बच्चों में संस्कार देने में माता की भूमिका का क्या योगदान है ?
माता तो बच्चों के लिए भगवान होती है । क्योंकि माता ही बच्चों को हर तरह की सुरक्षा प्रदान करती हैं । बच्चों में संस्कार माता के पालने - पोषण से आते है । लोग अक्सर कहते हैं कि जैसी माता वैसे बच्चें । ये कहावत एक दम सार्थक है । संस्कार में माता की भूमिका से कोई इंकार नहीं किया जा सकता है । देखते हैं " आज की चर्चा " में आये विचारों को : -
माँ बच्चे की प्रथम पाठशाला मानी जाती है।बचपन से ही उनपर माँ की बातों का सबसे अधिक प्रभाव होता है ।उसके पश्चात पिता तथा घर के अन्य सदस्यों का ।घर का वातावरण शांत, विनम्रता, विनोदी और अनुशासित,आध्यात्मिक हो और घर की हर गतिविधि में बच्चों को प्राथमिकता से सम्मिलित किया जाए तो अच्छे संस्कार बालक स्वतः ग्रहण करता है।इसमें माता-पिता की अहम् भूमिका होती है ।यदि हमें बच्चों को सुसंस्कृत बनाना है तो पहले स्वयं को रोल मॉडल बनना होगा ।जरा सी चूक का फायदा उठाना बच्चे भली-भांति जानते हैं।बच्चों को हर बात के लाॅजिक बड़ी सहजता से स्पष्ट करना आवश्यक है।उनकी जिज्ञासाओं का सही समाधान करने की क्षमता माता-पिता में होनी चाहिए ।अधिक सख्ती उसे जिद्दी और उद्दंड बना सकती है ।माँ घर की धुरी होती है ।सारे घर के लोग उसका अनुसरण करते हैं।सारी व्यवस्था उसी पर निर्भर करती है, इसलिए बच्चों में अच्छे संस्कार देने के लिए माता की भूमिका सर्वोच्च स्थान रखती है ।
- सुशीला शर्मा
जयपुर - राजस्थान
नारी का कार्य घर की देखभाल, बच्चों का पालन -पोषण और विकास है. अतः एक नारी का शिक्षित होना अनिवार्य है. शिक्षित माँ अपनी संतान को उन्नत बना सकती है. जीवन के सभी तौर तरीकों को जानकर बच्चों को शिक्षित और संस्कारित कर सकती है. बच्चे सबसे अधिक माँ के सम्पर्क में रहते हैं. माँ ही उनकी प्रथम गुरु होती है. माताओं के संस्कारों, व्यवहारों और सिखावन का प्रभाव बच्चों के मन मष्तिष्क पर सबसे अधिक पड़ता है. शिक्षित माता बच्चों के कोमल उर्वर मन मष्तिष्क में उन समस्त संस्कारों के बीज बो सकती है जो आगे चलकर अपने समाज देश और राष्ट्र के उत्थान के लिए परमावश्यक हुआ करते हैं. माँ के अपनत्व, स्नेह एवं ममत्व से भरे हाथों में वह ऊर्जा रहा करती है जो निर्जीव तन में भी प्राणों का संचार करने में समर्थ है.
- डाँ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
बच्चे तो कोरा कागज होते हैं । उन पर जो लिखा जाए वही प्रामाणिक होता है । छुटपन से ही उनके लक्ष्ण पता चलने लगते हैं । इस संस्कार के बीज माता द्वारा ही बोए जाते हैं ।बच्चे को किसी की शरण चहिये होती है। उसके गलत आचरण को शुरू से ही बढ़ावा दे कर माँ उसके जीवन से खेलती है । ममता संस्कार को ढँक लेती है । जो पूरे परिवार का सर नीचा कर देता है । क्योंकि कहा गया है, 'अति सर्वत्र वर्जयेत' ।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
बच्चों को संस्कार देने में माता की भूमिका सबसे अधिक है उसके बाद पिता दादा दादी चाचा चाची बुआ परिवार पड़ोस का स्थान है ।बच्चे न केवल सीखते हैं अपितु हमारा अनुकरण भी करते हैं कई बार हमारी नकल करते भी देखे जाते हैं ।वहीं यह भी कहते सुने गये हैं कि पापा जी ने कहा है पापा जी घर पर नहीं है मोबाइल सोशल मीडिया पर ऐसी चीजें तेजी से हो रही है ।अतः सबसे पहले माता व अन्य को यह ध्यान रखना होगा कि उनके आचरण व्यवहार उनके बच्चे को कैसे प्रभावित कर रहा है ।संसार की प्रथम शिक्षिका माता अपनी भूमिका में कहां पर है ।
- शशांक मिश्र भारती
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
बच्चों को संस्कार देने में माँ की अहम भूमिका होती है। माँ बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है, और शिक्षण संस्थान और शिक्षक दूसरी पाठशाला। बच्चे माँ के सानिध्य में ज्यादा वक्त बिताते है, तो लाजमी है कि माँ की बातों का उन पर गहरा असर पड़ता है। बच्चे चिकने घड़े की तरह होते है। जिस माहौल में पलते है उसी की छाप लिए बड़े होते है। उसी आचार - विचार और व्यवहार को आत्मसात करते है। इसलिए प्रत्येक माँ का कर्तव्य बनता है कि बच्चों की जिम्मेदारियों को बखूबी समझे, और गतिविधियों पर ध्यान रखे। जिस पर आने वाली पीढ़ी का भविष्य टिका है।
- कल्याणी झा
रांची - झारखण्ड
माँ बच्चे की प्रथम गुरु होती है । गर्भधारण काल से लेकर बच्चे के जन्म व उसके क्रमिक विकास तक वो सतत उसके सम्पर्क में रहती है । इस दौरान वो जैसा सोचती है, करती है वैसा ही आसपास का परिवेश हो जाता है जिसका असर बच्चे के बालमन पर पड़ता है । ये सर्वमान्य सत्य है कि बच्चे अवलोकन द्वारा सीखते हैं इसलिए हमें वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसे हम उनको सिखाना चाहते हैं । न केवल माँ वरन घर के अन्य सदस्यों के आचरण का प्रभाव भी पड़ना स्वाभाविक है । माँ को सकारात्मक विचारों से ओतप्रोत होना चाहिए । धैर्य, लगनशीलता, परिश्रम , विश्वास, उच्च मनोबल ये सब गुण बच्चे में माँ के कार्य व्यवहार से ही आते हैं ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
संस्कार देने में आयी गिरावट
सुदर्शन फकीर की पंक्तियाँ हैं -
' मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी .'
यह मस्ती , आनंद आज के बचपन में से लुप्त हो गई है
हम भौतिकवादी , प्रगतिवादी , तकनीकी और प्रौद्यागिकी के युग में रह रहें हैं . जहाँ संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है . बचपन में नाना - नानी , दादा - दादी, बुआ , मौसी आदि का लाड - चाव मिलता था , वे बच्चों को गोद में बिठा कहानी सुना ,खाना खिलाती थीं , लोरी दे सुलाती , मनपसंद स्वादिष्ट व्यंजन प्यारे हाथों से बना खिलाती थीं और बच्चा बन खेलती थीं . वे मानव मूल्यों से , बचपन को संस्कारों की नींव से गढ़ते थे . अब बच्चों का लालन - पालन एकल परिवार में होने की वजह से अधिकतर पति - पत्नी काम पर जाते हैं . बच्चा होने के बाद नौकारानियों का सहारा लेना पड़ता है , कितने शिशु तो इनको ही माँ मानने लगते हैं . कुछ तो ' डे-केयर ' , पालनाघर , क्रेच आदि में बच्चे पलते हैं . बोलने - सीखने के लिए प्ले स्कूल में भेजते हैं .क्या वे बच्चों को संस्कार , मौज - मस्ती, खुशियाँ दे सकेंगे ? जवाब नहीं में है .
बच्चों की लालन - पालन में माँ की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि बाल्यकाल में माँ बच्चों के पास सबसे ज्यादा रहती है . उनकी माँ पहली गुरु भी होती है . जैसे महान शिवाजी के बचपन पर माँ जीजाबाई की शिक्षाओं - संस्कारों का प्रभाव था .
अब तो माँ को गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए , परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए काम पर जाना पड़ता है ।
माँ पिता अपने बच्चों के लिए समय नहीं निकाल पाते है। न्यूकिलर परिवार होने की वजह से बच्चों को देखने, संस्कार देने के लिए कोई बड़ा नानी , दादी नहीं रहती है ।जिससे वे बच्चे बाल्यावस्था से ही संस्कारों से वंचित हो जाते हैं । जिसका परिणाम समाज में नैतिकता में गिरावट आयी है ।
अब तो बच्चों का घर - बाहर शोषण हो रहा है ,घर में ही रिश्तेदार उन नादानों को बहला फुसलाकर यौनाचार करते हैं हाल ही की केन्द्र सरकार की रिपोर्ट के अनुसार ५३ % बच्चों का एक और कई बार यौन संबंध हुआ है , बच्चों को चुराकर ले जाने वाला गिरोह , अपहरणकर्ता आदि की घटनाएं उनमें खौफ पैदा कर देती है , बचपन की यह की भयावह तस्वीर दिखाई देती है .
बाहर की दुनिया में गरीबों का बचपन भूख - प्यास से छटपटा रहा है , फुटपाथों पर जीवन बसर करनेवाले खुद तो भीख मांगते हैं , बच्चे भी इस काम में लग जाते हैं . कितने बाल श्रमिक कम दाम पर काम कर दो वक्त की रोटी जुगाड़ने में लगे रहते हैं . कितनी मासूम बच्चियों को कोठे पर बेच कर वेश्यावृति में लगाकर उनका बचपन नष्ट कर देते है . बच्चों पर काम का बोझ नहीं होना चाहिए . निठारी कांड का अपराधी बच्चों को मार कर उनका खून पी जाता था . आज काल कोठारी की हवा खा रहा है .
सुभद्राकुमारी चौहान की बेटी के बचपन की ये पंक्तियाँ याद आ रही हें -
' माँ ओ ! कह कर बुला रही थी
मिट्टी खाकर आई थी
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में
मुझे खिलाने आई थी . '
आज समाज में बच्चे घर के अंदर ही कैद हैं । बाहर की प्रकृति दुनिया उन्हें मालूम ही नहीं हैं ।
अन्य कवि की यह पंक्ती - ' जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाए '
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस धूल भरे हीरे का वर्णन किया है वह नन्हें बच्चे हीरे से बढ़कर हैं . धूल ही उनका शृंगार है जबकि आज के बचपन को संभ्रांत माता - पिता धूल से बचाना चाहते हैं . बढ़िया ब्रांड के बनावटी प्रसाधन - सामग्री को महत्त्व देते हैं .सामाजिक बदलाब के कारण रेत , मिट्टी में खेलने नहीं देते हैं . तो वे अपनी कल्पना शक्ति का बोलता संसार कहाँ बनाएंगे ? जबकि अपनी चंचलता के के कारण शांत रहना उन्हें पसंद नहीं , खिलौने से खेल कर बचपन बहलाते हैं . बचपन में खेल - खेल में अपने दोस्तों का चिढाने का भी उन्हें आनंद आता था , सूरदास जी की पंक्ती - ' मैया मोह दाऊ खिझाय
मोसो कहत मौल का लिन्हों . '
अब तो यह अनोखा आनंद भोलापन , मासूमियत आज के बचपन में नहीं दिखाई देती है , सामाजिक बदलाव के कारण इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , कम्पयूटर, वीडियो गेम , दूरदर्शन , मोबाइल आदि के कारण बच्चे घर के अंदर अपना मनोरंजन करते हैं . जिनसे उनका शारीरिक . सामाजिक , भावनात्मक विकास नहीं होता , वे अकेलापन , कुंठा , तनाव और बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं .
आज के बच्चों के बचपन में पचपन नजर आ रहा है , उनमें मस्ती , शरारत , रूठना - मनाना , नादानियां , भोलापन आदि नहीं रहा .
उनका बचपन इंटरनेट के इंद्रजाल में फंस कर ' नेट पिटारे ' में अपनी दुनिया की अच्छाई - बुराई देख रहा है . जैसे कार्टून फिल्म देखना, वीडियो गेम में स्कोर पॉइंट बढ़ाना , सेक्स की साइटों को देखते हैं , अश्लील हरकतें करते हैं , बचपन में यौन विकृति का खतरा मंडराने लगा है . ड्राईंगरूम में बैठ आज का बचपन मोनो , मेट्रो , बुलेट की रफ्तार , कटरीना , करीना की तस्वीर , स्त्रियों की दहशत और मंगलायान का मंगल में प्रवेश करते हुए देख रहा है .
राम , कृष्ण , महापुरुषों की गाथाएँ उन्हें हमें बतानी होगी । तभी हर माँ आदर्श चरित्र , नैतिक मूल्यों का निर्माण अपनी सन्तान में कर सकेगी ।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
माँ बालक की प्रथम गुरू कहलाती है |
जब माँ के गर्भ में नन्हा भ्रूण पोषित होता है तभी से माता के आचार, विचार, व्यवहार का शिशु के निर्मल मन में अति महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है | इसीलिए हमारे परिवार में बुजुर्गजन गर्भवती स्त्रियों के खानपान एवं आचार विचार की शुद्धता पर बेहद ध्यान रखते थे | परिवार में दादी, नानी,ससुर, सासु माँ जैसे महत्वपूर्ण रिश्तों के परिजन गर्भवती स्त्रियों को बडे़ बुजुर्गों के आशीर्वाद, मान सम्मान के साथ ही ईश्वरीय भक्ति, स्तुति, वंदना जैसे शुभकर्मों को करने के लिए प्रेरित किया करते थे |इसीलिए कुछ दशक पहले तक परिवार में बच्चें संस्कार ,संस्कृति, सभ्यता जैसे नैतिक मूल्यों से ओतप्रोत रहते थे | महाभारत काल में माँ के द्वारा मिलने वाली शिक्षा एक अति महत्वपूर्ण प्रसंग का सटीक उदाहरण देखिये ~
एक बार जब अभिमन्यु अपनी माता अर्जुन की पत्नी एवं भगवान श्रीकृष्ण की बहन देवी सुभद्रा के गर्भ में थे | उस समय अर्जुन देवी सुभद्रा से चक्रव्यूह प्रसंग की चर्चा कर रहे थे | तब चक्रव्यूह तोडकर बाहर निकलने की कथा सुनते, सुनते सुभद्रा को नींद आ गयी थी | बीच में ही नींद आ जाने के कारण गर्भ में ही चक्रव्यूह रचना का ज्ञान प्राप्त करने वाले अभिमन्यु चक्रव्यूह तोडकर बाहर निकलने का ज्ञान नहीं सीख सकें थे | उनका चक्रव्यूह रचना का ज्ञान अधूरा ही रह गया |इसीलिए कुरूक्षेत्र में रणांगण क्षेत्र में वीर अभिमन्यु वीरता के साथ युद्ध करते हुये परमगति को प्राप्त हुये थे |
- सीमा गर्ग मंजरी
मेरठ - उत्तर प्रदेश
माता बच्चे की जननी तो होती हीं है । साथ हीं बच्चों में सारे संस्कार,,आचार _ विचार, व्यवहार सारे गुण_ अवगुण भी लगभग माता द्वारा हीं प्रदत्त होते हैं । बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं जिन्हें हम माताएं जैसे रूप में ढालें ,,वैसे ही तैयार हो जातें हैं । गर्भावस्था के दौरान से हीं बच्चों को ईश्वर ने माता से ऐसा जोड़ा है कि ताउम्र बच्चों पर माता की हर बात का खास प्रभाव पड़ता है। अभिमन्यु गर्भावस्था में हीं,,माता,पिता में हुए संवाद से ही "चक्रव्यूह" जैसी दुर्गम संरचना को भेद पाए थे । इसलिए निश्चित रूप से संस्कार देने में माता की अहम भूमिका होती है ।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
बच्चा उदर में ही अपनी नाल द्वारा मां से जुडा़ होता है !माता पिता के गुण तो उसमें आ ही जाते हैं यानिकी नेचर काफी माता पिता का ही होता है किंतु संस्कार पर उसकी परवरिश के वातावरण का प्रभाव पड़ता है !मां कभी नहीं चाहेगी की उसका बच्चा असंस्कारी हो ! प्रथम शाला उसका घर है !
घर का वातावरण अच्छा होना चाहिए !माता पिता को बच्चों के सामने कभी लड़ना और बहसबाजी नहीं करनी चाहिए दोनों को एक दूसरे का मान सम्मान करना चाहिये !घर पर बुजुर्ग हों तो उनका ख्याल रखना और आदरभाव रखना चाहिये !बच्चा बचपन से यह देखता है !लाड-प्यार करो किंतु हर जिद्द पूरी नहीं करनी चाहिये !धूप-छांव भी मालूम होना चाहिए ! केवल सुख ही सुख देखने से कठिन परिस्थिति में वह कमजोर पड़ जाता है और सामना नहीं कर पाता !
बचपन से बच्चों में संघर्ष और मेहनत से ही सफलता की सीढी प्राप्त होती है का बीज बो देना चाहिए ! बच्चों में संगत का असर तुरंत होता है अत: मां को इसका ख्याल रखना चाहिए कि वह किन बच्चों के साथ खेलता है और रहता है !किसी भी कार्य को करने में यदि बच्चा डरता है तो उसे हिम्मत और विश्वास दिलाना चाहिये की तुम कर सकते हो!यह विश्वास और साहस मां ही दे सकती है ! बच्चा यदि कुछ कहना चाहता है तो मां को ध्यान से उसकी बात सुननी चाहिए वह क्या कहना चाहता है, इससे यह होता है कि बच्चा यदि गलती भी करता है तो माता पिता से शेयर करता है उसे विश्वास होता है कि मै माफी मांग सकता हूं !
टीनएज़र बच्चे को सम्महालना कठिन है और इसी उम्र में माता पिता की परीक्षा होती है !थोडा़ ध्यान दें तो यह समस्या भी हल हो जाती है ! फिर भी यदि बच्चे आज के माहौल को देखते हुए बिगड़ जाते हैं तो मां को दोष नहीं दे सकते चूंकि कोई मां नहीं चाहेगी उसका बेटा असंस्कारी कहलाए !
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
निस्संदेह बच्चों में संस्कारों का बीज माँ द्वारा ही बोया जाता है |वही बीज आगे चलकर एक मीठे फलदार वृक्ष में तब्दील होकर समाज को ठंडी छाँव प्रदान करने में सहायक होता है |
आरम्भ के कई वर्षों तक बच्चा ,माँ एवं घर के अन्य बड़ों के साथ ही वक्त गुज़ारता है ,जिनके छत्र छाया में रहकर वह रहन -सहन ,बात व्यवहार सीखता है |इन संस्कारों के साथ ही वह बड़ा होता है और जीवन में अनुकरण करता है |
संस्कार जीवन पर्यन्त चलने वाली शिक्षा है ;जो व्यक्ति को कई मोड़ से लेकर गुजरता है |सौहर्दपूर्ण वातावरण और सद्संस्कार ही मानव की अमूल्य धरोहर है।
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
बच्चों को संस्कार सर्वप्रथम माँ से ही मिलते हैं . बचपन मैं मिले संस्कार भविष्य के जीवन मैं प्रतिलक्षित होते हैं व भविष्य को संस्कारी अथवा कुटिल बनाते हैं . अच्छे संस्कारवाला सदा सबकी प्रशंसा का पात्र बनता है और बुरे संस्कारवाला सदा समाज मैं निंदा का पात्र बनता है . अच्छे संस्कारों की नींव बचपन मैं ही पड़ती है जिसमें माता का मुख्य योगदान होता है व पिता का आंशिक .
- नंदिता बाली
सोलन -हिमाचल प्रदेश
संस्कार, देना यूँ तो परिवार की हर ईकाई का कर्तव्य है पर माँ की भूमिका मुख्य है। जिस पल से उसे अपनी कोख हरी होने की पुख्ता सूचना मिलती है उसी क्षण से उसका सम्पूर्ण जीवन बच्चे के इर्दगिर्द ही घूमता है। माँ का व्यवहार ,सोच खान पान, पढ़ना, उठना बैठना,आचार विचार सिर्फ बच्चे के हित के लिए होते हैं।.माँ की धड़कनों से जुड़ा शिशु उस का ही रूप है ।हम कह सकते हैं कि संस्कारों को पोषित करने में माँ की महती भूमिका है। पर आज के परिपेक्ष्य मे कहें तो माँ की बातों को यदि परिवार के अन्य सदस्य हँसी में ना उड़ाएं तो सोने पर सुहागा होगा।
- ड़ा.नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
किसी भी बालक के पहले गुरु उसके माता पिता होते हैं। अच्छे बुरे को पहचानने का विवेक और उनमें अंतर समझ सकने योग्य संस्कार बालक को माता-पिता से ही मिलते हैं। उसके आस पास के लोग तो उसे प्रभावित करते ही हैं लेकिन माता-पिता की भूमिका अहम् होती है।
- लक्ष्मण कुमार
सिवान - बिहार
बच्चा गीली मिट्टी की तरह होता है माँ बच्चे को जिस साँचे में चाहे ढाल ले , और यह काम माँ से अच्छा कोई नहीं कर सकता बच्चों में अच्छे संस्कार विकसित करने में मां-बाप की भूमिका काफी अहम होती है। अगर माता-पिता संस्कारी होंगे, तभी तो बच्चे भी संस्कारी बनते हैं वर्ना संस्कारी होंगे ही नहीं। आजकल के माहौल में बच्चों को अच्छे संस्कार दे पाना माता-पिता के लिए मुश्किल होता जा रहा है। माता-पिता कितना भी समझा लें बच्चे वही करते हैं, जो उनका मन कहता है। लेकिन अगर शुरू से ही आप अपने बच्चों को समझें और उनका मार्गदर्शन करें, तो आपका बच्चा जरूर आपकी बात मानेगा। बच्चों को यदि बचपन से ही अच्छे संस्कार दिए जाएं, तो वे आगे चलकर संस्कारवान बनेंगे। संस्कारों और इंसानियत की सुन्दरता के महत्व की पहली कड़ी घर से शुरू होती है। घर से ही बच्चों के संस्कार की शुरूआत होती है। माता पिता को इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसके बाद दूसरी जिम्मेदारी स्कूल के शिक्षकों एवं शिक्षिकाओं की होती है, जो बच्चों के अच्छे संस्कारों का बोध कराते हैं। फिर दोस्तों रिश्तेदार आदि ......
बेशक, बच्चों को अच्छे साँचे में ढाल संस्कार व इंसानियत सिखाने की ज़िम्मेदारी निभानेवाली माँएं अपनी इस भूमिका पर नाज़ कर सकती हैं। इस काम में वे जितना खून-पसीना बहाती हैं, वह ज़ाया नहीं जाएगा। ऐसी माँओं की हमें तारीफ करनी चाहिए और सच्चे दिल से माँ की कदरदानी जतानी चाहिए। वे इसकी हकदार हैं। हम अपनी माँ से कितना कुछ सीखते हैं—आदतें जो उम्र-भर हमारे काम आती हैं, अच्छी तहज़ीब जो दूसरों के साथ मधुर रिश्ते कायम करने के लिए ज़रूरी है, और कई मामलों में तो नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा जो बच्चो के कदमों को बहकने से बचाती है। माँ ने बच्चों लिए क्या कुछ नहीं करती है, परन्तु बच्चे क्या कभी माँ को धन्यवाद कहते है , क्या कभी बच्चे इस बात के लिए अपनी माँ की कदरजताते है ?कुछ हुआ तो कहेंगे अहसान नहीं किया फ़र्ज़ अदा किया है । मन में बहुत भाव उमड़ रहे है पर बस करती हूँ ,बहुत बढ़ा हो जायेगा अंत में इतना ही माँ ही प्रथम पाठशाला है प्रथम गुरु है और पालनहार है सभी माताओं को नमन
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
बच्चों को संस्कार देने में मां का अहम् एवं प्रथम योगदान रहता है। माता-पिता का आपसी आचरण, व्यवहार तथा घर का वातावरण ऐसा माध्यम है, जिसमें बच्चा सहज रूप से अच्छी बातें, श्रेष्ठ गुणों से युक्त जीवन- मूल्यों की विद्या ग्रहण करता है। इसके विपरीत तो बच्चों का विकास कुंठित असामान्य तथा जीवन- पर्यंत पीढ़ियों के लिए अभिशाप बन जाता है। आज सूचना क्रांति के दौर में अति आधुनिक बनने के चक्कर में अपने संवेदनात्मक, आध्यात्मिक, संस्कारी गुण-- मधुरभाषिता, प्रेम, सहिष्णुता, धैर्य, परोपकार, उदारता, बड़ों का आदर, ईश्वर के प्रति आस्था, सांस्कृतिक ज्ञान, इत्यादि से बच्चे वंचित न रह जाएं, इसके लिए मातृशक्ति की सजगता एवं समझदारी अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि प्राय: देखा जाता है कि बच्चे मां का अधिक कहना मानते हैं। अतःसुसंस्कारिता एक ऐसी खेती है जिसका फल संस्कारित पीढ़ी के रूप में जीवन पर्यंत मिलता रहता है। गीली मिट्टी के लोंदे के सामान बाल मन को मनमाफिक आकार सर्वप्रथम मां ही दे सकती है ।
- डॉ रेखा सक्सेना
मुरादाबाद -उत्तर प्रदेश
बच्चों के जीवन में माता की भूमिका भगवान् से कम नहीं है । जन्म से पहले और जन्म के बाद या यूं कहें कि जब तक माँ जिन्दा रहती है, बच्चों को अपनी सामर्थ्यानुसार संस्कारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती । बच्चों पर माता के स्वभाव, आचरण का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों का भी ।
वर्तमान समय में माताएं स्वयं मोबाइल मे व्यस्त रहती है और रोते हुए बच्चे को भी मोबाइल पकड़ा देती है जो अनुचित है । बच्चों को उनकी आयुनुसार संस्कारित करने वाली कहानियां .....उपयोगी सचित्र पुस्तकें आदि के द्वारा उनमें अच्छे गुणों का विकास करना चाहिए । उसकी जिज्ञासाओं का उचित समाधान करें .......उनके के लिए समय निकालें । तभी बच्चों और बाद में युवाओं का संस्कारित जीवन सभी के लिए सार्थक होगा ।
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान
माँ ,बच्चों की प्रथम संरक्षक, विश्वासी , स्नेही और आत्मीय होती है।बच्चों की पूरा बचपन माँ के आसपास ही नहीं बल्कि माँ के साथ ही गुजरता है। माँ ,बच्चों की जननी ही नहीं सखी और गुरू भी होती है। ऐसे में बच्चे में जो सीखते हैं ,वह सब प्रत्यक्ष में माँ के नेतृत्व में ही सीखते हैं और अप्रत्यक्ष में माँ को देखकर ही। माँ का हर वक्त का साथ,हर जरूरत का खयाल और उसकी पूर्ति बच्चे में माँ के प्रति लगाव और विश्वास से रिश्ते को दृढ़ता देती हैं। यही वजह होती है कि बच्चा ,पलभर के लिये भी माँ को अपनी आँखों से ओझल नहीं करना चाहता। इस ममत्व और वात्सल्य में बच्चे को जो माँ से जाने-अनजाने में मिलता है,वह 'संस्कार' होता है। माँ से कही, सुनी और देखी गयी हर बातों का अनुसरण बच्चा करता चलता है।धीरे-धीरे जब बच्चा बड़ा होने लगता है और अन्य रिश्तों से जुड़ता जाता है तब उसके अनुसरण करने के क्षेत्र में भी विस्तार होने लगता है ।इसीलिये कह सकते हैं कि बच्चों में संस्कार देने में माता की भूमिका अग्रणी, विशेष और महत्वपूर्ण है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
बच्चों में संस्कार देने में माँ -बाप दोनों की अहम भूमिका होती हैं। माँ अपनों बच्चों की प्रथम शिक्षिका होती हैं। ज्यादातर पिता अपने काम के कारण घर से बाहर रहते हैं, ऐसे में माँ की जिम्मेदारी बढ़ जाती हैं। बच्चे अपने माँ से ज्यादा करीब होते हैं और माँ का रहन- सहन और बात- व्यवहार बच्चा देखकर सीखता हैं। माँ का उत्तम शिक्षा से ही बच्चा संस्कारी और अच्छा इंसान बनता हैं। ऐसे में बच्चों में संस्कार देने में माता की महत्वपूर्ण योगदान होता हैं।
- प्रेमलता सिंह
पटना - बिहार
मां की भूमिका माँ के साथ हर विषय में प्रथम गुरु की भी है हर मां बच्चे को अच्छे संस्कार ही देना चाहती है लेकिन मेरी हर मां से ये अपेक्षा जरूर है कि वो बच्चों को अन्धविश्वास में डालकर उन्हे वैचारिक ,दिमागी व अन्य तरह से पगूं न बनायें
- जयसिहं जागंड़ा
भिवानी - हरियाणा
" मेरी दृष्टि में " ये संस्कार ही हमारी पहचान है । जो माता के पालने - पोषण से बच्चे में आते हैं । जिसे भारतीयता कहते हैं । इसलिए संस्कार देने में माता की भूमिका सार्थक कहीं जाती है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
मीडिया क्लब पानीपत द्वारा सम्मानित होते हुए बीजेन्द्र जैमिनी
हिन्दी दिवस समारोह
14 सितम्बर 2015
समारोह स्थल
एस. डी. कालेज , पानीपत
सम्मानित करने वालें : -
- डाँ. अनुपम अरोड़ा
प्रधानाचार्य : एस.डी. कालेज , पानीपत
- श्री दिनेश गोयल
प्रधान : एस डी कालेज , पानीपत
- श्री राजकुमार भारद्वाज
ओ एस डी मीडिया : मुख्यमंत्री
हरियाणा सरकार
महत्वपूर्ण प्रश्न वैसी ही महत्वपूर्ण चर्चा सभी मित्रों को बहुत बहुत बधाई व आयोजक का आभार
ReplyDeleteआप लोगो के विचार पढ़कर बडा अच्छा लगा।माँ ही हमारी जननी है।और माँ ही हमारी रचनाकार भी ही। आज से कई वर्षों पहले माँ के संस्कार बहुत ही अलग थे। और अभी के माँ के संस्कार कुछ बदले हुए नज़र आते है।
ReplyDeleteउदाहरण के तौर पर पहले के माँओ ने अपने बेटी बेटो को अच्छे संस्कार देते थे। तो उनका घर परिवार बड़ी सुकून से रहता था। और अभी के कैसे संस्कार है जो परिवारों में दरार पैदा कर अपनी बेटी या बेटो की जिंदगी बर्बाद करते जा रहे है।पहले कभी 498अ के इतने झूठे केस नही पाए जाते थे और आज इसी केस498अ के 80 ℅ झुटे मामले दर्ज कर अपनी और अपने ससुराल वालों की जिंदगी नर्क बनाये जा रही है।
मेरा ये लेख किसी को बुरा कहने की नही है।किसी को बुरा लगे तो माफ करें।में सिर्फ आजकी बात बताने की कोशिश कर रहा हु। मेंरा कहना यह कि आज की जो माताये है वो अपने बच्चो को पहले जैसे संस्कार देकर अपने बच्चो का जीवन खुशियो और उन्नति के मार्ग पर ले जाने की कोशिश करे।
धन्यवाद।
Very good website, thank you.
ReplyDeleteOdia Story
Odia Sad Shayari
Odia Wishes