डॉ.सतीश दुबे की स्मृति में लघुकथा उत्सव

भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा इस बार  " लघुकथा उत्सव "  में  " मजदूर " विषय को फेसबुक पर रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के लघुकथाकारों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल  अच्छी व सार्थक लघुकथाओं के लघुकथाकारों को सम्मानित करने का फैसला लिया गया है । सम्मान प्रसिद्ध लघुकथाकार सतीश दुबे  के नाम पर रखा गया है । 
डॉ. सतीश दुबे का जन्म 12 नवम्बर 1942 को इन्दौर - मध्यप्रदेश में हुआ । इन की शिक्षा एम.ए हिन्दी , समाजशास्त्र , व पीएचडी हिन्दी है । इन की प्रकाशित पहली लघुकथा " सतरंगी चूनर " सरिता पत्रिका में फरवरी - 1965 में आई है । इनके लघुकथा संग्रह सिसकता उजास ( 1974) , भीड़ में खोया आदमी ( 1990) , राजा भी लाचार है (1994), प्रेक्षागृह (1998), समकालीन सौ लघुकथाएं (2007), बूँद से समुद्र तक ( 2011) , इक्कीसवी सदी की मेरी इक्यावन लघुकथाएं ( 2014),  ट्वीट (2015)  के अतिरिक्त उपन्यास , कहानी , हाइकू आदि की पुस्तकें आईं हैं । इनकी लघुकथाओं का अनुवाद , पंजाबी , मराठी , गुजराती , तेलुगु , बांग्ला आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ है । ये वीणा पत्रिका के सहयोगी सम्पादक 1974 से 1982 तक रहे हैं ।  लघुआघात पत्रिका के प्रवेशांक से अन्तिम अंक के प्रधान सम्पादक रहे हैं । इन का देहावसान 25 दिसंबर 2016 को हुआ है ।
सम्मान के साथ लघुकथा भी : -
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 बाल मज़दूर 
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   मुनिया आँगन में बर्तन घिस रही थी ,तभी हवाई जहाज़ उपर से शोर मचाता गुजरा ...नौ साल की मुनिया दौड़ पड़ी |बड़े से उड़ते पंछी को देखने...साथ ही सपनों की दुनिया में उड़ चली |काश !मैं भी “हवाई जहाज़ पर बैठ आसमान में उड़ती “क्या कर रही है ,रे !कामचोर|
सारे बर्तन जूठे पड़े हुए हैं अभी तक|”मंत्री जी की पत्नी के कर्कश आवाज़ से मुनिया की तंद्रा टूटी |भाग कर वापस
मूक ...अपने अरमानों को बर्तन के साथ घिसने लगी|
बाल कल्याण मंत्री जी के घर के गेट के बाहर मुनिया तपती दुपहरी में जार जार रो रही थी। पिता के कदमों पर भी लोटी ...बाबू !मुझे घर ले चलो|चपरासी ने चंद रूपये दिए जिसे बाबू ने सँभालकर पॉकेट में डालते  हुए मुनिया से यह कहते हुए विदा लिया-ठीक से रह अगली बारी ले जबई...ऐही बारी मड़इयाँ के खपरैल करवाए के हई ...बरसात में चुअत है|
पिछले दो साल से मुनिया बाबू की लाचारी हर महीने सुनती और मन लगा कर बर्तन के साथ अपने क़िस्मत को भी घिसती।
- सविता गुप्ता
  राँची झारखंड 
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वो कामवाली
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वो 15_16साल की साधारण सी लड़की दिख रही थी। गरीब और असहाय भी।दवाई दुकान वाली मैडम को खाली देखकर बोली "मेरी माँ दो दिनों से बुखार में तप रही है। मैडम उसके लिए गोलियाँ दीजिए। "
   मैडम"अरे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाया?ऐसे ही दवाइयां नहीं दे सकते।"
लड़की ने कहा "हम लोग गरीब हैं। डाॅक्टर के पास जाने के पैसे नहीं है।मेरी माँ जहाँ काम करती है, उसकी मालकिन ने आकर धमकी दी है कि सुबह काम पर नहीं आई तो कभी मत आना। मैडम मैं भी काम करती हूँ और बाप दारू पी पीकर मर चुका है। हम काम नहीं करेंगे तो छोटे भाई को कैसे पढ़ायेंगे?आप तो डाक्टर हो। गोलियाँ दे दीजिए, कल मैं पैसे दे दूंगी। "
   मैडम को दया आ गयी। पूछा"कहाँ रहती हो?"
"सामने झोपड़ पट्टी में। "
मैडम ने नौकर से कहा "मैं अभी आती हूँ। ग्राहक आये तो रोककर रखना। "
मैडम ने बड़ी मुश्किल से टूटी फूटी झोपड़ी में कदम रखा। बदबू से उसका सर फटने को होने लगा।अपने अनुभव से मरीज को देखा। 
  लड़की के साथ अपनी दुकान में आकर उचित दवा दीऔर किस तरह देना है।समझा दिया।
  दूसरी सुबह वही लड़की अपने छोटे से भाई के दुकान पर दिखी।मैडम से कहा"आपकी दवा से मां सुधर गयी और अपने काम पर चली गई। मैं भी काम पर जा रही हूँ और यह मेरा छोटा भाई है। इसी को पढ़ाने हम माँ बेटी मजदूरी कर रहे हैं मैडम। "
"हाँ दवाई के कितने पैसे देने हैं, बता दीजिए। "
  दुकान वाली मैडम की आंखें भीग गयी। बोली"बिटिया पैसे रहने दो।तुम्हें जरूरत है। हाँ किसी चीज की जरूरत होगी तो मेरे पास चली आना।तुम्हें अपने भाई को खूब पढ़ाना है ना।"
    
- डाॅ•मधुकर राव लारोकर 
नागपुर - महाराष्ट्र
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मजदूरों की नियति
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 मजदूर एकता जिन्दाबाद! मजदूर दिवस जिन्दाबाद! दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ! मजदूर हैं, मजबूर नहीं! मजदूर दिवस पर ऐसे अनेक नारे और इन नारों को लगवाने वाले चमकती कारों से उतरकर आये, चेहरे पर समृद्धि के भाव लिए अनेक नेताओं की प्रतीक्षा, सारी मजदूर बस्ती इस कोरोना काल में बड़ी आशा और विश्वास से कर रही थी।
     नेताओं का बस्ती प्रतिनिधि रामप्रसाद, जिसकी जेब कथित नेताओं ने पहले ही भर दी थी, उन्हें झूठा दिलासा दे रहा था। परन्तु लाॅकडाउन के कारण, कई दिन से रोजगार न मिलने से व्यथित मजदूरों को बातों की नहीं रोटी की आवश्यकता थी।
     तभी कुछ कथित नेता आये और बोले.... "आप सभी अपने-अपने गाँव चले जाइये।" और सैकड़ों मजदूरों की भीड़ को दो बसें दिखाते हुए बोले..... "हमने आपके लिए बसों की व्यवस्था कर दी है।" 
मजदूर चिल्लाये!" गाँव में जाकर हम क्या करेंगे। वहाँ पर हमारे लिए कौन सा रोजगार रखा है।" दूसरी बात मात्र दो बसें सबके लिए पर्याप्त नहीं हैं।
परन्तु मजदूर कहते ही रह गये कि,"जब रैलियों के लिए हमारी जरूरत होती है, और जब हमें कम मजदूरी देकर तुम अपनी जेब भरते हो, तब हम तुम्हारे हैं। परन्तु आज हमें भूखे मरने के लिए गाँव का रास्ता दिखा रहे हो।"
लेकिन मजदूरों का दर्द अनसुना कर चमकती कारें तेजी से चली गयीं। 
रह गयीं तो.....दो बसें.....और उन पर टूटती, आपस में सीट के लिए लड़ती, मजबूर मजदूरों की भीड़। शायद यही नियती थी मजदूरों की।

- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखंड
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पहचान
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-"सुनिये”

-“अजी हुजूर, सुनिये तो”
-“अरे बाप रे भूत, भूत !”
-“अरे, अरे... डरिये नहीं, कुछ जरूरी बात करनी थी आपसे"
-“अच्छा... तो बोलो”
-“जी, वो आप तो जानते ही हैं कि कैसी विपदा आन पड़ी थी पुरे देश में !
पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था। सारे शहर ही बंद कर दिये गये थे, वो क्या बोलते अंग्रेजी में?
हाँ... लॉकडाउन लग गया था सब जगह।
लोगों को घर से बाहर निकलना मना कर दिया सरकार ने।
जो जहाँ है, वहीं रहे...
तो मालिक, रहे हम कई दिनों तक जहाँ थे वहीं, पर जब नौकरी छूट गयी, जमा पैसा खत्म हो गया और राहत सामग्री मिली नहीं तब हमनें तय किया कि इस शहर में ऐसे भिखारी की मौत मरने की बजाय गाँव चले जाते हैं।
कम से कम अपनों के बीच तो रहेंगे, शहर में तो पाई-पाई के मोहताज हो गये थे।
नहीं, नहीं... सरकार को दोष नहीं दे रहे हम, सरकार ने तो बंदोबस्त किया था पर डर हमारे दिलो-दिमाग पर हावी हो गया था।
कब तक बंद शहर में ऐसे ही खाली बैठे रहते, सोचा कि गाँव चल दे, खतरा टल जाएगा तो वापस लौट आएंगे पर यही हमारी भूल थी साहिब !
हम और हमारे साथी पैदल ही निकल गये थे, रास्ते में माल से लदा एक ट्रक मिला तो हमने लिफ्ट माँग ली, अब हमें क्या पता था कि मौत को खुद निमंत्रण दे दिये हम !
ट्रक जाकर भिड़ गया किसी और ट्रक से और सामान के नीचे दबकर मर गये हम और हमारे कई साथी !"
-“तो क्या चाहते हो तुम?
सरकार के आदेश के बावजूद तुम सब ने नियम तोड़ा और अपनी ही गलती की वज़ह से तुम्हारी जान गयी, तो अब भूत बनकर क्यों भटक रहे हो?”
-“हुजूर, हम जानते हैं कि हमसे गलती हुई और उसकी सज़ा के तौर पर हमें हमारी जान देनी पड़ी पर सरकार जब अखबार में हमारी मौत की खबर छपी तो उसमें लिखा था कि प्रवासी मज़दूरों की दर्दनाक मृत्यु !
प्रवासी मज़दूर !
यह तो हमारा नाम नहीं...
हम सब मरने वालों का अलग-अलग नाम है, बचपन से हमें हमारे नाम से पहचाना जाता है और अब मरने के बाद सिर्फ प्रवासी मज़दूर ! मज़दूरी हमारा कर्म था, हमारी पहचान नहीं !
हमारा नाम तो छाप देते साहिब ताकि हमारा इन्तज़ार करते हमारे परिवार को पता तो चल जाता कि हम नहीं पहुँच पाएंगे अब कभी भी !” ****

-सुषमा सिंह चुण्डावत
उदयपुर - राजस्थान
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अब मेरी मजदूरी का क्या होगा...? 
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बसंत बैठा_बैठा सोच रहा  था, अब क्या होगा? 
             महामारी  ने फिर से सारे शहर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था । आज शाम को तय हो जाना था कि फेक्ट्री चलती रहेगी या उसे फिर से बंद करना पड़ेगा ।बसंत बारबार विचार कर रहा था कि हमें वापस गाँव चले जाना चाहिए या नहीं वह निर्णय नहीं कर पा रहा...... वहाँ भी तो कोई काम नहीं है.. किस के घर मजदूरी करने मिलेगी! 
              " अगर फैक्ट्री बंद  करने की बात  हो गई तो तय था कि मालिक सारे  मजदूरों को  फिर से घर बिठा देगा । और फिर से  भूखों मरने की नौबत भी आ जाएगी । पिछली बार तो उसके साथ  " रधिया"अकेली थी ।किसी तरह  फांकों के बीच मारते - मारते दो महीने बीता लिए थे , घर बैठकर और उसके बाद  जब गांव के लिए पैदल ही तीन सौ मील का रास्ता तय किया था तो इतने लम्बे रास्ते में   न जाने कितनी बार  मौत से सामना हुआ था । 
            अगर इस बार फिर वही नौबत आ गई तो मौत तय है क्योंकि इस बार  "रधिया"अकेली"ही नहीं , नन्हीं सी जान  " गंगो "(नन्ही पुत्री) को कैसे संभालेंगे ? बिना काम के , बिना  मजदूरी के उसकी भूख प्यास कैसे मिटेगी ? 
अभी तो रेल बंद नहीं हुई है तो क्यों न अभी ही  जल्दी लाकडाउनसे पहले ही गांव की टिकट करवा लूं ? वक्त रहते गाँव तो पहुँच जायेंगें।  लाकडाउन हो गई तब तो यहां  मौत  पक्की ही समझो । "
        बसंत ने अपना इरादा रधिया को बता दिया । 
         पति की बात को सुनते ही  रधिया सुन्न  सी हो गई ।
        " कछु बोल क्यों नहीं रही ? हम तय किए हैं कि बखत रहते गांव चल पड़त हैं । या दफे पैदल नाहीं चल सके। "(सकते) 
        रधिया अब भी चुप थी। 
        "  कछु तो बोल । हम जात हैं टिकट करिईबे।  " बसंत नेझल्लाया कर कहा__
         "का बोलत हो्् का  कहत हो । गांव में तुम्हरे बदे भंडारे होत हैं का..,. या होटल खुले हैं का..... जोन  उते खों जैहो । किस्मत भली रही जे फेक्ट्री मालिक तुम्खों  बुलालेहैं .....बतावा हमका ,  तुमई  बताओं कै जब हम ऊ बैर गाँव  खो गया रहैं तो कोन_ कोन खों खुस  भउतो? रोजई तो दार- भात चावल के लाने झगड़ा - टंटा  होत रहों....बो तो किस्मत जोर मार गयी जोन मालिक के बुला  लओ नईं तो तुम्हरे भइयन संग   हिसाब बाटको चक्कर में एकद -खों खून भओं जात रहों......सुन लेओ , मरे चाहे जिये.....ना हम जे हैं ओर ना तुमहै जान दें हैं..अब हम एई सहर में आसा( आशा) कि जोत जगाने रहैं...., हम ई सहर छोड़ कै  नै जैहैं| इतई रहैवैऔ...। जो कहूं हूहैं  उसे काम चलालैहैं.... जोकि हुईहैंओई से काम चला लैहैं तुम्है सोच फिकर  कर बैंक की जुरूरत नईकरबैं....देख लेब , , हम खुदई देख लेब।  "  रधिया ने अपना निर्णय ,बसंत को आत्मनिर्भरता और स्वभिमान के साथ सुनाने अपना  दिया।
           बसंत को लगा रधिया ने परिस्थितियों महामारी के जीना आशा वादी बन कर सीख लिया है..ठीक कह रही है।  घर से बाहर नहीं जाना है....मास्क लगा कर....   महामारी से बचाव निर्देशों का पालन  करना है  अब उसकी जिंदगी का हर  दुःख , हर  सुख इसी  शहर के  साथ है। आशा के दीप जलाए...वो किसी नए काम के बारे में सोचने लगा। ..
(हम मजदूर है मजबूत नहीं...स्वभिमान का काम करेगें....कहीं भी )

- कुमारी चन्दा देवी स्वर्णकार 
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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मज़दूर के सिक्स पैक्स
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दिन रात काम हो रहा था उस व्यावसायिक भवन पर जहां बीसियों की संख्या में मजदूर पसीना बहा रहे थे। मई-जून में मजदूर पसीने से तर-बतर हो रहे थे फिर भी काम करने की उनमें गजब की शक्ति थी ।  सिर पर एक साथ बीस-बीस ईंटे रख के चल रहे थे, कुछ मजदूर रेत, सीमेंट और रोड़ी का ढेर बनाकर उसमें पानी डालकर मसाला बना रहे थे ।  मजदूरों के परिवारों की महिलाएं सिर पर तसले रखकर मसाला इधर से उधर पहुँचा रही थीं ।  जब दोपहर के खाने का समय होता तो परिवार की महिलाएं लकड़ी से अग्नि प्रज्ज्वलित करके उस पर तवा रख रोटियां सेंकती जाती थीं और कुछ सब्जी या दाल बनाती थीं ।  रोटी सेकने वाली महिलाओं के चेहरे पर न कोई थकान के चिह्न और न ही कोई शिकन थी ।  रोटी खा लेने के बाद मजदूरों ने वहीं पर अस्थायी तौर से बने हैण्डपंप से जम कर पानी पिया और गुड़ भी खाया ।  फिर सिर पर पटका बांध कर काम पर चल पड़े ।  आखिरकार वह दिन भी आ गया जब भवन का ढांचा खड़ा हो गया था ।  भवन के एक विशाल हाल को पत्थरों और टाइलों से सजाया जा रहा था ।  उसमें अब शक्तिशाली लोगों की तस्वीरें लगाई जा रही थीं और कुछ मशीनें रखी जा रही थीं ।  एयर कंडीशनर लग रहे थे ।  अब यह स्पष्ट हो चला था कि वहाँ एक जिम खुलेगा । जिम के अलावा बाकी भवन का काम अभी बाकी था इसलिए मजदूर काम पर लगे हुए थे ।  वे आते जाते कौतुहल से शीशे लगे हाल में सजी मशीनों और तस्वीरों को देखते रहते थे ।  थोड़ी देर के लिए हाल का दरवाजा खुला तो उसमें से ठंडी हवा का झोंका बाहर आया । मजदूर हैरान थे कि वाह कैसी ठंडी बयार चली है ।  उस दिन जिम का उद्घाटन था ।  चमचमाती गाड़ियों में लोग समारोह में आ रहे थे ।  नौजवान लड़के और लड़कियां भी समारोह में शामिल थे ।  कुछ ही देर में जिम के मालिक कुछ बलशाली पहलवाननुमा लोगों के साथ आ पहुँचे ।  मजदूरों में भी उत्सुकता बनी हुई थी ।  वे नंगे बदन धोती पहने हुए लोगों के जमावड़े को देख रहे थे ।  साथ ही कुछ पतले और कुछ मोटे लड़के आधुनिक लड़कियों, स्त्री-पुरुषों के झुंड भी आ जा रहे थे ।  मजदूरों को समझ नहीं आ रहा था कि यहां क्या होने वाला है ।  उन्होंने उत्सुकतावश एक पतले से दिखने वाले लड़के को रोक कर पूछा कि भई तुम यहाँ क्या लेने आये हो ?  वह लड़का खिलखिलाया और बिना उनकी ओर ज्यादा देखे बोला अरे भई मैं यहाँ अपनी सेहत बनाने आऊँगा ।  यहां मैं तगड़ा बनूंगा और मेरे सिक्स पैक्स बनेंगे ।  पूरे पचास हजार रुपये की फीस भरूँगा ।  मजदूरों ने पूछा कि भई सेहत तो समझ आती है पर उसके लिये तो लोग डॉक्टर के यहाँ जाते हैं ।  फिर खुद से ही बड़बड़ाने लगे कि यहाँ भी डॉक्टर होते होंगे ।  पर यह जो तुमने अभी कहा सिक्स पैक्स यह क्या है ?  चूँकि भीड़ ज्यादा थी लड़के के पास बात करने का समय था ।  उनकी बात सुनकर उसने अपने मोबाइल में से सलमान खान, ऋतिक रोशन, जॉन अब्राहम की तस्वीरें दिखा कर उनके सपाट पेट की धारियों की ओर इशारा किया कि यह होते हैं सिक्स पैक्स, तुम क्या जानो ।  अब मजदूर कभी उन सितारों के पेटों पर पड़ी धारियों को देख रहे थे तो कभी अपने सपाट पेट पर पड़ी छः धारियों को जो अरसे से मिट्टी खोदते, फावड़ा चलाते, रेत गारा उठाते बन चुकी थीं ।  उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि सितारों के पेट पर पड़ी धारियां अगर सिक्स पैक्स हैं तो उनके पेटों पर पड़ी धारियां क्या हैं ?  उन्होंने उस लड़के से फिर पूछना चाहा पर वह तब तक भीड़ में कहीं खो गया था ।

- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली
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चरम- सीमा
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 रामू  ओ रामू --चलो जल्दी घर चलो ।
तुम्हारे घर में आग लग गई है।
हे भगवान! हाथ से करनी, बेलचा फेंक रामू बेतहाशा घर को भागा। 
सभी उसकी जली झोपड़ी पर पानी फेंक रहे थे। सब कुछ  अधजला , अधबूझा सा। 
लेकिन  हाय री! किस्मत  उसके तीनों छोटे बच्चे गठरी बन इस आग में स्वाहा हो गए थे। 
रोता चिल्लाता रामू कभी खुद को कभी कोरोनो को कोसता।
आज सुबह काम पर जाते वक्त उसने बच्चों को बाहर से बंद कर ताला लगा दिया था कि - बच्चे घर के अंदर हीं रहें बाहर कोरोना में  खेलने  ना निकल जाए। 
खुद अपनी जान जोखिम में डाल बच्चों की खातिर वह ठेकेदार द्वारा बनाए जा रहे पुल में मजदूर का काम करता था। 
पत्नी की मृत्यु पिछले वर्ष कोरोना से  हुई  थी।
इस कोरोना ने तो उसका सब कुछ ही लील  लिया। पागल बना रामू मूक सा आसमान कि ओर आँखे फाड़े देख रहा था। उसकी दशा पर सभी  दुखी थे।  आस- पास के लोग उसे सम्भालने की कोशिश कर रहे थे। 
लेकिन  रामू का खुद पर और ऊपर वाले पर से मानों विश्वास हीं ना रहा हो। उसने भी एक लम्बी सांस ली और इस  लोक से विदा ले ली । शायद यह उसके दुख की चरम सीमा थी जिसे वह निरीह मजबूर ,  मजदूर सह ना सका । सभी इस हृदयविदारक दृश्य से स्तब्ध से रह गए। 

- डाॅ पूनम  देवा
पटना - बिहार
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नींव की ईट
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जोर शोर का संगीत बडे बडे लोगों की भीड़ ।एक के बाद एक भाषण ।साथ ही बारीक से बारीक काम की चर्चा ।
वाह ठेकेदार साब वाह ,आपने तो कमाल कर दिया ।असंभव को संभव बना गए अपने रात दिन के श्रम से ।
ठेकेदार फूले न समाए।आज पुल के उद्घाटन का अवसर था।एक के बाद एक कितनी मालाएं गले पड़ गईं।
दुर्भाग्यवश श्रमकणों को बहाते नींव की ईट बने मजदूरों का कहीं नाम नहीं ॽ
उनके महत्वपूर्ण पल बलिदान की चर्चा भी नहीं ।।

 - शशांक मिश्र भारती 
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश 
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मजदूर
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                 रामू एक मेहनतकश किसान था। दिन-रात खेतों में मेहनत करता । वह अपने खेतों से बहुत प्यार करता था। उसकी मेहनत का यह परिणाम था कि अन्य लोगों की तुलना में उसके खेत में अधिक पैदावार होती थी। रामू का जीवन बड़ा सरल था। उसकी पत्नी ,बच्चे भी सरल स्वभाव के थे। उन में छल कपट नहीं था। सब कुछ अच्छा चल रहा था। अचानक कोरोना ने दस्तक दे दी। सभी जगह संक्रमण फैल रहा था इसलिए लॉक डाउन लगा दिया गया। रामू कई दिनों तक खेत पर नहीं पहुंच पाया। लॉकडाउन लगातार बढ़ता रहा और रामू की फसल सूखती गई। खेत पर किसी के न होने की वजह से जानवरों ने भी उपद्रव मचा रखा था।
        लॉकडाउन खुलने पर जब रामू अपने खेत देखने को गया तो वह सिर पकड़ कर बैठ गया ।सारे खेत सूख चुके थे। रही सही कसर जानवरों ने पूरी कर दी थी। दुखी मन से वह घर आया और घरवाली को सब बात बताई। दोनों प्राणी चिंता करने लगे, कि अब क्या होगा? कैसे बच्चे पढ़ेंगे? कैसे घर का खर्च चलेगा? इसी उधेड़बुन में 2 दिन बीत गए। रामू लगातार सोचता रहा। तीसरे दिन  वह बड़े सवेरे उठा और हल बखर के साथ खेती का सामान लेकर खेत  जाने की तैयारी करने लगा। उसकी पत्नी ने कहा अब सूखे खेतों में क्या कर लोगे? रामू बोला मैं तो मजदूर हूं मुझे मेहनत करना आता है ।मैं अपनी हिम्मत से काम करके फिर से फसल पैदा करूंगा। मैं हार मानने वालों में से नहीं हूं। मजदूर इंसान कभी भूखा नहीं रह सकता। उसकी मेहनत के द्वार सभी जगह खुले हैं। भगवान ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा। पत्नी बोली जब तुम इतने विश्वास के साथ कह रहे हो तो चलो मैं भी तुम्हारे साथ मजदूरी कर लूंगी। हमारी मेहनत बेकार नहीं जाएगी। ****

- गायत्री ठाकुर सक्षम
 नरसिंहपुर -  मध्य प्रदेश
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पापी पेट का सवाल
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घंटी बजती है, पूजा दरवाजा खोलती है। 
"अरे तुम आ गए।"
"जी मेमसाब" कहकर माली कृष्णा गमलों में काम करने लगता है। 
पूजा भी उसको काम समझाने लगती है। तभी कृष्णा बहुत तेज खांसता है। 
"तुमको तो बहुत तेज़ खांसी-जुकाम है। तुमने इसकी जांच कराई या नहीं! आजकल चारों ओर कोरोना वायरस फैला है।" कहकर पूजा एक मीटर की दूरी पर पहुंच गई।
"मेमसाब कोरोना के बारे में टी वी पर बहुत सुन रहे हैं।"
'फिर भी तुमने परीक्षण नहीं कराया?'
'मेमसाब हम पूरे दिन धूप में ही काम करते हैं, हमें कुछ न होगा। यह तो हम मजदूरों के पास भी नहीं फटकता। अगर हम बैठ जाते हैं तो पीछे से हमारे बीवी-बच्चों का क्या होगा? पापी पेट की खातिर काम पर तो आना ही है।"
'नहीं ऐसा नहीं है, यह मुआ कोरोना किसी को नहींं बक्शता। सबको अपनी चपेट में ले रहा है।'
कहकर पूजा उसे पूरी जानकारी देती है और हाथ धुलवाकर लौंग, तुलसी, अदरक की चाय पीने के लिए देती है और कुछ पैसे भी।
साथ में हिदायत भी दे देती है कि आज ही अपना परीक्षण करा लो। तुमको पता है कि तुम ऐसे में काम पर आकर और न जाने कितने लोगों को कोरोना देकर जाओगे!
जब तक तुम बीमार हो तब तक काम पर नहीं आना क्योंकि यह बहुत जल्दी एक से दूसरे में प्रवेश कर जाता है। 
"आप जैसे सब नहीं होते मेमसाब।" कहकर कृष्णा खांसते हुए वहां से चला जाता है। 

- नूतन गर्ग 
    दिल्ली
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मजदूर
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शाम हो चूकी थी लेकिन सोनू के पापा अभी तक घर नहीं पहुंचे थे, 
सोनू बार बार दरबाजे  के पास खड़ा होकर  पापा का इंतजार  कर रहा था कि कब मेरे पापा रोज की तरह आज भी मेरे लिए कुछ खाने को लाऐंगे और मुझे चूम कर गले से लगा कर बाहर घुमाने ले जांऐगे, 
लेकिन लाकडाउन होने का कारण  सोनू के घर के आस पास भी कोई नहीं दिख रहा था, 
सोनू ने  मम्मी से पूछा मम्मा आज पापा नहीं आए बहुत देर हो गई, आज मेरे लिए पापा क्या लाऐंगे, मम्मा ने कहा आते ही होंगे आप के लिए बहुत कुछ लांऐगे, 
थोड़ी देर बाद सोनू फिर यही सवाल किया,  मम्मा ने फिर कहा बेटे पापा आते होंगे, 
बहुत देर हो चुकी थी  सोनु फिर मम्मा को तंग किया तो मम्मा ने  गुस्से मे़ एक थप्पड़ बेटे के गाल पर दे मारा जिससे बेटा डुस्क डुस्क कर रोने लगा और कहने लगा जब पापा आंऐगे सुनाऊंगा मुझे मम्मा ने बहुत पीटा  , सोनु रोते रोते ही सो गया, 
रात के आठ बज चुके थे, लाकडाउन होने के कारन सोनू के पापा को कोई काम नहीं मिला था, वो हर रोज की तरह आज भी सुवह वाजार में काम ढूंढने निकला था लेकिन खाली हाथ यही सोच सोच कर चल रहा था कि आज का गुजारा कैसे होगा, जो जमा पूंजी थी पहले ही काम कम मिलने पर खत्म हो चुकी थी, अब जो मजदूरी हर रोज मिलती उसी से गुजारा चलता था लेकिन आज तो जेव में सोनू के लेने के लिए भी कोई रूपया नहीं था इसी सोच मे डूवा चल रहा था कि रास्ते में जोर की ठोकर लगी जिससे मोहन सोनू के पापा तपाक सिर के वल  गिर गए और सिर से लहू की धारा निकलने लगी जिसे मोहन ने  कपड़े के साथ बांध दिया और घर की और चल दिया, 
बहुत अंधेरा हो चुका था मोहन ने दरबाजा खटखटाया सोचा सोनू कुछ मांगेगा तो क्या दूंगा लेकिन दरबाजे पर पत्नी को पाकर चुप सा रह गया तो वीवी ने कहा सोनू रौ रौ कर सो गया आपने बहुत देर कर दी ,  मोहन ने गर्दन हिलाई और तपाक से वैठ गया कि आज काम नहीं मिला ऊपर से  सिर को चोट आ गई  दोनों पति पत्नी परेशान थे, घर में  रत्ती भर भी खाने रो नहीं था  , पति नै कहा  मुझे तो भूख नहीं है पत्नी नें भी हां में हां मिलाई, 
मोहन ने बेटे को सोते सोते चूमा और एकांत मे़ पीड़ा को सहन करत करते न जाने कब नींद आ गई लेकिन सर से खून बहना बंद नही हुआ था, 
सूबह उठने पर पत्नी ने पति को हिलाते हुए कहा उठे नहीं आज काम नहीं जओगे क्या बहुत देर कर दी लेकिन पत्नी के हिलाने पर भी जब कोई जबाब नहीं मिला तो पत्नी ने गौर से देखा चारपाई के नीचे बहुत से खून के धब्बे धे और पति देव स्वर्ग सुधार चुके थे पत्नी की चीख यही कह रही थी की हमको किस के सहरे थोड़ रहे हो, तब तक चार बर्षिय सोनू की आंख खुल गई वो उठते ही पापा पापा करके पापा को हिला रहा था  और कह रहा था पापा मुझे मम्मा ने बहुत मारा सुनो, पापा सुनते क्यों  नहीं, रात को मेरे लिए क्या लाये थे,  मैं आप को याद कर कर के सौ गया था पापा  मम्मा से पूछो मुझे क्यों मारा, 
मम्मा की आंखों में आंसूओं की वौछार  निकल रही थी उसने बेटे को गले लगाते हुए कहा अब तेरे पापा कभी भी आप से बात  नहीं करेंगे, न कभी आप के लिए चीजी लांऐगे, अनजान बेटा अभी पापा को शिकायतें कर रहा था, 
मम्मा के मन ही मन में ऐसा महसूस हो रहा था कि
हे खुदा किसी को गरीबी न दे
मौत दे दे मगर वदनसीबी न दे। 

- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
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इंसानियत 
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सिद्धार्थ गुप्ता पेशे से वकील थे ।वकालत में अच्छा पैसा कमाया था ।वैसे भी उनके पूर्वज 
जमींदार थे । भविष्य के फिक्र में , बहुमंजिली   इमारत बनवाने की चाह जागी । जमीन खरीदी गयी ,नक्शा पास हुआ ।भूमी पूजन भी कर लिया ।सब काम निर्विघ्न पूरा हुआ ।
स्वयं मजदूर चौक गये ,जाँच परख के मिस्त्री और मजदूर ले आये ।निमिया मिस्त्री को हेड 
बना दिया ।काम चलने लगा ।मजदूरों के  हिसाब से  रोज के  मेहनत का   भुगतान गुप्ताजी निमिया को दे देते ।निमिया सबको खरे पैसे  बाँटता  ।अतः गुप्ताजी से अधिक सारे मजदूर निमिया को पहचानते । दिन भर सरजी -सरजी कहते रहते ।एक बार पुकारता तुरन्त उसके चाय -पानी का इंतजाम हो जाता । रविवार की छुट्टी थी । सोमवार मजदूर चौक पर सारे  मजदूर इकठ्ठा हुए लेकिन उस दिन निमिया नहीं आया । दूसरे ,तीसरे ,चौथे दिन भी यही रहा ।गुप्ताजी ने दूसरे मिस्त्री के आधीन मजदूरों को काम करने कहा लेकिन सब खिसक गये । पन्द्रह दिन काम बन्द हो गया ।
सोलहवें दिन निमिया अपने मजदूर गैंग के साथ पहुँचा । तेज तर्रार वकील साहब ने पहले तो ,पैर के पास बैठे  निमिया को बहुत खरी  -खोटी  सुनायी । 
बाद में पूछा   " इतना दिन क्यों बैठ गये  ?"
निमिया  अनमने मन से बोला  " का करें मालिक ! खूनवे मिठा गया है । चलल ही न जाता था ।  डा०बाबू मीठा खाने को  मना  किए हैं ।"
             इमारत चार मंजिल बन चुकी थी ।आज पाँचवीं केलिए भाड़ा बँधा , काम शुरु हुआ । गुप्ताजी प्रबंधक को काम सौप कर कचहरी चले गये । 
  ईटें की जोड़ाई शुरु हुई , इतने में कुछ जोर से गिरने की आवाज हुई !जब तक कुछ समझ में आता , भाड़ा टुट चुका था ।
निमिया खून से लथ -पथ जमीन पर पड़ा था ।
सब मिलकर उसे अस्पताल ले गये । इलाज के बाद पुलिस निमिया का बयान दर्ज करने आयी । गुप्ताजी डर रहे थे । निमिया कहीं डाँट की खुन्नस न निकाले उल्टा-पुल्टा बयान देकर ।
कहीं सही बयान देने के लिए पैसे न माँगे  ! निमिया ने बयान दिया 
 " सरजी पन्द्रह दिन से बिमार था ,चक्कर आगया ,पटरा टूट गया गिर पड़ा  ।"
  निमिया के बयान की सच्चाई से गुप्ताजी
भावुक हो उठे । आँखे नम हो गई ।इस वाकिये के बाद , निमिया जब भी आता उसे को बैठने के लिए गुप्तजी कुर्सी  दिलवाते  ।
                   -  कमला अग्रवाल 
                    गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
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श्रमिक का अहं
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रात में अचानक जमींदार के खेत से धुआँ उठने लगा। "आग!आग..."  चिल्लाते हुए कोई पानी से भरी बाल्टी,तो कोई मिट्टी, बालू लेकर दौड़ पड़ा। सारे प्रयासों के बाबजूद खड़ी फसल राख के ढेर में बदल गई।
   जमींदार की ड्योढ़ी पर मजमा लग गया। सभी गमगीन थे। तभी बटोही, जो जमींदार के खेत पर दिहाड़ी मजदूर था बिलखते हुए आया, "ई का हो गइल हुजूर। हमनी त भूखे मर जाइब। काल्हे से कटनी के आस रहे। हमनी त बरबाद हो गइली सरकार।"
तभी मुनीम ने जमींदार के कान फुसफुसा कर कहा,
"सरकार, 1 करोड़ का तो मुआवजा मिल ही जायेगा।"
"सरकार हमरो कुछ मिल जाई त दू शाम के जुगाड़ हो जाई। सभै दुआ देहि सरकार।"
बटोही के कमर पर एक लात जमाते हुए जमींदार दहाड़ा,
"सौ रुपल्ली का औकात नहीं और मुआवजा चाहिए। मुआवजा केवल जमीन के मालिक को मिलता है, मजदूर को नहीं।"
अबकी बटोही पल्ला झाड़ कर उठ खड़ा हुआ। उसने छाती ठोंक कर जैसे एलान किया,
" हमनी मजदूर बा। मेहनत के कमाई कहीं से भी कमा लेब। अपने सब सरकार से भीख लेवे ला अपन धिया-पुता जैसन फसल के जला डालन। कबहुँ  न सुखी रहब" कह कर बटोही शान से वहाँ से निकल गया।

- संगीता गोविल
पटना - बिहार
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मजदूर 
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रामू, श्यामू लोक डाउन के चलते किसी तरह अपने गाँव लौटकर आये l वहाँ भी उन्हें कोई काम नहीं मिला l लोग लॉकडाउन के चलते खुद हीखेतों में काम कर रहे थे l प्राकृतिक आपदा कोरोना महामारी ने जैसे उनके जीविकोपार्जन के साधन छीन लिये l उनके पास रोजी रोटी का कोई साधन नहीं रहा l पिताजी की बीमारी में जमा पूंजी भी खर्च हो गई l वे भीख मांगने के लिए मजबूर हो गये l जब उन्हें कोई भोजन के पैकेट देकर जाता तो बेबस ही उनकी आँखों में आसूँ आ जाते हैं कि आज इस आपदा ने उन्हें किस मोड़ पर ला खड़ा किया है l
हम भिखारी नहीं, मजबूर हैं l कोई काम हो तो बताओ, पर कोई काम देता नहीं l

   - डॉo छाया शर्मा
    अजमेर -  राजस्थान
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मेहनतकश कामगार
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   कोरोना महामारी का प्रकोप और पूर्ण लॉकडाउन लग जाना--- कामगारों के लिए विपदा की घड़ी थी।
   सुनील अपने गांव में बुजुर्ग माता-पिता को छोड़ मुंबई में एक फैक्ट्री में कार्यरत था। वह मेहनत कर सम्मान की जिंदगी जी रहा था।
  अचानक लॉकडाउन लगने के कारण, रोजगार का छूट जाना और ऐसी विकट घड़ी में माता-पिता का बीमार पड़ जाना--- उसे बेबस और असहाय महसूस करा रहा था‌।
      आवागमन का साधन बंद होने के कारण वह अपने परिचितों के साथ पैदल अपने माता-पिता से मिलने घर की ओर चल पड़ा। लंबी दूरी पैदल चलकर, कभी ट्रक पर बैठ कर जाना --इस बीच में पुलिस की बदसलूकी, मजदूर कह कर अपशब्द सुनाना--- उसकी आत्मा को झकझोर देता।
       सुनील सोचने को मजबूर था-- हम कामगारों की परेशानियों और बेबसी को महसूस करने वाला शायद कोई नहीं। हमारे मेहनत से मालिकों के कारखाने चलते हैं, नेताओं के वोट बैंक हम बनते हैं--- समय पर कितनी मीठी मीठी बातें और वादे ये सभी करते हैं पर करोड़ों अरबों के फैक्ट्री के मालिक और स्वार्थी राजनेता हम मजदूर  कामगारों की वेबसी को नहीं समझ पाते-- उनकी आत्मा क्या मर जाती है? मजदूरों के खून चूस कर राज करने वालों पर ही ईश्वर भी मेहरबान होता है, हम गरीब कामगारों की बेबसी, लाचारी और दयनीय स्थिति को समझने वाला कोई नहीं।
             
- सुनीता रानी राठौर 
   ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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डूबते को थाह मिलना 
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रात के दो बज रहे थे अचानक फोन बचने लगा मीरा ने फोन उठाया तो उधर से कमली का फोन था रो रो कर कह रही थी मेडम मददत करो मेरी बेटी बहुत तेज बुख़ार में तप रही है मूंह भी नही खोल रही रही मेरे पास पैसे नही है और जगह भी फोन किया पर कोई नहीं सुन रहा मज़दूरी सब करा लेते है पर मज़दूरों की मददत कोई नही करता , फोन किया पर किसी ने फोन नही उठाया ..
मीरा शांत हो जाओ ठंडे पानी की पट्टी रखो सिर पर और अपने घर का पता भेज दो .. में डाक्टर को लेकर आती हूँ । 
जी मेडम बहुत बहुत उपकार आपका ...लग रहा है जैसे डूबते को थाह मिल गई है ...चलो ठीक है फोन रखो मुझे डाक्टर को फोन करने दो ...पर कमली ने मिरा के ऊपर आशिर्वाद की छड़ी लगा दी आप दीर्घायु हो , आपकी सब मुरादे पुरी हो 
कमली बस करो बाद में आशिर्वाद देना अभी फोन रखो ...
मीरा ने फोन रखा डाक्टर को फोन किया और पति को जगाना उचित नही समझा एक काग़ज़ पर नोट लिखा की मैं कमलीके घर जा रही हूँ , उसकी बेटी बिमार है । 
मीरा ने गाडी निकाली और डाक्टर के घर पहूची वह भी तैयार थे उनको लेकर  पास की वस्ती मेंपहूची .., "डॉ. रुपेश कहने लगे " मीरा तुम्हारा भी जवाब नही आधी रात को इस गंदी बस्ती में मददत को आ गई तुम्हारा दिल बहुत ही सुदंर है , तुम पर सदा ग़रीबों का आशिर्वाद बना रहता होगा ...
मीरा वह तो मैं नही जानती डॉ. रुपेश , परन्तु जो लोग हमारी सेवा करते हमें सुख देते है , उनकी जरुरत पर हम नही साथ देगे तो भगवान को कैसे मूंह दिखायेंगे ...
वह हमसे सवाल तो पूछेगा न और कमली अकेली है , उसका बेटी के अलावा कोई नही है बेटी की बिमारी से घबरा गई है ,
हमें सहायता करनी ही चाहिऐ 
तब तक कमली की खोली आ गई , मीरा व डाक्टर को देख कमली उनके पैरो पर गिर कर बहुत अभार व्यक्त करने लगी .
मीरा ने कहा कमली तुम रोना बंद करो और डॉ को अपना काम करने दो ।कमली के अंदर का डर कम हो गया था उसे लगा जैसे डूबते को थाह मिल गई ...
डॉ ने मरीज़ को देखा और अपने पास से दवाई दी तथा इंजेक्शन लगाया जिससे उसका बुख़ार उतर गया और वह आंखे खोल कर सब को देखने लगी कमली मारे खुशी के मीरा के गले लग कर धन्यवाद कहने लगी ..और आशीर्वाद पर आशीर्वाद बरसाने लगी ...
डॉ रुपेश कमली इलाज मैने किया आशिर्वाद मीरा को दे रही हो , कुछ मुझे भी दे दो आशिर्वाद कम नही हो जायेगा ...मीरा बोली हाँ हाँ कमली डॉ . रुपेश को आशिष की बहुत जरुरत है उन्हें भी कुछ अच्छे से आशीर्वाद दे दो मज़दूरों का आशीर्वाद बहुत फलता है । 
कमली झेपते हुये , अरे डॉक्टर जी आपकी वजह से ही मेरी बेटी ठीक हुई है , आप का दवाखाना खुब चले आपके बच्चे हमेशा स्वस्थ रहे आपकी लम्बी उम्र हो डॉ बस बस तुम शुरु होती हो तो तो नानस्टाप  गाडी को ब्रेक लगाना पड़ता है । और सुनो ...
डॉ ने कमली को कुछ हिदायत दी और हल्का खाना देने को कहा तथा अपना कार्ड दे कर बोले दो दिन बाद आकर मेरी क्लीनिक में आ कर बिटिया को दिखा जाना ..
फिस की चिंता मत करना तुम्हारा आशिर्वाद ही बहुत है ,क्योंकि मीरा मेडम से डाँट नही खानी है । 
कमली ..आज कल भी आप के जैसे लोग भगवान बन मददत करने आते है , नई ज़िंदगी देते है । मैं सबको फोन कर हार गई थी सबने कहाँ सुबह देखेंगे , पर आप बिना कुछ कहें डॉ साहब को लेकर आ गई आप का यह उपकार कभी नही भूलूँगी ..
मीरा ठीक है मत भूलना पर तुम भी जरुरत पर किसी की मददत करना और दो तीन दिन काम पर मत आना बेटी का ख्याल रखो .
और वह गाडी पर बैँठ कर चली गई , कमली को सब सपना जैसा लग रहा था मीरा मेडम ने कैसे उसडूबते की थाह बन कर आ गई 
वह वही खड़ी उनको जाते देख रही थी और दुआयें देती जा रही थी , दिल से दोनो के लिये आशीर्वाद निकल रहे थे 
मज़दूरों की मददत को भगवान किसी न किसी रुप में आते है । 
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई- महाराष्ट्र
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उसकी चाहत
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ठक - ठक करती हुई आवाज बार- बार ध्यान भंग कर रही थी । ऑफिस में नए साहब आने वाले थे , उनके स्वागत की तैयारी में चारों ओर साज सज्जा हो रही थी । सहसा किसी ने मेरा पैर पकड़ा, तो मैं चौंक गई । देखा तो लगभग 9 वर्ष की बच्ची थी, जो लगातार मेरा मुँह देखे जा रही थी।
क्या बात है बेटा, तुम यहाँ कैसे आईं ।
उसने अपने सीधे हाथ से दिखाते हुए कहा, वहाँ मेरी मम्मी काम कर रहीं हैं, उन्होनें आपके पास भेजा है ।
तुमको भूख लगी है क्या ? मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा । अभी देते हैं कुछ खाने के लिए ।
नहीं, खाना तो मैंने खा लिया है । मैं तो ये देख रही हूँ कि इस कुर्सी में बैठने के लिए कितना पढ़ना पड़ता है ।
मैंने मुस्कुराते हुए उसे गोद में उठा कर कहा, बस नियम से स्कूल जाओ तो जल्दी ही इससे भी बड़ी कुर्सी व ऑफिस मिलेगा ।
कातर दृष्टि से देखते हुए उसने कहा फिर मेरी मम्मी को इस तरह काम भी नहीं करना पड़ेगा ।

छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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मजदूर का संकल्प 
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         पाँच बरस पहले जब सहर गया था जुगनू कंपनी में नौकरी करने--- तब झोंपड़ी की तरह दिखने वाला मगर मजबूत घर - - घर के सामने लगभग एक एकर का बाड़ा - - बाडे़ में चारों ओर घेरते सीताफल निबू संतरा के फलदार वृक्ष आँगन के बीचों-बीच तुलसी मैया का चौरा और आँगन द्वारे से कुछ ही दूर गाँव का चौबारा पीपल की घनी छाया वाला - - ये सब छोड़ कर गया था। - - - - और सबसे ज्यादा अम्मा बाबूजी की गूंजती आवाज में सुबह सबेरे से  रामायण की दोहा, चौपाई, सोरठा, छंद और शाम को ढोलक की धमधम और झांझ की छनक छन के साथ आल्हा की रागिनी---बड़ी कठिनाई से भुला पाया था यह स्वर्गिक आनंद।
      दस बाय दस की कुठरिया में बीते आजाद जिनगी की बँधी नौकरी के पांच साल और  हासिल रहा - - -आज अम्मा बाबूजी की राख और ये उजडा़ चमन।
       कुआं भीतर धँस चुका था। बबूल की झाड़ियां बेसरम के झाड़ और झरबेरी पूरे परिसर को लील चुकी थी। दो तीन दिनों की हाड़तोड़ मेहनत के बाद कुंआं कुछ उपर आया और पानी हाथ को लगा।
        बस दोनों आदमी औरत को तो प्राण मिल गये मनो। खोदते चले खोदते चले और एक समय घुटना घुटना पानी आ गया।
        दो दिन से डबल रोटी और चाह पर जी रहे परिवार की चाह जी उठी। 
     अचानक घर की कुंडी बजी। द्वार पर बड़ी बखरी के कारिंदे खड़े थे। उनके हाथ में एक कागज था जिस पर कुछ लिखा था और नीचे बाबूजी का अंगूठा और नाम लिखा था। पढा कि यह घर बाड़ा कुआं सबकुछ बखरी के मालिकों के पास गिरवी पड़ा है-- 20000/- रूपयों में! एक क्षण के लिए अँधेरा छा गया आँख के नीचे लेकिन सहर के वासी हो चुके दोनों मानस - - - छिपा लिए अपने टूटे दिल का हाल और वादा कर लिया संकल्प ले लिया अपने आप से कि और उनसे भी कि छःमाह में पूरा पईसा चुका देंगे अपने गांव में ही मजदूरी करके अपने गांव की माटी की  मजदूरी करके
         और दूसरे दिन सूरज देवता ने देखा कि चार मेहनतकश हाथ और कांँधे हल से जुते हैं और चार नन्हीं हथेलियाँ थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हे पानी और गुड़ खिला रही हैं।
      कोरोना के कारण बदली उस परिस्थिति में  आज बस उफनता वर्तमान और चमकता भविष्य ही उस मेहनती मजदूर परिवार का सहारा है जो अपने ही घर में अपनी माटी की मजदूरी करके  आशाओं के आशीष की राह पर चल पड़े हैं मेहनत की पूंजी के सहारे। 

 -  हेमलता मिश्र "मानवी"
नागपुर - महाराष्ट्र 
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गरीब की इज्जत
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अरे! यहां पर सब्जी का ठेला क्यों लगाया है?
  अस्पताल के बाहर खड़े चौकीदार ने कहा!
क्या कह रहे हो भैया?
एक गरीब का दर्द एक गरीब ही समझेगा। 
वह अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था तभी एक पुलिस की गाड़ी आ गई।
एक पुलिस वाला उसे एक दो डंडा मारने लगा और दो पुलिस वाले उसकी सब्जी को फेंक दिए नीचे।
तुम लोगों को समझता नहीं है कि लॉकडाउन में घर के अंदर रहो हम साले यहां काम कर कर के मरे जा रहे हैं और तुम लोगों को घर में चुपचाप रहते नहीं बनता। और उसका ठेले को उलट दिया।
ठेले वाले कमलेश ने पुलिस वाले को के कॉलर को पकड़ लिया और कहा कि साहब आपको मैं प्यार से कह दे तो मैं यहां से हटके चला जाता गरीब आदमी अपनी रोजी-रोटी के लिए ही यह सब करता है मरने से डर तो हमें भी लगता है लेकिन क्या ऐसे चलेगा.......।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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 मजदूर ,मजबूर नहीं 
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दीनदयाल दिनभर ,बस व रेलवे स्टेशन आदि स्थानों पर कुली का कार्य करता  और अपने छोटे भाई संजु को अंग्रेजी विद्यालय में पढ़ाने का ख्वाब देखता।
वह हमेशा कहता••••• " मैं तो अनपढ़ रह गया, परन्तु अपने छोटे भाई को अनपढ़ नहीं रहने दूंगा"•••• दिन - रात मजदूरी करता ।  एक दिन उसका ख्वाब पूरा हो ही गया।  वह अपने ठेले पर बिठा कर अपने भाई को विद्यालय छोड़ने गया। बस उसी दिन से संजु का नाम "संजु "से "ठेले वाले मजदूर का भाई " हो गया।  क्योंकि अंग्रेज़ी  विद्यालय में सभी हाई सोसायटी के बच्चे जो पढ़ते थे। संजु रोज़ाना घर जाकर अपने पिता समान भाई से यह वाक्या बताता और जिद्द करता कि वह भी अब स्कूल बस में ही विद्यालय जाएगा।  ठेले पर नहीं। 
दीनदयाल अब और अधिक   काम करने लगा।  जिससे संजु को किसी प्रकार की शर्मिन्दगी का सामना ना करना पड़े। 
एक दिन स॔जु नें आकर बताया कि विद्यालय में वार्षिक उत्सव है। और संजु  भी उसमें हिस्सा ले रहा है। और दीनदयाल को विद्यालय ना आने की सख्त हिदायत दे  दी गई ।
वार्षिक उत्सव का दिन आ गया।  संजु अच्छे से तैयार हो कर गया।  यह सब देखकर दीनदयाल से रहा ना गया । ••••आखिर वह अपना बचपन भी तो जी रहा था !••• वह काम खत्म कर चोरी - चोरी अपना ठेला लेकर पहुँच गया विद्यालय। 
वह अपने संजु की प्रस्तुती देखकर खुशी से सब भूल गया और झूमने लगा । सभी मित्रों ने बाहर आने पर संजु व उसके भईया की खूब हंसी उड़ाई।
सभी बालक  स्कूल बस का इन्तजार कर रहे थे। एक घंटा बीत गया । पर बस ना आई।  अब सभी बालकों के विद्यालय में  फोन आने लगे।
बस वाले को फोन किया गया तो पता चला कि वह बीमार है।  नहीं आएगा। 
दीनदयाल नें ठेला उठाया सभी बालको को हाथ जोड़कर बैठने को कहा।
 पहले तो सभी नें ना बैठने की जिद्द की पर घर भी जाना था तो बैठ गए। 
संजु भी मित्रो के साथ ठेले पर बैठ गया रास्ते में दीनदयाल नें खूब मजे करवाए । सभी बालको  को आइसक्रीम भी खिलाई।  सभी बालक अपनी करनी पर शर्मिन्दा थे सभी नें हाथ जोड़कर दीनदयाल और संजु से माफी मांगी। 
दीनदयाल नें सभी बालको को समझाया की मेहनत करना कोई बुरी बात नहीं हैं। 
और तब से दीनदयाल , ठेले वाले के नाम से सभी बालको का बड़ा भाई बन गया।

- ज्योति वधवा "रंजना"
बीकानेर - राजस्थान
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सदारत
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"सर,कल आप हमारी बाल कल्याण मजदूर समिति के सालाना जलसे की सदारत कुबूल कर लें तो, हमें बहुत खुशी होगी।" समिति के सेक्रेट्री ने श्रम कल्याण अधिकारी से कहा।
" हां हां क्यों नहीं, जरुर। मैं ठीक समय पर पंहुच जाऊंगा।"
अब वह जलसे में जाने के लिए तैयार हो रहे थे।
"जमुना,अबे ओ जमुना। कहां मर गया? मेरे जूते ला।"
"ये लो मालिक।" एक आठ-दस साल का बालक जूते लेकर आया। उन्होंने वही जूता उठाया और उसके सिर पर मारते हुए बोले,
"कमबख्त ध्यान नहीं तुझे।जूते पालिश नहीं हुए। मुझको बाल मजदूर कल्याण समिति के जलसे में जाना है।देर करा रहा है।"
वह दूसरे जूते पहन अपनी कार की तरफ चल दिए।
जमुना अपना सिर पकड़े बैठा था।

- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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अभिनन्दन 
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     रामलाल के पूर्वजों की चल-अचल संपत्तियों का सही उपयोग नहीं होने के कारण, सब की बिक्री हो गई थी, रामलाल अत्यंत कठिनाईयों मजदूरी करते-करते, अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होकर अपने तौर तरीकों से भविष्य के लिए गन संचय कर  खुले वातावरण में जमीन खरीदी, स्वयं एक व्यवसायिक और प्रबुद्ध अभियंता भी बन चुके थे। उन्होंने मकान का वास्तुशिल्प नक्शा बना कर निर्माण कार्य सुचारू रूप से प्रारंभ कर दिया,  देखते ही देखते मकान की भव्यता को देख सभी समुदाय आकर्षित हो गये क्योंकि जिस कलात्मकता के साथ भवन का निर्माण समय पूर्व करवाकर दिखा दिया था।

     उन्होंने मकान उदघाटित करने का मजदूर दिवस के दिन निश्चित किया, "आमंत्रण-पत्र" सभी प्रबुद्ध वर्गों,  समसामयिक, राजतंत्र अन्यों को आमंत्रित कर अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की झलक दिखाने का प्रयास किया।
सभी आमंत्रित जन उपस्थित हो गये। मंच पर उन्हें आमंत्रित किया जिन्होंने आकर्षित ढंग से कलात्मकता के साथ भवन का निर्माण किया था। रामलाल के इस संदेश से आमंत्रित देखते रह गये थे, जिन्हें लग रहा था, उन्हें ही मंच पर आमंत्रित करेगें। समारोह प्रारंभ हुआ, रामलाल परिवार जनों ने आत्मीयता के साथ समस्त मजदूरों (पुरुष/महिला), मिस्त्रियों का भव्यता के साथ माला, अभिनन्दन-पत्र, शाल-श्रीफल  भेंट कर सम्मानित किया। रामलाल ने अपने उद्बोधन में कहा-"हमनें तो अपनी पूर्वजों की  पूंजियों का कर्मठा के साथ  उपयोग इस तरह से करने के लिए मजदूरों के योगदानों से ही पूर्ण कर पायें हैं, जिन्होंने गर्मी, वर्षा,  ठंड में अपने जीवन यापन करने की पूर्ति हेतु जन मानस के तत्पर रहते हैं, इनकी कर्मठा को वृहद स्तर पर भूला नहीं जा सकता हैं, यही सम्मानों के वास्तविक हकदार हैं, फिर क्या था, तालियों से हाल गुंज उठा। सभी आमंत्रितों ने रामलाल के इस सार्थक पहल का स्वागत और नये इतिहास का शुभारंभ, रामलाल कर दिया हैं, यही पूर्वजों के संस्कार हैं।

- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर" 
   बालाघाट - मध्यप्रदेश
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मजदूर 
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            जब से सुखिया ने हौंस संभाला, खुद को कभी तपती दोपहरी में पेड़ की छांव में, तो कभी सर्दी की धूप में, मिट्टी में खेलते हुए पाया । 
        वह देखती रहती थी अपने मां-बाप को गारा, ईटें उठा-उठा कर ले जाते हुए । उसके देखते ही देखते एक सुंदर बंगला तैयार हो गया । अब वह  उस बंगले में रहती । उसको लगा अब हमेशा वह यहीं रहेगी मगर फिर वह झोपड़ी में आ गई तो रो पड़ी ।   
"माॅ-बापू, मुझे तो उसी बंगले में रहना है ।" 
"बेटा, अब हम उसमें नहीं रह सकते क्योंकि अब उसके मालिक उसमें रहेंगे ।" 
"फिर हम किस बंगले के मालिक हैं ?"
       उसके इस मासूम सवाल पर दोनों की आंखें भर आई काश..........।" 
"बताओ ना बापू ।" 
"बेटा, हम किसी भी बंगले के मालिक नहीं है ।" 
" फिर बनाते क्यों हो ?" 
"मजदूर हैं, मजदूरी करने के लिए बनाते हैं ।" 
"बापू क्या कभी मैं भी......हम भी......... मालिक बन सकते हैं ?" 
"क्यों नहीं, जरूर । जब मेरी लाडो पढ़-लिख लेगी तो इससे भी सुंदर बंगले में रहेगी ।"
        मां ने बहुत प्यार से उसे गोद में लेते हुए कहा । 
"सच' माॅ.........।" 
"हां क्यों नहीं ।" 
"फिर तो मैं खूब पढूंगी ।"
        और दूसरे ही दिन से उसने पढ़ाई शुरू की कंकड़ पत्थर से.........रेत पर किसी कागज के टुकड़े पर लिखे शब्दों को लिखकर......... बार-बार लिखकर । फिर पास के एक सरकारी स्कूल में झाड़ू लगाती पढ़ाई करने लगी । 
         वहां की प्रधानाध्यापिका ने उसकी लगन देखी तो उसे भरपूर सहयोग और प्रोत्साहन दिया ।  डूबते को तिनके का सहारा मिला । 
          आज उसका बंगला, उसके बचपन के बंगले के सामने खड़ा है जिसके निर्माण के समय उसनें खुद मजदूरी की, गारे-ईंटों की तगारियां उठाकर एक उदाहरण प्रस्तुत किया क्योंकि वह मजदूर की बालिका अब कलेक्टर है ।
                        - बसन्ती पंवार 
                   जोधपुर - राजस्थान 
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उम्रदराज 
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      राम लाल घर से जाने लगा तो पत्नी ने कहा, "आज काम मिल जाए तो अच्छा है क्योंकि घर में अभी के खाने का ही जुगाड़ था।" कोई जवाब दिए बिना वह साइकिल पर सवार होकर घर से निकल पड़ा। प्रति दिन की भांति "लेबर चौंक "पर जाकर खड़ा हो गया। 
            एक ठेकेदार आया और छांट कर युवा मजदूरों को ले गया।वह वहां खड़ा लाचार आंखों से ताकता रहा।  उसे बार बार पत्नी के शब्द आने लगे और बच्चों के चेहरे आँखों के आगे आते ही कलेजा मुंह को आने लगा। उस की तंद्रा भंग हुई जब "लेबर चौंक "की घड़ी ने नौ बजे का घंटा बजाया।
       हे भगवान! आज भी घर खाली हाथ जाना पड़ेगा।अभी सोच में डूबा हुआ था कि एक कार आकर रुकी। कार में बैठे साहिब ने अपना सिर बाहर निकाल कर पूछा, "क्यों रे भाई! एक दिन की मजदूरी का काम है,चलेगा। "राम लाल ने तीव्रता से जवाब दिया "हाँ जी, जरूर चलूँगा।"वैसे तो वह हमेशा  राज मिस्त्री के साथ काम करता, लेकिन उस ने सोचा, आज जो भी काम मिलेगा, कर लूँ गा।बच्चों को भूखा नहीं सोना पड़ेगा। 
              कार वाले साहिब बोले,"क्या मजदूरी लेगा? जनाब, आप को पता ही है,मजदूर की दिहाड़ी पांच सौ रुपए  है।वो सामने "लेबर चौंक "पर बोर्ड पर भी लिखा हुआ है। "राम लाल ने विनती भरे लहजे में कहा।
        मुंह बचकाते हुए कार वाले साहिब बोले,"वो तो ठीक है---लेकिन तू है भी तो उम्र दराज। चार सौ में चलना है तो चल।
         राम लाल ने ठंडी सांस भरी और हाँ में सिर हिलाया।अब कार वाले साहिब अपनी जीत पर गर्दन अकड़ाकर कार चला रहे थे और राम लाल गरीबी और लाचारी के बोझ तले दबी गर्दन झुकाकर अपनी साइकिल कार के पीछे पीछे चल रहा था।
         
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप, पंजाब
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मजदूर 
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लेखराम बिहारी मजदूर है । वो हर साल दो बार  रबी और खरिफ़ फसल कटाई के समय बीवी बच्चों के साथ मजदूरी करने पंजाब आता ।  हर साल दो बार पंजाब के रोपड़ के बजरुड़ आने के कारण वहां के सारे किसान उसे अच्छी तरह से जानते हैं । मृदुभाषी लेख राम जब इस बार रबी की फसल कटाई पर बजरुड़ आया तो परिवार सहित टयूब वेल  के साथ झोंपड़ी लगा ली और काम पुछने जान पहचान के जमींदारों के पास गया । वो तब हैरान रह गया जब सभी ने एक ही बात कहकर उसे काम देने से मना कर दिया । सभी ने कहा कि लॉक डाऊन के कारण माली हालत ठीक ना होने से वे फसल कटाई खुद करेंगे तुम्हे काम नहीं दे सकते ।
  लेखराम का चेहरा उतर गया ।तीन दिन में जेब का पैसा भी खाने में खत्म हो गया ।
  उसे एक ख्याल आया और वो भागता हुआ ईंट भट्टा मालिक के  पैरों पर गिर पडा और काम पर रखने की विनती की । भट्टा मालिक ने उसे काम दे दिया तो वो धन्यवाद करते करते  अपनी झोंपड़ी की तरफ पूर्ण उर्जा से भरपूर तेज चल पडा ।।

- सुरेन्द्र मिन्हास 
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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मजदूर
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कम्मू मजदूर रोज काम के लिए घर से प्रात: निकलता और दोपहर तक घर आ जाता । उसकी माँ बीमार थी उसे प्रतिदिन काम नही मिल रहा था । क्योंकि लोकडाउन चल रहा था ।वह परेशान रहता था । उसकी परेशानी देखकर पड़ौसी पैसा लाल ने अपनी पत्नी से कहा कि अपना पड़ौसी परेशान है उसे काम नही मिल रहा है । उसकी मदद करनी चाहिए । उसकी पत्नी के द्वारा उसे बुला लो मैं बात करता हूँ । उसने पड़ौसिन से कहा । अरि सुलक्षणा सुनती हो , मैं चाय बना रही हो तुम अपने पति के साथ हमारे यहाँ आ कर बात कर लो । वह पति के साथ आई तब तक चाय तैयार थी , सभी ने प्रेम से चाय की चुस्की ली । पैसा लाल ने कहा देख भाई कम्मू मुझे अपने घर में काम करवाना है अगर तुम्हारे पास समय हो और काम करना चाहते हो । तो लो मैं एक हजार रुपये एडवांस देता हूं । कल से काम शुरु कर दो और जो हो मांगते रहना । कोई संकोच न करना । काम के लिए रुपये दे रहा हूँ । अपनी माँ का भी इलाज करवा लेना है । हम एक दूसरे के काम आये यही पड़ौसी धर्म है । चाय समाप्त होने पर वह हाँ कहकर अपने घर आया और माँ का इलाज करवाकर कुछ पैसे अपनी पत्नी को घर के खर्च के लिए दिये । और बार बार ईश्वर को प्रणाम किया ।

- राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी - उत्तर प्रदेश
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मजदूर
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एक दिन दीनानाथ जी के दरवाजे पर किसी ने खटखटाया। जब दीनानाथ जी ने देखा तो वह एक तीस - बत्तीस वर्ष का नवयुवक था जो शक्ल से शरीफ और तेजस्वी लग रहा था। दीनानाथ जी को देखकर उसने कहा कि अंकल जी क्या आप के घर कोई मजदूरी का काम करने जैसा है। जब दीनानाथ जी कुछ समझे नहीं तो वह आगे बोला कि वह एम ए पास पढ़ा लिखा है लेकिन कोई नौकरी न मिल पाने के कारण मजदूरी कर अपनी आजीविका कमाता है। परंतु आजकल कोरोना महामारी के चलते उसको काम मिलने में तकलीफ पड़ती है अतः वह कॉलोनी विस्तार में इस प्रकार घूम घूम कर काम मांगता है। यह सुन कर दीनानाथ जी बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि वे रिटायर्ड शिक्षक थे और ऐसे खुद्दार इंसानों की वे बहुत कद्र करते थे। परंतु उनके घर तो कोई मजदूरी का काम था नहीं अतः उन्होंने उस युवक से कहा कि भाई तुमको मैं वैसे ही सौ -दो सौ रुपए दे देता हूं क्योंकि मेरे घर कोई मजदूरी का काम तो नहीं है परंतु मैं तुमसे काफी प्रभावित हूं अतः तुम्हें कुछ आर्थिक मदद करना चाहता हूं। यह सुन कर वह नवयुवक बोला कि माफ कीजिए इस तरह मैं पैसे नहीं लेता क्योंकि मैं एक मजदूर हूं भिखारी नहीं और वह वहां से चला गया। ****

- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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समझदारी
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मैं जब मजदूर चौक से एक बुजुर्ग को घर और पानी की टंकी की साफ-सफाई करवाने के लिए घर लेकर पहुँचा, तो पत्नी ने मुझे एक तरफ लेजाकर, नाराज होते हुए धीमी आवाज में पूछा --"आप इस बूढ़े को क्यों ले आए ? किसी जवान को लाना था। ये तो एक घंटे का काम दो घंटे में करेगा।"
"सुगंधा ! बूढ़ा है बेचारा ! कोई इसे काम के लिए नहीं ले जारहा था, सभी जवान को ही ले जारहे थे।"
"तो हमने क्या ठेका ले रखा है ?" पत्नी ने थोड़ा गुस्से में कहा।
"ठेके की बात नहीं है सुगंधा ! इंसानियत की बात है। तुम जरा ये सोचों कि इनकी उम्र क्या काम करने की है ? कोई मजबूरी होगी। वरना ये चाहते तो मजदूरी करने के बजाय किसी मंदिर के बाहर बैठकर भीख...।" ****

- राम मूरत 'राही'
इंदौर - मध्यप्रदेश
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 मजबूर ख्वाहिश
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    लोहे के सरियों से भरा भारी हाथ ठेला धकेलते और बुरी तरह से हांफते हुए  शिवदयाल ओवरब्रिज  की चढ़ाई चढ़ ही रहा था कि 'अरे रे रे भैया बचके ' की  जोरदार आवाजों से वह चौंका और  अनजानी आशंका से घबराकर ठेला छोड़कर ,भागकर एक कोने में हो गया ।
      अगले ही क्षण उसके लोहे से भरे हाथठेले को  पीछे से आती तेज रफ्तार कार की  जोरदार ठोकर  लगी और  लोडेड ठेला उस कार की टक्कर से पूरा पुल तेजी से चढ़ गया।कारवाला तुरन्त गाड़ी बेक करके,साइड लेकर भाग गया। 
'अरे-अरे 'के शोर के साथ भीड़ इकट्ठी होने लगी ।कुछ लोगों  ने दौड़कर उसका रेंगता हुआ ठेला पकड़ा जो पुल के उतार पर जाने लगा था। कार वाले को गालियाँ  देते हुए सब उसका हालचाल पूछने लगे।  
     'लगी तो नही ,लगी तो नही' की आवाजों के बीच हांफते,पसीना पोंछते शिवदयाल ने ही लोगों से जाने की अपील की।उनके हाथ जोड़े और ऐसी हालत में भी मन ही मन मुस्कुराते हुए बड़बड़ाया ,'चलो इस टक्कर से मेरा ठेला तो चढ़ाई चढ़ गया ?हर बार पुल चढ़ते टाइम ऐसी ही  टक्कर लग जाए तो कितना अच्छा ?'
     
- सन्तोष सुपेकर
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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पहला मालिक
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  मजदूर बस्ती की रमा दादी आज जीवन के साठवें साल में भी सोलह साल की फूर्ति और खुशी में अपने पुत्र रमिया के नये पक्के मकान में सबका स्वागत कर रही थी। रमिया मजबूत कदकाठी ,सूर्य की तपिश से कोयला हुआ बदन पर आँखों में चमक लिए माँ को देख रहा था।आठ भाई -बहनों में वह सब से बड़ा होने के कारण मजदूर माँ के संघर्ष को जानता था। उसके पिता भी राजगीर थे। दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत पर रात को देसी दारु पीकर माँ और सभी बच्चों को पीटते। मजदूर बस्ती में यह रोज का दृश्य था। किसी ना किसी घर में रोज होता।
          धीरे -धीरे  बुरी आदतें बढ़ीऔर परिवार भूख और रोग से घटा।बचपन में माँ और घर की दयनीय हालत ने एक अच्छा काम तो किया कि रमिया को शराब से नफरत करवा दी। अब माँ का एकमात्र सहारा वह  था पढ़ता और मजदूरी करता। कम उम्र में विवाह हुआ। भाग्यवश रानी भी शराबी माता-पिता और अपशब्दों से त्रस्त थी इसलिए रमिया को पा कर फूली ना समाई ।
         अब माँ हल्का -फूल्का काम करती और वो दोनों हाड़-तोड़ मेहनत।जब बाकी मजदूर अपनी किस्मत को कोसते, भगवान को दोष देते तब रमिया रानी को कहता "देख जब तक हम किसी मकान को बनाते हैं ,उसमें  रहते भी  हैं कभी -कभी।जिस का घर है वो तो बाद में रहता है हम पहले ।"सोच इस तरह हमारे पास हर शहर में कितने घर होंगे। पहले मालिक तो हम ही हैं।
          उसने   अपने दोनों बच्चों को सरकारी विधालय में भेजा और साथ ही प्लास्टर के काम में मदद भी लेता था।  अपना ही नही पर साथियों को भी  सरकार की भामाशाह ,बी.पी.एल .जैसी योजनाओं को  बता कर  सब की सहायता करताऔर.मदद के लिए तैयार रहता था।  मजदूर था पर मजबूरी को जीवन पर हावी नहीं होने दिया।  पूरे मोहल्ले में उसका अपना पक्का  घर  बना जिस का वह पहला और अंतिम मालिक वही था।

ड़ा. नीना छिब्बर
  जोधपुर - राजस्थान
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बड़ी होती परछाई
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       बच्ची की माँ बुखार से तप रही थी। दवाई लाने के लिये मजदूरी करने जाना हरिया की आज मजबूरी थी। उसने जल्दी उठ कर छह रोटी बनाई। एक पुड़िया में नमक-मिर्च और एक प्याज रख कर पोटली बाँधी। पत्नी को जैसे-तैसे दो-चार घूँट चाय के पिलाये। साथी मजदूर की पत्नी को देखने के लिये कह कर पोटली उठा,बच्ची को साथ लेकर चल पड़ा।
             एक बड़ी दुकान बन रही थी। उसी में हरिया को काम मिला था। अपनी बच्ची को छाया में बैठा कर वह काम पर लग गया।काम के साथ-साथ बच्ची की ओर भी प्यार से देखता रहता।
           एक बजने पर हरिया ने हाथ-मुँह धोये और बच्ची के साथ खाने की पोटली खोल कर बैठा ही था कि तीन कुत्ते उसके पास आकर बैठ गये और आशा भरी दृष्टि से हरिया की ओर देखने लगे।
         हरिया ने तीनों कुत्तों को एक-एक रोटी दी। जिसे लेकर वे थोड़ी दूर बैठ कर खाने लगे। अपनी बच्ची को उसने स्वयं अपने हाथ से रोटी खिलाई। आधी रोटी और जबर्दस्ती बच्ची को खिला कर स्वयं आधी रोटी खा कर पानी पिया। अपनी बच्ची और तीनों कुत्तों को तृप्त देख कर उसे एक अनिर्वचनीय सुख मिल रहा था। हरिया की परछाई बड़ी होती जा रही थी।

- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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कोरोना में मजदूरों का शोषण
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दिल्ली में मजदूरी करते रामलाल को यूँ कई वर्ष हो गए थे, लेकिन इस साल मार्च में कोरोना महामारी के कारण गंभीर हालात पैदा हो गए और लाॅक डाउन बढ़ने की वजह से लोग वापिस अपने घर नहीं आ पा रहे थे ऐसे के महामारी बढ़ती ही जा रही है तब वहाँ से हजारों प्रवासी मजदूरों ने जब भूखे मरने की नौबत आने लगी तो उन्होंने ने वापिस अपने गाँवों की ओर लौटने में ही अपनी भलाई समझी यही सोचकर रामलाल ने अपने ठेकेदार से कहाकि- बाबूजी हमारा पूरा हिसाब करके जितने पैसा होते है हमें दे दीजिए हम घर जाना चाहते हैं।
ठेकेदार पहले तो कुछ दिन टालता रहा है इस प्रकार से ये सभी वाापिस चले जाएँगे तो फिर आगे काम कैसे होगा मेरी ऊपरी कमाई भी बंद हो जाएगी। तीस हजार रूपए तीन महीने का हो रहा था। मजदूर ने कुछ दिन बाद फिर गुहार लगाई कि मुझे मेरे पैसा दे दो उधर वह ठेकेदार दो-तीन दिन बाद आना फिर दे देगे अभी हमारे पास नहीं है वे बेचारे फिर लौट जाते। 
जब दो माह लाकडाउन को हो गए ओर कुछ ही आगे निश्चित न रहा तब रामलाल सोच रहा था कि वो यदि यहाँ और दिन रहा तो वह भी बीमारी की चपेट मे आ जायेगा और अब तो खाने के भी लाले पड़ने लगे है जितना थोड़ा कुछ बचा था वह भी खत्म हो गया है। काम धंधा अभी सब बंद है तो वह अंतिम बार ठेकेदार के पास पैसा माँगने जाता है तो ठेकेदार पहले तो उसे अभी देने से मना कर देता है जब कहता है कि बाबूजी अब मैं यहाँ रहूँगा मैं रात में ही वापिस ठेकेदार भी बहुत चालक था उसने मजबूरी का फायदा उठाते हुए कहा कि-देखो भाई मेरे पास फिलहाल तो इतने पैसे नहीं ही कि सभी को पूरे दे सकंू और भी बहुत से लोगों के पैसा देना है।
अपने घर जा रहा हूँ  तो ठेकेदार ने पूछा कि- जब ट्रेन, बस सब बंद है तो फिर कैस जाओंगे, तो वह बोला कि- मैं पैदल ही जाऊँगा और भी हमारे साथी है किसी तरह पहुँच ही जाएगे यहाँ और रहे तो कोरोना होने से पहले, भूखों ही मर जाएँगे।
बहुत मिन्नते करने और हाथ-पाँव जोड़ने के बाद वह बोला कि- ऐसा करो अभी तो मैं तुम्हेें पाँच हजार रुपए ही दे सकता हूँ बाकी बाद में ले लेना। मैं खा के थोड़े ही भगे जा रहा हूँ। बेचारा मजदूर क्या करता वे पाँच हजार रूपए ही लेकर कि ‘‘भागते भूत की लंगोटी ही भली’’, ले लिए, ठेकेदार को मन ही मन कोसता हुआ कि जिस कोराना की वजह से तुमने मेरे खाये है वहीं तुम्हें हो जाये,बददुआएँ देते हुए वह किसी तरह अपने घर वापिस आ गया। 
ठेकेदार सोच रहा था कि चलो मैंने उसे अच्छा मूर्ख बनाया पाँच हजार ही देने पड़े पन्द्रह हजार अपने हो गए। साला मर जाएगा रास्ते में, पैदल जा रहा है पाँच सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव। कहते कि-‘दुआ कि तरह बददुआ में भी असर होता है’। ठेकेदार कुछ दिन बाद ‘कोरोना’ हो गया और वह मर गया। उसे अपनी करनी का फल मिल गया। 

- राजीव नामदेव "राना लिधौरी"
टीकमगढ़ - मध्यप्रदेश
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सौदा 
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""नारियल पानी ले लो..... नारियल पानी ... ।""
सुबह-सुबह आने वाले इस नारियल पानी वाले से थोड़ा मोल भाव कर  प्रतिदिन  मैं दो तीन नारियल ले लेता था ।
लेकिन हर बार की अपेक्षा आज वो केवल एक बार आवाज लगाकर तेजी से जाने लगा तो मैंने उसे रोका और इतनी जल्दबाजी में जाने का कारण जानना चाहा । 
उसने बताया कि घरवाली की तबीयत अचानक बिगड़ गई  है । जितनी जल्दी हो सके सौदा पटाकर घर पहुंचना है ।
मैंने उससे आज के नारियल का भाव पूछा तो उसने 50 रू. बताया । 
उसके ठेले पर 10 नारियल थे । मैंने उससे सभी नारियल खरीद कर श्रीमती जी को आवाज लगाकर दो सेब, दो संतरे जल्दी लाने को कहा ।  
सेब, संतरे और दो नारियल पानी के साथ ही 2000/-रू देते हुए मैंने उसके पत्नी के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की ।
वह इस अनापेक्षित घटना से द्रवित हो निशब्द मेरे सामने आंखों में आंसू लिए खड़ा हो गया ।  मैंने उसे सांत्वना देते हुए जल्दी से घर पहुंचने के लिए  कहा । 
वह अपनी बाहों से आंसू पोंछता हुआ तेजी से ठेला ढकेलते हुए घर जल्दी पहुंचने के लिए कदम बढ़ा रहा था ।  वहीं मेरी आंखें उसके तेज बढ़ते कदमों की सच्चाई को भांपने का प्रयास कर रही थी ।

- मनोज सेवलकर
इन्दौर - मध्यप्रदेश
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सम्मान
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मण्डलीय कार्यालय में साहब को आए एक साल हो चुका था। सारे मण्डल के कर्मचारी ज्यादातर साहब के व्यवहार से दूःखी हो चुके थे। कुछ ही कर्मचारी खूष थे जो साहब की चमचागीरी करते थे। वह अपना कोई भी काम साहब से करवा लेते थे। मण्डल के सभी उन्ह  कार्यलयों में जहां एक से ज्यादा कर्मचारी थे स्टाफ कम कर दिया गया जिससे स्टाफ की कमी के कारण रोजआना किसी न किसी कार्यलय में कोई न कोई समस्या आ जाती थी। सबसे ज्यादा समस्या छूटी की थी। बीमारी के चलते या भले या बुरे मोकोें पर भी समय से छूटटी नही मिल पाती जिससे समाज-रिस्तेदारी में कर्मचारी मुंह दिखाने के लिए कतराने लगे थे। उपर से साहब ने कर्मचारियां का टीए-ओटीए बंद कर दिया। एक साल तक उन सभी कर्मचारियों का टीए-ओटीए बंद कर दिया जिन्हो्रंने टीए-ओटीए अंर्तगत डयूटी दी थी। ज्यादातर कर्मचारी साहब की हिटलरी से अपने आप को षोषित समझ रहा थे। साहब को एक साल बाद विभाग के उच्च अधिकारीयांे ने स्टाफ कम करने, टीए-ओटीए बंद करने, पुरे साल के बजट में से सबसे कम खर्चा करने के लिए सम्मानित किया। कुछ कर्मचारियों को छोड़कर लगभग सभाी कर्मचारियों ने साहब को बधाई संदेष भेजे उसमें वह कर्मचारी भी षामिल थे जो साहब से दुखी थे, परन्तु कर्मचारियों को यह नहीं मालूम साहब ने अपने ही कर्मचारियों का षोषण करके विभाग से सम्मानित हो कर वाहवाही लूटी है। 

- प्रताप सिंह अरनोट
कल्लू - हिमाचल प्रदेश
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हौसले की उड़ान 
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सात वर्षीय बालक बारंबार गड्ढे में जम्प कर ऊपर आने की कोशिश करता , पास खड़े मज़दूर उसे निकाल देते ! 
ये उसके प्रतिदिन का खेल था । कभी पानी भरे कभी रेत भरे क़भी ख़ाली गड्ढों पर अपना शरीर पानी में रेत में डाल प्रेक्टिस करता , 
बिल्डर इंजीनियर अपनी रोज़ी रोटी के लिये आड़ी तिरछी रेखाओं को खिच ड्राइंग बनाता । ख़ाली टाईम उस सात वर्षीय बच्चे की हरकतें देखा करता था । 
और ख़ूब हँसता । इंजीनियर युवा सोचता इसके माता कितने निश्चिंत हैं । कोरोना की वजह से स्कूल छूट गया । बेरोज़गारी वजह से अपना गाँव घर छोड़ , शहर आ बिल्डर के पास आ रोज़ी रोटी शुरू कर दी ।सात वर्षीय बालक स्कूल जाने से वंचित था । पास आ इंजीनियर के हाथों से बनी आड़ी तिरछी रेखाओं को देख अपना भाग्य संजोता ।
आज वही बालक तैराकी , हाई जम्प में गोल्ड मेडल ला उसी आर्किटेक्चर इंजीनियर से पुरस्कार लेते कहता है ।
सर आपने मुझे पहचाना नही मै वही सात वर्षीय बालक आपके द्वारा बनवाये बिल्डिंग के कालम में जम्प कर अकेले टाईम पास करता आपकी आड़ी तिरछी रेखाओं को देख अपना भाग्य संजोता मुझे भी अनोखा कुछ कर दिखाना हैं आपकी तरह मैंने भी सफलता पाई । प्राईवेट मेट्रिक की परिक्षा पास की और अब आकिटेक्चर बनाना चाहता हूँ 
इंजीनियर साब अवाक थे ?

- अनिता शरद झा 
मुंबई  - महाराष्ट्र
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मजदूर 
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रामू हरिया फूल सिंह विश्वजीत विकास नगेंद्र हलीम अल्लाह दिया अपने साथियों के साथ घर से आए थे कमाने शहर की ओर रात दिन मेहनत करते और शाम तक जी तोड़ मेहनत के बाद जो कुछ मिलता उसमें से कंजूसी के साथ खर्च करते ताकि कुछ न कुछ घर भी भेज सकें पर अब तो काम भी नहीं रहा और किसी तरह से शहर में मिल रही है रोटी लेकिन ऐसे कब तक चलेगा यही सोच कर सब ने घर जाने का मन बना लिया और चल दिए रेलव में सवार होकर लेकिन यहाँ भी कहा आराम है इनकी किस्मत में लंबा सफर और ठीक से बैठने की जगह तक नहीं कुछ तो कई घंटे से खड़े ही है खिड़कियों के आसपास ताकि मिलती रहे कुछ ताजी हवा भरी उमस और गर्मी में रामू सोच रहा है अपनी जिंदगी भी क्या इसी तरह कट जाएगी भीड़ में चलते चलते लाइन में लगते लगते क्या कभी मिलेगा हमें सुकून क्या कभी पहुंँचेगा  हमारे घरों तक भी उजाला बाकी सब साथियों से बेखबर यही सोच रहा है रामू  कहीं ट्रेन रुकती कोई स्टेशन आता तो विचारों का कर्म टूटताऔर वह उतर जाता अपनी प्लास्टिक की बोतल में पानी लेने के लिए वापस आता साथी भी पानी पीते और रामू फिर विचार मगन हो जाता ट्रेन चलने के साथ ही काश यह महामारी कोरोना ना होती तो कम से कम रोटी लायक तो कमा ही रहे थे कुछ ना कुछ घर भी भेज पाते थे महीना दिन मे अब गाँव में भी क्या कर काम है वहांँ भी कुछ नहीं है ऐसा काम यही सोचते सोचते उसका स्टेशन आ गया था और वह चल दिया उदास मन थके पांव अपने गांव की ओर सभी साथियों से राम-राम कह कर और भी इसी तरह धीरे-धीरे पहुचेंगे अपने गाँव इसी तरह जब पहुचेगी रेल उनके स्टेशन पर 
समय बदला पर इनके लिए नही लाया कुछ उजाला

- डा0 प्रमोद शर्मा प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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मजदूर
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रोज का सूरज निकलता था और एक जमावड़ा सा दिख जाता था।इतनी भीड़ और वहां खड़े लोगों के तन पर कुछ अच्छे तो कुछ पुराने कपड़े नजर आते थे।ये सिलसिला एक दिन,एक माह या एक साल का नहीं था।बल्कि कई सालों से ये भीड़ यहीं पर रोज सुबह जमा होती थी। फिर ठेकेदार सा कोई आदमी आकर इनको ले जाया करता था।भीड़ बढ़ती गई कुछ नए जवान चेहरे शामिल हुए तो कुछ चेहरों की झुर्रियां भी बढ़ने लगी।
       आज सन्नाटा सा था उस जगह पर।जब पता किया तो ज्ञात हुआ कि वे सब मजदूर थे।ये मजदूरों के एकत्रित होने का स्थान था और यहीं से ठेकेदार आकर इनको ले जाता था।पर अब लॉकडॉवन की वजह से उनका एकत्रित होना बंद कर दिया गया है।इसलिए अब वो मजदूर नहीं दिखते।
        मैं वहां से आगे निकल तो गया पर मन में एक ही ख्याल आता रहा कि अब मजदूर शायद मजबूर हो गया होगा या उसके घर का चूल्हा कैसे जल रहा होगा।

- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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मजदूर दिवस
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            वे बडे प्रसन्न चित अपने बंगले पहुंचे।
            आज मजदूर दिवस पर एक मजदूर यूनियन ने उन्हें मुख्य अतिधि की भूमिका मे आमंत्रित किया था।उन्होंने अपना भाषण एक विद्वान मित्र से लिखवाया था।जिसमे मजदूरों के उत्थान, उनके पी एफ एवम स्वास्थ्य संबंधी बातों का जिक्र था।सबसे ज्यादा तालियां उन्हें बाल मजदूरी के विरोध में कही गयी बातों पर मिली।उन्होंने यह भी कहा था कि बच्चों का अधिकार पढाई आदि का है,उनसे मजदूरी करवाना सामाजिक अपराध है।उनका स्वागत बहुत ही अच्छे ढंग से हुआ था।
        स्टडी रूम मे बैठकर उन्होंने सर्वेंट को पानी लाने का आदेश दिया।शहर के धनाढ्य लोगो मे उनकी गिनती है।वे समाजसेवी एवम क ई संस्था के संरक्षक भी है।उनकी अनेक फैक्ट्री ज है,जिसमे अधिक तर बालमजदूर ही कार्य करते है।राजनीति में उनकी पकड है,समाज मे रसूख भी।तो कोई उनकी शिकायत नहीं कर पाता।
           एक लगभग पंद्रह वर्षीय किशोर एक ट्रे मे ठंडे पानी का गिलास लेकर आया।यह भी उनकी फेक्ट्री मे काम करता था।फुर्तीला था,सो उसे घरकाम के लिए ले आये थे।
          उन्होंने धीरे से आंखे खोली,पानी का गिलास लिया।फिर बालक से कहा,अरे राजू बहुत थक गया हूं, पांव दबा दे।
          राजू जमीन पर बैठ कर पैर दबाने लगा,उन्होंने फिर से आंखे बंद कर ली और आज के कार्यक्रम मे हुई अपनी वाहवाही का आनंद लेने लगे।
          
- महेश राजा
महासमुंद - छत्तीसगढ़
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Comments

  1. आदरणीय बीजेन्द्र जी, सादर प्रणाम. आपके निरंतर प्रगतिशील प्रयासों से यह आयोजन भी बहुत खूबसूरत बन पड़ा है. आप विशेष सम्मान के अधिकारी हैं. मैं सम्मान प्राप्त सभी सहभागियों को हार्दिक बधाई देता हूँ. सादर,
    - सुदर्शन खन्ना
    दिल्ली
    ( WhatsApp से साभार )

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