क्या जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है ?

कहते हैं कि इंसान की बुनियादी जरूरी रोटी , कपड़ा और मकान है । परन्तु वर्तमान में बुनियादी जरूरतों का विस्तार हो रहा है । यहीं कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
जीवन की बुनियादी जरुरतों की परिभाषा बदलती जा रही है या नहीं इस पर विचार से पहले बुनियादी जरूरतों की परिभाषा क्या है? यह भी तो जानना जरूरी है, इसमें रोटी,कपड़ा और मकान को बुनियादी जरुरत माना जाता है,और यह हैं भी अत्यावश्यक। इनमें किसी एक के बिना भी जीवन कम हो सकता है। अब समय परिवर्तन हो रहा है, समाज विकसित हो रहा है तो इन बुनियादी जरूरतों में में भी परिवर्तन आ रहा है।
अब शिक्षा,स्वास्थ्य,सुरक्षा, रोजगार भी बुनियादी जरूरत बन गया है और सरकारी स्तर पर जनता को यह सब उपलब्ध हो इसके लिए विभिन्न योजनाएं चल रही हैं। बुनियादी जरूरत में सबसे पहले जिसे माने,जोड़े,वह है जन्म प्रमाण पत्र। इसके अभाव में पहली तीन बुनियादी जरुरत पूरी करना भी कठिन है। इसके साथ ही बुनियादी जरूरत में अब आधार कार्ड, मोबाइल, इंटरनेट भी शामिल है इनके अभाव में मानव जीवन पंगु सा हो जाता है। कोई भी सुविधा लेनी हो तो आधार, मोबाइल बहुत जरूरी हो गया है। खाना पकाने के लिए गैस भी इसके बिना मिलना कठिन क्या असंभव ही है। बैंक खाता भी बुनियादी जरूरत बनता जा रहा है, सरकारी स्तर पर जीरो बैलेंस से भी खाता खुलवाने की सुविधा दी गयी है। सच ,अब बुनियादी जरूरत की परिभाषा बदलती जा रही है।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
बदलते समय के साथ सभी चीजों में बदलाव हो जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है..। बदलाव अच्छा है या बुरा उसके उपयोग पर निर्भर हो जाता है। आधुनिकता , नगरीकरण , रोजगार हेतु पलायन , महत्वकांक्षा , स्वार्थवाद , घमंड , विचारों में असमानता इत्यादि से जीवन की बुनियादी जरूरतों के रूप में बदलाव ला देने से उनकी परिभाषा भी बदल रही है।
वर्त्तमान काल में केवल रोटी कपड़ा मकान बुनियादी जरूरत नहीं रह गया है।
व्यक्ति रोजगार हेतु नगरों के छोटे छोटे घरों में रहने के लिये विवश हो रह लेता है । बढ़ती महत्त्वकांक्षा ने संयुक्त परिवारों को विखंडित किया है । लोग अपना भविष्य बनाने के लिये परिवार से दूर प्रदेश अथवा विदेश चले जाते हैं । अधिक सुख सुविधाएं मिलने के कारण वो वही बस जाते हैं । परिवार की संरचना में जो परिवर्तन देखा जा रहा हैं उसके लिये मुख्य कारण,  आधुनिकता को ही माना जा रहा है । भारत में आधुनिकता का अर्थ पाश्चात्य सभ्यता से लगाया जा रहा है। वहाँ के रहन सहन , खानपान तथा पहनावे को अपनाकर स्वयं को आधुनिक अनुभव करने की कोशिश में जुटे हैं सभी। अंग प्रदर्शन को आधुनिकता से जोड़ दिया जा रहा है ।  पाश्चात्य सभ्यता को मूल्य रहित समझ लेना भी एक कारण है । जबकि भारतीय समाज का आज भी सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा रहना आवश्यक है । 
  वैसे आधुनिकता के अनेक लाभ हैं । आज तकनिकी संचार माध्यम से सम्बन्धों में निकटता के साथ जीवन के कई पक्ष पर प्रभावी है । यदि हम वस्तु या व्यक्ति को लेकर मध्यम मार्ग अपनायें तो परिवार को विखंडित होने से बचाया जा सकता है । इसके लिये अपनी सहनशीलता को बढ़ानी चाहिए और इच्छाऐं थोड़ी सीमित करनी चाहिए । परिवार की खुशी में ही अपनी खुशी समझ लेने से परिवार विखंडित होने से बच सकेगा। इसके लिये आपसी  सद्भावना , आदर , मित्रता , सम्मान , सेवा भाव एवं विश्वास बनाये रखने को प्राथमिकता देने का प्रयास करना चाहिए। परिवार में संघर्ष समाप्त करने के लिये क्षमा सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी है। 
  बदलाव के बदलते स्वरूप से बुनियादी जरूरतों के बदलती परिभाषा को रोक लगाना थोड़ा कठिन है।
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलते समय और प्रगति करते विज्ञान के साथ बदलती जा रही है। जीवन में संतोष नाम का घटक लगभग समाप्त सा हो गया है। सरलता मृतप्राय हो चुकी है। जहां एक जोड़ी कपड़े में आसानी से गुजारा हो जाता था वहीं कपड़ों के ढेर लग जाते हैं। वर्तमान कमाऊ पीढ़ी मोबाइल के भी नये माडलों की चाहत में अनाप शनाप खर्च कर रही है। कम खर्च करके बचत करने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। एक-दूसरे की वस्तुओं को देखकर चादर से पैर बाहर निकल रहे हैं। ऋण लेकर जीवन के ऐश्वर्य भोगे जा रहे हैं परिणामतः अंत बुरा हो रहा है। 
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली 
जीवनकी बदलती जरूरतों के कारण ही परिभाषाएं भी बदलती है।इसका अच्छा उदाहरण हम साल भर पहले से महामारी के दौर में देख रहे हैं आप सब लोग मुंह पर कपड़ा रखने लग गए हैं और जो धन के पीछे भागते थे सब स्वास्थ्य को ही सच्चा धन समझने लगे हैं और अपने मां बाप भाई बहन सबका ध्यान रखना भी इसी बदलती परिस्थितियों में ही मानव ने सीखा।
वन की भागदौड़ आपाधापी में इंसान जीवन जीना भूल गया था अब उसकी दिनचर्या शैली सब बदल चुकी है वह रोज सुबह योगाभ्यास करता है और दवाई काला तुलसी आयुर्वेदिक ज्ञान को भी अपने बढ़ा लिया है। शाकाहारी भी अधिकतर लोग हो गए हैं।
प्रकृति का नियम है। हर क्षण बदलती है जैसे सब ऋतु में बदलती है इसीलिए मानव स्वभाव भी समाज और परिवर्तन के अनुसार ही हम संभल जाते हैं।
आप हम बहुत सारी चीजों में बदलाव देख रहे हैं। देश दुनिया हर किसी को देखने का नजरिया भी सबका बदल गया है।
जीवन में बदलाव बहुत जरूरी रहता है आप यदि बदलाव को अपनाएंगे तो आप हर क्षण अपने अंदर एक नई स्कूटी ऊर्जा का संचार महसूस करेंगे और जो बदलाव और वक्त के साथ चलेगा वही योद्धा सफलतापूर्वक अपने जीवन  मैं स्वस्थ रहेगा।
अच्छे के लिए बदलाव होने में कोई बुराई नहीं है।
बदलाव के साथ ही आप कंधे से कंधा मिलाकर चले ।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
आज की चर्चा में जहां तक यह प्रश्न है कि क्या जीवन में बुनियादी आवश्यकताओं की परिभाषा बदलती जा रही है तो इस पर मैं कहना चाहूंगा कि हां यह बात बहुत हद तक सही है अब व्यक्ति अपनी जरूरतों के हिसाब से सही और गलत हर चीज की परिभाषाएं तय करने लगा है अब ऐसा भी देखा जा रहा है कि एक सही बात बहुत से लोग मिलकर के अपने स्वार्थ के लिए गलत सिद्ध कर कर देते हैं और एक गलत बात को भी आवश्यकता  अनुसार अवसर के अनुसार सही सिद्ध करने से परहेज नहीं करते समय जैसे-जैसे बदला है व्यक्ति की बुनियादी जरूरतें भी बदली है तो यह बात कहने में बिल्कुल संकोच नहीं है कि समय के साथ-साथ बुनियादी जरूरतों की परिभाषाएं बदल रही हैं या व्यक्ति इन्हें अपने फायदे के लिए समय और अवसर के हिसाब से परिवर्तित कर रहा है ।
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
जरूरतें और उनकी परिभाषाओं की बात छोड़िये जनाब आज हम अगरबत्ती भगवान के लिए खरीदते हैं और खुशबू खुद की पसंद की तय करते हैं l ऐसे में बुनियादी आवश्यकताएं बदलना स्वाभाविक है l इनका निर्धारण संवेगात्मक भावना से निर्धारित होता है l जिस जरूरत की भावना प्रबल हो जाती है वही हमारी प्राथमिक आवश्यकता बन जाती है l
   कालांतर में रोटी, कपड़ा, मकान हमारी बुनियादी आवश्यकता थी लेकिन आज कोरोना काल में जीवन पर आये संकट में बचना और गाइड लाइन की पालना हमारी पहली आवश्यकता है l इसके बाद पर्यावरण का अवक्रमण हमारी गंभीर समस्या है l तदर्थ पर्यावरण संतुलन हमारी वर्तमान आवश्यकता बन गई है l ग्रामीण समाज व शहरी समाज की भिन्न भिन्न आवश्यकताएं हैं l बढ़ते शहरीकरण में स्वच्छ जलापूर्ति, स्वच्छता, सार्वजनिक परिवहन, आवास समस्या बुनियादी आवश्यकताओं में शामिल हो गई है l इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सर्वजन हिताय के स्थान पर स्वजन की जीवन शैली ने बुनियादी आवश्यकताओं की परिभाषा को बदलने में अपना अहम क़िरदार बनाया है l आज आत्मनिर्भर भारत हमारी महत्वकांक्षी बुनियादी आवश्यकता रूप में उभरा है l इसकी पूर्ति के लिए हमारा राष्ट्र
संगठित और एकमत हो, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए l
  प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है अतःअपने ऊपर विश्वास कर इस आवश्यकता की पूर्ति करें l
    ----चलते चलते
हमारी परिस्थितियाँ बदलने पर बुनियादी जरूरतें भी बदल जाती हैं l रोटी, कपड़ा, मकान की जरूरतें पूरी होने के बाद विलासिता की जरूरतें पूरी की जाती हैं l
     - डॉ. छाया शर्मा
 अजमेर -  राजस्थान
एक समय अंतराल के बाद जीवन की दशा और दिशा बदल जाती है। जिससे जीवन की बुनियादी जरूरतों में वृद्धि हो जाती है परन्तु जीवन जिन बुनियादी जरूरतों पर टिका होता है उनकी आवश्यकता समाप्त नहीं होती।
जीवनयापन के लिए न्यूनतम आय, आवास, शुद्ध जल और वायु, स्वच्छ वातावरण, पोषक आहार, उत्तम स्वास्थ्य और शिक्षा अति आवश्यक है। इन बुनियादी जरूरतों की अनुपस्थिति में जीवन की कल्पना ही असंभव है। इसलिए जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल गयी है, यह कहना सही नहीं है। 
हां! इन बुनियादी जरूरतों में कुछ और आवश्यकताओं का समावेश हो गया है। जो समय के अनुसार उचित भी है। 
वर्तमान युग में हमारे जीवन-स्तर में वृद्धि हुई है जिससे हमें तकनीकी ज्ञान, भौतिक सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा हेतु अधिकतम संसाधन, रहन-सहन की परिवर्तित शैली, त्वरित भोज्य पदार्थ की उपलब्धता और महानगरीय जीवन के साथ तारतम्यता आदि भी बुनियादी जरूरतों में सम्मिलित हो गयीं हैं। 
निष्कर्षत: मैं कहना चाहता हूं कि बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदली नहीं है बल्कि उनमें कुछ और जरूरतें जुड़ गयी हैं। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
जीवन की मूलभूत आवश्यकता और जरूरत है रोटी, कपड़ा और मकान है परंतु आज के परिवेश में जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषाएं बदलती जा रही है जीवन का आनंद  के मायने बदल गये है।हमारे जीवन की गतिविधियों को भरपूर आनंद के साथ बढ़ाने की कोशिश में लोग परिभाषाएं बुनियादी जरूरतों की बदलते जा रहे हैं। आज ऐसी अवस्था में मानव की इच्छाओं का सीमित ना होकर  सीमा पार कर रहे हैं।
बुनियादी जरूरतों को हर मोड़ पर हमें एक  सीख देती है ।आज के परिवेश में बुनियादी जरूरत बेहद अधिक है इसकी सीमा अंनत  है ।बुनियादी जरूरतों की कोई सीमा नहीं रही है लोगों के आंखों मे हवस लोभ भर चुका है बुनियादी परिभाषाएं पहले एक साथ परिवार में रहकर पूरी की जाती थी परंतु आज के परिवेश में संयुक्त परिवार का लोप होता हुआ दृश्य नजर आ रहा है। जिससे बुनियादी आवश्यकता और बुनियादी जरूरत निरंतर बढ़ती जा रही है इसकी परिवेश में संवेदनाएं भी मिटती जा रही है जैसे कि हम कहते हैं कि बुनियादी जरूरतों से अपने जीवन को एक नया आया है आज के परिवेश में बुनियादी जरूरत है बेहद ही असीमित हो चुकी है कोई भी संतुष्टि की परिधि को नहीं समझ पा रहा है तथा जीवन की हर एक उपलब्धियों में बुनियादी जरूरतों का असीमित होना बेहद ही कष्ट कारक है आज के परिवेश में केवल साथ रहकर ही नहीं एक दूसरे की निंदा  मानव का दिल काला हो गया है जिसके कारण से बहुत सारी तकलीफों का समावेश हो  रहा है।
परिभाषा बुनियादी सुविधाओं की अलग हो गई है सारे सुख सुविधाओं का भरपूर आंनद लेना एवं दुसरो को कष्ट देकर अपनी इच्छाओं को पूरा करना अपनी जरूरत है।
पंरतु पहले त्याग की भावनाओं को रखा जाता था लोग एक दूसरे पर विश्वास से बुनियादी जरूरतों को पुरा करते थे आज के परिवेशों मे यह विपरीत परिस्थितियों से गुजर रहा है।इसकी परिभाषा बदल गई है। सभी सुख सुविधाओं का उपभोग करना बुनियादी सुविधाओं मे प्रथम श्रेणी मे है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर -  झारखंड
जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल रही है,क्योंकि आजकल नाभिकीय परिवार यानी वे परिवार होते हैं जिनमे माता पिता और उनके बच्चे रहते हैं इन्हें एकाकी परिवार भी कहते हैं।
जबकि भारत देश में संयुक्त परिवार और विस्तृत परिवार की प्रधानता होती थी।
परिवार के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। परिवार समाज की आधारभूत इकाई है। परिवार मनुष्य के जीवन का बुनियादी पहलू है। व्यक्ति का विकास और निर्माण परिवार से होता है। संयुक्त परिवार में कौशल भी सिखाया जाता है। 
प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है, वृद्धावस्था सुचारू रूप से गुजरे।किंतु बदलते समय के साथ साथ परिवार का स्वरूप भी बदल गया है। 
आधुनिक समय में मुखिया का महत्व कम हो रहा है। मुखिया  यानी घर के बुजुर्ग व्यक्ति होते हैं।
औपचारिकता बढ़ती जा रही है व्यक्तिवाद बढ़ रहा है बुजुर्गों की उपेक्षा की जा रही है।
 रिश्ते कच्चे धागे की भांति बहुत नाजुक होते हैं जो एक बार टूटने पर मुश्किल से जुड़ते हैं फिर भी उन में गांठ पड़ ही जाती है।
*रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो* , *चटकाय टूटे से फिर ना जुड़े- जुड़े गांठ पड़ जाए* ।
अतः पारिवारिक विखंडित ना हो इसके लिए जरूरी है कि आपसी मित्रता, सद्भावना, आदर सम्मान, सेवा भाव एवं विश्वास बना रहे।
लेखक का विचार:--संयुक्त परिवार एकाकी परिवार में टूट रहे हैं इतना विखंडन एवं परिवर्तन होने के कारण क्या है:-आधुनिक करण, नगरीकरण, रोजगार हेतु पलायन महत्वाकांक्षा, स्वार्थबाद घमंड ,विचारों में समानता आदि है।
इसलिए जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल रही है।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
समय के साथ जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है. पहले रोटी-कपड़ा-मकान जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा में आता था, संयुक्त परिवार का चलन होता था, और कम जरूरतों में प्रेम से निर्वाह होता था. आज एकाकी या नाभिकीय परिवार का बोलबाला है. यहां भी सबका हित नहीं अपना स्वार्थ प्रमुख होता जा रहा है. डिजिटल युग में देश-दुनिया से जुड़े रहने की मंशा से अब सबसे पहले हर सदस्य को मोबाइल की आवश्यकता महसूस की जा रही है. महंगाई के कारण भी जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है. एक समय ऐसा था जब परिवार का मुखिया कहता था- ''तेते पांव पसारिए, जेती लांबी सौर. अपने से नीचे वालों को देखो.'' आज इससे उलट होता जा रहा है. अपने से ऊपर वालों को देखने के कारण तनाव-ईर्ष्या-लोभ-लूट खसोट आदि बढ़ते जा रहे हैं.
- लीला तिवानी 
दिल्ली
हाँ ! जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है। पहले जो बुनियादी जरूरत थी आज वो सब बदल गई है। आज मोबाईल को हो ले ले ये सब की बुनियादी जरूरत बन गई है। इसी तरह की और बहुत सी चीजें हैं जो पहले नहीं थी पर आज लोगों की वो बुनियादी जरूरत बन गई है। अपनी सभ्यता संस्कृति को छोड़कर लोग पश्चिम की सभ्यता  संस्कृति को अपनी बुनियादी जरूरतों में शामिल करते जा रहे हैं। खानपान रहन सहन सब बदलते जा रहे हैं।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश"
 कलकत्ता - पं. बंगाल
   बुनियादी जरूरतों को देखा जाए तो रोटी, कपड़ा,मकान और भावनात्मक सहयोग ही प्रथम दृष्टि से सामने आते हैं । जीवन की बुनियाद इन चार नीवों पर टिकी है। पर काल चक्र के साथ परिवर्तन आया और अजब गजब ढंग से आया। आज की  बुनियादी जरूरतें मोबाईल, इंटरनेट, नेटवर्क, रोटी की जगह फास्ट फूड और भावनात्मक सहारे के लिए आभासी दुनिया के लाईक और स्माईली। प्रातःकाल उठते ही गुड़मार्निग अति आवश्यक, एक सेल्फी और फिर हर पाँच मिनट में जाँचना की लाईक्स आये या नहीं। स्कूल के विद्यार्थियों को भी रिसेस में रोटी सब्जी नहीं,चाऊमिन, नूडलस, और चिप्स और कुरकुरे चाहिए। यह उनकी बुनियादी जरूरत है। इसके बिना जीना उन्हें अवसाद में ड़ाल देता है। दोस्तों , रिशतेदारों में नाक कट जाती है ।सच में हास्यास्पद पर अनेक बार बच्चा घर का खाना नहीं खाता,भूखा रह जाता है तब माता पिता भी प्रेम वशीभूत हो जो वो माँगता है बना देते हैं । 
  बुनियादी जरूरतों में सबसे प्रथम पर  स्मार्ट फोन और उसमें नेटपैक भरपूर । जी हाँ जीवन की बुनियादी जरूरतें बदर गई हैं ।
  - ड़ा.नीना छिब्बर
    जोधपुर - राजस्थान
लगता है यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान में जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है। हमारी चाह  इस तरह से हमारी मानसिकता पर  प्रभावी हो गई है कि शौक और  के साधन  हमारी बुनियादी जरूरतों में शामिल हो गए हैं। विकास के इस दौर में हमारी जरूरतों के लिए अनेक सुविधा के उपकरण बाजार में विभिन्न किस्मों के सहजता से उपलब्ध हैं और उनमें इतनी तेज गति से सुधार और बदलाव हो रहा है कि वे दिनोंदिन बेहतर ... और बेहतर होकर उपलब्ध हो रहे हैं जिससे हम आकर्षित तो हो ही रहे हैं, भ्रमित भी हो रहे हैं और इसे भी... उसे भी पाने के चक्कर में अपना आर्थिक संतुलन भी बिगाड़ रहे हैं और इसकी पूर्त्ति के लिए लालायित या विवश होकर या तो अनैतिक कार्य कर रहे हैं या कर्ज ले रहे हैं और ये  दोनों स्थिति में या सामान्य स्थिति में भी हम अपनी क्षमता से अधिक श्रम कर रहे हैं। ये सभी हमारे व्यक्तिगत ,पारिवारिक और व्यवहारिक जीवन को अनेक महत्वपूर्ण दृष्टि में नुकसान पहुंचा रहे हैं।
  इसे बहुत ही सरल और सहज रूप में मोबाइल के उदाहरण से ही समझ सकते हैं। वर्तमान में हम अपने खाने-पीने की चीजों में कटौती करना स्वीकार्य है परंतु मोबाइल जितना अच्छा या यूँ कहें कि महंगे से महंगा लेने को प्राथमिकता देंगे।
सार यह कि वाकई में जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है। इसमें हमारी समझदारी तभी होगी कि हम पहले बुनियादी जरूरतों को उनके महत्व के अनुसार क्रमबद्ध करें और फिर अपनी आर्थिक सामर्थ्य से उन्हें खरीदने की योजना सुनिश्चित करें।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
 हां ! देखने को तो आज यही मिल रहा है ! समय और स्थान के अनुसार हमारी प्राथमिक और बुनियादी जरुरतें बदलती रहती है ! पहले हम संयुक्त कुटुंब में रहते थे तब हमारी बुनियादी जरुरते सभी को ध्यान में रखकर, एवं सभी की सहमती से पूरी होती थी किंतु आज केवल अपने परिवार की हिसाब से  जरुरतें पूरी होती हैं ! आजकल लोग अधिकतर श्रमिक विकासशील देश और शहर की ओर मुड़ रहे हैं !श्रमिक शहर में आकर मोबाइल , और अन्य शहरी लोगों के जैसे कपड़ा ,खाना   आदि का उपयोग करने की ललक भी रखते हैं करने भी लगे हैं !अब यह उनकी स्थान और समय के अनुसार प्राथमिक आवश्यकता बन गई है जिसे पाने के लिए वे अधिक श्रम भी करते हैं ! कोविद के चलते भी हमारी बुनियादी जरुरतों की परिभाषा बदल गई है ! अपने जीवन से प्यार करने वाले हम सभी लोग अपने मनोरंजन , अपने शौक को भी भूल गये हैं चूंकि कोविद से बचने के लिए प्राथमिक आवश्यकता मास्क ,सोशलडिस्टेंसिंग के साथ साथ समय के अनुसार हमने अपनी जीवनशैली ही बदल दी चूंकि हमारी बुनियादी जरुरतें वही थी ! 
समय के साथ हमारी जीवन की बुनियादी जरुरतों की परिभाषा तो बदलती ही है !
                - चंद्रिका व्यास
              मुंबई -  महाराष्ट्र
 बुनियाद तो बुनियाद है उसकी परिभाषा भी ज्यूँ की त्यों है।  बस इंसान की नियत बदलती जा रही है।  सब दोष इंसानी कृतित्व का है  तो ऐसा आभास होता है।  लेकिन यथार्थ कभी नहीं बदलता।  परिवेश बदलता है बदलता रहा है बदलता रहेगा। 
मानवीय सोच का सबसे बड़ा उदाहरण किसी और का क्या देना अपना ही देख लें हम।  किस्तों में जी रहे हैं।  हर ख़ुशी के आईने मायने आधार मौलिकता समीकरण उद्भव प्रादुर्भाव सबका भिन्नात्मक दृष्टिकोण व् स्वार्थपरता ने भौतिकवाद ने ख़ुशी के व्याकरण का मूल ही नष्ट  दिया है। हलाकि बुनियादी जरूरते सबकी पूरी हो रही है या की जा रही है सम्पन्न वर्ग व् मध्य वर्गीय वर्ग अपनी आय का १ से १३.९८ प्रतिशत एक अनुमान के आधार पर या फिर अनुमानित सांख्यकी समीकरण के आधार पर सेवा , दान , स्वास्थ्य , धार्मिक कृत्य  के माध्यम से अपने से नीचे के वर्ग की उत्थान लालन पालन, रोटी कपड़ा मकान संसाधन जुटाने में जीवन रक्षा करने में तथा अंग दान देहदान आदि अदि के माध्यम पहुंचाया जा रहा है लेकिन दोनों को ही तसल्ली कहाँ न लेने वाले को न देनेवाले को 
*तो ऐसे में आपकी इस चर्चा का विषय पूर्णतया सत्य आधार भूत साबित हुआ सम्पादक जी ।
- डॉ. अरुण कुमार शास्त्री
दिल्ली
समय काल के अनुसार बुनियादी ज़रूरतों के मायने पीढ़ी दर पीढ़ी बदलते जा रहे हैं।हमारे पूर्वजों को रोटी,कपड़ा ,मकान जैसे बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए परिश्रम करना पड़ता था।संस्कारों के दायरे में रहकर बड़े बुजुर्गों की सहमति प्राथमिक होती थी।संतोष और सुकून होता था।कम संसाधनों में भी पूरे कुटुंब को साथ लेकर चलते थे।
आज की पीढ़ी की बुनियादी ज़रूरतों में बदलाव के लिए होड़ सी लगी है।सभी एक दूसरे को पीछे छोड़ आगे निकलना चाहतें हैं।भोग विलासिता के सामानों के पीछे वे अपनी बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।पौष्टिक आहार के बजाय बाज़ारू खाद्य पदार्थ,रहन सहन में भी आधुनिकीकरण के पीछे दौड़ रहे हैं।स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरत को पीछे रखते हैं ,जिससे कई तरह की बीमारियाँ उत्पन्न हो गई हैं।जिससे जन जीवन बुरी तरह प्रभावित हो गया है।अब इंटर नेट ,मोबाइल को ही ले लीजिए इनके बिना जीवन बेजान सा जान पड़ता है।आज तो पढ़ाई लिखाई भी इनके द्वारा ही संभव है।समय के अनुसार ज़रूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है ,समय के अनुसार बदलाव भी ज़रूरी है।तभी हम प्रगति कर पाएँगे।
- सविता गुप्ता 
राँची - झारखंड
       जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा वास्तव में गिरगिट की तरह बदलती जा रही है और अनमोल जीवन कौड़ियों के भाव बिक रहा है।
       प्रश्न स्वाभाविक है कि कहां गए वो दृढ़ संकल्प और आन-बान-शान के लिए मर-मिटने की चाहत? चरित्र को सर्वश्रेष्ठ मानने की प्रथा कहां लुप्त हो गई है? जय जवान और जय किसान की "परिभाषा" कांग्रेस की भांति लुप्त क्यों हो रही है?
       आज किसान सड़कों पर और जवान न्यायालयों में धक्के क्यों खा रहे हैं? पारिवारिक रिश्तों का मूल्यांकन घटिया स्तर पर क्यों आंका जा रहा है और उसके सदस्यों का रक्त सफेद क्यों हो रहा है? क्यों सब-कुछ राजनीतिक दृष्टिकोण से आंका जा रहा है? जबकि सर्वविदित है कि सुकून प्राकृतिक देन है जिसकी जरूरत समस्त मानव जाति को होती है। भले उसकी परिभाषा पौराणिक हो या आधुनिक।
- इन्दु भूषण बाली
जम्म् - जम्म् कश्मीर
मेरे विचार में जीवन की बुनियादी ज़रूरतों की परिभाषा तो नहीं बदली, मनुष्य के विचारों एवं उसकी लालची प्रवृति के कारण ऐसा प्रतीत होता है| देखा जाए तो एक व्यक्ति दिन में उतना ही खा सकता है जितना वो पचा सके| उसकी बुनियादी ज़रूरत तो वही दो रोटी और दाल ही है भले ही वह करोड़ों रुपए कमाए |यह व्यक्ति की सोच पर भी निर्भर करता है | कुछ लोगों के लिए तो गाड़ी और बड़ा सा बंगला भी बुनियादी ज़रूरत है| कोई दो वक्त की रोटी मिलने पर ही संतोष कर लेता है | 
-  अंजु बहल 
चंडीगढ़

     मानव श्रृंखला आवश्यकता की जननी हैं, जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक तथ्यों में अपना जीवन यापन कर जीवित अवस्था में पहुँच कर समय व्यतीत कर रहे हैं। अगर खुले मन से सोचे तो  समस्त प्रकार के लक्ष्यों का पता चलता हैं और उन क्रियाकलापों को वृहद स्तर पर क्रियान्वित करने में सार्वभौमिकता का परिचय देते हुए सार्थक भूमिका निभाने में सफलता प्राप्त की ओर अग्रसर होते हैं। आज वर्तमान परिदृश्य में बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से सामना करना पड़ता हैं, कि कोई उस चीजों को गंभीरता समझना नहीं चाहता, जिसके कारण जनजीवन में अनेकानेक परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं । शनैः-शनैः जरूरतों की परिभाषा बदलते जा रही हैं, जिसके लिये मानव की दोषी हैं।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट --मध्यप्रदेश
व्यक्ति के बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल अवश्य गई है लेकिन यह भी व्यक्ति के स्वभाव के ऊपर निर्भर करता है बुनियादी आवश्यकताएं रोटी कपड़ा मकान चिकित्सा और शिक्षा जिसमें 1 वर्ग रोटी कपड़ा मकान और चिकित्सा को पूरा करने मेपरिश्रम करता रहता है
उसकी बुनियादी जरूरतें अभी बाहर नहीं आ पाए हैं लेकिन वहां पर एक दूसरा वर्ग है जो रोटी कपड़ा मकान चिकित्सा के अतिरिक्त शिक्षा भी बुनियादी जरूरतों में शामिल करता है तीसरा वर्ग है वह अपनी बुनियादी जरूरतों में फैशन आधुनिक सामानों की उपलब्धि उसकी  बुनियादी जरूरते बन गई हैं लेकिन इससे अगर आगे बढ़ते हैं तो एक ऐसा वर्ग मिलता है जिसके पास रोटी कपड़ा मकान आधुनिक संसाधन के अतिरिक्त अन्य उच्च कोटि के संसाधन से उसकी बुनियादी आवश्यकता हो जाती हैं इस प्रकार से बुनियादी आवश्यकता की परिभाषा परिवार समाज देश जलवायु के ऊपर बदलती रहती है
बुनियादी आवश्यकता में भौतिक सुख सुविधा पर ज्यादा ध्यान दिया गया है बुनियादी आवश्यकता संवेगात्मक भावनात्मक भी हो सकते हैं इस पर गौर नहीं किया गया एक इंसान परिवार के लिए संसाधन जुटा ता है परिवार के लिए खुद को त्याग करता है वह उसका भावनात्मक और  संवेगात्मक बुनियादी आवश्यकता है।
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
"हर दर्द की एक पहचान होती है, खुशी चन्द लम्हों की महमान होती है, 
        वही बदलते हैं रूख हवाओं का  जिनके इरादों मैं जान होती है"। 
 देखा जाए परिवार मनुष्य के जीवन का बुनियादी पहलु है, 
व्यक्ति का निर्माण व विकास परिवार में ही होता है, परिवार ही मनुष्य को  मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करता है, व्यक्ति का विकास करता है, 
यही नहीं प्रेम, स्नेह, सहानुभूति आदर सम्मान जैसी भावनांए सिखाता है, 
लेकिन आजकल बदलते दौर ने  सबकुछ बदल दिया है, 
तो आईये बात करते हैं कि क्या जीलन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है? 
यह  सच्चाई है  की जीवन की बुनियादी जरूरतों की  परिभाषा बदलती जा रही है, आज के युग की दौड़ में कोई एक दुसरे की नहीं मान रहा सब अपना ही उल्लू सीधा करने को लगे हैं, 
देखा जाए बच्चों को संस्कार परिवार से ही आते हैं, कहा जाता है परिवार मनुष की प्रथम  पाठशाला होता है
किन्तु बदलते समय के साथ साथ परिवार का स्वरूप भी बदल रहा है, 
परिवारों में सम्बंध टूट रहे हैं तथा मुखिया का  महत्व कम हो रहा है व दुसरों के प्रति भावनाएं कम हो रही हैं, बुजर्गों की उपेक्षा कम हो रही है, उनके प्रति  सम्मान एंव कर्तव्य घट रहा है, जिससे बच्चों के संस्कारों मे कमी आने लगी है, 
आजकल बुजर्ग या तो अकेलापन भोग रहे हैं या नौकरों के सहारे अपना जीवन व्यतीत  कर रहे हैं क्योंकी वेटों के पास कामों से ही फुर्सत नहीं है, 
देखा जाए पहले व्यक्ति का उदेश्य परिवार का सुख होता धा किन्तु आज का व्यक्ति स्वंय के हित की सोचता है जिस के कारण संयुक्त परिवार  टूट रहे हैं, जिससे  जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल रही है, 
बच्चों का लगाव नेट की तरफ हो चुका है परिवार के सर्वहित की भावना किसी को नहीं है लोग अपना भविष्य बनाने के लिए परिवार से दूर चले जाते हैं, 
किन्तु परिवार की संरचना और पराकर्म मेंजो परिवर्तन आज हम दे ख रहे हैं उसका मुख्य कारण आधुनिकता ही है, पहनावे को देखें या लोगों की विचारधारा  एक दम भिन्न भिन्न हैं, 
जिससे हर कार्य मे  चाहे रहन सहन हो   संस्कार की बात हो
या बातचीत हो हर जगह तबदीली ही देखी जा रही है, 
 जिसको सुधार लाने की  सख्त जरूरत है, अन्त मे यही कहुंगा की अगर हम चाहते हैं परिवार विखंडित न हो इसके लिए आपसी मित्रता, सदभावना, आदर, सम्मान, सेवा भाव एंव  विश्वास की  सख्त जरूरत है ताकि जीवन का बुनियादी ढांचा कायम रहे। 
सच है, 
"वक्त से लड़ कर खुद की तकदीर बदल लो, 
परिश्रम इतना करो की हा़थों की लकीर बदल लो"। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
आज के परिवेश में मनुष्य के जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल दी जा रही है मैंने उसकी जितनी अधिक आय होती है उसकी आवश्यकताएं भी उतनी ही अधिक होती है रहन-सहन खान-पान वातावरण शिक्षा दीक्षा सभी में अंतर होता है वह अपनी हैसियत के अनुसार व्यय करता है  लेकिन कहीं-कहीं इनको देख कर कम आमदनी वाले लोगों  का जीवन मुश्किल में पड़ जाता है दिखावे के चक्कर में इन्हें कितनी अधिक  आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
- पदमा तिवारी 
दमोह - मध्य प्रदेश
जी बिल्कुल ये  बात सही है कि वर्तमान परिवेश में बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल गयी है ।
बुनियादी जरूरत है इंसान की पहली प्राथमिकता होती है । यह कहना गलत ना होगा कि अगर मनुष्य की बुनियादी जरूरतें पूरी हो तो जीने का अधिकार सार्थक होगा अन्यथा नहीं । पहले तो केवल बुनियादी जरूरतों में भूख मिटाने के लिए भोजन, बीमारियों से बचने के लिए दवा और तन ढकने के वास्ते वस्त्र तथा रहने के लिए छत मयस्सर हो  यह पुरानी परिभाषा थी  बुनियादी जरूरतों की ।आमजन को पहले केवल रोटी ,कपड़ा, मकान तक सीमित बुनियादी  जरूरतें माना जाता था ।
परंतु अब बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल गई हैं ।
 लोग बेहतर जीवन स्तर चाहते हैं। 
आमतौर पर  आजकल के परिवेश के हिसाब से एक स्वस्थ उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें जो मानी गई है उन न्यूनतम जरूरतों को पूरी करने की जिम्मेदारी सरकार की है। विभिन्न सरकारों और विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ ने बुनियादी जरूरतों की गणना के लिए विभिन्न तरीके इजाद किए हैं। जिनमे  स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्व की बुनियादी मात्रा एवम आवास ,शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा ,न्यूनतम मजदूरी ,सुरक्षा एवं सम्मान भी शामिल है ।अतः हम कह सकते हैं कि वर्तमान परिवेश में बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदल गई है।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
       आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। विज्ञान ने जीवन शैली को पूरी तरह से बदल दिया है। जीवन शैली बदलने से जीवन की बुनियादी ज़रूरतों की परिभाषा भी बदल दी है। मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतें हैं रोटी, कपड़ा और मकान। लेकिन समय की तबदीली के साथ इन की परिभाषा बदल रही है। खाने में अनेक तबदीलियाँ आई है।अब सादे दाल रोटी की जगह अलग अलग विदेशी व्यंजन खाने पहली पसंद हैं। दाल रोटी तो गरीब का भोजन माना जाता है। कपड़े तन ढकने के लिए नही,फैशन के लिए ज्यादा पहने जाते हैं। अमीर लोग तो विदेशी ब्रांड के कपड़े पहनने पसंद करते हैं। सूती की जगह रेशमी कपड़े पहनने को तरजीह दी जाती है। अब रहने के लिए घर भी दिखावे का केन्द्र है। दो लोग भी छः छः कमरे वाले घर खरीद कर अपनी अमीरी की शान बघारने चाहते हैं। 
       इस तरह समय बीतने के साथ जीवन की बुनियादी ज़रूरतों की परिभाषा भी बदल गई है। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
 व्यक्ति की बुनियादी जरूरतें उनके आवश्यकता और विचारों की आवश्यकता के आधार पर बदलती रहती है। भौगोलिक वातावरण या कोई प्रभाव कारी घटनाओं से शारीरिक आवश्यकताओं की वस्तुओं में बदलाव होती रहती है यह शरीर की आवश्यकता है जो इंद्रिय संवेदना ओं को  राजी रखने  रखने के लिए बदलाव होता रहता है यही बदलाव से मन को चंचल की उपाधि मिलती है लेकिन बदलाव से क्षणिक सुख मिलता है निरंतर सुख नहीं। मनुष्य हमेशा निरंतर सुख पूर्वक जीना चाहता है इसी चाहत की पूर्ति के लिए वह सारी सुविधा से क्षणिक सुख की अपेक्षा करता है इसी अपेक्षा की पूर्ति हेतु व्यक्ति के बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलता रहता है अर्थात अतृप्त होकर तृप्त को ढूंढता रहता है इसी तृप्त को पाने के लिए मनुष्य की बुनियादी जरूरतें हमेशा बदलता रहता है लेकिन तृप्त नहीं मिल पाती है इसी तृप्त की चाहत में और जिंदगी मैं तृप्ति को ढूंढता रहता है और इस तृप्ति को पाने के लिए वह बुनियादी जरूरतों को बदल कर पाने की चाहत रखता है लेकिन ऐसा होता नहीं है अतः यही कहा जा सकता है कि व्यक्ति की बुनियादी जरूरतें उनके विचार और आवश्यकता के अनुसार बदलता रहता है।
 - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
जैसे-जैसे मानव विकास की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे उसकी जरूरतें भी बढ़ रही है ।
अतः जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा कुछ हद तक बदल गई है । वैसे तो भोजन, वस्त्र और आवास की जरूरत तो है ही किन्तु अब जरूरत यहीं तक सीमित नहीं है । जैसे आजकल डिजिटल का जमाना है तो ये भी जरूरत में शामिल है ।
- पूनम झा
कोटा - राजस्थान
जनता के हित को ध्यान में रखते हुए और उन्हें खुशहाल रखने के उद्देश्य से बुनियादी सुविधाओं का पूर्ण होना अति आवश्यक है। राष्ट्र और राज्य के विकास के लिए बुनियादी सुविधाओं पर जोर देने की जरूरत होती है पर राजनीतिक दल बुनियादी जरूरतों पर ध्यान न दे कर आस्था के नाम पर लोगों को गुमराह करने में ज्यादा समय बर्बाद कर रहे हैं।
  संविधान अनुच्छेद- 21 आवाम को जीवन जीने का अधिकार देता है। बुनियादी जरूरतें पूरी हो तो जीने का अधिकार सार्थक हो। शिक्षा,चिकित्सा रोजगार आदि मूलभूत जरूरतें को पूर्ण करना सरकार का प्रथम कर्तव्य है। गरीबों को रोजगार मिले ताकि पलायन बंद हो। भूख मिटाने के लिए भोजन, बीमारियों से बचने के लिए, दवा रहने के लिए छत मयस्सर करना सरकार का फर्ज है लेकिन दुर्भाग्य संविधान लागू होने के इतने वर्ष बाद भी देश के गरीबों के लिए बुनियादी जरूरतें भी पूर्ण नहीं हो पा रही है।
  जीवन की मूलभूत बुनियादी जरूरतों को पूर्ण न कर अनावश्यक चीजों की बनावट पर, दिखावे पर करोड़ों अरबों खर्च किए जा रहे हैं जो कि जनता के भलाई योग्य नहीं है। 
  उदाहरण स्वरूप--विकसित देशों से प्रतिस्पर्धा की होड़ में हम बुलेट ट्रेन की नकल करते चले जा रहे हैं जबकि धरातल पर गरीबों को चलने के लिए सुविधाजनक ट्रेन भी मयस्सर नहीं है। जिस तरह से गरीब जनता ट्रेन की बोगियों में कसमकस स्थिति में शौचालय के दरवाजे पर बैठकर  गंतव्य स्थान तक पहुंचती है वह शर्मनाक है।
  कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा सरकार की नजरों में और आम आदमी के नजरों में भी बदलती जा रही है।
  मूलभूत आवश्यकताओं पर ध्यान देना अनिवार्य है न कि वाह्यआडंबर पर।
         - सुनीता रानी राठौर 
         ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकताएं रोटी ,कपड़ा और मकान ही हैं, लेकिन वर्तमान समय में  स्वास्थ्य संरक्षण ही सबसे मुख्य  जरूरत मानी जा रही है.
कोरोना के कहर ने सारा आज सारे विश्व में ही परिवेश,जीव जंतु समाज,सभ्यता,संस्कारों  की नियमावलि परिवर्तित करके रख दी है.
कंप्यूटर  शिक्षा भी बुनियादी जरूरतों में शामिल हो गई  है .
मोबाइल चलाना तो अब प्राथमिक जरूरत हो गई  है.गरीब से अमीर तक सभी की जरूरत है फोन.
सुबह से शाम तक फोन,टैबलेट,लैपटॉप वगैरह व्यक्ति के साथ रहना उसके लिये एक अपरिहार्य आवश्यकता हो गई  है.
पारस्परिक संपर्क, शिक्षा ,व्यापार,मनोरंजन हेतु इंटरनेट से जुड़े ये माध्यम जीवन के जरूरी अंग बन गए हैं.  
बुनियादी जरूरतों में फैशनेबुल चीजें ,विलासिता परोसने वाले नामी ब्रांड के सामान अमीरों  की बुनियादी जरूरत बन चुकी हैं. 
 फिर भी रोटी ,कपड़ा और मकान जैसे संसाधन बुनियादी आवश्यकता थे,हैं  और सदैव ही रहेंगे. 
रहने,खाने और पहनने के बिना तो जीवन असंभव ही है.
- डा. अंजु लता सिंह 
 दिल्ली


" मेरी दृष्टि में " वर्तमान में बुनियादी जरूरतों मे विस्तार अवश्य है । जो रहने के स्तर पर निर्भर करता है । बाकी कुछ जीवन का नियंत्रण भी कार्य करता है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी 

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