आप के जीवन में डर की क्या भूमिका है ?

जीवन में डर एक परछाई की तरह है । जो साथ - साथ चलता है । कभी - कभी डर जीवन के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो जाता है । कयोंकि डर एक बिमारी का रूप धारण कर लेता है । यहीं कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा "  का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
डर अथवा भय एक ऐसी भावना है जो अप्रिय होते हुए भी  प्रत्येक जीवित प्राणी में अपरिहार्य रूप से मौजूद रहती है। कई वन्य जीवों के लिए तो यह जीवन प्रवृत्ति है। हम मानवों के जीवन का भी यह अभिन्न अंग है।  जीवन पर्यन्त हम किसी न किसी डर से जीते हैं। बचपन व किशोरावस्था में परीक्षा का, परिणाम का डर, कई प्रकार के पियर प्रेशर हमे भयभीत किए रहते हैं। हमारे समस्त जीवन में सब से बड़ा डर जो हमें घेरे रहता है वह है समाज का डर। लोग क्या कहेंगे! यह डर हमारे जीवन के कई महत्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावित करता है। इस डर से कई बार हम हमारे जीवन के दूसरे अति प्रिय संबंधों की भी उपेक्षा कर देते हैं। जबकि हमें अपनें व अपने परिवारजनों के वर्तमान अथवा भविष्य को समाज के डर पर प्राथमिकता देनी चाहिए। 
जीवन के एक पड़ाव पर हमें मृत्यु का डर भी सताने लगता है। यद्यपि उससे डरने की अपेक्षा हमें इसे शाश्वत सत्य जान कर परम विश्राम का पड़ाव समझना चाहिए।
हमें डर को सकारात्मक ऊर्जा के रूप में लेना चाहिए। कई बार डर हमारे भीतर नई चेतना, स्फूर्ति व जागृति उत्पन्न कर देता है जो हमारे जीवन को नए आयाम दे सकता है।
- डॉ नीलिमा डोगरा
नंगल - पंजाब
     जब जीवन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कोई घटनाएं घटित होती हैं और जिससे आकस्मिक सहज ही डर हो ही जाता हैं, जो बताकर नहीं आती हैं, कभी-कभी डर इतना विकराल रूप धारण कर लेता हैं,  जिससे निकलना मुश्किल हो जाता हैं और जीवन शैली पर गंभीर परिणाम हो जाते, जिसके परिपेक्ष्य में उनके परिवार जनों तथा इष्ट-मित्रों में सीधा सा प्रभाव दिखाई देता हैं, जिसका कोई इलाज नहीं हैं। एक बार शारीरिक और मानसिक विकृतियां के कारण अनेकानेक निन्दनीय कृत्य भी करने लग जाता हैं। इसलिए हो सकें, डर को वृहद स्तर पर आने ही न दें?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
हमारे जीवन में डर की बहुत बड़ी भूमिका है। जीवन में डरना भी जरूरी है नहीं तो जीवन में सफलता की सीढ़ियों पर आगे बढ़ना बहुत ही मुश्किल हो जायेगा लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हमें डर डर के जीना पड़े। यदि ऐसा हुआ तो हमारा जीवन नर्क से भी बदतर हो जाएगा। जीवन में कुछ ऐसे भी नियम है जहां पर आपका डरना बहुत जरूरी है।अगर आप वहां पर नहीं डरोगे तो आपका जीना इस दुनिया में असंभव हो जाएगा। जैसे कि अपने माता-पिता से डरना और ऐसी वस्तु जो हमारे शरीर को नुकसान पहुंचाती है उससे भी डरना जैसे की कोई जंगली जानवर अगर हम इनसे नहीं करेंगे तो हमारा दुनिया में जीना असंभव हो जाएगा। यह हमारे डर के लाभ है। इन्हीं बातों को ध्यान मेरा कर हम अपने आपको सुरक्षित रख पाते हैं चाहे वह शारीरिक रूप से हो चाहे वह मानसिक रूप से हो। लेकिन वहीं दूसरी तरफ देखा जाए तो हमेशा डर कभी नहीं रहना चाहिए। डर का सिर्फ एक ही छुटकारा है और वह है ही अगर आप कोई भी नया काम करते हो और उसमें हिम्मत दिखाते हो तो आप अपने डर से छुटकारा पा सकते हो या डर को कम कर सकते हो। हमें अपने दिमाग में हमेशा अच्छी बातें ही सोचनी चाहिए। ऐसे हमारे अंदर का डर कम होता है। हमारे ऊपर कितने भी परिस्थिति क्यों ना हो हमें हिम्मत से काम लेना चाहिए इससे हमारे अंदर का डर कम होने लगता है और उस काम में हम बहुत ही ज्यादा निपुण हो जाते हैं। लेकिन अभी 2000 2021 में कोविड-19 के खौफ को पूरा पूरी दुनिया ने देखा है। कोरोना कॉल में लाखों की जान गई। संपत्ति नुकसान हुई। नौकरी छुटा। लोग बेरोजगार हुए। इसको कोरोनाकाल में सब को डरा कर रख दिया। हालांकि अभी भारत में इसके उपाय आने के इंजेक्शन निकल ही नहीं गए हैं बल्कि इसका उपयोग भी हो रहा है लेकिन जीवन में ऐसी बातों से भी डरना नहीं चाहिए जो हमें नुकसान पहुंचाती है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
 जमशेदपुर - झारखंड
डर याने कोई न कोई कमी। ... और यह कमी कभी संपूर्ण हो नहीं सकती। विशेषकर मुझ जैसे  के लिए। क्योंकि मैं चाहता हूं कि मैं अच्छा इंसान भी बनूँ , अच्छा नागरिक भी और परिवार का अच्छा सदस्य भी। इसके लिए मैं हर पल सावधान रहता हूं और सावधान रहने का अर्थ है, डर ... डर के जीना। कोई नाराज न हो जाए... ये परिवार का डर, कुछ ऐसी गलती या भूल न हो जाए, जिससे कोई सरकारी नोटिस मिल जाए... कोई पड़ोसी,मित्र या परिचित मेरी किसी आदत या स्वभाव को लेकर मेरे प्रति गलत धारणा न बना ले... ऐसे अनेक किस्म के डर को साथ लिए मैं पूरे  दिन और सारी रात रोज ही जैसे-तैसे गुजारता हूं। यह कोई मानसिक बीमारी है, मैं यह भी मानने को तैयार नहीं हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं बीमार नहीं हूं।बस, अपने जो भी दायित्व और कर्तव्य हैं , उन्हें भलीभांति निष्ठा पूर्वक निभाना चाहता हूं। जिस वजह से मैं सदैव डरा-डरा रहता हूं। पर, मैं मजबूत भी हूं कि मैं गलत नहीं हूं। अनजाने में कोई भूल हो रही हो तो वो अलग बात है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
हमारे जीवन के दो प्रमुख तथ्य हैं-डर और आत्मविश्वास।
 ये दोनों भाव मनुष्य के मस्तिष्क पटल पर  उपस्थित रहते हैं।सकारात्मक भाव आत्मविश्वास का द्योतक है तथा नकारात्मक भाव से डर की उत्पत्ति होती है।जिसके हृदय में आत्मविश्वाश है कि सब कुछ ठीक होगा वहां डर का भाव आ ही नहीं सकता।जैसे-हमारा कोई स्वजन किसी कार्य से बाइक पर निकला है और उसी मार्ग पर किसी दुर्घटना का समाचार मिलता है उस समय जब मन में यह भाव आये की कहीं उनका स्वजन तो शिकार नहीं हो गया!इस नकारात्मक भाव के आते ही मन में डर के भाव उत्पन्न होंगे और शरीर शिथिल होने लगेगा।दुर्घटना स्थल पर जाकर देखने की हिम्मत ही नहीं होती और  कभी कभी इस डर का परिणाम इतना घातक हो जाता है कि  जाने वाला व्यक्ति तो सकुशल है वह स्वयं ही हृदयाघात का शिकार हो जाता है क्योंकि इसमें इतनी अधिक नकारात्मकता भर गई कि वह अच्छा सोच ही नहीं सकता पर जिसके हृदय में सदा सकारात्मक भाव होंगे वह सोचेगा कि सब कुछ ठीक होगा और बिना डरे वह घटना स्थल पर पहुँच कर अपने स्वजन को सकुशल घर लौटा लाएगा।इस प्रकार डर और आत्म विश्वास एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं अतः अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए आत्मविश्वास जगाएँ और नकारात्मकता से दूर रहें।
याद रहे यदि हमारे हृदय में नकारात्मक भाव अधिक होंगे तो डर अपने हृदयतल पर उतर कर "फोबिया"नामक बीमारी को  जन्म देगा और हम डर से बाहर निकलने में असमर्थ हो जाएंगे अतः हमेशा सकारात्मक विचार रखें नकारात्मक  विचारों से दूर रहें।
- इन्दिरा तिवारी
रायपुर-छत्तीसगढ़
व्यक्ति के जीवन में डर से मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है यही बहुत बड़ी भूमिका है। अभी विश्व में कोरोनावायरस से हर व्यक्ति डरे हुए हैं। भागती -दौड़ती जिंदगी में अचानक लगे इस ब्रेक से  वायरस के डर से तनाव में हर व्यक्ति, समाज ,और देश -विदेश सभी प्रभावित हैं।इससे उबरने के लिए सरकार की ओर से वैक्सीनेशन लगाने की सुविधा प्रदान  किया जा रहा है,  हर व्यक्ति को  वैक्सीनेशन लगे। यह सुनिश्चित किया जा रहा है। यह सब भारत में नई बल्कि पूरी दुनिया में प्रावधान किया गया है। इसके बाद ,हम लोग के आर्थिक स्थिति एवं विकास गति नीचे की ओर जा रहा है उस पर रोक लगेगी । हम फिर आगे की ओर अग्रसर होंगे।
डर से चिंता, अकेलापन और अनिश्चितता का माहौल बन हुआ है। विकास गति रुक गई है।
लेखक का विचार:-दुनिया के हर व्यक्ति मौजूदा स्थिति से डरा हुआ है। डर बढ़ने से शरीर पर असर, भावनात्मक असर, व्यवहार पर असर पढ़ रहा है। 
डर से निपटने के लिए मानसिक रूप से मजबूत हो, अपने रिश्तो को मजबूत करें घर से बाहर निकल कर अपने लांन या छत में सूरज की रोशनी के आनंद लें।हमेशा की तरह समय पर सोना जागना खाना-पीना व्यायाम करें साथ ही अपनी हांवी पूरी करने मैं व्यस्त रहे।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
डर एक नकारात्मक भावना है जो क्षणिक भी हो सकता है और दीर्घकालिक भी, किसी प्रकार के खतरे की उपस्थिति या निकटस्थता की वजह से जो व्यक्ति के मन में भावना पैदा होती है उसे ही डर कहते हैं। डर हर प्राणी में पैदा हो सकता है । मनुष्य ,पशु ,जीव सब इस भावना से ग्रसित हो सकते हैं। डर की भावना एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भी बदल सकती है लेकिन भावना एक ही है। डर कई तरह का हो सकता है । डर अनुभव या दर्दनाक दुर्घटना देखने के कारण भी पैदा हो सकता है । कोई व्यक्ति जब बड़े दिनों से किसी डर में घिर जाता है तो उसका प्रभाव उसके मानस पटल पर भी पड़ता है । डर धीरे-धीरे मनुष्य को पंगु बना देता है। साहस खोकर मनुष्य बल हीन बन जाता है। अतः डर पर काबू पाना आवश्यक है। डर को हमारी आंतरिक शक्ति, दृढ़ निश्चय ,संघर्ष की भावना ही हरा सकती हैं। 
- शीला सिंह
 बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
'डर' मनुष्य को निरंकुश नहीं होने देता। अक्सर हम 'डर' को नकारात्मकता की दृष्टि से देखते हैं। जबकि 'डर' ने मनुष्य को सदैव सावधान किया है। 
आत्मसम्मान, आत्म सुरक्षा, आत्म हानि का डर मनुष्य को सदैव इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वह अपने जीवन को सावधानी से संचालित करे। 
सोचिए! सड़क पर चलते समय यदि दुर्घटना का डर न हो तो वाहन चालक निरंकुश होकर वाहन चलाएंगे। इसी डर से वे नियमों का पालन करते हैं, और जिनके मन में यह डर नहीं होता, वे स्वयं के और दूसरों के जीवन के लिए हानिकारक होते हैं। 
इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक कदम पर 'डर' मनुष्य को नियन्त्रित करता है जैसे अपनी प्रतिष्ठा के खो जाने का डर मनुष्य को गलत कार्य करने से रोकता है। 
किसी कार्य के दुष्परिणाम का डर यदि मनुष्य को न हो तो वह निरंकुश हो सकता है। संसार में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मनुष्य डर के अभाव में निरंकुशता की हदें पार कर गया परन्तु उसका अंजाम भयावह हुआ। 
इसलिए मेरे विचार में 'डर' हमारे जीवन में सकारात्मक भूमिका निभाता है। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
      डर एक नकारात्मक भावना है जो हरेक इन्सान में होती है। किसी में अधिक होती है और किसी में कम।यह भावना पुरुषों से अधिक औरतों में प्रबल  होती है। डर जीवन में जीत के लिए एक संघर्ष है। डर कई रूपों में प्रकट होता है। पुरूषों में गुस्से के रूप में और औरतों में आँसू के रूप में। डर के दूसरे रूप अपनों को खोने का डर,मृत्यु का डर आदि।
         मनुष्य तो हमेशा ही मृत्यु के साये में रहता है। हम जानते भी हैं कि यह शरीर नाशवान है फिर भी डर बना रहता है। किसी अपने की मृत्यु की कल्पना करते ही रातों की नींद उड़ जाती है।औरतों तो बच्चों और पति को लेकर हमेशा ही डर के साये में जीती हैं। 
       डर पर काबू पाने के लिए सकारात्मक सोच अपनानी चाहिए। यह सोच मन में रखनी चाहिए कि जो हो  रहा है, इस में भी कोई भलाई होगी।आगे जो होगा ,वो भी अच्छा ही होगा। बस कर्म करते रहना चाहिए। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
मेरे जीवन में डर की कोई भूमिका नहीं है। या यों कहें किसी के भी जीवन में डर की कोई भूमिका नहीं होती डर अचानक से चला आता है।
जो जीवन के सत्य को समझते हैं उन्हें डर नहीं लगता है। कई बार मैं मौत के इतने करीब से गुजर चुका हूँ या मौत मेरे करीब से गुजर चुकी हैं इसलिए मेरे जीवन में डर की कोई भूमिका नहीं है । क्योंकि जो होने को होता है वही होता है नया कुछ नहीं होता है तो फिर डर कैसा ? अंतिम सत्य तो मृत्यु है और वो होनी ही है। इसमें डरना क्या है। बहुत बार अनजान जगह में खतरों का सामना कर चुका हूँ। आपके हरियाणा के यमुनानगर में 80 के दशक में खतरों के सामने कर चुका हूँ। तब से डर गायब ही हो गया है। और डर की कोई भूमिका नहीं रह गई है मेरे जीवन में। आखिर डर है क्या ? डर एक मन का भ्रम है जो परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। उसका रूप बदलता रहता है। मुझे तो लगता है ये एक समस्या है। जो पल पल बनता बिगड़ता रहता है। या आता है समाधान होता है चला जाता है। कोई कहीं जा रहा होता है, उसे रेलवे स्टेशन जाना है रास्ते में ट्रैफिक जाम है तो उसके मन में एक डर पैदा होता है कि कहीं ट्रेन न छूट जाये। तो हम ऐसी परिस्थिति आने ही क्यों दें। पूरा समय हाथ में लेकर चलें। किसी तरह का डर नहीं आएगा। इस तरह लोग अपने आप डर पैदा कर लेते हैं। अभी देश में चार पाँच जगह चुनाव हो रहा है। कुछ नेताओं को डर होगा कि वे चुनाव जीतेंगे या नहीं। इस तरह डर लोग बना लेते हैं। बाकी उसकी कोई भूमिका नहीं होती।
- दिनेश चन्द्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल
कहा जाता है कि डरना और डराना दोनों ही पाप हैं लेकिन एक सीमित दायरे का डर हमारी जिंदगी में ज़रूरी है| डर इंसान को आगे बड़ने में और मंजिल तक समय पर पहुंचाने में मदद करता है | यदि हमारे मन में डर नहीं होगा तो हम कभी भी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे |  यह डर ही है जो हमे अच्छाई की राह पर चलाता है, कानून का पालन करना, पाप से दूर रहना, कर्म धर्म का पालन करना कहीं ना कहीं ये सब इंसान के मन में बसे डर को ही दर्शाता है | अगर डर हमारे जीवन में ना हो तो हमारे जीवन में पशुता आते देर ना लगे| 
लेकिन डर जब तक इंसानियत को बचाने में लगा रहे तब तक ठीक है इस से आगे बडकर अगर ये सामने आता है तो वो एक भयंकर रूप ले लेता है जो कि सिर्फ नाश का ही कारण हो जाता है | 
- मोनिका सिंह
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
जीवन में न जाने कितने प्रकार के डर होते हैं। कोई स्थिति से डरता है, कोई ईश्वर से डरता है, कोई कानून से डरता है, कोई अपने से बलशाली से डरता है, कोई बीमारी से डरता है आदि आदि। कहा जाता है निडर रहो।  बिल्कुल रहो। सत्य की राह पर चलते हुए ईमानदारी से कार्य करते रहो। झूठ और बेईमानी से डरो। घृणा से, नफरत से, ईष्र्या से डरो। मेरे जीवन में डर की कुछ ऐसी ही भूमिका है।
- सुदर्शन खन्ना 
दिल्ली 
 हर मनुष्य के जीवन में भूतकाल की पीड़ा वर्तमान से विरोध और भविष्य की चिंता खाये जा रहे हैं। हर मनुष्य के पास चार प्रकार का भय या डर  देखने को मिलती है पहला प्राण भय है, दूसरा मान भय है,तीसरा पद भय, चौथा धन भय । इन चार भय से मुक्ति पाना ही मनुष्य का लक्ष्य है।
-  उर्मिला सिदार  
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
"डर मुझे भी लगा फासला देख कर, 
पर मैं बदल गया रास्ता देख कर, 
खुद व खुद मेरे नजदीक आती गई मेरी मंजिल मेरा हौंसला देख कर"। 
ऐसा व्यक्ति ढूंढ निकालना बड़ा मुश्किल है जो नितांत निर्भय हो हर प्राणी किसी न किसी चीज से डरता है क्योंकी डरना हमारा प्रकृतिक गुण है, ज्यादातर डर इंसानों में तब देखा जाता है जब उन्हें किसी वस्तु से किसी प्रकार का जोखिम महसूस होता है जैसे स्वास्थ, धन, निजि सुरक्षा आदि के जौखिम , 
देखा जाए संपूर्ण जीव जगत डर की मौजुदगी के चलते ही गतिमान है, 
तो आईये  बात करते कि जीवन में डर की क्या भूमिका है? 
मेरा मानना है व्यक्ति दो प्रकार के डर जन्म से ही लेकर आता है पहला गिरने का डर और दुसरा तेज आवाज का डर यह दोनों डर हमारी तंत्रिका का  तंत्र महसूस  करते हैं, इनके अतिरिक्त व्यक्ति आपने सर डर जीवन के अनुभवों के साथ ही अर्जित करता है, 
देखा जाए डर के पीछे सफलता व असफलता का भी राज छिपा होता है, अक्सर इंसान किसी भी काम मैं असफल होने से डरता है यानी लाभ हानि में भी डर छिपा हुआ है, सफलता विफलता के बीच बडी बिडंबना होती है जिससे मनुष्य उलझ जाता है और डरने लगता है इसलिए मनुष्य को डर पर काबू पाना भी जरूरी है, 
देखा जाए डर मन का नाकारात्मक  भाव है कई बार अकेले पन से भी डर लगता है, 
कई बार डर का साकारात्मक रूप भी देखने को मिलता है जैसे इम्तिहान के दिनों में बच्चों में भय होना बहुत स्वाभाविक है लगभग सभी इस भय से गुजरते हैं जो अच्छा करने के लिए प्रेरित करता है यदि जीवन मैं डर न हो तो आदमी निर्भय होकर लापरवाही करने लगता है, 
देखा जाए व्यक्ति के जीवन में डर का एक मुख्य स्थान है, 
डर का आम फोबियी सभी के मन में किसी न किसी तरह छाया रहता है लेकिन मन में ज्यादा डर बना लेने से  कई रोग उतपन्न होने लगते हैं
 यह सैल्फ कंटृोल को समाप्त कर देता है और कई आकर्षण भावों को मिटा देता है अथवा विल पावर को कम कर देता है जिससे व्यक्ति की यादाश्त भी कम होने लगती है इसलिए अगर आप विजेता बनना चाहते हो तो आपको  डर का सामना करना होगा यानि इसको अभ्यास के द्वारा नियंत्रत करना  होगा इसलिए इससे भयतीत मत होईये इसका मुकाबला किजिए, नहीं तो हम कई कार्यों को करने से पीछे रह जांएगे, 
भय तो जीवन के हर चरण में होता है यह  भौतिक, भाबनात्मक या समाजिक किस्म का होता है लेकिन निरंतर कार्य करने से अनुभव प्राप्त होता है और अनुभव से आत्मविश्वास बढ़ता है और इसके वढ़ने से डर का नाश हो जाता है, 
अन्त में यही कहुंगा कि अपनी उम्र और क्षमता के अनुसार कार्य करते रहना चाहिए व हार जीत की चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकी हार से ही अनुभव और ज्ञान पैदा होता है जो हमें जीत की तरफ ले जाता है, यही नहीं कई बार डर हमें बुरी आदतों से भी सचेत करता है  जिससे हमारे मन कुछ पाजटिब विचार भी आने लगते हैं और हम गल्त रास्ते को छोड़कर सही दिशा मैं चल पड़ते हैं  कहने का भाव   थोड़ा बहुत डर भी जरूरी है  बिना डर कुछ हासिल होने में इतना मजा नहीं है इसलिए भय से भयतीत मत होएं इसका स्वागत करके मुकाबला करें।
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
मानव जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव में गुण एवं अवगुणों का समावेश होता है । जहाँ सदाचार सत्य अहिंसा त्याग शुचिता तप शील संयम जैसे स्वभाव गुण कहलाते हैं दूसरी ओर हिंसा असत्य भाषण दुराचार भय  अवसाद चिंता दुर्गुण कहलाते हैं । जिन्हें हम भावनायें  अथवा संवेदना भी कह सकते हैं । 
 चूँकि हम मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं । इसलिए हमारी प्रधान भावना और  आवश्यकता समाज  और समुदाय के साथ रहने की रहती है । 
व्यक्ति का परिवार ही प्रथम पाठशाला कहलाता है । जहाँ बच्चे एवं बड़े सदस्य सदभावों के साथ अनेक प्रकार के  रिश्ते निभाते  हैं । अतः प्रत्येक व्यक्ति के मन मस्तिष्क में कभी ना कभी ऐसी परिस्थितियां अवश्य  उत्पन्न होती है कि वो चिंता से डर कर भयभीत हो जाते हैं ।
 जैसे कि बच्चों के समय से वापस लौट कर नहीं  आने के कारण  अक्सर उनके साथ किसी दुर्घटना का घटने के भय का शिकार हो जाते हैं । अथवा दफ्तर से देर-सबेर लौटने पर भी डर व्याप्त हो जाने पर मन में कुशंका के बादल मंडराने लगते हैं । बच्चों के मन में परीक्षा में फेल हो जाने का डर या खेल में हार जाने का डर आदि 
कभी-कभार पुरूष मन में भी व्यापार में घाटा होने का डर अथवा नौकरी छूट जाने का डर जैसे अनेक कारण हो सकते हैं । 
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सुख दुख का मिश्रण होता है । इसलिये छोटी-मोटी खुशियाँ और डर से  अधिक भयभीत नहीं होना चाहिए । किंतु यदि व्यक्ति किसी डर के कारण अधिक चिंताग्रस्त हो और अवसाद ग्रस्त हो जाये तो चिकित्सक की मदद से उसका इलाज कराना चाहिये । 
 आज की भागमभाग वाली तनावग्रस्त आधुनिक जीवन शैली में आयुर्वेद  एवं योगासन प्राणायाम ध्यान साधना आदि के अभ्यास द्वारा भी व्यक्ति स्वस्थचित्त रह सकते हैं । 
जीवन में सकारात्मक सोच के साथ हँसी-खुशी जीवन जीने वाले मनुष्य के मन में चिंता भय डर जैसे भाव कम देखने सुनने में मिलते हैं । 
-  सीमा गर्ग मंजरी
 मेरठ - उत्तर प्रदेश
मानव जीवन में डर की भूमिका दो प्रकार से होती है अगर डर अत्यधिक हो गया तो आपके व्यक्तित्व का विनाश का कारण बन जाता है और अगर डर बिल्कुल नहीं है तो भी वह व्यक्तित्व के विनाश का कारण बनता है
विनु भय है ना होई प्रीति
सुंदरकांड में यह बात कही गई है तो जिंदगी के विकास के लिए जीवन में सामंजस्य लाने के लिए संतुलन के लिए भी थोड़ा होना अति आवश्यक है भय किसका भय होना चाहिए भय ईश्वर का उस परमात्मा का करें जिससे मुझे एक ऊर्जा मिलती है और उस भय के कारण हम अपने व्यवहारों में ईमानदारी निष्ठा कर्तव्य परायणता परोपकारी इत्यादि आसानी से ला पाते हैं और नहीं तो हर इंसान अपराधी बन जाएगा चुकी एक और क्रोध ईर्ष्या लालच चिंता निराशा मन मस्तिष्क में है तो दूसरी ओर सहानुभूति प्यार परोपकार दया भी बना रहता है प्राय यह देखा गया है कि जो नकारात्मक भाव और विचार होते हैं उस सबसे पहले रेस में आगे दिल और दिमाग पर छा ते हैं उनको काबू पाना और सकारात्मक को आगे बढ़ाना यह भय के कारण ही संभव है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
डर तो मानव के अंदर छिपा हुआ एक भाव होता है जो समय परिस्थिति के अनुसार पैदा हो जाता है। उदाहरण के तौर पर यदि में सुनसान रास्ते में रात के समय अकेली जा रही हूं तो निश्चित रूप से मेरे  मन में डर का भाव पैदा होगा ,अनिष्ट की आशंका से। अंधकार में भी एक भयानकता का एहसास होता है। कोई भी कार्य करते समय सोचती हूं कि मुझसे कोई गलत कार्य न हो जाए। यह सावधानी मिश्रित भाव होता है। मुझे तो सदा यही लगता है कि ईश्वर मेरे साथ है और मुझे डरने की कोई जरूरत नहीं है। जब मैं पाक साफ हूं  तो किसी से क्यों डरु ? उपरोक्त विशिष्ट परिस्थिति के अलावा मेरे मन में डर का भाव नहीं रहता।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम" 
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
 मेरे जीवन में डर की भूमिका अत्यंत विचित्र एवं चुनौतीपूर्ण रही है। जिसके कारण मुझे राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त होने जा रही है। जिसका रास्ता माननीय जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के गलियारों से होकर गुजरना लगभग तय हो चुका है।
        सर्वविदित है कि डर के आगे जीत है। परन्तु जीत से पहले कितनी हार है यह कोई व्यक्ति विशेष ही जानता है। जिसने डर के आगे जीत का स्वाद चखा हो और अपना घर फूंक के तमाशा देखा हो। अर्थात एक शब्द "विजय" के लिए सबकुछ पराजित कर दिया हो।
        उदाहरणार्थ यूं तो जीवन का नाम ही डर रूपी पहेली के आधार पर टिका है। जिसे मौत के पंजे हर पल डराते रहते हैं। परंतु मौत के डर से परे भी अत्यंत डर जीवनकाल में छिपे रहते हैं। जैसे परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होने का डर, शादी के बाद घर-गृहस्थी के पालन-पोषण का डर, बीवी की अकाल मृत्यु का डर, विशेषकर डिलीवरी के समय किसी औरत के न होने का डर, नौकरी खो जाने का डर, क्रूर अधिकारियों की क्रूरता का डर, न्यायाधीशों की बुद्धिहीनता के कारण गलत निर्णय का डर, सत्य बोलने पर न्यायाधीशों एवं अधिवक्ताओं द्वारा बुरा मानने का डर इत्यादि कई वर्षों तक अपनी हास्यस्पद भूमिका निभाता रहा और उपरोक्त सारे डर उस समय धराशाई हो गए जब जीवन नर्क से भी अधिक बद्दतर हो गया।
        यही नहीं बल्कि यह कहना और भी उचित होगा कि जब जीवन में खोने के लिए कुछ बचा ही नहीं। तब जाकर देखा कि मुझे डर से डराने वालों की मिट्टी पलीद होने लगी और मुझे डराने वाले अपने पाप-कर्मों के कारण बेतहाशा डरने लगे। उनका डर इस सीमा तक पहुंच गया कि मेरे साधारण प्रश्नों का उत्तर देने में भी वह असक्षम हो गए और डर के मारे थरथरा कर कांपते नज़र आ रहे हैं।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
पूरी स्रष्टि में एक विराट शक्ति व्याप्त है और वह शक्ति हमारे भीतर है, अपने अवचेतन मन की शक्ति l यही शक्ति डर /पराक्रम में रूपांतरित होती है l डर लोगो का सबसे बड़ा शत्रु है l डर ही असफलता, बीमारी का कारण बनता है l डर हमारे दिमाग़ का विचार है अतः डर व्यक्तिनिष्ठ होता है l कभी कभी डर हमारे जीवन में दिशा निर्धारक की महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं l सामान्य डर के कारण ही सम्पूर्ण जगत गतिमान है l
प्रश्न उठता है यदि डर हमारे अनुभवों को स्वरूप देता है तो इसे ज्ञान से भिन्न क्यों माना जाये?
डर के आवरण में लिपटे लाभ हानि के चिंतन से मुक्ति के प्रयास प्रारम्भ से हो रहे हैं l जैसे फेल होने का डर हमें सतत अध्ययन के लिए प्रेरित करता है l
व्यक्ति दो प्रकार के डर लेकर पैदा होता है -गिरने का डर और अचानक तेज शोर का डर, ये सामान्य डर हैं जो आत्म रक्षा के लिए प्रकृति ने हमें दिये l जैसे तेज गति से अनुरक्षण का डर l यें सामान्य पर अच्छे है l
दूसरे डर वे हैं जो खास अनुभवों से उतपन्न होते हैं या फिर माता पिता, रिश्तेदारों, शिक्षकों जो हमारी अवांछित गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं l जब हम अपनी कल्पना को बेकाबू होने देते हैं तो यह डर उतपन्न होते हैं l
मेरे दृष्टिकोण में हानि के डर को पराजित किये बिना हम लाभ तक नहीं पहुँच सकते और यह लाभ कुछ और नहीं वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति है या यूँ कहूँ कि डर को जीतना ही ज्ञान की शुरुआत है l
    ज्ञान द्वारा डर का कोहरा छंटने के बाद सूरज के दर्शन होते है l डर रात का अँधेरा है, सुबह उजियाला लाती है और रोशनी में हम देख पाते हैं l क्या मोहक है और क्या डरावना है l यद्यपि" भय बिन होय न प्रीति "तथापि भय से भयभीत न होइए इसका स्वागत कीजिए l जो डर गया वो मर गया l निर्भय होकर डर से दो दो हाथ कीजिये l
     डर तो हमारा वहम है
    ये यूँ ही लग जाता है
     और तब तक लगता है
  जब तक हम भयभीत है l
सनद रहे -
हौंसले भी किसी हकीम से कम नहीं होते हैं l
डर से तकलीफ की दवा देते हैं
       क्योंकि
डर के आगे जीत ही जीत है l
    - डॉ. छाया शर्मा
अजमेर -  राजस्थान
डर एक तरह का पाठ है जो हमें आगे ले जाता है और डर एक आदत भी है जो हमें पीछे धकेलती है ।भगवान को याद कर या उनसे    डर कर हम अच्छे कर्मों को करने के लिए प्रेरित होते हैं जिससे हम जिंदगी की सच्चाई का दर्पण देखते हैं । हर सच्चाई को स्वीकार कर मनुष्य के मन का भय कम होता है ।कहते भी हैं जो डर गया वो  मर गया । इसी प्रकार डर एक आदत भी है जैसे चोर को चोरी करने की आदत ।चोर डरता है कि पकड़े गये तो जेल होगी लेकिन वह डर उसकी आदत बन चुकी होती है । विद्यार्थी  को नकल करते वक्त डर लगता है पकड़े गये तो इज़्जत गयी लेकिन प्रश्न न आने  पर डर कर भी नकल करता है  ।एक व्यापारी को व्यापार में घाटा लगने से डर लगता है ।यह स्थिती झंझावत की
स्थिती होती है ।अतः डर एक पाठ है जो हर समय हर इंसान का पीछा करता है । अच्छे कर्म करके संतुष्ट रहना जीवन जीने का सबसे सुन्दर तरीका है लेकिन डर जिन्दगी का हिस्सा है जिसे अलग नहीं किया जा सकता है ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश

" मेरी दृष्टि में " डर दो प्रकार का होता है । एक तो गलत कार्य का परिणाम होता है । दूसरा कोई कार्य नहीं हुआ है परन्तु डर लग रहा है । इन दोनों डर में कोई समानता नहीं है । यही जीवन में कहीं ना कहीं भूमिका निभाते हैं ।
- बीजेन्द्र जैमिनी 

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