क्या सांसारिक सुखों का परिणाम है दुःख ?

 सांसारिक सुखों के चक्कर में बड़े - बड़े दु:खो को मोल खरीद लेते हैं । ऐसे सुखों का कोई लाभ नहीं होता है । यह सांसारिक मोह माया का जाल कहाँ से कहां पहूंचा देता है । यहीं जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
सुख और दुःख केवल मन की अनुभूति है । एक के लिए जो उल्लास का कारण होगा वो दूसरे के लिए भी हो ये जरूरी नहीं ।
जब हम सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के भाव को लेकर चलेंगे तो अपने आप ही सब कुछ सुखद होगा ।  हमारी लालसाएँ इतनी बढ़ गयी हैं कि उनकी पूर्ति न होने पर हम निराशा के गर्त में डूब जाते हैं ।
अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखकर ही सुखी जीवन जिया जा सकता है ।
सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
एतद विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥
दूसरों के ऊपर आश्रित रहने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता । अतः स्वयं के आधीन रहकर न्यायसंगत कर्म करके सुखी रहा जा सकता है ।
अंततः कहा जा सकता है कि मनुष्य को सांसारिक सुखों के पीछे न भागकर , उतना ही सुविधा भोगी बनना चाहिए जितनी कि मूलभूत आवश्यकताएँ हों । तभी दुःखों से बचाव संभव हो सकेगा ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
दुःख के अनेक कारण हो सकते हैं. अज्ञान, अशक्ति और अभाव, ये दुख के तीन मुख्य कारण हैं. इन तीनों कारणों को जो जिस सीमा तक अपने आपसे दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा. दुःख मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं. इनके नाम आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख हैं. मनुष्य का शरीर अन्नमय है. यह शीतोष्ण आदि कारणों से रोगी होकर दुःखों को प्राप्त होता है. व्यायाम की कमी, भोजन में पौष्टिक पदार्थों की कमी, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, वैर भाव, लोभ-लिप्सा, दुर्घटना, बाढ़, अकाल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि से भी शरीर को दुःख प्राप्त होता है. सांसारिक सुखों का परिणाम भी दुःख का कारण हो सकता है. सांसारिक सुखों की भरमार से आलस्य-अहंकार आदि उत्पन्न होता है और आलस्य-अहंकार से दुःख की प्राप्ति हो सकती है, 
सुख और दुःख एक अहसास भी है. महर्षि दयानन्द अपने जीवन के अन्तिम दिनों जब जोधपुर में थे तो उनका शाहपुरा राज्य का रहने वाला पाचक उनके चमड़े के बैग को चाकू से काटकर उसमें से सोने व चांदी की अशर्फियां व सिक्कों को ले भागा था. वह न तो पकड़ा गया और न दण्डित ही किया जा सका. स्वामी जी को अपने उस सेवक से उसकी ऐसी करतूत की आशा नहीं थी. स्वामी जी ज्ञानी थे इसलिए उन्हें इसका वह दुःख नहीं हुआ, जो एक सांसारिक मनुष्य को हुआ करता है. यह कहा जा सकता है, कि दुःख के अनेक कारण हैं और अनेक प्रकार भी, दुःख केवल सांसारिक सुखों का परिणाम ही नहीं है. 
- लीला तिवानी 
दिल्ली
   मनुष्य सांसारिक प्राणी है । उज्जीवन  कभी एक सा नहीं गुजरता वह हालातों के साथ बदलता रहता है। इंसान के जीवन में अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियां चलती रहती हैं सुख आता है तो दुख आएगा ही । मनुष्य की इच्छा बलवती है जिस चीज की वो कामना करता है मिल जाए तो सुख न  मिलने पर दुख। जैसे जैसे हम सभी का संपन्न होते जाते हैं हमें हम उसे सुख मानते हैं वही विपरीत समय आने पर हमेंवही सब चीजे  उपलब्ध न हो तो हम दुखी होते हैं। इसलिए सुख ही दुख का कारण है। इसलिए हर समय ईश्वर को ध्यान में रखो।
- पदमा ओजेंद्र तिवारी 
दमोह - मध्य प्रदेश
मानव जीवन में आज तक सांसारिक सुखों की खोज  कभी पूरी नहीं हो पाई  ।सुखी जीवन  अथवा जीवन में खुशी पाने के लिए व्यक्ति  प्रयास करता रहा है 
 ।सुख और दुख जीवन के दो पहलू हैं  जो हमारे कर्मों के परिणाम स्वरूप हमें मिलते हैं ।
 सांसारिक खुशी भौतिक या मानसिक दो  स्वरूप में देखी जा सकती है ।
 भौतिक सुख साधनों की कमी भी दुख का कारण बनती है  । अपेक्षाओं से अधिक इच्छाओं का पालना भी दुख का कारण बनता है । 
 व्यक्ति जब अपनी मेहनत से सुखाें का भंडार संजोता है तो आत्म संतुष्टि का अनुभव करता है  ।विरासत में मिला हुआ जीवन का सुख  मनुष्य को   श्रम हीन, कृतज्ञहीन बना देता है क्योंकि वह उस श्रमभाव से अपरिचित रहता है ।  दुर्भाग्यवश जब उन सुख साधनों में कमी आ जाती है तो  मनुष्य अपने आप को दीन -हीन और दुखी समझने लगता है  ।भोगा हुआ सांसारिक सुख, दुख में परिवर्तित हो जाता है । 
किसी कार्य के प्रति कर्मठता, लगन और ईमानदारी सफल परिणाम देती है ,  सुख की अनुभूति प्रदान करती है  ।
जीवन में कुछ अच्छा करने का भाव खुशी प्रदान करता है ।  कोई भी श्रेष्ठ ,भला कर्म, परोपकार की भावना से युक्त किया गया करम , हमें खुशी प्रदान करता है । क्योंकि इसके पीछे स्करात्मक सोच भी होती है । हर विपरीत अथवा बुरा व्यवहार या कर्म के पीछे मनुष्य की नकारात्मक और हीन भावना कार्य करती है । माेह से घिरा व्यक्ति भी अपने जीवन में दुख के बीज स्वयं बोता है । परिवारिक माेह ,संतान मोह व्यक्ति के लिए सुखकर तो होते हैं  ,परंतु अंततः  जब उपेक्षा का भाव मुखर हो जाता है तो दुखों की उत्पत्ति करता है । यह मानना सही है कि सांसारिक सुखों का परिणाम दुख ही है लेकिन स्थिरता ,संतोष ,धैर्य जैसे गुणों के आधार पर विपरीत परिस्थितियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है । 
कहा भी गया है  'संसार दुखों का घर है '। मगर गृहस्थ जीवन अपनाते हुए संसार को छोड़ा भी नहीं जा सकता । जरूरत है  जीवन में कुछ आदर्शों ,सिद्धांतों को अपनाने की।  सुख-दुख को समभाव मानने की । 
-  शीला सिंह 
 बिलासपुर -  हिमाचल प्रदेश
संसार दुख का कारण है। सांसारिक भोग सुख को त्यागने से ही कल्याण संभव है।

धर्म सुख का मार्ग है।सभी जीव खुशी चाहते हैं ।कोई भी दुख नहीं चाहता। धर्म ही हमें दुख से मुक्ति दिला सकता है। सुख को प्राप्त करने का तरीका सिखाता है,और हमारी रक्षा भी करता है साथ ही साथ सच्चे सुख पाने के लिए मार्गदर्शन भी करता है। खुशी का यह स्वरूप भौतिक या मानसिक भी हो सकता है।
जैसे :- नया खिला हुआ फूल ताजगी भर देता है और पुराने होने पर मुरझा जाता है। उसी प्रकार इस जीवन में आप कुछ भी हासिल कर ले उसका अंत होना निश्चित है। समय बीतने के साथ उसका अंत निकट आ जाता है।
अतः धर्म ही हमें मानसिक खुशी प्राप्त करने के साधनों के बारे में जानकारी देता है। इसमें शारीरिक श्रम करने की आवश्यकता भी नहीं है ।
*खुशी और दुख हमारे कर्मों का परिणाम होता है*।

लेखक का विचार:-सांसारिक भोग -सुखों को त्यागने से ही कल्याण संभव है।यह
परम सत्य है कि मानव का शरीर संसार एक है और हमारी आत्मा परमात्मा एक है। हमने तो इस शरीर को सांसारिक सुखों -भोगो से जोड़ दिए हैं इसलिए परिणाम दुख है।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
     जीवन में हरेक प्राणी सुख चाहता है। जीवन में कोई भी दुख नहीं चाहता।इसी सुख की प्राप्ति के लिए हम भौतिकवादी हो गए हैं। सब रिश्ते नाते फीके पड़ गए हैं। दौलत शोहरत की वजह से हम संतुष्ट नहीं होते।और अधिक----और अधिक-- पाने की भूख बढ़ती रहती है। एक वस्तु प्राप्त होती है तो दूसरी को पाने की लालसा शुरू हो जाती है। उसकी प्राप्ति के बाद और---और---और---यह भूख निरन्तर बढ़ती रहती है। कई लोग अपनी लालसाएं पूरी करने के लिए कानून के दायरे से बाहर निकल जाते हैं। खुद तो दुख भोगते हैं साथ में औलाद का भविष्य भी दांव पर लगा देते हैं। कहने का भाव यह है कि सांसारिक आपाधापी कभी खत्म नहीं होती। 
         हमारे पास जितना अधिक होगा, हमारी चिंताएं भी उतनी ही बढ़ती जाएँगी ।मन की शांति छू मंत्र  हो जाएगी ।आदमी सुख की भागदौड़ में अमूल्य शरीर और मानसिक शांति खो देता है।इस लिए कहा जाता है कि अति बुरी होती है। हमें सब्र और धैर्य से संयम और सकारात्मक सोच से जीवन यापन करना चाहिए नही तो सांसारिक सुखों की दौड़ का परिणाम दुख होगा। अपनी मेहनत, योग्यता और ईमानदारी से जितना मिलता है उसी से आनंदित होना चाहिए। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब 
      अपार सांसारिक सुखों की अभिलाषा ही दुःखों की जननी है। चूंकि जब हम प्राकृतिक सुखों से अधिक भौतिक सुखों की प्राप्ति की कामना करते हैं तो दुःख के अलावा कुछ नहीं मिलता। अन्यथा दुःख और सुख जीवन चक्र के प्रमुख भाग हैं और घूप और छाया की भांति परिवर्तनशील हैं।
      कहते हैं कि जब सुख साथ ना निभा सकेे तो दुःख की क्या औकात कि वह ठहर जाए? 
      सर्वविदित है कि लालच बुरी बला है। क्योंकि लालच का घड़ा कभी नहीं भरता। वह दिन दौगुनी और रात चौगुनी वृद्धि करता है। जो सारे फसाद की जड़ है।
      उल्लेखनीय है कि जीवन में सुखी वही मानव रहे जिन्होंने अपने मन के अश्व को लगाम लगाई और उसे नियंत्रित रखा। अन्यथा दुःखों से कोई बच ना पाया। क्योंकि सांसारिक सुख क्षणिक एवं अस्थाई हैं। जिनका परिणाम मात्र दुःख ही हैं।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
सुख और दुःख जिंदगी के दो पहलू हैं परन्तु आधुनिक युग में इसके मायने बदल गये हैं। भौतिक सुविधाओं की अधिकता को हम सच्चा सुख मान लेते हैं। यही कारण है कि हर इंसान पैसे के पीछे भाग रहा है ताकि वो अपने और अपने परिवार के लिए एशो-आराम की सारी सामग्री एकत्रित कर सके और अंततः सुखी जीवन व्यतीत कर सके।इस कारण संग्रह करने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है क्योंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता। आकांक्षाएं और इच्छाएं सुरसा की मुख की तरह  हमेशा अपना मुंह बाए रहती हैं और इंसान उसे पूरा करने में अपना सारा सुख-चैन गवां डालता है।पता नहीं किस खुशी की तलाश में इंसान जीए जाता है।ये एक अंधी दौड़ है जिसमें सब शामिल हैं पर मंजिल आंखों से ओझल है जो अंततः हमें निराशा से भर देती है। एक इच्छा पूरी हो जाती है तो दुसरी इच्छा जन्म लेती है और इस भंवर-जाल में फंसकर हम वास्तविक सुख और शान्ति से कोसों दूर चले जाते हैं मसलन घर-परिवार के साथ वक्त बिताना, हंसी-ठिठोली करना, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाना, रूचिकर काम करना  इत्यादि।सबकुछ पाने के चक्कर में जो सुख-चैन पास में है वो भी गंवा देते हैं और फिर सारी सुविधाएं उपलब्ध होने के बाद भी हम वास्तविक रूप में खुश नही रह पाते और अंततः हताशा में फंसकर दुःख पाते हैं।
-  संगीता राय
पंचकुला -  हरियाणा
 सांसारिक सुख दो तरह के हैं, एक शारीरिक सुख और एक मानसिक  सुख  जिसे  आत्मीय सुख भी कहते हैं। शारीरिक सुख क्षणिक सुख होता है एवं आत्मीय सुख निरंतर होता है। आत्मीय सुख निरंतर ना मिलना और क्षणिक सुख के प्रति आ सकती हो ना ही दुख है। मनुष्य को दोनों सुख की आवश्यकता होती है। मानसिक और शारीरिक सुख इन दोनों सुखों में कमी का अभाव ही दुख का कारण है।  इसे ही सांसारिक सुख कहा जाता है। मनुष्य संसार में दो ही तरह के सुख भोगता है ।संसारिक सुख जो क्षणिक है दूसरा आत्मिय सुख जो निरंतर है ।जो व्यक्ति आत्मीय सुख  का अनुभव कर जीता है । वही मनुष्य सुखी होता है। जो व्यक्ति शारीरिक सुख को महत्व देता है अर्थात शरीर सापेक्ष जीता है ।वही व्यक्ति दुःखी होता है। क्योंकि क्षणिक सुख से संतुष्टि नहीं मिलती और ,और की संभावना बनी रहती है। तृप्ति नहीं मिलती है। तृप्त ना होना ही दुःख का कारण है।  अतः यही कहते बनता है कि सांसारिक सुखों का परिणाम समझ कर ,ना जी पाने से असंतुष्ट अर्थात दुःख है।
 - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
सांसारिक सुख दो प्रकार के होते हैं - भौतिक एवं मानसिक। 
जीवनयापन के लिए भौतिक सुखों की प्राप्ति करना मनुष्य की प्रकृति है जिसके अनुसार उसे कर्म भी करने पड़ते हैं । इन भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु सद्मार्ग पर चलते हुए भौतिक सुखों को प्राप्त करने से मानसिक सुख मिलता है। सद्कर्मों से प्राप्त ये भौतिक एवं मानसिक सुख मनुष्य को दुखी नहीं बल्कि आनन्दित करते हैं। 
सांसारिक सुख जब हवस में परिवर्तित हो जायें अथवा स्वार्थ, लोभ तथा अंहकार में डूबकर सांसारिक सुखों को प्राप्त किया जाए और इनको प्राप्त करने का तरीका मानव धर्म के विपरीत हो, तब ये सांसारिक सुख पाप के समान होते हैं और परिणामस्वरूप दुख के कारक बनकर मनुष्य के नाश का कारण बनते हैं। 
यदि मनुष्य सदैव सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण रहते हुए, सद्कर्मों के प्रति पूर्ण निष्ठा निभाते हुए, सच्चरित्रता, ईमानदारी, परोपकार के मार्ग पर चलते हुए और मानव धर्म का अनुशीलन करते हुए सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु प्रयास करता है तो सांसारिक सुखों का परिणाम कभी दु:ख नही हो सकता।
इसलिए मनुष्य को सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए परन्तु इतना ध्यान रहे कि....
"आत्मचिंतन, आत्ममंथन मानव को सद्मार्ग दिखाते हैं, 
सद्मार्ग, सद्कर्म मानव को सुखों की अनुभूति कराते हैं। 
सांसारिक सुखों के प्रवाह में बहकर भटकते नहीं जो, 
जीवन-सरिता में वही मनुज आनन्द के पुष्प पाते हैं।।"
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
अवश्य सांसारिक सुखों का परिणाम दुःख ही है। यदि हम आज की ज्वलंत समस्याओं पर गौर करें तो साफ पता चलेगा कि सांसारिक सुखों का परिणाम दुःख ही है। बेटे द्वारा बुजुर्ग माँ-बाप की देखभाल नहीं करना। लोग अपने सुख की खातिर बेटा पालते हैं लेकिन वही उन्हें दुःख देता है। लोग आस लगाये बैठे रहते हैं कि बेटा बुढापे में हमारी देखभाल करेगा। और नहीं करता है तो दुःख होता है।
बलात्कारी क्षणिक सुख के लिए बलात्कार करता है और दुःख पता है और दूसरे को देता है।लोग क्षणिक सुख की खातिर सुंदरता पर मरते हैं फिर दुःखी होते हैं।
               रुपया पैसा धन दौलत के लिए रात दिन एक किये रहते हैं और उसके नष्ट होने या चले जाने पर दुःखी होते हैं।मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरे बच्चे, मेरा समान,मेरी कोठी, मेरा बंगला, गाड़ी माया मोह इन सब सांसारिक सुखों का उपभोग करते हैं या करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं और नहीं मिलने पर दुःखी होते हैं।
   दूसरी बात यदि हम अपने खानपान के ऊपर गौर करें तो ये साफ पता चलेगा कि जितनी भी चीज हम खाते हैं और वो स्वादिष्ट होती हैं उनमें से अधिकांश हमारे शरीर को नुकसान पहुंचाने वाली होती है। यानी जो जीभ को अच्छी लगती है वो पेट के लिये नुकसानदेह साबित होती है। जितने भी आमिष आहार हैं सब जीभ के लिए स्वादिष्ट होता है लेकिन पेट के लिए खराब। उसी तरह जितना जीभ को कड़वा लगता है उतना पेट के लिए फायदेमंद होता है।
         इस तरह से और भी जितने संसारिक सुख की वस्तुएं है सभी दुःख का कारण है। जितना संसारिक सुख का लालच होगा उतना मनुष्य दुःखी होगा।
            इसलिए ये बात एक दम सत्य है कि संसारिक सुखों का कारण ही दुःख है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - प.बंगाल
सांसारिक सुख ही सारे दुखो का कारण है। यह बात बहुत हद तक सत्य भी है। कोशिश होनी चाहिए हम प्रभु में अपना समय बिताए और उसका स्मरण हर समय करें। तभी हमें शांति मिल सकती है। इस संबंध मै मानस मर्मज्ञ पंडित विनोद मिश्र का कहना है कि मानस मेब्दो वाटिका का वर्णन है। एक पुष्प वाटिका ओर दूसरा अशोक वाटिका। दोनों में भक्ति है। एक योगी की वाटिका और दूसरी भोगी की वाटिका। योगी रूपी वाटिका में सीता रूपी भक्ति में परमात्मा के दर्शन होते है। वहीं भोगी रूपी वाटिका को हनुमानजी उजाड़ देते हैं। मनुष्य का परम लक्ष्य परम पद की प्राप्ति है। सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति नहीं। संसार के सभी जीव सुख चाहते हैै। सुख की प्राप्ति कैसे होगी इसके लिए प्रयास नहीं करते, बल्कि सांसारिक वस्तुओं के संग्रह में लगे हैं, जो दुख का कारण है। जब सुख की मूल भक्ति मिल जाय तब पाना शेष नहीं रह जाता है। हमारी सनातन परम्परा में जितने भी भक्त हुए सभी ने भगवान की आराधना आत्मानंद के लिए किया।ईश्वर से भक्त कुछ मांगता नहीं। देवी कुंती ने भगवान से विपती मांगी क्योंकि भगवान का दर्शन विपती के समय ही होता है। सुदामा ने भगवान से दरिद्रता मांगी क्योंकि ऐश्वर्य से भक्ति चली जाती है। सुख और दुख जीवन के चक्र के रूप में है। जीवन का चक्र चलते रहता है।  उसमे आपको सुख भी आते हैं और दुख भी आते हैं। एक तरह से समानता कभी नहीं हो सकती। आप काम करते हैं। इस दौरान कभी येसा भी होता है कि आप बीमार पड़ जाते हैं, तो अपने आप को दुखी महसूस करते हैं। आप अपनी पत्नी और बच्चो को बहुत प्यार करते हैं। जब उनको उनके हिसाब से पोषक में कमी कर देते हैं तब उनको दुख होता है। सुख और दुख  एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हमारे जीवन में सुख और दुख दोनों ही चलते रहते हैं। 
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख के पीछे दुख मौजूद है ।पीछे  है ।आने को तैयार ही है ।अन्योन्याश्रित संबंध है ।मनुष्य का दुख क्या है ।दुख है कि वह सुख को पकड़ कर बैठ जाता है ।अगर ऐसा नहीं करता तो जो भी  जीवन में आये ,उसे स्वीकार  कर लेता है ।तो न दुख का अस्तित्व है न सुख का । हम आधे को स्वीकार करते हैं जब कि पूर्ण स्वीकार में हम दोनों से मुक्त हो जाते है ।समय का पहिया तो गतिमान है ।इस गति शीलता में जीवन है । म इस गति शीलता का अंग नहीं बनना चाहते ।हम दुख से ही नहीं घबराते  बल्कि सुख से भी ऊब जाते हैं ।हम सदा सांसारिक सुखों के पीछे भागते हैं ।भागना हमारी आदत बन जाती है । एक सुख से अगले सुख में छलांग लगाते हैं । हम कभी जी नहीं पाते ।हमारी इच्छाओं का सिलसिला जारी रहता है ।हमारी और और की मांग जारी रहती है ।इसलिए ये सभी सुख अंत मे दुख का कारण बनते हैं ।
- चंद्रकांता अग्निहोत्री
पंचकूला - हरियाणा
           मनुष्य के अंतर्मन में छिपे हुए भावों में एक भाव सुख की लालसा का भी होता है। हर व्यक्ति चाहता है सुख पूर्वक भोग विलास के साधन संपन्न जीवन जीना। किसी में यह वृत्ति ज्यादा होती है तो किसी में कम और किसी में औसत। बड़े बड़े ज्ञानी महात्मा लोग संत लोग इस  वृत्ति को छोड़कर ईश्वर में ध्यान लगाते हैं। उनका ध्यान भगवत भक्ति में होता है। सुख-दुख का उन पर खास प्रभाव नहीं पड़ता। किंतु सांसारिक मनुष्यों  के लिए तो  सुख ही मुख्य वस्तु होती है और वे उसी के लिए प्रयासरत रहते हैं तथा उसकी बहुलता प्राप्त न होने पर दुखी हो जाते हैं। अतः मानवीय प्रवृत्तियों के अनुसार देखा जाए तो सांसारिक सुखों का परिणाम ही है दुख। सुख सुविधाओं में कमी इंसान को दुखी बना देती है उसी की उधेड़बुन में लगा रहता है और चिंतित होता रहता है।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
सांसारिक सुख क्या हैं - सुविधाओं से पूर्ण जीवन, भोग विलास का जीवन, मोहमाया का जीवन, नाम और पद की चाहत रखने वाला जीवन, ‘मैं’ को संतुष्ट करने वाला जीवन।  ये सभी सुख अस्थायी हैं। जब तक ये सुख मिलते रहते हैं तब तक दुःख का कोई प्रश्न नहीं।  परन्तु जब वक्त करवट बदले और धीरे-धीरे ये सुख छिनते जायें तो दुःख अपनी जगह बनाने लगता है।  ऐसी परिस्थितियों के चलते विचारधारा भी बदलने लगती है और संभवतः यही कहा जाता है कि सांसारिक सुख तो आने जाने हैं, इनका क्या भरोसा।  सांसारिक सुखों का ही परिणाम हैं दुःख।  
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली
जीवन में सुख और दुख हमारे साथ धूप-छांव है ! मनुष्य यदि संसार में आया है सुख प्राप्ति की लालसा तो रखता है ! इसी पाने की लालसा में वह इतना आगे बढ़ने लगता है कि उसका अंतिम छोर चाहकर भी उसे नहीं दिखता  और यहीं से उसका पतन एवं दुख शुरु हो जाता है ! किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती !  कहते हैं न कभी कभी ज्यादा ज्ञान दुख का कारण बनता है !  ठीक उसी तरह सुख की लालसा में हम इतने स्वार्थी और अहंकारी बन जाते हैं कि हम किसी को कुछ समझते ही नहीं !  आज मनुष्य अपने भौतिक सुख की लालसा लिए पृथ्वी पर कितना अत्याचार कर रहा है ! ज्ञान और विज्ञान के बल पर मानव दानव बन गया है ,स्वयं को ईश्वर समझने लगा है और यही उसके दुख का कारण बना है जो आज हम सभी (कोरोना के रुप में )भोग रहे हैं ! आज को देखते हुए यह मेरे विचार है समस्त मानव के लिए ! ज्ञान  और विज्ञान की दृष्टि से सांसारिक सुख का परिणाम दुख है किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जीवन में सुख-दुख अतिथि ही है ! सुख हमें आनंद देता है तो दुख अनुभव ! यही आनंद एवं अनुभव हमें परमानंद का ध्यान कराता है ! 
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
*सुख दुख केवल एक मन का भाव*
सुख और दुख अंतरात्मा में बसे होते हैं
पुष्प की खुशबू सी महक जीवन की बगिया को सुवाषित करती है संसार में हम जन्म लेते हैं तो संसार की सभी भौतिक वस्तुओं का उपयोग भी हम सभी मानव कम या ज्यादा करते हैं
समय के साथ सुख सुविधाओं का भी उपयोग करते हैं जो कि आवश्यक आवश्यकता में शामिल हो जाती है
हम आप चाहे या ना चाहें परंतु यह हम पर निर्भर है कि उसे हम समय की जरूरत समझने से ज्यादा कुछ ना समझें भौतिक वस्तुओं में सुख को ढूंढगे  तो परिणाम दुख ही होगा  भौतिक वस्तुओं में  सुख नहींं केवल समय के परिवर्तन के साथ जीवन को जीने की आवश्यक आवश्यकताएं होती है और यह समय अनुसार बदलती रहती है लेकिन मानव सब कुछ जानते समझते हुए माया मोह में पड़कर इनमें ही सुख को प्राप्त करने लगता है तब सांसारिक सुखों का परिणाम दुख होता है। निर्लिप्त भाव से
केवल जीवन को जीने की उपयोगिता समझे तो कोई दुख नहीं होता है।
*गीता में श्रीकृष्ण ने कहा हे पार्थ ना सुख में सुख की अनुभूति करो ना दुख में दुख की अनुभूति सभी में सम भाव रखते हुए जीवन में चलते हुए जीवन को जीना यही जीवन मूल्य है*
- आरती तिवारी सनत
दिल्ली
     हम अनेकों योनियों से भटके हुए, अच्छे कर्मों के प्रति फल स्वरुप मानव रुप में जन्म लेते हैं। जहाँ मानव जीवन में अनेकानेक सुख-दुःख की माया नगरी में प्रतिस्पर्धा चलती रहती हैं, अन्ततः जीवन का परित्याग हो पुनः वही चक्र चलता रहता हैं।  हम काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि में वशीभूत होकर जीवन में आनंद की लीलाओं में मगन हो जाते हैं और जब दु:खों का साया सामने आता हैं, तब समझ में आता हैं, कोई भूल जरुर हुई हैं, फिर सोचने पर मजबूर हो जाता हैं और अंत में बुरी तरह से सामना करना पड़ता हैं। जरुरी नहीं हैं, कि  धनवान व्यक्ति के पास अनवरत धन संचित होगा। धन तो चलाये मान इच्छा शक्ति, मन चंचलता पर निर्भर करता हैं। एक निर्धन भी अच्छे कर्मों के प्रति फल प्रतिफल स्वरुप सुख-भोग विलास का जीवन अंत में व्यतीत करता हैं। सब सांसारिक सुखों का परिणाम ही हैं, दु:ख ? सब विरासत का ही सब खेल हैं? ईश्वर ने तो रचना कर दी, उस रचना को स्थायित्व प्रदान करना मानव संसाधन के ऊपर निर्भर करता हैं?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
 यह मान भी लें तो इस हिसाब से तो दुख ही दुख होगा फिर। सांसारिक सुख तो कुछ होगा ही नहीं और जब उसका परिणाम दुखद ही होना है तो सुख कैसा? अजब पहेली सा है यह विषय।सुख दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।एक स्थिति जो किसी एक व्यक्ति के लिए सुखद होगी, दूसरे के लिए दुखद हो सकती है।सुख, दुख का अहसास हमारी मनःस्थिति और परिस्थिति पर निर्भर करता है। जैसे मीठा खाने के बाद थोड़ा नमकीन खाने का अथवा नमकीन के बाद मीठा खाने का मन होता है। वैसे ही एक स्थिति अधिक समय तक सुखकर नहीं होती।मानव का स्वभाव है परिवर्तन।और प्रकृति भी परिवर्तनशील होती है।तो भला परिस्थिति क्यों न परिवर्तित होगी।होगी ही,बस वो अनुकूल तो सुख की अनुभूति और प्रतिकूल तो दुख की अनुभूति। यही कारण सुख,दुख चलता रहता है,मुझे तो ऐसा ही लगता है। हां सांसारिक सुखों का परिणाम दुखद होता है, मैं इस बात से सहमत नहीं।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल '
धामपुर - उत्तर प्रदेश
"  . संसार है इक नदिया ,सुख दुख दो किनारे हैं "
   सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।सदा साथ-साथ  चलते हैं पर दोनों प्रवृतियाँ व्यक्तिगत होती है।
समयानुसार ,परिस्थिति के अनुरूप अपना चोला बदलती रहती है ।एक के लिए जो सुख है वो दूसरे के लिए महत्वहीन हो सकता है। 
   सांसारिक सुखों की बात करें तो इसका सूची अनंत है।
हमारा मन चंचल है और हर रोज नयी आकांक्षा जन्म लेती है। उसे पूरा करने के लिए हम प्रयास करते है,पाते हैं ,पूर्ण होते ही वो अदम्य इच्छा समाप्त और नये सुख नये आकर्षक रंग में तैयार खड़ी दिखती है  हमारी संस्कृति और संस्कार हमे यह सिखा गये हैं कि संसार मिथ्या हे,भ्रम है। वास्तविक सुख,आनंद, मुक्ति दो भीतर है। ज्यादा संचय दुख कारी ,ज्यादा लालच हमे स्वार्थी ,ज्यादा सुख अहंकारी बना देते हैं। हम अपने ही सुनहरे जाल में अकेले रह जाते हैं । जब साथी की आवश्यकता होती है तो खुद को अकेला पाते हैं यही सबसे बड़ा दुख है ।
  सांसारिक सुखों के पीछे भागते समय दया , दान ,पुण्य कर्म ,धर्म कर्म,अपना पराया , छोटे लगते हैं जो वास्तविक सुख हैं ।  इसीलिये निर्लिप्त होकर संसार में जीना ही सुख है।
   मौलिक और स्वरचित है।
     - ड़ा.नीना छिब्बर 
      जोधपुर - राजस्थान
आज की चर्चा में जहाँ तक यह प्रश्न है कि क्या सांसारिक सुखों का परिणाम दुख है तो  मै कहना चाहूंगा यह बिल्कुल सही बात है अत्यधिक भौतिक संसाधनों की लालसा सुख प्राप्त करने की ही उपज है वास्तव में जिन भौतिक सुख साधनों को हम सब सुख समझ बैठते हैं आध्यात्मिक रूप से वही सब दुखों का कारण भी है अपने इन भौतिक सुख संसार भौतिक सुख संसाधनों की पूर्ति करने की लालसा में हम सभी अधिक से अधिक धन उपार्जन की ओर ध्यान देते हैं और ऐसा करने के प्रयास में कभी-कभी उचित व अनुचित भी भूल जाते हैं बस केवल धन प्राप्त करने का स्वार्थ भौतिक संसाधन जुटाने की हमारी इच्छा है सब कुछ हो जाती है और शेष बातें हम सब भूल जाते हैं जिन सबके लिए हम यह सब भौतिक संसाधन जुटा रहे होते हैं एक समय वह भी आता है की वह ही हमें यह सब शिक्षा देने लगते हैं कि आपने यह ठीक नही किया  किया है और तब इस सब का परिणाम दुख में परिणित हो जाता है और तब हमें लगता है कि वास्तव में यह सब भौतिक संसाधनों की लालसा जिससे हम सुख समझ बैठे हैं वास्तविक सुख नहीं है वास्तविक सुख आत्मिक संतोष है आध्यात्मिक रूप से अपने आप को सबल बनाने में ही सुख है सांसारिक सुख केवल दुख का ही कारण है जो अत्यधिक भौतिक संसाधनों को जुटाने की लालसा की उपज है यही दुख का कारण बनता है
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
विज्ञजन ठीक ही कहते हैं -"सुख -दुःख, स्वर्ग -नरक इसी लोक में हैं और यह सत्य भी है l पूर्ण तृप्तिदायक और अत्यंत उद्दिग्न करने वाली स्थिति इस लोक में मौजूद है l 
सुख -दुःख मन के अनुभूत करने का विषय है न कि सांसारिक विषय l दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दे दी, हरिश्चंद्र ने अपने को, स्त्री, पुत्रों को बेचा, मोरध्वज ने अपने पुत्रों को दे डाला, प्रह्लाद ने अपने पिता के अत्याचार सहे l क्या ऐसे दुखों में भी स्वर्ग का सुख नहीं छिपा है? या यूँ कहे कि स्वेच्छा से स्वीकार किया हुआ कष्ट तप कहलाता है, दुःख नहीं l मीरा ने तो राजसुखों का परित्याग किया l क्या हम उसे दुःखी कहते हैं? 
      सुख -दुःख का निर्णय सांसारिक सुख नहीं कर पाते क्योंकि संसार में न तो धनी लोगों को सुखी होते देखा है, न ही अभावग्रस्त जीवन जीने वालों को दुःखी कहा जा सकता है l फकीरी की तो मौज मस्ती ही अलग होती है l 
गो धन, गज धन और रतन धन खान रे 
पायो रे जब संतोष धन, सब धन धूरि समान l
संतोष धन के सामने सांसारिक सुख कहाँ टिकते? 
भू-लोक के सुखों में मानसिक, शारीरिक और नैतिक स्वास्थ्य को स्वर्ग बताया गया है l दर्पण झूँठ न बोले.... संसार दर्पण के समान है
 इसमें वैसी ही शक्ल दिखती है जैसा कि हम स्वयं होते हैं l सांसारिक सुखों और भोगों में सुख ढूँढोगे तो उसका परिणाम दुःख ही होगा l 
      सांसारिक सुखों की मस्ती मनुष्य को इतना संतुष्ट नहीं 
कर पाती जितना विचारों के धन से वह संतुष्ट होता है l 
सुख दुःख एक अनुभूति है जो व्यक्ति, वस्तु और समय के सापेक्ष होती है l घटना एक ही घटती है, कोई उससे सुखी तो कोई उससे दुःखी होता है क्योंकि अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह अपरिचित होने के कारण उलझता हुआ दुःखी होता है l सुख -दुःख तो आने जाने है जो न आता है न जाता है वह है स्वयं का अस्तित्व और इस अस्तित्व में रहना ही समत्व है l 
       - ड़ॉ. छाया शर्मा
अजमेर -  राजस्थान
सुख-दुःख जीवन के हिस्सा हैं। ये विभिन्न रूपों में हमारे जीवन में आते-जाते रहते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में विद्वानों ने इन्हें अतिथि की तरह माना है। 
 जीवन में भावनाओं की भी अहम भूमिका होती है। सच पूछा जाये तो जीवन में जो उत्साह और ललक होती है, वह भावनाओं की वजह से ही होती है। जीवन दर्शन में इस भावात्मक  अभिरुचि और लगाव को सांसारिक माना है। जब भी इसमें कुछ अच्छा या अपेक्षित होता है, तो सुख मिलता है और जब भी अनेपक्षित होता है तो दुःख का कारण बनता है। इसके साथ ही यह भी कटु सत्य है कि इस सुख-दुःख की अनुभूति से कोई भी अछूता नहीं है। बस,इन स्थितियों- परिस्थितियों में कौन स्थिर रहता है, कौन विचलित होता है। यह अलग- अलग हो सकता है। 
इसीलिए हमें सीख भी यही दी गई है कि कभी भी न सुख में इतराना चाहिए और न दुःख में घबराना चाहिए। जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है। इसी तरह सुख-दुःख आते- जाते रहते हैं।
सार यही कि सांसारिक सुखों का परिणाम है दुःख। यह मानना निरर्थक या असत्य नहीं है। इन सांसारिक सुखों के प्रति जो जितना आसक्त रहेगा, उसके उतने ही दुःखी रहने के कारण ज्यादा रहेंगे। क्योंकि यह भी अटल.सत्य है कि 'सबको, सब कुछ नहीं मिल जाता।'
अस्तु।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
सांसारिक सुख प्राप्त करने की लालसा में ही हम हमेशा नई-नई उम्मीद दिल में पालकर नई-नई चीजों को पाने की तमन्ना ह्रदय में संजो लेते हैं। भोग-विलास की वस्तुओं को प्राप्त करने हेतु लालायित रहते हैं और जब वह पूर्ण नहीं होता तब हम दुखी और निराश रहने लगते हैं।
   धन-दौलत के नाम पर अपने सगे संबंधियों से भी आत्मीयता खत्म हो जाती है और सुख के चाहत में हम आत्मिक दुख से ग्रस्त हो जाते हैं।
   ज्यादा धन कमाने की लालसा,सुख-सुविधा संपन्न व्यक्ति बनने की लालसा, आधुनिकता के होड़ में बाह्यप्रदर्शन, भोग-विलास की वस्तुएं प्राप्त करने की चाहत और अगर इच्छानुसार नहीं मिला तो मन का अशांत होना हमारी सुखी जीवन को अशांत और दुखी बना देता है।
   अतः नि:संदेह हम कह सकते हैं कि सांसारिक सुखों का परिणाम ही दुःख है। जब हम माया नगरी से निकलकर अपने मन की भावनाओं पर नियंत्रण कर लेते हैं, सांसारिक सुख भोग-विलास की वस्तुओं से निर्लिप्त हो जाते हैं तब हमारा मन आत्मिक सुख को प्राप्त करता है। सांसारिक माया मोह सुख की चाहत हीं दुःख का मूल कारण है।
                   -  सुनीता रानी राठौर
                      ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
आओ आज सांसारिक सुखों  के परिणाम का बात करें, क्या सांसारिक सुखों में ही सुख है, 
जी नहीं  यहां तक मेरा मानना है, सांसारिक सुखों का परिणाम है दुख को गले  लगाना, क्योंकी सांसारिक सुखों के भोग में जीवन बिता देना आत्मा के साथ अन्याय करना  है, यह सच है मानव चाहे हजारों वर्ष की उम्र क्यों न प्राप्त कर ले पर  मरते समय तक उसकी अभिलाषा पूरी नहीं होती और आखिर समय तक यही कहता है कि वह इस संसार में कुछ न कर सका और अन्त समय तक परेशान रहता है। 
यही नहीं जिन चीजों को वो अपना समझता है वो भी उसका साथ नहीं देतींऔर वो मोह माया के चक्कर में ही अपना  मुल्यवान जीवन खत्म कर देता है, 
यहां तक की महान पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त हुआ यह दुर्लभ जीवन समाप्त हो जाता है। 
जो  इन्सान अपना संपूर्ण जीवन विषय वासनाओं के सेवन में व्यतीत कर देता है, ऐसा  इन्सान पुना मानव जीवन नहीं पा सकता। 
हर इंसान को यह ज्ञात होना चाहिए कि संसार दुखों का कारण है और धर्म सुखों का मार्ग है, यही नहीं धर्म  दुख से हमारी रक्षा करता है।  
क्यों न हम धर्म के रास्ते पर चल कर सुख का अनुभव करें, 
जिसे इन्सान सुख समझ रहा है वो  सांसारिक  सुख  है , जो स्थायी नहीं है सिर्फ पल भर के  लिए है, यही सुख  आखिर में दुखों का कारण  वनता है जब हम से दूर हो जाता है और मोह माया का कारण वनता है, 
इसलिए इंसान को जो भी कार्य मिलता है उसे पूरी इमानदारी के साथ निभाना चाहिए उस में कोई अपना पराया नहीं देखना चाहिए, 
इसी में भलाई है और इसी में जीवन का सुख है  वाकि सांसारिक सुख एक मात्र एेसा सुख है   जो पल भर के लिए तो मीठा लगता है लेकिन उसका परिणाम दुखों से भरा होता है। 
हमें कितनी भी खुशी या भौतिक सुख साधन क्यों न मिल जांए हम उन से संतुष्ट नहीं होते, हमेंअधिक पाने की भूख कभी नहीं मिटती और आखिर कार हम अपना सारा जीवन  सांसारिक सुखों को पाने मे नष्ट कर देते हैं और नरकिय जीवन व्यतीत करके चल पड़ते हैं, आखिर कार यही कहुंगा सांसारिक सुखों का परिणाम दुख ही है सिर्फ दुख। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
सुख और दुख तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं इनका साथ साथ जीवन में लगा ही रहता है बिना दुख ही के सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। जैसे हर रात के बाद सुबह आती है वैसे ही जीवन में सुख दुख लगा रहता है जिस व्यक्ति के जीवन में अभाव रहता है और वह दुखी रहता है तो वह पढ़ाई में अधिक मेहनत करके अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करता है इसीलिए दुख को भी भगवान का वरदान मांग लेना चाहिए तो जीवन में सुख अवश्य आएगा।
हमें  अपने स्वास्थ्य का ही ध्यान देना चाहिए । जीवन का असली धन तो स्वस्थ शरीर ही है और स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करेगा और हम अपने आप सुखी रहेंगे।
*मन के हारे हार है मन के जीते जीत*
 - प्रीति मिश्रा 
जबलपुर -  मध्य प्रदेश
सुख और दुख जिंदगी के दो पहिए हैं पूरी जिंदगी का यदि हिसाब लगाया जाए तो कभी सुख का छांव है तो कभी दुख का छाया है तो सुख-दुख धूप छांव की तरह है और तभी या विश्वास होता है कि यह सुख है और यह दुख है तो अगर सांसारिक सुख में आनंद उठाते हैं और जब वह आनंद नहीं मिलता है तो दुख की अनुभूति होती है तो सुख के माध्यम से ही दुख को समझते हैं और दुख के माध्यम से ही सुख को समझते हैं इसलिए सांसारिक सुखों का परिणाम दुख है और सांसारिक दुखों का परिणाम सुख है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
सुख और दुःख हमारी मनोदशा है इस मनोदशा की जिम्मेंदार कभी कर्म ,कभी परिस्थिती,कभी हमारी अपनी ही महत्वाकांक्षाएँ  और कभी आपदा होती है ।हमें अनुकूल परिस्थिती में   सुखी होने का और प्रतिकूल परिस्थिती में दुःखी होने का स्वभाव प्रकृति से मिला है । सुख दुःख का चक्र दिन रात की तरह जीवन में चलता ही रहता है ।हर एक के सुख  दुःख का पैमाना अलग -अलग है ।यद्पि इसके जिम्मेंदार हम स्वयं होते हैं । जो व्यक्ति इन सभी बातों को समझ लेता है उसे ज्यादा व्यथा नहीं होती ।कहते हैं ...ज्ञानी भुगते ज्ञान ते ,मूरख भुगते रोय   मेरे विचाार से संसारिक सुखों का परिणाम ही दुःख है ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
अमीरी के जीवन में धन चमकता है और सन्तों के जीवन में व्रत चमकते हैं लेकिन आज समाज सांसारिक सुख भोगने में लगा है  बिना पसीना बहा के वह अपना खाना नहीं पचा पाता है जिसके परिणाम उसे बीमारियों के रूप में भुगतने पड़ते हैं ।
भारत की संस्कृति त्याग और भोग की है 
त्यागपूर्वक सांसारिक पदार्थों को भोगना ,
 लालच न करना 
यानी मानव भोग को त्यागपूर्ण रूप में अपनाए . भोग और त्याग में संतुलन करके विरोधाभास को मिटा सकते हैं और भरतीय संस्कृति भोग और त्याग में संतुलन करना सीखती है . जो मानव को कल्याण की ओर ले जाती है इंसान को सुख अच्छा लगता है ।दुख किसी को नहीं चाहिए लेकिन दुख  , सुख तो करनी के फल होते हैं ।
मानव को कोरोना ने घेरा है इसका एक कारण एसी कमरों में रहना प्रकृति से दूर भागना और ज्यादा से ज्यादा सुख सुविधाओं को भोगना । यही भौतिकता हमारे दुखदायिनी बन जाती है । कोरोना का अभी तक कोई वैक्सीन नहीं बना है । हम मूल्यों से दूर भाग रहे हैं 
दम यानी इंद्रियों पर नियंत्रण रखें इस संकट में हम जीवों के प्रति  दयावान बने  ,दान यानी मानवता  बचाने हेतु वंचितों , गरीबों की मदद करें । 
दम , दया , दान यह भारतीय संस्कृति की आत्मा है ।इस आध्यात्म के मार्ग पर चलें तो सारी बीमारी  दुख छूमंतर हो जाएँगे।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुम्बई - महाराष्ट्र
" मेरी दृष्टि में " सांसारिक सुखों में बहुत धोखे हैं । परन्तु इन धोखे से कोई - कोई बच पाता है । यहीं आध्यात्मिक का प्रश्न सबके सामने आता है । सब को उत्तर चाहिए ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
डिजिटल सम्मान

Comments

  1. सार्थक परिचर्चा👏👏👏👏👏👏

    ReplyDelete
  2. बहुत बढ़िया

    ReplyDelete
  3. सांसारिक सुखों का मोह ही दुख का कारण है। जितनी सुख सुविधाएं मिलती जाती हैं उतना ही इंसान का मन भोग विलास की तरफ बढ़ता जाता है। जब यह सुख उसे ठीक तरह से उपलब्ध नहीं होते तो वह क्लांत हो जाता है दुख मनाने लगता है ।

    ReplyDelete
  4. अच्छे विचार पढ़ने को मिले। सबका शुक्रिया 🙏
    संगीता राय
    पंचकुला, हरियाणा

    ReplyDelete
  5. सार्थक परिचर्चा

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही हैं ?

लघुकथा - 2024 (लघुकथा संकलन) - सम्पादक ; बीजेन्द्र जैमिनी

इंसान अपनी परछाईं से क्यों डरता है ?