सेठ गोविंद दास स्मृति सम्मान - 2025
साझा किए गए आपके विचार बहुत स्पष्ट और जागरूकता फैलाने वाले हैं। उक्त कथन में जीवन और कार्यक्षमता के मूल्य को उजागर किया गया है। इसे सटीक, सकारात्मक और ज्वलंत दृष्टिकोण से इस तरह समझा जा सकता है। पीठ पीछे जलने वाले, यानी जो दूसरों की उपलब्धियों पर ईर्ष्या करते हैं, उनकी पहचान अक्सर एक जैसी होती है, वे स्वयं कुछ ठोस नहीं कर पाते हैं। उनका अस्तित्व और योगदान समाज या कार्य में दिखाई नहीं देता। वहीं, काम और जिम्मेदारी निभाने वाले व्यक्ति का वजूद हर कदम पर अनुभव किया जाता है। यह विचार हमें प्रेरित करता है कि अपने जीवन में सक्रिय रहें, अपनी कड़े परिश्रम और नैतिकता से दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करें और नकारात्मक ऊर्जा को कभी अपनी गति और आत्मसम्मान पर हावी न होने दें। संक्षेप में, यह कथन न केवल आलोचना करता है, बल्कि सकारात्मक संदेश भी देता है कि कर्म प्रधान और उद्देश्यपूर्ण जीवन ही समाज में पहचान और सम्मान दिलाता है, जबकि नकारात्मकता और आलस्य केवल छाया बनकर रह जाते हैं। अतः ध्यान रहे कि कामचोरी से बचें। क्योंकि मृत्युलोक में हमारे आने का कोई विशेष लक्ष्य होता है जिसकी पूर्ति करना हमारा धर्म बन जाता है। उसी कर्म व धर्म से हमें मोक्ष प्राप्त होता है और हमारी आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।
- डॉ. इंदु भूषण बाली
ज्यौड़ियॉं (जम्मू) - जम्मू और कश्मीर
पीठ पीछे जलने वालों की पहचान एक ही होती है... सच है.... दूसरों की तरक्की देख नहीं पाना, मस्का लगाना, किसी के बुलंद हौसले को देख उससे जलन करना, पीठ पीछे बातें करना , चुगली करना यही सब तो उसकी पहचान है। सबसे बड़ी बात तो यह होती है कि उसकी बातों का कोई वजूद ही नहीं होता। खुद तो कुछ काम करते नहीं,यदि कोई अपने परिश्रम से अच्छा काम कर परिवार में,समाज में नाम कमाता है तो उसमें भी उनके पेट में दर्द हो जाता है। सामने तो कुछ बोलने की हिम्मत होती नहीं पीठ पीछे जलते हुए अपनी भंडास निकालते हैं। हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। हमें अपना हौसला बुलंद रखना चाहिए। वो कहते हैं ना...."कुत्ते भौंकते हैं और हाथी चलते रहता है" सभी को अपने कर्म का फल मिलता है। पीठ पीछे जलने वाला इंसान डरपोक रहता है उसमें सामने बोलने की हिम्मत नहीं होती या यूं कह सकते हैं उसमें सत्य का सामना करने की हिम्मत नहीं होती।
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
जलते वही हैं, जो संकुचित सोच के मालिक होते हैं और निकम्मे होते हैं। अन्यथा एक दूसरे की सफलताओं से खुश होने वाले लोग कभी भी नकारात्मक सोच नहीं रखते और दूसरे की सफलता पर खुश होते हैं प्रबुद्ध लोग समाज के हित बारे में सोचते हैं और समाज में कोई भी व्यक्ति यदि उन्नति करता है। चाहे वह उसके निजी जीवन से संबंधित हो या परिजनों से। बृहत सोच वाले लोग, किसी व्यक्ति ने चाहे किसी भी क्षेत्र में उन्नति की हो। ऐसे लोग खुश होते हैं। क्योंकि कोई भी व्यक्ति परिवार के साथ-साथ समाज का भी एक अटूट भाग होता है। समाज के किसी भी व्यक्ति की तरक्की समाज की तरक्की से जुड़ी होती है। समाज से ही देश बनता है तो वह तरक्की केवल व्यक्ति विशेष तक ही सीमित नहीं रहती। अपितु वह देश की भी तरक्की होती है। देश के लोग खुशहाल होंगे तो देश भी खुशहाल होगा यदि देश के लोग आपस में ही लड़ते झगड़ते रहेंगे तो वह देश कभी भी उन्नति नहीं कर सकता और न ही संपन्न हो सकता है।जलन, ईर्ष्या और द्वेष पर्यायवाची शब्द, वास्तव में मनुष्य के स्वभाव में ही होते हैं। लेकिन इनका क्षेत्र मात्र अपने जानकार लोगों तक ही सीमित होता है। विशेषतः पारिवारिक और रिश्तेदारी तक। इससे आगे न ये लोग सोचते हैं और न ही इनकी सोच का कोई प्रभाव होता है। समाज में कई ऐसे घटक होते हैं। जो सामाजिक सौहार्द को इसी सोच के कारण बिगाड़ने का काम करते हैं। लेकिन समाज भी इस बात को जानता है और अंततः यही लोग हंसी और मजाक का पात्र बन कर रह जाते हैं।हर समाज में बुजुर्गों की एक कहावत सदियों से प्रचलित है जिसे समस्त भारत में अपनी - अपनी बोली के अनुरूप बोला जाता है। हमारी बोली में बोलते हैं " रीश करीं दी, हिरख नीं करिंदा"। अर्थात किसी अच्छे कार्य में कोई सफलता प्राप्त करता है तो उससे ईर्ष्या नहीं करते, अपितु उसका अनुसरण करते हुए स्वयं भी उसी रास्ते पर चलना चाहिए। यह कहावत सदियों से समाज में सकारात्मक संदेश देती चली आई है। लेकिन पीठ पीछे जो जलते हैं यानी ईर्ष्या करते हैं वे लोग वास्तव में कामचोर होते हैं। स्वयं तो अच्छा कार्य नहीं कर सकते और न ही किसी कार्य में सफलता पाकर शिखर तक पहुंच सकते हैं। ऐसे लोग ही द्वेष एवं जलन में, जल करके दूसरों की नुक्ता चीनी यानी आलोचना करके स्वयं को हास्य का पात्र बनाते हैं। अपने काम पर, ध्यान केंद्रित करने वाले लोग ऐसे लोगों की परवाह नहीं करते और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होकर सफलता प्राप्त करते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि पीठ पीछे जलन करने वाले लोगों की पहचान, कामचोर के रूप में ही होती है। इनका अस्तित्व कुछ भी और कहीं नहीं होता।
- डॉ. रवीन्द्र कुमार ठाकुर
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
आज के दौर में सराहना करने वाले बहुत कम होते हैं। जलने वाले स्वंय तो कुछ नहीं करेंगे लेकिन दूसरों के कार्य में कमियां गिनाने में अग्रणी रहेंगे। उसी में आनंद ढूँढते रहते हैं। जन मानस से दूर ये मन मानस के सहारे जिंदगी की राहों में खुद अपने लिये काँटे बिछाते रहते हैं। अपने मन की करना इनकी खासियत होती है और अड़ियलपन इनकी पहचान। आसानी किसी की राय मान लेना इनका स्वभाव नहीं होता। निःसंदेह कामचोरी और सीनाजोरी की जुगलबन्दी लिए चलनेवाले ऐसे लोग लच्छेदार बात बनाने में माहिर होते हैं। जन-मन संचालकों की श्रेणी में बढ़िया पहचान रखते हैं। लेकिन यहां वे यह भूल जाते हैं कि आज की दुनिया चाटुकारों की नहीं बल्कि सच्चे कार्यकर्ताओं की है।"आप नहीं आपका काम बोलता है" बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी - - इस कहावत की तरह कभी न कभी ऐसे" ऊँट पहाड़ के नीचे आ आ ही जाते हैं" खैर बात निकली है तो दूर तलक जायेगी और हम आप जैसे लोग इस आइने में खुद को जरूर देखने की कोशिश करेंगे और तभी लेखनी की सार्थकता सिद्ध हो पायेगी जब" पर उपदेश कुशल बहुतेरे" के मर्म को समझते हुये हम स्वयं अपने आप में सुधार ला पायेंगे।
- हेमलता मिश्र मानवी
नागपुर - महाराष्ट्र
पीठ पीछे जलने वालों की पहचान का तो हमें पता नहीं, लेकिन कामचोर का वजूद कहीं पर नहीं होता यह बात जानते हैं हम। कहीं भी अपना वजूद बनाने और फिर उसे बनाए रखने के लिए जिस कार्यशैली की आवश्यकता होती है,वह किसी कामचोर के बस की बात नहीं होती। तन मन धन तीनों से ही सक्रियता बनाएं रखनी होती है,आलसी और कामचोर के बस की बात नहीं होती यह सब करना इसीलिए कामचोर का वजूद कहीं नहीं बन पाता।
- डॉ. अनिल शर्मा ' अनिल '
धामपुर - महाराष्ट्र
जलने वाले जलते रहेंगे व जिंदगी का सफर बढ़ता रहेगा ! आजकल की जिंदगी मैं मौकापरस्त लोग बहुतायत मैं मिलते हैं , जो मुंह पर तो तारीफों के पुल बांधते हैं , व पीठ पीछे उन्हीं लोगों की कामयाबी से जलते हैं!! कुछ लोग साफ शब्दों मैं जलन प्रकट कर देते हैं , कुछ लोग जलन को मन मैं रखते हैं !! कामचोर व्यक्ति का वजूद नहीं होता क्योंकि ऐसे लोग चाटुकारिता मैं विश्वास रखते हैं , क्योंकि उन्होंने मेहनत न करने ठान ली होती है !! थाली के बैंगन की तरह वे यहां से वहां , लुढ़कते रहते हैं !!
क्या कहिए ऐसे लोगों को ,
जिनकी फितरत छुपी रहे !!
नकली चेहरा सामने आए ,
असली सूरत छुपी रहें !!
- नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
आलोचक और समालोचक का कोई उद्देश्य ही नहीं रहता है जब पीठ पीछे बुराई नहीं करेगें तब तक उनका खाना पच ही नहीं सकता और मन मस्तिष्क में जो उपज पनप रही तभी शांत होती है। घर संसार, गांवों के चौपालों से आदि-आदि में तरीके से देख लीजिए, बात-बात पर बुराईयां करते रहते है। जिसे हम जलने वालों की एक गंभीर बीमारियों से ग्रसित महारोग कहा जा सकता है, जिनका कोई इलाज ही नहीं है। उनकी अलग एक अपनी पहचान होती है। बहुत कम व्यक्ति होते है, जो सामने स्पष्ट वादी होते जरुर है, उन्हें भी भविष्य में अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन यहाँ भी भरोसा नहीं किया जा सकता है , इसके अतिरिक्त कामचोर का भी अपना एक वजूद कहीं पर नहीं होता है, वे हमेशा शक के दायरे में रहते है किसी भी काम को करने उनका मन नहीं लगता है, घर बैठे सफलता अर्जित करना चाहते है, जिसका परिणाम हमेशा गंभीर होता है.....
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर"
बालाघाट - मध्यप्रदेश
जलन या कहना चाहिए ईर्ष्या ये शब्द ही कांटे से चुभते हैं।किसी की सफलता,किसी की खूबसूरती,किसी का पहनावा,किसी की ख्याति लोगों को रास नहीं आती।ये बराबरी तो नहीं कर सकते।न ही उनके समतुल्य बन सकने की क्षमता रखते हैं।न योग्यता होती है,न हूनर होती है। अपनी प्रतिभा को निखारने की सामर्थ्य भी नहीं होती।जल भूनकर पीठ पीछे तरह- तरह की मनगढ़ंत बातें बोलकर मन हल्का करते हैं।इनसे इनको आनंद रसानुभूति होती है। सुनने वाला भी रसास्वादन करता है।मुख में राम - राम पीठ पीछे जलन वंश कसाई काम करने में माहिर होते हैं।ये बाहर से कुछ और अंदर से कुछ अलग नजर आते हैं। पीठ पीछे जलने वाले की पहचान एक ही होती है। सामने जलने वाले का पर्दाफाश हो जाता है। लेकिन पीठ पीछे जलने वाले को सही आईना तभी दिख जाता है।जब वो खुद अपनी करनी से शर्मिन्दा हो जाता है। आमने-सामने नहीं हो पाता। कामचोर का वजूद सुप्तावस्था में रहता है।उसे कोई मतलब नहीं कोई पुरस्कार पाया, कोई अट्टालिका बनवाया, कोई हीरा- जवाहरात खरीदा,या विदेश भ्रमण किया,संपति अर्जित किया।ये मस्तमौला होता है। कामचोर का तमगा हासिल कर,वह अपनी ताउम्र की बेशकीमती जागीर समझता है। सिर्फ अपने में ही मगन रहता है।काम करना नहीं कहना चाहिए निकम्मा घोषित हो जाता है। प्रतिद्वंदिता की भावना नहीं रखता।न जलन न कानाफूसी,दूर- दूर तक मतलब नहीं रखता पीठ पीछे जलने वाले सबसे निकृष्ट सोच वाले होते हैं।ये बराबरी कर सकते नहीं,न ही उसके समकक्ष कोई अहर्ता रखते हैं।न बन सकते हैं,न कर सकते हैं।तब फिर एक ही काम बचता है वो है जलन में लोगों के पास बैठकर फिजूल की बातें कर कान भरना।जलन मत करो,मेहनत करो, अपनी योग्यता का प्रयोग करो।सोच सकारात्मक रखो। दूसरों की बातें न सुनो,न तूल दो।तभी आगे बढ़ोगे, हमेशा अपनी परिश्रम,के बल पर भाग्य को उज्जवल बनाओ।
- डॉ. माधुरी त्रिपाठी
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
इस दुनिया में पीठ पीछे जलने वालों की, पीठ पीछे शिकायत करने वालों की कमी नहीं है. दुनिया के हर एक शख्स की पीठ पीछे आलोचना होती ही है. ऐसा कोई शख्स नहीं मिलेगा जिसकी पीछे आलोचना नहीं हुई हो. आलोचना जलन से ही पैदा होती है. जिस देश में भगवान राम की, माता सीता की जब आलोचना होती है तो मनुष्य किस गिनती में हैं. जलने वालों की पहचान एक जैसी ही होती है.जो कामचोर होते हैं वही अधिकतर दूसरे की सफलता देख कर जलते हैं. खुद तो कुछ कर नहीं पाते हैं पर दूसरे को देख-देख जलते रहते हैं. जलते रहते हैं पर सामने कुछ बोल नहीं सकते हैं. बस केवल पीठ पीछे ही जलते रहते हैं. कामचोरो की नियति ही है जलने की इसलिये जलते रहते हैं.
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश "
कलकत्ता - प. बंगाल
जिस तरह चमत्कार का वजूद कहीं नहीं होता है, फिर भी चमत्कार का जिक्र होता रहता है, उसी प्रकार भले ही कामचोर का वजूद कहीं नहीं होता है, फिर भी पीठ पीछे जलने वालों की पहचान कामचोरी ही होती है. उनका काम ही कामचोरी करना है और जो अच्छा काम करते हैं, उनसे पीठ पीछे जलते रहते हैं. पीठ पीछे इसलिए कि वे सामने से कुछ कहेंगे तो एक की चार सुननी पड़ सकती है, इसलिए जलते रहते हैं, पर पीठ पीछे!
- लीला तिवानी
सम्प्रति - ऑस्ट्रेलिया
ईर्ष्या और कामचोरी ऐसे स्वभावगत दुर्गुण हैं जो जिनके स्वभाव में होते हैं, वे औरों से संबंधो को तो खराब करते ही हैं, स्वयं की छबि भी कर लेते हैं। ऐसे लोग स्वयं कुछ करते नहीं है लेकिन मंसूबे खूब बनाए रखे होते हैं और जब उनका ही कोई परिचित या परिजन कुछ विशेष कार्य करता है, जिसकी सर्वत्र वाह-वाही होने लगती है तो ये ईर्षा से जल-भुन जाते हैं और फिर मनगढ़ंत बातें बनाकर उनमें कोई कमी या दोष बताकर, पीठ पीछे बुराई करते फिरते हैं। समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है। सच कहा, कामचोर का वजूद कहीं पर नहीं होता। यहाँ तक कि उनके अपने ही घर में। इसलिए जीवन में कभी भी आलस्य को नहीं पनपने देना चाहिए। यही आलस्य आगे चलकर कामचोरी का रूप ले लेता है और फिर वे किसी काम के नहीं रह पाते। न उनसे कोई काम हो पाता। न उनका किसी काम में मन लगता।उनके हिस्से में सिर्फ ताने सुनना ही रह जाता है। ऐसा ही हाल ईर्ष्या रखने वालों का रहता है। वे भी हमेशा लोगों के बीच बैठकर जो साथी या रिश्तेदार उस समय नहीं होता उसकी बुराई करना शुरु कर देते हैं। भले ही सब लोग उनकी बातें चुपचाप सुनते रहते हैं, परंतु वे जानते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में ये महाशय हमारी भी बुराई करेंगे। इसलिए ऐसे लोगों की बात को न कोई महत्व देते हैं और न ही ऐसे लोगों को।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम हीं है कहना,यह बिल्कुल सच है। फिर पीठ पीछे कहे पर क्या ध्यान देना । लोगों की तो फितरत हीं होती है पीठ पीछे निंदा करने की या कुछ भी अनर्गल बातें बोलने की। हमें इस पर कत ई नहीं देना चाहिए। अपने को जो सही लगे वहीं करें जलने वाले जलते हीं रहेंगे उनकी यही फितरत होती है। इसीलिए बस व्यक्ति को अपना कर्म करना है लोगों के कहे को ना सुने ना ध्यान दें।अंत में वह जलनखोर व्यक्ति भी जब देखेगा कि इसे उससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा तो वह भी तक हार कर चुप हो जायेगा।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
“पीठ पीछे जलने वालों की पहचान एक ही होती है- कामचोर का वजूद कहीं नहीं होता है” को पढ़ने के बाद लगा कि भला दोनों पंक्तियों में क्या सम्बन्ध है : यह क्या मिला है, क्या लिखा जाए इन पर… अनदेखा करने वाली ही थी कि मेरे ट्यूबलाइट दिमाग़ कौंधा ‘है न सम्बन्ध’ जलने वाला प्राणी कामचोर ही तो होता है। श्रम करने वाले कभी दूसरे से नहीं जलेंगे। श्रम करने वाले को सफलता मिलती रहती है। कामचोर को सफलता तो चाहिए लेकिन “अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काज, दास मलूका कह गए, सबके दाता राम” का अर्थ ही बदला रहता है।जिसका सरल अर्थ निकलता है प्राणी को आवश्यकता से अधिक (किसी भी चीज़ का अति करना हानिकारक होता है) चिन्ता और लालच में नहीं पड़ना चाहिए- कामचोर अपने को अजगर ही समझने लगता है। जबकि अजगर को अपना पेट भरने के लिए प्रकृति प्रदत्त उसे, नेत्र- सम्मोहन की ऐसी चमत्कारी विद्या मिली हुई है जिसके बल पर वह एक जगह पड़ा-पड़ा ही अपना पेट भर लेता है। अजगर की आँखों में ऐसी अद्धभूत शक्ति होती है कि, छोटे-छोटे जंगली जानवर खरगोश, हिरण के बच्चे आदि खुद-ब-खुद उसके मुँह में चले आते हैं।अब कामचोर प्राणी इस आधार पर अपने व्यक्तिव का विकास कैसे बनाए और उसका वजूद कैसे क़ायम हो तो दूसरे से जलने के सिवा और पीठ पीछे ही जलने के सिवा और दूसरा मार्ग क्या बचता है।कामचोर के पास एक और मार्ग है शीघ्र सफलता पाने के लिए हड़प लेना-
- विभा रानी श्रीवास्तव
बेंगलूरु - कर्नाटक
दूसरों से जलने वालों की दुनिया में भरमार है। ऐसे लोग हमारे आस-पास ढेरों मिल जाएंगे परन्तु दूसरों की ख़ुशी से, सफलता से ख़ुश होने वाले लोग विरले ही होते हैं। यही हमारे सच्चे साथी होते हैं और हमें सही सलाह भी दे सकते हैं। ऐसे लोगों की क़दर करनी चाहिए। पीठ पीछे जलने वालों की एक की पहचान है कामचोरी अर्थात ना स्वयं काम करो और ना दूसरो को करने दो। यदि कोई काम कर भी रहा तो उसकी टाँग खिंचाई करो और उसका मज़ाक बनाओ। कामचोरों का कोई वजूद नहीं होता और न ही ऐसे ही लोगों को कोई महत्व ही देना चाहिए। ऐसे ही लोग होते हैं जो ना तो स्वयं काम करते हैं और ना ही दूसरों के किये काम अथवा सफलता से ख़ुश होते हैं अपितु उन से जलते हैं और अपना अधिकतर समय व ऊर्जा उनकी चुग़ली और निंदा करने में लगा देते हैं।
- रेनू चौहान
नई दिल्ली
पीठ पीछे किसी की निंदा करने वाले की पहचान गलत लोगों में होती है।उन्हें कोई अच्छा नहीं कहता।वे कभी किसी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाते।लोगों को पीठ पीछे जलना भी नहीं चाहिए।जो व्यक्ति परिश्रम करता है।वह आगे बढ़ता है।मनुष्य को किसी से जलन नहीं होना चाहिए।जो मनुष्य परिश्रम करता है।वह अपनी पहचान बनाने में कामयाब होता है।कामचोर का वजूद कहीं नहीं होता।इसलिए मनुष्य को कभी भी कामचोर नहीं बनना चाहिए।
- दुर्गेश मोहन
पटना - बिहार
" मेरी दृष्टि में " कामचोर ही पीठ पीछे बुराई करने में विश्वास रखते हैं। यही लोग समाज में अपराध को जन्म देते हैं। जिस से समाज खोखला होता जा रहा है। इस को रोकने का प्रयास सभी को करना चाहिए। तभी समाज को सही दिशा की ओर लेकर चला जा सकता है।
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