क्या जीवन में रिश्तों के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है ?
रिश्तों के प्रति इंसान को जागरूक होना चाहिए तथा रिश्तों की अहमियत को पहचाना चाहिए । जो रिश्तों के अर्थ को समझ सकता है । वहीं रिश्तों को निभा सकता है । यहीं " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
जी हाँ रिश्तों के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है ।
रिश्ते यानी संबंधों के प्रति संवेदनशील रहना यानी मानवीयता , प्रेम की कसौटी को बनाए रखना ही संवेदनशीलता को दर्शाता है । भारतीय संस्कृति और हमारे पूर्वजों ने , हर पीढ़ी दर पीढ़ी को रिश्तों के प्रति संवेदनशील रहना सिखाया है ।
लेकिन इक्कीसवीं सदी की तकनीकी की सदी ने मानव को मशीनीकरण , पदार्थवाद के धरातल पर खड़ा कर दिया है । जिससे मानव के स्वार्थ में मैं का प्रादुर्भाव हुआ है। रिश्तों में संवेदनशीलता की परिभाषा बदली है । रिश्तों में आत्मीयता , संवेनशीलता में कमी आयी है ।मानव के अंतिम सफर में भौतिक दौलत नहीं काम आती है । मरे हुए व्यक्ति को यानी शव को चार कँधों पर यात्रा की जरूरत होती है । भौति संपदा संसार में ही रह जाती है । ताउम्र हमारे रिश्ते ही काम आते हैं
जीवन के सफर में हर जन हमारे लिए उपयोगी है ।
भौतिकता की पहचानवाला अमेरिका संवेदनशील देश नहीं है । लेकिन भारत की संस्कृति और हमारे प्रधानमंत्री मा नरेंद्र मोदी के की मैत्री की वजह से अमेरिका भारत के रिश्तों में प्रगाढ़ता में मजबूती आयी है । अभी भारत में आये ट्रंप और मोदी के रिश्ते भारत को प्रेम के अटूट बंधन पर बाँध रहा है ।
अमेरिका के राष्ट्रपति ने खुद कहा है , " अमेरिका भारत को प्रेम सम्मान देता है । "
प्रेम , समर्पण , सम्मान रिश्तों की संवेदनशीलता को बल देते हैं । यह साकारात्मकता संवेदनशीलता की जड़ों को सींच के हरा - भरा करता है ।रिश्ते की संवेदनशीलता ही भारतीय संस्कृति को टिकाऊ बनाती है । संवेदनशीलता ही हमें साथ रहना सिखाती है । अहमदाबाद में साबरमती आश्रम महात्मा गांधी जी के द्वारा स्थापित मूल्यों , संवेदनशीलता का साक्षी है । गांधी जी मानवता की सेवा की है ।सदियों से भारत इन मूल्यों को सँभाले हुए है । मानवाधिकार भी संवेदनशीलता की बात कहती है ।
भारत देश में संवेदनशीलता
संवेदनशीलता का पहला पाठ हमें परिवार में पढ़ने को मिलता है । यही सामाजिक का आधार बनताः है ।
बच्चे हर अच्छे बुरे काम , बात घ से ही सीखते हैं ।इसलिए परिवार सभो जन संस्कारित संवेदनशील हो ।संवेदनशीलता का पाठ पढ़कर ही पड़ोस , समाज , समुदाय से अच्छे संबंध बना सकते हैं । यही भावना हमारी हृदय को पवित्र करती है ।
कबीर ने कहा है
जा घट प्रेम न संचरै , सौ घाट जान मसान ।
जैसे खाल लुहार की , साँस लेत बिन प्रान।
अर्थात जिस हृदय में प्रेम का संचार नहीं हसे । वह हृदय श्मशान के समान है । मृतक के समान वह व्यक्ति है ।जिसका हृदय ऐसा है ।प्रेमरहित व्यक्ति लुहार की भट्टी की आंच तेज करनेवाली धौंकनी के समान है ।जो निर्जीव होने पर साँस लेती हुई प्रतीत होती है । कहने मतलब यही है कि साँस लेते हुए व्यक्ति में संवेदनशीलता नहीं है । तो मरे के सामान है । संवेदनशीलता का जीवन में होना अनिवार्य है ।
जहाँ संवेदनशीलता का अभाव होता है वह समाज , राष्ट्र
जीते हुए भी मरे हुए पशु के समान है ।
जो हमें आनन्दित करती है ।
मुक्तक में में कहती हूँ
रिश्ते हैसियत पूछते हैं ,
बच्चे वसीयत पूछते हैं ,
मात - पिता ऐसे हैं जो ,
सबकी खैरियत पूछते हैं ।
- डा मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
क्या जीवन में रिश्तो के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है?
मनुष्य के जीवन में रिश्तो के प्रति संवेदनशील के साथ-साथ भावात्मक होना आवश्यक है। क्योंकि भाव विहीन रिश्ता निरश जिंदगी जैसा लगता है अगर रिश्ते में भाव हो तो रिश्ता हमेशा सुखद बना रहता है इस संसार में हर व्यक्ति का संबंध दो तरह के देखे जाते हैं एक परिवारिक अर्थात सामाजिक संबंध मानव मानव के साथ दूसरा प्राकृतिक संबंध पदार्थ ,वनस्पति ,जीव जंतु के साथ इस तरह इन दो संबंधों के साथ ही मनुष्य जिंदगी जीता है। अतः इन संबंधों को बनाए रखने के लिए उन्हें भावों की आवश्यकता होती है बिना भाव के जीना मृत प्राय के समान होता है ।शरीर जिंदा तो रहता है लेकिन मन जी नहीं पाता अर्थात मन में सुख शांति नहीं मिलती है अतः जीवन में रिश्तो के प्रति भावात्मक संवेदनशील रहना आवश्यक है ।संबंध परिवार में दिखते हैं परिवार समाज में होता है ।समाज प्रकृति के साथ होता है। अतः इन संबंधों को बनाए रखते हुए मनुष्य सभी के साथ खुशी खुशी जी पाए तो यही रिश्ता परिवार में स्वर्ग कहलाता है। मनुष्य का स्वर्ग परिवार होता है। परिवार से ही रिश्ते हैं रिश्ते बनाए नहीं जाते वह प्रकृति में बना ही हैं। इन संबंधों को पहचान कर मूल्यों का निर्वहन किया जाता है। अतः कहा जाता है कि ,जीवन में रिश्तो की अहमियत होती है ।बिना भाव के रिश्ते जिंदा मुर्दे के समान है।अतःरिश्ते के प्रति भावात्मक होना आवश्यक है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
रिश्तों के प्रति संवेदनशील ता रिश्तों की उम्र तय करती है। तन मन धन से अधिक जरूरी होता संवेदनशील समर्पण। सुख दुख का पारस्परिक आदान-प्रदान संवेदनहीनता में संभव नहीं है। ईगो के साथ रिश्ते निभ सकते हैं बशर्ते संवेदना साथ साथ रहे। भावनाओं के प्रवाह में संवेदना की सदानीरा ही दिशाएँ तय करती हैं। लहरें यदि सिर्फ किनारों से टकरा टकरा कर लौटती रहेंगी और समंदर ने उन्हें पुनः अपने भावनाओं के आगोश में नहीं लेगा तो क्या लहरें लौटेंगी पुनः पुनः? नहीं ना। तो जान लीजिए मानव मन की लहरें भी समंदर सी अथाह जिंदगी में संवेदनशीलता को पाकर ही जुड़ी रह पाएंगी। "वो तो हम हैं जो जुबां खोलते नहीं वरना तुम दौड़के आओगे गर हम बुलाना चाहें!!" ऐसा प्यारी सी विश्वसनीय संवेदनशीलता और समर्पण ही रिश्तों को जोड़े रखने की सबसे बड़ी कड़ी होती है
- हेमलता मिश्र
नागपुर - महाराष्ट्र
जीवन में सुख- दुख आते रहते हैं। रिश्ता और परिवार आज के इस दौर में पीछे छूट रहा है । पहले जहां संयुक्त परिवार हुआ करता था , आज एकल परिवार होने लगा हैं । अब हमारे देश में शायद ऐसा लगता है संयुक्त परिवार 2 % भी नहीं होंगे । जीवन में संयुक्त परिवार जिसको मिल जाए उसका जीवन खुशहाल हो जाए । एकल परिवार असंवेदशील व्यवहार ।
संयुक्त परिवार संवेदनशील त्यौहार ।।रिश्ते निभाना है तो संवेदनशील रहना होगा ।नहीं तो आज के दौर में अपने , पराए हो जाते हैं और पराए अपने होने लगते हैं ।
- नौशाद वारसी
समस्तीपुर - बिहार
हां जीवन में रिश्तो के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक रहता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके अंदर संवेदनशीलता के गुण जन्म से ही मौजूद रहती हैं एक मां अपने बच्चे को पालती है मां बनते ही उसके अंदर प्रेम की भावना उत्पन्न हो जाती है। धरती माता भी हमें उसी प्रेम और संवेदनशीलता से जल फल जड़ी बूटियां प्राकृतिक सौंदर्य ता आदि महत्वपूर्ण चीजें जीने के लिए ऑक्सीजन सब कुछ प्रदान करती है हम तो इंसान हैं तो हम क्यों ना संवेदन रहे।
जो मां अपने घर को प्यार से पालती है बगीचे के माली की तरह अपने परिवार को प्रेम से ध्यान रखती है। हमारे जीवन व व्यक्तित्व को बदलने के लिए हमारे भीतर ही महान भावनाएं छिपी होती है उन्हें जगाने की आवश्यकता होती है तब साधना से व जागृत होती है, और मनुष्य का सत्य से परिचय होता है। संवेदनशीलता जितना ज्ञानी रहेगा उसके अंदर ज्यादा रहती है जैसे पेड़ मी लगा हुआ फल की डाली हमेशा झुकी हुई रहती है अर्थात ज्ञान से ही संवेदनशीलता आती है मूर्ख व्यक्ति को यह बात बताना और समझाना बहुत मुश्किल है आज के समाज में लोग फैशन की धुन में अपने घर परिवार को भूल गए हैं और मानवता का हनन हो रहा है तभी इतना अत्याचार और अहिंसा फैली हुई है सबसे पहले घर कल परिवार का ध्यान देना चाहिए तो देश अपने आप सुधर जाएगा।
"पर उपदेश कुशल बहुतेरे'
- प्रीति मिश्रा
जबलपुर -मध्य प्रदेश
क्या जीवन में रिश्तों के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है
संवेदनशीलता मानव का विशेष गुण है। संवेदनशीलता से ही प्यार दर्द दुःख सुख डर जैसी भावना मन में उत्पन्न होती है इन्हीं भावना के फलस्वरूप हमारे व्यवहार होते रहते हैं।
रिश्तों की बुनियाद इसी भावना और संवेदनशीलता के कारण होता है ।जरा सोच कर महसूस करें इंसान पत्थर में भगवान को पा लेता है उनसे भी रिश्तों का डोर बांध लेता है।संवेदना की अभिव्यक्ति में मान आदर सम्मान प्रेम भरा होता है और रिश्तों की माला बनती है जब कभी रिश्तों में कड़वाहट आती है तो हम उस रिश्तों को छोड़ नहीं देते पुनः जोड़ने का प्रयास करते हैं। यही तो संवेदना है।
- डाँ. कुमकुम वेदसेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
जीवन के सभी रिश्ते संवेदना से ही जुड़े होते हैं। अगर संवेदना नहीं होगी तो अपनों और गैरों में फर्क नहीं रह जायेगा।दुनिया में हर दिन कई घटनाएं अच्छी या बुरी होती रहती है मगर हमें खुशी या पीड़ा का अनुभव तब अधिक होता है जब हम उस व्यक्ति से जुड़े होते हैं। यह सिर्फ इंसानों के मामले में नहीं, यह हर जीव और हर उस चीज के बारे में है जिनके प्रति हमें संवेदना है।आज कल के बिखरते-टूटते रिश्तों को जोड़ने और मजबूत बनाने के लिए और अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है।
- नन्दनी प्रनय
रांची - झारखंड
मानव में मानवीयता के गुण होना आवश्यक है प्रत्येक व्यक्ति दुनिया में अपना व्यक्तिगत व्यक्तित्व लेकर आता है ! बच्चे ज्यादा संवेदनशील होते हैं उनका मन इतना भावुक होता है कि छोटी सी बात को लेकर टूट जाता है और दुखी हो जाता है ! वातावरण का प्रभाव बहुत पड़ता है घर में माता-पिता का रिश्ता ही पहला रिश्ता है जो हमारी भावुकता को हमारी संवेदना को समझता है ! बड़े होकर माता-पिता का दूसरों के प्रति उनकी तकलीफ के समय उनका आत्मीय व्यवहार और भावना होती है वही हममें भी आती है ! जहां वेदना है वहां संवेदना तो होती ही है या जरूरी है ! दूसरा... स्कूल में भी हम सीखते हैं कि दूसरों के दुख में हमें उनकी कैसे मदद करनी चाहिए उनके प्रति हमारी भावनाएं आत्मीय होनी चाहिए ,और हमारी नैतिकता भी जागृत होती है !जीवन में हम रिश्तो की डोर से बंधे हैं बिना रिश्ते के तो जीवन जीवन ही नहीं है !
दोस्ती का रिश्ता भाई-बहन का माता- पिता ,दादा- दादी ,चाचा-चाची, नाना-नानी आदि आदि जाने कितने रिश्तों से बंधे हैं जो हमारे अपने हैं जो हमने स्वयं बनाए हैं! जिससे हमारे भावनात्मक संबंध जुड़े हैं जिनके प्रति हम संवेदनशील होते हैं ! किसी को भी कष्ट होने से हमें दुख होता है उनकी वेदना को आत्मीयता देना यानीकि हमारा उनके प्रति संवेदनशील होना ही है ! संवेदनशील जब हम होते हैं तो उसमें कोई भेदभाव की भावना ही नहीं होती हां यह अलग बात है बहुत लोग अधिक भावुक होते हैं और किसी भी बात को दिल से लगा लेते हैं किंतु आजकल लोग अपने स्वजन के प्रति अनुराग दिखाते हैं किंतु दूसरों का दुख उन्हें नहीं दिखता यहीं हमारी नैतिकता का पतन होता है और भेदभाव की भावना पनपने की वजह से लड़ाई झगड़े ,तेरा मेरा होने लगता है! हमारी संवेदना मरने लगती है ! दया करुणा के भाव की जगह द्वेष उत्पन्न होने लगता है क्योंकि मानव में गुण और अवगुण दोनों होते हैं ! अंत में मैं कहूंगी.... हमें अपनी संवेदनशीलता को अपने तक सीमित नहीं रख दूसरों के प्रति भी अर्थात रिश्तो के प्रति भी संवेदनशील होना चाहिए !
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
बहुत आवश्यक है क्योंकि संवेदनशीलता ही तो रिश्तों की बुनियाद है ।इनमें बनावटीपन का कोई स्थान नहीं ।ये संवेदनशील भावनाएँ ही एक-दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करती हैं ।इससे ही पराए भी अपने बन जाते है ।जब तक हम एक दूसरे की भावनाओं का आदर करेंगे, समझेंगे, सहानुभूति रखेंगे रिश्तों की डोर उतनी ही मजबूत होती जाएगी ।इसमें अपने पराए का कोई भेद नहीं रह जाता ।अनेक बार हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संवेदनशीलता के कारण ही लोगों से जुड़ जाते हैं और भावनाओं का आदान-प्रदान करने लगते हैं ।आज के तकनीकी जमाने में हम ग्रुप्स के माध्यम से भी इसी भावना से जुड़े हुए हैं ।एक-दूसरे की भावनाओं में प्रतिक्रिया करते हैं खुशी और गम एक-दूसरे के साथ बाँटते हैं ।ये ही हमें वसुधैव कुटुंब की ओर ले जाती है ।इसलिए हम कह सकते हैं कि जीवन में रिश्तों के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है ।
- सुशीला शर्मा
जयपुर - राजस्थान
रिश्ते संवेदनशील होते हैं इसलिये उन्हें प्यार। की डोर से बाँध कर सम्भावना पड़ता है । बदलते परिवेश में रिश्तो की परिभाषा जरूर बदली है, पर रिश्तों की अहमियत आज भी पहले जितनी ही है। हर स्थिति में अपने हर रिश्ते को सदाबहार रखने का एक ही मंत्र है- हर रिश्ते को समुचित आदर देना।
हमारा समाज विभिन्न रिश्तों की मधुर डोर से बंधा है। हर रिश्ते का अपना एक अलग स्थान और अहमियत होती है। अलग-अलग अहमियत होते हुए भी हर रिश्ते में स्नेह, समर्पण और आदर ये तीन तत्व होना बेहद जरूरी है। क्योकि ये तत्व विपरित विचारधारा वाले लोगों को भी एक अटूट बंधन में बांधने का सामथ्र्य रखते हैं। कुछ रिश्ते बेहद नाजुक और संवेदनशील होते हैं। इसलिए उन्हें बेहद सावधानी से संभालना पडता है। यदि रिश्तों में उचित आदर की भावना हो तो यह काम आसान हो जाता है। एक-दूसरे के प्रति आदर की भावना ही रिश्तों की जडों को सींचकर उन्हें सबल, समर्थ और संवेदनशील रूप प्रदान करती है।
रिश्तों की शुरूआत : सामाजिक रिश्तों की शुरूआत मां और शिशु के रिश्ते से होती है। मां और बच्चो का रिश्ता इस संसार में सबसे सुंदर और भावनात्मक होता है। मां ही उसे हर रिश्ते का एहसास कराती है। मां के व्यवहार और पिता की बातों का अनुसरण करते हुए ही बच्चा समाज और रिश्तों की महत्ता को समझता हुआ बहुत से नए रिश्तों से जुडता चला जाता है।
दोस्ती का रिश्ता : दोस्ती जैसे पावन रिश्ते में भी ईष्र्या घर करने लगी है। दूसरों से आगे निकलने की ललक और सनक इंसानी रिश्तों में कटुता का सृजन करने लगी है। ऎसी प्रवृति एक सुंदर समाज के निमार्ण में घातक
शादी के बाद के रिश्ते : पति-पत्नी का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का माना जाता है। इस रिश्ते में परस्पर विश्वास और आदर की भावना ही एक दूसरे के स्नेह व समर्पण का बीज बनती है। कई जोडे़ आपसी सामंजस्य के अभाव में रिश्तों में पड रही दरारों से दुखी हैं। ऎसे रिश्तो की नींव में कई अपेक्षाएं, अनादर, क्रोध और हताशा की भावनाएं पनपती हैं और रिश्ता बोझ प्रतीत होने लगता है। लेकिन रिश्तों में आदर हो तो, यह एक दूसरे के गुण-दोषों को आत्मसात् कर लेता है। ननद-भाभी का मोहक रिश्ता हो या देवर-भाभी का सौहाद्रपूर्ण रिश्ता, हर रिश्ते की नींव आदर के जल से सिक्त होने पर ही सुदृढ परिवार का बल बनती है। विचारों के आदान-प्रदान से मतभेद संभव है। यदि सम्मान की भावना हो तो रिश्तों में दरार नहीं पडती।
बुजुगों से संबंध : आदर की कमी के कारण ही अपनों के बीच आज बुजुर्ग अपना अधिकार खोते जा रहे हैं। आज की पीढी ग्लैमर और भौतिक सुखों के पीछे अंधी हो रही है। उनका बुजुर्गो के साथ समन्वय नहीं हो पाता। बुजुर्गो को आदर सम्मान देना उनके लिए अब बीते हुए कल की बात हो गई है। आज जगह-जगह खुलते वृद्धा आश्रम और ओल्ड ऎज होम्स इस तथ्य की गवाही दे रहे हैं। आज परिवार का अर्थ पति-पत्नी और बच्चो मात्र रह गए हैं। संयुक्त परिवारों के विघटन का कारण बुजुर्गो के प्रति अनादर ही है।
गुण-दोषों को अपनाएं : आदर शब्द में एक गुढ़ अर्थ निहित है, रिश्तों को उसके गुण-दोषौं के साथ अपनाने का। गुणों को प्रशंसा की दृष्टि से देखना और दोषों को दूर करने का प्रयास ही आदर है। आदर देने पर आदर ही प्राप्त होता है। माता-पिता को भी बच्चों की भावनाओं का आदर करना चाहिए। पति यदि पत्नी की भावनाओं और संवेदनाओं को सम्मान देगा तो पत्नी भी पति को परिवार सहित आदर-भाव अवश्य देगी।
ज्यादा अपेक्षाएं ना रखें : हर रिश्ता प्यार के कोमल एहसास से बंधा होता है इसलिए हर रिश्ते का आदर करना जरूरी भी है और हमारा कर्तव्य भी है। हर व्यक्ति की एक क्षमता होती है अत: किसी से भी ज्यादा अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए। हमारी संस्कृति में संस्कारों का भी महत्तव है और हमारे संस्कार यही शिक्षा देते हैं।
अपशब्दों के प्रयोग से बचें : सम्मान की भावना “सम्बोधन” और “शब्दौं” के माध्यम से प्रसारित होती है। इसलिए किसी भी रिश्ते में अपशब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। सम्बोधन की सुंदरता पर ही घनिष्ठता निर्भर करती है। “सम्बोधन” ही रिश्तों को आदर के साथ जो़डता है। इसलिए हर रिश्ते में आदर सूचक शब्द होना जरूरी है। रिश्तो के प्रति संवेदनशीलता के साथ प्यार से सहजना चाहिये तभी रिश्ते मजबूत होते है ।
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
संवेदना एक ऐसा मानसिक व्यापार है,जिसकी बाहरी प्रतिक्रिया तो नहीं होती ,फिर भी जिससे सुख दुख का अनुभव होता है।किसी को कष्ट में देखकर वैसा ही का उत्पन्न होना,या किसी की वेदना देखकर स्वयं भी बहुत कुछ उसी प्रकार की वेदना का अनुभव करना ।संवेदना के बिना रिश्ता जैसे आत्मा के बिना शरीर,संवेदना के बिना रिश्ता सांस भी नहीं ले सकती।हर रिश्ते की एक अलग संवेदना होती है ।ये संवेदनाएँ खुशी भी पहुँचाती है और तकलीफ देह भी होती है पर यह उन रिश्तों पर निर्भर करता है जिनसे हमारा रिश्ता है ।रिश्तों की प्रगाढ़ता के लिए रिश्तो के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है ।
- रंजना वर्मा
रांची - झारखण्ड
समाज में रहते हुए एकाकी जीवन जीना दुष्कर भी है और महत्वहीन भी। जब तक हम पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सौहार्द बनाकर नहीं रखेंगे, हमारी मुश्किलें और संघर्ष बढ़ते जायेंगे जो हमें अशांत,अस्वस्थ और दुःख की ओर ले जायेंगे, जिससे हम ,न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि पारिवारिक और सामाजिक रूप से भी विकसित और सम्पन्न होने में बाधित होंगे। अतः जीवन कैसा भी हो, हमसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी जनों के प्रति प्रेम, आदर और सहयोगी होना नितांत आवश्यक है। जीवन में वही सफल और सुखी हो सकता है,जिसके अधिक से अधिक जनों से संबंध मधुर होते हैं और यह कार्य न कठिन ही है,न मेहनत का। बस,हमें उदार,त्यागी, उत्साही,स्नेही, स्पष्टवादी, सरल, सहयोगी , निःश्छल और मर्यादित होना है, हम इन गुणों में जितने संवेदनशील होंगे हम उतने परिपक्व और सामर्थ्यवान होते चलेंगे। इससे हमारे रिश्ते मधुर और मजबूत होंगे जो हमारे जीवन संघर्ष में आने वाली स्वभाविक मुश्किलों से उबरने में हमारे सहयोगी बनेंगे। ये हमें आत्मीयता देकर हमें सदैव निराश और हताश होने से बचाते हुए हमारे रक्षा कवच बनेंगे और ऐसे ही हम उनके लिए भी होंगे। अतः हमें रिश्तों को स्थायी,मधुर और मजबूती के लिए सदैव सजग और संवेदनशील रहना है ताकि हम किसी भी प्रकार से कमजोर कड़ी साबित न हों।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
बिल्कुल रिश्ते टिकते ही संवेदनशीलता पर है
अपने परिवार के साथ हर क्षण उत्सव मनायें, त्योहारों की प्रतीक्षा न करें आप केवल वही बाँट सकते है जो आपके पास हैं। यदि आप अपने परिवार को प्रसन्न और समरस देखना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको अपने भीतर प्रसन्नता और शांति लानी होगी I अपनी भावनात्मक महत्त्वाकांक्षाओं को त्यागिये, प्रेम को नहीं जब हमें भावनाओं के तूफान का सामना करना पड़ता है, तब हम ऐसे शब्दों का प्रयोग कर देते हैं अथवा ऐसा कार्य कर देते हैं, जिन से हमें बाद में खेद होता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमें न तो स्कूल में और न ही घर पर क्रोध, दुःख या किसी भी नकारात्मक भावना को संभालने की सीख दी जाती है।
आपसी व्यवहार में तालमेल बैठाएं
“मेरे कहने का सचमुच यह तात्पर्य नहीं था, आप इस बात को समझते क्यों नहीं?"
तनाव सदा आपके विचारों, शब्दों और कार्यों के बीच एक निश्चित दरार बनाये रखता है।जब आपका मन तनाव-मुक्त होता है तभी आप की धारणा और शब्दों में स्पष्टता आती है, और आपके व्यवहार में कोमलता आती है I
रिश्तों को सम्मान दीजिये
मर्यादाऔं की सीमा कैसे और कहाँ तक रिश्तौं को बाँध सकती हैं, और कौन सा आचरण रिश्तौं की राख बिखेर देता है l आइये कुछ समझने की कोशिश करते हैं l
कहते हैं कि बच्चा जन्म के साथ ही अनेक रिश्तों के बंधन में बंध जाता है रिश्तों के ताने बाने से ही परिवार का निर्माण होता है। मां के व्यवहार और पिता की बातों का अनुसरण करते हुए ही बच्चा समाज और रिश्तों की महत्ता को समझता हुआ बहुत से नए रिश्तों से जुडता चला जाता है। किशोरावस्था के दौरान बालक में स्पर्धा की भावना जन्म ले लेती है उसकी शुरुआत परिवार से होती है l पुत्र परिवार में स्वयं को पिता का उत्तराधिकारी मानने लगता है l वह चाहता है कि बड़े उसके निर्णय का सम्मान करें लेकिन यदि उसको लगे कि बड़ों की निगाह में उसके निर्णय का कोई मूल्य नहीं है तब उसे ठेस पहुंचती है l परिणामस्वरूप यही से बालक अन्य रिश्तों की अहमियत को महत्व नही देता है
ये सत्य है कि सभी रिश्तों का आधार संवेदना होती है, अर्थात सम और वेदना का यानि की सुख और दुख का मिलाजुला रूप जो प्रत्येक मानव को धूप और छाँव की भावनाओं से सराबोर कर देती हैं। रिश्तों को झुठलाने के पीछे एक कारण जिंदगी में आई तीव्रता है। काम के बोझ और तेज रफ्तार जिंदगी ने रिश्तेदारों में दूरियां बढ़ा दी हैं, आजकल माता पिता के पास समय की कमी होती है। माता पिता और बच्चे कई हफ्तों तक एक साथ बैठकर बातचीत नहीं करते हैं। ऎसे में उनको रिश्ते नाते, संस्कार समझाने का समय नही मिलता । हर कोई अपना काम जल्दी से जल्दी और अपने हिसाब से करना चाहता है। माता पिता अपनी जिंदगी में व्यस्त रहते हैं और बच्चे अपनी जिंदगी में। इसलिए बच्चों की नीव मजबूत हो नहीं पाती l जिससे वो रिश्तों की अहमियत को समझ नहीं पाते है बड़े होकर वो वही करते हैं जो अपने आस पास देखते हैं l ऐसे मैं बच्चा बड़ा होकर रिश्तों और रिश्तों की अहमियत को क्या समझेगा.
आदर शब्द में एक गुढ़ अर्थ निहित है, रिश्तों को उसके गुण दोषौं के साथ अपनाने का। गुणों को प्रशंसा की दृष्टि से देखना और दोषों को दूर करने का प्रयास ही आदर है। आदर देने पर आदर ही प्राप्त होता है। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि ..."जीवन में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नही है, पर जो रिश्ते हैं उनमें जीवन होना जरूरी है।" जब सभी व्यक्ति अपने परिवार में संस्कारों और रिश्तों के सम्मान की भावना को साथ लेकर चलेंगे तो कोई भी व्यक्ति गलत काम करने से पहले सौ बार साचेगा। परिवार में रिश्तो की गरिमा बनीं रहे इसके लिए अभिभावकों और बच्चों को ही इसको गहराई से समझना होगा l सच्चाई चाहे जो भी हो ये सत्य है कि रिश्तों को सहेजने और सँवारने की जरुरत होती है, और बहुत कम लोग ही रिश्तों की कसौटी पर खरे उतर पाते है. संवेदनशील होंगे तभी सबकी परवाह कर पायेंगे , संवेदना के बिना मानव भाव हीन होता है वह क्या रिश्तों को संवारता है
- अश्विनी पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
मनुष्य संवेदनशील प्राणी है । जब तक हमारे आचार - व्यवहार में संवेदना नहीं होगी तब तक रिश्तों की डोर में प्रगाढ़ता संभव नहीं । इस सम्बंध में रहीमदास जी का ये दोहा आज भी प्रासंगिक है -
रहिमन माला प्रेम की जिन तोड़ो चिटकाय ।
जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय ।।
किसी भी रिश्तों की बुनियाद आपसी सामंजस्य व विश्वास पर टिकी होती है । जिसका मूल आधार संवेदना ही । हमें सभी सजीवों के प्रति एक समान भाव से स्नेह रखना चाहिए क्योंकि ये सब प्रकृति के अंग हैं । इनके प्रति हमारा आचरण ही हमें संवेदनशील बनाने में कारगर होगा ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। यदि वह संवेदना से परिपूरित न हो तो वह मानव कैसा? संवेदनशील होता है तभी तो वह किसी के दुख को देख कर करुणा से आप्लावित हो उठता है, दया की भावना आती है, मानवता के धर्म का निर्वाह करने के लिए प्रेरित होता है। रिश्तों के लिए भी संवेदनशील होना आवश्यक है। भावनात्मक रूप से जब हम जुड़ते हैं तभी रिश्तों को पूरी तरह से निभाया जा सकता है, अन्यथा रिश्तों में नीरसता, शुष्कता आने लगती है। संवेदनशीलता दोनों ओर से हो तभी रिश्ते स्थायी बनते हैं, नहीं तो केवल निभाने का दिखावा मात्र रह जाता है आज के इस आपाधापी से भरे समय में रिश्तों और संवेदनशीलता की भी परिभाषाएँ परिवर्तित हो गयी हैं। लोग रिश्तों में संवेदनशीलता को भी गणित के हिसाब से नाप-तोल कर व्यवहार में रखते हैं। रिश्ते भी बदल रहे हैं, उन्हें निभाने वाले भी और निभाने के तरीके भी बदल रहे हैं। लेकिन जीवन में रिश्ते हैं तो उनके प्रति संवेदनशील होना तो सदा आवश्यक रहेगा तभी रिश्ते स्थायी और गरिमापूर्ण, प्रेममय रहेंगे।
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
संवेदना से तात्पर्य किसी के शोक, दुख, कष्ट या हानि को देख कर मन में जो सहानुभूति होती है; यानी दूसरे के दुख को देखकर जो हमारे हृदय में दुख होता है और दुखी होकर ऐसी अवस्था बनती है कि हम भी उसके दुख को अपना दुख अनुभव करने लगते हैं; रोने लगते हैं या फिर हर संभव
उसके उस दुख को दूर करने के लिए जी जान से जुट जाते हैं ।दूसरे के प्रति ऐसी सहानुभूति का भाव रखना ही संवेदना है।
संवेदना का जन्म पारिवारिक पृष्ठभूमि में होता है यथा दीपक तुम कैसे हो तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं पुत्र तुम मन लगाकर पढ़ रहे हो ना पूरे परिवार को तुम्हारी चिंता रहती है कब आ रहे हो घर के सब लोग तुम्हें बहुत याद करते हैं अपने पुत्र के नाम यह मैसेज या चिट्ठी माता-पिता का अपने बेटे के प्रति असीम स्नेह, सद्भाव व संवेदना अभिव्यक्त हो रही है।
ऐसे ही अन्य रिश्तो में परिवार गत कुशल क्षेम जानने की चाह हो सुख दुख में सहभागिता हो तो रिश्तो में सदैव मधुर संबंध जीवनपर्यंत बने रहते हैं।
जब हम मात्र परिवारवाद की संकीर्णता की चहारदीवारी की सारी सीमाओं को तोड़कर जन-जन के कल्याण हेतु अनुभव अभिव्यक्त करने लगते हैं फिर वहां सब अपने लगने लगते हैं; जैसा कि नीतिगत श्लोक से स्पष्ट है ---
"अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम।
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुंबकम"।।
आज पूंजीवादी दौर में लोगों के खून सफेद हो गए हैं। दिन- प्रतिदिन खूनी रिश्तो में भी मनमुटाव व जंग देखी जाती है। इसका मुख्य कारण मनुष्य का मात्र धन के पीछे भागना है; जो मनुष्य को संवेदना -शून्य बना रहा है। अतः स्थिति की चिंता कर कबीर दास जी ने कितना अच्छा सामंजस्य बैठाते हुए कहा है -----
" साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाए।
मैं भी भूखा ना रहूं और साधु न भूखा जाए "।।
अतः वास्तव में ऐसी संवेदना रिश्तो के साथ-साथ सर्व जन कल्याण के अनुभव को व्यक्त करती है; जिसका हार्दिक अभिनंदन बनता है।
- डाॅ.रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
जीवन आज भी एक पहेली बना हुआ है।जिसमें संवेदना मनोरोग से अधिक कोई महत्व नहीं रखती।जिसमें रिश्तों की यदि गरिमा होती तो वृद्धाश्रमों उत्पति ना होती और ना ही बालाश्रम होते। जीवन को कोई समझ ही नहीं रहा।क्योंकि जीवन यदि बहती गंगा है तो फिर पवित्रता क्यों नहीं है? जीवन यदि चलने का नाम है तो बलात्कार,हत्या और फांसी क्यों है? ऐसा क्यों है कि एक मानव अपने जीवन में एक पल में लाखों-करोड़ो रुपये खर्च कर प्रसन्नता प्राप्त करता है और दूसरा मानव अपना समस्त जीवन रोटी कमाने में व्यतीत करता है?
जीवन में रिश्तों के प्रति संवेननशीलता के स्थान पर यदि गुरुत्वाकर्षण के नियम पर जोड़े जाएं तो अधिक सफल हो सकते हैं।क्योंकि उसमें एक दूसरे का प्रेम कहें या स्वार्थ कहें एक दूसरे को अकर्षित करते हैं।जिससे जीवन सरल, सुहावना और अंतिम समय तक सुखद अनुभव किया जाएगा।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
हां, बिल्कुल आवश्यक है। भारतीय समाज की नींव हीं " संवेदनशीलता" है । हमारी भारतीय संस्कृति इसी संवेदनशीलता पर टिकी हुई है अगर इसमें जरा भी असुंतलन होगा तो सब कुछ डगमगा जायेगा ।हम भारतीयों की पहचान पूरे विश्व में हमारी इसी " संवेदनशील" गुणवत्ता के कारण हीं अलग और सर्वपरि है । फलत: हमारा ये मानवीय गुण हमें हमारे जीवन में सदा सचेत और जागरूक रखता है । हमें सदा अपने इस अलौकिक गुण संवेदनशीलता को
अपने जीवन में रिश्तों के प्रति बखूबी निभाना चाहिए तभी हम मानव कोटि में जन्म लेने वाले व्यक्ति की सार्थकता है ।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
संवेदना शब्द का प्रचलित अर्थ -
*सम + वेदना ( कष्ट,पीड़ा)* के रूप में लिया जाता है। अर्थात समान वेदना या दूसरों की वेदना को स्वयं अनुभूत करना । किन्तु वास्तव में इस शब्द का विच्छेद कुछ इस प्रकार है- *सम + विद् (ज्ञान) ।* *विद्* से वेद , विद्या विद्वान आदि शब्द निर्मित हुए ।इस प्रकार संवेद का अर्थ हुआ =
समान ज्ञान । रिश्तों के संबंध में दोनों ही शब्द उचित लगते हैं - समान वेदना या समान ज्ञान ।
यहाँ किसी की वेदना को स्वयं अनुभूत करने पर ही दया , स्नेह, सेवा आदि की प्रेरणा मिलती है ।
और समान ज्ञान जो किसी भी प्रकार का हो सकता है, जैसे किसी के कष्ट का ज्ञान , किसी की विवशता का ज्ञान ,किसी की निश्छलता आदि का ज्ञान भी हो सकता है । रिश्तो में तभी मजबूती और विश्वसनीयता आती है, जब एक दूसरे को समझने का प्रयास हो ।कई बार हम देखते हैं कि आपस में बातचीत बंद होने पर भी दो व्यक्ति एक दूसरे की जरूरत,पसंद, स्वास्थ्य आदि का ख्याल रखते हैं और इस प्रकार वे एक दूसरे से नाराज होकर भी अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हैं । क्योंकि यह संवेदनशीलता ही है ; जो किसी व्यक्ति को इंसान बनाए रखती है ।यूँ तो रिश्तों के लिए भाषा व चरित्र की मर्यादा, मौन, संयम, ईमानदारी, सत्यता आदि गुणों का होना भी जरुरी है किंतु संवेदनशील होने पर प्रगाढ़ता और मधुरता के साथ दायित्वबोध भी होता है । और यही किसी रिश्ते की मजबूत रीढ़ होता है ।
- वंदना दुबे
धार - मध्य प्रदेश
जी इससे इन्कार नहीं किया जा सकता ।वर्तमान समय में बढती रिश्तों में खटास पास रहकर भी बढती दूरियाँ हमे बतलाती हैं कि किस तरह और कब हम रिश्तों की महत्ता उनकी संवेदनशीलता भुला बैठे ।आजकल तो परिवार के चार सदस्य पास बैठकर भी मोबाइल की दुनियां में इस तरह खोये हैं कि कई कई दिनों तक संवाद नहीं होता ।उन पर पारिवारिक रिश्तों से अधिक सोशलमीडिया का प्रभाव है ।रिश्तों की संवेदन हीनता साथ भोजन की परम्परा रहने की आवश्यकता कम करती जा रही है । एक स्वस्थ व प्रगतिशील समाज के लिए जीवन में रिश्तों के प्रति संवेदनशील रहना बहुत आवश्यक है ।
- शशांक मिश्र भारती
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
" मेरी दृष्टि में " कोई भी रिश्ता बेकार नहीं होता है । सभी रिश्तें महत्वपूर्ण होते हैं । सिर्फ़ इन्हें निभाने की सहनशीलता होनी चाहिए । तभी कोई भी रिश्ता सफल कहाँ जा सकता है।
- बीजेन्द्र जैमिनी
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