लघुकथा दिवस - 2020

 

19 जून को माधवराव सप्रे की जयन्ती को लघुकथा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है । भारतीय लघुकथा विकास मंच ने भी सम्मानित करने का निणर्य लिया और सुबह बजें से दोपहर एक बजें तक लघुकथाओं का आमंत्रित किया गया ।  ठीक दस बजें शुरू किया गया और दोपहर एक बजें तक जारी रहा है । जिसमें 60 से अधिक लघुकथा आई । इक्कीस लघुकथाओं को डिजिटल " लघुकथा दिवस रत्न सम्मान - 2020 " से सम्मानित किया गया है । उन इक्कीस लघुकथा के साथ सम्मान पत्र के रूप में , यहाँ पेश किया जा रहा है : -

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 01                               

                         गोद उठाई की रस्म               
           

  " माँ !   जल्दी से नवजात के लिये ओढ़ना , बिछोना , कपड़े दो । '" 
डॉ बेटी विभा  ने  अपनी माँ से कहा . 
 "अचानक ऐसा क्यों कह रही हो ?"
 " अभी   बस में प्रसव वेदना से पीड़िता ने लड़की को जन्म दिया है ।  उसे नगरपालिका के अस्पताल में भर्ती करा के आयी हूँ ।  संजोग से  मेरे संग मेरी डॉ सहेली शिल्पा  भी उसी बस  में थी ।    हमारी सहायता से डाक्टरों ने उसे भर्ती करने में कोई आनाकानी नहीं की । उसके पति ने उसे छोड़ा हुआ है । उसे आर्थिक मदद भी चाहिए । "
  " ठीक है , यह लो उसके पहनने के लिए मैक्सी ,  धोती ,  नवजात के लिए कम्बल ,चादर ,  कपड़े और जच्चा के लिए हरीरा ,  एक हजार का नोट भी  और  आगे भी उसे जरूरत होगी तो हम उसकी मदद करेंगे  ।" 
 सब समान  फटाफट थैले में भर चेहरे पर मानवता की मुस्कान लिए डॉ विभा   फुर्ती से अस्पताल में  पहुँची और दूसरी अजनबी नवजात बेटी   को अपनत्व  की गोद में ले के गोद  उठाई की रस्म कर खुशी से झूमने लगी और मानवता की रक्षा हेतु एक बेटी के कंधों ने दूसरी  नवजात बेटी की ऊँगली थाम उसकी माँ के हाथ में पर्स में से एक - एक हजार के दो  नोट  थमा के फिर मिलने का और आर्थिक मदद का वादा कर दोनों सहेलियाँ फर्ज का  आशियाना   बन अपने घर चल दी . नवप्रसूता अपनी आँखों में उन दोनों की  इंसानियत की ऊँचाई  की चमक  को देख रही थी .  
 - डॉ मंजु गुप्ता
 मुंबई - महाराष्ट्र

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 02                                   

                                     मदद                           

मोबाइल की घंटी  बज उठी। रमा ने देखा बेटे सुमित का फोन था, वह बोल रहा था  "मां रानी को कैंसर हो गया है उसके इलाज के  लिये पैसे चाहिए।"  रमा की आंखें नम हो गई थीं सुमित और उसकी पत्नी रानी के दुर्व्यवहार को याद कर के, फिर भी वह  अपने को संभाल कर संयत स्वर में बोली  "आ जा।" फोन रख कर वह रोने लगी थी उसकी आंखों से आंसुओं का सैलाब जारी था। वह सोच रही थी कि थोड़े दिन  तो बहू-बेटे ने साथ रखा वहां भी उनकी नजर पेंशन पर ही रहती थी। एक दिन बहू रानी, सुमित से उनके  ही सामने बोल रही थी "सुमित इस घर में या तो मैं रहूंगी या तुम्हारे माता-पिता अगर इन्हें रखना है तो मैं तुमसे तलाक ले लूंगी।"  उसके बाद रानी ने उन्हें निकालने के लिए क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं और आखिरकार उन्हें घर से निकाल कर ही चैन की सांस ली थी। रमा और उसके पति ने उसी शहर में अलग मकान किराए पर ले लिया था। लगभग 3 वर्ष हो गए,आज सुमित ने फोन किया। वह रानी के इलाज के लिए रुपए लेने आ रहा है। मां ने अपने को संभाला और पति को सारी बात बता दी थी। उसने अलमारी खोलकर चैक बुक निकाली ही थी कि  कॉलबेल बज उठी। रमा ने दरवाजा खोला सामने सुमित खड़ा था पर उसके चेहरे पर प्रायश्चित का कोई भाव नहीं था। सुमित  दरवाजे पर खड़े-खड़े ही बोला मुझे 3 लाख रूपये चाहिए। रमा ने उसे चैक पकड़ा दिया था। बिना किसी वार्तालाप के वह चैक लेकर जा चुका था। रमा दरवाजे की तरफ बड़ी देर तक निहारती रही।*****
 - प्रज्ञा गुप्ता  
बाँसवाड़ा - राजस्थान

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 03                                

                          खिलौने और भोला                

मालती ने तुनकते हुए रूखे स्वर मे कामवाली बाई को ताना मारा-
' कम्मो ! ठीक है तू मेहनत करके कमा रही है और बेटे को कान्वेंट मे पढ़ा रही है अच्छी बात है लेकिन उसे अच्छे संस्कार भी तो दे '
कम्मो एकदम सहम गई फिर डरते हुए पूछा-
' मैडम ! मेरे भोला से कोई गलती हो गई क्या ? कल से उसे साथ लेकर नहीं आऊँगी वो तो परीक्षा खत्म हो गई आज इसलिए -- वैसे क्या किया उसने मैडम जी ?'
' किया तो कुछ नहीं इतना बड़ा हो गया है फिर भी बड़ों के बात की कोई कद्र नहीं कब से नीरव उसे अपने साथ खेलने को कह रहा है तीन चार
 किस्म के शानदार इलेक्ट्रॉनिक खिलौने  भी निकाल कर ले आया लेकिन उसने खेलने से मना कर दिया मैंने भी उससे कहा लेकिन वह टस का मस नहीं हुआ ऐसी भी क्या जिद '
इस पर कम्मो ने भोला को डाँटते हुए पूछा-
' क्यों भोला ! घर मे तो दिनभर खिलौनों की रट लगाये रहता है यहाँ भैया के साथ खेलने मे क्या परेशानी है ज्यादा समझदार मत बन जा चुपचाप खेल'
दस बर्षीय भोला होले से बोला-
'  मै नहीं खेलूँगा '
तभी मालती बोली-
' देख ले अपने बेटे को अभी से बात नहीं मानता है बड़ा होकर न जाने क्या करेगा '
अबकी कम्मो बरस पड़ी भोला पर-
' पड़ेगी एक सब खेलने लग जायेगा बता क्यों नहीं खेलेगा ?'
' मम्मी ! ये सभी खिलौने चायना मेड है और स्कूल मे सर ने बताया है कि चायना के कारण हमारे कई सैनिक शहीद हो चुके हैं  इसलिए वहाँ के सामान का उपयोग करना देशभक्ति के प्रति लापरवाही व सेना का अपमान है '
              भोला के मुख से सत्य सुन मालती  झेप गई अब भोला उसे अपने से कहीं ज्यादा समझदार और  बड़ा नजर आ रहा था. ****
- मीरा जैन
उज्जैन - मध्यप्रदेश

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 04                                   

                              बदलते उसूल                         

पहली तनख्वाह मिलने की खुशी में अंतर्मन तक भीग गयी थी सुमन... आखिर कितने वर्षों की मेहनत के बाद यहाँ तक पहुँची थी। वह ऑफिस से सीधे मार्केट गयी। घर पहुँचते ही उसने चहक कर सबको इकट्ठा कर लिया।
"यह तेरे लिए मेरी पहली तनख्वाह से खरीदा हुआ उपहार..." पहला पैकेट उसने छोटी बहन की ओर बढ़ाया। दोनों के चेहरे पर बेशुमार खुशी थी। दूसरा पैकेट छोटे भाई को देते हुए उसके चेहरे पर खुशी के साथ जिम्मेदारी वाला भाव भी नज़र आया। तीसरा पैकेट पिताजी को दिया और कहा.. "आपने मुझे इस लायक बनाया कि मैं आज आपके लिए कुछ खरीद सकी.. आपके आशीर्वाद और सहयोग के बिना मैं कुछ नहीं हूँ... कृतज्ञतास्वरूप मेरे स्नेह की तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिए.." पिता की आँखों मे आशा और स्नेह के असंख्य दीप जल उठे।
अंत में उसने माँ की ओर देखते हुए एक पैकेट उनकी ओर बढ़ाया ही था कि माँ एकदम से पीछे हटते हुए बोलीं.... "न न बेटा... हमें तेरी कमाई खाकर अधर्मी नहीं बनना.. तेरा पैसा इकट्ठा होने दे, तेरी शादी में तुझे ही दे देंगे, हमें कुछ नहीं चाहिए.."
वह एकदम बुझ सी गयी। फिर उसने माँ का हाथ पकड़ा और सीधे उनकी आँखों में देखा...
"माँ! एक बात बताओ यदि आपको पहला बेटा होता और आज वह कमाने लायक होता तो आपको ज्यादा खुशी होती न..?? उसकी कमाई पर आप अपना हक समझती और उसके दिए उपहार पर आपत्ति भी नहीं करतीं.."
माँ निरुत्तर देखती रही... वह आगे बोली.."मैं लड़की हूँ तो क्या आपने मेरी शिक्षा या परवरिश में कोई कमी की..? या बेटे और बेटी के लिए कोई अलग मापदण्ड रखे?? नहीं न.. जब एक जैसा दिया है तो एक जैसा लेने में आपत्ति क्यों??" वह उदास हो गयी... "शायद... इसी कारण लोग बेटी नहीं बेटा चाहते हैं..."
माँ अचानक ही सदियों का सफर कर आयी... थोड़ी देर शून्य में देखती रही और उसने सुमन को गले से लगा लिया। उसका मन तरल होने लगा... कुछ पिघल कर आँखों से अनवरत बहता रहा...!****
- डॉ वन्दना गुप्ता
  उज्जैन - मध्यप्रदेश

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 05                                   

                                  लाॅकडाउन                           

 जैसे ही रामू को होश आया वो जोर जोर से चिल्लाने लगा - " छोड़ दो मुझे  ... छोड़ दो मुझे " । डाॅक्टरों और नर्सों के बीच घिरा वह बोला - कौन लाया मुझे यहाँ  ?  वहाँ मौजूद पुलिसकर्मी ने पूछा - कौन सा नशा किया है  ? 
" हा हा  ,  नशा " - रामू बुदबुदाया  । उठते हुए  , जाने दो जाने दो  । पुलिसकर्मी और नर्सों  ने उसे जोर से दबाते हुए बिस्तर पर जबरदस्ती लिटा दिया  । वह उठता और भागने की चेष्ठा करता  । नर्सों ने उसके हाथ पांव बैंडेज से कस दिए  । चिट्टा लिया है या कोई और नशा किया है - डाॅक्टर ने प्रश्न किया  ।
नशा...  हा हा...  नशा - वो बोला  ,  " नशा किया होता तो...  " । " तो क्या ! " - पुलिसकर्मी ने पूछा  । फिर कैसे गिरा था - पुलिसकर्मी ने प्रश्न किया  ।
" अरे कोतवालों पैग लगवा दो जरा  " , रामू ने गाने के लहजे में  कहा  ।
कौन सा नशा किया है  - डाॅक्टर ने पूछा  । 
कोई नशा नुसा नी कितेया माराज - रामू बोल्या  । जे नशा कितिरा हुन्दा ता हऊँ ठीक ठाक उणा था  ।
पुलिसकर्मी ने उसे एक थप्पड़ जडते हुए कहा - मुर्ख बना रहा है  । कौन सा नशा किया है  ? सच सच बता  । 
तभी उसकी पत्नी और उसका बेटा अस्पताल के उस वार्ड में पहुँच गए जहाँ रामू एडमिट कर रखा था । पुलिस और डाॅक्टर को बताते हुए  उन्होंने कहा - जिस दिन से देश में लाॅकडाउन लगा हुआ है । उस दिन से यह बहुत परेशान हैं  । कई दिनों से इन्हें दारू नहीं  मिल रही है  । पागल सा हो गया है  यह ।  आज सुबह ही घर से भाग गया  । हमनें पकड़ने की कोशिश की लेकिन  ...  निकल गया । पड़ोसी  ने फोन पर सूचना दी कि रामू  सड़क से  नीचे गिर गया है और पुलिस उसे बेहोशी की हालत में अस्पताल ले गई है  ।****
 - अनिल शर्मा नील 
 बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 06                                

                               अपशगुन                         

दादा-दादी जी के पचासवीं वर्षगांठ पर हम सभी गांव गये थे।अगले दिन ही समारोह था।दादा जी ने द्वार पर खड़े आम का पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा,"इसे आज कटवा देते हैं, इसके छाया की वजह से जमीन का बड़ा हिस्सा बेकार है। कुछ उपजता भी नहीं!द्वार भी बड़ा लगेगा।"तभी दादी मां बोली,"ऐसा क्यों कह रहे हैं, मैं जब व्याह कर आई थी तभी से अपने द्वार पर है।" उन्होंने मुझसे कहा था कि, " कौशल्या मेरे बाद इस आम के पेड़ का ख्याल रखना।ये हर वर्ष असंख्य फल देता है,पथिकों को छांव, अनगिनत पक्षियों के नीड़ हैं इसके शाखाओं पर साथ ही लग्न के समय, रीति- रिवाज निभाने यहां की महिलाएं आती हैं और मेरी भी सभी से मुलाकात हो जाती है। मैं ये पेड़ नहीं कटने दूंगी।"दादा जी कुछ सुनने को तैयार नहीं थे!तभी लकड़हारा आ पहुंचा,दादी जी की आंखें छलक आई, परेशान होकर वो कभी आंगन में जातीं कभी आम के पेड़ पास खड़ी होकर उसे निहारती,  उसे सहलाने लगती।ऐसा लग रहा था कि उनके किसी अपने को काटने की बात हो। फिर मिन्नतें करने लगीं बोली, "इसने आपका क्या बिगाड़ा है,इसे काटकर आप खुशियां कैसे मना सकते हैं? फिर दादा जी गुस्से में बोले"कौशल्या ये पेड़ है तुम्हारा रिश्तेदार नहीं!"दादी जी झल्लाती हुई बोली,"ये अनर्थ हो रहा है, हरा-भरा पेड़ काटना अपशगुन होता है।"दादा जी बोले"अंधविश्वास में जीना छोड़ो।"जैसे ही पेड़ पर पहली कूल्हाड़ी चली,दादी जी रोते हुए आंगन में चली गई, जैसे कूल्हाड़ी उन्हीं पर चल रही हो।"पेड़ कटकर गिरने की आवाज सुनकर दादी जी चुप हो गई और बोली,"बहु मैं भोजन नहीं करूंगी! अपशगुन हो चूका है!ना ही कभी कभी तेरे ससुर जी से बात!और वो सोने चलीं गईं।"सुबह-सुबह हम सभी मिलकर उन्हें पचासवीं वर्षगांठ पर उन्हें बधाई देने कमरे में गए तो देखकर यूं लगा कि "दादी जी की खुली आंखें और रुकी सांसें ये कह रहीं थी कि सचमुच अपशगुन हो गया।" "कल दादी जी रो रही थी आज पूरा घर विलाप कर रहा है।" "मैं सोच रही थी कि'ये अपशगुन है या एक संयोग।" ***
    - रेणु झा
रांची - झारखंड

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 07                                   

                                   जिंदा वें                          

    अचानक उनको ख्याल आया ,कई दिनों से दो आवारा लड़के बाइक पर उनका पीछा कर रहे थे। कभी उन्होंने मुंह मोड़ लिया ,कभी वह रास्ता छोड़ दिया। धीरे धीरे वे उन पर फब्तियां कसने ,सीटी बजाने और अश्लील हरकतें करने लगे ।वें बर्दाश्त करती रही ।,,,,उस दिन तो हद हो गई ,वे शबीना का दुपट्टा खींचकर ले गए ।
   कई दिनों तक दोनों कॉलेज नहीं गई ।वे  उनके घर के चक्कर लगाने लगे ।तंग आकर मीना शबीना के घर गई, "शबीना इन आवारा लड़कों ने तो जीना दुश्वार कर दिया ", उसकी आंखें भर आई ।
  "अब्बू जान को बता दे,,,,,,,?"
 "अब्बू तो पहले ही बीमार है, एक चिंता और लग जाएगी ,,,,,,।"
   "तो पुलिस में रिपोर्ट कर दे,,,?"
 "पगली ,उन्होंने ही तो इनको पाल रखा है ।बदमाशों का तो कुछ नहीं करेंगे बल्कि हमारे घर वालों की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी ।"
     "तो फिर दोनों जहर खा लेते हैं,,, सारा झंझट ही मिट जाएगा ,,,,,ऐसी जिल्लत की जिंदगी जीने से तो मर जाना ही बेहतर है,,,।" कहते हुए मीना के होठ कांपने लगे।
 शबीना सोच में पड़ गई,,,,,,,।
 अचानक वह उत्साह से भर उठी,,,," मीना यदि मरना ही है तो क्यों न लड़कर मरे,,,अपराध तो वें करें और मरे हम ,,,,,,।"
        "यह तो एकदम ठीक है ,,,तो फिर चलो कालेज," मीना मैं भी जोश आ गया !
       चारों कदमों में नया उत्साह भर गया और उसी दिन वे जिंदा हो गई।****
  - मधुकांत
 रोहतक - हरियाणा 

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 08                                   

                    अधिकार कर्तव्य भी चाहते हैं               

कल रात को ही भैया का फोन आया था- मैं मम्मी, पापा और तुम्हारी भाभी को भेज रहा हूँ .............सुनते ही मैंने मम्मी के आने की पूरी तैयारी कर ली थी ।उनके लिए बिस्तर लगाना ,खाना बनाना इत्यादि ।मम्मी के गिर जाने की वजह से उनकी रीढ़ की हड्डी में फ्रेकचर हो गया था।यद्यपि वो भैया भाभी के पास रहने गए थे परन्तु मम्मी के फ्रैक्चर के कारण उनको आना पड़ा।उनका इलाज वहाँ भी कर सकते थे परन्तु भाभी की वजह से भैया ने उन्हे यहाँ भेजने का निर्णय किया । भाभी मम्मी का ध्यान नही रख रही थी। मम्मी ने भाभी के व्यवहार के कारण खाना भी बन्द कर दिया था।उनकी ट्रेन तीन बजे आने वाली थी, ठीक चार बजे मम्मी, पापा और भाभी आ गए। कुछ लोगों की मदद से मम्मी को बिस्तर पर लिटाया , और उनका हाल जानने लगे कि इतने में ही भाभी के पापा का फोन आ गया।भाभी बात करने के बाद बताने लगी कि उनके भैया उनको लेने के लिए आ रहे है.........सब हैरान थे कि मम्मी को इस हालत मे छोड़कर वो अपने मायके कैसे जा सकती है ?सबने समझाया पर भाभी नही मानी ,और कहने लगी कि -"इनकी बेटियां हैं इनके पास" "इनका अच्छा ध्यान रखेंगी " । सबके मना करने के बावजूद वे पाँच बजे तक चली गई, कयोंकि उनकी भाभी को प्रसव होने वाला था । मम्मी और पापा बड़ी विवशता के साथ मुझे देखने लगे ............. आनन-फानन में मैंने अपने स्कूल मे छुट्टियों के लिए आवेदन किया और मैं उन्हे संभालने में वयस्त हो गई। सोचने लगी कि किस अधिकार से कुछ दिन पहले ये कह रही थी कि मुझे मकान मे अपना हिस्सा देकर अलग कर दो । अधिकार कर्तव्य भी माँगते है...........................क्या उनका कोई कर्तव्य नही था मम्मी के प्रति ?यदि वे इस घर पर अधिकार रखती हैं तो उनके कुछ कर्तव्य भी है ।
कैसी विडम्बना है आजकल की बहुओं की ख्वाहिश होती है कि हमे बेटी समझा जाए पर बेटी बनकर माँ-पिता जैसे सास ससुर की मुसीबत में साथ नहीं दे सकती ।उनका सहारा नही बनना चाहती परन्तु अपने लिए सब चाहती है । लेना जानती है पर देना नहीं .......।
- जगदीप कौर
अजेमर - राजस्थान

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 09                                

                                      स्टेशन                             

'' चने ले लो... चटपटे मसालेदार... '' ट्रेन के 
स्लिपर क्लास में चनेवाला अपनी चटपटी आवाज़ में चने बेचने की कला का उम्दा प्रदर्शन कर रहा था। यह आवाज सुनकर मैं चौंक पड़ी, इसी तरह पहले भी एक चनेवाला नियमित रूप से उस स्टेशन पर आता जहाँ मैं ऑफिस जाने के लिए रोज ट्रेन पकड़ती थी। भूख नहीं होने पर भी मैं चने खरीद लिया करती थी। एक दिन वह चनेवाला उस स्टेशन पर नहीं दिखाई दिया। फिर अगले दिन... दूसरे और तीसरे दिन भी गायब रहा। पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया... फिर लगा कि कहीं और चने बेचने जाता होगा। चौथे दिन भी नहीं आया तो मन में कुछ बेचैनी सी महसूस हुई...
   अगले दिन सन्डे था, फिर भी मैं पता नहीं किस डोर से बंधी स्टेशन खिंची चली आयी। आसपास के दुकानदारों से पता चला कि पास ही में एक टीन के शेड के नीचे रहता है। मेरे पैर स्वतः उस शेड की तरफ मुड़ गए। वहाँ देखा तो वह चनेवाला एक बेंच पर एक कंबल बिछा कर लेटा हुआ था। शायद उसे बुखार था...।
   आहट सुनकर उसने सिर उठा कर देखा तो आश्चर्य चकित हो गया, '' अरे मैडम जी आप! आप तो वही हैं न जो ट्रेन में मुझसे चने खरीदती थीं, यहाँ कैसे? "
   " हाँ, 3-4 दिनों से तुम्हें न देखकर न जाने क्यों मुझे लगा कि तुम मुसीबत में होगे... आज छुट्टी थी सो मैं अनायास ही यहाँ चली आयी।
'' अरे! तुम्हें तो तेज बुखार है। "
" हाँ, आज 3 दिन हो गए बुखार उतर ही नहीं रहा... मैं अकेला आदमी, कोई आगे ना पीछे... समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ? ''
     '' चलो मैं तुम्हें डॉ के पास ले चलती हूँ। "
" मुझ गरीब के लिए आप क्यों इतना परेशान हो रही हैं... आप मुझे देखने आयीं यही बहुत है मेरे लिए। "
   मैंने उसे डॉ से दिखाया फिर कुछ पैसे भी दिए तथा दवाई खाते रहने का निर्देश दे कर चली आयी। मैं बहुत खुश थी कि मेरे अचेतन मन ने मुझसे एक नेक काम करवा दिया था। 
   मैंने चनेवाले की आवाज पर सिर ऊपर उठाया।  उसे फिर से देख कर एक सुकून की मुस्कान मेरे होठों पर आ गयी और चनेवाले की आँखों में कृतज्ञता के भाव उभर आए। ****
                        -  गीता चौबे "गूँज" 
                        रांची - झारखंड

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 10                                   

                                 कायान्तरण                         

‘प्राची, अपनी देह का त्रिभंगी आकार देखा है – झुके हुए कंधे, बढ़ी हुई तोंद, गर्दन-गले की उभरी हुई हड्ड़ियाँ, टेढ़े-मेढ़े कटे हुए नाखून और बाल ऐसे जैसे बालू में से निकाले गए हों। उफ! तेरे हाल पर रोना आ रहा है। क्या किसी नाटक में विदूषक का रोल करती है? कल तक अपनी सुडौलता के लिए जानी जाने वाली इस कली की आज यह दशा? शहर में एक-से-बढ़कर एक ब्यूटी पार्लर, जिम सेंटर,.... और.....मौजूद हैं। लेकिन जब कोई अपने तन से दुश्मनी पर उतर आए तो किया क्या जा सकता है? सौंदर्य की हत्यारिन! गावदी! ज़िंदगी को बट्टे-खाते क्यों लिख बैठी?’ आँखों में तरस का भाव लिए, शुभी एक सांस में सब कह गई।
प्राची के होठों पर हँसी किसी नन्ही गिलहरी की तरह फुदकने लगी, ‘सखी, प्लेटफॉर्म आ चुका है; शब्दों की गाड़ी का ठहराना बनता है। वैसे तुम्हारी ज़ुबानी अपना हुलिया जानकर रोमांच हो रहा है, अपने शब्दों की कुदाल से सब खोद डालो, सम्भव है, गुप्त खजाना मिल जाए। तुम कैसे भूल गई अपनी कही बात को कि वर्तमान से न्याय करना है तो भूलकर भी भूतकाल के घर में ताका-झाँकी नहीं करनी चाहिए। मेरी शुभचिंतक! तुम यह सब कहकर एक ओर हुई मगर ऐसा करने से मिलने वाले सुख का अहसास तो नहीं कर पाई। करती भी कैसे? केंचुल उतार फेंकने का सुख तो साँप ही जानता है न।’
- कृष्णलता यादव
गुरुग्राम - हरियाणा

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 11                                

                                 इन्तजार                        

"माताजी! क्या बात है आप रोजाना द्वार पर आकर बैठ जाती हो? किसका इन्तजार करती हो?"
"बेटी! अपने बेटे का, एक दिन जरूर आएगा वह मुझे लेने ।"
"वह नहीं आएगा माताजी! अगर उसे लेने आता तो आपको यहाँ वृद्धाश्रम में छोड़कर ही क्यों जाता? "
"नहीं बेटी! एक दिन उसे अपनी गलती का अहसास जरूर होगा, आखिर मैं उसकी माँ हूँ। "
"माताजी! आजकल  की सन्तान संवेदना शून्य हो गयी है। वह यह भी भूल जाती है कि उनके माता पिता ने उन्हें पाल पोस कर बड़ा किया, आत्मनिर्भर बनाया। माताजी क्या आपको यहाँ कोई परेशानी है क्या हमसे कोई भूल हुई या रेखा जी ने कुछ कहा जो आप यहाँ रहना नहीं चाहती ? "
"नहीं बेटा! तुम सब तो बहुत अच्छे हो।मेरा इतना ध्यान रखते हो, रेखा बेटी भी बहुत अच्छी है दोनों समय आकर हम सब से पूछती है कि हमें कोई तकलीफ तो नहीं मुझ यहाँ कोई परेशानी नहीं बिटिया।"
"फिर भी आप वहाँ क्यों जाना चाहती हो जिस घर में आपका
 सम्मान नहीं, आपको भरपेट भोजन नहीं मिलता, आपके बेटा बहु आप पर अत्याचार करते हैं। "
"अपनी ममता को कैसे समझाऊँ बेटी? जैसा भी है वह मेरा बेटा है, मेरा मन होता है रोज अपने बेटे को देखूँ, अपने पोते पोती को  गोद में खिलाऊं, उनकी बाल लीलाओं को देखूँ। "
"इतना सब आपके साथ होने पर भी माताजी और उस निर्दयी को आपकी याद भी नहीं आती। "
"बेटी! वह पछताएगा अपनी गलती पर, उसे मेरी याद भी आएगी।"
"हां माताजी वह पछताएगा भी और उसे याद भी आएगी आपकी किन्तु तब बहुत देर हो चुकी होगी जब उसके साथ भी यही कहानी दुहराई जाएगी। "  ***
- डा. साधना तोमर 
बड़ौत (बागपत) - उत्तर प्रदेश

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 12                                   

                                तुलसी का बिरवा                      

जब मैनेजर को पता चला कि सुनीता  तुम्हारी नर्सरी  है ,तो बहुत खुश हुए और बोले कि कुछ पौधें यहाँ कार्यालय मे भी लगवा दो ।
"समय रहते तुमने ये काम शुरू कर दिया "!वर्ना तो .....।
रवि ने उसको देखते हुए कहा।
"हो जायेगा,"कढाई में सब्जी भूनते हुए  बोली ।
  सुनीता को याद आया वह दिन जब उसने इस घर मे शिफ्ट किया था ।
ये लो बेटा तुलसी का बिरवा" "कल जब तुम माली से बात कर रही थी तुलसी को घर में लगाने के लिये, मैने सुना ,जान गयी कि तुमको भी पेड़ पौधौं से प्यार है "।
"आखिर तुमने नये जीवन की शुरुआत की है ,मैने सोचा इससे अच्छा  उपहार तो कोई हो नही सकता "।
"अब तुम इसकी देख भाल करना"। 
 बगल के फ्लैट मे रहने वाली ,,आँटी हाथ मे पौधा लिये मेरे पास आयी थी ।
"जी आँटी ,माँ कहती थी ,हर  स्त्री को तुलसी मे रोज जल देना चाहिए, सीचने पर सुख और सौभाग्य वृद्धि होती है ।और अनेक रोगो मे भी इसका सेवन लाभकारी है ,पर्यावरण की सुरक्षा अलग होगी ..।
उसने अपनी बालकनी से देखा था आँटी ने अनेक पौधें लगा रखे थे ।
एक नर्सरी बना रखी थी, उसमे वो हमेशा उन पौधों की देखभाल करती नजर आती थी ।
खाली समय जब भी मिलता उसके लिये एक पौधा ले आती,और बताती इसमे इतनी खाद डालनी है कैसे देखभाल करनी है  उसके पास भी अनेक पौधे हो गये थे।
"क्या बात है ?"आज तुम बहुत उदास लग रही हो ,मुझे बताओ मै क्या कर सकती हूँ तुम्हारे लिए?" आँटी ने सोफे पर बैठते हुए उससे पूछा ।
"अभी तक अनू की ही फीस भरनी होती थी ,अब रानू की भी भरनी होगी हमारी तो सीमित आय है। दोनो का कैसे होगा ,मै भी नौकरी नही कर पाऊँगी ,बच्चे छोटे हैं। उसने धीमी आवाज मे कहा।
बेटा मेरे ,दोनो बेटों के यहाँ से चले जाने पर ,मै और तुम्हारे अंकल अकेले रह गये थे, समय तो कटता नही था  ।तब मैने इन पौधों मे अपने बच्चे तलाशने शुरू किये ।
और फिर कुछ पौधों से ही धीरे -धीरे एक नर्सरी  बना ली उससे होने वाली आमदनी से मै गरीब बच्चों की पढाई पर खर्च करती हूँ।जिससे मुझे आत्मिक सुख मिलता है ।
"अब तुम भी मेरे  साथ जुड़  जाओ
नर्सरी से जो आमदनी होगी तुम अपनी गृहस्थी पर खर्च करना "
इस तरह तुम्हारी घर बैठे ही आमदनी हो जायेगी,शुद्ध हवा और उन को देख आँखों को भी सुख मिलेगा ।
आँटी की दी शिक्षा इतनी कारगर होगी ये सोचा नही था ।
कि उसकी शहर में सब से बड़ी नर्सरी होगी ।और आमदनी से घर खर्च भी ठीक से हो पायेगा ।
"अरे क्या सोचने लगी ,देर हो रही है
नाश्ता  बन गया ,?"
रवि ने तैयार होते हुए उस से पूछा ..।
अभी परोसती हूँ ..कह कर नाश्ता लगाने लगी ।***
- बबिता कंसल
दिल्ली

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 13                                 

                             आजादी दिवस                    

मां    _ आज तुम भी काम मत  करो ।
नहीं काम करेंगे तो मालिक पगार में से काट लेंगे और डॉट अलग से।
नहीं मां _आज तो आजादी दिवस है कल हीं मालिक का लड़का रुपेश मुझे बता रहा था कि _ आजादी दिवस को सब की छुट्टी होती है।
रूपेश भैया जी भी सिर्फ झंड़ा फहराने स्कूल गए और अब   सारा दिन खेलने को बोल रहे थे।
बेटा ,वो अमीर लोग हैं उनका रोज कुछ-कुछ होता रहता है ।
मुझे जल्दी से सब गोइठा बनाने दे ।
गोलूआ मायूस सा एक कोने में बैठ गया और रूपेश के द्वारा फेंक दिया गया छोटे से झंड़े को बड़े प्यार से पकड़ रखा था ।
मां का हृदय द्रवित हो गया ।सोचने लगी पहली बार जिद कर रहा है मुझे बोल रहा है आजादी दिवस देखने को जाने का मन है इसका ।
बिन बाप का बच्चा और मेरा हैं हीं कौन ।
अचानक रमिया काम दरकिनार कर बेटे का हाथ पकड़ कर अदम्य साहस से कहा __ चल पास वाले बड़े मैदान में । हम भी इस बार आजादी दिवस मनाते हैं ।कल जो मालिक बोलें सुन लूंगी ।
गोलूआ का चेहरा खिल उठा और झंड़े को सीने से लगाए दोनों निकल पड़े ।
दूर कहीं भोंपू बज रहा था ___ अपनी आजादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं ।****
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 14                                  

                             मैं द्रोपदी नहीं हूँ                            

शाम को शराब पीकर जब भीखू अपनी झोपड़ी में पहुँचा, तो रधिया खाना बना रही थी। भीखू उसके पास बैठते हुवे लड़खड़ाती जुबान से बोला--"रधिया ! मुझसे...आज... बहुत बड़ी... गलती हो गई रे...।"
"क्या गलती हो गई ?" रधिया ने तवे पर रोटी डालते हुवे पूछा।
"मैं तुझे कैसे बताऊँ ।"
"मत बता, शराब पीयेगा तो गलती होएगी ही।"रधिया ने थोड़ा गुस्से से कहा।
भीखू गर्दन नीची कर रोने लगा, तो रधिया ने उस की ठुड्ढी पकड़ कर चेहरा ऊपर उठाते हुवे कहा --"चुप हो जा, मैंने तुझे कई बार समझाया था कि शराब पीना छोड़ दें, लेकिन तू मानता ही नहीं। खैर, चल बता क्या गलती हुई है तुझसे ?"
रधिया से आँख चुराता हुआ, वह बोला --"मैं...तुझे जुएं मैं हार गया...एक रात के लिए...।"
"क्या...?"
"हाँ...बस तू एक... रात के लिए... कलवा के पास चली जा... नहीं तो वो गुंडा... मुझे मार डालेगा।"
रधिया आगबबूला हो गई बोली --"तुम जैसे नीच इंसान को मार डाले तो ही अच्छा है। तुम्हें मेरी इज्जत की तनिक भी परवाह नहीं है, तो मैं तुम्हारी क्यों करूँ।" थोड़ा रुककर वह फिर बोली --"मैं द्रोपदी नही हूँ, समझे।"***
- राम मूरत 'राही '
इन्दौर - मध्यप्रदेश

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 15                                 

                                 सॉरी                               

मुझे उनसे सॉरी बोलना पड़ा लेकिन मैं सोच रहा था, 'आज के मानव की सोच कैसी हो गई है।'
हुआ यह था कि सड़क पर काफी भीड़ होने के कारण जाम की स्थिति बनी हुई थी। मैं सोच रहा था इतनी भीड़ आखिर क्यों है? धीरे-धीरे साइड-साइड से अपनी बाइक निकालते हुए जब मैं निकल रहा था तो मैंने देखा कि ज्यादातर लोग अपने मोबाइल फ़ोन से वीडियो बना रहे हैं। मैं कुछ और आगे बढ़ा तो देखा कि एक ट्रैक्टर-ट्राली आगे-आगे चल रही है, जिसकी वजह से जाम की स्थिति बनी हुई थी। उसमें जो सामान लदा हुआ था, वह रस्सी से बंधा हुआ था और उसका झुकाव एक ओर कुछ ज्यादा ही हो गया था। देखने से ऐसा लग रहा था कि ट्रॉली अब पलटी, अब पलटी।
मैंने फटाफट अपनी बाइक ट्रॉली से आगे निकाली और उस पर सवार नौजवान से कहा, "आप की ट्राली में लदा सामान एक ओर झुक गया है और ट्राली कभी भी पलट सकती है।"
नौजवान बोला, "अभी ठीक करता हूं साहब।" उसने मुझे धन्यवाद कहा और अपनी ट्राली सड़क के किनारे पर रोक दी।
जब मैं नौजवान को यह सब बता रहा था तो कई लोगों ने मुझे उससे बात करते हुए देख लिया था। उनमें से कुछ लोग मेरे पास आए और बोले, "यह क्या किया आपने हम तो उस ट्राली के पलटने का वीडियो बना रहे थे पर आपने सब मजा किरकिरा कर दिया।" और भी ना जाने क्या क्या..।
मैंने उन्हें 'सॉरी' बोला और आगे बढ़ गया ।***
- विजय कुमार 
अंबाला छावनी - हरियाणा

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 16                                 

                                 परिचय                            

बस - चंद्र प्रकाश अपनी टू विलर से कुछ दूरी  तक  ही गये थे, एक पैदल चल रहे राही ने आवाज दी, अरे अंकल कृपया मुझे आगे के चौक पर छोड़ दिजिये। जरुरी काम है , मै फिर आगे चला जाउगा। कोई बात नही, चलो यार बैठीये........ मै भी हमेशा आप जैसे मजबूर इनसान को खोजता रहता हू।। क्योंकि मेरी आदत  सी हो गई है किसी को भी कभी कभी गाड़ी पर बिठा लेता हू। 

उनहोने उसे चौक पर छोड़ दिया । बस आगे बढने को ही थे, वह व्यक्ति कहने लगा साहब , मेरी पतनी  बिमार है उसे देखनेजा रहा हूँ । धनयवाद साहब। साहब आपकी तारिफ किन शब्दों से की जाय , फिर आप कहाँ रहते हो, कौन हो कहाँ जा रहे हो  कृपया कहिये ना। 
 वे कहने लगे सुनिये , बस आगे पूछकर क्या करोगे , देखो भाई  बात इतनी  सी है , मै कुछ नही साधारण सा आपके जैसा  
इनसान हू। फिर इनसानियत मेरा धर्म है । बस मानव मात्र  का यही फरज है  , आखीर.  मै अकेला ही तो जा रहा था और कौन सी अजिब बात थी। व्यक्ति कुछ न बोला परन्तु साहब  कम से कम आपका नंबर ही दिजीये ना ...... 
व्यक्ति गिडगिडाते हुए कहने लगा।
कुछ ही दिनो बाद उसी चौक पर जाते समय उस व्यक्ति को उनकी यादें दिल मे बार बार  याद  आ रही थी। चलो यार  बैठिये ना -----  कहाँ जाना है । चंद्र प्रकाश  को अचानक फोन आया , साहब साहब ..... ... अरे बोलो भाई बोलो आप कौन , ?  फोन की आवाज कट जाती है , पुनः फोन  साहब  मै वही व्यक्ति बोल रहा हू साहब आपने  अपना नाम भी नही बताये थे, सिर्फ कहा था मै आपके जैसा इंसान हू। हा हा.... आप कैसे हो। बोलिये ना बोलो ..... व्यक्ति ने नम्रता पूरवक प्यार भरे शब्दों मे  कहा , साहब मैने आज तक बहुत इंसान  देखा हू परंतु कोई नही मिला आप जैसा।  अब कहाँ कैसे और कब मिलेगे  कब परिचय होगा। आप जैसे लोगों से मै अभी भी तलाश  कर रहा हू........... साहब  बस...... आवाज रुक जाती है । 
        - जयप्रकाश सूर्य वंशी " किरण "
                 नागपुर - महाराष्ट्र

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 17                                   

                                    पुण्य                                   

           वह  मंदिर के बाहर श्रृंगार का कुछ सामान बेचती थी! उसके आसपास कई अंधे व विकलांग भिखारी बैठते थे! उस मंदिर में आने वाले भक्तों के लिए ही वे अंधे व विकलांग थे जबकि वे स्वयं कितने तंदुरूस्त थे ये तो वे स्वयं ही जानते थे या फिर उसके आसपास के निवासी! उन्हें तो आने वाले भक्त कुछ दान दे ही देते थे! 
          वह अक्सर देखती थी कि आने वाले भक्त पहले अपने पर्स में से एकाध नोट निकालकर ही अंदर जाते हैं! वहां भगवान की मूर्ति के आगे या फिर दानपात्र में चढ़ावा डालते है! बाहर आकर इन भिखारियों के आगे भी चंद सिक्के फैंक देते हैं मगर उसके पास कोई नहीं आता ! कोई आ भी जाए तो पैसे देते वक्त इतना मोलभाव करता है कि उसकी कमाई भीख में मिले पैसों से भी कम होती है इसलिए उसे व उसकी माँ को कई बार भूखे ही सोना पड़ता है ! एक भिखारिन तो उस पर रहम खाकर कई बार उसे कह चुकी है कि "तेरी मां मोतियों की माला पिरोपिरो कर बची खुची आंखें भी गवा देगी, तेरे से भी सामान नही बिकता! इससे तो बढिया है कि तू भी एक कटोरा लेकर हमारे साथ बैठ जा,एक- दो टाईम की रोटी तो खा लेगी! यहां वैसे भी लोग दान करके पुण्य कमाने आते है, खरीददारी करने नही आते!"
    "न अम्मा, मैं भीख न मांगूगी! एक दिन भगवान मेरी सुनेगा और मेरा काम भी चल पड़ेगा !"वह बड़े विश्वास से कहती !
        उस दिन वह दो दिन की भूखी थी और सामान का कोई लागत मूल्य भी नही दे रहा था! कब तक सहती भला और चक्कर खाकर गिर गई! आसपास के भिखारियों ने उसे एक तरफ लिटा दिया! फिर कुछ सोचकर एक भिखारी ने उसके आगे एक फटी सी चादर बिछा दी ! उसे जब होश आया तो देखा कि उसके आगे कुछ सिक्के बिखरे थे ! वह समझ गई कि आज से उसे भी भक्तों को अपना सामान न बेचकर उन्हें दान के बदले पुण्य दिलवाना होगा तभी वह अपना और मां का पेट पाल सकेगी !
                            - नीरू तनेजा 
                       समालखा - हरियाणा

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 18                                 

                          परिवार के सदस्य                           
              

'विकास' सबसे पहले खड़ा हो गया। कॉपी देते हुए बोला-- सर लिख लिया। "वाह !" कहते हुए मैंने कॉपी देखी। उसमें उसका और उसके मां-बाप का नाम लिखा था। पूछा, "तीन ही नाम...? तुम्हारी दो बहनें भी हैं न?"
 "हैं तो, पर वे हमारे परिवार की कैसे होंगी? शादी के बाद दूसरे परिवार में चली जाएंगी न।"
"ओह हां।" कहते हुए मैंने दूसरे बच्चे की कॉपी ली। एक-एक कर सबकी कॉपियां देखीं। क्लास टू के सभी बच्चों ने अपने-अपने परिवार के सदस्यों का नाम लगभग ठीक-ठाक लिख लिया था।
       सबसे अंत में 'प्रकृति' आई। उसकी कॉपी में कुल पच्चीस नाम थे। उसके चार चाचा, चार चाचियां और उनके बाल बच्चों के अलावा भी कुछ और नाम थे। एक नाम के नीचे उंगली रख कर मैंने पूछा-- यह किसका नाम है?
 "जी, हमारी बूढ़ी गाय का।" उसने जवाब दिया।
 "और यह?"
 "हमारे घर में एक बूढ़ा कुत्ता भी है न, उसका।"
"हूं... और यह?"
 "सर, हमारे घर में एक पूंछ कटा तोता है। कहीं से खुद आ गया है।"
 "अच्छा, और यह कौन है?
 "इ तो प्यारू है सर। हमारे आंगन में एक कुबड़ा पेड़ है न, पलाश का...? वही।"
       मैं मौन था। मेरी दृष्टि प्रकृति पर टिकी थी और उंगली कॉपी पर . ****
                   - चित्त रंजन गोप
                     धनबाद - झारखंड

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 19                                   

                               ग्रीन सिग्नल।                             

      बिल्लू जैसे ही स्कूल से लौटा, 
आते ही जोर से माँ को आवाज़ लगायी।
   " माँ! जल्दी खाना दे। झंडा बेचने जाना है अब सिर्फ दो दिन बचे हैं।"
     जल्दी-जल्दी खाना खाकर बिल्लू सिगनल के पास जाकर खड़ा हो गया। जैसे ही लाल बत्ती जलती वह कार में बैठे लोगों से आग्रह करता । कुछ तो कार का शीशा चढ़ा कर बैठ जाते। कुछ लेते , कुछ इसमें भी मोलभाव करते। 
     एक ने चिल्लर नही है, कह कर झंडा जल्दी से बाहर उसकी तरफ फेंक दिया क्योंकि ग्रीन सिगनल हो चुका था। बिल्लू  बड़ी मुश्किल से वह झंडा सड़क से उठा पाया। गाड़ियों की फिर लंबी लाइन लग गयी। उसने दौड़ लगा दी।
 " झंडा ले लो साहब। आपकी गाड़ी में अच्छा लगेगा। " 
      ये शब्द उसके मुँह से बेसाख़्ता निकलने लगते।
         लगा दूँ साहब?
       लंबी कार वाले के इंकार करने पर  भी बिल्लू आदतन बोल पड़ा।
         ले लो साहब! 
        सुनते ही वह कार वाला उस पर चिल्ला पड़ा। 
    मना कर दिया तो भी स्साला पीछे लगा है। 
    बिल्लू चुप रह  गया। उतरा मुँह ले आगे बढ़ गया। उसकी पढ़ाई की खातिर उसे काम करना पड़ता है।  कभी अखबार , कभी पेंसिल, कभी गुब्बारे बेचने आता है। 
   उसी समय कार में पीछे की सीट पर बैठी उनकी लड़की यह सब देख रही थी । कल ही टीचर ने कहा था कि हमें जरूरतमंदों की मदद करना चाहिये।  
     पापा मुझे झंडा चाहिये। 
         ठीक है बेटा। कह कार का शीशा खोल उसके पापा ने आवाज़ लगायी
      ऐ लड़के! एक झंडा दे दे।
पापा मुझे चार चाहिये। एक घर के लिए ,  एक गाड़ी में,   एक मेरी साइकिल में और एक मेरी टीचर के लिये। सुन उसके पापा मुस्कुरा उठे।
    ठीक है।   
    जल्दी से चार दे दो।
सुनकर बिल्लू की आँखों में खुशी और ग्रीन सिग्नल एक साथ चमक उठे। ***
- अर्चना मिश्र
भोपाल - मध्यप्रदेश

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 20                                  

                                    रूह                                

                       सरला बहुत दिनों से लाॅकडाउन खत्म होने का इंतजार कर रही थी। कल खत्म हुआ और आज वो मायके से अपने घर की ओर  वापसी कर रहा थी। आज वो बहुत खुश थी।
                 अपने घर की ओर जाते हुए रास्ते में सरला पुरे समय गाड़ी के बाहर झांक रही थी। गाड़ी की रफ्तार से लाखों गुणा तेज सरला का मन रास्ते पर भाग रहा था। उसे तुरन्त घर पहुँचना था। 
                  अपने पति राजेश की हृदयाघात से अचानक हुई मृत्यु को वो सहन नहीं कर पा रही थी। विरह की अग्नि में खुद को जलाते रहना और उस अग्नि को अपने आंसुओं से बुझाते रहना सरला का पांच -सात महीनों से केवल यही काम रह गया था। लाॅकडाउन में अपने घर से दूर 
मायके मे बहुत दिनों तक रहने और जाने-अनजाने में भाभी की उपेक्षा मिलने से सरला के साथ एक काम तो अच्छा हुआ,अब वो स्वयं को स्वयं से जोड़ने लगी थी।
                अपने घर पहुंच कर नए उत्साह के साथ सरला ने घर का दरवाजा खोला। सरला दरवाजे पर अपनी चप्पलें उतार रही थी, पर उसकी निगाहें सामने अपने पति राजेश की तस्वीर पर टिकी हुई थी। सरला तस्वीर की तरफ़ बढ़ रही थी और उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे राजेश अपनी तस्वीर पर पड़ी माला को किनारे करके तस्वीर से बाहर निकल आया हो।
" सरला तुम आ गई। मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं।"  
सरला राजेश की तस्वीर के पास पहुंच कर तस्वीर को कस कर अपने सीने से लगा ली।
" मैं तुम्हारे पास लौट आई हूं, हमेशा-हमेशा के लिए। मुझे अहसास हो गया है तुम्हारा शरीर मेरे सामने नहीं है। पर तुम्हारा अहसास मेरी रूह में है।तुम हर पल मेरे साथ हो। शरीर मर सकता है पर आत्मा तो अमर है। अब तो तुम हर पल मेरे साथ हो। अब मैं कभी नहीं रोऊंगी।"
             राजेश की तस्वीर के कांच पर सरला का अक्श उभर आया। वही पुरानी वाली मुस्कुराती और गुनगुनाती हुई सरला दिखलाई दे रही थी।***
- मीरा जगनानी  
अहमदाबाद - गुजरात

लघुकथा दिवस पर सम्मानित - 21                                

                               आजीविका                                   

मां को कैंसर व पिता लकवाग्रस्त इसी के चलते सतीश को सेना में भेजने का अधूरो सपना लिए अनपढ़ रह गए बेटे को जान-पहचान वालों के दूसरे राज्य में रह रहे धनवान रिश्तेदारों के पास अच्छी तनख्वाह पर राजस्थान से घरेलु नौकर बनने की नौकरी पर भेज , माता - पिता आश्वस्त थे कि अब दवा और आजीविका के लिए परेशान न होना पड़ेगा ।मालिक -मालकिन के घर पर जब नहीं होते तब सतीश सामने के मकान में काम करने वाली नौकरानी को छेड़ने लगा ।एक दिन तो हद हो गई जब वह उससे मिलने उनकी दीवार फांदकर कूदने लगा तो उस मकान मालिक ने देख लिया और फौरन पुलिस को बुला यौन शोषण के केस में अंदर करवा दिया इधर इसके मालिक के हाथ - पांव फूल गए। बड़ी से बड़ी सिफारिश लगाई , मिनिस्टरों से बात करवाई पर व्यर्थ ।यौन शोषण के केस में किसी की नहीं चलती,ऊपर से जांच में पता चला की लड़की गर्भवती है । सतीश को यहां आए दो माह हुए इसकी पुष्टि होने पर सारे टेस्टों से पता चला कि वह ड्राइवर के साथ थी । परंतु दीवार फांदने और छेड़छाड़ को यौन शोषण का केस मानते हुए छः साल की सज़ा हो गई । माता - पिता को पता चला तो उनके दु:ख का पार ना था सोचने लगे कि इस कृत्य से उसकी जिंदगी तो खराब हुई ही अब आजीविका कैसे चलेगी। ऐसे में मालिक सतीश से तो नाराज़ थे परंतु बूढ़े बीमार मां - बाप की आजीविका की जिम्मेदारी लेने से वे भावविभोर हो ‌गए औरआंखों से अविरल आंसु बहने लगे। ***
- डॉ संगीता शर्मा
हैदराबाद - तेलंगाना

इन के अतिरिक्त महेश राजा , डॉ. सरला सिंह , डॉ. शैलजा , डॉ. सुरिन्दर कौर नीलम , अलका जैन , सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा , बंसती पंवार , डॉ. ममता सरूनाथ , संगीता राजपूत ' श्याम ' , राकेश कुमार जैनबन्धु , मनोज सेवलकर , अनिता रश्मि , चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री , रचना वर्मा , अनिल शर्मा अनिल , हेमलता मिश्र , मधु जैन , नीना छिब्बर , भारती वर्मा , कुमार जितेन्द्र , हीरा सिंह कौशल , नरेन्द्र श्रीवास्तव , डॉ. विनीता राहुरीकर , डॉ. मधुकर राव लारोकर , अनिल श्रीवास्तव अयान , वंदना पुणतांबेकर , अविनाश अग्निहोत्री , चन्द्रिका व्यास , आभा आदीब राजदान , डॉ चन्द्र रस्यता , डॉ विनोद नायक , प्रियंका श्रीवास्तव शुभ्र , डॉ अंजुल कंसल कनुप्रिया , विभा रंजक कनक , बबिता चौबे , पुनम रानी , ज्योति वाजपेयी , अजय गोयल , नीलम नारंग आदि ने भी अपनी - अपनी लघुकथा पेश की है । भविष्य में भी ऐसा सहयोग मिलता रहेगा ।
बीजेन्द्र जैमिनी
संचालन व सम्पादन
भारतीय लघुकथा विकास मंच
पानीपत - हरियाणा



Comments

  1. शानदार आयोजन के लिए हार्दिक 🎊 🌷 🌷 🌷 🌷 🌷 बधाई एवं शुभकामनाएं जी 🙏 🙏 🙏 🙏 🙏

    ReplyDelete
  2. हार्दिक बधाई इस आयोजन की ...

    ReplyDelete
  3. बहुत बढिया सर

    ReplyDelete
  4. हार्दिक बधाई

    ReplyDelete
  5. बहुत ही सुन्दर प्रशंसनीय कार्य। हार्दिक बधाई बिजेन्द्र भाई को

    ReplyDelete
  6. समसामयिक विषयातर्गत बढ़िया प्रस्तुतियाँ और संकलन। आप सभी को हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शेख़ शहज़ाद उस्मानी
      शिवपुरी म.प्र.

      Delete
  7. बहुत बढ़िया आयोजन। सभी को बधाई।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही हैं ?

लघुकथा - 2024 (लघुकथा संकलन) - सम्पादक ; बीजेन्द्र जैमिनी

इंसान अपनी परछाईं से क्यों डरता है ?