क्या लोगों की सेवा करने से मिलती है शान्ति और सतुष्टि ?

सेवा कई प्रकार की होती हैं जैसे : - पैसे की सेवा , खोने की सेवा आदि अनेंक सेवा हैं । सभी प्रकार की सेवा से शान्ति और सतुष्टि मिलती है । तभी लोग सेवा करते हैं । सेवा अपने आप में शान्ति और सतुष्टि प्रदान करती है। यह आत्म सत्य है । यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब देखते हैं आये विचारों को : -
 हर मनुष्य को जीने के लिए शांति और संतुष्टि की जरूरत होती है। यह जरूरत श्रम से समृद्धि ,समृद्धि से शांति एवं सेवा से संतुष्टि और संतुष्टि से सुख की प्राप्ति होती है। मनुष्य के शरीर की पोषण  संरक्षण एवं स्वस्थता एवं अन्य आवश्यक वस्तु के लिए भौतिक वस्तु की आवश्यकता होती है। भौतिक वस्तु श्रम से उत्पादन ,उत्पादन से वस्तु ,वस्तु से आवश्यकता की पूर्ति होती है, तो शरीर की स्वस्थता बनी रहती है ।स्वस्थ शरीर निरोग और उसमें श्रम करने की क्षमता होती है। श्रम से समृद्धि, परिवार में बना रहने से परिवार का वातावरण और स्वयं में शांति का एहसास होता है ।कहीं भी आर्थिक समस्या से घर परिवार में द्वंद नहीं होता घर मे शांति का वातावरण बना रहता है। सेवा से मन में संतुष्टि मिलती है। सेवा का तात्पर्य है प्रतिफल विहिन अपेक्षा। मनुष्य खुश होकर बिना अपेक्षा के सेवा और सहयोग करता है इससे उसको मानसिक संतुष्टि मिलता है ।मानसिक संतुष्टि ही सुख है ।इस सेवा से सुख की प्राप्ति, लक्ष्य को पाने हेतु मनुष्य संसार में शरीर यात्रा कर रहा है ।सुखी व्यक्ति सुख बढ़ता है ।दुखी व्यक्ति दुख बाटता है ।जिसके पास जो होता है  वही बाटता है ।सुखी व्यक्ति ही खुश होकर सेवा करता है तो एक  अपनत्व की अजीब एहसास से संतुष्ट होता है। यही उसकी सेवा का फल होता है। जो सेवा कारी, सुखी मनुष्य को मिलता है। इसलिए कहा जा सकता है, "समृद्धि से शांति "और "सेवा से संतुष्टि "मनुष्य को मिलता है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
सेवा से परमसुख  और आन्नद की अनुभूति होती है साथ ही हमें आशिष भी मिलते है । सेवा करना  सच्चे मन से सेवा करना ईश्वर की पूजा करने जैसा है । बड़ों की जरुरत मंद की सेवा करना , ईश्वर को प्रशन्न करना है ।  मेरी गुरु  दीदी हमेशा कहती है  ब्रह्म ज्ञान लेने मात्र से ही सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त नहीं होती है। ज्ञान की उपलब्धता के पश्चात चित की चंचलता को पूर्ण रूप से शांत करने के लिए आप को को उसमें निरंतर स्थिर रहने की आवश्यकता है। इसके लिए सेवा, सुमिरन व सत्संग निरंतर करते रहना चाहिए। सुमिरन और संत्संग से भी अधिक ज़ोर “सेवा “ को दिया गया है ।  दूसरों की सेवा कर के जो सुख व शांति प्राप्त होती है, वह इस संसार की किसी भी वस्तु से नहीं मिल सकती। इसलिए सच्चे सुख का अनुभव करना है तो मानव की  सेवा सच्चे मन से करनी चाहिए।
इंसान को हमेशा अच्छे कर्म व सेवा करते रहना चाहिए। साथ ही अपनी सोच को हमेशा सकारात्मक बनाना चाहिए, क्योंकि नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति कभी भी जिदगी में कामयाब नहीं हो सकता। सकारात्मक सोच व सेवा भावना रखने वाले व्यक्ति इतिहास रचते हैं। मेने देखा है की आज के ज़माने में बहुत सारे लोग पढाई करते है लेकिन कुछ लोगो को बड़ो का सम्मान करना उनकी सेवा करना नहीं आता दैसे की गुरु,माता पिता,अपने से बड़े लोगो का सम्मान करना नही आता न उनकी बात का मान देना न उनका कोई काम करना सेवा करना तो बहुत दूर की बात रही ,तो सोचने वाली बात ये है की इस पढ़ाई का मतलब क्या है,हम शुरू से ही किताबो में पढ़ते है की हमे बड़ो का सम्मान करना चाहिए,बड़ों की सेवा व आदर करना चाहिए अगर आप उसे अमलनहीं करते हो तो ये पक्का है की आपकी इस पढाई का कुछ भी मतलब नही है क्योकि पढ़ाई से हमको ज्ञान मिलता है.ज्ञान से विवेक खुलता है । विवेक यदि जाग्रत है तो हम हर जरुरत मंद इंसान की सेवा करेगा अपने घर में हर एक की सेवा करेगा । हमें चाहिए की हम बचपन से ही बच्चों में यह आदत डालें की वो दादा , दादी का छोटा मोटा काम करें , धीरे धीरे यह भावना आ जायेगी सच्ची सेवा आत्म संतुष्टि और अपार शांति तथा ख़ुशियाँ देती है साथ ही बढो के आशिष से हम माला माल रहते है । 
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
लोगों की सेवा। कैसे लोगों की सेवा? यह समझना भी जरूरी है; देखा जाए तो असहाय, निर्बल, दीन- दुखी आर्तजनों की सेवा, वह अभी निस्वार्थ तथा अनौपचारिक भाव से की जाती है; तब वास्तव में ऐसी सच्ची सेवा दिखावे की नहीं है; अपितु आत्मिक शांति एवं संतुष्टि प्रदायक ही है।   दूसरों के दुख में दुखी होकर जब हम उसकी तन, मन, धन से सेवा करते हैं तो  इस सच्ची सेवा से ही हमें साक्षात ईश- दर्शना जैसी शांति व संतुष्टि मिलती है। सेवा के उपरांत हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारे द्वारा की गई सेवा का अहंकार हमारे अंदर ना आए;बल्कि हमें यही सोचना है कि हमें ईश्वर ने इस लायक बनाया;  तभी तो हम सेवा कर पा रहे हैं। क्योंकि हम तो केवल उपकरण मात्र ही हैं। सेवा की इसी ऊंचाई को कबीर दास जी ने भी माना और कहा--
 "मेरा मुझमें कुछ नहीं,
 जो कुछ है सो तोर।
 तेरा तुझको सौंपते,
 क्या लागत है मोर"।। 
सेवा के इस भाव से शांति की एक ऐसी धारा का प्रस्फुटन होता है जो संसार के जले- तपे जीवों को शीतलता प्रदान करता है।अत: निष्काम भाव से की गई सेवा ही वास्तव में शान्ति और संतुष्टि देती है ।
- डॉ रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
कहा भी गया है कि "परहित सरस धरम नहीं भाई,पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।" तात्पर्य यह है कि परहित के कार्य हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में आवश्यक भी हैं और महत्वपूर्ण भी। सहयोग और सेवा ऐसे उच्च कोटि के सद्कार्य हैं, जिन्हें धर्म में भी जोड़ा गया है। किसी पीड़ित की पीड़ा का अनुभव करके देखें ,वह कितनी लाचारी और बेबसी से अपना एक-एक पल तिल-तिलकर जीने-मरने सा गुजार रहा होता है। उसकी जरूरतें,उसके अभावों की छटपटाहट ,उनकी कसक दिलोदिमाग को झकझोर कर रख देती है। ऐसे किसी लाचार, असहाय, अपंग, दुर्बल, बीमार, अबला, गरीब की कठिनाइयों के प्रति यदि हम संवेदनशील बनकर उन्हें दूर करने में सहयोगी और सेवक बनते हैं तो उन पीड़ितों को जो राहत मिलती है , उसकी प्रतिक्रिया में हमें जो शांति और संतुष्टि मिलती है, वह अद्भुत , अलौकिक और परम होती है।हमें इस बात को लेकर भी खुशी और गौरव का एहसास होता है कि हम किसी के कुछ तो काम आये। जीवन का ध्येय और मर्म भी यही है कि हम स्वयं के साथ-साथ अपनों और औरों के जीवन को संवारने में सहयोगी और सेवी बनें।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
 गाडरवारा - मध्यप्रदेश
परहित सरिस धर्म नहीं भाई
परपीड़ा सम नहीं अधमाई
बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में ऐसा कहकर मानव को परोपकारी मनोवृत्ति अपनाने पर बल दिया है । समाज सेवा जैसे कार्यक्रम का आयोजन करने वाले मनुष्य जरूरतमंद  व्यक्तियों की सहायता तो करते ही हैं ।
साथ ही वह अन्य अनेक इच्छुक व्यक्तियों को भी सामाजिक जन कल्याण के कार्यों से जोड़कर अति आनंदित होते हैं ।
दूसरों की सेवा करने वाले मनुष्य को जो परमानंद प्राप्त होता है । उस आनंद का अनुभव वर्णन नहीं किया जा सकता ।
अर्थात यह गूंगे के गुड़ जैसा होता है । हमारे शास्त्रों में बाल्यकाल में ही बच्चो को परोपकार एवं नैतिकता जैसे इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाली शिक्षा को ग्रहण कराया जाता है । दीन दुखी दरिद्र की सेवा सहायता ही असल में नारायण सेवा कहलाती है । किसी भूखे को भोजन प्यासे को नीर एवं जरुरतमन्द व्यक्तियों की हर संभव सहयोग सहायता करने वाले मनुष्य को असीम सुख शांति का अनुभव होता है ।
वृक्ष कबहुं नहि फल भखै 
नदी न संचै नीर
परमार्थ के कारने 
साधुन धरा शरीर ।
अर्थात 
जिस प्रकार नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती ।वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते ।  उसी प्रकार संतजन का यह मानव शरीर दूसरों का परोपकार करने के लिए ही होता है ।
- सीमा गर्ग मंजरी
मेरठ - उत्तर प्रदेश
हमारी भारतीय संस्कृति महान है ,हमें बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती है, कि मानव जीवन में भगवान ने हमें एक दूसरे की मदद करने के लिए सब जीवो में हमें श्रेष्ट बनाया है। आप कभी गुरुद्वारा में जाकर देखना लंगर में सेवा का भाव के दर्शन होते है। भगवान के मंदिर में जाकर कोई भी कार्य करो तो एक आत्म संतुष्टि मिल जाती है। उसको हम धन देकर भी नहीं खरीद सकते। कभी सेवा भाव से कार्य करके देखना तो आपको मानसिक खुशी मिलेगी और आप स्वस्थ रहेंगे। गर्मी में पंछी के लिए दाना और पानी रखने में भी काफी आत्म संतुष्टि मिलती है।
"जाहि विधि राखे राम ताहि बिधि रहिये।"
भगवान जब जहां और जैसे रखना चाहते हैं वैसे ही रहने में मनुष्य का कल्याण होता है एक सरल साधारण इंसान के सूखे सूखे हुए परंतु प्रफुल्लित चेहरे से कहीं हुए वह बातें आज भी मेरे मौन समय अंकित है।उसके मुंह से मुझे जैसे आज भी नानक देव बोलते हुए नजर आते हैं हमारी भारतीय संस्कृति महान है ,हमें बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती है, कि मानव जीवन में भगवान ने हमें एक दूसरे की मदद करने के लिए सब जीवो में हमें श्रेष्ट बनाया है। आप कभी गुरुद्वारा में जाकर देखना लंगर में सेवा का भाव के दर्शन होते है। भगवान के मंदिर में जाकर कोई भी कार्य करो तो एक आत्म संतुष्टि मिल जाती है। उसको हम धन देकर भी नहीं खरीद सकते। कभी सेवा भाव से कार्य करके देखना तो आपको मानसिक खुशी मिलेगी और आप स्वस्थ रहेंगे। गर्मी में पंछी के लिए दाना और पानी रखने में भी काफी आत्म संतुष्टि मिलती है।
" *जाहि विधि राखे राम ताहि बिधि रहिये।"* 
भगवान जब जहां और जैसे रखना चाहते हैं वैसे ही रहने में मनुष्य का कल्याण होता है एक सरल साधारण इंसान के सूखे सूखे हुए परंतु प्रफुल्लित चेहरे से कहीं हुए वह बातें आज भी मेरे मौन समय अंकित है।उसके मुंह से मुझे जैसे आज भी नानक देव बोलते हुए नजर आते हैं - *मेरी रजा उसी में जिसमें तेरी रजा* 
- प्रीति मिश्रा
 जबलपुर - मध्य प्रदेश
सेवा स्वयं में एक संपूर्ण शब्द है। जिसके साथ ही शांति और संतुष्टि की प्राप्ति निश्चित होती है। सेवा के कई प्रकार हो सकते हैं, 
पहला- *तन*; शारिरिक सेवा देने के लिए हमें किसी भी और साधन की आवश्यकता नहीं होती, और जिनकी हम मदद करते हैं उनके हृदय से हमारे लिए आशीर्वचन जरूर निकलते हैं। 
दूसरी सेवा *मन* से होती है, अगर कोई व्यक्ति दुखी है तो उनसे उनकी परेशानियों को सुन लेना भर ही उनके जी को हल्का कर सकता है और उनका मुस्कुराता चेहरा देख कर अवश्य ही संतुष्टि का अनुभव होगा।
तीसरी सेवा *धन* से की जा सकती है, अपनी कमाई के छोटे से हिस्से से हम कई चेहरों पर मुस्कान ला सकते हैं एवं जरूरतमंदों की मदद करने से हमें शांति और संतुष्टि दोनों ही मिलेगी।
- नन्दनी प्रनय
रांची - झारखण्ड
अवश्य किसी की सेवा करने से हमें शांति और आत्म संतुष्टि तो मिलती ही है ! मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह अन्य प्राणियों से भिन्न है वह अपनी इच्छा से मानव सेवा के मार्ग का निर्धारण करता है !संसार में प्रत्येक धर्म में मानव सेवा को ईश्वर सेवा के तुल्य माना गया है ! सेवा की भावना एक परोपकारी व्यक्ति में कूट-कूट कर रहती है बिना किसी स्वार्थ के हम दुखी पीड़ित लोगों की सेवा करते हैं तो हमें दिल से संतुष्टि मिलती है मन शांत और प्रफुल्ल रहता है हमें आत्मिक आनंद मिलता है! यह आनंद प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ है सभी को नहीं मिलता ! लोगों की सेवा करना भी हमारा धर्म है अपना हित तो हम करते ही हैं ! गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है --
परहित सरिस धर्म नहिं भाई 
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई
 हम दुखी पीड़ित लोगों की कई तरह से सेवा कर सकते हैं जरूरी नहीं कि पैसा नहीं है तो मैं कैसे सेवा कर सकता हूं!  किसी बच्चे, बूढ़े ,दिव्यांग ,को रास्ता ही पार करवाते हैं तो यह भी बहुत बड़ी सेवा है! गर्मी में पानी पिलाना भी सेवा है ,किसी पथभ्रष्ट को सही राह दिखाना भी सेवा है, सेवा करने का हमें पग-पग पर मौका मिलता है पर हमारी भावना मदद करने की होनी चाहिए ..यहां कहीं पैसे नहीं लगते हां यदि पैसे या धन है तो आप विद्यालय खोलकर, कुएं खुदवा कर ,अस्पताल बना, वनिता आश्रम ,वृद्धाश्रम, बना अपने धन का उपयोग कर सेवा कर सकते हैं दान कर गरीबों को अनाज ,कपड़े, कंबल ,आदि देकर भी सेवा कर सकते हैं ! फिर भी सेवा कैसे करूं समझ ना आए तो प्रथम अपने माता पिता की सेवा करें इससे बड़ी सेवा तो कोई हो ही नहीं सकती माता पिता की आज्ञा का उल्लंघन  कर उन्हें दुखी ना करें यह भी सेवा है ! किसी की सेवा करने से जो आशीर्वाद हमें मिलता है जो उनके दिल से हमारे लिए दुआ निकलती है उससे बड़ा उपहार और क्या होगा ! अंत में कहूंगी बिना स्वार्थ के समय पर किसी की सहायता करना, दुख में साथ खड़े रहना , रोते को हंसाना उनकी नजरों में ईश्वर बन जाना  यही तो सेवा है और उनको खुश होता देख हमें जो खुशी मिलती है वही शांति है और हमारी आत्म संतुष्टि है! किसी की मजबूरी पर हसें न बल्कि उनका दर्द अपना दर्द समझे यह भी एक सेवा है !
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
जब हम निष्काम भाव से जरूरत मंद लोगों की सेवा करते हैं तो उनके मुख पर प्रसन्नता का भाव आता है जिसे देखकर मन में सुकून उतपन्न होता है । कहा भी गया है -
परहित सरिस धरम नहि भाई । 
पर पीड़ा सम नहि अधमाई ।।
मानव का धर्म ही समाज कल्याण के कार्य करना । बहुत से समाजसेवी संगठन हैं जो निःस्वार्थ भाव से न केवल सेवा करते हैं वरन लोगों को इस योग्य बना देते हैं कि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें ।  वर्षों से नारायण सेवा संस्थान ,उदयपुर (राजस्थान ) इस दिशा में अग्रणीय भूमिका निभा रहा है । वहाँ अपाहिजों को कृत्रिम हाथ , पैर उपलब्ध करवाए जाते हैं । निःसहाय लोगों को मुफ्त इलाज, आवास व भोजन भी निःशुल्क दिया जाता है  गरीब कन्याओं का विवाह करवाना , आँखों का ऑपरेशन आदि कार्य भी वहाँ किये जाते हैं । मानवता की सेवा ही परम धर्म है , यही वहाँ का मूल मंत्र है । यहाँ के संस्थापक कैलाश चंद्र अग्रवाल जी हैं । कई संगठन व उद्योगपति यहाँ तन, मन, धन से अपना सहयोग करने हेतु सदैव तत्पर रहते हैं । हम सबके जीवन में भी ऐसे अवसर आते रहते हैं जब हमें समाज हित में जो भी बन सके अवश्य करना चाहिए क्योंकि दुआएँ अनमोल होती हैं । जब आप दूसरों के हित के लिए आगे आयेंगे तो आपका भी कल्याण अवश्य होगा क्योंकि जो हम दूसरों को देते हैं बाद में वही कई गुना होकर हमें वापस मिलता है यही सर्वमान्य सत्य है । अतः दूसरों को खुशियाँ दें और वही वापस पायें जिससे आप और आपका परिवार सदैव प्रसन्न रहे व जीवन में शांति और संतुष्टि का आगमन होता रहे ।
-छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
इस संसार में हर तरह के लोग हैं ।हर प्रकार की भावनाओं को देखा जा सकता है ।कुछ साल भर जिनको लूटते हैं एक भण्डारा कर खिला देते हैं ।कुछ सेवा को व्यवसाय मानकर वैसा ही शान्ति और सन्तुष्टि खोजते हुए संसार से विदा हो जाते हैं ।कुछ  सेवा मेवा कुछ नहीं मानते इनका मंत्र अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता सा होता है ।इसके अलावा वह लोग होते हैं जिनका कर्म धर्म सेवा ही रहता है और यह निस्वार्थ सेवा कर सच्ची शान्ति का अनुभव करते हैं ।यही धीरे-धीरे मानव सेवा से राष्ट्रोन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।भारतीय परम्परा इतिहास व विश्व धरोहर ऐसे नामों से भरी पड़ी है ।
- शशांक मिश्र भारती 
शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश
यह बिल्कुल सही है कि लोगों की सेवा करने से सुकून और संतुष्टि मिलती है ।धन कमाने की होड़ मानवीय संवेदनाओं पर इतनी भारी पड़ गई, कि लोग रुक कर  इसपर चर्चा करने तक का समय नहीं निकल पाते । जीवन की आपाधापी में ,जहाँ अपनों का ही साथ छूट रहा है,औरों की क्या बात की जाए । सीमित परिवार ने बच्चों को रिश्तों के मीठे एहसास से दूर कर दिया । इकलौती संतानें इतनी स्वार्थी हो गईं, कि किसी के साथ समायोजन करने तैयार नहीं । इकलौती संतान कही खो न जाए इस आशंका के कारण अभिभावकों द्वारा उनकी हर उचित-अनुचित मांगों को पूरा करने का ही परिणाम है कि आज वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ गई है । कल एक विज्ञापन ने मन को छू लिया । एक संस्था द्वारा अशक्त वृद्धजनों  को रोज दोनों समय उनके घर जाकर स्वच्छ, सुपाच्य और संतुलित भोजन कराना, मानवता का श्रेष्ठतम उदाहरण है ।
जब खबर को सुनकर ही इतना सुकून  मिल रहा है, तो जो लोग इस कार्य को मूर्त रूप दे रहे हैं, उन्हें कितना सुख और संतुष्टि मिलती होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । एक बार मैंने एक वृद्ध को हाथ पकड़ कर रास्ता पार करा दिया था ; सच कहूँ तो उस दिन मुझे अपने इंसान होने पर गर्व होने लगा । हममें से कोई भी इस शान्ति और संतुष्टि को पाना चाहता है, तो दिनभर में केवल एक घंटा किसी बुजुर्ग के साथ बिताए । जीवन के इस पड़ाव में बुजुर्ग बहुत अकेले हो जाते हैं वो सबके साथ समय बिताना चाहते है पर उनसे कोई बात नहीं करता । हमारा एक घंटे का साथ, उन्हें तो खुशी देगा ही हमें भी सुकून के साथ उनके अनुभव का लाभ मिलेगा । कभी किसी कार्यालय, बैंक आदि में निरक्षर लोगों की मदद भी बहुत आनंद देती है ।सेवा की चाहत हो तो कहीं भी अवसर उपलब्ध हो ही जाते हैं ।अपनी व्यस्तता के बावजूद भी थोड़ा समय निकाल कर इसे संभव किया जा सकता है ।
- वंदना दुबे
   धार - मध्य प्रदेश
हमारी भारतीय संस्कृति में परोपकार को बहुत महत्व दिया गया है और इसका कारण भी है। नर को ही हमारी संस्कृति में नारायण कहा जाता है। नर की सेवा करना ही ईश्वर की सेवा करना है। यही भाव लेकर जब हम सच्चे और निष्काम भाव से दीन-दुखियों की सेवा करते हैं और उनके चेहरे पर मुस्कान देखते हैं तो उससे कितना संतोष, शांति और संतुष्टि प्राप्त होती है उसे अनुभव ही किया जा सकता है बोल कर, लिख कर बताया नहीं जा सकता।
      गोस्वामी तुलसीदास जी कहा है कि दूसरे का हित करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है। यह भी कहा जाता है कि सज्जन व्यक्ति परोपकार के लिए ही मानव शरीर धारण करते हैं।
      वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, नदी अपना पानी स्वयं नहीं पीती। इसका अर्थ यही है कि वे परोपकार के लिए ही अपना सर्वस्व समर्पण कर देते हैं।  सेवा भावना का विकास बच्चों में बचपन से नैतिक कहानियाँ सुना कर, घर के और बाहर के बड़ों के छोटे-छोटे काम करवा कर आरंभ कर देना चाहिए ताकि उनमें परोपकार और सेवा की भावना मजबूती से विकसित हो सके। हम सेवा करके दूसरों को खुशी प्रदान करते हैं तो उनसे जो आशीष प्राप्त होता है उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। हर व्यक्ति परोपकार हो, सेवाभावी हो, दूसरों की सेवा करने में प्रसन्न हो... ऐसा बनना चाहिए। उसे ईश्वर स्वयं ही मिल जायेंगे।
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
   देहरादून - उत्तराखंड
      आपके द्वारा पूछे प्रश्नों से ऐसा लगता है कि आप मेरी दुखती रग को झिंझोड़ रहे हैं।क्योंकि सत्य के आधार पर उनके उत्तर देना नकारात्मक ऊर्जा से प्रभावित हैं।
      चूंकि लोगों की सेवा का अर्थ मानव सेवा से है।जिसे मुझ से श्रेष्ठ कोई क्या अनुभव करेगा?क्योंकि मैंने हमेशा मानव जाति का भला सोचा और मेरी उस सोच को मेरे विभागीय अधिकारियों से लेकर घर-परिवार मुहल्ले वालों की मानव जाति ने 'सम्पूर्ण पागल' की संज्ञा दी।जिससे उक्त कहावत 'नेकी कर और दरिया में फैंक' अर्थात 'नेकी कर और जूते खा मैंने खाए तू भी खा' चरितार्थ हुई।   माता के जगराते हों या समाजसेवा के बड़े-बड़े मंच हों,उनके पीछे का सच धन ऐंठने के सिवाए कुछ नहीं हैं।चूंकि मेरा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सामाजिक सेवा संगठनों से पाला पड़ा हुआ है।जैसे मानव सेवा के नाम पर स्कूली बच्चों से लेकर विश्व स्तर पर रैड-क्रास संगठन ठग रहा है।किंतु उक्त संगठन ने अथक प्रयास के बावजूद आंतड़यों की तपेदिक के उपचार हेतु मुझे मात्र 20 रिफैंपिसिन केपसूल ही देकर मरने के लिए छोड़ दिया था।विश्व स्वास्थ्य संगठन की बात करूं तो उन्होंने भी क्षमा मांगते हुए बताया था कि वह मात्र देशों को ही धन देते हैं।उनका कहना था कि अकेले बिमार को सहायता देना उनकी पालिसी में नहीं है।उन्होंने यह भी बताया था कि वह तपेदिक उपचार हेतु मेरे राष्ट्र 'भारत' को धन दे चुके हैं।किंतु मुझे तपेदिक रोधी दवाईयां लेने के लिए न्यायालय की शरण लेनी पड़ी थी।परंतु उसके बावजूद उपचार तभी संभव हुआ जब मैं बिमारी की स्थिति में ही नौकरी पर उपस्थित हुआ था।
      सत्य तो यह भी है कि जब से मैंने मानव सेवा से तौबा कर ली है, तब से मुझे सुकून मिल रहा है और लेखन कार्य में अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ।जिसमें पुस्तकें नि:शुल्क बांटने की कुप्रथा संपन्न लेखकों ने चला रखी है।हिंदी सेवाकार संगठन भी कुछ समय पश्चात धन मांग कर कष्ट देते हैं।हालांकि पांचों उंगलिया एक जैसी नहीं होतीं।इसलिए कलम चल रही है और कलम के सहारे सांसें चल रही हैं।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
आज भी बचपन की वो प्रार्थना याद करके मन भाव विभोर हो जाता है ;बोल कुछ ऐसे थे-दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना 
हमारा धर्म हो सेवा ,हमारा कर्म हो सेवा
सदा ईमान हो सेवा,हो सेवकचर बना देना|
यह सौ प्रतिशत सही है| लोगों को ख़ुशी प्रदान करने में जो आत्मिक संतुष्टि मिलती है वह अवर्णनीय है|लोगों की सेवा कर या मदद करने से मन को बहुत शांति प्राप्त होती है चाहे वह छोटी सी सेवा या मदद ही क्यों ना हो|सेवा किसी भी रूप में हो चाहे वह पशु सेवा हो ,लोक सेवा हो ,समाज सेवा हो या अन्य हर रूप में हमें सुख ,शांति ,समृद्धि और संतुष्टि देती है|
                       - सविता गुप्ता 
                      राँची - झारखंड
हमारी संस्कृति और आध्यात्म में  सेवा करनेका  गहन चिन्तन को दर्शाती है । पर अर्थात दूसरे यानी खुद के बारे में न सोच के दूसरों के हित के बारे में सोचना उनकी सेवा करना है ।इसमें मनुष्यों के साथ पूरा प्राणी जगत की सेवा करना आ जाता है । भौतिक और आध्यात्म की दृष्टि से जी मनुष्य दूसरे का हित , कल्याण , मंगल करे । यही मॉनव सेवा है । यही भारतीय धर्म भी है । यही ईश भक्ति और ईश प्रेम है । 
  धर्म ग्रन्थों में कहा भी है ईश्वर दीन , दुखियों , निर्बलों , से  वंचितों में बसता है । इन लोगों की सेवा करना ही ईश की सेवा है ।  इसमें मानुष्य का स्वार्थ नहीं होता है । इंसान को  निःस्वार्थ सेवा करने से शांति , सन्तुष्टि की अनुभूति करता है । मानव जीवन के लिये इससे बड़ा पुण्य कर्म हो नहीं सकता है । सेवा करने से मानव के खुद के दुख , दर्द भूल जाता है । वह मनुष्य अपना इह लोक के साथ  पर-लोक  को भी  सुधारता है । तक्रम करने से जीवन -मरण के दुष्चक्र से मुक्त हो जाता है । मोक्ष मिल जाता है ।
यही सन्देश  मिलता है हमें सेवा करनी चाहिए ।
 नदियों की शुद्धता बहने में है मन की शुद्धता परसेवा करने में है ।  त्रेता युग में वीर हनुमान ने सीता-  राम की सेवा दास भाव से की ।हनुमान के हृदय सीता - राम के अलावा कोई नहीं बसा । सेवा करने में इंसान स्वाधीन होता है । उसे सेवा करने के लिये आज्ञा नहीं लेनी पड़ती है । सेवा में विधायक भाव हाँ ही होता है । अवाज्ञा का कोई स्थान नहीं होता है । हनुमान बजरंगी , मदर टेरेसा इसकी मिसाल हैं । 
सेवा करनेवाला सेवा का मूल्य नहीं लेता है । न ही बदले कोई उपहार की चाहत होती है । सेवा ईशतुल्य इंसान को बना देती है । स्वयं  सेवा करना ही पुरस्कार है ।सेवा में खुद के स्वार्थ का त्याग होता है । वह इंसान सेवा करने से सबकी आंखों का तारा हो जाता है । जनप्रिय भी हो जाता है । जब उस सेवादार का सेवा भाव चरम पर होता है । तो उसे आशीषों की मेवा मिलती है । ऐसे सेवादारों के संग पूरा विश्वसके साथ हो जाता है । वह इंसान अकेला नहीं रहता है । हँसकर सारी पीड़ाओं को झेल लेता है । दूसरों के लिये सुख का सर्जन करता है ।  धरती को स्वर्ग बना देता है । वही इंसान परोपकारी बन विश्व प्रेम और मानवता को दर्शाता है । मानवता के लिए  दानी दधीचि ने इंद्र  को अस्त्र बनाने के लिये अपने शरीर की हड्डियाँ  परहित में दी थी ।  अपनी ऊर्जा का विसर्जन कर श्रद्धा से नतमस्तक रह के विनम्र बना रहता है । हिंदी साहि्य जगत के सूर , तुलसी जी के नाम के  साथ दास जुड़ा हुआ है । हृदय से सारे नाकारात्मक भाव , लोभ , मोह , अंहकार , द्वेष , जलन दूर भाग जाते हैं । अहिंसा का परिवार प्रेम , मैत्री , करुणा , आनंद , शांति जीवनभर साथ रहती हैं ।सेवा को ही वह सच्चा धर्म मानता है ।
मनसा-वाचा - कर्म से सेवा भाव साथ रहता है । जिससे उस पर स्वार्थ हावी नहीं होता है ।
सेवा की तराजू परिश्रम के बाट से सदा झुकी रहती है ।
श्रवण कुमार ने तराजू को  अपने दोनों कँधों पर रख के पलड़ों पर  माता - पिता को बिठा  के सेवा कर तीर्थ  धाम घुमाया था । आज की सदी तो माता -पिता को वृद्धाश्रम ले जा रही है ।
श्री कृष्ण प्रभु ने  आनंदमय हो के राजसूय यज्ञ में ऋषियों के चार न धोए थे । ऐसी ही मिसाल हमारे देश भारत के प्रधानमंत्री मा नरेंद्र मोदी जी इलाहाबाद कुंभ 2019 में मेहतर जाति के 5 लोगों के चरण धोकर सेवा , समरसता का उदाहरण दिया ।स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्यसमाज की शिक्षा , यज्ञ , dआदि से सेवा कर समाज सुधार , स्त्री शिक्षा और हिंदी का गोरव बढ़ाया ।
सेवादार , परोपकारी लोग खुद जल के औरों के अंधेरे 
जीवन में प्रकाश लाते हैं ।
निष्कर्ष यही निकलता है कि सेवा के बिना जीवन का कोई मतलब नहीं है । सेवा ही तप , यज्ञ  है सेवा हितार्थ है ।बेसाहारों  की लाठी बने । पीड़ितों के आँसु पोंछे .
  युद्ध के दौरान जख्मियों की सेवा  रेडक्रास संस्था ने की। आज भी यह रेडक्रास  काम कर रही है ।
बाबा आमटे को कौन भूला सकता है ।ताउम्र  कोढियों की सेवा  कर के वे खुद को इस रोग का शिकार हुये ।
उनके डाक्टर पुत्र और डॉक्टर पुत्रवधु इसी सेवा  के काम में लग के जीवन का ध्येय मानते हैं ।
अंत  में दोहा में कहती हूँ मैं 
 सेवा करके हम भरे ,  मानव , जग के  घाव।
 दुख सागर से पार कर , उनकी  जीवन नाव ।
- डॉ मंजु गुप्ता 
 मुंबई - महाराष्ट्र
पुराने  समय  से  कहा  जाता  है  कि  " करोगे  सेवा  तो  पाओगे  मेवा "  यह  मेवा  कोई  खाने  की  वस्तु  नहीं  है  बल्कि  शांति   और  संतुष्टि  ही  है ।   जीवन  में  पैसा  ही  सब कुछ  नहीं  है  ।  बिना  किसी  लाभ-हानि  की  परवाह  किए  जो  निस्वार्थ  भाव  से  दूसरों  की  सेवा  करते  हैं, उन्हें  ही  शांति  और  आत्म संतुष्टि  मिलती  है ।  तन-मन  से  किसी  बीमार  की  सेवा  करना,  कठिन  कार्यों  में  सहयोग  करना,  किसी  की  समस्याओं  को  अपनी  सूझबूझ   से  सुलझाना,  भूखों  को  भोजन  कराना, बुजुर्गों,  अपंगों,  अनाश्रितों  की  बीमारी  में  देखभाल  करना, रोतों  को  हंसाना  इत्यादि  से  बढ़कर  कोई  पूजा  और  धर्म  नहीं  है ।  ये  किसी  दिखावे  के  लिए  नहीं  बल्कि  स्वयं  की  खुशी  के  लिए  स्वेच्छा  से  किया  जाता  है  तो  मन  के  भीतर  असीम  शांति  और  आत्मसंतुष्टि  महसूस  होती  है.......असीम  खुशी  महसूस  होती  है  साथ  ही  ऐसे  नेक  कार्यों  की  बदौलत  जो  दुआएं  मिलती वे  फलीभूत  होती  है  । 
          -  बसन्ती पंवार 
            जोधपुर - राजस्थान 

" मेरी दृष्टि में " सेवा भी आज कल व्यापार बन गया है । जिसके कारण से शान्ति और सतुष्टि नंजर नहीं आती है । इसे कहते हैं - ये कलयुग है
                                         - बीजेन्द्र जैमिनी




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