इन्सान क्यों बन जाता है जानवर ?

प्रभु ने हमें इन्सान बना कर धरती पर भेजा है । परन्तु फिर भी हम जानवर बनने में कुछ भी देर नहीं लगते है । यहां पर जानवर का अर्थ ये है । बड़े से बड़े अपराध करने में कोई संकोच नहीं करते हैं । यही जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : - 
 इंसान स्वयं को नहीं समझ पा रहा है तो औरों को कैसे समझ पाएगा स्वयं को न समझ पाने के कारण वह अपने पराए की दीवार में फंसा हुआ अमानवीय व्यवहार करता है हमारे व्यवहार किसी भी मानव को स्वीकार नहीं होता अतः मनुष्य भ्रम के कारण  गलत व्यवहार करता है हिंसक पशुओं से भी बदतर यह सब सही की समझ ना होने के कारण करता है। कोई जानबूझकर गलती नहीं करता अनजाने में ही गलती होती है अतः मनुष्य को जाना ना यह समझना जरूरी है नहीं तो मनुष्य क्रूर जानवरों की तरह  व्यवहार करता हुआ स्वयं जी पाता है ना दूसरों को जीने देता है ऐसे प्रवृत्ति के लोग   आज वर्तमान समाज में ज्यादा देखने को मिल रहे हैं संस्कार हीन भावना से जीते हुए दरिंदगी प्रवृत्ति में उतर आते हैं और खुद व्यवस्था में ना जीते हुए दूसरों को अव्यवस्थित करते हैं अतः अंत में यही कहते बनता है कि इंसान नासमझी के कारण जानवरों की तरह हरकत करते हैं।
  - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
बुरी संगति का असर, सही शिक्षा का अभाव, संस्कारों की कमी, पाशविक कृत्यों की तरफ रुझान, लोभ-लोलुपता, अत्यधिक तामसिक भोजन का दुष्प्रभाव, अत्यधिक मांसाहारी प्रवृति होने से पाशविकता का उद्भव, पाश्चात्य संस्कृति और दिग्भ्रमित करते खुलेपन का दुष्प्रभाव जिसे व्यावहारिकता में लाने का प्रयास इन्सान को जानवर बना देता है। फिर किसी गरीब इन्सान पर ताकतवर इन्सानों द्वारा किये गये अत्याचार। ये कुछ कारण हैं जो इन्सान को जानवर बना देने की दिशा में धकेलते हैं। 
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली 
जब जब इंसान अपनी गलत इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता और अपने अहंकार का गर्जन करता है, सिर्फ अपने आप को केंद्र मान कर और स्वयं को ही सर्वोपरि मान कर चलता है, अपनी इच्छा को पूरा करने का हर संभव प्रयास करता है फिर चाहे किसी का भी अहित ही क्यों ना करना पड़े वो करता है, उस समय इंसान जानवर बन जाता है |
- मोनिका सिंह 
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
इन्सान का जानवर बन जाना विवेकहीनता की पराकाष्ठा है। जिस मनुष्य के मन, वचन और कर्म में मनुष्यता नहीं होती, वह जानवर ही होता है। मनुष्य का जानवर बन जाना अकस्मात नहीं होता। जिस मनुष्य के चरित्र में स्वार्थ, अंहकार, कपट, हवस एवं निरंकुशता की प्रवृत्ति विद्यमान रहती है तब वह स्वयं के लाभ के लिए दूसरों की जान-माल-सम्मान को हानि पहुंचाने के लिए जानवर बनने से भी परहेज नहीं करता।
निष्कर्षत: इन्सान जानवर तब बन जाता है जब उसकी सोच इस प्रकार की हो जाती है कि दुनिया में सब कुछ 'मैं' ही हूं। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
 जैमिनी अकादमी द्वारा बेहद ही मार्मिक और संवेदनशील तथ्य पर विचार परिचर्चा केंद्र है।आज के परिवेश मे इंसान पशुओं की तुलना से भी बेहद शर्मनाक घटना को अंजाम देता है।मानव की मानसिकता एक बिना संतुलित जानवर की भातिं हो जाती है जो कभी भी किसी को नुकसान पहुंचा सकती हैं।सोचने और समझने की क्षमता से परे पशुओं की तरह इंसान अपने कृतज्ञता प्रकट करता है वह समाज और देश परिवार का हितैषी न होकर अपने लोभवश के कारण जानवर बन जाता है जोकि जहरीले विषाणु की तरह आसपास मे विष फैलाता है।सारा समुदाय और समाज प्रदुषित इसके तुक्ष्य मानसिक रूप केंद्र को देखकर होते है।जब अंदर की आत्मा दुष्प्रभाव और मैली हो जाये।मानवीय संवेदनाओं का पतनोन्मुख हो।भावनाओं मे दैव्ष ईष्र्या लोभ का संचार होने लगे तो इंसान की इंसानियत मरने लगती है वह बेहद अपने क्षणिक लोभ सुख के लिए अपराधियों के श्रेणियों मे खडा हो जाता है।विपरीत परिस्थितियों का प्रभाव भी इंसान की मनोदशाओं को तोड़ती है और  कभी कभी इंसान हार कर ऐसे कदम बढ़ाने के लिए तैयार हो जाता जिसकी तुलना एक भंयकर जंगली जानवर से की जाती है।इंसान के जीवन मे परिस्थितियों मे संयम खोना घृणित कार्य की ओर रूख करता है।हम बेहद भावुकता से अपने जीवन की सच्चाई और प्रेम को अपनाने की कोशिश करते है इसी वक्त कोई हमारे भावनाओं और विश्वास को तार तार करे धोखाधड़ी करे।हमारे मासूमियत के साथ खेलवाड़ करें तब इंसान की सहनशीलता एक निच्तम स्तर की होने लगती है कुंठित मानसिकता के शिकार लोग जानवर बनने की शृंखला मे पहले आते है।इंसान की इच्छाओं पर कोई पांबदी नही होती अपनी इच्छानुसार इंसान जीने की चाहत रखते है और मंजिल को पाते है इसी क्रम मे मानसिकता कभी कभी धैयता को खोती है और इंसान अपनी मंजिल को पाने के लिए सारी हदें पार करते समय जानवर से भी बुरा प्रभाव छोड़ता है।अपने ही रिश्तों का खुन कर आगे बढ़ने की क़तारें बनाता है।एकल सुखद जीवन को जीने की परिकल्पना करता है रिश्ते प्रेम भाईचारे संवेदनशील भावनात्मक जुड़ाव ये सब इंसान की सोच से उपर हो जाती है।मनोवृत्तियों का अंसतोष और असंतुलन होना भी इंसान को जानवर बनने पर उकसाती है।आज दंरिदगी की सारी हदों को पार कर के इंसान खुद को और परिवार देश सभी को घायल और दुखी करता है।जानवर बन नीच हरकतों को अंजाम देता है।मार्मिकता के भावों को भूल क्षणिक सुखों के लिए आगे का सारा जीवन घृणित कार्य कर खत्म कर देता पशुओं की तुलनात्मक रूप से भी उपर गंदगी को अपने शरीर मे समावेश करता है।विभिन्न तथ्यों को उजागर कर इंसान की मनोदशा कुंठित होती है तब वह विकराल रूप धारण कर जावनरों की श्रेणी मे आता है।और कभी क्षणिक सुख और लोभवश अपने अंथके जानवर को जगाता है।इंसानियत के रूप का कत्ल करकें घृणित कार्य को करता है और जानवर बन जाता है।मानसिक रोग से ग्रसित इंसान ही घृणित कार्य करके खुद को जानवर की तुलना मे ला खड़ा करता है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
इस युग में जानवर प्रवृत्ति के पीछे कारण यह है कि पहले संयुक्त परिवार मे लोग रहते थे। सब एक दूसरे के सुख -दुख में साथ देते देते थे। लेकिन
आज के नई पीढ़ी मैं मानवीय मूल्य के प्रति निष्ठा में भारी कमी आई है। अब लोग एकेल परिवार के महत्व देने लगे हैं।
निजी और स्वार्थ में इतना ज्यादा रचे बसे हैं उनके लिए मानवीय मूल्यों का कोई मोल नहीं है।
लेकिन धर्म -कर्म  की मूल रूप से शिक्षा यही है कि मनुष्य इस प्रकृति का सबसे उन्नतशील प्राणी है। उनके अधिकारों का बचाए रखना बल्कि प्रत्येक प्राणी की रक्षा करना भी है।
लेखक का विचार:-आज के नई पीढ़ी की सोच सिर्फ अपने लोग तथा अपने पेट यानी (कुत्ता बिल्ली खरगोश पंछी) इत्यादि पर ध्यान केंद्रित कर दिए हैं यह पूरे पश्चिमी देश के नकल कर रहे हैं ।अपने भारतीय संस्कार को विकसित नहीं कर रहे है। 
अपने को विकसित की श्रेणी में रखने के लिए पश्चिमी देश का नकल करते हैं।
 हमारे सोच से यह गलत हो रहा हैं। भारत में रहकर भारतीय परंपरा को बढ़ावा देना चाहिए।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
इंसान खुद भी जानवर था, जो प्रकृति के बदलाव को आत्मसात करते हुए मानव के रूप में परिवर्तित हो गया । एक आलेख हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का पढ़ा है 'नाखून क्यों बढ़ते हैं' । इसमें लेखक ने मानव की इसी प्रवृति का विशेष उल्लेख किया है। जिसके अनुसार आज भी मानव अपनी पुरानी प्रवृति का उपयोग करता है जिसकी निशानी है नाखून। यह सही भी है। क्रोध में वह वापस अपनी पाशविकता पर उतर आता है, जैसा की जानवरों में देखा जाता है। वे आगे-पीछे नहीं सोचते । बस प्रहार करने या खतरे को समझ हमलावर हो जाते हैं। मानव भी उत्तेजना में अपने विवेक का उपयोग नहीं कर पशुतुल्य व्यवहार करने लगता है।
ईश्वर ने उसे अतिरिक्त शक्ति दी है - सोचने-विचारने की। परन्तु विवेकहीन होने पर वह पाषाणयुग का पशु बन जाता है।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
     मानव की अभिलाषाऐं अनन्त हैं। जिसके कारण मन मस्तिष्क विचलित होता जाता हैं और अंत में बुरी तरह से प्रभावित होता हैं, फिर जानवरों से बदतर हो जाता हैं, इंसान सब कुछ समझता हैं। मन के विकेन्द्रीकरण को रोक नहीं पाता और प्राकृतिक कृत्यों की ओर अग्रसर हो जाता हैं। नकारात्मक सोच में बदलाव की जगह     सोच दिल से दिल की धड़कन को सकारात्मक की ओर तेज गतिविधियों  होने पर ही विराम की आवश्यकता प्रतीत होती हैं। आज वर्तमान परिदृश्य में देखिए जिसमें उम्र पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता हैं। लेकिन आत्मग्लानी भी कोई बदलाव की पीढ़ियों को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर ही विराम दे सकती हैं। आज जितने कृत्य हो रहे हैं, उसके लिए हम ही दोषी हैं, इसके लिए किसी  जिम्मेदार को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ाने में सहयोग की अपेक्षा में इंतजार रह सकता हैं। एक बार जानवर भी प्रस्तावित प्राकृतिक संसाधनों को समझता हैं? 
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
          अत्यधिक लालसा, हरदम पाने की चाह,  ऐसी भूख जो कभी खत्म न होती हो, इंसान को जानवर बना देती है। चाहे वह तन की, मन की या धन की हो। मृगतृष्णा के समान इंसान बावरा होकर उसी के पीछे भागता रहता है और जानवर जैसा व्यवहार करने लगता है। भूल जाता है इंसानियत को एवं अपने संस्कारों को, याद रहती है केवल अपनी चाहत, अपना स्वार्थ, और कुछ नहीं। न उसे मर्यादाओं का ध्यान रहता है ,ना ही समाज का ,देश का ,परिवार का। येन केन प्रकारेण अपनी पूर्ति ही उस का मुख्य उद्देश्य होता है और उस स्थिति में वह अविवेकी होकर नासमझ जानवर तुल्य कार्य करने लगता है। इस स्थिति में किसी के समझाने का भी उस पर कोई असर नहीं पड़ता उसे जो करना होता है वही करके मानता है। एक बार कदम डगमगाए गलत रास्ते पर चले तो फिर उसी रास्ते को अपनाता चला जाता है इंसान और पतन के गर्त में गिरता चला जाता है।
 - श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
जब इन्द्रियाँ बस में नहीं होती हैं धीरता उदंडता में परिवर्तित हो जाती है उसी समय इंसान जानवर बन जाता है l श्रेष्ठ गुण धारण करने में समय अधिक लगता है किन्तु बुरे गुण मन मस्तिष्क पर तुरंत प्रभाव डालते है और मनुष्य दुर्गुणों की ओर अग्रसर होता हुआ अच्छा बुरा भूल जाता है पाशविक प्रवर्तियाँ जन्म लेने लगती हैं l काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि में फँसकर जानवर बन बैठता है lमानव सतकर्मों को भूल पतन की ओर चला जाता 
है lजब तक मानव आध्यात्मिक, संस्कारित  शिक्षा नहीं अपनायेगा,  आत्मा में धारण नहीं करेगा, जानवर ही बना रहेगा l 
    चलते चलते ---
आज जानवर लुप्त हो जंगलों में खो गये है l 
आदमी ही हैवान बन जानवर बन गया है ll 
     - डॉo छाया शर्मा 
अजमेर - राजस्थान
अहं,मद और लोभ में डूबे हुए लोगों की अकसर  शनैः शनैः सोचने- समझने की शक्ति कम होने लगती है अर्थात वे बुद्धि हीन होने लगते हैं।  उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने लोभ की पूर्ति करना ही एकमात्र उद्देश्य रह जाता है और इसमें वे इतने तल्लीन रहते हैं कि उन्हें इसके अलावा न कुछ दिखता है, न कुछ सूझता है। अच्छे - बुरे का न भान होता है और न ज्ञान। न उन्हें भूतकाल की स्मृति रहती है न भविष्य की परवाह। न धर्म, न नैतिकता, न रिश्ते, न पाप, न पुण्य ठीक वैसे ही जैसे जानवर होते हैं। वे इस लोभ में इतने आसक्त हो जाते हैं कि जैसे उसे पाये बिना एक पल भी नहीं रह पायेंगे और इस उतावलेपन में जब उन्हें लगता है कि वे जो चाह रहे हैं, मिल नहीं पा रहा है तब अतिरेक में हिंसा कर बैठते हैं।
  यह कर्म होता क्षणिक में मगर परिणाम सदा के लिए भुगतना पड़ता है, स्वयं को भी और पीड़ित को भी... परिजनों को भी।
अतः सदैव प्रयास यही रहे कि ऐसे लोभ...ऐसी आसक्ति... से बचें और औरों को बचावें। इसके लिए अच्छी संगत और अच्छे संस्कार  होना बहुत जरूरी है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
 गाडरवारा - मध्यप्रदेश
इस कलिकाल में लोगों की मनोवृति तामसी है।आजकल  मनुष्य का स्वभाव तमोगुणी है ।  भोजन भी सात्विक पसंद नहीं करता है । कहावत है जैसा खाए अन्न वैसा होगा मन अर्थात इस कारण से मनुष्य की मनोवृति ठीक नहीं है मनुष्य अपने निज हित में इतना प्रवीण है कि उसे किसी की भावना आदर सम्मान आदि का कोई ख्याल नहीं रहता रहता है धर्म कर्म में भी अधिक रुचि नहीं है जबकि मनुष्य का कर्म दूसरों का सहयोग आपस में आदर भाव मित्रता आदि होना चाहिए लेकिन मनुष्य बिल्कुल इसके विपरीत कर्म कर पशुता का परिचय दे रहा है।  
- पदमा ओजेंद्र तिवारी 
दमोह - मध्यप्रदेश
रामायण के सुंदरकांड में दो पंक्ति लिखी हुई है काम क्रोध मद मोह लोभ सब नरक के पंथ कहने का अर्थ है आज के इंसान का एक भाग हैवानियत का चोला धारण कर लिए हैं इसका मुख्य कारण संगति , परवरिश, खान-पान, साथ ही साथ मूवी का नकारात्मक प्रभाव इंसान को जानवर की श्रेणी में खड़ा कर दिया है । नकारात्मक चिंतन सोच लालच चरित्र को विकृत मानसिकता का परिचय दिया है ।पैसा कमाना और अपनी हवस को हर हाल में पूरा करना इंसान को जानवर बना दिया है
- कुमकुम वेदसन
मुम्बई - महाराष्ट्र
आज की चर्चा में जहां तक प्रश्न है कि इंसान क्यों बन जाता है जानवर तो इस पर मैं कहना चाहूंगा की आवश्यकता से अधिक लालच व कुसंगति और संस्कारहीनता आदमी को जानवर बना सकती है ऐसे व्यक्ति को किसी बड़े या समाज का कोई ध्यान होता और वह स्वतंत्रता तथा स्वच्छंदता के बीच के अंतर को भूल जाता है प्रत्येक वस्तु को अपने ही तरीके से प्राप्त करना चाहता है भले और बुरे का फर्क उसे नहीं दिखता अच्छाई और बुराई वह नहीं समझता पाप और पुण्य उसकी समझ से परे होता है ऐसी स्थिति में आदमी का कर्म और उसका व्यवहार बहुत खराब हो जाता है वह मनुष्यता की बात नहीं करता और पाश्विकता उसके दिमाग में बस जाती है और ऐसी स्थिति में उस मनुष्य और जानवर के व्यवहार में कोई अंतर नहीं रह जाता 
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
  क्रोध ,मोह ,  लोभ ,अहंकार , संगति , परवरिश ,वातावरण का प्रभाव ,खान पान , धन का नशा ये सब ही तो  इंसान को जानवर बना देता है !  हैवानियत में तो आज इंसान ने जानवर को भी पीछे छोड़ दिया है ! आज इंसान में इंसानियत नहीं रह गई है ! अपने स्वार्थ ,द्वेश ,ईष्या , मानव का महत्व, रिश्ते का कोई मूल्याकंन न कर पाना केवल हवस की लालसा उन्हें जानवर बना देती है ! नकारात्मक और नशे में अश्लील विचारों का आना उन्हें जानवर बनाता है ! 
सार यही है जब इंसान अपनी इंद्रियों को कंट्रोल नहीं कर पाता तब वह जानवर बन जाता है !
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
इन्सान क्यों बन जाता है जानवर? मेरे मत से ऐसा होना चाहिये की ईश्वर कि अनुपम कृती इंसान जो आज के अपने कृत्यों से अपने आप को जानवर सिध्द करने मे लगा है तो मेरा मत है कि इंसान रूपी यह जानवर आखिर कब इंसान बनेगा आखिर कब वह प्रेम सेवा समर्पण त्याग का हम राही बनेगा आखिर कब लालच सवार्थ गृणा बेर छोड़ेगा आखिर कब इंसान अपने श्रेष्ट कर्मो से इंसान बनेगा हमे उसी का इंतजार है।
- कुन्दन पाटिल 
देवास - मध्यप्रदेश
व्यक्ति कभी -कभी बुरी संगति , परिस्थिति के कारण जानवर बन जाता है , ऐसा कहा जाता है। अपने अत्याधिक स्वार्थ के कारण भी व्यक्ति अंधा हो जाता है और उल्टा- सीधा कार्य कर बैठता है। भगवान ने तो इंसान को इंसान हीं बनाया है ,  लेकिन इंसान क्यों जानवर बन जाता है, यह  बहुत हीं सोचनीय विषय है। जानवर बन कर सदैव इंसान ग़लत कार्य हीं करता है और अपने साथ- साथ दूसरे को भी नुक्सान या क्षति हीं पहुंचाता है। इसलिए व्यक्ति को इस ग़लत प्रवृत्ति और विकृति से सदा दूर हीं रहना चाहिए। यह एक अत्यंत हीं ग़लत प्रवृत्ति और मानसिकता है इससे हमें बचना और दूर रहना चाहिए। 
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
  जितना विवेक प्राणियों में मनुष्य के पास है उतना किसी के पास नहीं शायद ...।मनुष्य के विवेक हीन होने के बहुत सारे कारण हैं जैसे-गरीबी,सामाजिक समायोजन, अत्यधिक नैतिकता, सामाजिक दबाव,क्रूरता इत्यादि। आज की स्थिति कुछ ऐसी है कि चारों ओर पाप व अनाचार,लूट-मार की घटनाएं  आए दिन मिलती हैं, समाज में नारी को भोग की वस्तु समझ लिया जाता है उस समाज का उद्धार कैसे होगा? अगर हम कृतव्योंमुख हो जाएंगे तो हमारा विनाश निश्चित है।आदम जात को जब मनुष्य की कद्र करनी आ जाएगी तो वह सभ्य समाज का निर्माण करेगा। तभी हम सुख की सांस ले आनन्दानुभूति प्राप्त कर पाएंगे।
             - तरसेम शर्मा
         कैथल - हरियाणा
इन्सान को समाजिक प्राणी कहा जाता है ।समाजिक प्राणी का रुतबा इस को बाकी जानवरों से अलग करता है कयोंकि भगवान ने इन्सान में कई गुण जानवरों से श्रेष्ठ दिए हैं जिस के बलबूते इन्सान ने अपनी प्रतिभा के हर ओर झंडे गाड़े हैं। इन्सान अंतरिक्ष में पहुँच गया है लेकिन दूसरी तरफ जब हम हर रोज़ इन्सान की काली करतूतों को पढ़ते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है जैसे आगजनी, भष्ट्राचार, धोखाधड़ी और मार काट आदि।इन्सान की ऐसी करतूतों से यह जानवरों से भी गया गुजरा लगता है। कुत्ते और गधे इस से ज्यादा वफादार हैं। आज इन्सान को न तो रिशतों की परवाह है, न ही नैतिक मूल्यों की चिंता है, न ही उस में संवेदनशीलता, सज्जनतार प्रेम भाव रहा है। 
    लगता इन्सान अपने जीवन के सार को भूल गया है। यह जन्म बार बार नहीं मिलता। इस लिए इसको यूँ ही नहीं गंवाना चाहिए। एक सभ्य मानव बन कर रहना चाहिए। नैतिक मूल्यों को धारण करना चाहिए। जानवर वृति  छोड़नी चाहिए। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
इंसान विवेकशील प्राणी है-- जब उसका विवेक काम करना बंद कर दे तो वह जानवरों की तरह पेश आने लगता है। ईर्ष्या,लोभ,द्वेष, अहंकार जैसे दुर्गुणों के कारण वह स्वार्थवश दूसरों का अहित और अपने हित की कामना करने लगता है।
    जब उसके हृदय में परदुखकातरता की भावना खत्म हो जाती है, सामने वाले के प्रति उसके हृदय में सहानुभूति, ममता, दया, करुणा जैसे मानवीय गुणों का हनन हो जाता है तब वह इंसान जानवरों की तरह बिना सोचे-समझे व्यवहार करता है। उसे सिर्फ अपनी भलाई की चिंता होती है। दूसरे के दुख से उसके हृदय में कोई सहानुभूति नहीं उपजती।
    ऐसा इंसान स्वार्थवश सिर्फ अपना भला चाहता है और अपने सुख की परवाह करता है।
   मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। भावुकता में आकर कभी-कभी अंधभक्त बन कर भी भीड़ का हिस्सा बन क्षणिक आवेश में बिना विवेक से निर्णय लिए वह जानवरों की तरह अमानवीय हरकत करता है। कुछ पल के लिए तो उसे आत्मसंतुष्टि मिलती है पर अंततः उसकी आत्मा धिक्कारती ही है।
   तुच्छ आत्मसंतुष्टि हेतु इंसान जानवर यानी हैवान बन जाता है जिसका परिणाम हमेशा दुखदाई ही होता है।
         - सुनीता रानी राठौर
      ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
इन्सान को सृष्टि की रचना का केंद्र विंदु कहा गया है, किन्तु आजकल  उसके तौर तरीके, व्यवहार, व अच्छाईयां तव्दील होती नजर आ रही हैं, 
ऐसा लग रहा है कि इन्सान इन्सानियत छोड़ कर हैवान हो गया है क्योंकी उसके मन में दया का भाव समाप्त होता जा रहा है।
आइयै बात करते हैं, कि इन्सान क्यों बन जाता है जानवर। 
कहते हैं इन्सान में अगर दयालु भाव आ जाए तो वह इन्सान कहलाता है, 
अगर वो दुसरे से स्वार्थ पूर्ण व्यवहार करे  वो भी बर्बरता से तो वह हैबान कहलाता है, 
कहने का मतलब जो केवल अपने लिए जीता है वह हैवान है और जो सबके लिए जीता है वही इन्सान है।  
लेकिन आजकल इन्सानियत खत्म  होती जा रही है, 
सच कहा है,  
"मंदिर से भगवान गायव 
मस्जिद से गायव खुदा है, 
इन्सानों की भीड़ में खोजा 
इन्सानियत ही गुमशुदा है"। 
ऐसे हालातों में  देखा जाए तो तो इन्सान लगभग  हैवान ही वनता नजर आ रहा है, 
जरा सोचिए ईश्वर ने इन्सान इसलिए बनाया कि वो हर कुछ करने में  समर्थ है  यही नही इन्सान को वुद्दी, कार्य करने की शैली, क्षमता और प्रकृति का अवलोकन करने की शक्ति भी प्रदान की है
अथवा समाज में अपने को उच्च स्तर पर वनाए रखने की क्षमता भी दी है, इन्सान को इन  क्षमताओं का उपयोग करना चाहिए, 
अपनेआप में सेवाभाव रखिए
समाज में मदद किजिए तथा हैवानियत को मत अपनाइए, 
लेकिन आजकल मानवता का गला दवाया जा रहा है। 
मनुष्य केवल अपनी मातृ सेवा में जुड़ा है और वाकी सभी प्राणीयों को नुक्सान पहुंचा रहा है, 
वो यह नहीं जानता की मूक प्राणी के लिए भी जीवन इतना ही प्रिय है जितना इन्सान के लिए, अन्य जीव भी उसी की तरह  खुशी व दर्द महसूस करते हैं इसलिए हर प्राणी की रक्षा करना भी इन्सान का परम धर्म है लेकिन यह सब कुछ लुप्त होता दिखाई दे रहा है और इन्सान जानवर की तरह ही वनता दिखाई दे रहा है। 
सच कहा है, 
"खूबसूरत सी प्रकृति पशु बने इन्सान, मर रहा है भविष्य जानबर बन गया इन्सान"। 
सोचा जाए, इन्सान की समझ सिर्फ इतनी है जानवर कहो तो नाराज हो जाता है और शेर कहो तो खुश लेकिन दया का भाव छोड़ कर इन्सान सचमुच हैवान हो गया है। 
अगर सोचा जाए दूनिया में सबसे अकलमंद प्राणी है इन्सान और अपनी अक्ल के कारण ही  आज धरती पर राज कर रहा है, 
लेकिन इस काल में लोगोम में मानविय मुल्यों के प्रति निष्ठा में भारी कमी आ रही है और लोग अपने निजी स्वार्थ में इतने ज्यादा रचे बसे हैं उनके लिए मानविय मुल्यों का कोई मोल नहीं है, 
तभी कहा है,  
"वो बुलदियां भी किस काम की जनाब, इन्सान चढ़े और इन्सानियत उतर जाए"। 
आखिरकार यही कहुंगा, धर्म कर्म की मूल शिक्षा यही है कि मनुष्य इस प्रकृति का सबसे उतमशील प्राणी है और उसका कार्य न केवल मानव समुदाय और संप्रदाय के हितों की रक्षा करना है लेकिन उनके जीवन  को अनेक अधिकारों से वचाए रखना और प्रत्येक प्राणी की रक्षा करना भी है  ताकि इन्सान सही में इन्सान कहलाए। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
इंसान के अंदर जानवर प्रवृत्ति आने से इंसान जानवर हो जाता है. हर प्राणी में तीन तरह के गुण होते हैं- सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण. तमोगुण यानी तामसी प्रवृत्ति की प्रधानता वाला मनुष्य पशु प्रवृत्ति वाला होता है. प्रश्न यह उठता है, कि इंसान पशु प्रवृत्ति वाला क्यों हो जाता है? यह इंसान के संस्कारों का परिणाम भी हो सकता है और परिवेश का भी. परिवेश का अर्थ है घर-परिवार, पास-पड़ोस, स्कूल-ऑफिस के लोगों की संगति. ''जैसी संगति बैठिए तैसोई फल दीन''. कभी-कभी अच्छी संगति से पशु प्रवृत्ति वाला इंसान भी फरिश्ता हो जाता है और बुरी संगति से फरिश्ते जैसा इंसान भी पशु प्रवृत्ति वाला हो सकता है. मानवीय मूल्यों में निष्ठा की कमी इंसान को जानवर बना देती है. 

-लीला तिवानी
दिल्ली

       इन्सान कब बना जानवर? चूंकि इन्सान तो इन्सान भी नहीं बन सका और इन्सान को जानवर कहना 'जानवर' का घोर अपमान है।  प्रश्न स्वाभाविक हैं कि कब जानवर ने जानवर को इन्सानों द्वारा इन्सान को बांध कर मारा या फिर आत्महत्या करने पर विवश किया?
       सत्य यह भी है कि जानवर 'जानवर' को धोखा नहीं देता। जबकि इन्सान की इन्सान को धोखा देने की प्रावृत्ति जगजाहिर है। अर्थात सर्वविदित है कि बलात्कार इन्सान ही करता है। जबकि जानवर कभी बलात्कार नहीं करता। भ्रष्टाचार भी इन्सान ही करता है। जानवर तो कभी भ्रष्टाचार नहीं करता। जानवरों का चारा इन्सानों ने खाया है। जो प्रमाणित भी हो चुका है। जबकि जानवरों ने कभी इन्सान की रोटी नहीं छीनी। उल्टा जानवरों ने इन्सानों को दूध-दही और माखन दिया, इन्सानों का बोझ ढोया, धरती का सीना चीर कर फसल बोने व काटने-छांटने में सहयोग किया।
       उल्लेखनीय है कि इन्सान ही इन्सानियत पर धब्बा बना। चूंकि जानवरों की दुनिया में वृद्धाश्रम नहीं हैं। वह दहेज प्रथा पर भी विश्वास नहीं रखते। वह गोदामों में अनाज के भंडारण नहीं रखते और ना ही कालाबाजारी करते हैं। वह हरा चारा खाते हैं या शुद्ध रक्त पीते हैं।
       जानवर एक जन्म में जीते हैं या एक ही बार मरते हैं। परंतु इन्सान एक ही जन्म में करोड़ों-अरबों बार मरते हैं। जिंदा लाश शब्द केवल इन्सानों पर ही प्रयोग किया जाता है। इन्सान ही मां-बहन और बहू-बेटियों का व्यापार करता है। क्योंकि जानवरों ने कब डांस क्लब और वैश्यालय बनाये? वैश्यावृति भी इन्सानों की ही उपज एवं देन है। जबकि जानवरों की सभ्यता और संस्कृति में इन शब्दों का कहीं वर्णन नहीं है।
       जानवर जंगल में रहते हैं। जिनका एक मात्र कानून है। जो सब पर एक समान लागू होता है। वह छुआछूत या आरक्षण पर विश्वास नहीं रखते। वह इन्सानों की भांति तड़पा-तड़पा कर मारने में भी विश्वास नहीं रखते। वह हमेशा सतर्क रहते हैं और इन्सानों की भांति सतर्कता-सप्ताह का ढोंग भी नहीं रचते। 
       जानवरों की दुनिया में संविधान या संवैधानिक न्यायपालिका नहीं है और ना ही उनके वहां कोई न्याय से वंचित है। और तो और उनके वहां नौकरियों के लिए रिश्वत या रिश्वत के बदले मां-बहन और पत्नियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने की मांग भी नहीं होती। क्योंकि वह जानवर हैं और तथाकथित बुद्धिजीवी इन्सानों से कहीं अधिक सभ्य हैं। 
       अतः उपरोक्त संक्षिप्त उदाहरणों पर गंभीर मंथन एवं शोध होना चाहिए ताकि इन्सान या तो इन्सान बने या भविष्य में इन्सानों को जानवर की संज्ञा देकर "जानवरों का घोर अपमान" ना हो।
- इन्दु भूषण बाली 
जम्मू - जम्मू कश्मीर
*मानव जन्म लेने से ही इंसान मानव नहीं होता*
मानव में मानवता संवेदना होना भी बहुत जरूरी है मनुष्य के अंदर ही अच्छाई और बुराई राम और रावण जैसे दोनों भाव छुपे होते हैं यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह किस चीज को विकसित करें आसपास का वातावरण आपके मन मस्तिष्क पर उसके सोच समझ का भी आपके जीवन पर असर होता है आप जैसे लोगों की संगत में रहते हैं जैसी विचारधाराएं बनती है आपको पता नहीं चलता और धीरे-धीरे आप उसी के अनुरूप व्यवहार करने लगते हैं
संस्कार आसपास का वातावरण और आपकी स्वयं की सोच बार-बार आप गलत चीजों को दोहराएंगे तो बार-बार आपके मस्तिष्क में वैसे ही कार्य बार-बार दोहराते जाएंगे आपकी सोच का आपके मस्तिष्क मन पर बहुत असर करता है इसीलिए बच्चों को शुरू से अच्छे वातावरण में रखा जाता है गलत संगत से रोका जाता है गलत और सही की जानकारी माता-पिता बराबर देते रहते हैं और गलत बात करने पर बच्चे को बार बार डांटा जाता है समझाया जाता है कि हम गलत है इसे करना बुरी बात होती है बहुत कुछ स्वयं पर और आसपास के वातावरण पर निर्भर करता है गलत चीजों को देखना और उसको व्यवहार में अमल लाना भी इंसान के अंदर हैवानियत  और जानवर बना देता है बदले और प्रतिशोध की भावना के कारण भी लोग ऐसा करते हैं कुछ विकृत मस्तिष्क और सोच वाले भी लोग जानवर प्रवृत्ति के होते हैं।
*आपकी सोच और विचार का आसपास के वातावरण का बहुत असर होता है मानव जीवन पर*
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली

   मनुष्य के अंदर  ही देवत्य और राक्षस , दोनों प्रवृतियाँ है ।कर्म से ही वह देवता या राक्षस दोनों बन जाते हैं ।इसका उत्तरदायित्व उसके स्वयं के परिवेश का होता है ।मनुष्य के आहार -विहार तीन प्रकार के माने गये हैं ।   सात्विक   राजसी  और तामसी ..तामसी भोजन और व्यवहार वयक्ति को राक्षस जैसे कार्य करने को प्रेरित करते हैं  ।वह मदिरापान करता है 
मांसाहारी होता है झूठ ,जूआ ,चोरी वैश्यागमन जैसे अपराध में वह शामिल होता है और जब जिन्दगी में उसे हार मिलती है वह पशुता का व्यवहार करने लगता है ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश

" मेरी दृष्टि में " इन्सान है तो इन्सान रहना चाहिए । इस के लिए अच्छे कर्म करना आवश्यक है । बुरा कर्म तो इन्सान को जानवर बन देता है ।  इसलिए इन्सान का कर्म हमेशा सार्थक होना चाहिए । इन्सान की परिभाषा के अनुसार कर्म में उच्च कोटि का ज्ञान झलकना चाहिए ।
                                             - बीजेन्द्र जैमिनी
मोनिका सिंह

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