फरवरी - 2020 लघुकथा विशेषांक
मीन की आँख
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
"अच्छी है या बुरी अभी नहीं समझ पा रहा हूँ लेकिन अभी आपको बता रहा हूँ। इस बात को आप अपने तक ही रखियेगा। मैं पत्नी व बच्चियों के संग एक साल के लिए अमेरिका का सब छोड़-छाड़ कर भारत वापस जा रहा हूँ..," हिमेश के इतना कहते ही रमिया स्तब्ध रह गई।
लगभग बारह साल से पारिवारिक दोस्ती है। हिमेश की पत्नी और रमिया में तथा रमिया के पति और हिमेश में गहरी छनती है.. रमिया को दो बेटे हैं तो हिमेश को दो बेटियाँ। हिमेश नौकरी के सिलसिले में अमेरिका आया। नौकरी व्यवस्थित होने पर शादी और समयानुसार दो बच्चियाँ हुई। हिमेश बहुत सालों से अपने माता-पिता को अपने संग अमेरिका में ही रखना चाह रहा था। भारत में माता-पिता के पास अन्य बच्चे भी थे देखभाल के लिए , परन्तु अब वे वृद्ध हो गए थे । हिमेश पर बराबर दबाव बना रहे थे कि वो भारत वापस आ जाये।
"क्या बेवकूफी वाली बात कर रहे हो मेरे दोस्त। तुम्हारी बच्चियाँ भारत में समझौता क्यों करें? देखो हमने निर्णय किया है कि जब ऐसा समय आयेगा कि हमारी जरूरत हमारे माता-पिता को होगी वे यहाँ अमेरिका में आकर नहीं रहेंगे तो तीन महीना मैं जाकर रहूँगा और तीन महीना रमिया जाकर रहेगी।" रमिया के पति ने हिमेश को राह सुझाने की कोशिश किया।
"और आगे का छ महीना?" हिमेश उलझन में था।
"तब का तब और सोचेंगे...," रमिया ने कहा।
"तब का तब क्या तुम सेवा करने योग्य रह जाओगे? पिता का धन पुत्र को नहीं मिलता,भविष्य का कुछ सोचकर यह कानून बना होगा।" हिमेश की पत्नी गहरी सोच से जगी थी।***
===================================
कढ़ी चावल
- विजय 'विभोर'
रोहतक - हरियाणा
ओपीडी में आज बहुत भीड़ थी। मरीज़ देखते-देखते डॉ. सुशील ने थकावट महसूस की तो वह थोड़ा रिलैक्स होने बरामदे में आ गए।बैंच पर बेसुध पड़ी एक मैली-कुचैली सी बुढ़िया को देखकर कर्मचारियों से कहा "इन्हें जल्दी से ओपीडी रूम में लेकर आओ।"
कर्मचारियों ने डॉक्टर साहब का हुकुम तुरंत पालन किया। वहां बैठे अन्य लोगों में कानाफूसी चर्चा शुरू हो गई "यह मैली-कुचली पगली-सी बुढ़िया कौन है जो बड़े डॉक्टर साहब खुद इस पर इतना ध्यान दे रहे हैं?"
सुशील ने सभी मरीजों को छोड़ कर पहले बुढ़िया का इलाज शुरू किया। कुछ देर बाद बुढ़िया को होश आया तो वह बड़बड़ाई "मैं कहां हूं?"
डॉ सुशील, "ताई! मैं सुशील। पहचाना? तुम अस्पताल में हो।"
बुढ़िया, "अस्पताल.......? डॉ. साहब मैं ग़रीब तुम्हारे अस्पताल का ख़र्चा कैसे दूंगी? छः-छः जवान बेटे होते हुए भी आज मेरा कोई नहीं है।"
डॉ सुशील, "ताई शायद तुमने पहचाना नहीं? मैं तुम्हारे छोटू का दोस्त हूँ। मुझे तो तुम्हारे खिलाए हुए कढ़ी-चावल आज भी याद है, जिनको खाने के बाद मैं ठीक हुआ था। हॉस्टल की रोटियों ने तो मेरा डॉक्टरी का कोर्स ही छुड़वा दिया था।"
बुढ़िया, "बेटा! बुढ़ापे के कारण याददास्त कमज़ोर हो गयी है। पर इतना ज़रूर समझ में आ गया, मेरे बेटों से तो ज़्यादा वफ़ादार मेरे कढ़ी-चावल ही हैं।"
कहते हुए बुढ़िया के आँखों से आँसू झर झर बहने लगे।***
===================================
बोझ
- अनिता रश्मि
राँची - झारखण्ड
बहुत निर्धन था वह। किसी तरह बेटे का इलाज सरकारी अस्पताल में करा रहा था। कुछ दवाईयाँ बाहर से भी लानी पड़ रही थीं।
बेटा ठीक नहीं हो सका। उसकी साँसें एक सुबह थम गईं।
सबके कहने पर वह एबुंलेंस का इंतज़ार करने लगा। शव वाहन लेने की क्षमता नहीं थी।
काफी चिरौरी करने के बाद भी एबुंलेंस उपलब्ध नहीं कराया गया। सुबह से दोपहर हुई, दोपहर से शाम। बस, अँधेरी रात आने को थी। एक एबुंलेंस उसके गाँव के रास्ते पर आधी दूर तक जानेवाला था। लेकिन उसके चालक ने भी इंकार कर दिया,
- आगे ही इस पर बहुत लोग हैं। दो-दो शव को एक साथ लेकर उतनी दूर उबड़-खाबड़ रास्ते पर जाना है। और बोझ नहीं......।
बात पूरी होने से पहले ही ग्रामीण ने कफन में लिपटे बेटे के शव को कंधे पर उठा लिया। बुदबुदाया,
- ......बाप के कंधे पर बेटे की लाश से बड़ा बोझ है कोई ?
चालक ने बात सुनी। उसकी नज़रें झुकीं।फिर चुपचाप एबुंलेंस आगे बढ़ गया । ****
===================================
आधे-अधूरे पूरे
- मधुकांत
रोहतक - हरियाणा
शताब्दी पूर्व पांव की खड़ाऊ ने अपनी शक्ति को पहचाना। संगठन बनाया ,हौसला दिखाया, संघर्ष किया। समाज ने पीढ़ियों से कुंठित, शोषित पीड़ा को समझा। सरकार ने वोट पाने के लिए संरक्षण, आरक्षण दिया। सबने मिलकर उनको सिंहासन पर बैठा दिया। वे शासन करने लगी।
शासन का भी अपना उन्माद होता है ।वें इतिहास में अपने ऊपर हुए जुर्म का हिसाब लेने लगी।
शोषित बनी जनता फिर कराह उठी। वे भी संगठित होकर अपनी आवाज बुलंद करने लगी। खड़ाऊं को भी उनके शोषण की पीड़ा समझ में आयी तो पुनः संरक्षण, आरक्षण का दौर चला और अगली शताब्दी आते-आते फिर सत्ता परिवर्तन हो गया।
चिंतक ने सोचा बार-बार यह वर्ग संघर्ष क्यों होता है? 'क्या कभी सब आधे अधूरे पूरे नहीं हो सकते'। नेपथ्य में आकाशवाणी हुई 'नहीं हो सकते ,,,क्योंकि समाज में, शासन चलाने के लिए शासक व शोषित दोनों का होना अत्यंत आवश्यक है। ***
===================================
रपट
- कल्याणी झा
राँची - झारखंड
आज रविवार का दिन था । बारिश का महीना होने के कारण पाँच दिन बाद धूप निकली थी । पुरुष वर्ग खेत का जायजा लेने निकले थे । बच्चे बाहर निकल कर खेल रहे थे। बच्चों में आज होड़ लगी थी, कि कौन कितना ऊँचा कूद सकता है। मुन्नू, गुड्डू, पप्पू, सोमू, चेतू, और उनके साथ सोमू की छोटी बहन मुनिया भी खेल रही थी । मुनिया गेंद से खेल रही थी। इस बार उसकी गेंद दूर चली गई, तो मुनिया भी गेंद के पीछे- पीछे भागी।
सांझ होते ही सभी बच्चे घर की तरफ जाने लगे। पर उन्हें मुनिया कहीं दिखाई नहीं दी। मुनिया घर पर भी नहीं थी। सभी परेशान हो उसे ढूँढने लगे। पूरे गाँव में शोर मच गया। धीरे-धीरे रात हो चली थी। अभी तक मुनिया की कोई खबर नहीं थी। तभी एक झाड़ी के पास मुनिया के कराहने की आवाज सुनाई दी। वहाँ जाकर देखा तो मुनिया बेसुध पड़ी थी। पूरा शरीर लहू - लूहान था। माँ ने चीखते हुए उसे गोद में ले लिया, और अस्पताल की तरफ भागी। नर्स ने बताया किसी शंकर का नाम ले रही है।
पूरा गाँव शंकर के घर के बाहर खड़ा था। शंकर की माँ (शीला) भीड़ को चीरती हुई सीधे थाने पहुँची। वहाँ पहले से ही शंकर के पिता एक वकील के साथ बैठे थे।
शीला ने थानेदार की तरफ देखते हुए कहा - "साहब मेरे बेटा ने जघन्य अपराध किया है। उसकी रपट लिखिए।" फिर अपने पति को धिक्कारते हुए बोली - "हमारी बेटी और मुनिया एक ही कक्षा में पढ़ते है। तुम्हें मुनिया में, अपनी बेटी नजर नहीं आयी?" उसके बाद वकील को निशाना बनाते हुए - "वकील बाबू, इन दरिंदों को बचाने के लिए ही आपने वकालत की डिग्री ली थी। इससे तो अच्छा होता आप अनपढ़ ही रह जाते।"
थाने से वापस आकर शीला ने मुनिया की माँ से इतना ही कहा - "मैं तुम्हारा घाव तो नहीं भर सकती। पर मुनिया को इंसाफ जरूर मिलेगा।" ***
===================================
रेखा तो है
- ड़ा. नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
प्राध्यापक राजाराम जी भारत नगर के पहले निवासी थे।मेन रोड़ से थोडा अंदर की ओर जब यह कालोनी बसी तो इके- दुक्के ही घर थे। जो भी प्लाट खरीद कर मकान बनाता राजाराम जी के घर जरूर जाता। वो भी उनकी उचित मेहमान नवाजी करते।बिजली ,पानी,दैनिक दिक्कतें जो मकान बनाने में आती सब का हल वही कर देते।सब के मुँह पर मास्साहब का गुणगान।।तीन चार सालो में सभी धर्म -जाति व वर्ग के लोग रहने लगे। सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक आयोजनों में धीरे -धीरे
विभिन्नता और अलगाव सा दिखने लगा ।
राजाराम जी को भी कभी -कभी यह जातिगत दुराव स्पष्ट दिखता । उनके पारिवारिक समारोह में भी अब अधिकतर लोग औपचारिकता निभाते दिखते। खाना पीना तो ना के बराबर हो गया था। रविवार को कालोनी के बगीचे में अमरसिंह को देखकर उन्होंने पूछ ही लिया," अमरसिंह जी आप को नहीं लगता पहले आबादी कम थी पर इन्सानियत और भाईचारे में आनंद अधिक था। अब हर जगह संकीर्णता दिखती है?" अमरसिंह ने पुरोहित जी का हाथ थामते हुए कहा,"देखिए राजाराम मास्साहब ,अब सभी जातियों एवं वर्गों के अपने अपने तौर -,तरीके ,व अलिखित नियम है । उन्हे निभाना भी जरूरी है। पहले आप जैसों के घर खाना -पीना हमारी मजबूरी थी। "अपनी जाति का कोई था ही नहीं।
बुरा ना मानना ,आप की जनजाति के क ई परिवार हैं तो बस.....उसी में मस्त रहिए। आप स्वयं शिक्षित हैं किताबी व व्यवहारिक ज्ञान के अंतर को समझते हैं। आप का तो हम सब अब भी मान करते हैं आदर से बुलाते हैं ..शब्द बाण नहीं चलाते ।तो बस भारत नगर में एक कोना घेरे रहिए। राजाराम जी ने मन में सोचा सच है सौ साल बाद भी भारत नगर ही नही नगरों में यह रेखा तो रहेगी ही। ***
===================================
सहिष्णुता
- कुसुम पारीक
वापी - गुजरात
अब हर के कोने कोने में उसकी जरूरत गूँजने लगी थी जो मेरे कानों में शीशा घोल रही थी ।
मन को किसी तरह संयत किया लेकिन उसे अतीत के गलियारे में जाने से न रोक सकी
आज फिर मुझे पायल पर गुस्सा आ रहा था । क्यों नहीं आते ही इसे घर की जिम्मेदारी दे दी जिससे अब तक कुछ काम धाम सीख लेती ।
लेकिन नहीं,मुझे भी अच्छी सास बनने का भूत सवार था और पारुल जब इस घर में बहू बनकर आई तब उसे किसी तरह की तकलीफ न हो और मैं अच्छी सास साबित होऊं उस चक्कर में सब काम मैं ही करती रही ।
कई बार उसने काम करने की कोशिश भी की तब अनाड़ियों जैसे काम से घर व किचेन ऐसा बिखर जाता कि मेरे पास सिर पीटने के अलावा कुछ नही बचता ।
विपिन के पापा ने कई बार मुझे कहा भी कि ऋतु , पारुल नए घर, नए माहौल में आई है उसे हमारे घर की परंपरा व तौर तरीके सीखने में समय लगेगा; तुम उस पर थोड़ी थोड़ी जिम्मेदारी डालो जिससे वह अपने अनुसार उसे करती हुई धीरे धीरे तुम्हारे रंग में रंग जाएगी लेकिन मुझे उसका काम में बेढंगा पन व हर समय खी ,खी करके खींसे निपोरना बिल्कुल नहीं सुहाता था ।
अरे ,घर संभालना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है । केवल दाँत निकालते रहने से गृहस्थियाँ नहीं बसती ।
मेरा गुस्से भरा चेहरा देख व कड़वी बातें सुनकर पायल सहमी सी अपने कमरे में चली जाती ।
यदि वह कोई काम करती तब घबराहट में कुछ न कुछ गलती कर बैठती थी ।
उधर मेरी बड़बड़ाहट दिनों दिन बढ़ती जा रही थी ।
बेटा भी रोज की किच किच से परेशान होकर दूसरी जगह रहने का मानस बना चुका था।
अचानक एक दिन मैं आंगन में फिसलकर गिर पड़ी और पांव की हड्डी टूट गई ।
अब मेरे दुःख की कोई सीमा नहीं रही लेकिन बेबस थी ।
गोपाल जी ने पहले ही कह दिया ,"अब बिस्तर पर पड़कर बड़ बड़ मत करती रहना,शांति से रहोगी तब कोई तुम्हारा काम भी कर देगा अन्यथा सड़ती रहोगी।"
पति द्वारा ऐसी बातें सुनकर मन बहुत दुःखी हुआ और मैंने आँखें दूसरी तरफ फेर ली,कब नींद आई पता भी नहीं चला, जब नींद खुली तब पायल को बेड के पास खड़ा पाया, जिसके हाथ में एक प्याला था ।
मम्मी जी ,लीजिए दलिया खा लीजिए फिर आपको दवा दे देती हूँ ।
उसने मुझे उठने में सहयोग किया,मैंने अनमने मन से प्याला लेकर जैसे ही पहला कौर मुँह में डाला एक कुछ पुराना सा मीठा सा स्वाद जीभ पर तैरने लगा लेकिन मैंने मेरे चेहरे पर आते हुए भावों पर वैसे ही पाल जमा दी जैसे बाढ़ के बहाव को रोका जाता है और दलिया खत्म कर दिया ।
पायल खाली प्याला किचेन में रख आई फिर गर्म पानी देकर मुझे दवाई दी ।
धीरे-धीरे मैं देखती जा रही थी कि पायल घर का सारा काम संभालती जा रही थी ।
समय पर विपिन व उसके पापा को खाना देना,मेरा पूरा काम करना ,कामवाली आती तब उससे मधुर व्यवहार करना जिससे वह खुश होकर सब काम करती व एकाध दूसरे काम भी कर जाती । बिना कोई शिकन माथे पर लाए,पायल हंसती हुई सारी जिम्मेदारी संभालती जा रही थी लेकिन मैं अब भी खुश नहीं थी।
ईर्ष्या रूपी फन,मन की कल्पनाओं से निकलकर घर में विचरने लगा था ।
मुझे लगता, जैसे मेरा सिंहासन डोलने लगा है । यदि ऐसे ही पायल काम करती रही और जब मैं ठीक हो जाऊँगी तब क्या यह मुझे वापिस मेरा अधिकार देगी?
महीना भर आते-आते फन मुझे ही डंक मारकर मेरे मन को और जहरीला करने लगा।
गाहे-बगाहे मैं वापिस पायल को डाँटने लगी ।
उसका हँसता चेहरा फिर उदास रहने लगा ।
एक दिन मैं नींद से उठी तब देखा कि पायल हँस हँस कर अपनी मम्मी से बातेँ कर रही थी ।
हाँ मम्मी ,मम्मी जी अभी ठीक है , वह मेरी सेवा भावना से बहुत खुश हैं । मेरे बहुत ध्यान रखती है तुम चिंता मत करना,जल्दी ही चलने लगेंगी ।
मेरे मन में बैठा असहिष्णुता का दंश अपना ज़हर छोड़ने को तैयार नहीं था लेकिन जो कुछ मैं सामने देख रही थी उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता था ।
एक-एक कर मुझे पायल की वह सब अच्छाइयाँ दिखने लगीं जो पिछले दो सालों में मेरे द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के बाबजूद इस घर व इसके सदस्यों को अपना बनाने में लगी हुई थी ।
क्या उसका यह समर्पण इस घर के लिए जरूरी नहीं है ?
क्यों मैं यह सोचती रहती हूँ उसके बारे में हर गलत बात ?
वह भी इस घर का उतना ही हिस्सा है जितनी मैं ।
अगले ही पल मैंने पायल को अपने पास बुला कर उसे गले लगा कर कहा,"बेटा तुम जिस रूप में हो मुझे बहुत प्यारी लगती हो,यह घर आज से तुम्हारा है क्योंकि इस घर की परंपराओं की थाती तुम्हारे हाथों ही आगे वाली पीढ़ी तक जाएगी।
औऱ अचानक मैंने खुद को, ईर्ष्या रूपी बैसाखी को छोड़कर सहिष्णुता के पाँवों पर खड़े पाया । ***
==================================
ऋतु परिवर्तन
- नूतन गर्ग
दिल्ली
कई दिनों से स्कूल में सफाई जोरों पर चल रही थी, मानों धरातल पर स्वर्ग उतर आया हो ऐसा प्रतीत हो रहा था! सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी भी पूरी हो गई थी। चीफ मिनिस्टर साहब ने भी न्यौता स्वीकार कर लिया था। आखिर ज्ञान की देवी सरस्वती मां को जो मनाना था। कहते हैं कि मां सरस्वती जिनकी जिह्वा पर बैठ जाती हैं, उन्हें कभी किसी प्रकार की कमी नहीं होती। वह व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न माना जाता है।
सुबह आठ बजे से कार्यक्रम खुले मैदान में होना निश्चित हुआ था। सबकुछ समय पर हो रहा था। मंत्री जी भी समय पर पंहुच गए और मां के आगे द्वीप प्रज्वलित करने के लिए आगे बढ़े ही थे कि इंद्र देवता क्रुद्ध हो गए, लगे बरसने धूप होने पर भी।
बिन मौसम बरसात देख सब कहते नजर आए, काश! हमने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न की होती तो आज यह दिन न देखना पड़ता। वहां पर कार्यक्रम के बजाय अफरातफरी वाला माहौल हो गया था।***
===================================
हिरन और शेर
- डॉ मधुकांत
रोहतक
वर्षो से जंगल में एक ही शेर का साम्राज्य था। प्रजा तंत्र का ढिंढोरा बजा तो इक शेर और खड़ा हो गया। दोनों एक दूसरे पर गुर्राते सारे जानवर मिलकर कभी एक को राजा बना देते जब उससे दुखी होते तो दूसरे का चुनाव कर देते।
दोनों शेर .....फिर उनकी औलाद क्रमशः शासन चलाते रहे। अचानक एक हिरन को ख्याल आया वोट तो हमारी सबसे अधिक, फिर भी शासन करे शेर....ये कैसा प्रजातंत्र है?
सारे जंगल की पंचायत बैठ गयी, चुनाव हुए और शासक इस बार नया आ गया। सबने मिलकर हिरन को अपना नेता बना लिया।
जहर बुझे दोनों शेर अपनी मांद में टाक लगाये बैठे हैं की कब कोई हिरन अलग हो और हम आक्रमण करें। ००
-----------------------------------------------------
प्रस्तावित मॉल
- ज्ञानप्रकाश ' पीयूष '
सिरसा
झुग्गी-झोंपड़ियों को अवैध रूप से बसी हुई मान कर खाली करने के अनेक बार नोटिस जारी किए जा चुके थे।यह अंतिम नोटिस था ।तीन दिन का समय दिया गया था क्योंकि मॉल बनना प्रस्तावित था ।
नोटिस जारी होते ही सबमें खलबली मच गई। जिनके पास रहने की वैकल्पिक व्यवस्था थी, वे दिल पर पत्थर रख कर,मोह त्याग कर अन्यत्र चले गए,कुछ रेलवे स्टेशन के आसपास फुटपाथों पर अस्थाई तंबू-सा तान कर रहने को विवश हो गए,,परन्तु कुछ अत्यंत अशक्त-जन, दिव्यांग और गर्भवती माताएँ, अंतिम समय तक इंतजार करने के लिए विवश हो गए।
क्या पता कोई चमत्कार हो जाए ? राम-सा पीर की मेहर होजाए, कोर्ट से कोई स्टे मिल जाए, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।बुलडोजर ने आकर समस्त झुग्गी-झोपड़ियों को ध्वस्त कर दिया।
जिन्होंने कुछ दिन के लिए और मौहलत माँगने की गुहार लगाई,उन पर डंडे बरसाए गए, बाल नोचे गए और उन्हें घसीटते हुए रद्दी सामान की भाँति जबरन झुग्गियों से बाहर खदेड़ दिया गया।गरीब की सुनने वाला वहाँ था कौन ?
यहाँ तो सभी कानून के रखवाले,कर्तव्यनिष्ठ और तथाकथित ईमानदार थे ।मुस्तैदी से कानून की अनुपालना के लिए अवैध निर्माण को डहाने के लिए बेचैन। ००
-----------------------------------------------
बेटी बचाओ,बेटी पढाओ
- रेखा राणा
करनाल
"चल जल्दी जा ,पानी भर कर ला ......!" वंश ने लगभग आदेश देते हुए कहा !
"पर भाई ......मेरे पैर में दर्द है ....पता है ना आपको कल मोच आ गई थी !" शगुन ने घिघियाते हुए कहा !
"सुन नहीं रहा क्या ?भाई क्या कह रहा है ,लड़की जात हो ,लड़की बन कर रह ,जबान मत चलाओ !" अंदर रसोई से कमला की आवाज आई थी !
लंगड़ाते हुए चल दी थी शगुन बाल्टी उठा कर !
"रुको .......,बैठो यहां दादी के पास ,और तुम ......लाट साब उठो ,और जाओ पानी तुम भर कर लाओ !" ये विश्वास की आवाज थी !
"पर मैं क्यों .........?" वंश घिघियाया !
"दर्द है उसे ...सुना नहीं तूने ,और क्या तू टाँग पे टाँग रख हुक्म चलाता रहता है....!"
"अरे लड़का है वो .....!".कमला ने अपनी बात रखी !
"तो क्या खाट तोड़ेगा सारा दिन ?" विश्वास चिल्लाया !
"अभी छोटा है ........!"अबके अम्मा बोली !
"और वो शगुन तीन बरस छोटी है ,तुम्हारे इस छोटू से !"
सुन लो सब आज से पानी तो यही भर कर लाएगा ,जिम्मेदारी का अहसास कराना जरूरी है ,वरना सारी उम्र औरतों पे हुकुम चलाने को ही अपना काम समझेगा ,अपने दादा की तरह ...........!"
अम्मा का दिल नहीं दुखाना चाहता था पर उनकी सोच को आइना दिखाना जरूरी था !
"और हाँ अम्मा.....कल से ये स्कूल भी जायेगी ।"
"क्या करेगी स्कूल जा कर...?...क्या कलक्टर बनाना है.....अरे ज्यादा सर मत चढा़ओ.....नहीं तो कल सर पर चढ़ कर नाचेगी ।" अम्मा ने दलील दी ।
"ना...अम्मा तुम्हें कुछ नहीं पता ,मैं तो फौजी सिपाही हूँ........पर मैं चाहता हूँ.....मेरी शगुन फौज में बड़ी अफसर बने......कहते-कहते सुबह अखबार में छपी फाईटर प्लेन चलाती अवनि चतुर्वेदी की तस्वीर आँखों में तैर गयी । ००
-----------------------------------------------------
दरोगा जी
- बीजेन्द्र जैमिनी
पानीपत
कोर्ट में मुकदमा जीतने के बाद जज साहब ने बुजर्ग को बधाई देते हुए कहा- बाबा !आप केस जीत गये ।
बुजर्ग ने कहा- प्रभु जी ! आप को इतनी तरक्की दे, आप " दरोगा जी " बन जाए ।
वकील बोला- बाबा! जज तो " दरोगा " से तो बहुत बड़ा होता है।
बुजुर्ग बोला- ना ही साहब ! मेरी नजर में "दरोगा जी" ही बड़ा है।
वकील बोला- वो कैसे ?
बुजुर्ग – जज साहब ने मुकदमा खत्म करने में दस साल लगा दिये जब कि "दरोगा जी" शुरू में ही कहा था। पांच हजार रुपया दे , दो दिन में मामला रफा दफा कर दूगाँ । मैने तो पांच की जगह पंचास हजार से अधिक तो वकील को दे चुका हूँ और समय दस साल से ऊपर लग गये।
जज साहब और वकील तो बुजुर्ग की तरफ देखते ही रह गये। ००
-----------------------------------------------------
जात-भाई
- शोभना श्याम
गुरुग्राम
"अरे सरला ये किसको पकड़ लाई? ये तो नीची जाति की है | देख ! मैंने तुझे पहले ही कहा था कि झाड़ू-पोछे की बात और है, लेकिन खाना बनाने के लिए तो हमे ठीक-ठाक जात वाली ही चाहिए |"
"भाभी आप जात-वात पर न जाओ, देखो कितनी साफ-सुथरी रहती है और खाना तो इतना बढ़िया बनती है कि आपको लगेगा कि आप ने ही बनाया है| बहुत ढूँढ-ढांढ के लाये है आपके लिए | हमें मालूम है कि आपको ऐसा वैसा खाना नहीं भाता |"
"न भई! अच्छे खाने का तो ये है कि हम खुद सिखा लेंगे दो चार दिन में | लेकिन ये छोटी जात वालों से सफाई-सुथराई पर कौन माथा पच्ची करेगा |"
"मगर आपको तो बहुत ज़रूरत है न भाभी ? डाक्टर ने आपको आराम करने को कहा है|"
"सो तो है सरला ! लेकिन कोई नहीं, चलो दो चार दिन और उस चौक वाली दुकान से मँगा लेंगे | जहां से तीन दिन से मँगा रहे है, बिल्कुल घर जैसा खाना बनता है वहाँ | मगर खाना बनाने वाली तो ऊंची जात की ही रखूंगी "
"कौन सी दुकान भाभी? वो पोस्ट ऑफिस के बराबर वाली ?"
"हाँ हाँ वही, एकदम सा ....फ-सुथरी ,अपने जात-भाई की दुकान है |"
"मगर उसका खानसामा तो हमारा मरद ही है !"
अब तक चुपचाप दोनों की बात सुनती खाना बनाने वाली बोल पड़ी । ००
----------------------------------------------------
शराफत
- राजेन्द्र शर्मा "निष्पक्ष "
पानीपत
वह मुझे कोर्ट के पास
बनी कैन्टीन के पास खङा मिला था।वह एक लेखक था,इस नाते मैं उससे पूर्वपरिचित था। "कैसे हैं,
बहुत दिनों बाद मिले हो?कहाँ व्यस्त हैं?किसी गोष्ठी में भी नहीं
मिले?"लगातार सवालों की बौछार करते हुए, उसने
हाथ मिलाया था।
"बस,कार्य की अधिकता के
कारण........कचहरी में कुछ काम था,इसलिए आना
पङा ।" मैंने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
"सेवा बताईए, मेरे लायक।
बहुत जानकार हैं अदालत में,मैं भी गाँधी आवास योजना के लिए इनकी मदद में आया हूँ, शारीरिक विकलांग है......समय समय
पर थोड़ी बहुत समाजसेवा करता हूँ बन्धुवर।"
"जी।"मैंने कहा। "आप चाय लेंगे?"उसने पूछा तो मैंने मना कर दिया।
"नहीं ऐसे कैसे चलेगा।ए बेटा,
तीन दूधपत्ती और मठ्ठी
ले आओ।वहीं खङे खङे उसने चाय वाले को इशारा किया और इधर उधर की बातें करने लगा।कुछ देर में चाय आ गयी।वहीं बातों बातों में हमने
चाय पी ली,इसके बाद उसने मुझसे हाथ मिलाया और स्कूटर चला कर चला गया।मैं उसकी
सह्रदयता एवं सामाजिक मूल्यों के प्रति कर्मठता से बहुत
प्रभावित हुआ। मैं भी लौटने लगा कि तभी चाय वाले ने आवाज दी।मैं उसके पास गया तो वह बोला,"सर तीन दूध
पत्ती मठ्ठियों के पैसे?"
"वे देकर नहीं गए?मैंने पूछा तो उसने नकारात्मक सिर हिला दिया।
"कितने
हुए?"मैंने कहा।
"सर,चालीस रुपए। "वह बोला।
मैंने पर्स से चालीस रुपए निकालकर चाय वाले को दिए
और चुपचाप चल पङा।उस समाजसेवी एवं संवेदनशील लेखक की शराफत भरी बातें, मुझे बार बार याद आ रही
थीं। ००
---------------------------------------------------
शौक
- कमलेश भारतीय
सिरसा
-सुनो यार , हर समय बगल में कैसी डायरी दबाए रखते हो ?
-यह ,,,यह मेरा शौक है ।
-यह कैसा अजीब शौक हुआ ?
-मेरे इस शौक से कितने जरूरतमंदों का भला होता है ।
-वह कैसे ?
-इस डायरी में सरकारी अफसरों के नाम , पते , फोन नम्बरों के साथ साथ उनके शौक भी दर्ज हैं ।
-इससे क्या होता हैं ?
-इससे यह होता हैं कि जैसा अफसर होता हैं वैसा जाल डाला जाता हैं । जिससे जरूरतमंद का काम आसानी से हो जाता हैं ।
-तुम कैसे आदमी हो ?
-आदमी नहीं । दलाल ।
और वह अपने शौक पर खुद ही बडी बेशर्मी से हंसने लगा । ००
-----------------------------------------------------
बाबुल का घर
- सुभाष सलूजा
रानियां
" पापा ! आज फिर उन लोगों ने मेरे साथ मार पीट की ।कब तक सहती रहूं उनके जुल्म ?
आपने तो बङा घर देख कर ब्याह दिया मुझे कि बेटी सुखी रहेगी ।यहां उलटा हॆ सब , बात बात पर ओकात बताते हैं । सारा दिन घर का काम करो ,उस पर सासू मां की डांट । ये तो कभी मेरे हक में बोलते ही नहीं ।" रोते रोते बेटी सब कह गयी ।
" बेटा ! थो़ङा धीरज से काम लो ।"
" नहीं पापा अब सहन नहीं हो रहा । मॆं घर आ रही हूँ ।"
पापा पर जॆसे वज्रपात हो गया । घर आने के परिणाम सोच कर जॆसे लक्वा मार गया हो ।अपने आप को थोङा सम्भालते हुए रुंधे गले से बोल पाया
" बेटी यह घर अब तेरे बचपन के अधिकार वाला नहीं रहा । समझने का प्रयास करो । हर चीज जिद्द से मनवा लेना । ' यह घर मेरा हॆ ' वाली बात अब नहीं रही बेटा! ब्याह के बाद लङकियां पराई हो जाती हैं। अब इस घर में तेरा भाई हॆ , भाभी हॆ उनका बच्चा भी । मॆं भी उन के अधीन .......। यह अब तेरे बाबुल का घर नहीं ।" पापा के स्वर मे मजबूरी झलक रही थी।
बेटी अधूरा सा वाक्य बोल पायी
" पा.....पा ! बेटी किस घर को अपना कहे ।"
फोन चुप हो गया । ००
-----------------------------------------------------
छाँव
- कुणाल शर्मा
अम्बाला
चेहरे पर चिंता की लकीरें लिए वह अस्पताल के बाहर चहलकदमी कर रहा था । जैसे ही कमरे से निकलती नर्स का चेहरा दीखता उसके सवालों की बौछार शुरू हो जाती :
" क्या कह रही है डॉक्टर ? अब दर्द कैसा हैं ? कितना वक़्त लगेगा डिलीवरी होने में ?
नर्स का फिर से दो टूक जवाब मिल जाता :
" भईया , अभी वक़्त है "
आख़िरकार नर्स ने बधाई दे ही दी इस बार लड़की हुई थी ।पर उसके लिए असली अग्निपरीक्षा अभी शुरू होनी थी क्योंकि अनजान शहर में अकेले पति-पत्नी , कोई खास जान पहचान भी नहीं थी । उसका एक पाँव घर पर बेटे के साथ तो दूसरा अस्पताल में पड़ी पत्नी के साथ था । कभी नवजात के लिए छोटे कपडे तो कभी जच्चा के लिए दाल-खिचड़ी । आस-पड़ोस वाले भी अस्पताल में औपचारिकता पूरी कर अंततः बच्ची को उसकी गोद में थमा जाते । बेबसी और थकावट हावी हो चली थी कि यकायक माँ का चेहरा आँखों के सामने उभर आया पर अतीत के पन्नें पलटते ही याद आया कि कैसे माँ से झगड़कर शहर आ गया था और कितने विश्वास से कह दिया था :
" हम अब अपने पाँव पर खड़े हो गए है और सब संभाल सकते है "
तो उधर माँ ने भी मानों शहर ना जाने की कसम उठा ली थी । पर आज विश्वास डगमगा चूका था । बड़ी हिम्मत कर फोन उठाया और नंबर मिलाते उंगलियां हिचकिचा रही थी :
" माँ , कैसी है तू ? पोती हुई है , अगर तू कुछ दिन यहाँ आकर........?" बड़ी मुश्किल से शब्द उसकी जुबान से निकल रहे थे ।
" बहुत बड़ा अफसर बन गया है तू , मुझे खबर तक नहीं की , अच्छा बहू कैसी है ....? तू चिंता ना कर , सुबह वाली ट्रेन से पहुँच जाऊँगी , बस तू अपना ख्याल रख......"
उसकी भीगी आँखे नवजात पर पड़ी जिसको बिस्तर पर पड़ी माँ ने अपनी छाती से सटा रखा था..... ००
-----------------------------------------------------
क्यों न जड़ जलायें ?
- मनोज कर्ण
फरीदाबाद
कॉलेज भर के सभी छात्र - छात्राएँ एकजुट होकर प्रीति की आत्मा की शांति के लिये कैण्डिल मार्च पर जा रहे थे. दर असल प्रीति का कुछ दिनो पहले कुछ लड़कों ने बलात्कार और फिर हत्या कर दिया था.
-- अरे ! रीतिका तू ,घर मे घुसी पड़ी है .डरपोक कहीं के ! चलो....चलो हम सभी जा रहे इण्डिया गेट पर कैण्डिल मार्च और प्रीति की आत्मा को श्रद्धाञ्जलि देने. - रिया अपने सहपाठी रितिका को हाथ पकड़ हॉस्टल के कमरे से बाहर लाते हुए बोली.
-- तुम लोग एक चीज बताओ कि देश भर मे इतने शोर शराबे हुए कोइ पकड़ा भी गया क्या ? रितिका ने उपस्थित भीड़ से जिज्ञासा की .
-- हाँ...हाँ , वो कमीना रोहित तो था.अपने कैम्पस के साथ वाले हॉस्टल का कमरा नं. - ३१९ वाला.नेहा ने आत्मविश्वास के साथ कही.
-- तो फिर उतने दूर इण्डिया गेट क्यों जायें हम ? चलो यहीं चलते हैं साथ वाले कैम्पस मे .रितिका आक्रामक स्वर मे व्यक्त की.
-- उससे डरकर उसका चरणस्पर्श करने जायेगी क्या ? कि कहीं कल को हमारा नं. न आ जाय !
सभी समवेत में हा.....हा...हा !
-- नही, वह यहाँ अकेला एक श्रेष्ठ मर्द है न चलो आज उसका आरती उतारूंगी.रितिका पुरे आत्मविश्वास के संग सबको साथ चलने को मजबूर किया.
अब रितिका और उसके सहपाठी घी का डब्बा, फूल की माला एवं माचिस थाल मे लिए छात्रावास के द्वार पर पहुँच कर-- गार्ड भइया हमें रोहित से मिलना है .
-- रोहित, जो जमानत पर जेल से छुटकर आया है.ओह! मै तो परेशान हुँ इस बलात्कारी के विजिटर से.मन करता है किसी दिन इसका भी....गार्ड़ भइया खुद ही बुदबुदाया .
गार्ड लौह द्वार खोलते हुए-- जाओ, तीसरी मंजिल के क्रीड़ा कक्ष मे होगा.
-- अहा...! आज तो परीयाँ साक्षात् तेरे दर्शन को आ गई रे ! रोहित के साथियों ने फब्तियाँ कसे.
-- तो आज आपकी बारी है मुझे संतुष्ट करने की.तो इतनी मिहनत की क्या जरूरत थी, मोहतरमा !वहाँ से पुकारती , आपका हीरो हाजिर ! .रोहित ऐंठते हुए बोला.
-- भइया , पुरे ब्रह्माण्ड मे अपने जैसा एक अकेला मर्द हो आप ! इसलिए पहले आपकी आरती उतारना चाहती हुँ .घी के डब्बे हाथ मे लिये अपने अन्तराग्नि को रोक सहमति चाही.
-- हाँ...हाँ , क्यों नही, लो जहाँ जहाँ लेपनी हो लेप डालो.अहा...क्या कोमल हाथ है मोहतरमा आपका.
-- रोहित जी, कृपया नीचे चलिये न ताकि आपके मर्दानगी भरे हिम्मत को पास पड़ोस के लोग भी देख सके और हमारे टीम द्वारा बुलाये मीडिया भी आपके चेहरे को दुनिया के सामने दिखा पाये.
-- हां...हाँ क्यों नही .रोहित दंभ के साथ मिनटों मे सीढ़ियाँ पार कर नीचे द्वार के बाहर हाजिर हो गया.
गेट से बाहर आते ही रितिका ने रोहित को माला पहनाई.तालियों की गड़गड़ाहट के बीच माचिस जलाई और रोहित के उपर फेंक चलती बनी.
मीडिया के पूछे जाने पर बस! कहते हुए बढती रही कि -" किसी की स्मृति मे केण्डिल जलाने से बेहतर उस कारण को ही क्यों न जला दें ताकि भविष्य मे फिर कैण्डल मार्च की जरूरत ही न पड़े . !" ००
---------------------------------------------------
आँसुओं की महक
- कमल कपूर
फरीदाबाद
आज बहुत दिनों के बाद वसुधा को फुर्सत के पल मिले थे, जो उसे बिल्कुल अच्छे नह् लग रहे थे। एक लंबी ठंडी साँस ले कर उसने पलंग की पीठ से सिर टिका दिया और आँखों मूंद लीं तो वह दिन सामने आ कर खड़ा हो गया, जब उसका इकलौता लाडला ध्रुव बिना खबर किये तीन बरस बाद न्यूजर्सी से लौटा था और नये पत्ते -सी नाज़ुक और फूल -सी सुंदर एक लड़की का हाथ थामे देहरी पर खड़ा था।खुशी से बौराई -सी वह आगे बढ़ी उसे गले लगाने के लिए कि उससे पहले उन दोनों ने ही आगे बढ़ कर उसके पाँव छू लिए और ध्रुव ने मुस्कराते हुए कहा," मम्मा ! यह आलिया है•••आपकी बहू ।"
" मेरी बहू?" सिर पर जैसे आसमान टूट पड़ा और पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई।कुछ पल पाषाण-प्रतिमा -सी मौन खड़ी रही वह कि पति ने उसके कंधे पर हाथ धरते हुए धीमे स्वर में कहा," वसु ! आगे बढ़ो और बच्चों का स्वागत करो ।" पर वह बजाय आगे बढ़ने के पीछे मुड़ी और लगभग भागते हुए अपने कमरे में चली गयी।
कुछ देर बाद पति उढका हुआ द्वार खोल कर भीतर आये और उसका हाथ थाम कर मुलायम स्वर में बोले ," जो होना था हो चुका वसु ! तुम्हारा दर्द मैं समझता हूँ पर यह वक्त नहीं है गुस्सा दिखाने का। तुम्हारा यही रवैया रहा तो अपनी इकलौती संतान से हाथ धो बैठोगी इसलिए चलो और बेटे-बहू को आशीर्वाद दे कर आदर के साथ गृह-प्रवेश कराओ।"
रूखे-सूखे मन से उसने सब रस्में निभाईं पर उसने एक कदम बढ़ाया तो आलिया ने चार कदम बढ़ाये। धीरे-धीरे दूरियाँ सिमटती गईं और दोनों प्याज़ की पर्तों -सी एक-दूसरे के साथ खुलती गईं और घर हंसी-खुशी की फुलवारी बन गया। किसी जादूगर के सुंदर खेल-तमाशे से वे सात सप्ताह कैसे गुज़र गये , पता ही नहीं चला और आज सुबह एयरपोर्ट पर बिदाई की बेला में जब उसके गले लग कर आलिया बच्चों की तरह बिलख रही थी तो उसे भी रोना आ गया।
" ये घड़ियाँ रोने की नहीं खुश होने की हैं वसु ! आलिया बेटी के कीमती आँसू संभाल कर रख लो, " सामने मुस्कान बिखेरते हुए पतिदेव खड़े थे। उसने भीगी हुई सवालिया नजरों से उन्हें देखा तो वह फिर मुस्कुराए " आलिया बहू बन कर हमारे घर आई थी पर अब बेटी बन कर बिदा हो रही है क्योंकि घर से बिदा होते हुए बेटी रोती है , बहू नहीं।"
वसुधा ने पलकों के बंद किवाड़ खोले और अपने आँचल के उस कोर को दुलार से चूम लिया, जिसमें उसकी बेटी आलिया के खारे आँसुओं की मीठी महक बसी थी। ००
----------------------------------------------------
माँ और माँ
- राजकुमार निजात
सिरसा
अखिलेश ने अपनी बूढ़ी माँ को रोटी की थाली देते हुए कहा - " लो माँ खाना खा लो ..... गरमा-गरम है ...? "
" भूख नहीं है ..रहने दे ...." कह कर माँ लेट गई । अखिलेश कुछ छन खड़ा रहा फिर पुनः बोला-- " खा लो माँ जितनी भूख है , खालो ... ? "
माँ कुछ नहीं बोली बस लेटी रही , लेकिन अखिलेश कह कर चला गया ।
अखिलेश की पत्नी यह सब देख रही थी । अखिलेश के चले जाने के बाद वह माँ के पास आकर बोली -- " खा लो माँ जी खालो लो..... जितनी इच्छा है खालो ? "
माँ बोली -- " थाली ले जा बहु ...... सचमुच ही भूख नहीं है । " कह कर माँ फिर लेट गई ।
" उठो ...... । " बहु ने माँ का हाथ पकड़ा तो माँ चारपाई पर बैठ गई ।
" .... लो माँ जी खाओ । " कहकर बहु ने एक ग्रास माँ के मुँह में रख ही दिया । फिर दूसरा ग्रास ....फिर तीसरा ...चौथा.... और देखते ही देखते माँ दो चपाती खा गई । खाना खिलाकर बहु संगीता आत्मीयता से भर उठी ।
अखिलेश खिड़की से यह सब देख रहा था ।
माँ बोली -- " तुम माँ हो ना ,खिलाना जानती हो । अखिलेश भी बचपन में जब खाना नहीं खाता था तो मैं उसे ऐसे ही खिलाती थी और वह खा लेता था । "
संगीता ने खाने से चिकनी हो आई अपनी उंगलियों को देखा और अपनी माँ की यादों में खो गई ।
वह ममता से तृप्त हो उठी थी । " ००
-----------------------------------------------------
Comments
Post a Comment