स्वयं को जानने से बड़ा कोई ज्ञान है क्या ?
स्वयं को जानना ही जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है । इस चुनौती को स्वीकार करने वालों की सख्या बहुत ही कम होती है । फिर भी इस चुनौती को स्वीकार करते हैं । जो इस में सफलता प्राप्त कर लेते हैं । वहीं सबसे बड़ें ज्ञान को प्राप्त करते है। यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
यह एक सही चर्चा का विषय है।
मेरे विचार से स्वयं को जानना पहला और साथ ही अंतिम ज्ञान है। स्वयं को जानना एक आसान काम नहीं है, क्योंकि हमें लगता है कि हम अपने बारे में तो जानते ही हैं, अब और अपने को क्या जानना। हम यहीं पर गलत हो जाते हैं और अपने को छोड़कर किसी और ज्ञान की खोज में चल पड़ते हैं। जिस दिन हमने अपने को संपूर्ण रूप से जान लिया, और कुछ जानने की आवश्यकता ही नहीं होगी। हम जिन चीजों... शांति, प्रेम, ईश्वर, संतोष जैसे सुखों की तलाश में भटकते हैं, वे सभी हमारे अंदर ही तो हैं। इन्हें स्वयं में खोजने के बजाय हम इधर-उधर ढूंढते हैं। जबकि ये सभी हमें स्वयं की खोज करने से आसानी से मिल जाएंगी, परंतु स्वयं में इन्हें खोजने के लिए हमें स्वयं के साथ गंभीर बैठक करनी होगी। स्वयं के गुण-दोष पर ईमानदारी से विचार करना होगा। इस तरह यदि हमने स्वयं को जान लिया, तो इससे बड़ा ज्ञान कोई हो ही नहीं सकता।
- गीता चौबे "गूँज"
रांची - झारखण्ड
जीवन को सफल बनाने के लिए स्वयं को जानना बहुत ही आवश्यक है मानव का जीवन अनेकों योनियों में भटकने के बाद मिलता है । बड़ी ऋषि मुनि कहते हैं 64000 योनियों में भटकने के बाद यह से ज्यादा भी हो सकता है , मनुष्य तन प्राप्त होता है। कुछ कम ही मनुष्य इसका सदुपयोग करते हैं। जीवन में लक्ष्य निर्धारण के बाद भी जब सफलता नहीं मिलती है तो व्यक्ति में निराशा एवं कुंठा के भाव पनपने लगते हैं जोकि स्वभाविक है। राई में उतरने के बाद आप निरीक्षण करना चाहिए,कि हमें सफलता के लिए किन ऐसे किन कारकों नजरअंदा नहीं है जिनके अभाव में सफलता के समीप होते हुए भी इन से वंचित है : -
१*दूरदर्शिता भरी समग्र सोच-सोच में एकाग्रता रखना। २*कल्पना शक्ति-स्वयं पर संदेह होना । ज्वलंत इच्छा शक्ति होना।-शेखचिल्ली होना।
३*स्वयं की क्षमता पर विश्वास करना।
४*एकाग्रता की शक्ति।
५*-निस्वार्थ भाव सदा रखना।
६*धैर्य इन बातों से आप स्वयं को जान लेंगे और कोई लड़ाई झगड़ा भी नहीं रहेगा संतुष्टि की प्राप्ति होगी और आप संतो की श्रेणी में आ जाएंगे मुझे कबीर दास जी का एक दोहा याद आ रहा है :-
बुरा जो देखन में चला बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा अपना, मुझसे बुरा न कोय।
- प्रीति मिश्रा
जबलपुर -मध्य प्रदेश
व्यक्ति आत्मचिंतन करके खुद की अच्छाई और बुराई जान लें तो इससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं। लोग ज्ञान की खोज में इधर -उधर भटकता रहता है। इंसान बहुत कुछ पाना चाहता है और दूसरों के बहकावे में अपना सब कुछ बर्बाद कर देता हैं। खुद का जानना इतना आसान भी नहीं, व्यक्ति में में गलतफहमी भी होता हैं कि हम तो जो भी करते हैं सब अच्छा है। लोग खुद को खोजने के बजाय प्रेम, ईस्वर, धन ,ज्ञान और सुख सुविधा के लिए भटकते रहते हैं। इंसान खुद की बुराई खत्म कर ले तो उससे बड़ा सुखी कोई दूसरा इंसान नहीं होगा।
- प्रेमलता सिंह
पटना - बिहार
ज्ञान की प्राप्ति के बाद स्वयं को जानना ही सबसे महत्वपूर्ण है हमें अपने आपको भी जानना चाहिए जिसने अपने को जान लिया समझ संसार के नियंता को जानने की दिशा निर्णायक पड़ाव तय कर लिया ।वह दूसरों को सरलता से जानेगा अपने जीवन का उद्देश्य व कर्तव्य आसानी से निभा सकेगा ।आत्मवशं सुखम् परवशं दुखम् की भावना भी सार्थक होगी । अहं ब्रह्मास्मि को बल मिलेगा ।अतः यह कहने में कोई संकोच नहीं कि स्वयं को जानना से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है ।
- शशांक मिश्र भारती
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
मानव का स्वभाव ऐसा है कि वह दूसरों की ताका-झाँकी करने, आलोचना करने, व्यर्थ के कामों में जितने मनोयोग से रुचि लेता है उतना तो क्या, थोड़ा सा भी अपने को जानने में रुचि नहीं लेता। परिणाम... न तो वह किसी विषय का ज्ञाता बन पाता है और न ही स्वयं अपने विषय में जान पाता है। दूसरों को जानने के व्यर्थ के प्रयास में लगा वह स्वयं से अपरिचित ही बना रह जाता है। जब हम स्वयं को जानने का प्रयास करते हैं तो अपने गुणों-अवगुणों से परिचित होते हैं। ऐसी स्थिति में अपने गुणों को और निखार सकते है, अवगुणों का परिष्कार कर उन्हें दूर कर सकते हैं। इसे ही सरल शब्दों में हम आत्म ज्ञान कह सकते हैं। आत्म ज्ञान से परिपूरित व्यक्ति अपने में सब प्राणियों को और सब प्राणियों को अपने में देखता है, राग-द्वेष, लोभ-मोह से मुक्त होकर सत्कर्म में प्रवृत्त होता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि स्वयं को जानना सबसे बड़ा ज्ञान है।
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
हमारा जीवन अद्भुत भी है और अनुपम भी। ज्ञान और विज्ञान, आध्यात्म और आत्मज्ञान सब कुछ हमारे भीतर निहित है। कुछ पाना, अनुभूत और अभिव्यक्त करना सहज और सरल है तो बहुत कुछ पाना असहज और कठिन भी है। जीवन के समक्ष जीने का क्षेत्र इतना व्यापक है , इतना आकर्षणमय है कि भटकाव होना स्वभाविक है। सही दिशा मिलना, संयोग और सौभाग्य ही माना जाता है और बहुत ही कम ऐसे सौभाग्यशाली होते हैं वरना सामान्यतः लोगों का जीवन साधारण और जीवन की आपाधापी में ही गुजर जाता है। हमारी जीवन शैली में हम जीवनभर जिसके सदैव साथ होते हैं वह स्वयं ही होते हैं। मगर कभी समझने का प्रयास नहीं करते। जबकि अकेले होते ही हम लगातार खुद से ही बतियाते रहते हैं और गौर करें तो उसमें सार्थक कम ही होता है।बेसिरपैर की बातें ज्यादा होती हैं। इस समय का सदुपयोग यदि हम सार्थक करने में ,स्वयं को समझने में सफल हो जायें तो हम जीवन के मर्म को भलीभाँति समझ सकते हैं और जीवन के ध्येय को सही दिशा में ले जा सकते हैं। हम में स्वयं में इतनी खूबियाँ और शक्तियां हैं कि हम सब कुछ पा सकते हैं।कुछ भी असंभव नहीं। भगवान कृष्ण ने बचपन में यशोदा जी को मुँह खोलकर और महाभारत प्रारंभ होते समय अर्जुन को जो रोद्र रूप दिखलाया था वह मानव शरीर के पास उपलब्धियों की पराकाष्ठा ही थी। यही उपलब्धि ईश्वर है। हम इन्हीं उपलब्धियों में से जितनी अपने ज्ञान अर्जन से प्राप्त करते चलते हैं,उतने ईश्वर के निकट होते चलते हैं। अतः यह कहना वास्तविक और उचित है कि स्वयं को जानने से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
स्वयं को जानना, यानी आत्मज्ञान। इससे तात्पर्य है कि हम स्वयं कैसे हैं? हमारा चरित्र कैसा है? इसके अंतर्गत सत्य, सत्य के पालन की निर्भयता, अहिंसा की धारणा (इससे कोई दुश्मन नहीं होता) अस्तेय, ब्रह्मचर्य( जीवन की पवित्रता, ईश्वरमय होना) जैसी योग्यताएं हैं। तो समझो, वास्तव में वह व्यक्ति स्वयं को जानने का अधिकारी हो गया है; क्योंकि किसी को कोई अधिकार देने से पूर्व उसकी योग्यता देखी जाती है। अतः यह आत्मज्ञान, स्वयं को जानना सब विद्याओं में श्रेष्ठ है।
देखा जाए तो यह ज्ञान 'मृत संजीवनी' है । परमेश्वर का दर्शन कराने वाली है । तथा मनुष्य को सब दुखों से अलग कर देने वाला है। हमारा ज्ञान ही हमारे आनंद का सरोवर है। जब हम ज्ञान रूपी सरोवर के जल से तृप्त हो जाते हैं तो फिर जो भी हमारे पास आते हैं वह भी एक तरह से इस आनंद रूपी तृप्ति को महसूस करते हैं।
- डॉ रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
स्वयं को जानना ही आत्म उत्कर्ष का साधन होता है आत्मज्ञान से बड़ा कोई ज्ञान नहीं होता । मानव जन्म अनमोल है ऐसा ज्ञानी लोग कहते हैं क्योंकि यही वो जन्म है जहाँ आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार हो सकता है । जब तक हम स्वयं पर कार्य नहीं करेंगे तब तक न तो आध्यात्मिक उन्नति कर सकेंगे न ही सांसारिक । खुद बदलो जग बदलेगा । जितने भी मोटिवेशनल वक्ता होते हैं वे सब यही सिखाते हैं कि आप स्वयं को पहचानिए, अपने ऊपर कार्य करें तभी आप में रचनात्मक बदलाव देखने को मिलेगा । सारे सफल व्यक्तियों की आत्मकथा से एक ही बात सीखने को मिलती है कि प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी वे घबराए नहीं उन्होंने स्वयं पर कार्य किया , स्वानुशासन के बल से, उचित समय प्रबंधन द्वारा शिखर पर प्रतिस्थापित हुए ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
स्वयं को जानने से बड़ा ज्ञान अवश्य है ।वह है जिनके होने से हम हैं अर्थात अस्तित्व के होने से हम हैं। अतः अस्तित्व को समझना आवश्यक है ,लेकिन इसके पहले स्वयं को समझना अनिवार्य है ।स्वयं को समझे बिना अस्तित्व को समझना नामुमकिन है । मनुष्य को समझने के लिए तीन ज्ञान है पहला अस्तित्व दर्शन ज्ञान दूसरा जीवन दर्शन ज्ञान तीसरा मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान । इन 3 ज्ञान को जाना ना ही सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान है। अर्थात संपूर्ण ज्ञान है अस्तित्व में तीन वास्तविकता हैं जड़ ,चेतन और व्यापक सत्ता इन्हीं को जानना ही संपूर्ण ज्ञान है, यह ज्ञान को जानने के पहले स्वयं अर्थात जीवन दर्शन( आत्मज्ञान) होना जरूरी है आत्मज्ञान से ही अस्तित्व ज्ञान का दर्शन होता है अर्थात परमात्मा का अनुभव होता है आत्म ज्ञान के बिना परमात्मा का अनुभव नहीं हो पाता ,इसी अनुभव को प्राप्त करने के लिए ही मानव इस संसार में शरीर यात्रा करता है ,जो सुख ,शांति संतोष ,आनंद एवं परमानंद के रूप में अनुभव करता है ।इसी को जानना ही परम ज्ञान है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
रामचरितमानस के अरण्य कांड में तुलसीदास जी ने कहा है -मम दर्शन फल परम् अनूपा ,तब पावहि सहज सरूपा l स्वयं कीआत्मा का दर्शन करने पर ही अपने सहज स्वरूप को (निर्विकार )जान सकता है ,अर्थात स्वयं को जानने से बड़ा कोई ज्ञान संसार में हो ही नहीं सकता l मानव जीवन में अनेक प्रकार के सौभाग्य आते हैं और इस अवसर के लिए मानव अपने आप को भाग्यशाली मानता है और यह अवसर के सदुपयोग पर निर्भर करता है l व्यक्ति अपनी आत्मा का दर्शन करे l भागवत गीता के अनुसार -"समत्वं योग उच्च्येत "अर्थात समत्वं जीवात्मा एवं परमात्मा के संगम का नाम है योग l चार प्रकार के योग हैं -
1.भक्ति योग (यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति )
2.ज्ञान योग
3.बुद्धि योग
4.कर्म योग l
जीवन में कैसे स्थाई सुख की प्राप्ति हो ?इसके लिए स्वयं को पहचानना होगा l आत्मा का दर्शन करना ही होगा l ज्ञान योग के द्वारा हमें जीवन का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है और जीवन का लक्ष्य मिल जाता है l पहचान के लिए अपनी "मैं कौन हूँ ?""कहाँ से आया हूँ ?""कहाँ मुझे जाना है ?""और मैं इस स्रष्टि में क्या करने आया हूँ ?""परमात्मा कौन है ...मेरा परमात्मा से क्या संबंध है ..I राज योग -जिसमें जीवन के राज छिपे होते हैं l यह आपको अपनी कर्मेन्द्रियों पर विजय दिलाकर राजा बना देता है l सारांश है कि अपने मन को पहचानिये l "मन जीते सब जीते "स्वयं को पहचानने से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है ,इसके लिए दो बातें आवश्यक हैं -1.स्वयं को पहचानिये और इसमें सबसे बड़ा अवरोध है आपका अहम /घमंड /अहंकार जिसे कहते हैं अंग्रेजी में Ego (ईगो ).इसकी परिभाषा है -It is the Attechment of your Rong Immege अर्थात जो आप हैं नहीं ,उसे आपका मन मानता है और आप उसका साथ देते हैं ,यह आपका अभिमान है ,और आप जो हैं उसे नहीं समझना l इसलिए अपने आप को पहचानिये l स्वयं को पहचानोगे तो स्वाभिमान आएगा l किसी शायर ने खूब कहा है -
हज़ारों महफिलें होंगी ,
हज़ारों मेले होंगे .
लेकिन अगर खुद से न मिले
तो अकेले होंगे .
अर्थात में एक अविनाशी आत्मा हूँ l जीवन के लिए आत्मा और शरीर का मिलन आवश्यक है l शरीर एक साधना है ,साधक तो आत्मा है l जैसे किसी को हम कहते है -पुण्यात्मा ,पापात्मा ,धर्मात्मा , महात्मा ,परमात्मा व्यक्ति अपने कर्मों से बनता है और पुण्य कर्मों के लिए आत्म ज्ञान स्वयं को जानने से बड़ा कोई ज्ञान है ही नहीं l
जीवन में मन को अपना मालिक मत बनने दो ,उसे नौकर बनाओ l अन्यथा वो आपकी पहचान छीन लेगा l मन को अपना मीत बना लोगे तो हर असम्भव कार्य सम्भव होगा l समझ और विवेक मन की दो शक्तियाँ हैं ,इन्हें अपना हथियार बनाओ और हथियारों का प्रयोग स्वयं को पहचानने एवं जानने के बाद समझ और विवेक से करें क्योंकि इससे बड़ा ज्ञान कोई हैं ही नहीं l
- डाँ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
स्वयं को जानने से बड़ा ज्ञान कुछ भी नहीँ।यदि हर मनुष्य ज्ञानार्जन की यह कला जान ले, तो उसे गीता कुरान, बाइबिल, गुरू ग्रंथ साहब पढ़ने की कोई जरुरत ही नहीं। किसी धर्म के प्रति कट्टरता कोई मतलब नहीं रह जाएगा, किन्तु यह विचार दिवा स्वप्न सा है। विरला ही कोई ऐसा ज्ञान अर्जित कर पाता है, जोया तो स्वयं का जीवन आसान कर लेता है अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र का नायक बन जाता है।
- डा. चंद्रा सायता
इंदौर - मध्यप्रदेश
मन के हारे हार है मन के जीते जीत जिसने स्वयं को जीत लिया है उसे कोई नही हरा सकता । स्वयं को केवल वही व्यक्ति जीत सकता है जो स्वयं को जान लेता है अपनी कमियों और ख़ूबियों को पहचान कर कमियों को दूर कर लेता है और ख़ूबियों को निंखार लेता है । प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं को जानना बहुत ज़रूरी है ।
- नीलम नांरग
हिसार - हरियाणा
हम ताउम्र कुछ न कुछ जानने को लालयित रहते हैं । बाहर जो कुछ भी है, वो सब जान लेना चाहते हैं । इसी कड़ी में हम दूसरों को सुधारने का भी प्रयत्न करते रहते हैं । क्योंकि सारी की सारी बुराइयाँ तो दूसरों में ही नज़र आती है । खुद के भीतर तो झांकते भी नहीं हैं ये जानते हुए भी कि यदि हम एक अंगुली उठाते हैं तो तीन हमारी ओर उठती है । जिसने स्वयं को जान लिया, उसने लगभग सभी कुछ जान लिया क्योंकि हम सभी जगह से भाग सकते हैं, खुद के मन से नहीं भाग सकते । जो कुछ भी अच्छी शुरुआत करनी है वह स्वयं से ही करनी चाहिए । " हम सुधरेंगें जग सुधरेगा.......।"
संसार में यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर जो कुछ भी है उसे जानकर, जो बुराइयाँ हैं यथा--ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, स्वार्थ, नफरत आदि उन्हें बुहार कर बाहर निकाले और कचरे की तरह डस्टबिन में डाल दे तो यह संसार स्वर्ग से भी सुन्दर होगा । हम स्वयं ही स्वयं के अच्छे और सच्चे मित्र हैं । हम अक्सर स्वयं से ही बतियाते हैं .......विचार-विमर्श करते हैं ......मंथन करते हैं । हमारे भीतर कई राज़ भी दफन रहते हैं । प्रतिदिन सोने से पूर्व स्वयं के अच्छे बुरे कार्यों का अवलोकन कर, ग़लतियों को पुनः न दोहराने का संकल्प करना चाहिए ।
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान
स्वयं को जानना सबसे बड़ा ज्ञान है पर आसान नही ।यह संसार, एक रंगमंच है प्राय मानव कठपुतली की तरह दूसरे के इशारे पर नाचता रहता है ।वह क्या है मकसद क्या है स्वंय को बहुत कम ही लोग समझ पाते है। स्वंय को जानने के लिए आत्मनिरीक्षण आत्मसात करना नितांत आवश्यक है एक समुदाय के सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 3 से 4% ही मनन चिन्तन कर पाते है।सामान्यत घर परिवार दफ्तर के इशारे पर ही नाचता रहता है क्योंकि समाजिक पारिवारिक जिम्मेदारी को ही जीवन माना गया है
- डाँ. कुमकुम वेदसेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
बड़ी अच्छी सहेली है तन्हाई ये
खुद की बातें खुद से किया कीजिए
किसी और की कोई जरूरत नहीं अपने कर्मों का खुद फैसला कीजिए
बंद आंखों को कर मौन हो सोचिए
अपने हर किए पर विचार कीजिए
आईना सामने रख खुद से पूछिए
अपनी आत्मा से एक संवाद कीजिए
कहीं आहत तो नहीं वो तेरी सोच से
कहीं वह कुचली ना गई हो तेरे कर्मों के बोझ से
माना कानून समाज सबको जेब में रखते हो आप
पर अपनी अंतरात्मा को नहीं मार सकते हो आप
बनके शूल सदा तुम्हें चुभती रहेगी
आंखों की नींद तेरे वह हरती रहेगी
- नीलम पाण्डेय
गोरखपुर - उत्तर प्रदेश
आदमी जब मैं को समझ लेता है यानिकी अहं से परे हो परमार्थ का मार्ग लेता है तो वह सच्चा ज्ञान है ! यह आध्यात्म है किंतु संसार में रहकर अपने कर्तव्य को निभाते हुए जीवन की धूप छांव के पल के साथ जो मोहमाया के साथ ज्ञान प्राप्त करता है वह संसारिक है! किंतु संसार में रहना है तो हमें सांसारिक ज्ञान के साथ यानिकी जीवन का सच्चा अनुभव जो मोह माया सुख दुख से प्राप्त होता है वही सच्चा ज्ञान है!
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
क्या बात कही है , सर जी । यही पढ़ाई तो ऐसी है जिसे सबको खुद पढ़नी पड़ती है।जो व्यक्ति अपने बारे में जान गया, खुद को समझ गया वह तो ईश्वर की बराबरी में आ जाता है । अपने गुण-अवगुण जानने वाला दूसरे के मनोभावों को अच्छी तरह और सही पढ़ पायेगा । फिर तो वह सच्चा और सात्विक आत्मा बन जाता है। किताबी ज्ञान तो हर कोई ले सकता है। लेकिन आत्ममंथन कोई नहीं करना चाहता है । लोग डरते हैं कि पता नहीं मेरे में क्या गलत भरा हो। मैं कहाँ पर सामने वाले से पीछे रह जाऊँ। आत्म विश्लेषण इन भावनाओं से मुक्ति दिलाता है । पर हम करना नहीं चाहते क्योंकि अपनी हार बर्दाश्त नहीं होगी ।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
स्वंयम को जान गये तो फिर बचा ही नहीं कुछ जिसे जाने ...
आत्मज्ञान होना ही परमात्मा को पाना है जब परमात्मा को पा लिया फिर क्या. ...
स्वयं को जानना कठिन है। असंभव तो नहीं है लेकिन है बड़ा जटिल। जानने की गतिविधि में कम से कम दो भाग होते हैं। पहला जानने का इच्छुक व्यक्ति होता है और दूसरा जानने का विषय। ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति जानने के विषय से जुड़ता है। इन्द्रियबोध निर्णय देता है। हम उस विषय के जानकार हो सकते हैं।बहुत आश्चर्यजनक है स्वयं का स्वयं से याराना और बहुधा स्वयं से स्वयं की भिड़ंता । स्वयं को कई तरह से देखा है। लेकिन देखने से मन नहीं भरा। न कुछ समझ ही आया
स्वयं बड़ा रहस्यपूर्ण है।
मनुष्य को कौन जानता है?” मनुष्य को दूसरा मनुष्य नहीं जान सकता। प्रत्येक मनुष्य अनूठा है। अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा मनुष्य है ही नहीं। इसलिए मनुष्य को जानने का एकमात्र उपाय है स्वयं को जानना। सभी मनुष्यों के सामान्य घटक एक जैसे हैं। सबका अद्वितीय होना अलग विशिष्टता है
ज्ञान का एक गुण है कि यह जितना बांटा जाता है उतना अधिक बढ़ता है , अपने एकत्र किये हुए ज्ञान को बाँटना आवश्यक भी है जिस प्रकार लोहे में उपयोग न होने पर जंग लग जाती है उसी प्रकार ज्ञान भी क्षीण पड़ जाता इसलिए ज्ञान को अधिक से अधिक लोगो तक पहुचना भी आवश्यक है |अपने को जानने के लिये बहुत ही साधना व नियम संयम की जरुरत है जब हम विकारों को धीरे धीरे छोड़ेंगे सात्विकता को अपनायेंगे ...तब हम को हमारे परिचय मिलेंगे और हम सच में उस दिन से अपने आप को जानने लगेंगे और जानते जानते शून्य हो जायेगे यह होगी ज्ञान की सिढी जिस पर जितना ऊपर जायेगे उतना ही बंधनों से छूटते जायेगें ... फिर हमारे अंदर व बहार कोई फ़र्क़ नहीं रह जायेगा
एक चित आंन्नद मे रहेगें और यह परम आन्नद ही स्वंयम को जानना है
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
" मेरी दृष्टि में " स्वयं ही सब कुछ है । इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है । फिर भी लोग चारों ओर भटकते रहते हैं । ऐसा अक्सर देखा जाता है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
Prem
ReplyDelete