पद्मभूषण कुंवर नारायण की स्मृति में कवि सम्मेलन
जैमिनी अकादमी द्वारा 34 वाँ फेसबुक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया है । यह आयोजन पद्मभूषण कुंवर नारायण की स्मृति में है कवि सम्मेलन का विषय ' अपने सामने ' रखा है ।
पद्मभूषण कुंवर नारायण का जन्म 19 सितम्बर 1927 फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ है । इन की शिक्षा एम.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य) में हुई है । इन की प्रमुख रचनाएँ 'चक्रव्यूह', 'तीसरा सप्तक', 'परिवेश : हम-तुम', 'आत्मजयी', 'आकारों के आसपास', 'अपने सामने', 'वाजश्रवा के बहाने', 'कोई दूसरा नहीं' और 'इन दिनों' आदि है । इन को 'व्यास सम्मान (1995)', 'कुमार आशान पुरस्कार', 'प्रेमचंद पुरस्कार', 'तुलसी पुरस्कार', 'उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार', 'राष्ट्रीय कबीर सम्मान', 'शलाका सम्मान', 'अन्तर्राष्ट्रीय प्रीमियो फ़ेरेनिया सम्मान', 'पद्मभूषण' आदि से सम्मानित है । इनकी ख्याति सिर्फ़ एक लेखक की तरह ही नहीं, बल्कि कला की अनेक विधाओं में गहरी रुचि रखने वाले रसिक विचारक के समान भी है। इन को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के माध्यम से वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। इनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि इन को कोई एक नाम देना सम्भव नहीं है। फ़िल्म समीक्षा तथा अन्य कलाओं पर भी इनके लेख नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। इन्होंने अनेक अन्य भाषाओं के कवियों का हिन्दी में अनुवाद किया है और इनकी स्वयं की कविताओं और कहानियों के कई अनुवाद विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में छपे हैं। 'आत्मजयी' का 1989 में इतालवी अनुवाद रोम से प्रकाशित हो चुका है। 'युगचेतना' और 'नया प्रतीक' तथा 'छायानट' के संपादक-मण्डल में भी रहे है । इनकी मृत्यु 15 नवम्बर 2017 दिल्ली में हुई है ।
कवि सम्मेलन में विषय अनुकूल रचनाओं को सम्मानित किया जा रहा है : -
कलम सियासी हो गई,
स्याही सियासी हो गई।
रूह रही बेचैन नज़्म की
हलक गज़ल की प्यासी रह गई।।
कौन सुने भूखे निवालों की,
हर शय गुलाबी हो गई।
कभी हँस के गुजर गई,
कभी महफ़िल में उदासी रह गई।।
मिले गोश्त मौजों की रवानी हो गई,
कहीं समेटे पानी आंख दीवानी हो गई।।
- पी एस खरे "आकाश "
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हमारे सामने कई घर बसे हैं।
उनमें कई इंसान सजे हैं।
सभी इनसानियत के गीत गाते हैं
लेकिन नहीं उसे निभाते हैं।
इनसानों के बीच मर गई एक गाय
भूख से तड़प-तड़प कर।
इंसान फिर भी रहे खाते केले
और सब्जियां खरीद कर।
अपने सामने देखा हमने होते
मानव की हत्या।
सबके सामने हमने भी की
आलोचना मिथ्या।
भीड़ का अंश बने फिर
चुपके से सरक लिए।
जब आई बारी गवाही की
अनजान बन खिसक लिए।
बाबजूद इसके,
जब अक्स अपना
दिखा आईने में।
शस्त्र लिए खड़े थे हम
पड़ी वह लाश सामने में।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
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अपने सामने देखा है ,
मैंने अपनों को बदलते हुए ।
कितना मुश्किल है ,
अपनों से दूर होते हुए।।
हर किसी को हम ,
ख़ुश रख नहीं सकते ।
कहीं न कहीं समझौते करने होते हैं ।।
अपने सामने देखा हैं ,
अपने ही प्यार को लूटते हुए ।
देखा है मैंने उसके बिना
धड़कन को टूटते हुए ।।
फिर से सहेजा है अपने आप को
समेटा है जीवन को ,
और जी रहे हैं ।।
अपने सामने देखा है,
उम्मीदों को टूटते हुए ।
रखना पड़ता है साहस
धैर्य को साथी बनाते हुए ।।
संतोष तो खोज लेते है
बुराई से दामन बचा लेते है ।।
अच्छाई से प्यार कर लेते है
अपने सामने फिर दुख नहीं आता ।।
हौसले अपने आप ,उड़ान भरते हैं
मंजील्ं फिर करीब आती है ।।
अपने सामने फिर ख़ुशियाँ आती हैं
ख़ुशियों से फिर ,
चमन महकता हैं ।।
रुठे हुये अपने पास आते हैं
शौहरत दौलत जब पास होती हैं
प्यार भी तो तब कभी ,
रुठता नहीं हैं ।।
अपने सामने मैंने
यही सच्चाई देखी हैं ।
लोगों के दिमाग़ को
मुझे पढ़ना ,समझा आ गया हैं ।।
लोगों के दिलों में मुझको ,
राज करना आ गया हैं !
अपने सामने मैंने सब कुछ
देख परख लिया हैं ।।
- अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
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अपने सामने हम चाहते हैं देखना,
पूरा हो अखण्ड भारत का सपना।
मिटे जाति-धर्म का सब भेदभाव ,
ऊंच-नीच का खाई जल्द पाटना।
अपने सामने देखा है बहुत कुछ,
समय के साथ लोग हुए खुश-रुष्ट।
अपने शौक को देकर तिलांजलि,
मनायें किसे और किसे करें खुश।
हो रहा परिवर्तित तेजी से समय,
दिखावापन में रहते सभी तन्मय।
आजादी का उठाते भरपूर फायदा,
फिर भी कहते हैं रहते बंदिशमय।
अपने सामने देखी दुनिया बदलते,
यूट्यूबर वीडियो से हीरो हैं बनते।
समय के साथ कई बदलाव आया,
गृहणियों को देर नहीं लगी बदलते।
अपने सामने छुये बहुतों ने ऊंचाइयां,
आगे बढ़ने को प्रेरित करे अच्छाइयां।
संकीर्ण मानसिकता को दे तिलांजलि,
बढ़ने लगे आगे दूर कर सब खामियां।
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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बीज को देखा है मैंने लहलहाते हुए।
नन्ही -नन्ही शाखाओं के हाथों में,
रंग बिरंगें फूल टिमटिमाते हुए ।
मृदुल बयार में इठलाते हुए।
दूर तक फ़िज़ाओं में गंधराज लिए,
मलय संग मदहोश करते हुए।
नहीं किसी का डर नहीं किसी की चिंता,
वर्षों से राहगीरों का शामियाना ताने हुए।
मीठे फलों से लदे,अंग अंग क़ुर्बान करते हुए।
मनुज ने चलाया लालच की कुल्हाड़ी,
चीर कर तन को ,टुकड़ों में काट कर
देखा है मैंने अपने सामने होम होते हुए ।
खड़ा हूँ मैं भी अपनी बारी के इंतज़ार में,
बचा लो मुझे पुकारता हूँ ।
सुधार लो कल को गुहारता हूँ।
मुझ बिन टूटे नहीं तेरे साँसों की लड़ी,
झूलते थे मेरे कंधों पर कभी,
आज नि:शब्द हूँ अपने सामने…
तेरी अर्थी को जाते हुए।
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
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साथ सबका मिला |
क्यों करेंगे गिला |
आमने -सामने
पर हुआ फासला |
धूप घटने लगी ,
छाँव का सिलसिला |
था तलाशा जहां ,
झूठ धोखा मिला |
जीत सकते नहीं ,
दंभ का है किला |
कुछ न सोचें अगर,
फूल सा मन खिला |
थे अकेले कभी ,
जुड गया काफिला |
- चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री
पंचकुला - हरियाणा
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अपने सामने
किसी को हँसकर जीते तो
किसी को हमेशा रोते देखा
किसी को प्यार से रहते तो
किसी को लड़ते झगड़ते देखा
किसी को आगे बढ़ते हुए तो
किसी को डरकर रूकते देखा
किसी को हौसलों से उड़ते तो
किसी को निराशा ओढ़ते देखा
किसी को मुस्कान बिखेरते तो
किसी को रूलाते हुए देखा
किसी को विश्वास करते तो
किसी को शक करते हुए देखा
किसी को अपनापन बाँटते तो
किसी को अपनों से कटते देखा
किसी को रिश्ता निभाते तो
किसी को रिश्ता तोड़ते देखा
किसी को अपने पास आते तो
किसी को दूर जाते हुए देखा
लगा कि यह अंतर क्यों आया
सोचा तो सोच का अंतर पाया
- दर्शना जैन
खंडवा - मध्यप्रदेश
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अक्सर खड़ा हो जाता हूँ अपने सामने।
स्वयं को तौलता स्वयं को लगता नापने।।
अंतर्द्वंद अक्सर होने लगता हे अंतर्मन में।
बौनापन दिखता है मेरा मन के दर्पण में।।
मिट्टी के तन में भाव उज्जवल मिले।
अंतरात्मा में सद्विचार सद्भाव खिले।।
मैं ही ना गुन पाया, ना सुन पाया।
मानव होकर मानव न बन पाया।।
पानी की तरह सरस बहाव सा मिला।
गंगा जैसा पवित्र मन पुष्प सा खिला।।
मेरा चंचल मन लोभ-मोह से ग्रसित रहा।
जीवन मेरा खारा समुन्दर बनकर रहा।।
सुधाकर सा शीतलवान हृदय मिला।
दिवाकर सा उर्जावान मस्तिष्क मिला।।
ईश्वर ने मानुष जन्म हीरे समान दिया।
मैंने जीवन कंकड़-पत्थर समान जिया।।
पद, प्रतिष्ठा, धन, की चाह में खोया रहा।
अहंकारी मन जाग्रतावस्था में सोया रहा।।
अंतर्द्वंद के सागर में ज्ञान की बूंदे मिलीं।
क्या खोया क्या पाया कि गुत्थी खुली।।
आत्मचिंतन ने मन में सद्भाव जगाया।
आत्ममंथन ने मन को सद्मार्ग दिखाया।।
मन समझा तब, क्या खोया क्या पाया।
भौतिकता में डूबकर जीवन व्यर्थ गंवाया।।
उत्कृष्ट साधन सभी मिले कर्म साधना से।
सुन्दर द्वार मन के सभी खुले सद्भावना से।।
दुष्प्रवृत्तियों की बेड़ियाँ क्षीण पायीं मन में।
स्वयं पर विजय पायी संकल्प कामना से।।
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग '
देहरादून - उत्तराखण्ड
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देखा है क़ई परिवारों को बिखरते हुए
हमने अपने सामने , वजह साफ़ यही दिखी कि
नफरतों की फसल उग रही है हर तरफ
आपसी रिश्तों में खटास बढ़ने लगी है
सौहार्द की खुशबू जहां फैलीं थी अबतक
द्वेष,घृणा,अहं की दुर्गंध सी आने लगी है
हर शख्स तय कर रहा अपनी दिशायें
आपस में अब कोई तालमेल ही नहीं है
कोई उत्तर तो कोई दक्षिण दिशा में जा रहा
किसी को पूरब या फ़िर पश्चिम की पड़ी है
अपने अपने मोहरें चल रहे शतरंजी चाल
सबको अपनी बाजी जीतने की पड़ी है
हाकी के टीम भावना सदृश खेलें खेल
ऐसी अवधारणा अब कहीं भी नहीं है
प्रेम ने घूंघट काढ़ ली है लाजवंती वधू सी
अपनत्व तो बस दिखावटी रह गई है
विचारों की असमानता मौसम सम हुए
व्यवहार गिरगिटी नेताओं सी बदल गई है
विकास के तारकोल पथ पर अब रफ़्तार
स्वार्थ, कलुषता की धूंध में धीमी हो गई है
ऐसे कबतक सरपट दौड़ेगी जीवन गाड़ी
जहां रिश्तों की टायर पंचर सी हो गई है
- राजीव भारती
पटना - बिहार
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खामोश कैसे रहते?
देख अपने ही सामने।
सहती रही जो उम्र भर,
अपमान मेरे सामने।
अंजाम सोचा नहीं,
आवाज उठाने की।
कब-तक रहती भूखे पेट,
बलि चढ़ी उस दानव की।
सहम जाता था बचपन में,
छूप जाता उस आँचल में।
देख आँसू आँखों में,
पीर उठती बाल मन में।
बुझानी थी वो आग,
जो उदर में लगी थी।
सबकुछ सह लेती थी,
क्योंकि वो बेचारी एक माँ थी।
तब बाजुओं में दम न था,
चुपचाप देखता था।
स्वर्ग से झाँकती होगी,
मुझ पर भरोसा जो किया था।
दिला सका जो मान अभी,
पाये सुकून माँ भी।
एक मुस्कान तो आयेगी,
तारीफ में निज लाल की।
- पुष्पा पाण्डेय
राँची - झारखंड
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अपने सामने धरा की छाती भेद
उस नन्हें बीज को प्रफुटित होते देखा
कोमल पात- पात, डाल -डाल निखरते देखा
हवाओं में झूमते, इठलाते,इतराते देखा
ओस की बूंदों को सहलाते,दुलराते देखा
अपने सामने नित उन्नत होते देखा
गुनगुनी धूप में बस चमकते ही देखा
फिर कैसी चली ये हवा विषाक्त
उलझ कर रह गए जिसमें कोपलों की कतार
डालियाँ जो डाले गलबहियाँ गाते थे गीत कभी
आज उन्हें एक दूजे से मुख मोड़ते देखा
बादलों की गर्जना पर अब लिपटती नहीं शाखें
झरते पत्तों पर कोई आँसू नहीं ढुलकता
दरख्तों की दरारें भी भरती नहीं
बेमौसम झरते पुष्पों को देखा
सौंधी खुशबू को भी गंधाते देखा
और कहूँ क्या जब अपने सामने ही
उन मजबूत जड़ों को बिखरते देखा
जड़ों को बिखरते देखा !!
- मधुलिका सिन्हा
कोलकाता - पं.बंगाल
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गद्दार पड़ोसी
संकट के बादल हैं छाए ,
मुसीबत खड़ी अपने सामने ।
पाक,चीन दोनों ही मिले हैं ,
गद्दारी करते अपने सामने।
कितना भी समझाओ उनको,
करनी से बाज आते ही नहीं ।
मौका मिलता है जैसे ही उनको,
बदनीयति जमकर करते वहीं।
इस बार जो सबक सिखाया,
पांसा ही उल्टा पड़ गया ।
हिम्मत नहीं कर पाते अब,
खड़े नहीं हो पाते अपने सामने।
भारत समर्थ है अब काफी,
पहले वाली कोई बात नहीं ।
ईट का जवाब पत्थर से देंगे ,
है अपनी 'सक्षम' रणनीति यही।
- गायत्री ठाकुर सक्षम
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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वक्र भंगिमा आँखें अंगार
कान्हा को उठा लिया अंकवार
झन्न से करी किवाड़ी बंद
फिर माँ करने लगीं विचार
नादान शिशु क्या झूठ कहेगा
झूठा है सारा संसार
आईं बड़ी शिकायत करने
ईर्ष्या से जलतीं सगरी नार
उतना ऊँचा छींका बाँधा
बालक के छोटे-छोटे हाथ
चोर कहें, बदनाम कर रहीं
आई हैं सब मिलकर साथ
अपने सामने अभी बिठाकर
दधि-माखन इसे खिलाऊँगी
कहीं नहीं अब जाने दूँगी
सबकी नजरों से बचाऊँगी
पर मौका मिलते ही कान्हा
फिर उन्हीं गोप-गोपियों के संग
पल भर में आँखों से ओझल
भोली माता हतप्रभ और दंग
- श्रुत कीर्ति अग्रवाल
पटना - बिहार
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दोस्ती का दम भरते हो
कहते हो हम साथ रहेंगें
चाहे सुख हो चाहे दुख हो
आज असली चेहरा सामने आया
जब मुसीबत में तुमने ठुकराया
सपने जो देखे थे बिखराया
आखिर क्या गलती थी मेरी
तुम पर भरोसा करना
तुम्हें अपना मित्र समझना
छुपकर क्यों वार करते हो
जो हृदय में है बताओ
सामने कभी तो आओ।
- अनीता सिद्धि
पटना - बिहार
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कितना कुछ बदल गया है
देखते - देखते अपने सामने
न जाने कहां खो गए
वे लोग जो अपने थे।
आज घिरे हैं परायों से
वे जो साथी थे कभी
याद आते हैं बहुत।
स्कूल से घर आकर
बिना कुछ खाए पीए
खेलने चले जाना
सखियों के साथ
रस्सी कूदना, स्टापू खेलना
पेड़ पर चढ़ अमरूद तोड़ना
मां की मीठी डांट
पिताजी का शाम की
चाय के लिए
समोसे पकौड़े, गुलाब जामुन लाना
लगता है कल ही की
तो बात है।
कैसे समय बीत गया
घड़ी की सुईयां
चली इतनी तेज़
बस रह गयीं हैं यादें।
मैं भागती रही सारी उम्र
कभी पढ़ाई तो कभी नौकरी
कहां छूट गये संगी साथी
पता ही न चला।
बहुत याद आती है उनकी
काश मैं उन पलों को
जी पाती दुबारा।
जब थी न आज की चिन्ता
न कल की फ़िक्र
रूपए - पैसे सोने - चांदी
की दुनिया में
पत्थर के ठीकरों को ले हाथों में
एक दूजे के पीछे भागना
हर बृहस्पतिवार टी॰वी में
चित्रहार का करना इन्तज़ार
इतवार को फ़िल्म शुरु
होने से पहले पड़ोसियों का आना
घर - घर की कहानी थी।
जब हम बड़े हुए
बसा ली अलग दुनिया
घर की चौखटें जो
थीं सटी हुई
फ्लैटों में बदल गयीं
आभास न हुआ।
अपने सामने रिश्ते
कब हुए बेगाने
इन्सान इन्सान का हुआ वैरी
एक होड़ में शामिल
है हर कोई
बस भाग रहे हैं
यह पता नहीं कहां है
हमारी मंज़िल।
अपनों से दूर
दूसरों के भी कहां पास हैं
ज़रूरत है तो बदलाव की
हमारी विचारधारा में।
किसी को बनना होगा अभिमन्यु
लालच, रूतबे, चोरी चकारी के
चक्रव्यूह को तोड़
एक बार फिर से करने
होंगे स्थापित
विश्वास, प्यार - मुहब्बत में
पिरोये हुए रिश्ते - नाते
कुछ मेरे कुछ आपके
हां! अपने सामने।
- डॉ अंजली दीवान
पानीपत - हरियाणा
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कितना विवश कितना लाचार,
विध्वंस धरती का वासी आज।
देख रहा धूं धूं जलता सब कुछ
तबाही अपने सामने वह आज।
क्या विकास इसी को कहते है,
नग्न तांडव मचा हुआ है आज।
उन्नति के शिखर को छूने वाले,
झपट रहे है बन कर गिद्ध बाज़।
इन्सानियत का मुखौटा पहन कर,
भक्षण करते फिरते मानव आज।
सभ्यता -संस्कृति का चोला छोड़,
हाथ में देखो खून खराबा काज।
प्यार प्रीत की बातें भूल गए है,
हथियारों से गीत दोस्ती साज।
भाई बन्धुत्व के भाव भटक गए,
क्यों बन गया ऐसा मानव आज?
- शीला सिंह
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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याद है हमारी पहली मुलाकात!
तब एक सरसरी निगाह डाली थी तुमने
मेरी दोस्ती कबूल तो की
पर तुम्हारी आँखों में एक एहसान था
जो साफ दिख रहा था।
तुम्हें अपनी मित्र-मंडली बढ़ानी थी।
कभी-कभी बुरी तरह
उपेक्षा भी कर जाते थे।
मेरी भावनाओं का
कोई मोल नहीं था तुम्हारी नजर में।
इस उपेक्षा ने मेरे अंदर
पैदा कर दी एक जिद,
एक जुनून,
कुछ करने का।
अपने सामने एक बड़ी लकीर
खिंचती देख भौंचक हुए थे तुम।
शायद शर्मिंदा भी!
मुझमें कुछ दिखने लगा है तुम्हें!
तुम्हारे फोन काॅल्स की आवृति
बढ़ने लगी है।
किंतु मैं तुमसे
कुछ अलग सोच रखती हूँ।
तुम्हें अपने सामने
शर्मिंदा होते नहीं देख सकती।
तुम कल भी मेरे आदर्श थे,
आज भी हो
और सर्वदा रहोगे।
- गीता चौबे गूँज
रांची - झारखंड
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आज अपने सामने तुम्हें देख याद आता है
याद है तुम्हें ?
कैफे के उस कोने में
चाय की चुस्कियों के साथ
तुमने कुछ वादे किये थे।
ठण्डी का दिन था
कुछ खास नहीं
गुलाबी ठण्डी थी
टेबल पर बैठे तुमने
चाय की चुस्कियों के साथ
नजर से नजर मिलाते
कभी पलकें झपकाते
मंद मंद मुस्कान लिए
कुछ बातें कही थी
प्रेम में लिप्त
दिल की धड़कन को दबाये
दबी आवाज में
कुछ वादे किये थे!
क्या तुम्हें याद है?
लफ्ज कह रहे थे
जुबान थम गई थी
मेरे ठिठुरते हाथों को अपने
हाथों में ले
तुमने कुछ वादे किये थे!
याद है...
जीवन की मधुरता में खोये
ठण्डी आहें लेते
साथ तुम्हारा लिये मैं चली थी
तब,
इसी कैफे के उस कोने में
चाय की चुस्कियों के साथ
तुमने कुछ वादे किये थे!
रंगीन सपनों का महल सजा
जीवन के सुख दुख में
सफर में साथ चलने का
किया वादा था!
बना मंगल सूत्र को कवच
सितारों की रोशनी में
पवित्र बंधन का किया वादा था!
आज मैं ! तिरष्कृत अपने सामने
तुम्हें देख याद करती हूं
कुछ , मैने सुनहरे सपने देखे थे !
कैफे के इस कोने में
चाय की चुस्कियों के साथ
तुमने कुछ वादे किये थे......
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
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अपने सामने सूरज को हमने निकलते देखा है
दिग -दिगंत छाई लालिमा को बिखरते देखा l
सूरज ढला, पल में कालिमा का साम्राज्य देखा है
तम जाल में डूबते सम्पूर्ण जगत को देखा है ll
क़ाश्मीर की क्यारियों में बारूदी सुरंगें देखी हैं
भारत भविष्य परफिर छाया कुहासा देखा है l
क्षत -विक्षत होकर हिमालय प्राणों पर खेल रहा
मानचित्र माँ -भारती का लाल हुआ देखा है ll
देश की अखंडता पर पड़ रही है चोट नित
साम्प्रदायिक ज्वाला को हमने जलते देखा है l
भविष्य की सम्भावनाएँ हो रही हैं नित जर्जर
स्वार्थ लोलुप होता मानव आज हमने देखा है ll
आसुरी प्रवृतियों का बढ़ रहा है जोर नित
वासना की चिंगारियों को फैलते देखा है l
भाई का आक्रोश और जटिल कुरीतियों को
गरूर के हिंडोले में दहेज दानव देखा है ll
दिशा और दशा विहीन अनगिनत हैं रास्ते
अंधी दौड़ में दौड़ता मानव हमने देखा है l
आज सारे देश में छाया घनघोर अँधेरा है
नैतिकता के तटबंधों को टूटते हमने देखा ll
- डॉo छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
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अपने सामने जिसे
देखा गर्दिश में,
आज उसे ही,
देखा संपन्नता में !
अपने सामने जिसे
देखा सर झुकाए,
आज उसे ही,
देखा सर उठाए !
अपने सामने जिसे
देखा मेहनत करते,
आज उसे ही,
देखा मैंने बिकते !
अपने सामने जिसे
देखा मांगते हुए,
आज उसे ही,
देखा दान करते हुए !
अपने सामने जिसे
देखा बने अनजान,
आज उसे ही,
देखा बांटते हुए ज्ञान !
समय सबका बदलता है,
यह है प्रकृति का नियम !
फल वैसा पाते लोग,
जैसे होते उनके कर्म !
- नंदिता बाली
हिमाचल प्रदेश
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अपने सामने देखे मैंने जीवन में कई मंजर
दु:ख-सुख से लिपट बनते रहे अचूक पुरअसर
शैशव का वो अल्हड़पन,कूदना,खेलना,पिटना
पिता की डांट खाकर,मां की गोदी में ही सिमटना
संतरे की मधुर टोफी,बरफ का रंग-भरा गोला
हरी इमली,कच्ची अमियां,खाकर कहना रे बम भोला
वो रेहड़ी पर भुने भुट्टे,गजब कंचे का वो शर्बत
डुगडुगी और डमरू सुनकर लग जाता था बस मेला
सिनेमा का अजब सा शौक,रेडियो रात-दिन सुनना
किताबों में छिपाकर फूल,विद्या,मोरपंख छूना
पहाड़े रटना हरदम ही,हथेली जान पर रखकर
पाठशाला पहुंचते ही,भूल जाना,दंड मिलना
वो छुट्टी गांव में कटना,खेतों में घूमते फिरना
काले कुत्ते को घुमाना,तारे आकाश के गिनना
*अपने सामने*चाकी चलाती मां की कर्मठता
चूल्हे की रोटियों और साग का स्वाद भी मिलना
बदलता जा रहा सब कुछ,खौफ से है घिरा आलम
कभी कोरोना आ घेरे,कभी चलते हैं गोली बम
पुरानी सभ्यता और संस्कृति की याद आती है
चलो हिलमिल रहें फहराएं हरदम प्रेम का परचम.
- डा.अंजु लता सिंह
नई दिल्ली
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हाँ स्त्री सहनशील होती है,
अपमान चुपचाप
सह लेती है,
प्रतारणा भी झेल लेती है,
अंदर ही अंदर
वह घुटती है,
फिर भी चेहरे पर
हंसी रखती है,
लेकिन
नहीं सहती है
पति का अपमान अपने सामने,
नहीं सहती है
बच्चों का अपमान अपने सामने,
नहीं सहती है
परिवार की बुराई अपने सामने,
क्योंकि वह
इतनी सहनशील नहीं होती है ।
- पूनम झा
कोटा - राजस्थान
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वो मुलाकात याद आती है मुझे....
निगाहों में आकर बताती है मुझे...
वो बेताबी बातों की मुलाकातों की
चंद घड़ियों की ही सही ......
ये भरमाती है मुझे.
वो मुलाकात याद आती है मुझे...
एहसान नही होता एहसासों का
दिल से बंधे किसी रिश्तों का
और नहीं जज्बातों का
ये जताती है मुझे.
वो मुलाकात याद आती है मुझे...
दरमियाँ जब जन्म लेती है एक दंश
अपेक्षा ,उपेक्षा और एक लकीर की
गर आहत हो भावनाएं ,व्यर्थ है
ये दिखाती है मुझे
वो मुलाकात याद आती है मुझे...
कभी-कभी वक्त का बेवक्त होना
रिश्तों का आवृत हो जाना
कदम पीछे करने को वाध्य हो
ये सताती है मुझे
वो मुलाकात याद आती है मुझे...
हर कोई होता नहीं है वो अधिकारी
मान,सम्मान सबकुछ वही, पर
नजरअंदाज जैसा हो
ये रुलाती है मुझे.
- सपना चन्द्रा
भागलपुर -बिहार
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छोटी सी बागवान को
अपने सामने निखरती देखकर
नैनों में चमक आ गई
कली से खिलते फूल हुए
मकान से बिला बने
दो पहिया से चार पहिया हुए
लहलहाते लाखवां के सितारों को
चमकते झिलमिलाते देखें
खुशियां बांटते लुटाते
द्वार पर शहनाई बजते देखें
हवा का ऐसा झोंका आया
वक्त बनकर बागवा को छेड़ गया
धीरे धीरे अपना करिश्मा दिखाने लगा
उसे उजाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ा
आज विला खंडहर बन गई
हंसी के फव्वारे बदल गए
गमगीन अंधेरी रातों में
इंसान का रूप हैवान ले लिया
वक्त है यारों संभाल कर रखना कदम
कब किससे आंधी में उड़ा ले जाए नहीं
किसी को है यह खबर
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
===============================
इंटरव्यू
मैं
चर्चाओं में चर्चित हो गयी
मीडिया ही थी ,जब
ड्राइंगरूम में
अपने सामने
मेरी पहली किताब
' प्रांत पर्व पयोधि' में
भारत के सब राज्य
सारे त्यौहार , महासागर की मानवता को
पिरोया था
लेने आए थे
मेरा घर बैठे इंटरव्यू
मैंने ऐसा महसूस किया कि
घर की मुर्गी दाल बराबर नहीं रही
अगले दिन
अंग्रेजी के
नवभारतटाइम्स में
मेरा इंटरव्यू प्रकाशित हुआ
सत्यं शिवं सुंदरं के आनंद का स्वर्ग
मुझे तुम्हें , दुनिया को मृत्यु लोक में मिल गया
मैं अब व्यष्टि से
समिष्टि की हो गयी
देश -विश्व में मेरी कलम को
पहचान मिली
मैं , तुम , वे में
पुरुषवाचक में साकार हो गया
सरस्वती माँ की कृपा से
दस किताबें प्रकाशित हो गयी
इन सब किताबों के
आकाशवाणी , कितने प्रतिष्ठितअखबारों , पत्रिकाओं
इन बॉक्स, ऑनलाइन में
अनगिनत साक्षात्कार हुए
शुभकामनाओं , आशीषों मे मिला
विद्वानों , पाठकों , प्रधानाचार्यों
और छात्र -छात्राओं का
अनन्त प्यार , यश , कीर्ति , सम्मान
मैं साधरण से असाधारण ही गयी ।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
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अपने सामने
कोई ख्वाबों में आकर के, हमारे दिल में बस जाता।
दिखा कर वो हंसी सूरत, मुझे अपना बना पाता।
यही हसरत लिए दिल में, सदा ही मैं रहा "तन्हा",
जलाने प्रेम के दीपक, वो "अपने सामने" आता।।
नजर में मैं बसा लेता, जुबां से वो अगर कहता।
सितम जो भी अगर ढाता, उसे हंसकर के मैं सहता।
बसे हो तुम ही तुम दिल में, तुम्ही दिल के सहारे हो,
बनाकर के मुझे अपना, वो "अपने सामने" रहता।।
- विजय " तन्हा "
शाहजहाँपुर - उत्तर प्रदेश
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देखा कई बार अपने सामने
जिंदगी को मुलाकात करते,
देखा कई बार अपने सामने,
बातें भी करती है,
पर आधी अधूरी ही,
कुछ शेष रख लेती है,
हर बार अपने पास वो,
कहती है बैठ,
बैठकर तसल्ली से,
अपने सामने करती है,
कुछ ऐसी बात वो,
मुझसे पूछा,
चलोगे मेरे साथ,
हमने भी कह दिया,
तुम ले चलो,
जहां भी ले जाना हो,
तुम्हें हमें अपने साथ,
बस गुजारिश इतनी है,
बात करते चलना,
तुम हर पल हमारे साथ,
फिर भला कर लेना,
तुम हमें अपने सामने।
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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अपने सामने
अपने सामने
हमने कितने घरों को
उजड़ते देखा।
नित्य प्रति- दिन
लोगों को मरते देखा,
अपने सामने।
हाय! कोरोना की त्रासदी ने
लाशों के यूं ढेर लगाये,
गिने भी तो गिन ना पाए,
अपने सामने।
अद्भुत यह छूआ-छूत
की बीमारी क्या आई,
लोगों के बीच बिछी
दूरी की लम्बी खाई,
अपने सामने।
क्या खाए क्या छुपाए,
लोगों को इससे सिहरते देखा,
अपने सामने।
बच्चे,बूढ़े और जवान
हिन्दू या मुसलमान
सबने इस जंग में सामूहिक
भाई- चारा दिखाया ,
एक दूसरे का संबल- सहाए
भूखे को खाना खिलाया ,
अपने सामने।
अब यही प्रार्थना है उस रब से,
फिर ऐसी कोई,
विपत्ति ना आए,
फिर ना कभी ऐसे ,
बुरे दिन दिखाए,
अपने सामने।
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
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अपने सामने
वक्त बदलता रीति बदलती
बदला ये संसार है ।
अगर कहीं कुछ नहीं बदलता
नेह भरा परिवार है ।।
अपने सामने बढ़ते देखा
जड़ पर वृक्ष खड़ा है ।
शाख तना पत्तों को थामे
हर फल बीज पड़ा है ।।
हर मुख को मुस्काते पाया
उम्मीदों का साथ है ।
मेल जोल सँग प्रीत बढ़ाते
हाथों में सब हाथ है ।।
चारों ओर हरियाली फैली
स्वर्णिम लागे भोर है ।
बागों में कोयल कूके जब
नाँच उठे मन मोर है ।।
अपने सामने दृश्य सुहाने
प्रकृति निराली आली है ।
पर्यावरण बचा लो भैया
वरना जीवन खाली है ।।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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अपने सामने सब-कुछ देखा,
फिर भी मौन रहे क्यों तुम?
अन्यायी के सब जुल्मों को
ऐसे चुपचाप सहे क्यों तुम?
प्रश्न यही उद्वेलित करता,
मन मस्तिष्क बहुत चिंतित।
अपने सामने जो भी देखा
हृदय पटल पर है अंकित।।
यूं ही सब कुछ सह जाना
है संकेत निराशा का।
समझो समझो मित्र प्यारे
मतलब उनकी भाषा का।।
वक्त यही है सब कुछ समझो
चाल समय की पहचानो।
सीख समय से लेकर मित्रों,
कदम उठाने की ठानो।।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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कभी अपने सामने था
वह खुशहाली का मंजर।
जरा मुंह बांध के ना बैठ
सकते थे कभी अंदर।।
सभी के साथ रहने पर
दिन-रात थे उत्सव।
अपने मां बाप के सामने
कोई भी काम ना दुस्तर।।
अब आजकल पुरवा
और पछुआ हवाएं हैं।
शान शौकत दिखाती
आज तो गर्म फिजाएं हैं।।
अब तो शक्ति प्रदर्शन है
अपने सामने देखो।
नहीं परवाह किसी को
बस गमगीन सदाएं हैं।।
- डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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वर्तमान
परिस्थितियों में
गरिमा नहीं बची है
रिश्तों में अपने
ही हो रहे हैं
अपने सामने
संदेह का बीज
पनप रहा है
अविश्वास से
जिसका
जन्मदाता है स्वार्थ
जो समाज में काफी
हद तक फैला हुआ है
बहुत गहरी है इसकी जड़े
आसान नहीं है इन्हें
उखाड़ कर फेंक देना
खराब हो रहा है हमारा
सामाजिक ताना-बाना
घटती ही जा रही है मर्यादा
रिश्तो हो रहे हैं तार तार
बहुत जरूरी है इन्हें सहेजे रखना
यह तभी है संभव है
जब हम सहेज कर रखें
अपनी भारतीय संस्कृति को
इसके मानवीय गुणों को
असंभव नहीं है यह
बस जरुरी है विश्वास का
पोषण! आईये
कोशिश करते हैं
आप और हम
- डा. प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर
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मैं तेरे सामने तू मेरे सामने ।
कब तलक यूँ रहोगे मेरे सामने ।
कुछ तो बोलो जरा आईना तुम मेरे
कब तलक चुप रहोगे मेरे सामने ।
तुम डराते हो या फिर डराते मुझे
कब तलक यूँ हँसोगे मेरे सामने ।
देखते देखते बाल भी पक गए ।
और क्या लाओगे अब मेरे सामने
आँख धुँधली हुई तुम भी धुँधला गए
और क्या कुछ करोगे मेरे सामने ।
सिर्फ सन्नाटों में तुम जड़े हो यहाँ
बात किससे करोगे मेरे सामने ।
वक्त बूढ़ा हुआ तुम भी धुँधला हुए
और क्या लाओगे तुम मेरे सामने।
कुछ कहा तो नही तुम चटख क्यो गए ।
क्या से क्या हो गए तुम मेरे सामने ।।
- सुशीला जोशी विद्योत्तमा
मुजफ्फरनगर - उत्तर प्रदेश
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हिंदी भारत की शान है
हिंदी भारत की आन है
जोड़ती समस्त भारत को जो
हिंदी भारत का गान है।
भारत की भाषा हिंदी है
हिंदी माथे की बिंदी है
दिल की भाषा हिंदी है
दिल को दिल से जोड़े जो
खुदा की अदभुत बंदगी है।
संस्कृति की सच्ची भाषा है
भारत की ये ही आशा है
नारा सब दिल से लगाओ
इसे भारत की राष्ट्रभाषा बनाओ।
जब तक न बने राष्ट्रभाषा
नारा बुलंद करते जाओ
व्यवधान जितने बीच में हैं
पराक्रम से दूर करते जाओ।
जब बनेगी हिंदी राष्ट्रभाषा
तभी पूरी होगी जन -जन की अभिलाषा।
तभी पूरी होगी जन - जन की अभिलाषा।
- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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मत होने दो बुराई अपने सामने,
हर वक्त करो भलाई
बुराई का करो त्याग
लगा कर तो देखो दूखियों को गले कभी न टिकेगा
कोई भी कष्ट आपके सामने।
हर रोज नई सोच रखो
किसी पर न कोई बोझ रखो,
रखो दया भाव हमेशा,
रखो बुजुर्गों को सदा आपने सामने
बहुत मुश्किल से मिलता है जन्म इंसान का,
कर लो भला इस यहां में
हर किसी का, अगर चाहते हो
भलाई अपने सामने।
भूल चुका है इंसान क्या फर्ज है
उसका, छा गया है उसकी आंखों मै अंधेरा,
समय है अभी भी जाग
हो जाऐगा सबेरा अपने
सामने।
कहे सुदर्शन रख सोच
ऐसी इंसान, मिले न दीन
दुखी कोई भी इस यहां में
फूल भी न मुरझाये अपने
सामने।
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
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अपने सामने
होते हुए अन्याय को
देख कर चुप न रहो
आवाज उठाओ,
अपने सामने
किसी दूसरे की
बुराई करते व्यक्ति की
हाँ में हाँ मत मिलाओ,
अपने सामने
हो रही अच्छी बात को
अपने तक ही
सीमित न रखो
जो भी मिले
उसे अवश्य बताओ,
अपने सामने
बैठे छोटे-बड़े कोई भी हों
उनसे सभ्यता/प्रेम से
अनवरत संवाद जारी रखो,
याद रखना
जो करते हैं/जो देते हैं
वही द्विगुणित हो
लौट कर हमारे पास आता है।
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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मुझे नहीं आता
बातों से शब्दों को चुरा कर
उनके अर्थ निकाल लेना।
इसलिये तुम्हें अपने सामने
देखता हूँ,
तुम जब शुरु करती हो बोलना
मैं देखता रहता हूँ तुम्हारी आँखे
जो चुप रह कर भी बोलती है।
शब्द नहीं होते इनमें कहीं
होती है भाषा
जिसके सारे अर्थ
समझ लेती हैं मेरी आँखे।
- महेश राजा
महासमुंद - छत्तीसगढ़
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सशंकित हैं सभी, क्या हो न जाने, सोचते ये बात हैं।
हमारे सामने जो घट रहे, कितने अजब हालात हैं।
दहकता है नगर, गूँजे धमाकों का दसोंदिस शोर है।
तबाही का धुआँ, अब तो दिखाई दे रहा हर ओर है।
सिसकते बाल पूछें मातु से, कैसी भयानक रात है।
हमारे सामने जो घट रहे, कितने अजब हालात हैं।
प्रदर्शन हो रहा बल का, सबल है कौन, निर्बल कौन है।
तमाशा देखता ये जग, सशंकित हैं, सभी क्यों मौन हैं?
गगन से हो रही जैसे यहाँ पर, अग्नि की बरसात है।
हमारे सामने जो घट रहे, कितने अजब हालात हैं।
धरा से और नभ से भी, दसोंदिस हो रहा बस वार है।
भवन ये गिर रहे जैसे, खिलौना बन गया संसार है।
सुलह होगी कि भड़के और भी, ये तो कहाँ अब ज्ञात है।
हमारे सामने जो घट रहे, कितने अजब हालात हैं।
सशंकित हैं सभी क्या हो न जाने सोचते ये बात हैं।
हमारे सामने जो घट रहे, कितने अजब हालात हैं।
- रूणा रश्मि 'दीप्त'
राँची - झारखंड
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आमने सामने तुम्हारे
खड़े रहकर
खुद की कमियां
ढ़ूढ़ती हूॅं,
बहुत बड़ी जिम्मेदारी है
खुद को तुझमें
ढ़ूढ़ती हूॅं।
जानती हूं तुम्हारा ज़बाब
नही कुछ कहोगे?
पर फिर भी
सिर्फ तुम्हीं से कहती हूॅं।
तुम्हारे वो साहस
जैसी हूॅं
बिल्कुल वैसी ही
तुम मुझे
मेरे सामने रखते हो।
तुम्हारे इस जज्बे की
बहुत कदर है,
इसलिए,
लेकर हिम्मत तुम्से
मैं हर किसी के
आमने सामने
दो टूक बात कहती हूॅं।
- मिनाक्षी कुमारी
पटना - बिहार
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ठुमक ठुमक कर वापस आते
सामने कितने आते जाते
चंदा सूरज दिन और रात
ठुमक ठुमक कर वापस
आते मौसम कितने आते जाते ।
हर मौसम के आने पर जी
नयी उमंगें आती हैं।
कभी सुहाने गीत गूंजते
कभी प्रकृति मुस्कुराती हैं।
ऐसे ही चलता है जीवन
हर पल आते जाते।
चंदा सूरज दिन और रात
ठुमक ठुमक कर वापस आते।
बूंद बूंद बरसे है सावन
कड़ कड़ कड़ बिजली कड़के ।
फिर भी जीवन बंजर जैसा
रह-रहकर अखियां बरसे ।
इन अंधियारी रातों को अब,
कैसे हैं कोई काटे।
चंदा सूरज दिन और रात
ठुमक ठुमक कर वापस आते।
आमने सामने द्वारे पर आहट होती कभी कभी
द्वार खोल कर देखो तो
पसरी है केवल खामोशी,
रह रहकर अकुलाहट होती
नहीं दिलासा पाते
चंदा सूरज दिन और रात
ठुमक ठुमक कर वापस आते।
अपने कितने आते जाते।
चंदा सूरज दिन और रात
ठुमक ठुमक कर वापस आते।
अपने सामने कितने आते जाते।
- उमा मिश्रा "प्रीति"
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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जो मैं हूँ
अपने सामने -तुम मुझे कभी सुनना मत,
मेरे स्वरहीन कंठ में सागर की नीरवता है।
अपने सामने - मुझे देखना भी न कभी,
बदलते चेहरे को देख कर भ्रमित हो होवोगे।
छूना भी मत मुझे,
बिखरते टुकड़े कहाँ संभालता फिरूंगा मैं?
मेरी गंध लेने की कोशिश भी बेकार ही होगी
मैं रसहीन गंधहीन ही रहा।
जो चाहते हो पाना मुझे तो
पढ़ लेना मुझे - कहीं किसी किताब के कोने में,
जो मैं हूँ... सिर्फ वहीँ।
रख लेना - अपने सामने।
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर - राजस्थान
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अपने सामने
अपने सामने
बदलते हुए
देखें हैं -
दिन महीने
साल .....
मौसम ॠतुओं
का बदलना ....
रिश्तों-नातों
का गणित ....
अपने-परायों
का हिसाब ....
घर का कमरों
में सिमटना.....
दिलों के बीच
खिंची दीवारें .....
और भी
बहुत कुछ
कहा-अनकहा सा
नहीं बदलते
देखा मगर
मृत्यु का अटल
सत्य ......
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान
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अपने सामने
अपने सामने तुम्हें ना पाकर अच्छा नहीं लगता। तुम बिन तो सपना भी लेना अच्छा नहीं लगता।।
कथा -कहानी -कविता किस्से मिलकर के पढ़ना।
हाथ छुड़ाकर झटपट जाना अच्छा नहीं लगता।।
कहाँ गए किस दुनिया में अब किससे जा पूछूं। ठाट- बाट सुख जग का मेला अच्छा नहीं लगता।।
मेरी दुनिया- तेरी दुनिया अलग-अलग न थी।
तुम बिन तो अब कोर भी खाना अच्छा नहीं लगता।।
'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' समझ नहीं आया। अब कैसे संतोष को पाऊँ अच्छा नहीं लगता।।
- संतोष गर्ग
मोहाली - चंडीगढ़
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इस स्तुत्य प्रयास के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteभाई जी को ऐसे भगीरथ प्रयासों के लिये बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर संकलन बना है,एक से बढ़कर एक रचनाएं।सभी रचनाकारों और संपादक आयोजक जैमिनी जी को हार्दिक बधाई
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