वंश की पहचान : गौत्र या जाति ?

मानव जाति में  सबसे बड़ा मुद्दा पहचान है ।  जो प्राचीन से लेकर आज तक चला आ रहा है । जिस का कोई अन्त सम्भव नहीं है । जो गौत्र से लेकर जाति तक निर्भर होता है । यहीं कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : - 
वास्तव में  गौत्र से आशय व्यक्ति  किस ऋषि के कुल से संबंधित हैं और उस व्यक्ति की वंशावली उस ऋषि के नाम से जानी जाती है यानि वही उसका गौत्र कहलाता है ! हमारी भारतीय संस्कृति हमें यही बताती है कि व्यक्ति की पहचान गौत्र से होती है जाति से नहीं ! व्यक्ति के कर्म के अनुसार ही वर्ण और जाति का नाम दे दिया गया ! 
विवाह में गौत्र देखा जाता है ! दोनों पक्ष एक गौत्र के नहीं होने चाहिए ! वर्तमान में प्रेम विवाह में इन बातों पर ध्यान नहीं देते !  एक ही घर में मां पिता पत्नी उनकी बहु....वर्ण एवं जाति में भिन्नता लिए होते हैं !इसीलिए तो होने वाले बच्चों को वर्णशंकर कहा जाता है ! आज ब्लडग्रुप एक हो तो भी हम विवाह नहीं करते !आने वाली पीढ़ी रोग ग्रस्त होती है ...हमारे पूर्वजों को तो इस बात का ज्ञान पहले ही था इसीलिए तो विवाह में गौत्र देखा जाता है ! हम सभी सप्तऋषियों की संतान हैं !  व्यक्ति जिस ऋषि के कुल से जुड़ा हो उसी का वंशज कहलाता है औरवही उनका गौत्र होता है !
            - चंद्रिका व्यास
        मुंबई - महाराष्ट्र
     भारतीय संस्कृति में समस्त जाति, गौत्र,धर्म, रीति-रिवाजों का अत्यधिक महत्व हैं, जिसके परिपालन में अपने वंश की पहचान होती हैं। परंतु पाश्चात्य संस्कृति में अपने विवेकानुसार, इसकी ओर ध्यानाकर्षण नहीं होने से उन क्रियाकलापों को वृहद स्तर पर विभिन्न प्रकार के कार्यों को सम्पादित करने में सफल हो रहे हैं। आज वर्तमान परिदृश्य में अपनी संस्कृति और संस्कारों को महत्व नहीं दे रहे हैं, जिसके चलते वे भी उन्हीं के पदचिन्हों पर अग्रसर हैं।  लेकिन आज वर्तमान परिदृश्य में अनेकों परिवारजन हैं, जो वंश और जाति को बनायें रखने में अहम भूमिकाऐं अद्भुता के निभा रहे हैं, जिसके कारण उनकी पहचान पृथ्वी पर कायम हैं।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
हम जिस गोत्र नामावली से परिचित हैं वह वैदिक काल से पीछे नहीं जाती, पर उन ऋषियों की उससे पहले की पहचान या वंश परंपरा क्या थी...
–कर्म के अनुसार तय जाति का कर्म बदल जाने पर क्या जाति बदल नहीं जानी चाहिए
–अन्तरजातिय विवाह में नयी पीढ़ी किस जाति की रह जाती है... 
वंशावली दर्ज ना हो तो कौन किस वंश का है कितनी पीढ़ी पीछे को याद रखा जाता है...
यह विमर्श के मुद्दे हैं।
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
हिंदू परंपरा और मान्यताओं के अनुसार पिता का गोत्र पुत्र को मिलता है वही उसका गोत्र माना जाता है। भारत में गोत्र पद्धति के जरिए आपके वंश का पता चलता है। वैसे गोत्र का अर्थ है गौ रक्षा।
कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तय हुई है, यानी जाति व्यवस्था तय हुई है। गोत्र सभी जातियों और वर्णो में है। गोत्र का प्रयोग आमतौर पर विवाह संबंधों और धार्मिक कार्यों में होता है। माना जाता है एक ही गोत्र में विवाह नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि मान्यता अनुसार इसके सारे सदस्य एक ही पूर्वज के संतान होते हैं।
लेखक का विचार:-- मानव जीवन में जाति की तरह गोत्र का बहुत महत्व है।हमारे पूर्वजों को याद दिलाता है साथ ही हमारे संस्कार एवं कर्तव्य को याद दिलाता है इससे व्यक्ति के बंसवली की पहचान होती है। अतः वंश की पहचान के लिए दोनों जरूरी है यानी गोत्र और जाति।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
भारत में गोत्र पद्धति के जरिए आपके वंश का पता चलता है ।यह बहुत प्राचीन भारतीय पद्धति है ।इससे मूल पिता व मूल परिवार जिससे आप ताल्लुक रखते हैं उसका पता चलता है। हमारे देश में चार वर्ण माने जाते हैं ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र या  दलित की जातियों में गोत्र समान रूप से पाए जाते हैं । भारत में जो भी रहते हैं वह सब ऋषि मुनियों की संतान हैं। अतः हम कह सकते हैं  वंश की पहचान गोत्र के जरिये ही  होती है ।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
हम सब मनु की सन्तान होने के कारण ही मानव कहलाते हैं। मानव, सामाजिक व्यवस्थाओं में वंश, गोत्र,जाति, परिवार के रुप में  पहचान पाता रहा। मेरे विचार से वंश की पहचान तो जाति ही है। एक गोत्र कई जातियों में मिल जाता है,अब तो कई धर्मों में भी मिल जाता है, लेकिन एक वंश में कई जातियां नहीं मिलती। जातियां जब तक कर्म आधारित रही, तब तक तो एक वंश में,कई जातियां मिल जाती थी, लेकिन जब से जन्म आधारित व्यवस्था समाज में प्रचलित हुई तबसे वंश की पहचान जाति ही बन गयी है। यह जातिगत पहचान इतनी सशक्त बन गयी कि इसने महापुरुषों को भी जातियों के कारण संकुचित कर दिया। महाराज हरिश्चंद्र को रस्तौगी समाज तक,महर्षि वाल्मीकि को वाल्मीकि समाज तक, श्रीकृष्ण के वंशज महाराजा अग्रसेन को वैश्य समाज तक, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसे नायक को कायस्थ समाज तक सीमित कर दिया।अनेक उदाहरण है ऐसे।वंश की पहचान जाति  ही बन गयी।आप किस वंश से हैं? अधिक से अधिक अपने पड़बाबा का नाम तक बोल देंगे फिर किसी आदि पुरुष,ऋषि का नाम ले लेते हैं कि हम तो इनके वंशज हैं ऐसा करते ही हमारी पहचान विस्तार पा जाती है।जाति की संकुचित सीमा से बाहर आ जाते हैं हम। बदलती सामाजिक व्यवस्थाओं में वंश की पहचान गोत्र
परंपरा से होते हुए जाति तक आ पहुंची है।अब यह जातिगत व्यवस्था भी टूटनी शुरू हो चुकी है, इसमें निजता, मनमानी के साथ साथ राजनीतिक कारण भी है, जिनकी चर्चा यहां प्रासंगिक नहीं। वर्तमान में तो वंश की पहचान जाति ही है।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
यह सही है कि गोत्र से व्यक्ति और वंश की  पहचान होती है और वंश से इतिहास की पहचान होती है। परंतु यह जानना आवश्यक है कि गोत्र क्या है, किसे कहते हैं ।
समय-समय पर विद्वानों ने इसकी व्याख्या की है क्योंकि सनातन धर्म में गोत्र का बहुत महत्व है।  गोत्र शब्द गो +त्र गो का अर्थ है इंद्रियां और त्र का अर्थ है -रक्षा करना । अतः गोत्र का आशय इंद्रियों की रक्षा करने से भी लिया जा सकता है जिसका सीधा संबंध ऋषि यों से जुड़ता है, क्योंकि यहा ऋषियों की  जीवन पद्धति, जीवन शैली  और नियमावली  मानी जाती है ।
अतः गोत्र को ऋषि परंपरा से संबंधित माना गया है। ब्राह्मणों के लिए तो विशेष रूप से गोत्र महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्राह्मण ऋषियों की संतान माने जाते हैं, अतः प्रत्येक ब्राह्मण का संबंध एक ऋषि कुल से होता है। धीरे-धीरे जब वर्ण व्यवस्था ने जाति व्यवस्था का रूप ले लिया तब यह पहचान स्थान व कर्म के साथ भी संबंधित हो गई, जो  जहां पैदा हुआ उस स्थान का नाम अपने साथ जोड़ लिया, जो जैसा कर्म ,व्यवसाय करता है या उसका भी नाम अपने साथ जोड़ लिया । आजकल आपसी प्रेम और सौहार्द की कमी के कारण गोत्र का महत्व केवल कर्मकांडी औपचारिकता तक ही सिमट कर रह गया है। लेकिन इस बात को अवश्य मानना होगा की वंश की पहचान गोत्र से ही है ,क्योंकि गोत्र पहले आया फिर कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तय हुई वर्ण व्यवस्था में जितने गुण -कर्म- योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वह उस वर्ण के कहलाने लगे । बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा- नीचा वर्ण बदलता रहा। किसी क्षेत्र में किसी गोत्र विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण में रह गया, तो कहीं क्षत्रिय ,तो कहीं शूद्र कहलाया और बाद में जन्म के आधार पर जातियां स्थिर हो गई । यही कारण है कि सभी गोत्र सभी जातियों और वर्णों में पाए जाते हैं व्यक्ति चाहे किसी भी जाति का हो गोत्र से ही उसके वंश की पहचान मानी जाती है। भले ही धार्मिक, जातिय भेदभाव इसे मानने में संकोच करें लेकिन सत्य यही है की वंश की पहचान व्यक्ति के गोत्र से ही मानी जानी चाहिए। 
- शीला सिंह 
बिलासपुर -  हिमाचल प्रदेश
किसी व्यक्ति की पहचान उसके व्यवहार से होती है। जाति की पहचान कर्म से होती है। लेकिन आजकल सबकुछ बदल गया है।
वंश की पहचान गोत्र से ही होती है। वैसे तो सप्तऋषियों के नामों से सभी लोगों का गोत्र है। जैसे कश्यप ऋषि का कश्यप गोत्र,भार्गव ऋषि, भार्गव गोत्र,गर्ग ऋषि गर्ग गोत्र,अत्रि ऋषि अत्रि गोत्र -----------इत्यादि। लेकिन एक गोत्र में भी कई जातियाँ होती है।
जाति तो कर्म के अनुसार हो गया था। जैसा कि कहा जाता है। किसी ऋषि के सानिध्य में रहकर जो लोग शिक्षा ग्रहण करते थे वही उनका गोत्र हो गया। एक ही तरह का सरनेम (पदनाम) बहुत से लोग अपने नाम के साथ लगाने लगे हैं। इससे उनकी जाति पहचानना मुश्किल हो गया है।वंश की जानकारी तो उसके गोत्र से ही होती है। आज कोई भी व्यक्ति कोई भी कर्म कर रहा है। उससे उसकी जाति नहीं पहचानी जा सकती है। वैसे ये सब शोध का एक अच्छा विषय हो सकता है। वंश की पहचान जाति से सही ढंग से हो सकता है या गोत्र से। फिलहाल तो वंश की पहचान  गोत्र ही है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल
गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है, यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है और हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है. गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है. गोत्रों से व्‍यक्ति के रिश्‍तों की पहचान होती है. रिश्‍ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है. गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है. गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है. 
समाजशास्त्रीय आधार- समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्‍पत्ति के निम्‍न आधार बताए हैं-
1. परिवार के मूल निवास स्‍थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ.
2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने.
3. परिवार के इष्‍ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए.
4. कबीलों के महत्‍वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने.
इस आधार पर हम कह सकते हैं, कि वंश की पहचान गोत्र से ही होती है. 
- लीला तिवानी 
दिल्ली
भारत में गोत्र पद्धति के जरिए आपके वंश का पता चलता है। यह बहुत ही प्राचीन भारतीय पद्धति है। इस मूल पिता और मूल परिवार जिसे आप ताल्लुक रखते हैं। हमारे देश में चार वर्ण माने जाते हैं। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र यानी दलित। इनकी जातियों में गोत्र समान रूप से पाए जाते हैं। भारत में जो भी लोग रह रहे हैं वे सभी ऋषि और मुनियों की संतान है। चाहे वह सूर्यवंशी हो असुर बंसी हो चंद्रवंशी हो या अन्य किसी भी स कुल से ताल्लुक रखते हो।रिशु में बहुत से ऐसे रिसीव थे जिन्होंने वेदों को संभालने के लिए वेदों के विभाग करने उन्हें अनेक शाखाओं में विभक्त करके सभी को अलग-अलग वेद शाखा आदि को कंठस्थ करा कर उन्हें यह शिक्षा दी कि आप अपने पीढ़ियों को भी वेद इस उक्त शाखा को कंठस्थ कराएं। इस तरह ब्राह्मण कुल के अलग-अलग समाज का निर्माण होता गया। वर्तमान में यदि कोई जानकार अपना परिचय देगा तो अपना गोत्र पवार वेद शाखा संबल देवता आवंटन आदि को बताना होगा। अब हम जानते हैं कि यह सब क्या होता है।प्रयागराज के धार्मिक विद्वान रामनरेश त्रिपाठी का कहना है कि हिंदू परंपराओं और मान्यताओं के अनुसार पिता का गोत्र ही पुत्र को मिलता है। वही उसका गोत्र माना जाता है। गोत्र पहले आया फिर कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तय हुई। वर्ण व्यवस्था में जितने गुण कर्म योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया वह उस वर्ण के कहलाने लगे। बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा नीचा वर्ण बदलता रहा।किसी क्षेत्र में किसी गोत्र विशेष का एक टी ग्राम 1 वर्ड में रह गया तो कहीं क्षत्रिय तो कहीं शूद्र कल लाया बाद में जन्म के आधार पर जाती स्थिर हो गई। यही वजह है कि कि सभी गोत्र सभी जातियों और वर्णो में है। कौशिक ब्राह्मण भी है क्षत्रिय भी कश्यप गोत्र ब्राह्मण भी है राजपूत भी पिछड़ी जाति वाले भी वशिष्ट ब्राह्मण भी है दलित भी दलितों में राजपूतों और जाटों के अनेक गोत्र हैं।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
वंश की पहचान गोत्र से ही होती है न कि जाति से, क्योंकि जाति व्यवस्था बाद की व्यवस्था है गोत्र व्यवस्था पहले है और गोत्र प्रत्येक जाति में पाये जाते हैं । वैसे भी जाति व्यवस्था काम के आधार पर निर्धारित  की गई जैसे कुम्भकार, चर्मकार, कपड़े धोने वाला धोबी, बाल काटने वाला नाई लोहे का काम करने वाला लोहार आदि परन्तु ये गोत्र सभी में पाये जाते हैं और गोत्र से वंश का पता लग जाता है । 
 दरअसल वंश बहुत प्राचीन भारतीय पद्धति है इससे मूलपिता और मूल परिवार, जिससे आप ताल्लुक रखते हैं, उसका पता चलता है हमारे देश में चार वर्ण माने जाते हैं- ब्राहण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यानी दलित- इनकी जातियों में गोत्र समान रूप से पाए जाते हैं ये ऐतिहासिक वंश-परपरा का सबसे पुष्ट प्रमाण है, जो बताते हैं कि चाहे हम किसी भी जाति या वर्ण में हों लेकिन प्राचीन काल एक पिता के वंश से ताल्लुक रखते हैं । अत: जाति और गोत्र में गोत्र ही वंश की पहचान के लिए मज़बूत प्रमाण है । 
- डॉ भूपेन्द्र कुमार
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
आज की चर्चा पर आधारित मेरे विचार- यह बात हम आदि काल से सुनते आ रहे हैं हम सभी ऋषि मुनियों की संतान है। हम किस ऋषि की संतान है भाई हमारा गोत्र होगा और हम उनके वंशज कहलाएंगे। उसी पंप परंपरा अनुसार हम जातियों में विभक्ति भी होंगे।
- पदमा ओजेंद्र तिवारी 
दमोह - मध्य प्रदेश
"मैं वंश में नहीं कर्म में विश्वास रखता हूं, 
मैं कुल वंश जाति में नहीं कौशल और पुरूषार्थ में विश्वास रखता हूं"। आईये आज वंश की पहचान के विषय में बात करते हैं कि क्या वंश की पहचान गोत्र या जाति से होती है? अगर भारत की बात  करें तो भारत में गोत्र पद्धति के जरिए वंश का पता चलता है जो शदियों से चलता आ रहा है क्योंकी यह बहुत प्राचीन  भारतिय पद्धति है जिससे मूल परिवार जिससे आप ताल्लुक रखते हैं उसका पता चलता है, 
देखा जाए हमारे देश मे कुल चार वर्ण माने जाते हैं  जिनमें व्राहम्ण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र माने जाते हैं इम जातियों में गोत्र लगभग सामान रूप मैं पाए जाते हैं,। 
मगर गोत्र का इतिहास बहुत पुराना है अगर सांस्कृतिक विकास से देखा जाए तो गूरू व मुनियों के नाम से अपन संवध जोड़तेे हुए नई पहचान गोत्र के रूप में हुई है, 
सबसे पहला गोत्र   सप्तऋिषियों के नाम से प्रचलित है जैसे  कुल के नाम व गोत्र के नाम  गौतम, भरदवा्ज वाशिष्ठ, विश्वामित्र, कश्यप, अत्रि पुलस्ति आदि से  शूरू किए जाते हैं या कुछ दुसरे आचार्यों के नाम से व  कुल देवी देवताओं के नाम से जोड़े जाते हैं, 
देखा जाए सभी जाति और वर्ण में गोत्र पाए जाते हैं और हर गोत्र का नाम किसी न किसी ऋिषी के नाम पर होता है या कुलदेवता के नाम पर जिसका मतलब वंश परंपरा सै होता है जिससे संतान कुल को आगे बढ़ाने की पंरपरा जारी है, 
आजकल तो बहुत से उपनामों को भी गौत्र कहा जा रहा है देखने मे़ आया है भरदवा्ज गोत्र में सभी  चार वर्ग आते हैं क्या यह सभी ऋषि भरदवा्ज की संतानें  हैं, 
मेरा मानना है कि समस्त भारतिय एक ही कुन्बे के हैं लेकिन समय न सब कुछ बदल दिया जाति धर्म और कर्म  जिसको जो कार्य मिला वोही उसकी जाति बन गई ओर उसी के हिसाव से उसने अपना गोत्र  का नाम रख लिया, 
अन्त में यही कहुंगा गोत्र मोटे तौर पर उन लोगों के समुह को कहते हैं जिनका वंश एक मूल पुरूष पूर्वज के अटूट क्रम से जुड़ा है यहां तक की हिन्दू लोग लाखों वर्ष पहले पैदा हुए पूर्नजों के नाम से ही अपना गोत्र चला रहै हैं मेरे ख्याल मैं कोई भी कुल वंश अच्छा बुरा नहीं होता अच्छाई या बुराई इन्सान के कर्मों  से जुड़ी है  देखा जाए वोही उसके वंश की सच्ची पहचान  है वरना सभी यहां पर ऋिषि मुनि ही पैदा होते असल में वंश की पहचान मनुष्य के कर्मों से ही होनी चाहिए,  
सच कहा है, 
"डरता है रावण भाई धर्मात्मा न हो जाए, 
भाई ये चाहे कि वंश का खात्मा न हो जाए"। 
  सोचा जाए इन्सान की पहचान इन्सानियत से आंकी जाती है वंश से नहीं, 
यह भी सच है, 
कोई वंश अच्छा या बुरा नहीं होता, 
अच्छे या बुरे इन्सान ही होते हैं
वरना दैत्यवंश बाली ना होता, 
और दैत्यवंश विभीषण। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
गोत्र और जाति दोनों नाम हमारी पहचान के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। गोत्र हमें हमारे पूर्वजों से जोड़ता है, जबकि जाति हमें समाज में अलग खड़ा कर देती है। 
  अतः गौत्र को ही अपनी पहचान के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यूँ तो हमारी पहचान हमारे कर्मों के आधार पर होनी चाहिए, लेकिन पूर्वजों से अपने सम्बन्ध को स्थापित करना भी जरूरी है। तभी हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को समझ सकेंगे।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
गौत्र से आशय है कि अमुक व्यक्ति किस ऋषि के कुल से संबंधित है l गौत्र से ही व्यक्ति और वंश की पहचान होती है, जाति से नहीं l
 गौत्र ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनका वंश एक मूल पुरुष पूर्वज से अटूट रूप से जुडा हो या जिनका रक्त हमारी धमनियों में दौड़ रहा है l
 सबसे पहले गौत्र आया फिर कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तय हुई l इसके पश्चात कालांतर में जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था स्थिर हो गई l मुख्य कारण यही है कि "सभी गौत्र सभी जातियों और वर्णो में निहित है l "गौत्र विवाह संबंध और धार्मिक कार्यो में आवश्यक हैं l
 मनुस्मृति के अनुसार सात पीढ़ी बाद गौत्र का मान बदल जाता है l
   गौत्र मूल रूप से सात वंश से संबंधित है जो अपनी उतपत्ति सात ऋषियों से मानते हैं l क्रमशः अग्निहोत्री, भारद्वाज, भ्रगु, गौतम, कश्यप, वशिष्ठ, विश्वामित्रआदि l वर्तमान में हमारे देश में एक सौ पंद्रह गौत्र पाये जाते हैं l
     चलते चलते -----
1. गोत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद और प्रान्तवाद के आधार पर माँ भारती का बँटवारा इस कदर और संकुचित दृष्टिकोण से हो गया है कि -
बस्ती बस्ती भय के साये
कहाँ मुसाफिर रात बिताये l
2. गौत्र जाति को क्या देखें?
  हर मंजर में जाले पड गये हैंl
  ऐसी बयार आज चली है
  कि पीले फूल काले पड़ गये हैं ll
   ---डॉo छाया शर्मा, अजमेर
         राजस्थान
     वंश की पहचान मुख्यत जाति से की जाती है। चूंकि
हिंदू धर्म में गोत्र की संख्या मूल रूप से चार मानी गई है। जैसे अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु  और इन्हीं में अब जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य ऋषि नाम जुड़ गए हैं। जिन गोत्रों को मिलाकर गोत्र की संख्या आठ हो गई।
         जबकि जातियों को भागों में बांटा गया है जो निम्न हैं ब्राहण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यानी दलित- इनकी जातियों में गोत्र समान रूप से पाए जाते हैं. ये ऐतिहासिक वंश-परपरा का सबसे पुष्ट प्रमाण है, जो बताते हैं कि चाहे हम किसी भी जाति या वर्ण में हों लेकिन प्राचीन काल एक पिता के वंश से संबंधित रखते हैं।
       अतः वर्तमान समय में वंश की पहचान गोत्र से अधिक जाति से की जाती है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
वंश का अर्थ है कि बीते समय में हमारे वंशज कौन थे हमारी जड़ें कहाँ से प्रारम्भ हुई ।वंश के बाद गोत्र पर विचार किया जाता है क्योंकि एक ही वंश में  कई गोत्र होते हैं । एक वंश में कई पुत्र ने जन्म लिया । सबको  अलग -अलग गोत्र  का नाम मिलता है । उनकी संताने उसी गोत्र की कहलाती हैं । संस्कार तो वंश के अनुसार चलते हैं लेकिन कहीं -कहीं एक गोत्र होने से रुकावट हो जाती है  ।हम अपने नाम के आगे जो सर नाम लगाते हैं वही हमारा गोत्र होता है ।वही हमारी पहचान बन जाता है जबकि वंश परंपरा कार्य के आधार पर शुरु हुई लेकिन सत्यता कुछ और है ।मेरे विचार से इन्सान की पहचान उसके कर्म होने चाहिए न कि वंश और गोत्र ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
जहां तक मेरा विचार है इस विषय पर के गोत्र हमें अपने पूर्वजों के वंशावली का संकेत देता है गोत्र के माध्यम से मुझे यह पता चलता है की हमारे पूर्वज कौन थे और जाति का निर्माण प्रारंभ में सभ्यता के विकास के समय कर्मों के आधार पर हुआ था जितने प्रकार के समाज में कार्य थे उन कार्यों के आधार पर व्यक्ति उस जाति से संबंध बना रहा था धीरे-धीरे यह जाति जो है राज्य से संबंध जोड़ लिया जिस राज्य के रहने वाले हैं जैसे पंजाब के हैं तो पंजाबी बिहार के हैं तो बिहारी बंगाल के हैं तो बंगाली महाराष्ट्र के हैं तो मराठी यह सब कुछ जाति नहीं है यह तो क्षेत्रीय और कर्मों के आधार पर ही विभाजित किया गया है और परिभाषित किया गया है
इसलिए मेरे अनुसार हम सभी न किसी गोत्र और न जाति का ख्याल करें सभी भारतीय हैं हिंदुस्तानी हैं इस बात पर गौर करें हमारी जाति ही है भारतीय जाति राष्ट्रीयता हमारी जो है वह हमारी जाती है जितने बड़े शहरों में चले जाइए धीरे-धीरे यह भेद कम होता चला जाएगा लेकिन जितने छोटे शहर और गांव में जाइए उनकी पहचान उनकी जाति से उनके गोत्र से होने लगती है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
वंश की पहचान गोत्र से होती है। एक ही जाति में कई  वंश या गोत्र होते हैं। शादी विवाह करते समय  वंश अर्थात गोत्र का ध्यान रखा जाता है। एक ही गोत्र में संबंध नहीं किए जाते। भिन्न गोत्रों में विवाह संबंध संपन्न किया जाता है। जाति वही रहती है।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम" 
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश


" मेरी दृष्टि में " जाति से अधिक गौत्र का प्रचलन अधिक नज़र आता है । जो पहचान का प्रतीक बन गया है । मानव जाति ने ही पहचान की परम्परा को जन्म दिया है । ये सत्य है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी 

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