जीवन ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
जीवन के विभिन्न रंग हैं । जो जिस रंग में रगं जाता है । वह उसी का हो जाता है । यहीं कुछ इस संकलन की लघुकथाओं में देखा जा सकता है ।
वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. स्वर्ण किरण की स्मृति में , भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा लघुकथा उत्सव का आयोजन किया गया । जिस का विषय " जीवन " रखा गया । आयोजन में फेसबुक पर पचास से अधिक लघुकथा आई । विषय लघुकथा अच्छी थी । विषय अनुकूल लघुकथाओं का संकलन तैयार किया गया है । जो आपके सामने पेश है ।
संकलन में वरिष्ठ लघुकथाकारों के साथ नये लघुकथाकार भी है । जो श्रेष्ठ देने में सफल हुए हैं । लघुकथाओं का एक विषय होने के बाद विभिन्न रंग की लघुकथाएं देखने को मिलती है । यहीं इस संकल्प की सफलता है । बाकि तो पाठक व समीक्षक ही स्पष्ट करेंगे ।
शामिल लघुकथाकारों को बधाई ।
वोट की राजनीति
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दबंग मूँछों पर ताव दे रहे थे-" देखते हैं कैसे बैठता है घोड़े पर उमेद अहिरवार।'
गांव में दलितों के यहां शादी का अवसर था । उमेद अहिरवार शहर से पढ़कर गांव आया था। मन में हजार सपने लिये। दूल्हा बनकर घोड़े पर चढ़ना, बाजे गाजे से दुल्हन विदा कर लाना ,फिर शहर की अपनी ऑफिस की क्लर्की में रुआब से क्वार्टर में रहना। भनक पड़ी थी गांव के दबंगों को। पर दलित समुदाय भी कम ताकत नहीं रखता था ।लेकिन घोड़े पर बैठा कर दूल्हे को ले जाना दबंगों के लिए हजम होने वाली बात न थी। बारात सौ कदम ही गई होगी कि उमेद को जबरदस्ती घोड़े से उतारा गया। दो-तीन तमाचे मारे ,गाली गलौच अलग। उमेद के घर की औरतों से मारपीट तोड़फोड़ की खबरें भी आने लगी ।
लेकिन इस बार पुलिस ने दबंगों को धर दबोचा
" अरे यह क्या कर रहे हैं आप! दलित घोड़े पर चढ़े और हम ऊंची जाति के खड़े तमाशा देखते रहें?" "ऊपर से आर्डर है ।"पुलिस वालों का जवाब था।
"आप सब नशा भी किए हैं, यह भी गुनाह है।"
दूसरे पुलिस वाले ने कहा ।
"चलो यहां से प्रजातंत्र का जमाना है ।अब दलित और सवर्ण सब बराबर है।"
"अरे काहे के बराबर , सब वोट की राजनीति है ।सुना नहीं वह पुलिस वाला क्या कह रहा था कि ऊपर से आर्डर है। अगले महीने ही तो चुनाव है।"
संतोष श्रीवास्तव
भोपाल - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 02
पटरी पर जीवन
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जन्म के 15 महीने बाद भी जब उसकी फूल सी खूबसूरत बच्ची चल नहीं पाई तो मां का दिल चीत्कार कर उठा!
कोई डॉक्टर कोई चौखट ऐसी ना रही जहां सर न पटका, लेकिन नतीजा नदारद!
एक पैर में जान ना आनी थी ना आई!
अंततः उसकी परवरिश में खुद को झोंक दिया! मेधा के बल पर कॉलेज तो पहुंच गई लेकिन आत्मविश्वास पग-पग पर डगमगाता रहा! सहपाठी रोहित की प्रेरणा से जब 'कॉलेज क्वीन' चुनी गई,तो पहली बार आंखें आत्मविश्वास से दिपदिपा उठीं!
सहारे की जरा सी टेक ने मानो उसके आत्मविश्वास को पंख लगा दिए!
आज अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता के फाइनल राउंड में जाने से पहले मेकअप करवाते हुए पूछ बैठी वो रोहित से-
"रोहित! अगर मैं यह प्रतियोगिता जीत गई तो मेरा ईनाम!"
रोहित ने पॉकेट में छुपा कर रखी गई प्यारी सी अंगूठी उसकी उंगली में पहना कर कहा-
"मेरे लिए तो रैम्प पर खड़ी होकर भी जीत जाओगी तुम! यह रहा तुम्हारा तोहफा!"
आंखें भले ही अविश्वास से फैल गई मगर आंख से झड़ी अश्रु बिंदु उसके दिल का हाल कह रही थी!
कुछ क्षणों बाद ही हॉल तालियों से गूंज रहा था! हजारों आँखे उसकी ओर उठी थीं, मगर उसकी आंखें सिर्फ और सिर्फ रोहित को ढूंढ रही थीं!
- अंजू अग्रवाल 'लखनवी'
अजमेर - राजस्थान
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क्रमांक - 03
समय - चक्र
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बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी,पूरा आसमान स्याह बादलों से ढँका हुआ था।कहीं से भी रोशनी की एक किरण तक नज़र नही आ रही थी और शारदा को अपने मंजिल तक पहुँचना जरूरी था। उसी भीगे कपड़ों में उसने शीघ्रता से हाथ का सब काम समाप्त कर,घर से बाहर निकलने की सोची तो,सेठ की नज़रें उसके भीगे हुए बदन को घूरते हुए मिली।
अकेली औरत समझ नही पा रही थी कि वक्त के इस मार में अपने इन भीगे हुए कपड़ो से अपने बदन को कैसे ढ़के।उसने अपनी आँखों को ही,अपनी सुरक्षा ढाल बना लिया,तो काने सेठ को यह बात नागवार गुजरी, उसके मन में बदले की चिंगारी भड़क उठी।
सेठ का जिगरी मित्र पंडित बहुत दिनों से यह नज़ारा देख रहा था,उसने सेठ के मन को भाप लिया और...।
शारदा अभी कुछ समझ पाती कि पंडित जी ने पारिवारिक सदस्यों के बीच भविष्यवाणी कर दी।
"आप लोग इस अशुभ छाया से दूर रहा करें,इसकी छाया की वजह से ही आपका बेटा प्रतियोगिता में उत्तीर्ण नहीं हो पा रहा है।माँ-पिता के साथ ही बेटे के बुद्धि में भी शक का बवंडर उठने लगा।बेटा उसकी छाया से भी ऐसे दूर-दूर रहता, जैसे वह कोई भूत हो।
अपने प्रति ऐसा व्यवहार देखकर उसका मन चीत्कार उठता,लेकिन वक्त के मार से वह मजबूर थी।मजबूर होते हुए भी ईश्वरीय आराधना में निमग्न रहती,इसीलिए वो मन से बहुत मजबूत थी।उसे बहुत अच्छी तरह से पता था कि खुद के आंतरिक शक्ति से ही ऐसी कुरीतियों का अंत होगा,मुझे अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए रास्ता ढूँढना ही पड़ेगा,
लेकिन पारिवारिक सदस्यों की दकियानूसी मानसिकता के माहौल में भयभीत शारदा अपने कदम बार-बार पीछे खींच लेती थी, उसमें इतनी हिम्मत नही थी कि वह भीड़ को सही-गलत,शुभ-अशुभ को समझा सके।सेठ के एक इशारे पर यह दकियानूसी माहौल क्या पता कब षड़यंत्रकारी बन जाए और उसका जीवन नर्क से भी बदतर कर दे।
असीम भक्ति तो उसमें पहले से ही समाई हुई थी।उसकी साधना-रत जिंदगी स्पर्श-चिकित्सा की शिक्षा ले,एक प्रभावी गुरू बन गयी और उसने साबित करके दिखाया कि किसी का चेहरा देखने से शुभाशुभ नही होता है। बेटा तो प्रतियोगिता में नही निकल पाया,लेकिन शारदा अपनी मंजिल तक अवश्य पहुँच गयी।
जाने कितने ही लोगों का उसने स्पर्श-चिकित्सा से ऐसा उपचार किया,जो उन सबको आश्चर्य चकित कर देता,जो उसे हर बात में अपशकुन साबित करने में लगे रहते थे।उसने उस दकियानूसी भीड़ में से भी उन लोंगो इलाज किया,जो उसके घोर विरोधी थे।अब तो घर,परिवार और रिश्तेदारों में भी उसकी खूब चर्चा होने लगी।
आज वही अशुभ छाया,लोगों के लिए वरदान बन गयी थी।कोई उसे 'शारदा माँ ' बोलता तो कोई उसे गुरू माँ और उधर भविष्यवक्ता पंडित जी लकवाग्रस्त हो उपचार हेतु अस्पताल में पड़े थे और काने सेठ ने अब अपनी दूसरी आँख की रोशनी भी खो दी थी।'
प्रभु के इस बदलते समय-चक्र को देख,आश्चर्यचकित शारदा की आँखें अश्रुपूरित हो उठी और उस अदृश्य शक्ति की भक्ति में ध्यानमग्न हो पूरे आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने के राह पर चल दी।"
डाॅ. क्षमा सिसोदिया
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 04
कर्मता का कर्म
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मानव जीवन एक तपोबल है, जहाँ उतार-चढ़ाव एक श्रृंखला ही बनाती है, जो इस मानवता के घटनाक्रम से निकल गया तो वह अजय हो जाता है। इस परिदृश्य में देवेंद्र का जीवन है, जब वह कालेंज में था, तो उसके सीधे पन का फायदा उठाकर उसे अनंत समय तक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता रहा, जब वह अपने पैरों पर खड़ा होकर प्रगति के सोपानों ऐसा अग्रसर हुआ, गणमान्य जन देखतें रह गये। फिर क्या था, वही अपमानित करने वाले ही उसे अपनी ओर आकर्षित करने तत्परता के साथ जुट गये, देवेंद्र की यही कर्मता का कर्म था, जिसके बदौलत ही उंचाईयों की ओर अग्रसर हुआ था, जहाँ निरंतर सम्मान का सिलसिला जारी था।
एक दिन देवेंद्र ने अपनी लेखनी के माध्यम से ऐसा कुछ लिख दिया, जिसके कारण जनजीवन में चर्चित नाम से जाना जाने लगा, जिसकी पांडुलिपियों की नकल करते हुए शोध छात्र, शोधार्थी बन लाभांवित होने लगे। यही हैं वर्तमान जीवन का परिदृश्य?
-आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
बालाघाट - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 05
जीवन
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मां ने अपने बेटे नरेश से जो उदास बैठा था कहा! क्या बात है बेटा ? कुछ चिंतित दिखाई पड़ते हो .... कोई परेशानी है क्या?... कहते हुए प्यार से उसका सिर सहलाती हुई उसके बगल में बैठ जाती है ! मां का ममत्व से भरा हाथ और दुलार से उसमें इतनी शक्ति तो आ ही गई कि अपनी तकलीफ वह मां से कह सके !
मां कंपनी बंद होने से मेरी नौकरी चली गई .... अपने हिस्से के पैसे परिवार में दे नहीं पाता ....इसी बात पर रोज भैया कितना सुनाते हैं... रोज की चकचक झगड़े ....ऐसा नहीं है कि मैं कोशिश नहीं कर रहा हूं.... जो काम मिलता है लगन और जी तोड़ मेहनत लगाकर करता हूं कि इस समय सब ठीक हो जायेगा किंतु कोई ना कोई समस्या आही जाती है और असफलता ही हाथ लगती है!
मां ने नरेश को समझाते हुए कहा ... नरेश अपने घर कितनी गाय है?
नरेश ने कहा पाँच !
बेटा तुम आज रात जब सभी गाय बैठ जाये तब सोने जाना किंतु ध्यान रखना सभी बैठ जानी चाहिए!
नरेश एक को बैठाता है तो दूसरी खड़ी हो जाती है कुछ अपने आप बैठ जाती है! ऐसे करते करते उसे समय लग जाता है किंतु सभी गाय एक साथ नहीं बैठती और वह सो नहीं पाता ! सुबह नरेश ने मां से कहा मां एक गाय को बैठाता हूं तो दूसरी खड़ी हो जाती है! नरेश की बात सुन मां ने कहा ..... यही तुम्हारा अनुभव है और यही अनुभव तुम्हारी मुश्किलों को दूर करेगा यानी अंत करेगा!
मां ने कहा बेटा जीवन में आने वाली समस्याएं भी कुछ इसी तरह है! हम एक समस्या सुलझाते हैं तुरंत किसी दूसरे कारण से दूसरी समस्या आ जाती है जहां तक सांस चल रही है समस्याएं तो आती ही रहेंगी कभी ज्यादा तो कभी कम !
अतः इन समस्याओं के बीच और साथ रहकर जीवन का आनंद उठाना चाहिए !
मां ने बड़े प्यार से समझाया बेटा जीवन में कुछ समस्याएं
अपने आप दूर हो जाती है..... कुछ मेहनत और कठिन परिश्रम से दूर होती है... जो समस्याएं मेहनत और कोशिश के बावजूद नहीं सुलझती उसे समय के हवाले करके आगे बढ़ जाना चाहिए और वर्तमान पल को खुशी और आनंद से जीने का अंदाज सीख लेना चाहिए !
यही जीवन है!
नरेश समझ जाता है जीवन है तो समस्याएं तो रहेंगी उससे उबरकर बाहर आना ही जीवन है!
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 06
सच्चा संघर्ष
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एक दिन अपनी वीरान आँखें भावहीन चेहरे पर चिपकाए एक युवा पटरी के सामने कूदना चाहता था।
जिंदा किशोर-युवा लोग बिन सोचे-समझे अपनी जान दे रहे थे। छोटी-छोटी बातों पर जीवन की बाजी हार जाते।
कभी फेल होने का डर, कभी बिजनेस में असफलता, कभी आॅफिस में पिछड़ने का भय, कभी प्रतिस्पर्धा की अद्भुत मार, कभी असफल प्रेम। और ना जाने क्या-क्या वजहें...भूख से, विभिन्न प्रकार की बदनामी से, शर्म से भी।
छोटी, बहुत छोटी बात पर धैर्य खोकर फँदे पर झूल जाते। सायनाइड, तूतिया, कीटनाशक गटक लेते। रेल की पटरियाँ, कुएँ, हहराती नदियाँ भी उन्हें आश्रय दे रही थीं।
वह भी उन्हीं में से एक। कूदने को उद्यत कि एक फौजी ने उसे पीछे खींच लिया। एक जोरदार थप्पड़ लगाई और गरजा "मरना है?... है मरना? असली संघर्ष देखा है?"
फिर हौले से उसकी पीठ पर धौल जमाई - "50 डिग्री की गर्मी, तीखी बरसात, खून जमानेवाली ठंड और बर्फ में अपनी जान खुद हथेली पर लेकर चलनेवालों से पूछो संघर्ष क्या होता है।"
वीरान आँखें और निचुडा़ चेहरा आहिस्ते से संकल्प में ढलने लगा।
अनिता रश्मि
रांची - झारखंड
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क्रमांक - 07
जीवन
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हरीनाम एक प्रसिद्ध कबीर पंथी थे अपने काम में पारंगत भी तीन बेटी दो बेटो का पालन पोषण शिक्षा , शादी, विवाह करते करते अब उम्र अधिक हो चली थी अशक्त होने के कारण काम बन्द कर दिया था पत्नी के मरने पर वह परिवार को बोझ लगने लगे थे खाना पीना भी ठीक से नहीं हो पा रहा था बड़ा बेटा बाहर रहता था उसने घर आकर जब पिता को देखा तो साथ ले गया बहू के सेवा करने से हरीनाम जब एक दम स्वस्थ हो गये तो बेटे से कहा समय काटने के लिए एक दुकान कर ले ,मै देख लूंगा बेटे ने विचार करके घरेलू सामान की दुकान खोल ली कुछ समय में ही दुकान बहुत अच्छी चलने लगी जब यह बात छोटे बेटे को पता चली तो उसे अपनी करनी पर पछतावा हुआ अब हरीनाम का जीवन बहुत आराम से बीत रहा था दुकान पर जब खाली समय मिलता तो वह बीजक का अध्ययन करते हुए बीतता हरीनाम बहुत खुश थे वह प्रभु से प्रार्थना करते कि सभी का बुजुर्गो का जीवन खुशी से व्यतीत हो!
- डा0 प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 08
घूमने जा रहे हैं
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“आज के अखबार में भी था, कि कल किसी धार्मिक स्थल पर जाते हुए एक कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई, और चार लोग मारे गए।” एक ने कहा।
“आजकल तो हर दूसरे-तीसरे दिन इस तरह की खबरें पढ़ने-सुनने को मिल जाती हैं। पता नहीं क्या हो रहा है यह सब कुछ। पिछले कुछ वर्षों से तो बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों पर भी बड़े-बड़े हादसे होने शुरू हो गए हैं, जिनमें सैकड़ों-हजारों की संख्या में भी लोग मर जाते हैं।” दूसरे ने कहा।
“सही कह रहे हो। भगवान के नाम से ही भरोसा उठने लगा है अब तो। कलयुग है, भगवान भी भक्तों को अपने पास बुला रहा है।” एक और आवाज आई।
“कभी तुमने सोचने की कोशिश भी की है, कि ऐसा हो क्यों रहा है?” एक चौथी आवाज गूंजी।
“क्या पता? तुम बताओ?” सभी ने एक साथ कहा।
“धार्मिक स्थलों पर पहुंचना पहले इतना सुगम नहीं था। बहुत कष्ट सहन करके लोग जाते थे, इसलिए बहुत कम लोग जाते थे। उस समय भी लोग मरते थे, पर किन्हीं और कारणों से, हादसों से नहीं। पर अब लोगों को ऐसी जगहों पर सब तरह की सुख-सुविधाएं और ऐशो-आराम मिल रहा है, तो भीड़ की भीड़ वहां जा रही है। अब इतनी भीड़ और इतना तामझाम होगा, तो दुर्घटनाएं तो होंगीं ही ना। भगवान जी भी बेचारे क्या करें? पहले लोग कहते थे- ‘दर्शन करने जा रहे हैं।’ उसे सबका ध्यान रखना पड़ता था, उसकी जिम्मेदारी जो बनती थी। पर अब ऊपर वाला भी क्या करे, और क्यों करें, किस-किस का ख्याल रखे। जिसे देखो वही उठ कर चल देता है। और क्या कहता है पता है- ‘घूमने जा रहे हैं’...।”
- विजय कुमार
अम्बाला छावनी- हरियाणा
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क्रमांक - 09
समझदारी
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"ज्योति,अब तुम शिक्षिका बन गई हो। उम्र भी तेईस हो गई है अब तो तुम्हें आपत्ति नहीं है न ?"
अपने दोस्त की बातें सुन ज्योति गंभीर हो गई।
"चुप क्यों हो? कहीं मैं तुम्हें पसंद नहीं या कोई और तुम्हें पसंद है, साफ-साफ आज बता दो"राकेश ने कहा।
ज्योति और राकेश ने एक साथ ग्रेजुएशन किया था।एक साल पहले राकेश बैंक में पीओ के पद पर नियुक्त भी हो चुका था।
ज्योति की आँखों में आँसू देख राकेश से रहा नहीं गया;'ज्योति के हाथों को अपने हाथों में लेकर कहा,"क्या बात है ज्योति,तुम रो रही हो?"
ज्योति ने आँखें पोंछी और भर्राई आवाज में कहा, "राकेश! मैं तुम्हारी शुक्रगुजार हूँ।तुम्हें पाकर किसे खुशी नहीं होगी? लेकिन अपने मन की व्यथा तुम्हें कैसे बताऊँ?"
"ऐसी कौन-! सी व्यथा है जो तुम मुझे बता नहीं सकती?" राकेश ने पूछा।
"तुम तो जानते हो राकेश, मेरी किरण दीदी विधवा है। मात्र बाईस साल की उम्र में विधवा हो गई। कोई संतान भी नहीं है।"
"किरण दी जितनी सुंदर है उतनी ही अच्छे स्वभाव की" राकेश ने कहा।
"क्या दीदी की शादी नहीं होनी चाहिए? क्या समाज को कोई आपत्ति होगी?" ज्योति ने जानना चाहा।
"आपत्ति!क्यों आपत्ति होगी?"
" समाज के डर से मेरे माता- पिता राजी नहीं हुए,एक साल पहले की बात है। उन लोगों को डर है कि दीदी की शादी मेरी शादी में बाधा बनेगी।"
" बेवजह डर!"
" क्या दीदी की शादी के बाद हम दोनों शादी करें तो अच्छा नहीं होगा?"
"बिल्कुल अच्छा होगा। मेरी खुशी दुगुनी होगी",राकेश ने अपनी सहमति जताई।
- निर्मल कुमार दे
जमशेदपुर - झारखंड
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क्रमांक - 10
जाड़े के दिन
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दिसंबर-जनवरी में ठंड ज़ोरों पर थी| सभी ठंड में ठिठुरते रजाई में दुबकते बैठे मुगफली रेवरी खा रहे थे| तभी पड़ोसिन की आवाज़ आई, “धुप निकल गई आ है, जाओ सभी छत पर थोडा विटामिन डी ले लो|” सभी अपनी लोई उठाकर भागे| तभी मैं भी हरे मटर और मेथी ले जाकर उन सबके पास बैठ गई| पड़ोसिन, ”अब तो छोड़ दे काम, कुछ धुप सेक ले और हमसे बतियाले| सारा दिन काम तो पीछा ही नहीं छोड़ते, खुद ही छोड़ने पड़ते हैं|” मैं बातें करती और काम करती रही और पड़ोसिन को भांप रही थी| पड़ोसिन उनके बराबर वाले मल्होत्रा साहिब से राजनीती की बात सुन खुश होती थी, उच्ची बोल कर उनको बुलाने का उसका तरीका था| तभी पड़ोसिन ने मुझे फिर बुलाया, “ये पीछे वाले घर की नई विवाहित जोड़ी नहीं दिख रही, शायद धुप उनको पसंद नहीं|” मैने खड़े होकर देखा, “बांवली वो देख कोने में बैठे दोनों कुछ खाते विवाह की अलबम देख हरे हैं, तुम्हे सामने बैठे भी नहीं दिखे नजर टेस्ट करा|” तभी मल्होत्रा साहिब आ गये पड़ोसिन तो बिना जवाब दिए शाल सम्भालती उनसे बातों में लग गई| मेरे पति भी आ गये अपना मोबाईल लेकर बोले, “तूं क्या लोगों के घरों में झाती मारती रहती है| बैठ नीचे, संसारिक नारी को शोभा नहीं देता, बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा|” उनकी बक-बक सुन अपनी सब्जी में लग ठंड को क्रोध की अग्नि से बुझती रही|
–रेखा मोहन
पंजाब
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क्रमांक - 11
जीवन - मृत्यु
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छोटी-सी उम्र में नरेश ने अपने पिताजी को खो दिया। माँ वैसे भी भाईयों के एहसानों तले दबी सी चुप हो गईं थीं। दस महीने से पति के कैंसर के चलते बडे़ शहर में भाईयों के दरवाजे पर दिन काट रहीं थी। आज उनके पैतृक गांव में १३वीं की तैयारियाँ चल रहीं थीं। बडे़ भैया आते-जाते हिसाब गिना जाते - - - राधा--आज शहर से २०००रु का आलू प्याज बुलवाया है तुम्हारी देवरानी को पैसे दे देना। पंडित जी को १००१ देना है। भई हमारी तो ड्यूटी है शाम को ही निकल जाएँगे देर रात तक पहुँच जाएँगे। और हाँ माँ मौसी बुआ को छोड़े जा रहे हैं तुम्हारा जी लगा रहेगा।
"ठीक है कहते कहते राधा सकुचा रही थी कि माँ मौसी और बुआ 70पार इन तीन बूढ़े रिश्तों को सँभालने की हिम्मत और हैसियत मुझमें नहीं है भैया हम दोनों माँ बेटा तो एक समय खाकर भी दिन गुजार लेंगें" - - - - मन ही मन बुदबुदा कर चुप रह गई। पिछले दस महीने से कैंसर पेशेंट पति की सेवा से अतिशय थका कृश शरीर और कल के बाद घर में राशन दूध सब्जी भाजी की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगने वाले पैसों के जुगाड़ की चिंता से व्यथित क्लांत तन-मन से तेरहवीं की रस्में निभाती राधा जीवन के गुजरे पलों के साथ साथ आनेवाले क्षणों की उधेडबुन में मृत्यु के शाश्वत सत्य---तथाकथित मुक्ति और जीवन के अनुबंधों से बंँधी प्रतिदन की तथाकथित मुक्ति की छलना को सोचने पर मजबूर थी--16 वर्ष का नरेश सोच रहा था--कल से शुरु होने वाली परीक्षा के लिए हाॅल टिकट भी तो लाना है।
- हेमलता मिश्र मानवी
नागपुर - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 12
जिस तन लागे वो ही तन जाने
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कोरोना काल के समय में मेरी एक परिचित मेरे घर मुझे मिलने आई और हम कुछ दूरी पर बैठ कर बातें कर ही रहे थे तो अचानक ही वह बात करते हुए रो पड़ी। मैंने उसे ऐसा करते देख आश्चर्य से उससे पूछा, तनीषा क्या हुआ है? तुम तो अच्छी भली बात कर रही थी ये अचानक क्या याद आ गया तुम्हें। बीमार हो क्या? बच्चे, पति ठीक हैं सब ? अपने को संभालो और मुझे कह डालो जो समस्या तुम्हें रोने को मजबूर कर रही है। उसको चुप होने में थोड़ा समय तो लगा लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोली दीदी किसी को मत बताना। मैं रोना नहीं चाहती थी बहुत रोका भी। मगर रोक नही पाई। दीदी मेरा पति बीस बाईस दिन से काम पर नहीं गया है उसको कोशिश के बावजूद काम नहीं मिल रहा है। मैं मेरी बेटी तो बिना खाए रह लेती हैं। रात को एक समय खाना बनाती हूं। पति भी कुछ नहीं कहता। बेटी कभी मुझसे कुछ मीठा खाने के लिए नहीं कहती। मेरा चार साल का बेटा मुझे बहुत तंग करता है रोज़ाना कुछ मीठा खाने के लिए पैसे की मांग करता था। फिर एक दिन पड़ोसी के घर गया तो उनके पालतू कुत्तों के बाउल में केक पड़ा देख लिया उसने। मैने कहा फिर क्या है केक देख लिया तो। बात यही नहीं है दीदी, उसने फिर से रोते हुए कहना शुरू किया, " दीदी उसने उनके पालतू कुत्ते के गले की जंजीर उतारी और अपने गले में डालने की कोशिश कर रहा था तो उतने में मैं वहां पहुंच गई तो घबरा कर भाग गया।" इतना कहते वो तो चुप हो गई मगर मैं पूरा दिन उदास ही रही।
- डॉक्टर कुसुम डोगरा
पठानकोट - पंजाब
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क्रमांक - 13
बहु बेटा
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बेटे ने घर शिफ्ट करने के लिये बुलाया था।तीसरी बार है ,जब अमेरिका आना हुआ ।दोनो बच्चो के होने में भी मै घर व पतिदेव को छोड़कर आती वो आते और मुझे छोड़कर चले जाते ।
बहु अच्छी है मुझे बहुत सम्मान देती है जापे के लिये दोनो बार उसने मुझे बहुत सी सौगात देकर विदा किया ये अक्सर मजाक उड़ाते ,"बच्चे अपने मतलब के लिये तुम्हे बुला लेते है वैसे तो नही कहते कि यंहाँ आकर रहो हम सेवा करेंगे" !मै हंस कर टाल देती "अरे अपने ही तो बच्चे है हम से नही कहेंगें तो किससे कहेंगें अभी तो हमारे ही हाथ पैर चल रहे है ।जब जरूरत होगी तो क्यो नही करेंगे सेवा.."........l
ये हंसकर रह जाते मै भी हंसकर टाल देती थी ।
रोज सुबह टहलने जाती आकर बहु बेटे का लंच बनाती तब तक चारो उठ जाते !दोनो पोते दादी दादी करते आगे पीछे घूमते मुझे पूरा संसार कदमों तले नज़र आता और क्या चाहिये !
आज भी सुबह घूमने जा रही थी । एक दो दिन में शिफ्ट होना था, काफी पुराना समान निकाल कर बाहर रख दिया जाता था ।
मेरे हिसाब से तो वह सब नया था पर बहु बेटे की गृहस्थी में बोलना ठीक न लगता बड़ी ललक से निहारती !अरे इसमें से कितना समान घर में काम करने वाली सुमति को दे देती तो वही निहाल हो जाती पर कैसे कहूं।कल दोनो मियां बीबी ने फाइनल सामान बाहर निकाला!
वहां पर समान निर्धारित जगह रख दिया जाता है जरूरत मन्द ले जाते है यंहा तो जरा सा कबाड़ भी बचा कर कबाड़ी का इंतजार करते है
मेरी आंँख आखिर चली ही गई जंहा समान रखा था ,मैने जाकर थोड़ा फदरौला तो जैसे कुठारपात हुआ मुझ पर मैं उन्हे उठाने का लोभ संवहरण नही कर पाई ,भरे दिल से उनकी लिखी कुछ किताबे मेरे सास-सुर और हमारी पुरानी तस्वीरे उस समान में बेतरतीब पड़ी थी।चुपचाप लाकर अपनी अटैची में रख ली और लेट गई ।बेटा बहु उठे तो रसोई में कुछ बना न देखकर बहु बोली अरे आज तो मां ने कुछ भी नही बनाया ।दोनो बहु बेटा मेरे कमरे में आये अरे मां क्या हुआ तुम्हे बेटे ने पूछा मेरा उतरा हुआ चेहरा देख कर बहु बोली तबियत ठीक नही लगती है तो चलिये मां दवा दिलवा दें मैने कहा नही तुम्हारे बाबु जी की तबियत ठीक नही है मेरा टिकट करवा दो जितनी जल्दी हो सके ...........।
- अपर्णा गुप्ता
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 14
निर्णय
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"क्यों?क्या हुआ? आखिर,जो तुमने इस
तरह से घर छोड़ने का मन बना लिया।"
"कुछ नहीं,बस यूं ही मन में आया कि रुके
हुए प्रवाह जैसा हो गया है जीवन। सबकुछ
उबाऊ। एक अजीब सी चुप्पी,पास और साथ रहकर भी अजनबीपन का एहसास। बस इसी
रुकावट को हटाकर,जीवन को गतिमान
करने के लिए ही यह निर्णय लिया है।"
"ठीक है भाई,जैसा तुम उचित समझो। लेकिन
एक बार यह भी विचार कर लेना कि शाख से अलग हुआ फूल मुरझा जाता है।"
"सही कहा रहे हो,पर धान का पौधा दूसरी
जगह रोपाई के बाद ही फलता फूलता है।"
"बात तो तुम्हारी भी ग़लत नहीं। यही तो
जीवन है।"
- डॉ.अनिल शर्मा'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 15
तलाश
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"क्या कर रहा है यहाँ ?"बंद सीलन भरी उस गली में बूढ़े को देख वो चिल्लाया।
"अपनी बेटी की ओढ़नी ढूँढ रहा हूँ।"बूढ़े ने आँखें और गड़ा दीं।
"यहाँ क्यों?"
" वो कह रही है इसी गली में खोई है ।"
"फिर मिली ?"
"अब तक तो नहीं।सुना है तार-तार कर दी।"
"तू भी पागल है ,खोई हुई चीज भी मिलती है कभी।अच्छा बता बेटी यहाँ भेजी ही क्यों थी तूने ?"
"भूख से लड़ने।"
"कौन थे वो ? पता चला कुछ ?"
"हाँ चल गया पता।"
"कौन ! उसने राजदराना अंदाज में पूछा।
"थे इंसानियत के दुश्मन।"
"किसी ने देखा तो होगा ये सब।"
" नहीं ।सब मुर्दा थे।"
"फिर अब क्या ढूँढ रहा है ?टुकड़े हो चुकी होगी।"
"अब इंसानियत ढूँढ रहा हूँ।"
"हा हा हा !अब उसका क्या करेगा?"
"दूसरी बेटी की ओढ़नी बचाऊंगा।पर तू यहाँ क्या कर रहा है ?"
"मैं भी बरसों से वही तलाश रहा हूँ।चल मिल कर ढूँढते हैं।
- डॉ. उपमा शर्मा
दिल्ली
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क्रमांक - 16
सदा सुहागन
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पिछले दो वर्षों के भीतर ही रामलाल जी का स्वास्थ्य बिगड़ते हुए आज ऐसी दशा हो गई है कि लगभग दो महीने से बिस्तर से उठना भी संभव नहीं हो रहा है।
उनकी पत्नी शकुंतला देवी ही उनकी पूरी देखभाल कर रही हैं। आज जब रामलाल जी को नहलाकर और तैयार करके बिस्तर पर लिटाया तब उनकी आँखों से आँसुओं के बूँद ढुलक गए।
शकुंतला देवी से अपने पति की ये बेबसी देखी नहीं जा रही। उन आसुओं को देखकर उनका मन और भी व्यग्र हो उठा और तब मन में बस यही खयाल आया कि 'मेरे बाद न जाने इनकी क्या दशा होगी?'
आँखों में आँसू लिए ईश्वर के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं। जीवन भर अपने लिए सदा सुहागन का वरदान माँगने वाली शकुंतला देवी आज बस यही प्रार्थना कर रही हैं --
" हे ईश्वर! मेरे जीते जी ही मेरे पति को अपनी शरण में ले लो।"
- रूणा रश्मि "दीप्त"
राँची - झारखंड
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क्रमांक - 17
उधार नहीं अपितु अपना
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जीवन चक्र कब समाप्त हो जाय यह किसी को नहीं मालूम! कब इसमें पदार्पण करना है? कब विलुप्त हो जाना है? यह किसी को नहीं मालूम। फिर भी सब एक दूसरे पर छींटाकशी करने से नहीं घबराते।
अच्छे कर्म करने मात्र से ही पुण्य प्राप्त होता है, जिसने इसको अपनाया वह ही शॉंति से जीवन छोड़ पाया। एक बिल्ली जो छत पर पैदा हुई, परन्तु अपने कर्मों की वजह से शान से गद्दों पर जीवन बिताया। घर में सबका स्नेह पाया और इस जीवन यात्रा को सुखद बनाया।
आज़ इमली की बेटी पिंकू मात्र छः महीने की अपनी जीवन यात्रा पूरी कर विश्राम की अवस्था में लेट गई और सबकी जुबान पर बस एक ही बात छोड़ गई कि यह जीवन कोई उधार का नहीं अपितु अपना है!
- नूतन गर्ग
दिल्ली
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क्रमांक - 18
आत्मतृप्ति
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आज मंगली अपने खेतों में लहलहाते गेहूं की लहलहाती फसल और दानों से भरी बालियां देख खुशी से फुले नहीं समा रही थी.
आखिरकार हमारी मेहनत हमारे सामने है...
मंगली और रामदीन ने बड़ी मेहनत की थी, इन मजदूरी करने वाले हाथों से मेहनत कर, अपने खेत में उगे कण-कण सोने को देख आत्म संतुष्टि महसूस कर रही थी...
परदेश से लौटकर फिर वापस न जाने के फैसले से अपने गांव,अपनी मिट्टी मे ही रहकर मेहनत करने की ठानी थी.
मेहनत तो हम परदेश मे भी करते थे पर जो खुशी आज महसुस हो रही है उसकी बात ही अलग है
अपने आप से बात करती मंगली अब कटाई करने के लिए खेत की ओर चल दी...
अब धूप भी काफी तेज निकलती है उसने अपने साथ खाना और पानी की छोटी मटकी साथ ले आई थी ... पास ही एक घने पेड़ की छाया तले रख अपने काम पर लग गई...
बालियां पक कर झनझना रही थी और कटाई करते करते उसकी मीठी आवाज मे अपनी सुध बुध खोई मंगली को किसी के आवाज से ध्यान भंग हो आया...
मंगली!ओ मंगली!....
मंगली का पति रामदीन भी गेहूं की दौनी करने वाली मशीन लेकर आ चुका था...
अरे तुमने तो आधे से ज्यादा फसल काट कर रख दी है....
हां ,पर अब मुझे बड़ी प्यास लग आई है ,मुझे तो ध्यान ही नही रहा भूख और प्यास की ...
हां,हां ले पानी का मटका...
मटके को अपने हाथों मे ले ,उसके शीतल जल से अपने चेहरे पर पानी के छींटे मारकर ,जी भर कर पानी पीया...
उसकी आत्मा तृप्त हो गई थी.
जीवन के इस सच्चे सुख को पाकर उसका चेहरा दमक रहा था.
- सपना चन्द्रा
भागलपुर - बिहार
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क्रमांक - 19
ग्रामीण जीवन
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वर्षों पहले मनोहरलाल जी सरकारी नौकरी मिलने के कारण शहर आ गये थे। परन्तु गाँव में पले-बसे मनोहरलाल का मन कभी भी शहर में नहीं लगा। सेवानिवृत्ति के बाद जब वह गाँव की मधुर यादें हृदय में समेटे पुन: गाँव जाकर बस गये तो कुछ दिनों के बाद ही उन्हें मालूम हो गया कि अभी भी गाँवों में सुविधाओं का अभाव है। इन अभावों के कारण ही गाँव का युवा पलायन कर गया है।
एक दिन वे, गाँव के कुछ बुजुर्गो के पास जाकर बोले कि "आज भी ग्रामीण जीवन कठिन ही क्यों है?" एक बुजुर्ग ने उसका हाथ पकड़कर धीरे से कहा, "यह एक कड़वी सच्चाई है....कि गाँव का आदमी अब गाँव के लिए मेहमान जैसा हो गया है। बुजुर्ग ने कहा" मनोहर! स्वयं से प्रश्न करो कि..... तुम गाँव में पैदा हुए, परन्तु यहीं शिक्षा पाकर जब किसी योग्य हुए तो शहर जाकर बस गये। गाँव के होने के बावजूद भी क्या तुम्हें 'गाँव का जीवन' प्यारा है?
मनोहरलाल निरुत्तर हो गये!!
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखंड
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क्रमांक - 20
कफन
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गली न. 2 दो मंजिला आलीशान फ्लैट जीवन के जीवन में रंग ही रंग भरे थे. सब कुछ समयानुकूल था अचानक एक दुर्घटना में डैड-मम इहलोक से रूसखत हो चले थे. जीवन को डैड मम ऐसे गुम उन्हें जीवन के हाथों दो गज कफन तक नसीब न हो सकी. जीवन ढूंढा़ मगर कैरोना की क्लोरिन निगल गई. जीवन का जीवन अब जहर बनने के साथ ज़िन्दगी अस्त व्यस्त सी हो गई थी. निरन्तर संघर्ष कर जीवन ने जीवन संवारा 60वे बसंत देख पाता अचानक सफर पे निकला था लिए ऩई सवारी अंतिम सवारी बन गई. अपने पीछे वह दोहरा गया पुन: वही दुर्दशा भरी जिन्दगी नये जीवन बास्ते अपनी वेबा बीबी के आंचल में नव जीवन छोड़ जाने किस मोड़ पे बिन कफ़न ओढ़े चिरकाल तक चिर नींदरी में डूबा हुआ भोर की लाल रश्मि किरणें बन.
- योगेन्द्र प्रसाद अनिल
औरंगाबाद - बिहार
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क्रमांक - 21
जीने की सलाह
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- पापा! आज फिर मम्मी ने दादी से झगड़ा कर लिया है. पता है दादी बहुत रो रही थीं. उनके सीने में बहुत दर्द हो रहा है. आप जल्दी से घर आ जाइये.
फोन पर युवा बेटी ने पिता को सूचना दी.
- दरवाजे पर टैक्सी रोककर सुरेश ने जल्दी-जल्दी अपनी बुजुर्ग मां को घबराई हुई बेटी की मदद से सहारा देकर टैक्सी में लिटाया और घूरकर बीवी की ओर देखते हुए साथ चलने का संकेत किया और विवश होकर बोले-
- तुमने ऐसा क्यों किया सुषमा? क्या होगा अब? कितनी बार समझाया भी है तुम्हें, समझ नहीं पाती तुम, जाने कब समझ आएगी तुम्हें?
मगरमच्छ के आंसू बहाती हुई वह मास्क लगाए निः शब्द बनावटी रोने का उपक्रम करते हुए गाड़ी में बैठ गई.
गाड़ी पार्क कर के ,मां को स्ट्रेचर पर लिटा कर सुरेश पत्नी के कुछ करीब आकर अपनी बोली में शहद लपेट कर धीरे से फुसफुसाए-
- तुम्हें पता है ना! मेरा वेतन कितना कम है, मां की पेंशन से ही घर के सारे खर्चे चलते हैं, फिर तुम ऐसी गलती हरदम क्यों करती हो, मां का जिंदा रहना हम सबके लिये कितना जरूरी है? उनसे ही तो जीवन की सारी रौनक है.हजारों बार समझाया है.ध्यान रखा करो।
तभी अंदर से नर्स ने आकर खबर दी
- आपकी माताजी अब खतरे से बाहर हैं.आप शाम को उन्हें रिलीव कराकर घर ले जा सकते हैं।
विद्रूप-मुस्कान के साथ पति का हाथ पकड़ कर सुषमा हौले से बोली- अबसे मैं मां का खूब ध्यान रखूंगी.
जीवन तो चलाना ही होगा।
- डा. अंजु लता सिंह 'प्रियम'
दिल्ली
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क्रमांक - 22
जीवन
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राकेश की आंखों से बहते आंसुओं को लाख समझाने व कोशिश के बावजूद भी पत्नी और बच्चा रोक नहीं पाए। आज रक्षाबंधन पर किसी से राखी नहीं बंधवाई।
स्वस्थ थे मध्यमवर्गीय थे, तब दूसरे राज्य से बहन की राखी किसी पैसे वाले रिश्तेदार के घर आती और भागे दौड़े जाकर ले आते सामर्थ्य से ज्यादा उपहार भेजते । पैसे वाले भाई बहन से बात तक नहीं करते थे पत्नी ने कई बार ननंद से कहा की राखी हमारे घर भेजिए, पर नहीं।
आज राकेश कुछ अर्से से लकवाग्रस्त बिस्तर पर है पर उनका पुत्र यथासंभव उपहार भेजता और पिछले वर्ष तक भी राखी रिश्तेदारों के यहां आई ।
इस बार रिश्तेदार यूरोप घूमने गए हुए थे ।दो दिन पूर्व ननंद का फोन आया और भाभी से कहा वो लोग तो यूरोप गए हुए हैं और अब तो दो दिन में राखी भी नहीं पहुंचेगी। भाभी अवाक रह गई , फिर भी कहा मैं पता भेज देती हूं ।राखी ऋषि पंचमी पर बांध लेंगे । आप रक्षाबंधन पर इनसे वीडियो कॉल पर बात कर लेना बड़े बेमन से ननंद नें हां कहा।
काम में व्यस्त भाभी उस दिन पता भेजना भूल गई और अब फिर राखी आनेवाली है बहन नें कभी भाई से बात नहीं की। भाभी का फ़ोन तक नहीं उठाया ।
आज फिर राखी है ।बहन की राखी नहीं आई पता चला पैसे वाले भाई के घर बहन राखी बंधवाने गई है तो राकेश की आंखें बरबस ही छलक पड़ी।
नम आंखों से पत्नी के कंधे पर सर रख बेटे का हाथ पकड़कर कहा । यही जीवन की सच्चाई है
"अनमोल रिश्तों का मोल, चंद टुकड़ों का तोल"
"जब तक जेब में हैं मोल सारे रिश्ते अनमोल"।
- डॉ.संगीता शर्मा
हैदराबाद - तेलंगाना
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क्रमांक - 23
जीवन और ये चार लोग
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ट्रिन -ट्रिन ।
राहुल :माँ किसी का फोन है ।ओ,हो....इस वक्त भी चैन नहीं न जाने इस जीवन में चैन की साँस भी है या नहीं ।
राहुल:माँ इतनी झुंझलाती क्यों हो ?क्या बात है ? नहीं बेटा ,कुछ नहीं बस यूँ ही ।राधा दूध गर्म करने गई थी वो वहीं भूल गई और खो गई पुरानी स्मृतियों में ।
जब उसकी शादी के लिए रिश्ते आते थे ।कितने सपने और जीवन से उम्मीदें...।
और हो गई एक दिन शादी ।वही जिंदगी का ताना-बाना और उधेड़बुन ।एक अर्सा बीत गया ,सपने .....?
लेखन ,पेंटिंग आदि कलाओं में निपुण फिर भी पति और ससुराल वालों के लिए एक बाई और राधा में कोई अन्तर नहीं ।आखिर निर्वाह उसी को करना था नहीं तो चार लोग क्या कहेंगें ,तुम निभी नहीं ससुराल में ?उसकी सारी डिग्रियाँ फीस की रसीद मात्र रह गईं ।
उसके सपने ,उसका जीवन और ये चार लोग ?
- कल्पना शर्मा
गुना - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 24
यही हाल
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माँ माँ देखो यह फूल का पौधा इतनी जल्दी सूख गया' बबलू दौड़ा दौड़ा अपनी माता राजेश्वरी के पास आता है और अपनी बात तीव्रता से कहता है, उसके कहने के तरीके से उसके अन्तर्भाव झलक रहे थे, एसा लग रहा था कि पौधे के सूखने से बबलू चिंता में पड़ गया है और वह नहीं चाहता था कि उसके आंगन में लगा कोई भी पौधा सूखे।
माँ राजेश्वरी ने जब देखा कि वास्तव में पौधा सूख गया था। कुछ दिन पहले यह पौधा बबलू ने ही अन्य पौधों से अलग दूसरे स्थान पर रख दिया था.अन्य सभी पौधे जो एक साथ रखे थे, सभी हरे भरे थे लेकिन उस अकेले पौधे की नमी झट खत्म हो जाती थी और वह सूखने लग गया था। माँ ने बबलू से कहा बेटा आप इस पौधे के गमले को सभी पौधों के गमलों के साथ साथ रख दो, यह सूखने से बच जायेगा। बबलू बड़ी हैरानी से माँ से प्रश्न करता है--'माँ एसा क्यों? दूर दूर रखे पौधे क्यों सूखने लग जाते हैं? '
राजेश्वरी बबलू को प्यार से समझाती हुईं कहती है कि बेटा इतनी गर्मी में दूर दूर रखे पौधों की नमी जल्दी खत्म हो जाती है जबकि पास पास इकट्ठे रखे पौधों में नमी बनी रहती है, यही कारण है कि वह जल्दी नही सूखते। जिस प्रकार परिवार के सभी सदस्य मिल जुल कर इकट्ठे रहते हैं, एक दूसरे का सहारा बने रहते हैं, जीवन सुख और खुशहाली में कटता है। अलग अलग रह कर और दूर दूर रहकर एक दूसरे के प्रति प्यार, स्नेह खत्म हो जाता है, जीवन नीरस हो जाता है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता। केवल उदासीनता ही बढ़ती है। यही हाल हमारी प्रकृति का भी होता है।
- शीला सिंह
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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क्रमांक - 25
जीवन के पत्ते
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शाम का समय था। परिवार के सभी सदस्य चाय पी रहेथे। तभी अचानक पिता बोल पड़े,
"कल रात मेरी तबियत काफी खराब हो गई थी। डर लगने लगा था। इसलिए एक भगवान का फोटो उस कमरे में लगा दो।"
"आप और मम्मी एक ही कमरे में रहें, न! रात मम्मी की भी तबियत बिगड़ गई थी। वो तो मैं थी।" बेटी ने सूचित किया।
"मैं उस कमरे में आराम से रहता हूँ। साथ रहने या न रहने से ज्यादा फ़र्क नहीं पड़ता।" पिता ने मुस्कुराते हुए कहा।
माँ का चेहरा गम्भीर हो गया। माँ-बेटी ने एक दूसरे को देखा और चुप हो गईं। पिता की विजय मुस्कान किसी से छिपी नहीं थी।
रात के खाने की टेबल पर मनपसंद खाना देख कर बेटी चहक उठी, "मम्मा, ये सब कब बना लिया? आज तो खाने में मजा आ गया।"
"बेटे, 30 साल से इसी काम के बदले सारा कुछ मिलता आया है। पसंद का ख्याल तो रखना होगा न।"
वचन की गंभीरता को सोचने की बारी पिता की थी।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
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क्रमांक - 26
जिंदगी
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नदी के तेज बहाव में सिक्के उछाले जा रहे थे और छोटे छोटे अर्धनग्न बच्चे तलहटी में जाकर पैसे बटोर रहे थे। सामने ही दीपू खड़ा था।भिखारी बच्चों के साथ पला बढ़ा,अनाथ बच्चा दीपू।
उसने पूछा- " दीपू ! तुम भी तो बड़े तैराक हो । रोज ही तुम्हें देखता हूं फिर तुम क्यों नहीं पैसे बटोरते।"
दीपू ने अजीब सी नजरों से उसे देखा और कहा - "ऐसे फेंके हुए पैसे मैं नहीं बटोरता।
दीपू ऐसा कहकर नदी में छलांग लगा देता है ।और तेज बहाव में कहीं गुम हो जाता है ।आधे घंटे के बाद वह लौटता है और बदन को सुखाकर बारह वर्षीय दीपू काम पर चल देता है। वह होटल में सफाई आदि का काम करता है। बारह बजे से उसका स्कूल शुरू हो जाता है। शाम को पांच बजे आकर पुनः होटल में काम पर लग जाता है।
आज वर्षों बाद वह उस जगह लौटा है।
कहां होगा दीपू ?क्यों मेरे मन मस्तिष्क में वह छाया हुआ है। क्या वह स्वाभिमानी लड़का किसी काम पर लगा होगा।
उसी दुकान में जाकर पूछता हूं जो बिल्कुल बदल चुकी है ।कहां होगा दीपू? काउंटर पर बैठा लड़का बोलता है " दीपू? कौन दीपू ... मैं नहीं जानता शायद बापू जानता होगा।"
"बापू कहां है?" मैंने पूछा।
"नहीं रहा ।"
"ओह...."
दीपू का साथी मुझे पहचानती सी नजरों से देख कर बोला-" किसे ढूंढ रहे हैं साहब? दीपू को ।आइए ले चलता हूं।" मैं डर गया कहीं अपाहिजों का सरदार तो बना नहीं बैठा था जो भीख मंगवाते हैं । अनेक तरह तरह के विचारों से मेरा मन उद्वेलित हो उठा ।लेकिन जहां वह मुझे ले गया वह एक मल्टी स्टोरी कंपनी थी ।यहां पर उच्च पद पर बैठा दीपू उसे देख कर खड़ा हो गया।
उसके स्वाभिमान को तो बचपन में ही पहचान गया था वह। लेकिन, उसने अपने जीवन को एक नया मोड़ दिया था। हतप्रभ हो उठा वह। ह्रदय गदगद हो गया।
- प्रमिला वर्मा
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क्रमांक - 27
आशा की किरण
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अचानक फोन की घण्टी बजी।
उसने हड़बड़ा कर फोन उठाया
हेलो आप अभी हॉस्पिटल आ जाएँ रेखा जी।किसी ने कहा।
हाँ मैं अभी आती हूँ।और कुछ भी कहने सुनने की हिम्मत नहीं थी उसमें सो तुरंत फोन काट दिया। क्या हुआ होगा? सोचते ही उसके हाथ पैर ठंडे होने लगे। बुरी आशंका से मन काँपने लगा।
उसे झट पर्स उठाया और हॉस्पिटल के लिए निकल गई।
उसे कुछ सुध -बुध नहीं रहा। प्रदीप ठीक तो होगा न?
प्रदीप उसका पति पिछले दस महीने से हॉस्पिटल में है। आँखों के सामने फिर से वो घटना आ गई जब उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ था।
कुछ तो रात का अंधेरा और कुछ सफर की थकान प्रदीप को शायद झपकी आ गई और गाड़ी सामने खड़े एक ट्रक से टकरा गई थी। दोनों कुछ समझ पाते तबतक सब कुछ बदल गया। दोनों बेहोश हो गए। रेखा को जब होश आया तो दोनों हॉस्पिटल में थे।
उसे तो थोड़ी बहुत चोट आई लेकिन प्रदीप बुरी तरह घायल हो गया था। उसके सर में काफी चोट आई थी और उसे होश भी नहीं आया था।
फिर तो जैसे उनकी दुनिया ही बदल गई। प्रदीप कोमा में चला गया और आज दस महीने से इसी हाल में पड़ा है।
रेखा की जिंदगी बस घर और हॉस्पिटल के बीच घूम रही है। हर दिन वह उसमें कुछ तब्दीली की उम्मीद लेकर जाती। घण्टों उसके पास बैठती,उसे सहलाती, उससे अपनी सारी बातें कहती। उसे लगता कि वह सुन रहा है और किसी दिन उसकी बात सुनकर उठ बैठेगा। लेकिन प्रदीप की तबियत में कोई सुधार नहीं था ।अब तो डॉक्टर्स भी निराश होने लगे थे।
सोचते सोचते वह हॉस्पिटल पहुँच गई और दौड़ती हुई प्रदीप के कमरे की ओर भागी तो देखा कमरे का दरवाजा खुला है और अंदर उसके डॉक्टर और नर्स सभी खड़े हैं।
वह बदहवास सी कभी डॉक्टर को कभी प्रदीप को देखने लगी।
तभी डॉक्टर ने कहा आप आ गईं आपके लिए एक खुशखबरी है।
आज प्रदीप के शरीर में कुछ हरकत हुई। उसने अपने आंख भी खोले। हो सकता है उसकी स्थिति में सुधार हो और वह जल्द ही कोमा से पूरी तरह बाहर आ जाए।
वैसे अभी पूरा टेस्ट करना होगा। लेकिन यह एक अच्छी साइन है।
रेखा अवाक,जैसे कुछ न देख पा रही है न सुन। एकदम पत्थर सी हो गई वह।
रेखा जी सुन रही हैं न आप। डॉक्टर ने कहा तो वह जैसे होश में आई।
हाँ सब सुन रही हूँ डॉक्टर साहब। मैं तो कुछ और ही सोच बैठी थी। आपने तो मेरा जीवन वापस दे दिया।
और उसकी आंखों से अनवरत आँसू बहने लगे।
- मधुलिका सिन्हा
कोलकाता - पं. बंगाल
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क्रमांक - 28
भूखी-भूख
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गाड़ी का हार्न बजते ही सभी अपने-अपने खाली बर्तन उठाए दौड़ पड़े खाना जुटाने को। अचानक एक छोटा बच्चा गाड़ी के आगे आते आते बचा । गाड़ी वाला नीचे उतरा और उस बच्चे को जोर - जोर से डांटने लगा।
" अभी गाड़ी के नीचे आ जाते ! इतनी क्या जल्दी है? सारा कचरा यहीं खाली होगा , चुनते रहना इस में से खाना बैठकर सारा दिन मरमरा जाते तो मेरी मुसीबत हो जाती"
" सेठ जी मैं तो समझता हूँ परन्तु यह पेट की भूख को बहुत ज्यादा भूखी लगी है। कल आपकी छुट्टी थी तो इसको भी खाना नहीं मिला। यह बहुत भूखी भूख है सेठ जी !
- ज्योति वधवा "रंजना"
बीकानेर - राजस्थान
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क्रमांक - 29
जीवन के इर्द गिर्द
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मोबाइल की गैलरी में इकट्ठी, फोटो को हटाते हुए उसकी नज़र एक फोटो पर जा टिकी । इतने सारे व्हाट्सएप ग्रुप का कचरा न चाहते हुए भी दिलों दिमाग़ पर असर छोड़ ही देता है ।
झटपट वो सारे ग्रुप के मैसेज खंगालने लगी , उसे इस फोटो के है से, थे हो जाने का कारण समझ में आया । माथे पर हाथ धरे बस एक ही प्रार्थना कर रही थी, हे भगवान इसके परिवार को दुःख सहने की शक्ति देना ।
बरबस मन पुरानी यादों के घेरे में जा पहुँचा कि कभी वो भी इसकी जिंदगी बनना चाहती थी, पर पापा अपनी जिद पर अड़ गए थे कि चाहें कुछ हो जाए इसके साथ अपनी बेटी का रिश्ता नहीं होने दूँगा । झूठ बोलने वाले से उन्हें बहुत नफ़रत थी पर विनीत तो झूठ का पुलिंदा था । यही झूठ दिनों दिन उसे सबसे दूर कर रहा था ।
सुना था कि बाद में वो सही राह पर चल पड़ा और अपने परिवार के साथ खुशहाल जिंदगी व्यतीत कर रहा है। पर इस बार वो सदा के लिए सबसे दूर चला गया था, काश ये झूठ होता ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 30
उसका घर
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"बाप रे ...!! पूरा घर का सामान इकट्ठा कर रखा है गायत्री ने...!!"
पति की मृत्यु के बाद तेरहवीं वाले दिन सारे समाज, देवरानियां, ननद सबके सामने कमरे की सफाई में पलंग के नीचे से एक के बाद एक सामान निकलता जा रहा था– चकला, बेलन, स्टील के बर्तन, चाय की केटली, कप, तकिया, चद्दर, परदे, शो पीस जिसे ड्राइंगरूम की टेबल पर रखना था, तस्वीरें जो दीवालों पर सजाने के लिए खरीदी गईं थी।
बचपन से ही गुड़ियों का घर सजाते सजाते गायत्री के मन में बस एक ही सपना बस गया था अपना घर सजाने का। संयुक्त परिवार में ब्याही गायत्री ने पहली रात अपने पति से भी कहा था 'बस मुझे मेरा अपना घर चाहिए।"
संयुक्त परिवार की बड़ी बहू गायत्री देवरों के विवाह के बाद से उन्हें अपना कमरा देते देते आज एक छोटे से कमरे में अपने सपनों के घर की बिखरती हुई ईंटो के बीच चुपचाप खड़ी थी जोकि अब केवल सपना बन कर रह गया था।
- कनक हरलालका
धूबरी - असम
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क्रमांक - 31
बोझ
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"यह कैसा हुलिया बना लिया है गोविन्द प्रसाद तुमने!पहले तो बहुत ही अपटूडेट रहते थे। फिजिकल फिटनेस के लिए जिम भी जाते थे और कुछ ही दिनों में यह हालत बना ली है। आखिर बात क्या है!"
"कोई खास बात नहीं है यार।बस अब जीवन में कोई उत्साह नहीं है।अब कुछ करने धरने की तमन्ना नहीं रही। चारों ओर से उदासी और निराशाओं ने घेर लिया है।शायद इसीलिए तुम्हें मेरा चेहरा देखकर ऐसा लग रहा होगा।"
"लेकिन यार,तुम तो बड़े ही आशावादी रहे हो और तुम ही सभी को उत्साह के साथ जीवन जीने का पाठ पढ़ाया करते थे और अब तुम ही इतनी निराशाभरी बातें कर रहे हो।"
"यार,जब तक परिवार साथ में हैं,तबतक जीवन में उत्साह है, उमंग है। मैंने तो नहीं चाहा था कि सुलभा से तलाक हो और बेटी उसके पास रहे। लेकिन उसने अपना अहं छोड़ा नहीं और अपने कैरियर की खातिर अलग रहने का फैसला भी ले लिया।अब मेरे लिए तो जीवन बोझ से अधिक कुछ रह भी नहीं गया है न!"
- डा प्रदीप उपाध्याय
देवास - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 32
जीवन यात्रा
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विचारों में गुमसुम माधुरी को मालकिन की कर्कश आवाज सुनाई दी "ऐसा बर्तन मांजती हो?कपड़े भी साफ नहीं धुले हैं?औरतों के भी काम तुम्हें नहीं आते क्या?"
माधुरी"आंटी जी,दो दिनों से मेरी तबीयत ठीक नहीं है। बुखार है।मैं फिर से सभी काम कर देती हूँ। "
मालकिन"तबीयत ठीक नहीं तो आयी क्यों?तुम सभी बहाने बनाने में उस्ताद होती हो।चल निकल यहाँ से, फिर कभी यहाँ नहीं आना।"
अपंग पति को दवा देने का समय हो गया था।सोचती हुई घर के लिए वह निकल पड़ी। अब उसे दूसरा काम भी तलाशना होगा।एक माह पूर्व ही उसकी शादी राजमिस्त्री से हुई थी। एक दुर्घटना में उसकी दोनों टांगे जाती रही।
माधुरी गरीब थी।परिस्थिति ने उसे लाचार, बेबस बना दिया था।पर उसने हिम्मत नहीं हारी थी।घर पहुंचते ही उसे उसका पति रोता हुआ दिखा।
बोला"मैं भी कितना अभागा हूँ। मुझे तुम्हें खुश रखना चाहिए तो मैंने तुम्हें दुखों का पहाड़ दे दिया।ऐसे जीवन से तो मौत भली।"
माधुरी ने उसे संभाला और कहा"दुख सुख जीवन यात्रा का हिस्सा है। हमारे भी अच्छे दिन आयेंगे, पर हमें हिम्मत बनाये रखना है। जीवन से कायर लोग हारकर भागते हैं। हम लड़ेंगे और जीतेंगे।बस तुम मेरे साथ रहो।"
माधुरी को एक डाक्टर के यहाँ काम मिला डाक्टर सज्जन पुरुष थे।उन्होंने पति की टांग देखी और कहा कि इन्हें नकली पैर लगवाया जा सकता है। मैंने स्वयंसेवी संस्था से बात कर ली है।अब तुम्हारे पति तुम्हारे साथ अपनी जीवन यात्रा कर सकेंगे।
- डाॅ•मधुकर राव लारोकर 'मधुर '
नागपुर - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 33
अक्स
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अधपके खिचड़ी बाल,बेतरतीब दाढ़ी, आँखों में दो विपरीत भाव लिए बूढ़े रामेश्वर प्रसाद ना जाने कब से आईने के सामने खड़े थे। उनकी एक आँख में चिंगारी और दूसरी आँख में बेबसी , हाथों की बंद मुठ्ठियाँ भी प्रहार और" बंद मुठ्ठी लाख की " वाला भाव दिखा रही थी कानों में हाँ दोनों कानों मे अलग अलग ध्वनियाँ गूँज रहीं थी । एक कान में दामाद सुधीर की आवाज सीसे सी पिघल रही थी। पिताजी आप आ कर अपनी लाड़ली को समझा दो कि जब तक मेरी पदोन्नति उच्च अधिकारी के पद पर नहीं होती तब तक यह भी अपने स्कूल में पदोन्नति स्वीकार नहीं करेगी। अपनी शिक्षा का घमंड यहाँ नहीं चलेगा। जिद कर के बैठी है। नहीं तो...!
दूसरे कान में नेहा की खिलखिलाती आवाज ,"पापा मुझे प्रिंसिपल बना रहे हैं"। आप की बेटी प्रिंसिपल बन रही है।
पर रामेश्वर तो उस "नहीं तो" ...सुनकर स्तब्ध थे । अकेला ,बूढ़ा और रिश्तों के वारों से त्रस्त दुनिया की सच्चाई को जानता था। कैसे करेगा और क्या समझाए, किस का हाथ थामे?नेहा के घर जाने को निकला ही था कि नेहा का फोन आ गया।" पापा मैं ठीक हूँ ।आप मत आईये। वो तरल आवाज उसका कलेजा चीर गई थी।
वहाँ का दृश्य आईने में अक्स बना रहा था। खरगोश सी दुबकी, नन्हीं गौरेया सी सबके बीच पंख समेटे निर्लिप्त खड़ी नेहा। अपने पंखों को समेटने को फिर से तैयार थी।
समाप्त।
- ड़ा .नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
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क्रमांक - 34
आत्मबोध
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हर रोज की तरह आज भी पापा ने, जोर से आवाज लगाई- सोनू ओ सोनू।
जी पापा- कहता हुआ सोनू हाजिर।
आज तुम्हारी नौकरी का पहला दिन और तुम अभी तककक-
जी पापा- मैं बस निकल हीं रहा हूँ , कहते हुए सोनू ने रामप्रवेश जी के पैर छू कर बाहर निकल गया।
अन्दर से पत्नी टिफिन लिए अरे - आपने फिर कुछ बोला क्या?
बिना टिफिन लिए बेटा चला गया, पति पर खींजते हुए।
आपको सेना से रिटायर हुए तीन वर्ष हो गए लेकिन आपकी समय वाली घड़ी, आज भी मिनटों की पाबन्दी पर हीं टिकी रहती है।
पाँच मिनट में ऐसा क्या प्रलय आ जाता।
तुम को तो मैंने कितनी बार समय की अहमियत समझाई है , अब और क्या बोलूॅ।
अपने जीवन में जो कभी मैं समय का पाबंद ना रहा । जबकि मेरे पिताजी भी बराबर मुझे चेताया करते थे, लेकिन उस समय मैंने भी नासमझी में इस पर कभी ध्यान ना दिया।
इसी कारण मैं अपने आइ:एस: के इंटरव्यू में ना चाहते हुए भी दस मिनट की देरी से पहुँचा और जिसके कारण मैंने इतना सुनहरा अवसर खो दिया। जब से आज तक जीवन में मेरा एक हीं लक्ष्य रहा है कि हर व्यक्ति को समय का ज्ञान निरन्तर देता रहूॅ।
मेरे साथ जो हुआ भविष्य में ऐसा किसी के साथ ना हो।
समय रहते चेतना आवश्यक है।
अच्छा -अब बस भी करो सोचना और दुखी होना।
दिन में रोटी या चावल खाना है।
फिलहाल तो एक कप चाय पिला दो।
खाने में जो मर्जी खिला देना।
पत्नी मुस्कुराते हुए चाय बनाने चली गई।
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
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क्रमांक - 35
जीवन की कटुता
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भाई साहब कह रहे थे-",क्या बात है,आजकल कुछ याद नहीं रहता..बात करते-करते भूल जाता हूं.....किसी को बहुत दिनों बाद देखता हूं या मिलता हूं तो पहचानने में मुश्किल होती है।"
मैने उन्हें समझाया कि ऐसा थकान या बेवजह तनाव के कारण होता है।साथ ही वह बात जो दिल पर घाव या चुभन नहीं छोड जाती,हमारी याददाश्त से बाहर हो जाती है।
भाई साहब उम्र मे मुझसे काफी बडे है।76 वर्ष पार कर चुके है लेकिन मुझसे मित्र वत व्यवहार करते है।
मैंने कहा-"सुबह शाम दूध के साथ बादाम लिजिए.... याददाशत के लिये फायदेमंद होगा।"
भाई साहब दार्शनिक अंदाज मे हंसे,फिर बोले,-"दूध बादाम से कुछ नहीं होने वाला।मैं तो यह सोच रहा था कि ईंसान की पूरी याददाश्त ही खो जाये तो कितना अच्छा हो....जिन्दगी की सारी कटुता इस याददाश्त की वजह से ही तो है"।
- महेश राजा
महासमुंद - छत्तीसगढ़
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क्रमांक - 36
जंग
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जैसे ही गेट खोल कर संध्या अंदर आई तो बरामदे में बैठी सास ने चहकते हुए पूछा…..”हो गया त्यागपत्र मंजूर?”
“ हाँ मम्मी!
“ चलो अब मेरी तरह बच्चे को पालने के साथ घर- बार देखो, आखिर इस नौकरी में इतना मिलता भी क्या था?”
“ आप गलत समझ रही हो मम्मी! त्यागपत्र नौकरी से दिया है अपनी रुचियों और सपनों से नहीं। नाम मेरा संध्या अवश्य है पर अभी मेरे जीवन की दूसरी महत्वपूर्ण आशा भरी सुबह हुई है।”
“ अरे सुबह-शाम तो ऐसे ही होती रह जाती हैं।”
“तब तो आपने मुझे पहचाना ही नहीं, आपने तो अपनी रुचियों पर जंग लगा कर सब गुड़-गोबर कर लिया पर मैं ऐसा करने वाली नहीं। बच्चे के लिए नौकरी छोड़ी है, देखना इसे अपने ढंग से बड़ा करते हुए अपने सपनों का आकाश अपनी रुचियों के रंग से रंगते हुए इतना विस्तृत करूँगी कि चारों ओर इंद्रधनुष ही खिलते दिखाई देंगे”……कहते हुए संध्या ने अपने आठ माह के बेटे को गोद में उठाया और घर के अंदर चली गई।
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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क्रमांक - 37
जय जवान
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"अरी सखी राधा ! , कैसे सरहद से कश्मीर में पाक आतंकियों की घुसपैठ हो रही है । "
"हाँ सलमा , यही आतंकी कभी मॉर्टर से गोलियाँ बरसाते हैं ।तो कभी भीड़ वाले बाजार में ग्रेनेड फेंक कर निर्दोष जनता को अपना शिकार मनाते हैं । जीवन जी लते हैं। कितनी मासूम जानें चली गयी हैं और कितने घायल , अपाहिज होते हैं । मानव आज मानव के खून का प्यासा हो गया है , मानवता रो रही है ।"
तभी उस भीड़ में से आवाज आयी , पकड़ो - पकड़ो , आतंकी उस नदी की ओर भागा है ।
"कितना शर्मनाक , निंदनीय है । "
"आज तक कोई पकड़ में नहीं आया है ।"
"हाँ , जयचंद तो हर जमाने में हैं ।"
"इनको शरण देने वाले तो अपने ही लोग जो होते हैं।"
" हाँ , हमारी सांप्रदायिकता , जातीयता , प्रांतीयता, राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गयी है ।"
" ऐसा नहीं है , हमारा देश विविध जाति , संप्रदायों , भाषा भाषी , धर्म का महकता गुलदस्ता है । जब सीमा पर कोई युद्ध होता है । तो पूरे भारवासी एक हो के वीर जवानों की सलामती की दुआ , प्रार्थना करते है । जिनके दम से भारत माँ सुरक्षित है। इन जवानों के लिए सारा भारत परिवार है। "
" हा , भारत माँ की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं ।अरे ! देख , उस नदी की ओर। लगता है लोगों की सहायता और सेना की चाक चौबंद से उसे पकड़ लिया है ।"
" अरे , वाह ! कितनी निर्दोष जानें अब बच
जाएँगी । "
तभी खुशी से दोनों सहेलियाँ ने जोर की आवाज में हाथ उठाकर जय जवान , जय भारत माता का नारा लगाके जश्न मनाने में लग गयी ।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 38
वसुधा की जीवन रेखा
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"अरे! सुना तुमने? वसुधा वेंटिलेटर पर है…" मंगल के मुख से सुनकर शनि हतप्रभ था।
पूरे सौर-मंडल में हड़कंप मची हुई थी। सभी ग्रह चिंतित थे कि वसुधा की जीवन-लीला समाप्त हो गयी तो उसके बच्चों का क्या होगा? सभी बेमौत मारे जाएँगे।
शुक्र जिसका रंग लाल था, गुस्से से और अधिक लाल होता हुआ बरस पड़ा,
" उसके बच्चों ने ही तो उसकी यह हालत कर डाली है। अब भुगतें! अच्छा हुआ कि हम जीवनरहित हैं वर्ना हमारा भी वही हाल होता जो आज वसुधा का है।"
" अरे! ऐसा न कहो। हमारे सौर-मंडल में एक वसुधा ही तो है जो कितनी खूबसूरत है। जहाँ पे जीवन है, हरियाली है। जल है, वायु है, खुशियाँ हैं। हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि वह जल्दी से ठीक हो जाए। ", जुपिटर भी इस आनलाइन कान्फ्रेंस में शामिल हो गया था।
तभी सभी के मोबाइल पर एक मेसेज फ्लैश हुआ…
'वृक्षों से बनी दवाइयाँ और आक्सीजन चढ़ाने से वसुधा की जीवन-रेखा की वक्रता रफ्तार पकड़ने लगी है…'।
" थैंक गाॅड! अब पृथ्वी पर जंगलों की अनिवार्यता मनुष्यों को समझ आ गयी होगी"... सूर्य ने भी चैन की साँस ली।
- गीता चौबे गूँज
राँची झारखंड
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क्रमांक - 39
सहेली
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लता अपनी सिलाई मशीन की सफाई करते हुए बीते दिनों की यादों में पहुंच गई ।
उसे वो दिन आज भी कभी नहीं भूलता , जिस दिन पापा ने मेरी दिली ख्वाहिश को पूरा किया था
"उस दिन मेरी सोलहवीं वर्षगांठ थी मैं सुबह से ही खुश थी ।"
पापा ने सिलाई मशीन का तोहफा जो बड़े ही प्यार से लाकर मुझे दिया था, ताकी में अपने कपड़े सिलने के शौक को पूरा कर सकूं ।
अठारह की होते होते पिता को मेरी शादी की चिंता सताने लगी लेकिन गरीबी और ऊपर से पाँच बेटियां ।
" आदमी की जिंदगी में गुरबत भी बहुत बुरी चीज है ।
"पापा बहुत दुःखी थे , यह दहेज रुपी दानव मेरे रिश्ते में रुकावटें डाल रहा था ।
बहुत कोशिश की पापा ने , लेकिन बिना दहेज लिए कोई शादी के लिए तैयार नहीं हुआ ।
"थक-हारकर कर पापा ने मेरा रिश्ता एक ऐसे व्यक्ति से कर दिया जिसकी बीवी मर गई थी और एक बेटा भी था । "
"मेरे पास शायद इस रिश्ते को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था ।"
"मेरे बाद मेरी चार बहनें ब्याह के लिए कतार में जो खड़ी थी ।"
"उनकी तरफ देख कर मन मार कर विवाह वेदिका पर बैठ गई । "
"विदा के समय अपनी प्रिय सखी को अपने साथ ससुराल ले आई ।"
ससुराल आने पर पता चला पति शराब में डूबा रहता है, कोई काम काज भी नहीं करता ।
"वह तो अपने बच्चे की भी परवा नहीं करता था , मेरी परवाह भी उसने कभी नहीं की , कभी ये तक नहीं पूछा की तुमने खाना खाया कि नहीं , पति का प्यार क्या होता है कभी जाना ही नहीं ?
"हर समय शराब के गिलास में ही डूबा हुआ देखा ।"
बच्चे की दर्दनाक देखकर मैंने एक निर्णय लिया कि मैं बस इसी बच्चे को पालूंगी , अपना बच्चा पैदा ही नहीं करुंगी ताकि मेरी ममता का बंटवारा ना हो ।
मेरी इस बात का सांस पति किसी ने भी विरोध नहीं किया ।
घर काफी बड़ा था मैंने एक कमरे को सिलाई स्कूल में तब्दील कर दिया ।
मोहल्ले की लड़कियों ने मुझसे सिलाई सीखनी शुरु कर दी मेरी ठीक ठाक आमदनी होने लगी ।
"अब मुझे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता था ।"
" मुंई निगोड़ी , यह शराब कब किसी की सगी हुई जो मेरी होती ।"
शराब ने आखिर अपना रंग दिखा दिया कैंसर से जूझ कर पति ने आखिर विदा ले ली । रह गए हम माँ बेटा ।
"बेटा भी अब जवान हो चला था ।"
एक अच्छी सी लड़की देख विवाह कर दिया । बहू के मामले मैं सोभाग्यशाली निकली मेरी बहू लाखों में एक है ।
वंदना जब कमरे आई माँ जी अपनी सखि से बातें कर रही थी ।
माँ जी ! आपकी सखी से बात हो गई हो तो खाना खा लीजिए ।
"लता वर्तमान में लौट आई और मुस्कुरा पड़ी ।"
वंदना ! चार दशक बीत गए सिलाई मशीन के साथ
यही मेरी सखी सहेली मेरी पालनहार है ।
लता ने सिलाई मशीन को कपड़े से साफ कर सहेज कर अलमारी में रख दिया ।
क्लास का टाइम जो हो रहा था
लता ने कदम डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ा दिए
- अर्विना गहलोत
प्रयागराज - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 40
दिमाग
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पैंतिस साल पार के सचिन को मैरिज ब्यूरो वाले ने जब एक अमीर मानसिक विकलांग वाली लड़की का रिश्ता बताया तो उसने झट से हाँ कह दी और मन ही मन दहेज में मिलने वाले रूपए को निवेश करने की योजनाएँ बनाने लगा ।शादी के कुछ समय तक तो बहुत खुश रहा लेकिन अब पत्नी की मानसिक अपंगता अखरने लगी ।वह हर रोज उससे गाली-गलौज करने लगा और ताने देने लगा । उसको इस तरह परेशान देख दोस्त सुमित से रहा नही गया और वह सचिन से बोला," शादी से पहले तुम्ही ने कहा था ना कि औरतों में दिमाग होता ही कहाँ है तो आज जब भाभीजी दिमाग का ठीक से उपयोग नही कर पाती तो इतनी चिढ और नाराजगी कैसी ? सुमित की बात सुन सचिन मन ही मन अपनी सोच पर खीझ उठा और बोला कहना एक अलग बात है और निभाना अलग।हाँ यार , कह सुमित अपनी पत्नी के बारे में सोचने लगा क्योंकि उसे बहुत से काम पत्नी के दिमाग अनुसार करने पड़ते थे । वह सोचने लगा सब अपना अपना जीवन चाहते तो अपने तरीके से जीना है जो मिल जाए उसमें खामियाँ ढूँढते है ।
- नीलम नारंग
हिसार - हरियाणा
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क्रमांक - 41
जीवन की गाड़ी
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सबकुछ अच्छा ही तो चल रहा ता जीवन में उसके आने से पहले।जिस दिन से वो आए हैं अपने मुहल्ले में मानो ग्रहण सा लग गया है।दरअसल शोभन के आने से पहले मुहल्ले में कई बातें होती थी पर सब आपस में ही निपट जाया करती थी।अभी एक साल भी नहीं हुआ है उसे आए हुए और तमाम लोग परेशान हो गए है उसके बर्ताव से।
आज भी ऐसा ही हुआ कचड़ा डालने की बात थी मात्र जो बात करके सुलझ जाती पर वो कहां सुनने वाले हैं।कर आए शिकायत नगर निगम और थाने में अब शर्मा जी परेशान हैं।कहते हैं जीवन दुश्वार कर दिया है इस शोभन ने जब से आया है इस मुहल्ले में।भगवान ही बचाए इस इंसान से तो।इससे उलझ कर अपना जीवन थोड़ा ही नर्क बनाना है।
जीवन की गाड़ी मिलजुल कर ही चला करती है।
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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क्रमांक - 42
बेटा नहीं बेटी
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"दादाजी दादाजी आप भी मुझे पावनी पोता कहकर बुलाइए ना सिमरन के दादाजी उसको सिमरन पोता कह कर बुलाते हैं सिमरन को बहुत अच्छा लगता है, वह कहती है कि लड़के और लड़की में उसके घर में कोई फर्क नहीं होता है ।"
पावनी कि बातें सुनकर लता मुस्कुरा दी।
पावनी की बातों को सुन दादा जी बोले,"देखो बुआ आई है उससे पूछो उसको हम कभी बेटा बोले हैं?"
पावनी लता से पूछने आई और लता के ना कहने पर ठूनकते हुए बोली दादा जी "बुआ तो बहुत बड़ी है आप हमें पोता कहिए ना।" उसको ठूनकते देख लता को बचपन याद आ गया। आज तक पापा ने अपने जीवन में कभी भूल कर भी बेटा नहीं कहा। हमेशा बेटी और बेटी की तारीफ । उस वक्त मन में एक मलाल था। खैर पापा के मना करने पर पावनी रूठ गई मुँह फुलाकर दादाजी के कमरे में बैठ गई।
दादाजी पावनी को समझाने लगे "तुम्हारा भाई कभी नहीं कहता कि हमें पोती कह कर बुलाओ फिर तुम क्यों कहती हो कि हमें पोता कहकर बुलाइये ?"
इस पर पावनी कहती है कि "पवन तो लड़का है ।
दादाजी उससे कहते हैं "तो क्या हुआ तुम भी तो लड़की हो तुम्हें क्यों दूसरे कि पहचान चाहिए। तुम जो हो खुद में पूर्ण हो। तुम कह रही थी कि सिमरन के दादाजी कहते हैं कि बेटा बेटी में फर्क नहीं फिर अपने पोते को पोती क्यों नहीं बोलते जब पोते को पोती बोलने में शर्म आती है तो पोती को पोता बोलने में कैसा गर्व ? जिस दिन सिमरन के दादा जी अपने पोते को पोती बोलने लगेंगे मैं भी तुम्हें पोता बोलूंगा।" पावनी को शायद ही दादाजी की गूढ़ बातें समझ में आई होंगी पर वह इस इंतजार में खुश हो गए कि कभी तो सिमरन के दादाजी अपने पोते को पोती कहेंगे।
- मिनाक्षी कुमारी
पटना - बिहार
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क्रमांक - 43
वो चेहरा
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सुधीर शादी के पंडाल में दूर बैठे बुजुर्ग के चेहरे को निहार रहा था।चेहरा जाना पहचाना लग रहा था लेकिन उसे याद नहीं आ रहा था।सभी यार-दोस्तों को हाय-हैलो करते समय भी उसका ध्यान उस चेहरे पर ही था।सबसे मिलकर वह बुजुर्ग से थोड़ी दूर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर दिमाग पर जोर डालने लगा।
अचानक कुर्सी से उठा और मुँह से निकला--ओ---यह तो त्रिपाठी सर हैं,हमारे स्कूल के गणित अध्यापक। लेकिन वो दहकते चेहरा,बोलती आँखें--'जो मुझे सपने में भी उत्साहित करती थीं और अब झुरियों भरा चेहरा,और शून्य में ताकती नि:स्तेज़ आँखें। अरे यार! सुधीर कहाँ खो गए? सभी खाने के लिए तेरा इंतजार कर रहे हैं।सुरेश ने सुधीर को कहा।सुरेश! वो त्रिपाठी सर है न?हां,बिल्कुल वही हैं।मैंने अपनी शादी का कार्ड खुद जाकर दिया था और आने का आग्रह भी किया था।सुधीर तुम सोच रहे होंगे, सर एक दम ऐसे कैसे हो गए। मेरे यार! इस जीवन का अगले पल का कुछ पता नहीं।सर के इकलौते होनहार बेटे की मृत्य एक कार दुर्घटना में हो गई। पत्नी बेटे के गम में ही छ:महीने बाद चल बसी।लेकिन सर ने हिम्मत नहीं हारी।घर को बेटे के नाम पर विद्या का मंदिर बना दिया। सभी जरूरतमंद विद्यार्थियों को फ्री में गणित की कोचिंग देते हैं।अपनी पैंशन से बचे पैसों को अनाथालय दे आते हैं।सर ने अपना जीवन समाज को समर्पित कर दिया है।सुरेश ने एक सांस में त्रिपाठी सर की व्यथा सुना दी।सुधीर ने कहा,सुरेश खाना बाद में खाते हैं,पहले मंदिर के देवता की चरणधूलि माथे को लगा लूँ,कहकर सुधीर त्रिपाठी सर की कुर्सी की ओर चल पड़ा।
- कैलाश ठाकुर
नंगल -पंजाब
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क्रमांक - 44
मृत पिता
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"मां तुम आराम से खाना खाकर सो जाओ " पापा ठीक हैं । यहीं मैं उनके पास बैठी हुई हूं , डॉक्टर ने इंजेक्शन दिया है जिसकी वजह से उन्हें नींद आ गई है ।
" तू सच कह रही है बेटी, उस समय उनकी हालत तो बहुत नाजुक थी "
हां मां , पापा ठीक हैं सुबह छुट्टी मिल जाएगी तब अपनी आंखों से देख लेना ।
आंसुओ का वेग रोकती हुई वह हंस पड़ी थी ।
मां को सुकून था कि अब सुची के पिता ठीक हैं और वह खाना खा कर सो गईं ।
लेकिन सुची अपने पिता के मृत शरीर को लेकर हॉस्पिटल के बाहर गाड़ी में बैठी थी । जीवन समाप्त हो चुका था , मां सारी रात आंसू ना बहाए ये सोचकर रात भर गाड़ी में ही रहने का फैसला लिया ।
और उसकी मां पति के आने के इंतजार में पलकें बिछाए बैठी थीं ।
और सुची मृत पिता के साथ अपने जीवन के कड़वे अनुभव ले रही थी ।
- मंजू सागर
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 45
जीने की तैयारी
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"पापा आपसे कुछ नहीं बनता है ! दवा भी नहीं पी पा रहे हैं ! और चम्मच में भरी सारी दवा ही फैला दी ! ऐसा कैसे चलेगा?" जवान बेटे ने बिस्तर पर लेटे, सत्तर वर्षीय रिटायर्ड बाप को डंपटते हुए कहा!
"हां बेटा दिक्कत तो है !" बुदबुदाते हुए पिता बोले!
"लगता है कि धीरे-धीरे पापा की याददाश्त जा रही है !" धीरे से बेटे ने अपनी पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए कहा!
पर यह बेटे का भ्रम था! पिता को गुज़रे वक़्त के सारे वाकया याद थे ! वे बेटे के बचपन के दिनों में पहुंच गए !बेटा अब नन्हें बालक के रूप में उनके सामने था,और तीन पहिये की साइकिल चलाने की कोशिश कर रहा था!
"पापा-पापा,मुझसे नहीं बनेगी यह साइकिल चलाते! मैं तो बार-बार गिर जाता हूँ!" बेटे ने तुतलाते हुए कहा!
"नहीं बेटा, ज़रूर बनेगी !क्यों नहीं बनेगी ?अरे मेरा स्ट्रोंग बेटा सब कुछ कर सकता है! मेरा बेटा, न केवल एक दिन साइकिल के साथ मोटर साइकिल,कार चलाएगा, बल्कि-बल्कि-बल्कि बड़ा होकर मेरा भी सहारा बनेगा!"
यादों की परतें खुलते ही पिता की आंखें भर आईं! वे जीवन की हक़ीक़त समझकर वर्तमान में वापस लौट आए,और हिम्मत जुटाकर ख़ुद का सहारा ख़ुद बनने की तैयारी करने लगे!वे जीवन को नए ढंग से जीने की तैयारी करने लगे।
-प्रो.शरद नारायण खरे
मंडला - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 46
जीवन : ताजमहल
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"तुम क्या कर रही हो?"
"साड़ी के मिलान का शॉल ढूँढ़ रही हूँ..,"
"लाओ मैं मिलाकर ढूँढ़ देता हूँ। तुम दूसरा काम देख लो।"
"क्या कर रही हो, खाना बन गया?"
"भुजिया बनाना बाकी है,"
"मैं देख लेता हूँ, तबतक तुम तैयार हो जाओ।"
तभी एक तीखी गूँज "जोरू का गुलाम हो गया है।"
"हाँ! आपने सही कहा। सेवा निवृति के बाद तो पता चला कि मैं कितना ऋणी होता रहा। बच्चों को सोये में देखा। माता-पिता मुझे श्रवण पूत कहते रहे। लेकिन मैं उनके लिए कभी कुछ नहीं किया । सारी जिम्मेदारियों में जोरू को जोते रखा।"
"अब तू घर में बैठा रहता है और वो तेरी..."
"समाजिक ऋण उतारना अपने जीवन का धर्म बना रही है।"
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
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क्रमांक - 47
दीनू काका की गाड़ी
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शहर से दूर बसी बस्ती है। सभी को दीनू काका की सायकल गाड़ी का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता है। पूरी गाड़ी घरेलू वस्तुओं से खचाखच भरी रहती है। छन्नी, पाइप, झाड़ू, काँच कंघे, खिलौने वगैरह। जो चीज़ माँगो हाज़िर। बस्तीवालों का काका से एक रिश्ता ही बन गया है। उधारी खाता भी चलाते हैं। जो माल नहीं होता उसका आर्डर नोट कर लेते हैं। और अगली बार लाना नहीं भूलते। दीनू काका के जीवन की गाड़ी खींच रही इस गाड़ी में बस्ती के लोगों का घर संसार समाया है।
" अरे सुनीता ! कुछ पता चला, काका क्यों नहीं आ रहे हैं। तीन महीने होने को आए हैं। "
" राजी भुआ ! सुना है उनके पैर की हड्डी टूट गई है। "
तभी काका की टनन टनन घण्टी सुना दी, " ले लो हर माल सस्ते में, बाज़ार के भाव में। "
बस्ती वाले उन्हें घेर कर हालचाल पूछने लगे, " अरे आप पहले बैठो, चाय शाय पियो फ़िर धंधा करो। "
मदनु ने कान में अलग ले जाकर पूछा, " काका पैसे की ज़रूरत हो तो बोलना, शर्म नहीं करना हाँ। "
इतने में बच्चों की टोली आ गई। बेट बॉल, हॉकी, बर्थडे गिफ्ट आदि की फरमाइशें होने लगी।
काका झट से चॉकलेट निकाल बाटने लगे।
मुन्नू चिल्ला पड़ा, " वॉव ! अब काका हमारी खास चीज़ भी रखने लगे।
- सरला मेहता
इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 48
जीवन की चक्की
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जीवन एक चक्की है और इंसान इस चक्की में जीवन भर पीस कर दुनियादारी निभाता जाता है।मालती का अंग अंग चीख कर कह रहे थे... थोड़ा हमें आराम करने दो ।लेकिन वह बिस्तर नहीं छोड़ेगी तो गृहस्थी के कार्य कैसे संपन्न होंगे ।उसने उठने की कोशिश की, लेकिन किसी ने हौले से उसे फिर सुला दिया ।यह थी उसकी प्यारी बिटिया रानी ,"माँ आज तुम आराम करोगी। उठोगी भी तो जरूरी कार्यो के लिए ही।"
"तेरी दोनों चाची कुड़ कुड़ करेंगी ।"...वह बोली ।
"नहीं करेंगी। आज मैं सारा नाश्ता बनाऊँगी और तुम्हारा नाश्ता तुम्हें यही लाकर दूँगी।और दोनो चाची दिन का खाना बनाएंगी। रात का खाना मैं कॉलेज से आकर फिर बना दूँगी।"
मालती की नेह भरी अंखियाँ बेटी के लिए आशीर्वाद की बरसात करने लगी।...' कितनी सयानी हो गई है मेरी बेटी।'
तभी बाहर कुछ हल्ला सुनकर दोनों माँ बेटी कमरे से बाहर आई।... देखा ससुर जी परेशान बैठे हुए हैं और दोनों देवर जोर जोर से बोल रहे हैं," परिवार के खर्चे में सभी को एक समान योगदान देना होगा। हम भी बाल बच्चेदार हैं, फिर भी अपने हिस्से का पैसा दे रहे हैं। भैया को भी देना होगा।"
" मैं कैसे दूँ ? मैं रिटायर हो गया हूँ। प्राइवेट कंपनी में तो पेंशन की भी कोई व्यवस्था नहीं है। थोड़े पैसे बैंक में है ।उसे मैंने अपनी बेटी की शादी के लिए संयो कर रखा है।"... उसके पति बेचारगी के साथ बोले।
" घर के खर्चे के लिए आपको अपने हिस्से का पैसा देना ही होगा। पैसा सिर्फ़ हम दोनों भाई ही क्यों दें ? हमारे भी तो खर्चे हैं ।"
"हम अपने हिस्से का पैसा जरूर देंगे ।"
सब लोग चौंक कर उस ओर देखने लगे .... यह मालती की लाडली बिटिया मुस्कुराते हुए बोल रही थी। वह अपने कमरे में गई और अपना पर्स लेकर आयी। पर्स में से पैसे निकालकर दादा जी के हाथों में रख दिया और बोली," अब हर महीने हम अपने हिस्से का पैसा देंगे। मैंने एक कोचिंग इन्स्टीट्यूट ज्वाइन कर लिया है। कॉलेज करने के बाद उसमें सीनियर बच्चों को पढ़ाऊँगी।"
मालती और उसके पति का दिल गौरान्वित हो उठा ,साथ भाव- बिभोर भी, उनकी प्यारी बिटिया जीवन की चक्की में पीसने के लिए तैयार थी।
- रंजना वर्मा उन्मुक्त
रांची - झारखंड
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क्रमांक - 49
जीवन जीने के तरीके
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रागिनी-तुम हमेशा मेरे दुश्मन से ही क्यों बात करती हो?
सब मुझे पसंद नहीं है तुम आज के आज मेरा मकान खाली कर दो।
रागिनी ने अपने मकान मालकिन को कोई उत्तर नहीं दिया।
चिंता की मुद्रा में अपने कमरे में ऊपर चली गई।
किराए के घर में रहती हैं महारानी के भाव तो देखो कमला देवी (मकान मालकिन) बड़बड़ा रही थी।
रामलाल कुछ देर में घर आया मकान मालकिन बढ़ बर्ड आ रही थी कि तुम लोग आज के आज मकान छोड़ दो।
ऐसा क्या हुआ चाची जी?
जाकर अपनी बीवी से पूछो ?
रागिनी ऐसा क्या हुआ मकान मालकिन बड़बड़ा रही थी तुमने उनसे झगड़ा किया।
नहीं वह जो कोने वाला घर है वह तो तुम्हें पता ही है कि हमारे गांव की गीता का घर है और वह मेरे से बात करती है इसीलिए इन को बुरा लग रहा है उसे अपना दुश्मन कहते हैं उसकी सास इनकी नहीं पटती इसमें मैं क्या करूं? चलो जी दूसरा घर ढूंढो।
ठीक है मेरे दोस्त का घर खाली है मैं उसी में शिफ्ट हो जाता हूं और जो भी किराया होगा उसे दे दूंगा।
ठीक है गाड़ी मंगाओ चलते हैं ।
रागिनी सोच रही थी कि मुझे सास ससुर के घर में क्या कमी थी रोज की खिच खिच के कारण मैं यहां आई और यहां भी किच किच मेरा पीछा नहीं छूट रही थी वह बच्चों के साथ सामान पैक कर रही रही थी तभी गाड़ी आ गई।
गाड़ी में बैठकर रामलाल ने ड्राइवर से कहा कि भैया गाड़ी विश्वकर्मा नगर की ओर मोड़ लो तभी रागनी बोल पड़ी नहीं भैया गाड़ी को रामपुर की तरफ मोड़ लो रहने दो अब मुझे कहीं किराए के घर में नहीं रहना है अब मैं मां पिताजी के साथ रहूंगी और उसी में मैं खुश रहूंगी और कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगी और अपने जीवन जीने के तरीके को बदल लूंगी.....।
- उमा मिश्रा प्रीति
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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क्रमांक - 50
जीवन के रंग
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जैसे ही सवारी गाड़ी स्टेशन का प्लेटफार्म आने पर धीमी हुई, प्लेटफार्म पर कई लोग दिखाई पड़े । उस दिन लगता है कि गाड़ी में चढ़ने वालों की संख्या बहुत थी। जहां तक नज़र जाती थी, चारों तरफ लोगों का हुजूम था। धीमे -धीमे गाड़ी बिल्कुल रुक गई। अंदर से बाहर उतरने वालों की भीड़ और बाहर से अंदर चढ़ने वालों की भीड़, दोनों ही तरफ लोग काफी संख्या में थे। मैं काफी दूर से यात्रा कर रहा था। इच्छा थी कि कोई बडा स्टेशन आने पर थोड़ी देर डिब्बे से बाहर उतर कर प्लेटफार्म पर घूम भी आऊंगा और प्यास लगी थी अतः पानी भी पी आऊंगा। परंतु उफ ये भीड़ ! क्या करूं , कुछ सूझ नहीं रहा था। इतने में बाहर से एक आवाज़ सुनाई पड़ी कि कृपया मेरा सामान सामने की सीट पर रख दीजिए। मैंने देखा तो बाहर एक पतला सा आदमी आंखों में अनुनय - विनय के भाव लिए मुझसे खाली होती सीट पर रूमाल रखने को कह रहा था। मुझे खूब प्यास लगी थी। मैंने कहा - भाई, मुझे प्यास लगी है , नीचे उतरना है। वह बोला - भाईसाहब, आप बैठे रहिए , मैं ले आता हूं। पर कृपया आप मेरे बैग को उस सीट पर रख, उस सीट को सुरक्षित रखिए , जब तक मैं अंदर न आ जाऊं। कितना मानवीय दृष्टिकोण परंतु कितनी मजबूरी में, मैं खड़ा - खडा सोचता ही रह गया।
- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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क्रमांक -51
स्कूल की फीस
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कालिया स्कूल के बाहर खड़ा रौ रहा है। तभी स्कूल का मास्टर राम केसर आ जाता है। कालिया से पूछते है -
" बेटा ! क्यों रौ रहे हो ? "
" पापा ने स्कूल की फीस नहीं दी ।"
" बेटा ! तेरा पापा एक नम्बर का शराबी है ।"
" नहीं मास्टर जी ! मेरे पापा शराब नहीं पीते है ।"
" बेटा ! तेरा पापा एक नम्बर का जुहारी है ।"
" नहीं मास्टर जी ! मेरे पापा जुआ नहीं खेलते है ।"
तभी एक भिखारी आ जाता है और बच्चे से पूछता है - " बेटा ! क्यों रौ रहें हो ? "
" पापा ने स्कूल की फीस नहीं दी है । "
भिखारी पूछता है - " स्कूल की फीस कितनी है ? "
कालिया - " तीस रुपये "
तुरन्त भिखारी तीस रुपये कालिया को देकर चल देता है। कालिया खुशी - खुशी स्कूल के अन्दर चला जाता है। मास्टर राम केसर तो भिखारी को देखता ही रह जाता है।
- बीजेन्द्र जैमिनी
पानीपत - हरियाणा
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जीवन के सत्य को उजागर करती एक से बढ़कर एक लघुकथा.. बहुत-बहुत बधाई संकलन के संपादक आदरणीय बीजेंद्र जी व सभी लघुकथाकारों को शुभ कामनाएँ 🙏⚘⚘⚘⚘⚘😊
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