क्या जाति व धर्म के बिना राजनीति सम्भव नहीं है ?

जाति व धर्म के बिना राजनीति की व्याख्या नहीं होती है । राजनीति धर्म व जाति से ऊपर है । हर कार्य में धर्म व जाति का प्रयोग को रोका जाना नहीं चाहिए या धर्म व जाति के बिना कोई कार्य सम्भव नहीं है । यही जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : - 
विशुद्ध राजनीति वही है जो जाति व धर्म से न जुड़ी हो जिसमें राजनीति करने वालों का विवेक जाग्रत हो।  किन्तु इस कलयुग में यह संभव नहीं है।  गिने चुने व्यक्तियों द्वारा जाति व धर्म के बिना राजनीति करना कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं ला सकता। बल्कि यूं कहा जाए कि यदि कोई बिना जाति और धर्म के बिना राजनीति करना चाहेगा तो उसे राजनीति में प्रवेश ही नहीं करने दिया जायेगा। अतः आज के युग में कल्पना करना कि राजनीति बिना जाति व धर्म के हो, संभव ही नहीं है।
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली 
यह विडम्बना ही है, कि यह प्रश्न उठाना पड़ रहा है, कि ''क्या जाति व धर्म के बिना राजनीति संभव नहीं है?'' संभव क्यों नहीं है, सब कुछ संभव है. असंभव शब्द तो शब्दकोष में होना ही नहीं चाहिए. फ्रांसीसी क्रांति के दौर में बुलंदी छूने वाले सैन्‍य कमांडर और राजनेता नेपोलियन बोर्नापार्ट का निधन साल 1821 में 5 मई को हुआ था. इस राजनेता का मानना था- ''मेरे शब्दकोष में असंभव शब्द नहीं है.'' नेपोलियन बोर्नापार्ट के ही शब्दकोष में क्यों महात्मा गांधी के शब्दकोष में भी असंभव शब्द नहीं था. उन्होंने न तो एक व्यक्ति के रूप में और न ही एक राजनेता के रूप में असंभव शब्द को और न ही धर्म और जाति को आड़े आने दिया. जिन लोगों के लिए समाज में ढोल बजाकर चलने का प्रावधान था ताकि उनकी छाया भी किसी सवर्ण पर न पड़े, गांधीजी ने उनको 'हरिजन' अर्थात हरि यानी प्रभु का जन कहा और जीवन भर बिना भेदभाव के सबकी सेवा में लगे रहे. वे राष्ट्रपिता कहलाए. 
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के घर हुआ था, फिर भी उन्हें काशी विघापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने पर वे जीवन भर के लिये जाति सूचक शब्द श्रीवास्तव से मुक्त रहे. उन्होंने भी जाति व धर्म के से ऊपर उठकर राजनीति करके दिखाई. विसंगति यह भी है, कि आजकल चुनाव के समय जाति व धर्म के आधार पर राजनीति की जाती है और बाद में उनको भुला दिया जाता है. सामूहिक  दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों में जाति व धर्म के आधार पर राजनीति का बोलबाला हो जाता है, जो खुद में एक अपराध है. सामूहिक दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों का विरोध होना चाहिए और खूब होना चाहिए, लेकिन किसी जाति-धर्म विशेष के नाम पर नहीं. अगर हम चाहें तो जाति व धर्म के बिना राजनीति अवश्य संभव है, इसमें कोई संशय नहीं.
- लीला तिवानी 
दिल्ली
राजनीती की बात करें तो, राजनीती भी आजकल जाति व धर्म का अखाड़ा वन कर रह गई है। 
ऐसा लगता है  कि जाति व धर्म के विना  राजनीती सम्भव नहीं लेकिन यह धारणा भी गल्त है, राजनीती में जात पात भेदभाव विल्कुल नही् होना चाहिए, क्यों यही भेदभाव देश की एकता और अखंडता को  वनाए रखने में नाकामयाव सिद्ध होने  लगी है। क्योंकी जातियां एक दुसरे के प्रति मान सम्मान न रखकर एक दुसरे से चिढ़  रखती हैं जिससे देश की एकतत्रता पर असर पड़ता है। सोचा जाए तो कोई भी जाति अपने दम पर कोई सीट नहीं जीत सकती क्योंकी चुनाव में जाति की राजनीती का  अध्याय खत्म हो चुका है। 
अगर सोचा जाए धर्म और जाति की आड़ में वोट वैंक की राजनीती  पनपाना गलत है लेकिन राजनेता जाति जातिवाद का  पोहन करने में अग्रसर हैं लोगों को जातपात के  विषय में लड़ाए जा रहे है्ं लेकिन अव कुछ हद तक लोग समझ चुके हैंऔर वो  जातपात के चक्कर में नहीं आने वाले नहीं हैं
क्योंकी धर्म और जाति की आड़ में वोट वैंक की राजनीती को पनपाने से हमारे प्रजातंत्र को गहरा अज्ञात पहुंचाया जा रहा है। 
यही नहीं जाति की तर्ज पर धर्म का  दोहन किया जा रहा है, तनाव  खींचतान इसका परिणाम है। 
अगर हमें अपने भारत को उच्च शिखर पर लाना चाहते हैं तो जातिवाद व धर्म के विना राजनीती को  कामयाव करना होगा डिवाईड एन्ड रूल की पालिसी अव कामयाव नहीं होगी अत: जाति व धर्म के विना राजनीती सम्भव है। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू -जम्मू कश्मीर
जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही राजनीति में भी कुछ अच्छे लोग हैं और कुछ खराब लोग हैं अच्छे पर लोगों के बल पर ही दुनिया टिकी है। लोग अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी भी हद तक गिर जा रहे हैं बस सिर्फ अपना फायदा और स्वार्थ देखते हैं उन्हें राजनीति या किसी जाति धर्म से कोई मतलब नहीं होता है।
अरस्तु ने सच ही कहा था कि राजनीति दोस्त व्यक्तियों की साधना स्थली है।
अच्छे व्यक्तियों को वोट भी कम दिया जाता है जब राजनीति में असभ्य पढ़े लिखे और गुंडे लोग ही आएंगे नेता बनेंगे तो हम कहां से साफ सुथरी राजनीति की  कल्पना कर सकते हैं।
समाजसेवी और अच्छे व्यक्तियों को चाहिए कि वो राजनीति में आए हैं अब जरूरत है कि देश के युवा परियों और जागरूक हैं उन्हें राजनीति को भी अपना कैरियर के रूप में अपनाना चाहिए और धर्म जाति पाती से उठकर वंदे मातरम राष्ट्र हित में सूचना चाहिए जैसा सदा भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद सुभाष चंद्र बोस जैसे आजादी के दीवाने थे अब वही सफल नेतृत्व की जरूरत है।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
राजनीति केवल जाति व धर्म से ही चलती है ऐसा आवश्यक नही है परन्तु वर्तमान मे संयोग है कि राजनीति का नया स्वरूप जाति व धर्म के जामे को पहनकर ही शोभा पाता है । ये चलन ठीक नही है बल्कि बहुत ख़तरनाक है । परन्तु भारत मे बहुत सी जातियाँ निवास करती हैं जो एक समूह मे किसी भी क्रिया कलाप को अंजाम देती है इसी एक भावना के कारण राजनीति भी जाति व धर्म से अछूती नही रही । 
राजनीति के लिए राजनेताओें को जाति व धर्म से उपर उठकर काम करना चाहिए संकुचित मानसिकता से उबरना चाहिए ।
वास्तव में अगर राजनीति के परिप्रेक्ष्य में यदि संपूर्ण समाज को देखा जाए तो जातीय राजनीति के चलते हम वर्तमान के लिए भविष्य को कुर्बान कर रहे हैं। अगर भारत में जाति तीन हजार वर्ष पुरानी संस्था है और उसकी विसंगतियां भी उतनी ही पुरानी हैं तो उससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता, लेकिन उस व्यवस्था को तो हम स्वतंत्रता प्राप्ति और संविधान-निर्माण के साथ ही छोड़ने का संकल्प ले चुके हैं। 
- डॉ भूपेन्द्र कुमार
धामपुर - उत्तर प्रदेश
जाति व्यवस्था अभी भी प्राचीन समय की जैसी शामिल सामाजिक का अंग सामाजिकता का अंग बनी है । कई जगह जाती प्रभाव अभी भी हावी है। लोग धीरे-धीरे सब समझ रहे हैं और इस प्रथा को नकार भी रहे हैं लेकिन यह भी सत्य है कि राजनीति में जाति प्रथा का बोलबाला है ।समाज का प्रतिनिधि जिस जाति का होगा उसे फायदा होगा धार्मिक आस्था में भी 
राजनीति पर प्रभाव पड़ता है ।अपने अपने संप्रदाय के लोग अपने लोगों  को राजनीति से जोड़ते हैं। इसलिए जाति धर्म के बिना राजनीति संभव नहीं है।
- पदमा ओजेंद्र तिवारी 
दमोह - मध्य प्रदेश
धर्म और जाति का खेल तो वोट लेने के लिए खेला जाता है यद्यपि के यह दोनों पहलू को हथियार बनाकर राजनीति का गेम हासिल करने में वर्तमान समय सक्षम है यह तो जनता के ऊपर निर्भर करती है अगर जनता इन दोनों पहलुओं पर महत्व नहीं दे तो अस्पष्ट है राजनीति साफ सुथरी हो जाएगी लेकिन काले करतूत अवैध कार्य को छिपाने के लिए भावनाओं के आधार पर जाति धर्म का सहारा ले लिया जाता है और पार्टी बनाकर उनके कार्यों को सही करार करने के चक्कर में यह धर्म और जाति का गेम खेला गया है
राजनीति तो इन दोनों से बिल्कुल ही ऊपर होना चाहिए लेकिन स्वार्थ सिद्ध के कारण धर्म और जाति के कुचक्र में राजनीति फस गया है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
वर्तमान राजनीति जाति और धर्म से पूरी तरह से जुड़ चुकी है । राजनीतिक दल अपने हित और लाभ के लिए जनता में अलग-अलग चालें चलते हैं ।
 इसके लिए राजनीतिज्ञ  जातिवाद भी फैलाते हैं और धार्मिक असहिष्णुता का भी प्रचार करते हैं । जाति और धर्म को आज वोटों से जोड़ा जाता है ।
 राजनीति हमेशा से ही अपने स्वार्थ के लिए जाति और धर्म को सीढी बनाती रही है । आज के राजनीतिज्ञ जाति को हथियार बनाकर, धर्म को ढाल बनाकर, समाज में अपना प्रभाव दिखाते आए हैं ।
 उत्तर प्रदेश में घटित हाथरस की घटना इसी ओर इशारा कर रही है । दलित, गरीब, मजदूर परिवार की बच्ची के साथ जो जघन्य अपराध हुआ उस पर कितनी राजनीति  हो रही है । राजनीतिक दल विपक्षी दलों पर वार पर वार कर रहे 
। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार है तो कांग्रेस और अन्य दलों को अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने का मौका मिल रहा है । सड़कों पर उतरना किसी गरीब के हक में आवाज उठाना तो सही है परंतु यह आवाज क्या उस गरीब को न्याय दिला सकेगी ? क्या उसके दुखों को दूर कर सकेगी ? 
 जिन राज्यों में अन्य पार्टियों की सरकारें हैं वहां पर जो घटनाएं घटित होती हैं वहां भी ऐसी आवाज उठानी चाहिए । सभी राजनीतिक दलों का यह साझा प्रयास होना चाहिए कि देश के किसी भी कोने में कोई अप्रिय घटना ना घटे अगर घटे तो उसके लिए न्याय की मांग बराबर हो ।
 वहां जाति या धर्म जैसी संकीर्ण  भावना नहीं होनी चाहिए । किसी जाति विशेष या किसी धर्म विशेष का पक्ष ना लेते हुए पूरे मानवतावादी का पक्षधर होना चाहिये। स्वार्थों के नींव पर चलाई जाने वाली राजनीति धर्म और जाति के बिना संभव नहीं । 
भारत कई जातियों और धर्मों का देश है अतः जातीय भावना से ऊपर उठकर राजनीति होनी चाहिए और धार्मिक संकीर्णता का उसमें कोई स्थान नहीं ।
- शीला सिंह 
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश 
जाति व्यवस्था का राजनीतिक शोषण सदैव होता रहा है। मेरे महान  संविधान रचयिता श्री अंबेडकर जी देश के आजादी के बाद मात्र 10 वर्ष के लिए पिछड़े समुदाय को आरक्षण देने के लिए सुझाव दिए थे। 
लेकिन हमारे राजनेता या यूं कहें राजनीतिक दल वोट की राजनीति के लिए हथियार बना लिए। अब यह पोधा नहीं रहा बल्कि वट वृक्ष के रूप में उभर गया है।
समाज के प्रत्येक तत्व को जाति से जोड़ा गया।
हमारे राजनेता लोग सिर्फ हिंदुओं को ही जांत में बांटा कर दिया लेकिनअल्पसंख्यक में कोई बंटवारा नहीं किया। क्योंकि विशेष जाति के लोग को प्रभावित कर साथ में अल्पसंख्यक  को जोड़कर वोट बैंक तैयार कर  सत्ता पर हासिल कर सकते हैं।ै
10-12 जातियों के संबंध रखने वाले सत्ता सुख भोग रहे हैं। ए खामियां प्रत्येक स्तर पर है ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक। यहां तक प्रशासन में भी प्रवेश कर रहे हैं संतान नहीं होने पर भी जाति के आधार पर चयन हो रहा है। स्वर्ण जाति के युवा समाज विदेशों के रुक कर रहे हैं।
अमेरिका लोकतंत्र देश है लेकिन वहां भी यह छूत की बीमारी प्रवेश कर चुका है। वहां नस्लभेद है और रंगभेद है । जो भारत के जाती आधारित सामाजिक का रूप है।
हर क्षेत्र में भेदभाव है:-शिक्षा ,अध्यापन खेल कला ,संस्कृति , यानी समाज का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां भेदभाव पसरा हुआ ना होl
लेखक का विचार:-समाज को जाति से जोड़ा लेकिन पारस्परिक जोड़ावो  को दूर रखा गया। अभी हिंदू समाज को एकत्रित करने का प्रयास किया जा रहा है अगर सामाजिक व्यवस्था में आमूल बदलाव के लिए बड़ी चुनौती है ।
वास्तव में सेकुलरिज्म को ढोग से बचाना चाहिए।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
 राजनीति चलाने के लिए कोई जाति धर्म की आवश्यकता नहीं है जाति धर्म समाज के लिए है राजनीति तो राज्य चलाने के लिए है राज्य किसी की बपौती संपत्ति नहीं है जो उसे जाति धर्म समाज में गिना जाए राज्य सभी का है राज्य नीति के अंतर्गत राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की जाती है धर्म नीति के अंतर्गत लोगों की व्यवस्था के बारे में व्यवस्था बनाई जाती है एवं अर्थनीति में उत्पादन और विनिमय पर व्यवस्था बनाई जाती है अतः अर्थनीति धर्म नीति और राज्य नीति  सभी जनता के लिए होती है। राजनीति कोई जाति धर्म संप्रदाय के लिए नहीं होती धर्म का अर्थ होता है व्यवस्था हर मानव को जीने के लिए व्यवस्था चाहिए इस व्यवस्था के अंतर्गत ही जीने से मनुष्य सुख शांति से जी पाता है जिसको हम धर्म कह रहे हैं वर्तमान में वह झगड़ा का फंदा है सब अपने अपने धर्म को श्रेष्ठ माने हुए हैं जबकि धर्म को श्रेष्ठ मानने वाले व्यक्ति को खुद के धर्म का पता नहीं है सिर्फ यह झगड़ा का बवाल है धर्म और इसी धर्म और जाति से जहां की राजनीति बनती है वहां कभी सुख चैन से नहीं लिया जा सकता है आदमी कितना भी धन कमाल है लेकिन समस्या है तो धन का कोई महत्व नहीं है मानसिक शांति जरूरी है साथ-साथ शरीर की पोषण और सुविधा भी जरूरी है अतः अंतिम यही कहते बनता है कि कोई भी राजनीति हिना धर्म संप्रदाय और जाति के बिना संभव नहीं है ऐसा कहना मिथ्या है।
  - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
     राजनीति केवल राजनीति है और जब तक जाति व धर्म राजनीति के मोहरे बनते रहेंगे। तब तक राजनेता जाति व धर्म का लाभ लेते रहेंगे। उन्हें प्रयोग करते रहेंगे और उन्हीं का शोषण करते रहेंगे। जब तक जाति व धर्म के अनुयाई जागरूक एवं आत्मनिर्भर नहीं हो जाते।
      सर्वविदित है कि राजनेता सुनहरे सपने दिखाते हैं और इस बात का भी सबको भलीभांति ज्ञान है कि सपने 'सपने' ही रहते हैं। जब तक उन सपनों को श्रम के पसीने का तड़का ना लगाया जाए।
      वर्णनीय है कि राजनीति तो चलती ही प्रलोभन और सम्मोहन शक्ति से है। दूसरे शब्दों में राजनीति छल, कपट और झूठ का पुलिंदा है। जिसके आधार पर वह प्रत्येक जाति व धर्म की गर्भवती महिला को पुत्र रत्न का आशीर्वाद रूपी आश्वासन देते हैं जिसमें वह पूरी तरह सक्षम भी होते हैं और कभी किसी को बेटी देने की गल्ती नहीं करते। इसलिए राजनेताओं का जादू जाति व धर्म के सिर चढ़कर बोलता है और उनकी दुकान दिन दोगुनी और रात चौगुनी उन्नति करती रहती है।
      अतः मेरा दावा है कि जब तक जाति व धर्म के अनुयाई जागरूक एवं आत्मनिर्भर होकर राजनेताओं के चुंगल से मुक्त नहीं हो जाते और उन्हीं राजनेताओं को उनकी औकात नहीं दिखा देते, तब तक जाति व धर्म के बिना राजनीति कतई सम्भव नहीं है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
देश में जाति व धर्म के बिना राजनीति संभव नहीं है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने कई याचिकाओं की सुनवाई करते हुए कड़े फैसले सुनाए हैं। इसके बावजूद राजनीति में नेता लोग धर्म और जाति का सहारा लेते ही हैं। चाहे भाजपा हो कांग्रेस हो, समाजवादी पार्टी हो, बसपा हो, राष्ट्रीय जनता दल हो, लोजपा हो, जदयू हो, वामदल हो, दक्षिण भारत की पार्टियां हो या फिर देश की दर्जनों राजनीतिक पार्टियां, जाति और धर्म का सहारा लेती ही है। हमें इस प्रश्न पर विचार करना होगा की स्वतंत्रता के 70 साल और संविधान के 67 साल बाद भी जाति व्यवस्था क्यों जिंदा है और उसमें निहित ऊंच नीच और अन्याय व उससे जनित कुछ समुदायों का हाशियाकरण और दमन क्यों जा रही है। इस संबंध में दो बिंदुओं पर विचार आवश्यक है, जाति और धर्म। जाति और धर्म व्यवस्था की जड़े कहां है और उस का भौतिक आधार क्या है। इससे हमें जाति व धर्म व्यवस्था के उन्मूलन किया रणनीति बनाने में मदद मिलेगी। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के अनुसार जाति व्यवस्था कुछ धार्मिक विश्वासों का स्वाभाविक परिणाम है। इन देशवासियों को उन शास्त्रों का अनुमोदन हासिल है, जिन्हें ऋषि यों की वाणी माना जाता है। जीने अलौकिक ज्ञान प्राप्त था और जिन के आदेशों का उल्लंघन करना पाप है, इसलिए अंबेडकर हिंदू धर्म को शास्त्रों शास्त्रों में पूरी तरह विलग करने की बात कहते हैं।तुम्हें वही करना चाहिए जो बुध ने किया। तुम्हें वही करना चाहिए जो गुरु नानक ने किया। तुम्हें न केवल शास्त्रों को खारिज करना चाहिए, बल्कि उनकी सत्ता को भी नकार करना चाहिए।
जिसमें धर्म जाति और राजनीति को परस्पर पूरक माना जाता है विरोधी नहीं। यह समझने की आवश्यकता है धर्म एक अधिकारी राजनीति है और राजनीतिक अल्पकालीन धर्म दोनों को अलग नहीं कर सकते हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि चुनाव प्रचार के दौरान नेता धर्म नस्ल जाति और संप्रदाय की दुहाई में नहीं दे सकते हैं या गैरकानूनी है। अदालत के अनुसार चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है और इसे इसी रूप में बनाए रखना चाहिए। देश में चुनाव सुधार की दृष्टि से यह एक बड़ा फैसला है। अगर इसे ढंग से अमल में लाया जाए तो भारतीय राजनीति की दिशा बदल सकती है, बल्कि उसके विरोधी उम्मीदवार के धर्म भाषा समुदाय और जाति का इस्तेमाल भी चुनाव में वोट मांगने के लिए नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने यह फैसला याचिका पर सुनवाई के बाद सुनाएं। ध्यान रहे भारतीय न्यायपालिका के लिए धर्म के खासकर हिंदुत्व के चुनावी दुरुपयोग का मामला खुद में एक बहुत बड़ी चुनौती माना जाता रहा है। हालांकि राजनीति में हर पार्टियां चुनाव के दौरान धर्म जाति और क्षेत्रवाद की दुहाई देती है, ताकि लोग उनके पक्ष में मतदान कर सकें। देश में धर्म और जाति के बिना राजनीति संभव नहीं है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर -  झारखंड
          जाति और धर्म के बिना राजनीति संभव है लेकिन भारत में नहीं। दूसरे देश में सम्भव हो सकता है। भारत की राजनीति जाति और धर्म पर ही आधारित है। ये परंपरा बहुत दिनों से चली आ रही है। जातिगत समीकरण बना कर ही उम्मीदवार खड़े किए जाते हैं। किस क्षेत्र में किस जाति की किस धर्म की बहुलता है ये देख कर चुनावी समीकरण तैयार किया जाता है। सभी पार्टियां जितना चाहती हैं। उन्हें देश देश की जनता विकास इन सब बातों से बहुत कम ही मतलब होता है। यदि होता तो वो प्रार्थी दुबारा कैसे जीत जाता। बिना अपने क्षेत्र में कोई विकास का काम कराये। बड़े-बड़े चुनाव की बात छोड़ दी जाय तो छोटे चुनाव यानी ग्राम पंचायत चुनाव में भी लोग जाति के नाम पर ही वोट मांगते हैं। और लोग देते भी हैं। लोग प्रार्थी नहीं देखते उसकी योग्यता नहीं देखते
जाति देखते हैं।अमुक आदमी मेरी जाति का है चाहे वो गधा ही क्यों न हो उसे ही वोट देना है। लेकिन जनता ये नहीं समझती है कि वो गधा जितने के बाद भी उनके लिए यानी अपनी जाति के लिए भी कुछ नहीं करता है सिर्फ अपनी झोली भरने के अलावा।
           भारत में सभी पार्टियां किसी न किसी जाति या धर्म के समर्थन पर ही चल रही है। कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई अगड़ी तो कोई पिछड़ी जातियों को लेकर ही दल बनाते हैं। तो कोई दलित को लेकर पार्टी बनाते हैं। और अपना-अपना वोट बैंक घोषित करते हैं।
          हाथरस की निर्भया को लेकर किस तरह राजनीति हो रही है सारा देश क्या सारी दुनिया देख रही है। किस तरह सवर्ण दलित युवती के साथ दुष्कर्म करते हैं और किस तरह उन्हें बचाने के लिए केश कमजोर बनाया जा रहा है। बिना परिजन के आधी रात को मनीषा का शव जलाने का क्या तात्पर्य है। सब जाति का खेल खेल रहे हैं। जम कर जाति की राजनीति हो रही है। बेटी की कोई जात नहीं होती बेटी होती है।फिर भी राजनीति हो रही है। 
                  कभी मंदिर कभी मस्जिद । तो कहीं इमाम भत्ता तो कभी  पुजारी भत्ता। कहीं हज के लिए पैसा । तो कहीं अमरनाथ के लिए टैक्स। जिस देश की स्थिति ऐसी हो वहाँ जाति धर्म के बिना राजनीति संभव ही नहीं है।
            इसलिए ये बात दावे के साथ कहा जा सकता है कि जाति धर्म के बिना भारत में राजनीति सम्भव नहीं है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - प. बंगाल
          जाति व धर्म के बिना ही सच्ची एवं सही राजनीति होती है। पुराने समय  से लेकर 19वीं सदी तक राजनीति में जाति व धर्म का समावेश ना होकर नीतिपरक तथ्यों का समावेश होता था और उन्हीं को जनसमुदाय सहयोग करता था। किंतु आज के समय में अधिकांश राजनेता जाति व धर्म का सहारा लेकर लोगों को भ्रमित करते हैं और जनसाधारण भी अपने स्वार्थवश या अन्य कारणों वश उनको सहयोग करने लगते हैं। यही सब जनप्रतिनिधि के चुनाव के समय भी होता है जिसका खामियाजा भी जनता को ही भुगतना पड़ता है। सही तथ्यों को मुद्दों को उठाकर राजनीति की जाना चाहिए धर्म या जाति के आधार पर नहीं। यह तो अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति  आधारित राजनीति हो गई। अभी उत्तर प्रदेश में इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिल रहा है। अपराधी तत्व बाकायदा सिर उठाकर घूम रहे हैं, सत्य को छिपाने का प्रयास किया जा रहा है। यह ओछी राजनीति है सत्य प्रेरक नहीं। पहले की राजनीति में विचारों में मतभेद होता था और कुछ नहीं। विचार प्रदर्शन के बाद सब एकजुट कर रहते थे। आज की स्थिति उलट है। विचार मतभेद के साथ-साथ गुटबाजी तभी है जो कि उचित नहीं।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
संभव तो सब कुछ है परन्तु राजनीति पार्टियां चाहे तब ना। भारतीय राजनीति, जाति व धर्म पर इतनी अधिक आश्रित हो गयी है कि अब जाति व धर्म के बिना राजनीति करना सरल नहीं है। यह स्थिति राजनीतिक पार्टियों द्वारा ही बनाई गयी है ताकि जनता मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर केवल जाति व धर्म पर ही अपना ध्यान रखकर आपस में बंटी रहे और मूर्ख बनती रहे। 
राजनीतिक दलों ने भारतीय जन मानस के मन में जाति व धर्म के लिए इतना अधिक भेदभाव उत्पन्न कर दिया है कि सामान्य व्यक्ति इसी आधार पर राजनीतिक पार्टियों को पसन्द करने लगा है।
कई राजनीतिक पार्टी तो केवल जाति व धर्म के तवे पर ही अपनी रोटी सेंक रही हैं।
लोकतन्त्र में जाति व धर्म पर आधारित राजनीति एक विडम्बना ही है।
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
   धर्म और राजनीति एक दूसरे के पूरक होने चाहिए | लेकिन आज तक ऐसा हुआ नहीं | क्योंकि कभी धर्म के नाम पर राजनीति होती है | तो कभी धर्म को राजनीति का विषय बनाया जाता है | धर्म का उद्देश्य है लोगों को सही राह पर चलने की प्रेरणा देना | और राजनीति का उद्देश्य है कि जो  जनता की जो मूलभूत आवश्यकताएं हैं उन को ध्यान में रखते हुए उनके भले के लिए काम करना | मेरा मानना है कि जब धर्म और राजनीति एक दूसरे के पूरक न होकर संघर्ष का कारण बनते हैं तो हमें राजनीतिज्ञ और धार्मिक नेताओं के बीच में सिवाय भ्रष्टाचार के और कुछ भी दिखाई नहीं देता |  एक सच्चा राजनीतिज्ञ वह है जो धर्म के मार्ग पर चलता है अर्थात वह प्रेम पूर्ण व स्नेह पूर्ण होता है | दूसरों के साथ सदव्यवहार करता है  छल   कपट का  व जाति सहारा नहीं लेता | इसलिए किसी भी राजनीतिज्ञ का धार्मिक होना और जातिवाद से दूर होना अनिवार्य है |
 आज के समय में  धर्म धर्म न होकर  संप्रदाय का पर्याय हो गया है| लोग अपने अपने धर्म के कट घरों में कैद होकर रह गए हैं | जबकि धर्म तो सभी मनुष्यों का एक ही होता है  |जाति भी एक है मानव जाति  और धर्म का अर्थ होता है मानवता | हम भले ही किसी  ओहदें पर  हों  और कोई भी कार्य कर रहे हो | हमें मानवता को अपना धर्म मानना चाहिए | अगर हम ऐसा करेंगे तो सब कुछ बहुत आसान हो जाएगा | जब तक हम धर्म के वास्तविक अर्थ से परिचित नहीं हो जाते तब तक जीवन का कोई भी क्षेत्र हो चाहे वह राजनीतिक ही क्यों न हो,  त्रुटियां होनी अवश्यंभावी हैं | कोई भी राजनीतिज्ञ  धार्मिक हुए बिना  जातिवाद से ,अपने कर्तव्य को पूरा नहीं कर सकता | अपने देश अपनी जनता का कभी भला नहीं कर सकता |  अत: राजनैतिक क्षेत्र में  जातिवाद का कोई स्थान नहीं होना चाहिए |
 इसलिए मेरा मानना है कि अगर हम धर्म और राजनीति  को एक दूसरे का पूरक माने   और जातिवाद से दूर रहें तो ही हम  अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं|
- चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री
पंचकूला - हरियाणा
     वर्तमान परिदृश्य में राजनीति एक खिलौना बन कर रह गया हैं। जहाँ समयानुसार खिलौना का उपयोग कर, सत्ता को परिवर्तित करने और अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो रहे हैं। जिसके कारण मतदाता का मतलब, मतदान की परिधि में विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा हैं। दूसरी ओर ध्यान केन्द्रित किया जाये, तो अधिकांश क्षेत्रों में जातिवाद और धर्म पर आरक्षित मतदान केन्द्र हैं,  किन्तु वहां समस्त प्रकार की जातियां मतों का उपयोग करती हैं। फिर आरक्षण किस बात पर आरक्षित हैं। ऐसा भी करना चाहिए जहाँ पढ़ लिखे,  वह पढ़े लिखे राजनीतिक को वोट दीजिये और अंनपढ़, अंनपढ़ राजनीतिज्ञ को। जहाँ इतने संशोधन हो रहे हैं, वहां ऐसा भी करके देख लीजिए। भविष्य में आकलन आवश्यक हैं, सर्व दलीय बैठक में विचार मंथन की आवश्यकता प्रतीत होती हैं। या फिर राजनीति में जाति व धर्म को पृथक रखना चाहिए, तभी एकता में अनेकता संभव हो सकता हैं।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
*राजनीति में सत्ता से बड़ा कोई लालच नहीं*
राजनीति जितनी सीधी सपाट आम जनता को दिखती है ठीक उसके विपरीत बहुत ही गूढ़होती है इसको
समझना बहुत मुश्किल है यह  अवसर वादी होती है हर राजनीतिक पार्टियां
अवसर की तलाश में रहती हैं कैसे नित नये मुद्दों के साथ सुर्खियों में बने रहें
इसके लिए सभी धर्म और जाति को
ढाल बनाकर आगे बढ़ने के लिए जमीन का निर्माण करते हैं धर्म और जाति मानव की कमजोरी समझ उस पर बारंबार प्रहार करते हैं मनुष्य की भावनाओं से जुड़ी होती है भावनात्मक शोषण है धर्म और जाति के बिना राजनीति की जा सकती है
स्वच्छ छवि बन सकती हैं लेकिन सभी को अपना वोट बैंक खड़ा करना है
धर्म और जाति संसार में सदा से विद्यमान है प्राचीन राजाओं के युग से
आज तक स्वरूप बदलता गया मुद्दा धर्म और जाति की राजनीति ही बनी रही दुनिया के ऐसे बहुत से देश हैं जहां धर्म और जाति के बिना साफ-सुथरी राजनीति
देश राष्ट्र के विकास के साथ है ।
भारत में विभिन्न धर्म समुदाय है राजनेता इसी का पूर्णता लाभ उठाते हैं
आम नागरिक पढ़ा-लिखा होकर भी
देश के विकास में अपना अप्रत्यक्ष योगदान भी नहीं वह सोचता है जो करेंगे वह नेता ही , सिवायचक वोट देने के राजनेता जान गए हैं इससे बढ़िया कोई मुद्दा नहीं हो सकता है और सभी समुदाय एक साथ एक बात सहमत नहीं होंगे बस यही  इनको भ्रमित करते रहना है करना कुछ भी नहीं होता।
आम नागरिक अपने को दूर रखता है
राजनेता इसका पूरा फायदा उठाते हैं।
इससे ऊपर उठ कर सोचने के लिए सभी आम नागरिक एक साथ हों युवा भी आगे आए अपनी शिक्षा का इसमें योगदान देंऔर धर्म जाति से ऊपर उठकर सोचें देश के विकास में राष्ट्रहित में तभी स्वच्छ राजनीति संभव है।
*राजनीति पानी पर पड़ी काई जैसी है रास्ता बनाना पड़ता है*
- आरती तिवारी सनत
-  दिल्ली
भारत में तो जाति और धर्म के बिना राजनीति संभव है ही नहीं। हमारे यहां की व्यवस्था ही ऐसी है कि जाति व धर्म के बिना कुछ संभव ही नहीं।भले ही संविधान में सबको समानता के अधिकार की बात हो लेकिन यथार्थ में आरक्षण जैसी जातिगत व्यवस्था को राजनीति ने जिस तरह उसकी समय सीमा समाप्त होने के बाद,बार बार आगे बढ़ाते हुए परवान चढ़ाया है, उससे जाति और धर्म विहीन राजनीति की बात कोरी कल्पना है। जाति और धर्म की राजनीति में ही तो हमारा देश गुलाम रहा। आजाद हुए तो धर्म के नाम पर बंटवारे का दंश झेलना पड़ा। फिर दौर शुरू हुआ हमारी अपनी सरकारों का लेकिन उसमें में धर्म और जाति का खेल जोरों से चलता रहा। बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में तो इस जाति धर्म के फैक्टर ने राजनीति की दिशा और दशा ही बदल दी। भारत की परंपरागत व्यवस्था और विचारधारा को नये आयाम मिले। अब यह फैक्टर इतनी मजबूती से अपनी जड़ें मन मस्तिष्क में जमाए हुए हैं कि इनको छोड़कर राजनीति नहीं हो सकती।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर -  उत्तर प्रदेश
   जाति और धर्म को राजनेता हथियार के रूप में राजनीति में इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका उद्देश्य मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाना ताकि मुख्य मुद्दों पर काम न करना पड़े इसलिए जाति धर्म के नाम पर बवाल खड़ा करते हैं। इंसान को जाति में बांटकर वोट मांगते हैं।
भारत में यह कह देना कि जातीय भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है --यह राजनीति का एक आकर्षक नारा भी हो सकता है लेकिन ऐसा वास्तव में संभव हो पाएगा यह कठिन सवाल बना हुआ है।
   एक हिंसक दबंगता में या फिर अपमानजनक हालत में घिरे रखने की साजिश के रूप में मंदिरों में प्रवेश से लेकर सार्वजनिक समारोह में भागीदारी कर लेने भर से दलितों की जिंदगी पर कहीं-कहीं बन आती है‌। यह सब क्यों होता है? क्योंकि हमारा कानून कमजोर है और कानून में उच्च पदों पर बैठे हुए उनकी जाति के लोग और राजनेता नहीं चाहते कि उन्हें कड़ी सजा मिले।
    इसलिए अभी भी कुछ जगहों पर यह भेदभाव देखने को मिल रहा है क्योंकि उन्हें कानून का डर नहीं है उनकी पहुंच ऊपर तक है। 
    सामाजिक बुराइयां सदियों से और पीढ़ियों से चली आ रही है। एक अदृश्य स्वर्णवादी नियंत्रण समाज में स्थापित है जो ऊंची जातियों के दबंगों को प्रश्रय देता है और यह सब राजनीतिज्ञों के मिलीभगत के कारण होता है क्योंकि उन्हें अपनी स्वार्थ की रोटी सेकनी है।
    अपनी स्वार्थ की पूर्ति हेतु वे धर्म और जाति में बरगला कर लोगों को बांट कर अपना राजनीतिक फायदा उठाते हैं और जनता बेवकूफ बन कर आपस में लड़ती है।
जनता में कमियां है कि वह जातिवाद के आधार पर नेता को चुनती है और जिसकी सजा उसे भुगतनी भी पड़ती है। नफरत और विद्वेष का जहर घोलकर वह लोगों को एकजुट नहीं होने देना चाहते।
कितनी बड़ी विडंबना और अपमान है कि उच्च पद पर बैठे राष्ट्रपति का भी बार-बार जातिय पहचान बताई जाती है। जब नेता किसी को सवर्ण और किसी को शुद्र कहता है तभी उसके विचारों की मानसिक संकीर्णता झलक जाती है। ऐसा नेता निष्पक्ष भाव से जनता की सेवा कर ही नहीं सकता।
जाति धर्म के बिना भी राजनीति संभव है पर उसके लिए जनता को जागरूकता दिखानी पड़ेगी जो नेता जाति धर्म का नाम ले उसे बहिष्कृत करें।
                       - सुनीता रानी राठौर 
                       ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश

हां मेरा दो टूक में यही जवाब है ! यदि स्पष्ट शब्द में कहूं तो बीजेपी आजतक दिल्ली में झंडा क्यों नहीं गाड़ सकी इसका मूल कारण यही है ! मुस्लिम वोट का न मिलना !  आज शिवसेना जो कभी मुस्लिम को देख नहीं पाते थे आज उन्ही की कृपा से हैं सभी एक थाली के चट्टे बट्टे हैं अतः यही कहूंगी बिना जाति धर्म के राजनीति संभव नहीं है !
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
आजादी के पश्चात राजनेताओं  का उद्देश्य देश की स्थिति में सुधार और विकास करने का था। उसके बाद देश में बहुत  विकास भी हुआ पर धीरे-धीरे राजनीति में जाति और धर्म समाविष्ट हो गए।  चुनाव जीतना ही प्राथमिकता हो गई । चुनावा जीतने हेतु  
मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए उन्हें बरगलाया जाने लगा । जाति और धर्म ऐसे संवेदनशील मुद्दे थे ,जिन्हें  उछाल कर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने का षडयंत्र किया जाने लगा।  
वर्तमान में कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं जो धर्म और जाति की राजनीति से अछूता हो ।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मूलभूत मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए धर्म और जाति की राजनीति सबसे अच्छा माध्यम बन गया। 
भारत की आबादी या तो बहुत अशिक्षित है या अंधविश्वास और संवेदनशील। इसलिए भारत में धर्म और जाति की राजनीति करना राजनेताओं के लिए  बहुत आसान हो गया है। 
इससे बचने के लिए सबसे पहले तो देशवासियों को जन संख्या नियंत्रित करना होगा, शिक्षित होना होगा अंधविश्वास तथा धर्म और जाति के नाम पर बरगलाने वालों से,  जनता के लिए जरूरी मुद्दों पर प्रश्न पूछना होगा, भ्रष्ट और अपराधी किस्म के नेताओं को सबक सिखाना होगा। सजा के तौर पर एक दो प्रशासनिक अधिकारियो के तबादले या उनको सस्पेंड कर देने भर से बड़ी मछली जो अब भी बची रह जाती है उनका बहिष्कार करना होगा।  सांसद और विधायकों के लिए भी शिक्षा का मापदंड तय करना होगा। जनता को जागरूक होकर  आवाज़ उठाना होगा ताकि राजनेता भ्रष्टाचार करने की हिम्मत न कर सकें।  मीडिया के फरेब से बचने के लिए उसका बहिष्कार करना होगा, जो दिन-रात चीख चीख कर झूठी खबरों से उन्माद फैला रहे हैं। समय-समय पर  कार्य पालिका और न्यायपालिका को भी भटकने से रोकना होगा  । जब सब कुछ जनता का जनता के लिए और जनता द्वारा होने लगेगा, उस समय  एक ओर जनता तथा दूसरी ओर नेता न हो कर जनता के लिए नेता  हो जाएंगे । धर्म और जाति की राजनीति करने वालों को शिक्षित जनता ही सबक सिखा सकती है। 
अतः जनता का शिक्षित और विवेकवान होना बहुत जरूरी है। 
- वंदना दुबे 
   धार - मध्यप्रदेश
आज की चर्चा में जहांँ तक यह प्रश्न है कि क्या जाति व धर्म के बिना राजनीति संभव नहीं है तो इस पर मैं कहना चाहूंगा कि ऐसा नहीं है और मै इससे पूरी तरह व्यक्तिगत तौर पर असहमत हूँ यह सब इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है राजनीति और धर्म दोनों अलग-अलग चीजें हैं और किसी भी देश के जन सामान्य एवं संस्कृति तथा विकास में धर्म और राजनीति का घालमेल अच्छा नहीं है यह मैं नहीं कह रहा बल्कि इतिहास और पुरानी सभ्यताएं इस बात की गवाही देती है यह कुछ समय के लिए अच्छा हो सकता है परंतु काफी एक समय बाद यह घातक हो जाता है जब लोग केवल धर्म और राजनीति के बारे में ही सोचने लगते हैं और जातियों के बारे में ही सोचते हैं तब मानव मात्र और देश एवं समाज कहीं पीछे छूट जाता है खेमे बंदी हावी हो जाती है और यह एक समय के बाद देश के लिए हानिकारक होता जाति और धर्म के बिना भी और दूसरे तमाम मुद्दे हैं जिनके आधार पर राजनीति की जा सकती है सकती है 
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश

" मेरी दृष्टि में " धर्म व जाति हम लोंगो ने यानि इंसान ने बनाई है । परन्तु आज यही धर्म व जाति हर कार्य में अनिवार्य हो गई है । क्या यह उचित व्यवस्था है । राजनीति में सब से अधिक हावी होतीं जा रही है । यह भविष्य में कभी भी उचित साबित नहीं हो सकती है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
  डिजिटल सम्मान

Comments

  1. सही कहा आपने चंद्रिका दीदी सादर नमन 🙏🏻🌹🙏🏻

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  2. राजनीति में धर्म व जाति को शामिल नहीं करना चाहिए। मुद्दों पर सकारात्मक चर्चा राजनीति में करनी चाहिए जिससे समस्याओं का निदान हो सके एवं राष्ट्र का भला हो। धर्म और जाति से केवल गुट्वादिता बढ़ती है कोई न्याय परक हल नहीं निकलता।

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  3. आजकल आदमी स्वार्थ बस गलत का साथ देने लगते हैं अपनी आत्मा को मार कर जो कि गलत है एवं उसका परिणाम भी गलत ही निकलता है। पहले की जैसी राजनीति अब नहीं रही और यदि एक्का दुक्की उस तरह की राजनीति करने वाले जो बचे हैं उनकी कोई पूछ नहीं है। गिने-चुने लोग ही उनका साथ देते हैं जिससे उनकी बात पर अमल नहीं किया जाता ध्यान नहीं दिया जाता।

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