबाइल पर संदेह कैसे कर सकते हैं?मैंने आपकी कोई प्रॉपर्टी तो नहीं मांग ली है।"
विवाद बढ़ता देख सहयात्री, जो महिला थी,ने कहा"आप लोग छोटी सी बात पर ,वाद_विवाद कर रहे हैं। ट्रेन के सफर में ऐसा करना आपको शोभा देता है?आपको चार्जर चाहिए न,मेरा ले लीजिए और प्लीज शांति बनाए रखिए। ट्रेन में दूसरे सहयात्री का भी हमें ख्याल रखना चाहिए। "
इसके बाद भी खडूस व्यक्ति नहीं रूका और बड़बड़ाता रहा"एसी में जाने कैसे लोग आ जाते हैं, महंगा मोबाइल तो रखेंगे पर चार्जर दूसरों से मांगेंगे। "
- डाॅ. मधुकर राव लारोकर
नाशिक - महाराष्ट्र
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गोविंद जी के मन में हर्ष मिश्रित भाव आ और जा रहे थे।रास्ते में ही ट्रेन में थे तभी मनोज बेटे ने बताया।वे बेटी के ससुराल से अपने नवजात नाती को देख कर लौट रहे थे।दुलारी सुनेगी तो उछल पड़ेगी।सीधे अपने नाती के पैर को ही शुभ घोषित कर देगी।
“अरे ,दुलारी तेरी मन की मुराद पूरी हो गई आज रजिस्ट्रेशन हो गया,चल अब तैयारी शुरू कर दे…बाबा का बुलावा आ गया…अब तेरा जीवन सफल हो जाएगा।सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होगी…यही कहती थी ना तू!
पाँच साल से सुन- सुन कर मेरे कान पक गए थे।जब देखो तब उलाहना देती फिरती थी।
मनोज का फ़ोन आया था,कह रहा था डॉक्टर से दिखा कर सेहत की जाँच करा कर ही जाना है।ये देख क्या -क्या ले जाना है सबका लिस्ट भेजा है मनोज ने…बहुत कठिन यात्रा है,बाबा बर्फ़ानी अमरनाथ देव की…इतना आसान नहीं जितना तू समझती है…समझीं ना!
“बहू ,मनोज की माँ कहाँ है?”दिखाई नहीं दे रही।गोविंद जी ने पूछा।
“जी,पापा जी सुबह से कह रही थी तबियत ठीक नहीं लग रही…नाश्ता किया और आराम करने चली गई।”
कमरे में जाकर गोविंद जी ने आवाज़ लगाई क्या हुआ तबियत को सुना कि नहीं ख़ुशख़बरी?
प्रत्युत्तर नहीं आया दुलारी जी का क्योंकि वो तो अंतिम यात्रा में निकल चुकी थी।
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
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ख्वाहिशों को पूरा होने में वर्षों लग जाते हैं। जीवन की आपाधापी एवं पारिवारिक परिस्थितियों के मध्य इच्छाएं दबती चली जाती है।
बहुत मुश्किल से रमेश बाबू अपनी और अपनी सहधर्मिणी की इच्छा पूरी करने निकले थे। किसी तरह पैसों का इंतजाम कर खुशी-खुशी अमरनाथ यात्रा के लिए निकले थे।
आज उनकी सालों की तमन्ना पूरी हुई थी। भगवान का आभार जताते नहीं थक रहे थे। घर वापस लौट प्रसाद बाटूंगा। सबको अपनी सुखद यात्रा की अनुभूतियां सुनाऊंगा --तरह- तरह के ख्वाब मन में संजोए दर्शन कर लौट रहे थे-- तभी अचानक हाहाकार सुनाई दी।
बादल फटने की आशंका---- पहाड़ से तेज पानी की धारा तंबू की ओर आते देखे।
देखते ही देखते पल भर में ही आंखों के सामने पानी की तेज धारा तंबू के साथ-साथ पत्नी संगी साथी सब को बहा ले गया।
रमेश बाबू भारी पत्थर के बीच में फंस कर किस प्रकार बच गए वे खुद नहीं समझ पा रहे थे पर खुशी मातम में बदल चुकी थी।
सहधर्मिणी और संगी-साथी अंतिम यात्रा पर चले गए थे। यात्रा के इस दहशत भरे रंग से उबर पाना शायद ही संभव हो पाये।
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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“आज के अखबार में भी था, कि कल किसी धार्मिक स्थल पर जाते हुए एक कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई, और चार लोग मारे गए।” एक ने कहा।
“आजकल तो हर दूसरे-तीसरे दिन इस तरह की खबरें पढ़ने-सुनने को मिल जाती हैं। पता नहीं क्या हो रहा है यह सब कुछ। पिछले कुछ वर्षों से तो बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों पर भी बड़े-बड़े हादसे होने शुरू हो गए हैं, जिनमें सैकड़ों-हजारों की संख्या में भी लोग मर जाते हैं।” दूसरे ने कहा।
“सही कह रहे हो। भगवान के नाम से ही भरोसा उठने लगा है अब तो। कलयुग है, भगवान भी भक्तों को अपने पास बुला रहा है।” एक और आवाज आई।
“कभी तुमने सोचने की कोशिश भी की है, कि ऐसा हो क्यों रहा है?” एक चौथी आवाज गूंजी।
“क्या पता? तुम बताओ?” सभी ने एक साथ कहा।
“धार्मिक स्थलों पर पहुंचना पहले इतना सुगम नहीं था। बहुत कष्ट सहन करके लोग जाते थे, इसलिए बहुत कम लोग जाते थे। उस समय भी लोग मरते थे, पर किन्हीं और कारणों से, हादसों से नहीं। पर अब लोगों को ऐसी जगहों पर सब तरह की सुख-सुविधाएं और ऐशो-आराम मिल रहा है, तो भीड़ की भीड़ वहां जा रही है। अब इतनी भीड़ और इतना तामझाम होगा, तो दुर्घटनाएं तो होंगीं ही ना। भगवान जी भी बेचारे क्या करें? पहले लोग कहते थे- ‘दर्शन करने जा रहे हैं।’ उसे सबका ध्यान रखना पड़ता था, उसकी जिम्मेदारी जो बनती थी। पर अब ऊपर वाला भी क्या करे, और क्यों करें, किस-किस का ख्याल रखे। जिसे देखो वही उठ कर चल देता है। और क्या कहता है पता है- ‘घूमने जा रहे हैं’...।”
- विजय कुमार
अम्बाला छावनी - हरियाणा
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घना कोहरा छाया हुआ था । सामने से आती गाड़ियाँ-वाहन , अपनी हेड लाइट जला, चल रहे थे । ऐसा न करने पर भिड़ने का पूरा खतरा जो था ।
अखिलेश अपने पुत्र उज्जवल को एयरपोर्ट में ड्रॉप करके वापस आ रहे थे। उज्जवल गल्फ जा रहा था ।
जाहिर है बिना कमाए ..हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने पर तो कुबेर का खजाना भी पूर .. नहीं आता ; खाली हो जाता है । तिस पर इतनी ऊंची -तालीम हासिल करने का भी अपना अलग स्वाभिमान और आत्मविश्वास है बेटे के पास ।
और अपने उस आत्मविश्वास और स्वाभिमान को वह 'मुद्रा ' में बदलने के लिए गल्फ चला गया है। लोग लंबी -लंबी यात्राएं करते हैं उनके घर- परिवार ,घर में ही महफूज रहते हैं । पहले के नाविक जैसे लोगों की तो ..दो.. दो.. तीन ...तीन साल तक वापसी नहीं होती थी ।तो क्या उनका परिवार टूट जाता था। हरगिज़ नहीं ...! बस इन्हीं उद्धरणों के सहारे....।
मन ही मन सोच रहे थे उज्जवल अपने उज्जवल भविष्य की ऊंचाइयों को छुए वाह जहाज में बैठकर अपने जीवन की नई उड़ान के लिए अकेले ही उसे छोड़ दिया आशीर्वाद के सहारे.....।
यह भी जीवन की यात्रा का अद्भुत रंग है, और वह जोर से मुस्कुराते हैं अपने घर का दरवाजा खोलते हैं।
- उमा मिश्रा प्रीति
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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रेलगाड़ी की बोगी में अपनी जगह बैठकर उसके चलने का
मैं बेसब्री से इंतजार करने लगी । चलती रेलगाड़ी से अंधेरे में जुगनुओं को चमकते देखना और रेल में बैठकर अचार, आलू की भाजी और पुड़ियां खाने का स्वाद ही अलग होता है । मैं सोच रही थी यात्रा शुरू हो और चटकारे लूं अचार का । पर होनी को कुछ और मंजूर था ।
दो नेता नुमा महोदय जी सफेद कलफदार कुर्ते पजामे में मेरे कूपे के अंदर चले आए । दोनों में से एक महोदय शराब के नशे में धुत था । पहला महोदय अपने शराबी बन्धु को मेरे सामने वाली सीट पर सुला कर उसके पाॅकेट में रेल गाड़ी की टिकट डाल कर चलता बना । लेटे-लेटे नींद में शराबी महोदय अपने हाथ-पैर फेंक कर लगातार चिल्लाते रहा । अचानक झटके से उठ कर बैठ गया । वापस लेट गया । उसकी उठ - बैठ बहुत डरावनी थी ।
मेरी हालत पतली हुई जा रही थी । रात नींद में मेरे साथ कोई गलत हरकत , गलत बात - व्यवहार की कल्पना ही दहशत दे रही थी । इतने में कूपे के एक ओर से मुझे मेरे नाम से पुकारते हुए और कुशलक्षेम पूछते हुए एक सज्जन मेरे बगल में आकर बैठ गया । फिर वो मेरे भाई का नाम लेकर उसका हाल - चाल पूछने लगा । मैं तो अवाक रह गई उसके मुंह से अपने भाई का नाम सुन कर । मेरे मन में बिचार आया कि इसने प्लेटफॉर्म पर मुझे मेरे भाई से बातें करते हुए देखा है और इसे मेरा नाम पता चल गया है । अब ये मेरे लिए कुछ नई मुसीबत लाने वाला है । फिर वो मेरी बुआ और दादी के बारे में बातें करने लगा । तब जाकर मैं आश्वस्त हुई कि वो जाना पहचाना आदमी है । उसका परिचय पाकर मेरे मन में शांति हुई । उसने मुझे आश्वस्त किया कि मैं नहीं घबराइऊं । शराबी ने अगर कुछ गड़बड़ की तो वो संभाल लेगा ।
इतने डरावने समय पर किसी का साथ पाकर मैंने भगवान और उसे दोनों को धन्यवाद दिया । उस डरावनी रात में उस सहयात्री भाई के साथ मैंने भोजन किया । उस चटकदार भोजन और उसके स्वाद के क्या कहने । वो स्वाद जीभ अभी भी इस वक्त भी ले रही है ।
' यमी , वाऊ ।'
मीरा जगनानी
अहमदाबाद - गुजरात
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दो आदमी रेल में सफर कर रहे थे। दोनों अकेले थे और आमने-सामने बैठे थे।
उनमें से एक आदमी दूसरे से दार्शनिक अंदाज़ में बोला, "ये रेल की पटरियां भी क्या चीज़ हैं! साथ रहते हुए कभी मिलती नहीं।"
यह सुनते ही दूसरे आदमी के चेहरे पर दुःख आ गया और उसने दर्द भरे स्वर में उत्तर दिया, "कुछ उसी तरह जैसे दो भाई एक घर में रह कर भी हिलमिल कर नहीं रह सकते।"
पहले आदमी के चेहरे पर भी भाव बदल गए। उसने भी सहमति में सिर हिला कर प्रत्युत्तर दिया, "काश! दोनों मिल जाते तो ट्रेन जैसी ज़िन्दगी का बोझ अकेले-अकेले नहीं सहना पड़ता।"
दूसरे आदमी ने भी उसके स्वर में स्वर मिलाया और कहा, "सभी जगह यही हो रहा है। घर से लेकर समाज तक और समाज से लेकर दुनिया तक। हर काम लोग अपने-अपने स्वार्थ के लिए ही करते हैं।"
पहला आदमी मुस्कुरा कर बोला, "यही तो गलत हो रहा है भाई।"
और उनकी बात यूं ही अनवरत चलती रही, तब तक, जब तक कि उनका गंतव्य न आ गया। फिर वे दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए, एक-दूसरे के नाम तक भूलते हुए।
- चन्द्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर - राजस्थान
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नैना ट्रेन की खिड़की से बाहर को निरंतर अपलक तकते हुए सबको अलविदा कहती जा रही थी। उड़ते पंछी ,बहते मेघ,वृक्ष ,फल ,बगीचे ,नदी सब तो पीछे छूटते जा रहें थें। अतीत के भँवर में उलझते जा रहें थें। कहाँ कोई नैना को विचलित कर पा रहा था। वह तो अडिग थी ।नैना के नैन में नींद कहाँ थी। वह तो शून्य में थी ।ना उसे कुछ सुनाई पड़ रहा था, ना कुछ अनुभव ही हो रहा था ।
दो बार चाय वाले ने ट्रेन में आकर उसकी तंद्रा भंग करने का प्रयास भी किया ,किंतु असफल, पानी वाले ने पानी बेचना चाहा ,वह भी असफल। नैना अपने बैग पर हाथ के सहारे सिर टिकाए बाहर ही देख रही थी ।अब टी.टी. ने उसे हिला ही दिया ।नैना ने टिकट दिखा दिया ।नैना पुनः यादों में डूब गयी।
दीपक ने नैना को बहुत रोकना चाहा ,उसने माँ बाबूजी के साथ रह उनकी सेवा करने को कहा ,साथ ही समझाया कि वह समय-समय पर विदेश से रुपया भेजता रहेगा ।उसे कोई कमी ना होने देगा ।किंतु वह माँ बाबूजी के साथ रहे ।इस पर नैना ने प्रतिक्रिया में दीपक से इतना ही कहा कि अभी तक मैं यहाँ तुम्हारे माँ बाबूजी के साथ थी यह सोच कर कि वह मेरे भी माँ बाबूजी हैं ।अब जब तुम ही मेरे नहीं हो , तुम्हारी वह दूसरी पत्नी तुम्हारे साथ है ,तो मेरा स्वाभिमान मुझे यहाँ भी रहने की इज़ाजत नहीं देता तुम्हारे बिना ।
नैना ने अगले ही क्षण अपने आगे की पढ़ाई का फॉर्म भर दिया और निर्धारित समय पर सब को अलविदा कह ट्रेन पर चढ़ गई ।
तभी दोबारा टी.टी .नैना के पास आया और कहा ,"बेटा! ट्रेन आगे नहीं जाएगी ,यह यही रुकेगी ,चाहे तो दूसरी ट्रेन पकड़ो आगे के लिए या फिर वापसी की टिकट कटवा लो।"नैना ने मुस्कुराते हुए कहा ,"सर! यहीं से मेरे जीवन का टर्निंग प्वाइंट है, मैं आगे बढ़ रही हूँ। जीवन को नयी दिशा देने जा रही हूँ।" और हँसती हुई नैना ट्रेन से उतर गई।
- वर्तिका अग्रवाल
वाराणसी - उत्तर प्रदेश
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नूतन का घर,माहोल सजा हुआ था। रोनक की रौनक थी। सब ओर उजाला ही उजाला था।मेहंदी की रस्म चल रही थी ।सभी सहेलियों ने जीद की , हम ही अपनी सहेली नूतन के हाथों पर मेहंदी रचाएंगे । मेहंदी लगाने की तैयारी हो रही थी ।मेहंदी लगाने के बाद कुछ भी नहीं कर पाएंगे इसलिए नूतन सब काम निपटा कर ही मेहंदी लगाने आई थी। और सहेलियों के सामने बैठ गई ।
इतने में किसी ने उसे आवाज दी ,"अरे नूतन तुम्हें मिलने कोई आया है।"
नूतन हॉल में आ गई ।देखा तो कोई अजनबी था । नूतन ने आवभगत की और पूछताछ करने पर , उस अजनबी ने कहा ,"मैं लड़के वालों का रिश्तेदार हूं, लेकिन आपका भला चाहता हूं ।आपका जीवन बर्बाद हो यह नहीं चाहता। लडके पर बहुत सारा कर्ज है, कर्ज चुकाने में जीवन कटेगा,भला इसमें है की,आप शादी के लिए मना कर दो"
नूतन दो मिनट खामोश हो गयी। फिर उसने कहा,"मैं आपकी शुक्रगुजार हूं, आपने मुझे यह बात बताई।"
अजनबी के चेहरे पर खुशी दिखाई दे रही थी,वह देखकर उसने आगे कहा, " आपने यह बात बताकर मुझपर बहुत बड़ा एहसान किया है, शादी तो आधी हिस्सेदारी होती है। जायदाद में हिस्सा मुझे मिलेगा ,उसीतरह उनके कर्ज की अब मुझे हिस्सेदारी मिली है,मै भी नौकरी करती हूं,उनका कर्ज चुकाने में मदद करुंगी,और आपने पहले ही बताया है,अब खर्चै भी सोच-समझकर करूंगी।"
अजनबी के चेहरे का रंग उडा था।और मेहंदी से हाथ रंगवाने नूतन अंदर चली गई।
- सुवर्णा जाधव
पुणे - महाराष्ट्र
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मीनू को शादी के पांच छह महीने में ही समझ आ गया कि सुधीर स्वयं कोई काम नहीं करता बस माँ बाप के पैसे से ही डींगे मारता है | शादी और प्यार का खुमार कम होते ही वास्विकता सामने आने लगी | मीनू जब भी कोई बात कहना चाहती या भविष्य को लेकर कोई सवाल खड़ा करती तो सुधीर इतनी जोर से बोलता या गाली देकर उसे चुप करवा देता | धीरे धीरे माँ बाप ने भी पैसे देने बंद कर दिए | मीनू ने फैसला किया कि वह खुद काम करेगी और घर का खर्चा चला लेगी | मीनू घर का काम भी करती अपने कमाए हुए पैसे पति को देती घर चलाने के लिए फिर भी उसको शक की नजर से देखा जाने लगा | आए दिन घर में पैसों को लेकर , किसी से बात करने को लेकर या फिर काम को झगड़े होने लगे | अब सुधीर कभी कभार पीकर हाथ भी उठाने लगा | ऐसे ही दो साल बीत गए मीनू ने हर कोशिश की कि घर बसा रहे लेकिन उसकी कोशिशे नाकाम ही रही | एक दिन तंग आकर उसने फैसला किया कि जब खुद ही कमाकर खाना है तो पति की धौंस किसलिए , ये जलालत भरी जिंदगी भी किसलिए | आगे की अपनी जिंदगी का सफर अब वो अकेले ही तय करेगी | यह सब सोचकर वो चल पड़ी एक अनजान डगर पर , अनजानी मंजिल की ओर |
- नीलम नारंग
मोहाली - पंजाब
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ट्रेन के उस डिब्बे का माहौल काफ़ी तनावपूर्ण था। धर्म और मजहब पर तीखी बहस चल रही थी। एक युवक यह सब देख कर मुस्कुरा रहा था। बहस में शामिल एक सरदारजी को बड़ा बुरा लगा, "ओ भाई जी। कुछ बोलोगे भी या यूं ही हम पर हँसते रहोगे?"
युवक ने मुस्कुराते हुए ही उत्तर दिया, "माफ़ कीजियेगा, मैं आप लोगों पर बिल्कुल नहीं हँसा। बल्कि मेरा कहना तो यह है कि सभी धर्म अच्छे हैं। कल ही मुझे इस बात का अनुभव हुआ।"
सभी लोग कौतुहल से युवक को देखने लगे।
युवक ने बोलना जारी रखा, "अब देखिये न। मैं कल ही जयपुर आया, अध्यापक भर्ती परीक्षा के लिये। वहाँ पहुँच कर देखा कि सभी धर्मों व जातियों ने अपने-अपने समाज के अभ्यर्थियों के लिये रहने-खाने की व्यवस्था कर रखी है। पहले तो मैं अचकचाया, फिर घूम-घूम के देखा कि कहाँ क्या व्यवस्था बढ़िया है। बस, फिर क्या था। गुलशन कुमार बन के एक स्थान पर सुबह की चाय। गुलशन अहमद बन कर दूसरे स्थल पर भोजन। शाम की चाय तीसरे स्थल पर गुलशनजी भाई पारसी बन कर और रात को मज़े से गिरिजाघर के ए. सी. हॉल में सोया गुलशन थॉमस बन कर। मुझे तो सभी धर्म और जातियाँ अच्छी लगीं।"
डिब्बे में बैठे सभी लोग हो-हो कर के हँसने लगे।
सरदार जी ने अपने सामान में से रसगुल्ले का दोना निकाल लिया था। दो रसगुल्ले उदरस्थ करते हुए बोले, "ओए तो भाऊ, अब तो दस दे कि तेरा असली नाम ते मजहब की है?"
युवक हँसते हुए बोला, "अरे वीर जी, आपने भी वही बात पूछी, जिसका जवाब कल दिन भर दिया। अरे भाई जी, मैं अमृतसर दा मोना सिक्ख, नाम गुलशन सिंह!" और एक रसगुल्ला सरदारजी के दोने से उठा कर गप्प से मुँह में रख लिया।
- राजेन्द्र पुरोहित
उदयपुर - राजस्थान
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बूढ़ी सुखिया को कई दिन से बुखार चढ़ रहा था। कहने को तो बेटा बहू साथ रहते थे किंतु हकीकत में वे उससे कोई मतलब नहीं रखते थे। बहू आए दिन नमक मिर्ची लगा कर झूठी बातें अपने पति को बताती और वह सच मान जाता। सुखिया बेचारी क्या करती उससे तो वह बात ही नहीं करता था। लड़के को बाहर जाते देख उसने आवाज लगाकर कहा," कि मुझे बुखार की दवा ला देना। 8 दिन से ज्वर उतर ही नहीं रहा है।"
दूसरी तरफ से बहू चिल्लाई, "इन्हें कुछ नहीं हुआ बैठे बैठे कुछ न कुछ कहती रहती हैं। काम धाम तो है नहीं, जाओ जी आप तो काम पर जाओ"। यह सुनते ही लड़का चुपचाप चला गया। सुखिया टकटकी लगाए उसे देखती रह गई। दीवाल के पार खड़ी पड़ोसन यह देख धीरे से बोल उठी," जीवन यात्रा के यही रंग देखने बाकी रह गए थे सुखिया।"
- गायत्री ठाकुर सक्षम
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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बात उन दिनों की है जब हमें कुछ विद्यालय संबंधी कार्यों से कानपुर से लखनऊ जाना पड़ता था। जाड़े के दिन थे। अच्छी सर्दी पड़ रही थी। सूर्य देवता तो कोहरे की चादर फैलाकर विश्राम अवस्था में थे।
मेरे साथ मेरी एक सहयोगी शिक्षिका भी थी। लखनऊ स्थित सचिवालय में दिनभर हम लोगों ने कार्य निपटाए। काफी वक्त हो गया था ।शाम से ही अंधेरा छाने लगा था ।कोहरे की वजह से शाम डरावनी प्रतीत हो रही थी। हमें वापस आना था। चारबाग बस स्टैंड पर किसी तरह पहुंच जैसे तैसे बस पकड़ी। बस समय से चल दी ,अभी आधे रास्ते पहुँची होगी उस में कुछ खराबी आ गई ।रात का वक़्त था करते भी तो क्या ? सन्नाटे वाली जगह थी ,कोई और साधन भी नहीं था । घंटे भर की मशक्कत के बाद बस चली।
रात का ग्यारह बज रहा था। कानपुर का झकरकटी बस स्टैंड दिखने लगा ।जल्दी ही बस ने स्टैंड पर सभी को उतार दिया। हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े स्कूटर स्टैंड की ओर बढ़ गए वहाँ मेरी स्कूटी खड़ी थी । स्कूटी पर बैठकर हम लोग चल दिए अपने घर की ओर। बस स्टैंड से हम लोगों का घर करीबन 15 किलोमीटर दूर था। हम दोनों निकट ही रहते थे। जीटी रोड पर तो अन्य गाड़ियों के सहारे हमारी स्कूटी भी रेंग रही थी। दृश्यता शून्य थी। मन कांप रहा था ,पता ही नहीं था किधर जा रहे हैं ?बस अनुमान से बढ़ रहे थे।
किसी तरह चुन्नीगंज फिर कंपनी बाग आगे चिड़िया घर होते हुए मैनावती पहुँचे वहां सहयोगी शिक्षिका का निवास था। अभी हमें लगभग तीन किलोमीटर से ज्यादा आगे अपने घर तक जाना था ।उसके साथ तो बातें करते ,अपनी संघर्ष गाथा दोहराते रास्ता कट गया था। अब हम अकेले थे, सड़क सुनसान भयावह दृश्य उत्पन्न कर रही थी। चारों कोहरा ही कोहरा, कुछ दिख नहीं रहा था ,बस बढ़ रहे थे ।चूँकि रात गहरी थी मन सहम रहा था, बस लगन थी कैसे तो घर मिले। भगवान का नाम लेते लेते आगे बढ़ रहे थे रास्ता भी भटक गए फिर जब समझ में आया सही रास्ता पकड़ा। बीच में जीटी रोड पर रात में चलते स्पीड से ट्रक सब पार करके अब हम अपनी सोसाइटी में प्रवेश कर चुके थे। रात का 12:00 बज रहा था। घर के करीब पहुँचे तो घर वाले सब द्वार पर परेशान प्रतीक्षा करते दिखाई दिए ।साँस में साँस आई ,मन को तसल्ली हुई ।अपने पर विश्वास नहीं हो रहा था कि हम सही सलामत घर पहुंच गए हैं। कभी भूलती नहीं है वो रात।
मन ही मन सोच रहे थे काश ऐसा होता कि हम लोग इतने खराब मौसम में गए ना होते ।
- सीमा वर्णिका
कानपुर - उत्तर प्रदेश
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हर बढ़ी में जैसे-तैसे स्टेशन पर वीरेन्द्र पहुँचा बस ट्रेन धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ने वाली थी, जल्दी से ट्रेन के अंदर पहुँचा और अपनी आरक्षित सीट पर पहुँचा देख कर चौक सा गया, पूर्व से ही कोई लड़की बैठी थी, जिसे प्रतीक्षा थी आरक्षित सीट, वीरेन्द्र ने अपनी सीट के बारे में बताया और वही बैठ गया। दिन का समय था, लम्बा सफ़र था, दोनों बातों में उलझ गये काफी देर बाद टी.सी. आया, यह भी एक संयोग ही था, सामने एक यात्री उतरा और उसके ही जगह उसे सीट आरक्षित गयी। दूसरे दिन दोनों अपने-अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हो गये कुछ दिनों के बाद अचानक वीरेन्द्र के विवाह की बात चली और लड़की देखने गये उसे मालूम ही नहीं था, जिस लड़की के साथ लम्बा ट्रेन में सफर किया था और अब जीवन संगिनी बनने जा रही हैं और वैवाहिक जीवन में बंध गये, जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच जीवन जीने लगें, उन्हें संतान सुख नहीं था, इसलिए जीवन के अंतिम प्रवाह पर वे इधर से उधर अपना देव स्थलों पर ही समय बिताने थे, इसी सिलसिले में एक दिन ट्रेन में सफर कर रहे अचानक ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त में जीवन की यात्रा ही समाप्त हो गयी। सफर से सफर में अंत?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
बालाघाट - मध्यप्रदेश
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बद्रीनाथ की यात्रा का मंजर अभी सुमन की आंखों से ओझल भी नहीं हो सका था ,बेटे गौरव ने अमरनाथ यात्रा करने की जिद्द पकड़ ली ,
सभी ने खुशी खुशी सारी तैयारियां पूरी कर ली। और अमर नाथ बाबा की जय ,भोले बाबा की जय कहते हुए बच्चे ,बहु ,गौरव , मां सुमन का हाथ पकड़कर बस में सवार हो गए।
पूरी बस में श्रद्धालु हंसते हंसाते ,भजन सुनाते हुए एक ही परिवार के सदस्यों जैसे अमरनाथ की गुफा के दर्शन के लिए सकुशल पहुंच गए,
गौरव की मां शांत मन से आस पास का भक्ति भाव से भर पूर माहोल में भी विचलित हो रही थी।
सुबह बाबा के दर्शन के लिए रवाना होना है मां! अब आराम कर लो इतना कहकर गौरव भी सो गया।
पर मां की आंखों नींद दूर दूर तक नहीं -
सुमन अपने आप को कोसने लगी कि गौरव के पापा को बद्रीनाथ की यात्रा पर जबरदस्ती साथ ले गई थी और वे आज तक घर वापस भी नहीं आए।
बद्री नाथ यात्रा जाते समय बस में अपने भजन सुनाके सब का दिल मोह लिया था ,
बापसी में सब चुप और कितने दुखी थे।
पर उनके बिना मेरी यात्रा तो बेरंग हो गई।सुमन को लगा जैसे फिर से कलेजा फट गया।
तभी चारो ओर से भागो भाई भागो बचाओ - बचाओ की आवाज आई, गौरव ने मां को जोर जोर से हिलाया ..…
मां उठो , बादल ...फट ....गया , टेंट के ...अंदर.. पानी भर ...गया ...उठो ..हम ...नहीं ..तो ..बह ..जायेंगे। जाओ बेटे ।
पर .. मां ..
तो ..तेरे.. पापा... को ...लेने
कहकर गौरव का हाथ छोड़ देती है।
- रंजना हरित
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
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तुम कभी नहीं बदलोगी, आखिर ग्रामीण महिला जो हो, सुमित ने बैग पैक करते हुए गुस्से से कहा ।
आए दिन इस तरह के अनेकों ताने सुनना ,सुमन के जीवन का हिस्सा बन चुके थे ।जब भी कहीं जाने की बात होती सुमित इसी तरह जलील करता ।
बिल्कुल सही कह रहे हो, ये साजो सामान, तुम्हारे और बच्चों के ऐशोआराम मेरे ही बदौलत हैं । महिला संयोजन समिति की बहनों को जोड़कर सारे कार्य मैं करवाती हूँ, तुम तो बाजार में उन्हें ऊँचे दामों पर बेच आते हो और सबको उनकी मेहनत का थोड़ा सा ही भाग मिलता है ।
सारा दिन गली - गली , शहर- शहर मैं घूमता हूँ और जब भी सही बात कहने की कोशिश करो तो तुम्हारे नखरे नहीं मिलते ।
अगर हम ग्रामीण न हों तो तुम्हारा ये झूठे शहरीकरण का नक़ाब जल्दी ही उतर जाएगा । बेरोजगारी भत्ता लेने के लिए लाइन में खड़े नजर आओगे सुमन ने आँखे तरेरते हुए कहा ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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पढ़ाई पूरी खत्म कर नौकरी पर चढ़े हेमंत को कुछ महीने ही हुए और पिता शरदजी ब्रेन हैमरेज होने से लकवाग्रस्त हो बिस्तर पर पड़ गए। सारी जमा पूंजी खर्च हो गई। किसी परिवार वालों नें मदद नहीं की ।सुमी को जेठानी का थोड़ा संबल व मदद जरूर थी।
बाकी रिश्तेदारों नें बुराई , बदनामी और अफवाहों से पूरी मदद की ,बेटे के बिगड़ने से पिता की यह हालत हो गई ।
सारे इकट्ठे आते और सुमी के सामने ऐसी बातें कर बहुत आहत करते ।वह तिहरी मार झेल रही थी ,पति की तिमारदारी , पैसों की किल्लत और अब बदनामी होने पर बेटे की शादी कर उसका घर कैसे बसाएगी ।
अफवाहें ही तो थी सच्चाई भी नहीं । मां ने उन लोगों को कुछ भी कहने से मना करते हुए पिता की तबीयत का हवाला देकर कहा ,बेटा यदि तूने कुछ कहा , तेरे पिता को कुछ हो गया और ये लोग कोई नहीं आएगा तब हम सारे संस्कार अकेले कैसे करेंगे ।वक्त गुजरता गया ।कोविड का समय भी आया ।
हेमंत देश में लोगों के हालात को देख काफी संभल गया।
एक दिन जब सभी इकट्ठे घर आए और सुमी को ताने दे रहे थे और हेमंत की बुराई, सुमी डरी सहमी रोए जा रही थी।उसी वक्त ऑफिस से हेमंत आया और घर के हालात देख गुस्सा में सबसे कहा ,आप सब चले जाइए फिर आने की जरूरत नहीं ,ना ही मेरी मां को रूलाने की जरूरत है ।अगर फिर कभी मैंने मेरी और मां की बुराई और बदनामी करते सुना या मालूम हुआ तो तुम सब की खैर नहीं ।
सभी मुंह बनाकर चले गए मां नें समझाना चाहा तो हेमंत ने कहा मां जीवन की इस संघर्ष यात्रा में जब सब हालातों का हम अकेले ही सामना कर रहे हैं तो इनसे क्या डरना ।रही बात मेरे विवाह की तो निधि मेरी सहकर्मी है हम दोनों सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं,
हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं,वह और उसके घरवालों सारे हालातों से वाकिफ हैं और विवाह के लिए तैयार भी है ।रही बात पिताजी को कुछ हो गया तो निधि उसका परिवार और मेरे मित्र काफी है सब संभाल लेंगे।
सुमी अपने इस संघर्ष यात्रा के नए मोड़ से कुछ राहत महसूस कर रही थी।
- डॉ.संगीता शर्मा
हैदराबाद - तेलंगाना
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"यह क्या है?" कुछ तस्वीरें कुमुद के सामने फेंकते हुए कुमुद के पति केशव ने पूछा।
"कोडईकनाल की यादें!"
"बैरे ही मिले थे, सामूहिक तस्वीरों के लिए? अपना जो स्टेटस है उसके स्टैंडर्ड का तो ख्याल करती.., हम संस्था के शताब्दी वार्षिकोत्सव मनाने के लिए हजारों किलोमीटर दूर फाइव स्टार होटल बुक करते हैं , पूरे देश से हर प्रान्त के नामचीन हस्ती और उनकी पत्नियाँ जुटी थीं। और तुम?"
"बच्चे जिस उत्साह से खाना खिला रहे थे उसमें उनका स्तर मुझे नहीं दिखा... उसके बदले में मैं उन्हें यही दे सकती थी...!"
"उन्हें उसके लिए ही पैसे मिलते हैं..,"
"इसलिए तो मैं उन्हें टिप्स में नशा छोड़ने का सलाह-सुझाव दी! बाद में एक बच्चा मेरा पैर छूने आया था जब। मेरे सामने उसने सिगरेट के टुकड़े कर फिर कभी नहीं पीने का वादा किया और हमेशा सम्पर्क में है।"
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
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घर से स्कूल तक का सफर कोई सफर होता है। रोज का आना- जाना कोई बड़ी बात नहीं ,रीमा ने अपनी सर्विस क्लास मित्र निष्ठा से कहा ।
20 वर्ष की उम्र से नौकरी कर रही हूं। इतने अनुभव हुए हैं कि एक उपन्यास ही लिख जाएगा। रीमा ने कहां उसकी कुछ झलक हमसे भी शेयर करो ना।
निष्ठा बोली --'देखते- देखते जमाना काफी बदल गया है ।अभी एक साल के अन्दर मैंने देखा कि जिस 'ई -रिक्शा' में मैं बैठी, उसी में तीन बैठी सवारी अपने गंतव्य पर उतर गईं ।मेरे सामने बैठा आदमी रोने लगा। मैंने पूछा- 'क्या बात है भैया'। वह बोला- बेटी अस्पताल में भर्ती है। बहुत परेशान हूं। हो सके, मेरी मदद करो ₹500 दे दो। मैंने सोचा सच कह रहा होगा मैंने रिक्शा का किराया छोड़कर जो 250 रू0 पर्स में पड़े थे, वह उसको दे दिए।
,'तुम्हारा घर -परिवार बसा रहे ,खुश रहो, आबाद रहो' के कथन को एक दिन मैंने स्टाफ के सामने रखा तो पता चला कि स्टाफ के कई लोगों से उसका वास्ता पड़ चुका है ,लोग कहने लगे- वह तो रोज ऐसे ही रोता है गिड़गिड़ाता है।
दो दिन बाद मैंने देखा कि उसी आदमी को चौराहे पर कुछ लोग 'साले धंधा करता है'कहते हुए पीट रहे थे ।नहीं साहब !नहीं साहब ! कहता हुआ वहअपनी गर्दन नीचे झुकाए पिटता रहा। मैंने सोचा आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी ।
- डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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जैसे ही सवारी गाड़ी स्टेशन का प्लेटफार्म आने पर धीमी हुई, प्लेटफार्म पर कई लोग दिखाई पड़े । उस दिन लगता है कि गाड़ी में चढ़ने वालों की संख्या बहुत थी। जहां तक नज़र जाती थी, चारों तरफ लोगों का हुजूम था। धीमे -धीमे गाड़ी बिल्कुल रुक गई। अंदर से बाहर उतरने वालों की भीड़ और बाहर से अंदर चढ़ने वालों की भीड़, दोनों ही तरफ लोग काफी संख्या में थे। मैं काफी दूर से यात्रा कर रहा था। इच्छा थी कि कोई बडा स्टेशन आने पर थोड़ी देर डिब्बे से बाहर उतर कर प्लेटफार्म पर घूम भी आऊंगा और प्यास लगी थी अतः पानी भी पी आऊंगा। परंतु उफ ये भीड़ ! क्या करूं , कुछ सूझ नहीं रहा था। इतने में बाहर से एक आवाज़ सुनाई पड़ी कि कृपया मेरा सामान सामने की सीट पर रख दीजिए। मैंने देखा तो बाहर एक पतला सा आदमी आंखों में अनुनय - विनय के भाव लिए मुझसे खाली होती सीट पर रूमाल रखने को कह रहा था। मुझे खूब प्यास लगी थी। मैंने कहा - भाई, मुझे प्यास लगी है , नीचे उतरना है। वह बोला - भाईसाहब, आप बैठे रहिए , मैं ले आता हूं। पर कृपया आप मेरे बैग को उस सीट पर रख, उस सीट को सुरक्षित रखिए , जब तक मैं अंदर न आ जाऊं। कितना मानवीय दृष्टिकोण परंतु कितनी मजबूरी में, मैं खड़ा - खडा सोचता ही रह गया।
- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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बहुत कोशिशों से अमृतसर जाने का कार्यक्रम बन पाया।
ट्रैफिक से निकलते-निकलते आखिर चौराहे पर लाल बत्ती पर इतनी देर रुकना पड़ा कि गाड़ियों की लम्बी लाइन लग गई।
भीख माँगने वाले गाड़ियों के शीशे खटखटा कर अपने कटोरे भरने में लगे हुए थे।
तभी कहीं से एक-दो किन्नर आए और वे भी गाड़ियों के शीशे खटखटाने लगे। पर किसी माई के लाल ने शीशा खोल कर कुछ देना तो दूर उनकी खिल्ली उड़ाते रहे।
अर्चना से रहा नहीं गया। जैसे ही उसकी गाड़ी के शीशे पर उनके हाथों की थपक पड़ी उसने तुरन्त शीशा खोल कर सौ रुपए दिए और अपने बेटे से उन्हें हाथ जोड़ कर जय भी करवाई। उन्होंने बेटे पर आशीषों की झड़ी लगा दी।
उनके चेहरों पर जो खुशी और तृप्ति अर्चना को दिखी वह पूरे अमृतसर ट्रिप में तो उसके चेहरे पर मुस्कान लाती ही रही घर लौटने पर भी उस अनुभव को वह भूल नहीं पाई।
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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वह रेलगाड़ी से वाराणसी जा रही थी, उसके साथ उसके माता-पिता भी थे, जो उसके साथ रहने आ रहे थे।वह सोच रही थी, कितना बदल गया है, यह भारतीय समाज ? अब अपने मां बाप को भी बेटे नहीं रखना चाहते।भले उनकी संपत्ति से ही अपना खर्चा चला रहे हैैं।बहू भी ऐसी आ गई है कि बात बात पर लड़ने को तैयार। एक दिन तो अपनी सास को लाठी से मार ही दिया।
यही सुन कर वह भागी-भागी आयी थी अपने घर।जिस उम्र में मां बाप की सेवा की जानी चाहिए ,उस उम्र में पिटाई।यह जान कर भी कि उसे पैतृक संपत्ति में आसानी से कुछ नहीं मिलने वाला।बीमारी में चाचा के लड़के मदद करते हैं और कोई नहीं ।
ऐसी स्थिति में अपने मां-बाप को लेकर रेलगाड़ी की छुक छुक छुक छुक आवाज के साथ आ रही है।बेटे हाल चाल भी नहीं पूछेंगे।पिता का इलाज कराना है, मां और पति का ही साथ है । ससुराल वाले जरूर व्यंग करते हैं, लेकिन क्या करे ? वह बेटी का धर्म निभा रही है।
- डॉ. विजयानन्द
प्रयागराज- उत्तर प्रदेश
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भीषण गर्मी।बस में भीड़ और लंबा जाम।यात्री पसीना पसीना हो रहे थे। छोटे बच्चे तो बहुत परेशान थे।
एक प्यासा बालक बहुत रो रहा था। मां पानी की तलाश में इधर उधर नजर दौड़ा रही थी।
उसकी बोतल का पानी समाप्त हो गया था।ऐसी स्थिति लगभग सभी यात्रियों के साथ थी।
जंगल का इलाका।दूर दूर तक पानी की कोई व्यवस्था नहीं। सब बेहाल। मां बेचारी क्या करें?
ड्राइवर ने शीशे से उस महिला और बच्चे की
स्थिति देख ली।वह अपनी सीट से उठा और
आगे खड़ी बस के ड्राइवर के पास जाकर एक गिलास पानी लाकर उस महिला को थमा दिया।
अब बालक पानी पी रहा था,उसकी मां के चेहरे से बेचैनी गायब हो गयी थी।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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सुधीर शादी के पंडाल में दूर बैठे बुजुर्ग के चेहरे को निहार रहा था।चेहरा जाना पहचाना लग रहा था लेकिन उसे याद नहीं आ रहा था।सभी यार-दोस्तों को हाय-हैलो करते समय भी उसका ध्यान उस चेहरे पर ही था।सबसे मिलकर वह बुजुर्ग से थोड़ी दूर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर दिमाग पर जोर डालने लगा।
अचानक कुर्सी से उठा और मुँह से निकला--ओ---यह तो त्रिपाठी सर हैं,हमारे स्कूल के गणित अध्यापक। लेकिन वो दहकते चेहरा,बोलती आँखें--'जो मुझे सपने में भी उत्साहित करती थीं और अब झुरियों भरा चेहरा,और शून्य में ताकती नि:स्तेज़ आँखें। अरे यार! सुधीर कहाँ खो गए? सभी खाने के लिए तेरा इंतजार कर रहे हैं।सुरेश ने सुधीर को कहा।सुरेश! वो त्रिपाठी सर है न?हां,बिल्कुल वही हैं।मैंने अपनी शादी का कार्ड खुद जाकर दिया था और आने का आग्रह भी किया था।सुधीर तुम सोच रहे होंगे, सर एक दम ऐसे कैसे हो गए। मेरे यार! इस जीवन का अगले पल का कुछ पता नहीं।सर के इकलौते होनहार बेटे की मृत्य एक कार दुर्घटना में हो गई। पत्नी बेटे के गम में ही छ:महीने बाद चल बसी।लेकिन सर ने हिम्मत नहीं हारी।घर को बेटे के नाम पर विद्या का मंदिर बना दिया। सभी जरूरतमंद विद्यार्थियों को फ्री में गणित की कोचिंग देते हैं।अपनी पैंशन से बचे पैसों को अनाथालय दे आते हैं।सर ने अपना जीवन समाज को समर्पित कर दिया है।सुरेश ने एक सांस में त्रिपाठी सर की व्यथा सुना दी।सुधीर ने कहा,सुरेश खाना बाद में खाते हैं,पहले मंदिर के देवता की चरणधूलि माथे को लगा लूँ,कहकर सुधीर त्रिपाठी सर की कुर्सी की ओर चल पड़ा।
- कैलाश ठाकुर
नंगल टाउनशिप - पंजाब
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पुरस्कार
“ बहुत-बहुत बधाई हो” कहते हुए अनिकेत ने वसुधा को विश्वविद्यालय प्रांगण में ही चूम लिया। वसुधा की भी ख़ुशी का पारावार न था।क्यों न होता वह विश्वविद्यालय में सर्वश्रेष्ठ घोषित की गई थी। उसने टॉप किया था।दो बच्चों की मॉं, परिवार की ज़िम्मेदारी के साथ ,नौकरी भी तो कर रही थी। सब कुछ पूरी निष्ठा से। पढ़ाई ही छूट जाती थी,किन्तु मन में ठान तो लिया था कि अपना शत-प्रतिशत इधर भी देना ही है।
“ बोलो क्या चाहिए तुम्हें मेरी तरफ़ से पुरस्कार ? गोल्ड मेडल तो विश्वविद्यालय वाले देंगे। मैं क्या दूँ तुम्हें। तुम ही कहो।”चलते-चलते बड़े लाड़ से अनिकेत ने पूछा
“ शाम को सोच कर बताऊँगी। अभी तो नौकरी दिख रही है!”
मासूमियत से मुस्कुराते हुए वसुधा ने कहा।
“ आज न मैं जा रहा हूँ नौकरी पर और न ही तुम।” अनिकेत ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा
“ फिर क्या करेंगे ?”
“ हम पिक्चर देखेंगे। बेटे के स्कूल से लौटने से पहले घर पहुँच जाएँगे। “
“ ठीक है। वहीं तय कर लेंगे कि मुझे कहाँ जाना है।”
“ क्या ? कहाँ जाना है?”
“ मुझे तो हवाई यात्रा करना है जहाँ भी घूमने जाएँगे।” तब तक वसुधा ने हवाई यात्रा नहीं की थी
अब मौक़ा मिला तो हवाई यात्रा मॉंग ली पुरस्कार स्वरूप
“ ठीक है। जैसी आपकी मर्ज़ी । बंदा हाज़िर है। बताइए कहाँ का टिकट कटाऊँ ?”
“ यह आप तय करिए। ऐसी जगह ले चलो जहाँ पहुँचने में चार घंटे लगें ताकि ख़ूब देर तक हवाई जहाज़ में बैठने को मिले और जगह नई हो। “
“ तो चलो यहाँ से इम्फ़ाल की यात्रा करते हैं। वही सबसे दूर है। नया भी है,अपने लिए। मंज़ूर ।”
“ मंज़ूर।” वसुधा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। आज तो ईश्वर को भी माँगती तो मिल जाता।
एक उपलब्धि अपने साथ कितनी उपलब्धियाँ ले कर आईं और नई जगह घूमने से नया ज्ञान भी मिला। ऐतिहासिक, सामाजिक ख़ासियत भी पता चली।
इम्फ़ाल में सबेरा 3 बजे ही हो जाता और शाम 3 बजे से दुकानें समेटने लगते। होटल में मछली की गंध वसुधा को भूखा वापस ले आती ,किन्तु प्राकृतिक सौंदर्य ने मन मोह लिया। बच्चे भी ख़ुश पूरा परिवार आनंदित। जीवन में प्राप्त यह पुरस्कार, हर पुरस्कार से नायाब था।
- डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘
अमेरिका
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यह जीवन है
जीवन के विभिन्न रंगों से गुजरते हुए रेखा ने कई रंगों को जिया, जिनमें मुखौटा लगाना, उतारना बहुत करीब से देखा । परायों की बात तो ठीक है परन्तु जब अपने ही अपनों के सामने मुखौटा-मुखौटा खेल, खेले तो भावनाएं कितनी आहत होती है ।
वैसे तो उसके अहसास प्रतिदिन घायल होते रहते थे मगर एक दिन जब उसे अकेले में कहा-
" मम्मी जी, मैं ही क्यों ? मैंने तो इतने वर्षों तक आपके और सभी के लिए किया है, अब तो छोटी वाली...........।"
उसकी बात पूरी भी नहीं हुई कि रेखा का बेटा आ गया । दोनों को पास बैठे देखकर बोला-
"क्या बात है ? आज तो सास बहू में .....।"
" अरे ! सुनो तो यह भी कोई बात हुई, मम्मी जी, देवर जी के यहां जाने की जिद कर रहें हैं और मैं इन्हें कह रही हूं कि, मैं आपको कहीं नहीं जाने दूंगी, आपके बिना तो मेरा मन बिलकुल नहीं लगता ।
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान
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दो अजनबी
सामान्य गति से रेलगाड़ी चली जा रही थी।
जबलपुर में एक दम्पति सामने वाले खाली बर्थ पर आ बैठा।
नीमा और उसके पति पहले से बैठे हुए थे ।
सामान्य सा परिचय मुसाफिरों के बीच आम तौर पर हो हीं जाता है।
"चाय- चाय "
"ओ चाय! वाले चाय देना"।
नीमा की आवाज पर चाय निकालता हुआ-- 'कितनी चाय दूँ?'
नीमा ने शिष्टाचार के नाते सामने बैठे जोड़े से भी पूछ लिया।
"न- न आप लें !
अभी बिल्कुल इच्छा नहीं।"
नीरा चाय पी कर एक झोले नुमा बैग जो उसने खुद टाँग रखी थी, उसी में डाल दिया।
पुस्तक पढ़ते हुए सफर बड़े आराम से कट रहा था।
दिन का खाना खा कर पुनः नीमा ने सारे पेपर प्लेट उसी थैले में डाल दिया।
सामने सीट पर बैठी रूपा बड़े आश्चर्य से सब देख रही थी।
अन्ततः रूपा लगातार देखते- देखते पूछ बैठी -- "आप ये सब उस थैले में क्यों रख रहीं हैं।"
हर सफर में एक बैग रखती हूँ, और उसी में सब जमा रखती हूँ।
एक हीं बार अंत में फेंक देती हूँ।
बार- बार उठ कर फेंकने जाना संभव नहीं होता अब।"
ओह! अच्छा आइडिया है,
"आज आप से मैंने यह सीखा।"
सच कहा गया है,
"जिन्दगी के सफर में रोज कुछ -ना- कुछ व्यक्ति सीखता हीं हैं।"
गाड़ी रूकते हीं, हम सब अपने- अपने घर को चल देंगें।
लेकिन ये सीख हमेशा याद रहेगी आप जैसे हमसफर दोस्त का,
रूपा ने हाथ मिलाते हुए कहा।
मुझे भी खुशी हुई कि चलो,
"तुम भी सफाई के इस मुहिम में शामिल हो गई।"
नीमा और रूपा खुशी से हाथ मिलाते हुए एक दूसरे से विदा ले रहीं थीं।
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
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यादें जीवंत
विवाह की २५ वी सालगिरह पर संयुक्त परिवार में रहते तरह तरह की योजनाएँ पार्टी फक्शंन की तैयरियाँ चल रही थी , मन बेचैन था !
ये सोचकर अचानक माँ चल बसी थी । पिताजी अकेले रह गये । उन्हें इस गमगिन वातावरण से कैसे निकाले और ख़ुशियाँ मनायें।
दूसरी तरफ़ छोटी बहन का विवाह हो चुका है । और बड़ी बहन अब तक कुँआरी बैठी है ! भाई को रिज़ल्ट आने पर अच्छे कालेज में दाख़िला लेना हैं ।
विभिन्न प्रकार की आर्थिक तकलीफ़ों का सामना कर श्रीमानजी को कैसे उबारा जाये,अर्धागनी होने का फ़र्ज़ अदा किया जाय ,इसी उधेड़ बुन में लगी थी ! की दादी आवाज़ें सुनाईं दी जो सासु माँ से कह रही थी ।छोटी की पहिले शादी हो गईं ,बड़की के लिये रिश्ते की बात चलाव ,“ हेजगन्नाथ हमारे जीवन यात्रा की गाड़ी को पार लगा दे ,अब देव भी सोने वाले हैं । अगला शुभ लग्न चार महीने बाद ही होगा । बहु रानी ने आगे बढ़ ,हाँ दादी आप बिलकुल सही कह रही है । माँ को परलोक गमन एक साल हो जाय । तभी पार्टी करेंगे हम अभी जा कर सभी परिजनों इस वर्ष पार्टी का प्रोग्राम स्थगित करते हैं । आप सच कह रही है बड़की की शादी लिए जगन्नाथ पुरी दर्शन करेंगे । वही से भूनेश्वर जा जिजीजी दीदी से मिल कर , दीदी के देवर से रिश्ते की बात चला आयेंगे , इतना सुन दादी और सासु माँ ने बहु रानी की बलैयाँ लेते कहा - आपकी बहु की तरह मेरी बहु भी समझदार हैं। तभी पीछे से आवाज़ आई ,आपके बेटे भी दादा जी की तरह दादी के आप पीछे पीछे चलने तैयार रहते । बहुरानी समस्या का हल मिल गया । जिसे अपने पापा मम्मी के बिना ,२५ वी सालगिरह की पार्टी मनाना दिल से मंज़ूर नही था ।
बहुरानी अपने पतिदेव के साथ अकेले जगन्नाथ के दर्शन के लियें अचानक निकल पड़े । रथयात्रा भीड़ की वजह से रुकने की व्यवस्था ना हो पाई । तो सुब पाँच बजे पट खुलते ही दर्शन के लियें २५ वी सालगिरह पर पहुँच लाइन में लग गये । तभी फ़ुल की दो बड़ी मालाये लिये दस वर्षीय बालक खड़ा कह रहा था । साब ताज़े फूल आने को है । ये दो ही मालाये बाक़ी हैं । जो मनचाहे पैसे दे दीजिए , पति देव की जेब में दो पाँच सौ के नोट बाक़ी थे । एक फ़ुल वाले को दिया ,एक दर्शन कर मन्दिर में चढ़ाया । पुजारी ने वही माला भगवान जगन्नाथ को चढ़ाया ,एक माला दोनो के गले में डाल आशीर्वाद दिया । बहु रानी को पूर्वाभास की तरह अपनी माँ काआशीर्वाद मिला । वापसी के दौरान भूनेश्वर अपनी बहना से मिल ,बड़की की रिश्ते की बातें उसके सास ससुर किया । उन्होंने सहर्ष ही स्वीकृति दे दी ,
इतनी सुखद सफल यात्रा जीवन की जिसमें साक्षात ,,बलराम श्री कृष्ण सुभद्रा ,,
के दर्शन आशीर्वाद मिला ।
- अनिता शरद झा
मुम्बई - महाराष्ट्र
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बापू की मुसीबत
पुनिया को खेलते खेलते शाम हो गयी थी । माँ का दिल घबरा रहा था । वह झट से उठी और
" पुनिया ssss , ओ पुनिया sss "
आवाज सुन कर पुनिया माँ से आ लिपटी । माँ ने उसे एक झापड़ दिया और घर मे ले आई तो चटनी के साथ दो रोटी उसके हाथ पर दी । पुनिया रोटी खाने लगी और कुछ ही देर बाद जमीन पर लम्बी हो कर लेट गयी । अचकनक पुनिया जोर जोर से चिल्लाने लगी
" बापू , सैरा घर पाणी में डूब रिया । इब कसे सोवेंगे "
" बोब्बो ,इब तो हींते लिकणा पड़ेगा ।तू मेरे काँधे ने बैठ ले "
और बापू पुनिया को कंधे पर बैठा बाढ़ के पानी मे घुस गया । पुनिया ने देखा कि लोग सिर पर चारपाई, सामान ,बच्चे ,बुजुर्ग बैठाए पानी मे पटे पड़े थे ।कुछ लोग टूटी दीवार का सहारा लिए खड़े थे । पानी बापू के सिर तक आ गया था ।पुनिया कंधे पर बैठी घबरा रही थी ।उसने झुक के बापू के सिर पर अपना सिर रख दिया ।
" झुक मत ना ।सिद्दी हो के बैठ वरना तेरी नाक में पाणी घुस जावेगा । थोड़ी देर की बात है ।इब सुक्खे में पहुँच जावेंगे "
पुनिया सीधी हो कर बापू के कंधे पर बैठ गयी और कुछ ही समय मे किनारे पर पहुँच गयी । अब बापू ने पुनिया को कंधे से उतारा और उंगली पकड़ पर चलने को कहा । पुनिया बापू की उंगली पकड़े चले जा रही थी किसी अनजान गन्तव्य की ओर कि उसके पैर धरती पर जमी पपड़ी में धंसने लगे । वह चिल्ला कर रोने लगी । बापू ने पीछे मुड़ कर देखा तो पुनिया का पैर जमीन की दरार में अटका था । बापू ने नजर उठा कर देखा तो दूर दूर तक धरती का बदन दरारों से भरा पड़ा था । वनस्पति सुखी हुई थी और पेड़ सूख कर ईंधन बने पड़े थे ।अब बापू के लिए पुनिया को बचाने की फिर चुनौती थी । अतः उसने पुनिया को फिर कंधे पर बैठाया और धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा । बापू के जूते टूट चुके थे और पपड़ी जमा दरारों से युक्त मैदान की लंबाई खत्म होने में नही आ रहा था । बापू बुरी तरह तक गया था । लेकिन चलना उसकी विवशता थी । चार घण्टे चलने के बाद अंततः बापू एक खेत की मेड़ पर चढ़ ही गया जहाँ उसे सरसों के हरे पीले खेत नजर आने लगे ।
अब बापू ने पुनिया को नीचे उतारा और अपने पीछे पीछे आने को कहा । पुनिया बापू के पीछे पीछे भाग रही थी और जोर जोर से
" ए हुर्रर्र ... ए हुर्रर्र .... ए हुर्रर्र..."
कहती जा रही थी ।।
आवाज सुन कर पुनिया की माँ दौड़ कर उसके पास आई और कंधे पकड़ हंदौड कर बोली
" क्या कह रही तू पुनिया "
माँ के हंदौडते ही पुनिया जाग उठी और माँ से बोली
" मैं खेत मे चिड़ियों को भगा रही थी । तूने हिला के मेरी डांडी भी गिरवा दी "
", बावणी तू तो इस समय घरों में सो रही है । कोई सपणा देख री थी क्या?"
" पता नी"
कह कर पुनिया ने उनींदी ही उत्तर दिया और पुनः सो गयी ।
- सुशीला जोशी, विद्योत्तमा
मुजफ्फरनगर - उत्तर प्रदेश
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बहुत बढ़िया, अनेक विषयों पर अनेक तरह की लघु कथाएं
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