क्या हमें प्रभु की अनुभूति हो सकती है ?
प्रभु की अनुभूति हर किसी को नहीं होती है । इसके लिए मन निर्मल होना चाहिए तथा विचार सकारात्मक होने चाहिए । तभी कहीं जा कर प्रभु की अनुभूति हो सकती है । यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । आये विचारों को भी जानने की कोशिश करते हैं : -
जरूर होती है और प्रतिपल होती है मैंने देखा है अगर हम किसी को बेवजह तंग करते हैं अथवा अहंकार से दूतकारते हैं तब थोड़ी ही देर में हमें किसी भी तरह से चोट अवश्य लगती है मतलब प्रभु ने हमें दंड देकर सावधान किया है यह मेरा अपना अनुभव है ! किसी की आत्मा को दुख देना यानि परमात्मा को दुखी करना है और यही शाश्वत है जब तक हमारे में मैं रुपी अहंकार है प्रभु की अनुभूति हो ही नहीं सकती !ईश्वर तो कण-कण में है हम प्रेम को अनुभव करते हैं ,दर्द का अनुभव होता है ठीक उसी तरह प्रभु की भी अनुभूति होती है! हम अपने कठिन समय में प्रभु को ही याद करते हैं ईश्वर दिखाई नहीं देते किंतु हमें पूर्ण विश्वास होता है कि वह मेरी मदद करेंगे अपनी भक्ति में , आस्था में मुझे ऐसी अनुभूति होती है मानो प्रभु मेरे आस-पास ही है मुझे पूर्ण विश्वास है कि मुझे कुछ नहीं होने देंगे मंदिर में पत्थर की मूर्ति को हम पूजते हैं हमें ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा होती है यही श्रद्धा हमें पत्थर में भी प्रभु की अनुभूति कराती है ! भक्त रैदास को तो दूसरों के जूते चप्पल सिलते सिलते सेवा करने से ही समय नहीं मिलता था उनकी भक्ति इतनी तीव्र थी कि दूसरों की सेवा में ही उन्हें प्रभु के दर्शन की अनुभूति हो जाती है उनके लिए तो "मन चंगा तो कठौती में गंगा " थी ! भाव निर्मल हो तो प्रभु को भी भक्त के पास आना पड़ता है ! चैतन्य महाप्रभु प्रभु भक्ति में इतने लीन हो जाते थे वे स्वयं देवी मां को अपने करीब होने का अनुभव करते थे वे उनसे बातें करते थे भक्ति रूपी सागर में डूब प्रभु के ध्यान में लगने वाली समाधि से हमें जो आनंद की अनुभूति होती है वही प्रभु को प्राप्त करने की उनसे मिलने की अनुभूति है ।गरीबों की सेवा माता पिता की सेवा में हमें प्रभु की अनुभूति का अहसास होता है गणेश जी ने भी तो माता-पिता की परिक्रमा कर ब्रह्मांड को पा लिया था हां बस यह सेवा भक्ति हमारी दिखावे की नहीं होनी चाहिए !
अपना वैभव अहंकार दिखा यदि हम मंदिर जाते हैं ,तीर्थ करते हैं ,दान करते हैं इससे हमारा अहंकार दिखता है प्रभु की अनुभूति हमें नहीं होती ! कबीर कहते हैं ना तीरथ चाले दोऊ मन, चित चंचल मन चोर एकौ पाप न उतर्या, दस मन लाए और! अंत में कहूंगी प्रभु कण-कण में है आत्मा ही प्रभु की अनुभूति कराती है ! सेवा भाव में -- किसी गरीब जरूरतमंद की मदद सेवा से जो खुशी हमारी आत्मा को होती है वह हमें प्रभु को प्राप्त करने की अनुभूति कराते हैं ! प्रभु पर आस्था और उन पर विश्वास ही हमें प्रभु का आभास और अनुभूति कराता है कि ईश्वर अवश्य मेरे आस-पास है और जो भी लीलाएं जगत में हो रही है प्रभु की दया और कृपा है !
(कृष्ण लीला में सुध-बुध खोकर गोपियां पत्ते, फूल, यहां तक हर निर्जीव चीजों में भी कृष्ण के होने का अनुभव करती है!)
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
हमें प्रभु की अनुभूति हो सकती है इसके लिए हमें स्वयं सतत प्रयास करना चाहिए आत्म मंथन के बाद अपने शरीर को और आत्मा को शुद्ध करना चाहिए तब हमें निश्चित रूप से ही प्रभु की शरण में स्थान मिल जाएगा। घमंड और अहंकार से प्रभु नहीं मिलते वह तो भक्ति और प्रेम के भूखे हैं यदि ऐसा ना होता तो प्रभु दुर्योधन के महल का आराम छोड़कर विदुर के यहां साग रोटी ना खाते और शबरी के जूठे बेर को प्रेम से ना खाते अपने गरीब मित्र सुदामा को गले ना लगाते प्रकृति के इस बंधन में प्रभु को नियम बदलना पड़ता है जब जब भक्त पुकारे प्रभु को मिलना पड़ता है बस एक सच्ची भक्ति से पुकारने वाला चाहिए उसकी भक्ति भी मीरा और सूरदास की तरह होनी चाहिए। उल्टा नाम जपा तब प्रभु ने उसका उद्धार कर दिया वह बाल्मीकि के नाम से रामायण रच डाला कालिदास ने भक्ति में एक पूरा काव्य रचना ला एक मूर्ख व्यक्ति भी भक्ति से विद्वान बन सकता है उदाहरण प्रस्तुत किया हमारे महापुरुषों ने अनेक उदाहरण दिए हैं और हमारे ग्रंथों में भी हैं मुझे एक बहुत रोचक कथा याद आ रही है एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा कि है गुरु जी आप रोज भगवान राम का नाम लेते हैं क्या आपको वह मिलेंगे गुरु को गुस्सा आया और उन्होंने उसको लेकर और नदी में फेंक दिया बीच में और कहा कि अब तुम जाओ उसने राम राम का नाम लेने लगा और काहे गुरु अपने राम के लिए मुझे बचा लो और हाथ पैर मारने लगा और बड़ी मुश्किल से बाहर को निकला उसने कहा यही मुश्किल से यदि तुम इस भवसागर में जिओगे तो होंगी सच्ची निष्ठा से ही प्रभु प्राप्त होंगे जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तैसी।प्रभु ने स्वयं कहा है कि मुझे जैसे आप याद करोगे मैं वैसे ही आपको उसी रूप में मिलूंगा इसीलिए निस्वार्थ भाव से एक बालक के भारती निश्चल प्रेम से याद करने पर ही प्रभु मिलते हैं।
- प्रीति मिश्रा
जबलपुर - मध्य प्रदेश
अवश्य हो सकती है मनुष्य प्रभु की अनुभूति के लिए ही इस भवसागर में शरीर यात्रा कर रहा है ।प्रभु की अनुमति के बिना मनुष्य अतृप्त रहता है। जब तक मनुष्य अतृप्ता रहता है तब तक प्रभु की अनुभूति के लिए अनेक प्रकार की प्रक्रियाएं करता रहता है। तृप्त मनुष्य ही प्रभु की अनुभूति का अधिकारी होता है। अनुभूति करने के लिए ज्ञान गोचर दृष्टि की आवश्यकता होती है ।दृष्टिगोचर ज्ञान कि नहीं । ज्ञान गोचर दृष्टि से ही प्रभु का अनुभूति किया जा सकता है। व्यापक सता के रूप में सर्वस्व प्रभु ऊर्जा स्वरूप में व्याप्त है ।इसी स्वरूप का अर्थात ऊर्जा का अनुभूति कर प्रभु अनुभव काल मे आनंद के रूप में, विचार काल में समाधान के रूप में ,व्यवहार काल में न्याय अर्थात आचरण के रूप में ,व्यवसाय काल में नियम के रूप में ,सर्वत्र व्याप्त हैं। एवं सभी मनुष्य को प्राप्त है ।इसे पहचान कर अनुभूति करना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ कार्य है ।जिसे जागृति या अनुभूति कहा जाता है ।जागृत मनुष्य ही प्रभु का अनुभूति करने की योग्यता रखता है ।हर व्यक्ति मैं अनुभूति करने की क्षमता है, अतः हर मनुष्य अपनी पुरुषार्थ के बल पर जागृत होकर प्रभु की अनुभूति कर सकता है । पवित्र जीवन से जागृति, जागृति से प्रभु की अनुभूति होता है ।मन में आवेश काम, क्रोध , लोभ मोह मद, मा त्सर्य होता है। इस मन की आवेश से मुक्ति होना ही पवित्र मन अर्थात पवित्र जीवन होता है। पवित्र जीवन में ही प्रभु की दर्शन अर्थात अनुभूति होता है अनुभूति के साथ जीना ही परम आनंद के साथ जीना है। किसी को पाने के लिए इंसान शरीर यात्रा कर रहा है प्रभु की अनुभूति होना निश्चित है। शंका नही है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
ईश्वर तो कण-कण में विराजमान है ।हमारी प्रत्येक साँस में उसका ही निवास है ।ईश्वर की अनुभूति हमें तभी होती है जब हम अपने कर्म में निरंतर सफल होते हैं ।दुख में हम उन्हे स्मरण करते हैं।जब हम निष्कपट, आडंबर रहित सरलता से स्वयं को परमात्मा को समर्पित कर देते हैं तो हमें अहसास होता है कि हम जो भी कर रहे हैं वो सब उसी की कृपा का परिणाम है। कभी-कभी अचानक मिली में भी हम प्रभु की अनुभूति करते हैं ।उनका सदा स्मरण करना ही अनुभूति है ।
- सुशीला शर्मा
जयपुर - राजस्थान
हम हर पल प्रभु को अनुभव करते है । जी होती है रोज़ होती है। ईश्वर हमारे अंदर है आत्मा ही परमात्मा है ।
“मान न मान तू है भगवान “
अपने आप को भगवान समझोक्यो कि तुम भगवान के बंदे हो। तुम्हें सुबह कौन उँठाता है ? परमात्मा उनकी मर्ज़ी नहीं तो आँख ही नहीं खुलेगी , हमारे हर कार्य में वह शामिल है ।
प्रभु को जो किसी विषय या वस्तु की भांति खोजते हैं, वो ना-समझ हैं। वह वस्तु नहीं है। वह तो आलोक, आनंद और आत्मा की चरम अनुभूति का नाम है। वह व्यक्ति भी नहीं है कि उसे कहीं बाहर पाया जा सके। वह तो स्वयं की चेतना का ही आत्यांतिक परिष्कार है। एक फकीर से किसी ने पूछा, ''ईश्वर है, तो दिखाई क्यों नहीं देता?'' उस फकीर ने कहा, ''ईश्वर कोई वस्तु नहीं है, वह तो अनुभूति है। उसे देखने का कोई उपाय नहीं, हां, अनुभव करने का अवश्य है।'' किंतु, वह जिज्ञासु संतुष्ट नहीं दिखाई दिया। उसकी आंखों में प्रश्न वैसा का वैसा ही खड़ा था। तब फकीर ने पास में ही पड़ा एक बड़ा पत्थर उठाया और अपने पैर पर पटक लिया। उसके पैर को गहरी चोट पहुंची और उससे रक्त-धार बहने लगी। वह व्यक्ति बोला, ''यह आपने क्या किया? इससे तो बहुत पीड़ा होगी? यह कैसा पागलपन?'' वह फकीर हंसने लगा और बोला, ''पीड़ा दीखती नहीं, फिर भी है। प्रेम दीखता नहीं, फिर भी होता है। ऐसा ही ईश्वर भी है।''
जीवन में जो दिखाई पड़ता है, उसकी ही नहीं- उसकी भी सत्ता है, जो कि दिखाई नहीं पड़ता है। और, दृश्य से अदृश्य की सत्ता बहुत गहरी है, क्योंकि उसे अनुभव करने को स्वयं के प्राणों की गहराई में उतरना आवश्यक होता है। तभी वह ग्रहणशीलता उपलब्ध होती है, जो कि उसे स्पर्श और प्रत्यक्ष कर सके। साधारण आंखें नहीं, उसे जानने को तो अनुभूति की गहरी संवेदनशीलता पानी होती है। तभी उसका आविष्कार होता है। और, तभी ज्ञात होता है कि वह बाहर नहीं है कि उसे देखा जा सकता, वह तो भीतर है, वह तो देखने वाले में ही छिपा है। ईश्वर को खोजना नहीं, खोदना होता है। स्वयं में ही जो खोदते चले जाते हैं, वे अंतत: उसे अपनी सत्ता के मूल-स्रोत और चरम विकास की भांति अनुभव करते हैं हम प्रभु को सोते जागते हर पल अनुभव करते है । वह हमारे रोम रोम में व्याप्त है । हमें प्रभु की अनुभूति होती रहती है पर हमें समझना होगा जो ध्यान पूर्वक काम करते है वह अनुभव करते है । सच्ची लगन रखो ईश्वर साक्षात दर्शन देंगे
- डा. अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
ईश्वर हर जगह विद्यमान है हर समय हमारे साथ है उनकी अनुभूति केवल कभी कभी होती है । उस समय हम अनुभूति को समझ नही पाते बाद में ध्यान आता है कि प्रभु ने ही किसी को हमारी सहायता के लिए भेजा था । ये मेरा निजी अनुभव है । कभी कभी घोर अंधकार के समय जब अनायास ही कहीं कोई रास्ता दिखाई देता है तो वो प्रभु द्वारा दिया गया प्रत्यक्ष साथ होता है जो दिखाई नही देता बस महसूस किया जा सकता है
- नीलम नांरग
हिसार - हरियाणा
बिल्कुल हो सकती , और होती भी है ; बल्कि सही मायने में ईश्वर की केवल अनुभूति ही होती है । ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन शायद ही किसी ने किये हों ; किन्तु हरपल ईश्वर, अपनी उपस्थिति का प्रमाण देता है । कभी सूर्य की ऊष्मा के रूप में ,कभी रंग बिरंगे फूलों और उनकी भिन्न भिन्न खुशबू के रूप में, कभी सुरभित वायु के रूप में, कभी तपती दुपहरी में शीतल छांव के रूप में, कभी कलकल करते झरनों के मधुर संगीत रूप में, कभी पक्षियों की चहचहाट के रूप में, कभी उषा की लालिमा के रूप में , कभी संध्या के रूप में, कभी पतझड़ के रूप में, तो कभी नवांकुरित कोपलों के रूप में, कभी वर्षा की फुहार और मिट्टी की सौंधी खुशबू के रूप में, तो कभी चंद्रमा की चाँदनी के रूप में ; ईश्वर हमें अपने होने का एहसास कराता है । मुसीबत के समय किसी का सहयोग , निराशा में आशा की एक छोटी किरण , किसी की ईमानदारी, दया , सच्चाई और परोपकार के रूप में भी ईश्वर हमारे आसपास ही होता । पवित्र मन और सत्यता में ईश्वर के दर्शन होते हैं । ईश्वर एक भाव है, जिसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है । कर्तव्य समझ कर, बे-मन से की गई लंबी पूजा, उतनी संतुष्टि नहीं देती जितना पल-दो-पल ईश्वर से तादात्म्य मन को सुकून देता है और वही सुकून ईश्वर है । परेशानी और विपत्ति के समय जब आँखों में अश्रु लेकर व्यक्ति ईश्वर के समक्ष दया की भीख माँगता है, तब किसी न किसी रूप में उसे मार्गदर्शन मिलता है ; यही है ईश्वर की अनुभूति ।
माता-पिता , सगे संबंधियों और मित्रों का प्रेम , सेवा और सहयोग उस परमात्मा की ही अनुभूति कराते हैं ।
कस्तूरी कुंडल बसे,
मृग ढूँढे जग माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं,
दुनिया देखे नाहीं।।
ईश्वर का हर आत्मा में निवास है । स्वयं के भीतर जाकर मानवीय गुणों को समझना ही,ईश्वर की अनुभूति है। अतः धार्मिकता का आडंबर छोड़ कर, इंसानियत का सम्मान करें । उस सुप्रीम पावर पर विश्वास करें , उसकी सत्ता और उसकी कृपा की अनुभूति करें ; मन शांत होगा साथ ही वातावरण भी सौहार्दपूर्ण होगा ।
- वंदना दुबे
धार - मध्य प्रदेश
हर आस्तिक व्यक्ति मानता है कि प्रभु कण कण में व्याप्त हैं।उनकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। रही बात उनकी अनुभूति की तो यह एक विश्वास है कि वो हमेशा हमारे साथ है और कभी हमारे साथ कुछ ग़लत नहीं होने देगा। यदि कुछ ग़लत होता भी है तो हम उस पर इतना भरोसा करते हैं कि यह समझ लेते हैं कि उसने जो भी किया हमारे भले के लिए किया होगा।यह भरोसा हमारे अंदर एक सुकून और शांति देता है और हम उस दुख से उबरने लगते हैं,यही प्रभु की अनुभूति है। जब हम किसी संकट में होते हैं, कोई रास्ता नहीं मिलता तो प्रभु को याद करते हैं और एक रोशनी की किरण दिखने लगती है।तब हमें अनुभूति होती है कि प्रभु हमें देख रहे हैं, वो हमेशा हमारे साथ हैं।
- डॉ सुरिन्दर कौर नीलम
रांची - झारखंड
प्रभू की अनुभूति मानव ही नहीं जीव मात्र को हो सकती है। ईश का अंश है यह संसार। कण कण.में भगवान है यह सत्य है । जीवन में ऐसे कयी पल आते हैं जब हमे कोई अनजान , बेनाम, अव्यक्त शक्ति सुख दुख का पूर्वानुमान देती है । कई बार जब हम एकदम अकेले पढ़ जाते हैं तो अंदर महसूस होता है कि ईश्वर हमारे साथ है ।यह भावना ही संबल है और ईशवर की अनुभूति होती है।
- ड़ा.नीना छिब्बर
जोधपु्र - राजस्थान
कहा गया है ,, " मानों तो भगवान ,ना मानो तो पत्थर" । ये बात अक्षरशः सत्य है । आस्तिक व्यक्ति को कण _ कण में भगवान दिखते हैं और ठीक इसके विपरित नास्तिक व्यक्ति को ये सब ग़लत लगता है । कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान तो हैं और हमें यह अनुभूति भी हर पल होती है ।एक पता भी ऊपरवाले की मर्जी के बिना नहीं हिलता है ।जब हम दुःख के समय ईश्वर का स्मरण करते हैैं,और हमारा बिगड़ा काम ठीक हो जाता है ये तब हमें "प्रभु" के होने का और भी पुरजोर विश्वास हो जाता है । साक्षात् दर्शन तो नहीं लेकिन प्रभु की अनुभूति तो हमें हर पल होती हीं है । ये अपनी आस्था और विश्वास पर भी है कि आप निराकार प्रभु की अनुभूति करते हैं या नहीं ।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
प्रभु एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो कण-कण में व्याप्त है । आडंबरहीन कर्म ही पूजा है । जब हम तन-मन-धन से किसी बे-सहारा, असहाय, बीमार की सेवा करते हैं, उसकी पीड़ा कम करने का प्रयास करते हैं और सामने वाले के चेहरे पर संतोष की मुस्कान तैरने लगती है, उसकी वाणी से आशीर्वचन निकलने लगते हैं यह ईश्वर की अनुभूति से कम नहीं है । बच्चों की निश्छल मुस्कान में तो प्रभु की साक्षात अनुभूति होती है ।
बहती वायु का स्पर्श, पत्तों का स्वयं हिलना-डुलना, आती-जाती सांसें इसमें वायु किसी को दिखाई नहीं देती, यह सब एक अनुभूति है......अहसास है......इन सब को सिर्फ महसूस किया जाता है ।
प्यार, स्नेह, ममत्व आदि भी दिखाई नहीं देते ये सभी प्रभु अनुभूति कराते हैं । यह अहसास और अनुभूति तभी संभव है जब मन निर्मल हो .....आस्था हो.....विश्वास हो..... संवेदनाएं हो । यह प्रभु एक सुकून, एक अनुभूति है जो हमारे तन-मन को आल्हादित कर देती है ।
- बसन्ती पंवार
जोधपुर राजस्थान
जब हम अपना समय इसे यूँ भी कहें कि जब हम पूरा दिन अपने दायित्वों का नेकी और निष्ठा से गुजारते हैं तो दिन समाप्ति पर हमें एक अलौकिक शांति और सुकून के साथ-साथ अपने आप पर गर्व का भी अनुभव होता है। चित्त में आनंद की अनुभूति होती है।मन प्रसन्न रहता है। मेरी नजर में यह एहसास परम प्रभु के सानिध्य की वजह से ही होती है।ऐसे सत्कर्म से हम प्रभु के करीब होते हैं,क्योंकि हमने जो कर्म किया है वह उन्हीं की इच्छानुसार किया है। ठीक वैसे ही जैसे जब कोई हमारी इच्छानुसार काम करता है तो हम उससे प्रसन्न होते हैं,यहाँ तक कि मुग्ध होकर गले से भी लगा लेते हैं।
ऐसा हम रोज बल्कि सदैव करें तो प्रभु हमारे पास सदैव रहेंगे भी और हमारी रक्षा करते हुये हमें सुखी और संपन्न भी रखेंगे।
यही जीवन धर्म है और यही जीवन मर्म भी।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
प्रभु हमारे अंदर है बस नज़र चाहिऐ उसे अनुभव करने की देखने की महसूस करने की । ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करना और एकमात्र भौतिक सांसारिक शक्तियों को ही महत्त्व देना।
ईश्वर विश्वास के लिए श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भौतिक जीवन तथा शारीरिक क्षेत्र में प्रेम की सीमा होती है। जब यही प्रेम आन्तरिक अथवा आत्मिक क्षेत्र में काम करने लगता है, तो उसे श्रद्धा कहते हैं। यह श्रद्धा ही ईश्वर-विश्वास का मूल स्रोत है एवं श्रद्धा के माध्यम से ही उस विराट की अनुभूति सम्भव है। श्रद्धा समस्त जीवन नैया की पतवार को ईश्वर के हाथों सौंप देती है। जिसकी जीवन डोर प्रभु के हाथों में हो भला उसे क्या भय ! भय तो उसी को होगा जो अपने कमजोर हाथ पाँव अथवा संसार की शक्तियों पर भरोसा करके चलेगा। जो प्रभु का आंचल पकड़ लेता है, वह निर्भय हो जाता है, उसके सम्पूर्ण जीवन से प्रभु का प्रकाश भर जाता है। तब उसके जीवन व्यापार का प्रत्येक पहलू प्रभु प्रेरित होता है, उसका चरित्र दिव्य गुणों से सम्पन्न हो जाता है। वह स्वयं परम पिता का युवराज हो जाता है। फिर उसके सक्षम समस्त संसार फीका और निस्तेज, बलहीन क्षुद्र जान पड़ता है; किन्तु यह सब श्रद्धा से ही सम्भव है।परमात्मा की सत्ता, उसकी कृपा पर अटल-विश्वास रखना ही श्रद्धा है। ज्यों-ज्यों इसका विश्वास होता जाता है त्यों-त्यों प्रभु का विराट् स्वरूप सर्वत्र भासमान होने लगता है। हमारे भीतर बाहर चारों ओर श्रद्धा के माध्यम से ही हमें परमात्मा-का अवलम्बन लेना चाहिये। श्रद्धा से ही उस परमात्व-तत्व पर जो हमारे बाहर भीतर व्याप्त है विश्वास करना मुमुक्षु के लिए आवश्यक है और सम्भव भी है। स्थूल जगत का समस्त कार्यव्यापार ईश्वरेच्छा एवं उसके विधान के अनुसार चल रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी इस तथ्य को एक स्वर स्वीकार भी करते हैं। कहने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं, फिर भी यह निश्चित ही है कि यह सारा कार्य-व्यापार किसी अदृश्य सर्वव्यापक सत्ता द्वारा चल रहा है। हमारा जीवन भी ईश्वरेच्छा का ही रूप है। अतः जीवन में ईश्वर विश्वास के साथ-साथ समस्त कार्य-व्यापार में उसकी इच्छा को ही प्रधानता देनी चाहिये। वह क्या चाहता है इसे समझना और उसकी इच्छानुसार ही जीवनरण में जूझना आवश्यक है।
जाड़े, गर्मी, प्यार, संवेदना को देखा नहीं जाता है, उसे अनुभव किया जाता है; क्योंकि ये अनुभूति योग्य हैं। अनुभूति योग्य चीज को आप जबरदस्ती देखने के लिए जिद करते हैं, तो क्या आप अपने नासिका से पल-पल सांस के आवागमन को अपनी आंखों से देख पाते हैं? जब आप अपनी आंखों से नासिका में आती-जाती हवा को नहीं देख सकते, तो परमात्मा की शक्ति को कैसे देख सकते हैं? आप अपनी संकीर्णता-स्वार्थपरता को त्याग दें। मन हृदय में आस्था, विश्वास विकसित करें। ईश्वर के विराट स्वरूप को समझने के लिए स्वयं में निहित शक्ति को जानने-परखने की कोशिश करें।
परमात्मा अपनी शक्ति की अनुभूति आपको अवश्य करा देंगे; क्योंकि अंदर वे ही बैठे हैं। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशि।' जो छूने की चीज है, जो देखने की चीज है, उसे आप कहें कि हम खाएंगे; जो खाने की चीज है, उसे कहें कि हम देखेंगे; जो पहनने की चीज है, उसे कहे कि हम देखेंगे! यह चेतनशील प्राणी के लिए अनुपयुक्त व्यवहार है। समय रहते ऐसे व्यक्ति अपनी चेतना को विकसित करें। धरती, सूरज, हवा, प्रकाश, नदी, सरोवर, पहाड़, झरना सब परमात्मा की शक्ति के अंश हैं। सब परमात्मा की कृति हैं। प्रकृति, ग्रह, नक्षत्र, सब परमात्मा का स्वरूप हैं। सब में परमात्मा की शक्ति निहित है। पूरे ब्रह्मांड के भिन्न-भिन्न तत्वों की शक्तियों का सामूहिक स्वरूप ईश्वर की पूर्ण शक्ति कही जाती है। ईश्वर को पाने के लिए जरूरी है कि हम प्रेम, सद्भाव, समर्पण, सदाचार, सहिष्णुता, सबके मंगल-सबके हित के दिव्य प्रकाश से आलोकित सच्चे मार्ग पर चलें। सृष्टि-रचयिता के बनाए समूचे विश्व में उसके दर्शन की सुगम इच्छा रखें और सत्य के पथ पर चलते हुए ईश्वर की आत्म-अनुभूति करें। यह डगर ही हमें जीवन की हर रचना में, धरती से लेकर आकाश तक के संपूर्ण विस्तार में, प्रभु के दर्शन करा सकती है।
- अश्विनी पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
जिन खोजा तीन पइया, गहरे पानी पैठ अर्थात सच्चे मन से परिश्रम करने से कुछ भी मिल सकता है । जिस तरह से गोताखोर जल की गहराई में जाकर मोती खोज लाता है ।
जब हम परमात्मा के प्रति सच्ची निष्ठा व दृढ़ विश्वास रखते हैं तो वो अवश्य ही हमें मिलते हैं । एक बहुत ही रोचक कहानी है - एक व्यक्ति साधु के पास आया और उसने कहा मैं भगवान से मिलना चाहता हूँ । साधु ने मन ही मन सोचा कि मैं इतने वर्षों से घोर तपस्या कर रहा हूँ और आज तक मुझे प्रभु के दर्शन नहीं हुए और ये मूर्ख उन्हें पाना चाहता है । साधु ने मन ही मन हँसते हुए कहा कि तुम हाथ ऊपर करके खड़े हो जाओ तब तक मैं हिमालय की यात्रा करके आता हूँ फिर तुम्हें प्रभु के दर्शन करवा दूँगा । एक वर्ष बाद जब साधु आया तो उसे देखते ही वो व्यक्ति बोला प्रणाम गुरुदेव आपकी कृपा से मुझे ईश्वर के दर्शन हो गए । मैं तो आपका धन्यवाद करना चाहता था इसलिए अभी तक रुका था । अब तो साधु को बहुत आश्चर्य हुआ उन्होंने पूछा कहाँ है प्रभु ? वो देखिए भगवान भी मुझे अपने साथ ले जाने के लिए खड़े बस मेरा कार्य पूरा हुआ । इतना सुनते ही साधु ने उस व्यक्ति के चरण पकड़ लिए और कहा तुम्हारे अंदर सच्ची भक्ति थी इसलिए तुमने मुझे भी प्रभु से मिला दिया ।मैं तो अपने झूठे अहंकार में तुम्हें खड़े होने के लिए बोल गया था । इसी तरह ध्रुव ने भी अपनी माँ सुनीति का कहना मानकर ईश्वर की खोज में जंगल में बैठ कर तपस्या की तो उन्हें न केवल भगवान दर्शन मिले वरन वो उत्तर दिशा में ध्रुव तारे के रूप में प्रतिष्ठित हुए ।
ये सब तो पौराणिक कथाएँ हैं । वास्तव में यदि भगवान के दर्शन करने हैं तो नेकी के कार्य करें । हम सबके जीवन में ऐसे कई मौके आते हैं जब हम सच्चे मन से उन्हें पुकारते हैं । और अचरज तब होता है जब हमारे बिगड़े काम पलक झपकते ही पूरे हो जाते हैं । कष्ट दूर हो जाते हैं । हम विजयी की भाँति ऐसे खड़े हो जाते हैं जैसे ये सब हमने किया पर कहीं न कहीं मन ये कहता है कि प्रभु आपके इस उपहार के लिए कोटि - कोटि धन्यवाद। ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में गुरु, माता- पिता व वे सभी लोग जो हमारे शुभचिंतक होते हैं हमारे आस पास दिखायी देते हैं ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
प्रभु की अनुभूति प्रति पल होती है यह व्यक्ति गत विचार है सिर्फ रूप बदलती रहती है। यह एक ऐसी उर्जा है जो दृष्टि में नहीं है पर महसूस करते हैं ।इस सम्बन्ध में दो पंक्तियां
मैं इधर उधर नहीं तेरे आसपास हूं जरा सिर झुका लिया तो पा लिया मुझे । गुरु नानक मक्का मदीना गये थे थककर वे स़ो गये उनका पैर मक्का की ओर था किसी ने आकर उनसे कहा अपने पैर को दूसरी तरफ रखें चूंकि मक्का के सामने पैर नहीं होने चाहिए । गुरु नानक ने सहजता से कहा भाई तुझे जिधर ठीक लगे मेरा पैर घुमा दे।उस व्यक्ति ने गुरु नानक के पैर जिधर भी घुमाते उधर ही। मक्का दिखाई देने लगा।
यह इस तथ्य को साबित कर रहा है कि प्रभु पल पल में बसे हैं। कभी माता पिता , गुरु, हितैषी, डाक्टर मददगार शुभचिंतक इत्यादि सभी प्रभु के ही तो रूप है इसलिए जब भी सिर झुकाया प्रभु को पाया । विश्वास ही तो प्रभु है मंदिर में खोजते हैं गिरजाघर में खोजते हैं मस्जिद में ढूंढते हैं पर वह तो आपके अंदर है ।
डाँ.कुमकुम वेदसेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
प्रभु की अनुभूति तो हम हर पल करते हैं। जीवन के हर क्षण जब भी हम कोई कार्य करते हैं तब सफलता और असफलता दोनों ही स्थितियों में हम प्रभु को याद करते हैं। असफलता पर प्रभु से कृपा दृष्टि की याचना करते हैं तो सफलता मिलने पर अनायास ही दिल उनके लिए शुक्रिया अदा कर देता है। हमें सदैव ऐसा महसूस होता है कि हमारे आसपास जो कुछ भी घटित हो रहा है उसका नियंत्रण उस ईश्वर के हाथों में ही है। कई बार ऐसा होता है कि बिना प्रबल इच्छा किए हैं हमें बहुत बड़ी खुशी प्राप्त हो जाती है तो कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अथक प्रयत्नों के बावजूद हमें उस चीज की प्राप्ति नहीं हो पाती है जिसके लिए हम प्रयासरत हैं। तो उस समय हम यह महसूस करते हैं कि हमारे आसपास ईश्वर की शक्ति है जिसकी इच्छा के अनुरूप ही यह सारा कुछ घटित हो रहा है। किसी अत्यंत संकट के क्षणों में भी जब हम प्रभु को याद करते हैं तो हमारा मनोबल बढ़ जाता है क्योंकि हम प्रभु को अपने आसपास ही कहीं महसूस करते हैं।
- रूणा रश्मि
रांची - झारखंड
अनुभूति का संबंध मन की स्वीकारोक्ति से है l मानस में बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ है -"जाकी रही भावना जैसी ,दीखे मूरत तिन तेहि "अर्थात आस्तिक व्यक्ति पत्थर की मूरत में भी ईश्वर की अनुभूति कर लेते हैं l अपने आराध्य के दर्शन कर लेते हैं और नास्तिक व्यक्ति उसको मात्र पत्थर की प्रतिमा के रूप में अनुभूत करेगा l स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है -"मैं तो उस प्रभु का पुजारी हूँ ,उपासक हूँ जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कह कर पुकारते हैं l कहा भी गया है -"सियाराम मय सब जग जानि ,करहु प्रणाम जोरी जुग पानी l "सारे संसार के मनुष्यों में यदि हम सियाराम की अनुभूति करेंगे तो जग सियाराम मय लगेगा ,नहीं तो चोरों को सारे नज़र आते हैं चोर l देखिये -वक्त और परिस्थिति आपके परम् प्रिय मित्र यहाँ तक की आपके सहोदर भ्राता भी आपका दुश्मन बना देता है l रावण और विभीषण का उदाहरण हमारे सामने है l इसी प्रकार अशोक वाटिका में माता सीता के प्रतिरोध के कारण मंदोदरी अपने व्यथित पति को सलाह देती है आप तो मायावी हैं l आप अपना वेश श्री राम के जैसा धारण कर लीजिये तो रावण ने कहा -मैंने ये प्रयास तो कितनी ही बार किया है लेकिन जब भी मैंने श्री राम का चेहरा लगाया मुझे हर पराई स्त्री में माँ और बहिन नज़र आने लगती है l यह है अनुभूति का विषय l प्रभु के अस्तित्व और अनुभूति पर अमेरिका के राष्ट्रपति वाल्टेयर ने कहा -"संसार में ईश्वर का अस्तित्व ठीक उसी प्रकार है जैसे आपकी हथेली पर रखा आँवला है l मेटाफिजिक्स भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं नकार सकती l कल्पना चावला उड़ान पर जाते समय गीता अपने साथ ले जाना नहीं भूलती l ये है ईश्वर की अनुभूति l वाल्टेयर ने तो यहाँ तक कह दिया -If god does not exgist it would be necessory to envent him .अर्थात ईश्वर नहीं है तो हमें उसका अविष्कार करना होगा और लोक कल्याण हेतु उसकी अनुभूति करनी होगी l तुलसी ने कहा है -"भय बिन होत न प्रीति "l कहते है न प्रभु के डंडे में आवाज़ नहीं होती ,यही है प्रभु की अनुभूति l यही भय हमें ईश्वरकी अनुभूति करने को बाध्य करता है l
- डाँ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
हां, प्रभु एक अदृश्य शक्ति के रूप में जगत के जड़- चेतन ही क्या, कण-कण में व्याप्त है। जिसके सूर्य- चंद्र की किरणों के प्रकाश, वायु का अनासक्त परिभ्रमण, जल की स्वच्छ, शुद्ध, मधुर, पवित्रता; पृथ्वी की धैर्यवान, क्षमावानता; आकाश की संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए पितृतुल्य उदारता की छत्रछाया के गुण को अनुभव किया जा सकता है। देखा जाए तो यह प्रकृति ही ईश्वर है ;और स्वयं मनुष्य भी ईश्वर- अंश, जीव आत्मिक स्तर पर तो अविनाशी ही है। हम सब आत्माएं परमपिता के अंश ही हैं ।उसी की शक्ति से हम सब संचालित हैं। बस उसे पहचानने की और अनुभव करने की आवश्यकता है। जब हम ईश्वरीय विधान का यानी दैवीय गुणों को अपने जीवन में आत्मिक ज्ञान पाकर, समस्त प्राणियों के साथ व्यवहार करते हैं; तो सुकृत्यों से ईश्वर- दर्शन की सहज और सच्ची अनुभूति होती है। इसी आधार पर ही तो तुलसीदास जी ने भी माना--"" सिया- राम मय सब जग जाना।
करहुॅ प्रणाम जोरि पाना।।""
अतः व्यक्ति अंतः करण काषाय-- कल्मषो से मुक्त तथा मन के मल- विकार नष्ट करके माता- पिता, असहाय, अनाथ, दीन- दुखियों के प्रति उपजी करुणा से सेवा करके जो शांति अनुभव करता है; सही मायने में वही ईश्वर की सच्ची अनुभूति है। मानस में ईश्वर की अनुभूति की व्यापकता को ऐसे ही व्यक्त किया गया है--
""जेहि दीन पुकारे, वेद उचारे द्रवहुॅ सो श्री भगवाना"।
- डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
हां हमें प्रभु अर्थात ईश्वर अर्थात राजा अर्थात स्वामीं की अनुभूति हो सकती है।कहते हैं धन्ने जाट़ ने तो प्रभु श्रीकृष्ण से खेत भी जुतवाए।ऐसा माना जाता है।जबकि प्रभु पुरुषों का नाम भी रखा जाता है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक नारी अपने पति को प्रभु की संज्ञा देती हैं और सुबह-शाम पूजा कर पति के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।मीरा के प्रभु गिरधर नागर।अर्थात श्रीकृष्ण जी की भक्त मीरा उनको प्रभु मानती हैं। दूसरे शब्दों में प्रभु एक आस्था है।जिसे मानसिक रोग कह कर कुछ नास्तिक लोग खिल्ली भी उड़ाते हैं।इसके अलावा प्राकृतिक सौंदर्य को भी ईश्वर माना जाता है और प्राकृति को अनुभव ही नहीं बल्कि देखा भी जा सकता है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
कहते हैं ना “मन चंगा तो कठौती में गंगा “यदि मनुष्य का मन साफ़ हो,दिल उसका पवित्र हो तो हर कार्य में उसे सफलता अवश्य मिलती है जो ईश्वर की अनुभूति जैसी ही होती है|किसी की मदद करने के पश्चात ,सत्कर्मों की राह पर चलकर संतोष की अनुभूति भी परमात्मा के होने का एहसास कराता है |आदि काल से संसार में सभी प्रभु शक्ति की महत्ता को मानते हैं |धरती ,आकाश,पेड़-पौधे,सूर्य,चंद्रमा प्रकृति सर्वत्र प्रभु के विद्यमान होने का आभास होता है|सुख में हम भले ही प्रभु को याद न कर पाए किंतु दुख में स्वतः ही उस अदृश्य शक्ति से मन जुड़ जाता है और मन हल्का हो जाता है |
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
हाँ , हमें प्रभु अनुभूति जरूर ही सकती है । हमें प्रभु जैसे सद्गगुणों का हमारे हृदय में वास होगा । कहते भी सत्य में प्रभु रहते हैं । सच का नाम ईश्वर है । यह तथ्य सबके लिए है । ऋषि - मुनि हिमालय की गुफाओं में एकांत में मोह माया से दूर रहकर भगवान को जपते हैं । ईश्वर उनके मन के भावों के अनुसार ही दर्शन देता है ।
किसी को ईश्वर मिलते हैं , किसी को नहीं भी ।
नेति -नेति कहि वेद उबारा ।
यानी ऋषि , मुनि और वेद जिन्हें हम ईश्वर का पूरा शरीर मनाते हैं । वे भी भगवान को पूरा नहीं जान पाए । तो हम जैसा आम आदमी ईश को कैसे जान सकता है ?
लेकिन हम कलियुग में ईश कालिक को भक्ति , तप से आसानी से अनुभूति कर सकते हैं ।हमें मानव जीवन बड़े अच्छे कर्म करने के बाद ही मिला है । भगवान की अनुभूति करके हम अपना जन्म सार्थक कर सकते हैं । हम सद्कर्मों को धारण करके 84 लाख योनियों के परिभ्रमण के दुखों से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । परमार्थ , दीन -दुखियों की सेवा , सच , अहिंसा , सदाचार आदि ये सब मानव व्यवहार में लाएगा । तो उसे आनन्द , शांति मिलती है । ईर्ष्या , क्रोध , मोह , लोभ , द्वेष आदि सदाचार के विपरीत दुर्गुण हैं । ऐसे नकारात्मक लोगों को शांति तो दूर ईश की अनुभूति नहीं हो सकती है । जो जैसा अपने पास रखता है । उसे वैसा ही फल मिलता है । हर प्राणी जे अंदर ईश्वर का निवास होता है ।जिसने अपने अंदर की परमशक्ति को जान लिया । जिसने खुद को जान लिया । उसे ईश्वर की अनुभूति हो जाती है ।
मीरा ने कृष्ण की पति रूप में भक्ति कर कृष्णमय हो गयी। प्रभु अपने सच्चे श्रद्धालुओं के साथ बात करते हैं । सन्त नामदेव जी के साथ विट्ठल जी बात करते थे । रामकृष्ण परमहंस के साथ काली माँ बात करती थी ।विवेकानन्द जी के साथ उनके गुरु राम कृष्ण परमहंस की बात होती थी । स्वामी विवेकानंद जी की अमेरिका में शिकागो सम्मेलन में प्रवेश करने की टिकट खो गयी थी । अमेरिका में उन्होंने जिस दरवाजे की सीढ़ियों पर शरण ली थी । उसी दरवाज़े को महिला ने बशर निकलने के लिए खोला । तो संन्यासी को देख के बात का पता लगा । वह अमरीकन महिला शिकागो धर्म सम्मेलन की अध्यक्ष थी । उसने स्वामी जी टिकट दी । विवेकानद जी पर उनके गुरु राम कृष्ण परमहंस की परमशक्ति कसम कर रही थी । विश्व के इस धर्म सम्मेलन में सारी जनता ने तालियों से स्वामी जी के भाषण का स्वागत
किया । अब मैं इसी प्रभु की अनभूति के संदर्भ में अपना वाक़या बता रही हूँ । मेरे जीवन में मेरा ईश से की बार साक्षात्कार हुआ है । बचपन में सहेलियों के संग खेलते हुए सीवर के पाइपों पर गिर गयी । सिर पर चोट सी लगी थी ।3, 4 मिनट बेहोश सी हो गयी । तभी कोई शक्ति आकाश की ओर मुझे ले गयी । वहाँ स्वार्गिक आभामय परिवेश में सिहांसन पर परम तेजस्वी खूबसूरत अलौकिक दिव्य चेहरा ईश विराजमान थे । तो प्रभु ने उस शक्ति से कहा , अभी इसका नम्बर नहीं है । तब उस शक्ति ने मुझे छोड़ दिया । तब मैं खुद ही होश में आ गयी । सेहलियाँ पूछ रही थीं । हम उठा रहे थे । तुम उठी नहीं ।
ये मेरा सौभाग्य है कि इस अनुभव को मैने अपनी ' ' 'परिवर्तन 'कहानियों की किताब में भी डाला है ।
मैंने अभी तक 8 किताबें लिखी हैं । हर किताब के लेखन से पहले ईश का साक्षात्कार हुआ है । यह ईश अनुभूति मुझे प्रेरणा देती है । मुझे साकारात्मक काम समाज के लिए करने हैं । कुछ और करना है । यह सदा मेरी आत्मा की आवाज मुझे कहती है । यही अनुभूति को इंटिट्यूशन या छटी इन्द्रिय की शक्ति भी कह शक्ति हूँ ।
अंत में दोहे में कहती हूँ : -
बंदे तू जाने खुद को , मिले तभी भगवान ।
कण - कण में हैं प्रभु बसे, तू इसको पहचान ।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
यह आपके विश्वास पर निर्भर करता है कि वह कितना है और आप प्रभु पर किस तरह की आस्था रखते हैं ।रामकृष्ण परमहंस स्वामी विवेकानंद तुलसीदास वो नाम हैं जिन्होंने आप और हम जैसे एक दूसरे को देखते हैं वैसा ही देखने अनुभव करने की बात कही है ।राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भारत भारती में ऐसे अनेक उद्धरण दिये हैं ।संसार को निर्माण करने व संचालित करने वाली शक्ति प्रत्येक व्यक्ति से सम्पर्क में रहती हैं और जब सभी रास्ते बंद हो जाते हैं तब आस्था ही उसका सहारा बनती है ।जैसा कि हिन्दी साहित्य में रीतिकाल के बाद भक्ति काल का स्वर्ण युग आता है ।श्री कृष्ण की आस्था मीराबाई को बड़े बड़े संकट से दूर रखती है ।गुरु नानक देव के विश्वास से रीठा साहिब का पानी मीठा हो जाता है ।दुर्गम पहाड़ आश्चर्य कि केन्द्र बन जाते हैं ।
- शशांक मिश्र भारती
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
आस्था और विश्वास यदि कूट-कूट कर मन में भरा हुआ है तो जीवन में क्या नहीं हो सकता।सूरदास, तुलसीदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, मीरा, ध्रुव प्रह्लाद ये आस्था और विश्वास, भक्ति के ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें भगवान मिले। प्रभु की अनुभूति तो हम हर पल करते हैं। यह सृष्टि उन्हीं के द्वारा तो संचालित होती है।नर नारायण का ही तो रूप है। प्रभु हमारे पास हमारे लिए नर के रूप में तो आते हैं। यह तो अपने अनुभव करने की बात है कि हम क्या अनुभव करते हैं। बच्चों में माता-पिता में, वृद्धजनों में...इन्हें प्रेम-स्नेह देकर इनकी सेवा करके जो संतुष्टि और सुख प्राप्त होता है वह प्रभु की अनुभूति से किसी भी तरह कम नहीं है। सरल, आडंबर, अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष रहित जीवन जीते हुए यदि हम मानवता के हित के लिए निष्काम भाव से समर्पित होकर कार्य करते हैं तो प्रभु की अनुभूति हर पल होती है, क्योंकि प्रभु हम सब में है और हम सब प्रभु में समाहित हैं।
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखण्ड
" मेरी दृष्टि में " प्रभु की अनुभूति ब्रह्माण्ड के कण - कण में हैं । फिर भी हम अन्जान है और तो ओर , प्रभु हर इंसान के अन्दर है यानि हम सब के अन्दर प्रभु है। यहीं प्रभु की अनुभूति है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
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