जीवन में इतने कष्ट क्यों आते हैं ?

जीवन में कष्ट आते रहते हैं। जो जीवन के संघर्ष का हिस्सा बन जाते हैं । कष्ट ही जीवन का पद - प्रदर्शन करता है । यही कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा "  का प्रमुख विषय है ।  अब आये विचारों को देखते हैं : -
ईश्वरीय शक्ति द्वारा निर्मित यह सृष्टि नियम और विधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का नियमित पालन करती हैं । सूर्य चन्दा सितारे हवा ऋतु चक्र परिवर्तन  आदि नियमानुसार स्वयमेव होते रहते हैं । पृथ्वी पर ये मानव जीवन संघर्षों का ही दूसरा नाम है । जिस प्रकार नित्य प्रत्येक दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद फिर से नवल सूर्योदय का प्रारम्भ होता है। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख अवश्य ही आता है । 
व्यक्ति के जीवन चक्र की दिनचर्या भी उसके द्वारा किए गए अच्छे अथवा बुरे कर्मों के आधार पर कर्मानुसार घूमती है । प्रारब्ध संचित और क्रियमाण तीन प्रकार के कर्मानुबन्धन मेंं बँधे व्यक्ति को शारीरिक मानसिक आर्थिक सामाजिक परिवेश आदि अनेक प्रकार के सुख दुःख से भरे अहसास कराती है ।यह कहा जा सकता है कि ---
"साधो सब दिन होत ना एक समाना ,
राजा या फकीर संघर्ष सभी को आना !
निर्भय रह प्रभु भज प्यारे दीनदयाला, 
बिगड़ी तेरी सँवारेगा वही बंसीवाला ।"
कठिन क्षणों मेंं संघर्ष करने से मनुष्य के तनमन जीवन में साहस संयम और धैर्य का संचार होता है । व्यक्ति के मन में उपजे भय अवसाद चिंता का नाश होता है ।
धैर्यशील व्यक्ति किसी भी प्रकार की परिस्थितियों का सामना करने के काबिल हो जाता है । 
सनातन ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति  को ईश्वरीय शक्ति पर अटूट भरोसा करना चाहिए । जिस प्रभु ने हमें जन्म दिया है । वही ईश्वर हमारे प्रत्येक कर्म को देख रहे हैं ।इसलिए परोपकार एवं नैतिक जीवन बिताने का प्रयत्न करना चाहिये । किसी भी प्रकार की बाधा क्लेश कष्ट आदि के क्षणों मेंं बिना घबराये साहस संयम रखना चाहिए । भोजन में नमकीन भोजन के साथ यदि मीठा पदार्थ भी हो तो वह भोजन का स्वाद दोगुना कर देता है । 
इसी प्रकार व्यक्ति के जीवन में यदि सुख ही सुख रहेगा तो व्यक्ति तनमन से निर्बलता अकर्मण्यता निद्रा आलसी जैसे अवगुणों से घिर सकता है ।
किंतु सुख दुःख दोनों के मिश्रण रहने से व्यक्ति वीर साहसी कर्मवीर कर्त्तव्यनिष्ठ जैसे सदगुणों को अपना लेता है । इसलिए आदर्शमय जीवन बिताने के लिये व्यक्ति के जीवन में कष्ट का होना भी अति आवश्यक है ।
प्रत्येक समस्या में उसका समाधान भी अवश्य छिपा होता है ।
व्यक्ति को चाहिए कि भूतकाल  और  आने वाले कल की चिंता छोड़ कर  आज के दिन का भरपूर उपयोग करते हुए आनन्द पूर्वक जीवन यापन करें ।।
-  सीमा गर्ग मंजरी
 मेरठ - उत्तर प्रदेश
"पांव में पड़े छाले और राह के कांटे को मत देख, 
निगाह मंजिल पर रख और हर मुसीबत का हल देख"
देखा जाए कष्ट हर व्यक्ति के जीवन का एक हिस्सा है चाहे अमीर हो या गरीब दोनों के जीवन में कष्ट आते हैं लेकिन कष्ट और दुख जीवन को नया मोड़ देते हैं अक्सर ये लोगों को सफलता के आसपास छोड़ देते हैं तो आईये आज की चर्चा इसी बात पर करते हैं कि जीवन में इतने कष्ट क्यों आते हैं? 
मेरा मानना है कि मानसिक शरीरक  पीड़ा के कई कारण हो सकते हैं पर ९०प्रतिशत मानवीय कष्ट मानसिक होते हैं जिनका कारण हमारे भीतर ही होता है, लोग हर रोज अपने लिए कष्ट पैदा करते हैं  क्योंकी वे गुस्सा, डर, नफरत, ईर्ष्या  आदि से ग्रस्त होते हैं यही दूनिया मे़ पीड़ा का सबसे बडा कारण  है, 
यही नहीं जीवन में कष्ट हमारे द्वारा किये गये बुरे कर्मों का ही नतीजा है क्योंकी हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल मिलता है, बूरे कर्म विचार से जुबान से या हाथों से होते हैं और उनका परिणाम भी हमें वैसा ही भुगतना पड़ता है इसलिए मन वाणी से भी साकारात्मक कर्म करने चाहिए फिर दूनिया की कोई भी ताकत आपके कर्मों के परिणाम को खत्म नहीं कर सकती, 
इसलिए हमें निष्काम कर्म करने चाहिए ऐसा कर्मों का फल शुभ ही होता है, 
अगर देखा जाए दुख का कारण पाप भी है लेकिन समस्त दुख पापों के कारण ही नहीं आते, मनुष्य के दुख के कारण असीम और अजीब हैं,  व्यक्ति खुद विमार हो तो दुख सज्जन विमार हो तो भी दुख कहीं असफल हो जाए तो भी दुखी हो जाता है यानि किसी भी चीज के अभाव से दुखी हो जाता है, 
इसलिए हमें मिलने वाले सुख व दुख का कारण भगवान नहीं  हम ही हैं कहने का भाव हमारे कर्म ही हमें सुख, दुख देते हैं, 
अन्त में यही कहुंगा कि  कष्ट हमारे उपर कहीं से बरसते नहीं हैं इन्हें हम खुद तैयार करते हैं और कष्टों के निर्माण की फैक्टृी हमारे मन में ही है, 
अगर हम देखें तो सारा ब्रहम्ण्ड बहुत अच्छी तरह से कार्य कर रहा है लेकिन हमारे दिमाग में कोई ऐसा विचार आता है जिससे लगने लगता है हमारा सारा दिन बरबाद हो जाऐगा जिससे हमारे मन में कष्ट पैदा होने लगते हैं कहने का भाव कि कष्ट हमारे उपर बरसते नहीं हैं मगर हम तैयार करते हैं फिर भी जो लोग दर्द के साथ जीना सीख लेते हैं वो जिंदगी की हर जंग जीत लेते हैं, 
सच कहा है, 
परिस्थितियां मनुष्य को कष्ट पहुंचा  सकती हैंधक्का दे सकती हैं पर रगड़ कर नष्ट नहीं कर सकतीं हमें साहस  के साथ उनका सामना करना  चाहिए। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
जीवन के दो पहलू हैं "सुख और दुःख"। एक जाता है तो एक आता है पर इसे वही समझ सकता है जो पढ़ा लिखा ज्ञानी होता है।
दुःख के तीन कारण हैं-
आज्ञान,अशक्ति एवं अभाव।जो इन तीनों कारणों को समझ लेगा वह कभी दुःखी नहीं होगा।दुःख तीन प्रकार की परिस्थियों में अधिक होता है-
प्रथम अज्ञानता-अज्ञान वश इन्सान ऐसे कर्म कर बैठता है जो दुःख का कारण बनता है।
( 2)जो अशक्त है और दूसरों पर निर्भर है।उसे कष्ट अर्थात दुःख तो झेलने ही पड़ते हैं।
(3)अभाव अर्थात गरीबी।गरीब इन्सान पैसे के अभाव में चोरी आदि दुष्कर्म करने लगता है जो दुःख के कारण बनते है और याद रहे कर्म से ही प्रारब्ध बनता है इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं।तुलसी दास जी ने कर्म  का कितना सुन्दर वर्णन किया है-
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करई सो तस फल चाखा।।
यह समझ कर सुख-दुःख दोनों को जो समान भाव से स्वीकार करता है वही सुखी जीवन बिता सकता है।
- इन्दिरा तिवारी
रायपुर-छत्तीसगढ़
     जीवन कष्टदायक हैं, उससे निकल कर जीवित रहना एक कला हैं, वैसे भी जब शिशु का जन्म होता हैं, यह सोचकर  तो नहीं निकलता कि उसे तत्काल ही खुशियाँ मिल जायेगी, उसे बचपन से पग-पग पर, धीरे-धीरे ढ़लता जाता और फिर अपने वृहद स्तर पर लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जाता हैं। यह मानवीय जीवन का सच भौतिकता वादी हैं, उसे पाप-पुण्य लाभ-हानि की करबद्धा को पूर्ण करना हैं, वही यथार्थ का परिचयात्मक का बोध कराता हैं।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
 हमारा जीवन कई उतार चढाव से गुजरता है! कहते हैं जेठ जितना तपता है सावन भी उतना बरसता है! जेठ की धूप हम पसंद नहीं करते वहीं सावन के आने से हम आनंदित हो जाते हैं! ठीक उसी तरह  हमारे शरीर को हम आराम देते हैं तो शरीर जड़ और निष्क्रय  हो जाता है ! फिर भी हमें काम से ज्यादा आराम में ही आनंद की अनुभूति होती है! यहीं से हमारे कष्ट आरंभ हो जाते हैं! 
जीवन में कुंदन की तरह चमकना है तो ताप में तो तपना ही होगा! सुख और दुख तो हमने ही पाले रखे हैं! बाकी भगवान ने तो हमें सब दिया है यहां मैथलिशरण गुप्त की पंक्तियां याद आती हैं.... 
प्रभु ने तुमको कर दान किये
सब वांछित वस्तु विधान किये
तुम प्राप्त करो उनको ना अहो
फिर है किसका यह दोष कहो!
यह जीवन है यहां सुख दुख भी धूप छांव की तरह है! जीवन यदि  संघर्षमय है तो वह अधिक सीखता  है! गीता के अनुसार  फल की इच्छा के बिना हमें कर्म करते जाना है! सुख का आनंद चाहते हैं तो हमें दुख को स्वीकार  करना होगा! 
यदि दिन में दो पुण्य कार्य भी कर देते हैं तो मेरी समझ में कुछ कष्ट तो हमारे मन के प्रफुल्ल रहने से कम ही हो जाते हैं! वैसे जीवन में कष्ट है तो प्रभु की लीला को हम याद करते हैं... बिना कष्ट भगवान  भी नहीं  मिलते! 
बाकी तो सब उसी की लीला है! 
          - चंद्रिका व्यास
         मुंबई - महाराष्ट्र
 जीवन में इतने कष्टों का मैं तो एक ही कारण मानता हूं, कर्म भोग। इस कर्मफल भोग को ही होनहार,भाग्य में लिखा होना,किस्मत आदि कितने ही नाम दिए गए हैं। जब भी प्रतिकूल परिस्थिति होती है, हमें कष्ट का अनुभव होता है। जबकि इसके मूल में हमारे
कर्म ही होते हैं। उन्हीं का परिणाम होती है वह परिस्थिति,जिसे हम कष्ट कह देते हैं।कभी कभी किसी एक सही व्यक्ति के साथ की वजह से बहुत से लोग कष्टों से बचें रहते हैं। हिमाचल प्रदेश की एक घटना अखबार में पढ़ी थी। एक बस में कोई सांप एक यात्री के पैरों से आ लिपटा।बस में यात्री शोर मचाएं,इसे उतारो नीचे,इसे उतारो।परिचालक ने उसको बस से उतार दिया।बस चली। आगे जाकर बस खाई में गिर पड़ी।सब मारे गए।  ऐसा मानव कोई नहीं जिसके जीवन में कष्ट न हो,न आए सबको ही झेलने होते हैं कष्ट।कोई अवतार,कोई महापुरुष भी इनसे नहीं बच सका। मेरे विचार से कष्टों का एकमात्र कारण होता है, हमारे कर्म।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
जीवन दुःख और सुख दोनों का संगम है। सुख दुःख दोनों धूप छांव की तरह है। पर हमें लगता है कि दुःख बार बार आते हैं। वास्तव में जब हम सुखी होते हैं तो हम सुख को ग्रांटड ले लेते हैं। हमें कुछ याद नहीं रहता। हम परमात्मा का धन्यवाद करना भूल जाते हैं। परन्तु जब दुखी होते हैं तो छटपटाते हैं। दुःख का समय काटे नहीं कटता। हम सुखों व खुशी के लिए तड़पने लगते हैं।  कबीर जी ने कहा है
दुःख में सुमिरन सब करें,  सुख में करे ना कोय
जो सुख में सुमिरन करें तो दुःख काहे को होय।
सही है हमें प्रयत्न करना चाहिए कि हम स्वयं को यथाशक्ति सुख दुःख, मोह, लोभ,अहंकार के प्रपंच से उदासीन रखें। उस की रज़ा में खुश रहें। भौतिकवाद की दौड़ में ना पड़ कर स्वयं को अध्यात्म की ओर उन्मुख करें। जीवन के परम् सत्य को समझें कि सब कुछ क्षणभंगुर है, अस्थाई और नाशवान है। केवल ईश्वर तथा उनका स्मरण ही अंतिम सत्य है। यथा शक्ति ऐसा करने से हमें दुःख सुख में अंतर कम लगेगा।
- डॉ नीलिमा डोगरा
नंगल - पंजाब
कबीरदास जी कहते हैं..... 
"माया मुई न मन मुआ , मरी मरी गया सरीर।
आशा – तृष्णा ना मरी , कह गए संत कबीर।।" 
इसमें कोई दो मत नहीं कि मानव-मन में व्याप्त मोह-माया का जाल कष्टों का एक महत्वपूर्ण कारण है।
साथ ही, यथार्थ के धरातल पर बात की जाये तो यह भी सत्य है कि साधारण मनुष्य के मन में मोह-माया के भावों का होना स्वाभाविक है। इसीलिये जीवन और मोह-माया से उत्पन्न कष्टों का चोली-दामन का साथ है। 
जहाँ तक यह प्रश्न है कि 'जीवन में इतने कष्ट क्यों आते हैं' तो यह कहना चाहूँगा कि साधारणत: मनुष्य जीवन एक चक्र के समान है। जिसमें उतार-चढ़ाव आना निश्चित है। सुख-दुख, हानि-लाभ, यश-अपयश आदि दिन-रात की भाँति मनुष्य के साथ चलते हैं। कुछ कष्ट हमारे कर्मोंवश उत्पन्न होते हैं तो कुछ कष्टों का सामना मनुष्य को परिस्थितियों के कारण करना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति के कष्टों का रूप अलग हो सकता है परन्तु कष्टों के साथ ही मनुष्य को जीवन जीना पड़ता है। 
यह मनुष्य की शारीरिक-मानसिक क्षमता पर निर्भर करता है कि वह उन कष्टों का सामना कितनी दृढ़ता से करते हुए उन पर विजय प्राप्त करता है। 
परन्तु इसके साथ ही यदि महापुरुषों की बातों का अनुसरण मनुष्य करेगा तो कष्टकारी स्थिति से जूझते समय मन को संबल मिलता है। 
यथा, गुरुनानक देव जी कहते हैं कि..... 
"नानक दुखिया सब संसारा। सोई सुखिया जेहि नाम अधारा!" 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
जीवन और कष्ट दोनो शरीर की परछाईं की तरह हैं ।
कष्ट शरीरिक और मानसिक क्षति तो पँहुचाता है पर इस के साथ ही भीतरी शक्ति को बढ़ाता है।  जिस प्रकार ठहरा हुआ जल सडांध मारता है।उसी प्रकार सहज, सरल सीधा ,सपाट जीवन भी मृत्यु समान ही है।तकलीफें , कठिनाईयाँ, उतार -चढ़ाव हमे गति और नयी सोच की ओर मोड़ देता है। 
   ईश्वर मनुष्य की क्षमताओं को परखने के लिए कष्ट देता है। कहा भी गया है कि सोना तप कर कुंदन बनता है ।
जीवन के कष्टों को ईश प्रसाद मानना चाहिए।
  मौलिक और स्वरचित है ।
  - डा.नीना छिब्बर
     जोधपुर - राजस्थान
 जीवन क्या है, जीवन क्यों ह,  जीवन कैसा है।  जीवन का प्रयोजन क्या है इसकी समझ ना होने के कारण जीवन में कष्ट आते हैं। जबकि यह संसार सुख के अर्थ में बना हुआ है ना कि दुख के अर्थ में इस संसार में जो व्यवस्था है उस व्यवस्था की समझ ना होने के कारण जीवन में कष्ट आते हैं मनुष्य कष्ट में जीना नहीं चाहता ।लेकिन कष्ट
  से कैसे मुक्ति हुआ जाए इसकी ज्ञान ना होने के कारण मनुष्य दुखी है समझ की कमी के कारण वह जिंदगी में सही व्यवहार और सही कार्य नहीं कर पाता है इसलिए धन और समझ के अभाव  के कारण दुःखी होता है। 
 मनुष्य अपने जीवन को समझे बिना और जहां जी रहा है उसकी प्रायोजन को समझे बिना सुखी नहीं रह सकता अर्थात वह कष्ट
 के साथ जीता है।
 - उर्मिला सिदार
 रायगढ़ - छत्तीसगढ़
जीवन में कष्ट आने से ही हम आराम की परिभाषा समझ पाते हैं। कष्ट जीवन मूल्यों को समझने की शक्ति देता है।
 इसका सामना करने के लिए हमारी अतिरिक्त शक्ति जागृत हो जाती है, जो जीवन के नकारात्मकता से उबरने में मदद करती है। हमें कष्ट में घबड़ाना नहीं है। कष्ट और आराम एक दूसरे के पूरक हैं । जब हम आराम के दायरे से निकल कर कर्म के लिए तत्पर होते हैं तब बाधाएं हमें कष्ट पहुँचाने का प्रयास करती हैं। दोनों परिस्थितियाँ एक-दूसरे के महत्व को बढ़ातीं हैं।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
कहना गलत नहीं होगा कि आज पूरी मानव जाति किसी न किसी तरह से कष्टों से पीड़ित है तो क्या कहीं से बरस रहे हैं। कष्ट कहां से आते हैं यह कष्ट और क्या है। उपाय इनसे बचने का लोग दो तरह के कष्टों को चाहते हैं। आमतौर पर लोग सोचते हैं कि कष्ट या तो शारीरिक होते हैं या मानसिक पीड़ा कई कारणों से हो सकती है। पर 90 फ़ीसदी मानवीय कष्ट मानसिक होते हैं। जिसका कारण हमें हमारे बहुत ही होता है। लोग हम रोज अपने लिए कष्ट पैदा करते हैं। वह गुस्सा,  नफरत ईर्ष्या और सुरक्षा आदि से ग्रस्त हैं। यही दुनिया में अधिकतर लोगों के लिए पिया का कारण है। आखिर  इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए कष्ट की प्रक्रिया को देखना होगा। क्या आपने देखा कि सूरज के साथ उदित हुआ कोई भी सितारा नहीं टूटा सारे तारामंडल अपना काम सही कर रहे हैं। सब कुछ व्यवस्थित रूप में चल रहा है।बहुत अच्छी तरह कार्य कर रहा है। पर कोई एक विचार दिमाग में आते हैं आपको लगने लगता है। कि आपका पूरा दिन बर्बाद हो गया। कष्ट इसलिए हो रहा है क्योंकि अधिकतर लोग यह नजरिया ही खुद बैठे हैं कि जीवन कहते किसे हैं उनकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया अस्तित्व संबंधी प्रक्रिया से बड़ी होती है या अगर सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो आपने अपने दुख सृष्टि को उस ईश्वर की सृष्टि से भी महान मान लिया है यही सारे कष्टों की बुनियादी जड़ है हमने यह जीवन रहने का अर्थ ही खो दिया है। आपके दिमाग में आया कोई विचार या कोई भाव आपके अनुभव तो तय करने लगता है। सारी सृष्टि बहुत अच्छी तरह चल रही है। पर कोई एक भाव या विचार सब कुछ नष्ट कर देता है जब भी हो सकता है कि आपकी भावनाओं और विचारों का आपके जीवन की सीमित वास्तविकता से भी कोई लेना-देना ना हो। कष्ट का कारण इंसान का व्यवहार भी होता है। यदि आप अच्छे कर्म करेंगे तो कष्ट दूर भागेगा लेकिन वही आप बात करेंगे कमजोर गरीब को सताना एक ना एक दिन आपको इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा और कष्ट की पीड़ा सहनी पड़ेगी आप का करम है सुख और दुख का कारण बनता है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
अपने अपने कर्मों का भोग होता है जो जीवन में कष्ट या खुशी लाता है। जिस तरह इंतजार की घड़ी लम्बी होती है ठीक उसी तरफ थोड़ा भी कष्ट हमें बहुत बड़ा लगता है। आनन्द के पल बहुत जल्द खत्म हो जाते हैं लेकिन हमें ऐसा लागता है कि कष्ट ज्यादा होता है। दिन और राग की तरह ,सुख और दुख की तरह, कष्ट और खुशी का पल होता है। यदि कष्ट नहीं आएगा तो हम कैसे समझेंगे की सुख क्या होता है। खुशी क्या होती है । खुशी को बरकरार रखने के लिए कष्ट जरूरी हो जाता है। जीवन में कष्ट इसलिए भी आते हैं कि हम कोई गलत कार्य न करें। किसी को दुःख न पहुँचाये। कष्ट से हमें जितनी तकलीफ होती है दूसरे को भी इतनी ही तकलीफ होती होगी। ये आभास दिलाने के लिये ही जीवन मे इतने कष्ट आते हैं
- दिनेश चन्द्र प्रसाद " दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल
सुख दुख की पहचान हमें होती रहे ,  सदैव कुछ न कुछ सार्थक करें , अपने आप को निखारते रहें, नया सीखें और सिखाएँ , इस भ्रम से बाहर निकलें कि हम सर्वशक्तिमान हैं ,इन सब गुणों को समझाने हेतु समय- समय पर कष्ट का सामना जाने- अनजाने करना ही पड़ता है ।
कोई इस दौरान निखर जाता है तो कोई अवसाद से ग्रसित होकर बिखर जाता है । जब हम पूरे मनोयोग दिव्य सत्ता को स्वीकार उसके निर्देशों का पालन करते हुए कठोर संघर्ष करने लगते हैं तो स्वतः ही कई राहें बन जाती हैं । कहते हैं न-
दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय.....
परमशक्ति द्वारा ली जानें वाली परीक्षाओं को देते हुए कष्टों पर विजय पाकर अपने आप को सिद्ध करना ही स्वयं पर विजय पाना है ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
हमारे जीवन में कष्ट कई तरह के हो सकते हैं मानसिक भीऔर शारीरिक भी।
 शारीरिक कष्ट किसी बीमारी,दुर्घटना, चोट आदि के माध्यम से हो सकता है ,जिसे उपचार के द्वारा दूर भी किया जा सकता है। 
जब  मनुष्य मानसिक कष्टों के घेरे में आ जाता है, तब उसकी हालत अत्यंत दयनीय बन जाती है। 
यह मानसिक कष्ट हमारी इच्छाओं, अपेक्षाओं और आकांक्षाओं का परिणाम हो सकती है । 
यद्यपि मानव जीवन में इच्छाओं का पलना कोई बुरी बात नहीं है,अपने प्रयासों से उन्हें पूरा भी किया जा सकता है तथापि जब यही इच्छाएं अत्यधिक अपेक्षाओं का स्थान लेती है, तो कष्टों में परिवर्तित हो जाती हैं । मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति संतोषी भाव से कोसों दूर चला जाता है,शांति के लिए भटकता फिरता है  लेकिन इच्छाओं और अपेक्षाओं को छोड़ता भी नहीं है। नकारात्मक सोच में घिर जाता है । इन कष्टों का निवारण मनुष्य की सोच में ही निहित है । 
जीवन की आवश्यकताओं और निर्वाह से अधिक इच्छाओं को ना पालकर सदैव सकारात्मक सोच रखना जीवन में संतोष और शांति का भाव पैदा करता है ।
 अतः सदैव पवित्र ह्रदय रखते हुए, सकारात्मक सोच अपनाते हुए, अत्यधिक अपेक्षाओं ,इच्छाओं, आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना अति आवश्यक है । मानव जीवन में यही प्रसन्नता सबसे बढ़ा मूल मंत्र है। 
- शीला सिंह
 बिलासपुर -  हिमाचल प्रदेश
जीवन में कष्ट है तो सुख भी है। जीवन सुख- दुःख का मिश्रित रूप है। अगर जीवन में दुख न हो तो सुख का महत्व भी कम हो जाएगा। लोग सुख की चाह में मेहनत करना, मन में अच्छे भाव जगाना, दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करना, संवेदनशील, सदविचार आदि नैतिक गुणों से दूर होते चले जाएंगे।
 जीवन में कष्ट न आए-- इसलिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हुए कर्मरत रहते हैं और भगवान के प्रति भी आस्था, निष्ठा और विश्वास सदैव बनाए रखते हैं।
    कुछ कार्य अनजाने में गलत हो जाता है-- कभी खुद से, कभी दूसरों की वजह से भी--- जो हम नहीं चाहते अज्ञानतावश घटित हो जाता है जिसके कारण हमें कष्ट सहना पड़ता है। कष्ट कोई  शारीरिक रूप से हो--वही कष्ट कष्ट नहीं कहलाता। हमारे परिवार में किसी सदस्य को किसी भी तरह का मानसिक और शारीरिक कष्ट पीड़ा हो तब भी हम आहत होते हैं।
          जीवन में कष्टों का आना जाना लगा रहता है। सुख-दुख के छांव में हम जीवन पथ पर अग्रसर होते रहते हैं। कष्ट के दिनों में हमें ज्यादा कुछ सीखने के लिए मिलता है और हम सचेत हो जाते हैं कि ऐसा कोई कार्य न करें जिससे भविष्य में कष्ट हो।
                          - सुनीता रानी राठौर
                          ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
यदि जीवन में कांटे ना हो तो जीवन जीने का आनंदी कैसे मिलेगा कांटे और दुख से ही हम अधिक मजबूत होते हैं।
हमारे आसपास हमें पेड़ पौधे लगाने चाहिए और आसपास जो पेड़ पौधे लगे हैं उन्हें पानी देना चाहिए क्योंकि सुंदर फूल और हरियाली देखकर हर किसी का मन स्वस्थ रहता है और प्रश्न भी होता है। आसपास पेड़ों की सेवा करने से हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार होता है और शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त होती है।हमें ऐसा करते देखकर आसपास के लोग और हमारे बच्चे सब के मन में सेवा की भावना भी उत्पन्न होती है वह हर व्यक्ति के प्रति सेवा भाव रखते हैं जो कि आज के समाज और परिवेश में बहुत जरूरी है। सभी के प्रति आदर भाव होता है प्रति व्यक्ति चाहता है कि उसका जीवन फूल जैसा सुंदर हो और उसमें आनंद की महक हो जब हम अपने हृदय से घृणा ईशा के गुणों को क्या देंगे क्षमा सहनशीलता परोपकार को अपनाएंगे तो तुलसीदास जी की पंक्ति परम सत्य को उजागर करती हैं।
"परहित सरिस धर्म नाहि भाई,
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।"
दूसरों के जीवन में फूल खिलाने का तो केवल व्यक्ति का जीवन आनंद से भर उठेगा अपितु वह स्वयं प्रसन्नता का अनुभव करेगा दूसरे को कष्ट में देखकर वह स्वयं की हानि करता है यह प्रकृति का नियम है जैसा बीज बोओगे वैसा ही फल प्राप्त होगा करेला भोकर आम पानी की आशा मूर्खता है रास्ते में कांटे होता है और क्षमा करके यदि हम उसका भला करते हैं तो अपनी भूल का एहसास करते हैं और हमारे हृदय में उसके प्रति सद्भाव और आदर उत्पन्न होता है।
तरुवर फल नहिं खात हैं
सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित,
संपत्ति संचहि सुजान।।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
जीवन में कष्ट इसलिए आते हैं क्यूंकि कष्ट रुपी काँटों के बिना जीवन में सु ख रुपी फूल नहीं खिलते
कष्टों का एक फायदा यह भी है की मनुष्य कष्ट की घडी में ही ईश्वर को याद करता है ....सुख में नहीं
कोई कष्ट का बादल दिखा नहींकी  मनुष्य भगवान्  स्तुति करने लग जाता है .....यदि मनुष्य  कष्ट के बिना ही ईश्वर को स्मरण कर ले तो शायद कष्ट न ही हों मनुष्य के जीवनमें
दुःख में सिमरन सब करें ..सुख में करे न कोय
जो सुख में सिमरन करे ..तो दुःख काहे होय
- नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
इसका तो कोई जवाब ही नहीं है भैया। काश! इंसान के पास इसका जवाब होता। फिर तो कष्ट की उसके पास फटकने की हिम्मत भी नहीं हो पाती। अपनी अपनी किस्मत है, किसी के जीवन में संघर्ष और कष्टों का सामना लिखा होता है तो वह तो उसे  झेलना ही पड़ता है। मैं तो उसे सकारात्मक भाव में लेती हूं। शायद ईश्वर इसी बहाने धैर्य एवं संयम की परीक्षा लेता है। देखना चाहता है कि किसमें कितनी सहनशक्ति है। हर कष्ट एक चुनौती होता है जिसका सामना करना ही उसका विकल्प होता है।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम" 
नरसिंहपुर -  मध्य प्रदेश
जीवन में सुख का आधार प्रसन्नचित जीवन है l सुख दुःख का अधिष्ठाता हमारा मन है l जीवन यात्रा में मनुष्य को अनेक कठिनाइयों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ता है l यह प्रमाण है हमारे भरमित होने और पूर्व जन्म के पाप कर्मों का l
  आज के जीवन में विश्वास, संतोष आत्मीयता जैसे भाव लुप्त प्रायः हो गये हैं l हम केवल औपचारिकता निभा रहें हैं, वह भी ऊपरी मन से... तो आत्मा को कष्ट होना ही है l
कर्म सिर्फ दार्शनिक तथ्य नहीं है अपितु जीवन का सत्य है l कहा गया है -जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान l
प्रश्न उठता है कर्म जाल से कैसे निकले?
गीता में कहा है -अपने कर्म को यज्ञ की तरह करो l इससे तुम कर्म फल से नहीं बंधोंगे l कम अपेक्षाओं के साथ जीवन को भगवान के प्रति एक यज्ञ मानें l ऐसे ही यज्ञ -बुद्ध ने ध्यान के रास्ते, मीरा ने वैराग्य के रास्ते तो कबीर ने अपनी मस्ती में तो नानक ने गुनगुनाकर सब कुछ प्राप्त कर लिया l कष्ट का नामोनिशान नहीं था उनके जीवन में l
आज कष्टों का मुख्य कारण है पैसा l इसके पीछे अंधी दौड़ में मानव सुख चैन सब कुछ लुटा बैठा और कष्टों को ले बैठा है l पैसा भौतिक वस्तु है अतः आत्मिक सुख शांति नहीं दे सकता है l जीवन में आने वाले कष्ट के पल हमारी सूझ को थपथपाकर सचेत करने आते हैं, लेकिन हम अंधकार में लिप्त होने के कारण कुछ देख नहीं पाते, भूल जाते हैं l जबकि... तोरा मन दर्पण कहलाये..... l
मेरी दृष्टि में -हमारे ऊपर कष्ट बरसते नहीं हैं, इन्हें हम तैयार करते हैं और कष्टों के निर्माण की फैक्ट्री हमारे मन में है अतः कष्टों से मुक्त होना है तो अपने विचारों और भावों की अहमियत घटा दें l
हम जीवन में कष्टों से दूर रहेंगे l
           चलते चलते ----
ता उम्र हम एक ही सबब याद रखेंl
इश्क और इबादत में नियत हमेशा साफ रखें ll
  - डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
जीवन सुख और दुःख का मेला है ।रात और दिन दुःख सुख के आने जाने की अच्छी परिभाषा है ।जीवन में कष्ट अपने कर्मो का प्रतिफल है ।हम जैसा बोते हैं वैसा काटते हैं लेकिन यह भी धारणा है कि कष्ट पूर्व जन्म का भी प्रतिफल होता है जो हमें इस जन्म में भोगना पड़ता है । जीवन के कष्ट से कोई व्यक्ति अछूता नहीं है , किसी को कम किसी को ज्यादा ।
जो करो वही लौटता है यह प्रकृति का अटल सत्य है । किसी को कटु वचन बोल कर हम उससे अच्छे व्यवहार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं । कई बार हमारे द्वारा की गई छोटी -छोटी गलतियाँ इकठ्ठी होकर बड़े दुःख का कारण बन जाती हैं ।जैसे - शराबी रोज - रोज शराब पीने की गलती करता है परिणाम स्वरुप वह गलती मृत्यु का कारण बन जाती है ।पूरा परिवार दुःख झेलता है । अनियमित खर्च आर्थिक संकट का कारण बन जाती है ।सपष्ट है ज्यादातर कष्टों के जन्मदाता हम स्वयं होते हैं ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
जीवन में इतने कष्ट क्यों आते हैं। इसका मतलब हुआ कि जीवन दुखालय है पर ऐसा नहीं है। जीवन तो सुख- दुख का संगम है ।बस सुख आता है तो हम अधिक नहीं विचार करते। पर दुख से उपजा कष्ट आने पर सोचने लगते हैं और हाय! इतने कष्ट क्यों, क्यों....?? कहने लगते हैं।
        मानसकार ने इस संदर्भ में स्पष्ट कर दिया है कि----
  "काहु न कोई दुख- सुख कर दाता ।
निज- निज कर्म भोग सब भाता।।"
             हम सब अपनी दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से होने वाले कर्मों के अधीन हैं। इसी को भोगते हैं और रात दिन चिल्लाते रहते हैं।
   मन दैविक कष्टों को भोगता है; फलस्वरूप भय, चिंता, शोक, क्रोध, बैर, वियोग जैसे कष्ट झेलते हैं।
 भयंकर रोग की चपेट हमारी देह( शरीर )को असहनीय कष्ट देते हैं।
   ऐसे ही भयंकर अकाल, बाढ़, युद्ध और भूकंपीय विनाश जैसे सामाजिक( सामूहिक) अचानक आने वाले भौतिक कष्टों के  दंश व्यक्ति को झेलने पड़ते हैं।
   इन तीन प्रकार के कष्टों से कोई भी अछूता नहीं है।
 व्यक्ति का मन, देह और समाज इन तीनों में असंतुलन होने पर ही जीवन में इतने कष्ट आते हैं।
- डाॅ.रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
"ऊधो करम की गति न्यारी"
और-- ये भी कि करमवा बैरी हो गए हमार"---अतः कहूँ कि 
             एक होता है प्रारब्ध। कहते हैं हमारे सारे कष्टों की जड़ यही प्रारब्ध होता है। पिछले जन्म के कर्मों का फल होता है इस जन्म के कष्टों के रूप में। लेकिन मैं नहीं मानती इस मिथक को। यह दुनिया एक कर्म स्थली है हरेक को यहाँ पेट भरने के लिए और जीवन चलाने के लिए काम करना पड़ता है। इसी चक्रव्यूह में किसी को कम किसी को ज्यादा मिलता है। फिर चाहे वह सुख हो या दुख। नहिं सुप्तस्य सिंहस्थ प्रवेशंति मुखे मृगाः--शेर को भी शिकार करना पड़ता है। सोये शेर के मुँह में अपने आप शिकार नहीं आता। कष्ट तो उसे भी उठाना पड़ता है। 
     सो जान लीजिए करम (किस्मत) से नहीं कर्म से जीवन चक्र चलता है। और कष्ट का आना-जाना जीवन का अनिवार्य पडा़व है। मंजिल तय करने के लिए इन पड़ावों से दो चार होना ही सच्ची सच्चाई है थी और रहेगी
- हेमलता मिश्र "मानवी" 
नागपुर - महाराष्ट्र
जीवन है तो सुख-दुःख, तकलीफ, कष्ट तो होंगे ही वर्ना मरने के बाद तो जलने का अहसास भी नहीं होता  । दुख की उपस्थिति में ही सुख का महत्व है  । 
       वैसे कष्ट कई प्रकार के होते हैं जो मुख्य रूप से हैं--शारीरिक, मानसिक और भौतिक । सभी प्रकार के कष्टों के लिए कहीं न कहीं हम स्वयं जिम्मेदार हैं  । 
      शारीरिक कष्ट के मुख्य कारणों में संतुलित दिनचर्या, सात्विक खान-पान का अभाव मुख्य है । 
      मानसिक कारणों में बिखरते  परिवार, रिश्ते, मन-मुटाव, ईर्ष्या-द्वेष, सच्चे मित्रों अभाव आपसी सामंजस्य का अभाव है आदि हैं  जिसके कारण मन बेचैन रहता है  । फिर 'सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग  ।'
         भौतिक कारणों मुख्य है-- असीमित इच्छाएं जो द्रोपदी के चीर की तरह बढ़ती ही जाती है.....बढ़ती ही जा रही है  । इनकी पूर्ति के लिए पैसों के पीछे भागना और मरते दम तक भागना......
        ये तृष्णा ही कष्ट का मूल कारण है  । 
       ' संतोषी सदा सुखी ' मगर मन को संतोष है कहां  ?
होना तो यह चाहिए कि--
         सांई इतना दीजिए 
         जामे कुटुम समाय ।
         मैं भी भूखा ना रहूं 
         साधु न भूखा जाय  ।।
            - बसन्ती पंवार 
         जोधपुर - राजस्थान 
जीवन में कष्ट इसलिए आते हैं ताकि हम जीवन का मूल्य समझ सकें और उसे उसी प्रकार जी सकें। जीवन का हर कष्ट एक नयी सीख देता है, नया अनुभव देता है जिससे जीवन को संवरने का अवसर मिलता है। पत्थर भी चोट खाकर कलात्मक रूप लेता है तो सोना भी चोट खाकर ही चमकता है। तितली का लारवा जब अंडे से निकलने के लिए संघर्ष का कष्ट सह रहा होता है और उस समय कोई दयावान खोल को तोड़ कर उसे बाहर निकालने में मदद करे तो कष्टहीन और संघर्षहीन लारवा पंख वाली सुंदर तितली नहीं बन पाता। 
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली 
यदि इस पर विचार किया जाए तो मनुष्य के जीवन में सुख या दुःख प्रारब्ध से जुड़ा है । हम कई बार देखते हैं कि कुछ लोग हमेशा सत्कर्म ही करते हैं , फिर भी उन्हें बहुत तकलीफ का सामना करना पड़ता है और कुछ लोग हमेशा बुरे कर्मों में लिप्त रहता है, फिर भी वह खुशहाल रहता है ।-- ये क्या है ? यही है पुर्व जन्म के कर्मों का फल ।
लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम आज के कर्म पर ध्यान ही न दें ।
- पूनम झा
कोटा - राजस्थान 
       कष्टों अर्थात दुखों का मूल कारण निराशाएं हैं। जिनकी जननी आशाएं होती हैं और जब निराशाएं विकराल रूप धारण कर लेती हैं तो अनेकों प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग जन्म लेते हैं। जिन्हें साधारण भाषा में पापों का दण्ड भी कहा जाता है।
       जबकि सच्चाई यह है कि यदि कष्टों की मूल जड़ "आशा" को उखाड़ कर फेंक दिया जाए तो निराशा जन्म ही नहीं ले पाएगी और जब निराशा जन्म नहीं ले पाएगी तो कष्ट की क्या औकात की वह शारीरिक अथवा मानसिक पटल को छु पाए?
       इसीलिए साधु-संत स्वभाव के लोग स्वस्थ और हष्ट-पुष्ट होते हैं। चूंकि वह लोग वस्तु, व्यक्ति अथवा प्रतिकूल परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते। जिसके कारण प्राकृतिक/अप्राकृतिक प्रतिक्रियाएं उनके शरीर एवं मानसिकता को प्रभावित नहीं कर पातीं और वह अनुकूल क्रियाओं की भांति जीवनयापन करते हैं। जिससे उन्हें न तो मातृ-पितृ से विमुख होने और ना ही संसार का सर्वोच्च दुःख "पुत्र वियोग" का कष्ट होता है। वह तो सब प्रभु अर्थात ईश्वर की लीला मानते हुए सदाबहार रहते हैं और कष्टों से मुक्ति पाते हैं।
       अतः जीवन में अत्याधिक कष्टों के आने के पीछे अत्याधिक आशाओं का उत्पन्न होना और उनकी आपूर्ति न होने से उपजी निराशाएं हैं। जिनके अंधेरे से मुक्ति पाने की एकमात्र युक्ति "गूढ़ ज्ञान" का प्रकाश है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
आत्म चिंतन करे तो हम पाते हैं कि जीवन में सुख और दुख दोनो ही किसी के जीवन मे कम या ज्यादा आते रहते है, मनुष्य सामाजिक प्राणी है और वो अधिकतर अपेक्षाओं से घिरा रहता है और जरूरत से ज्यादा लोगों से अपेक्षा रखता है, जैसे वो व्यवहार करता है यदि अच्छा व्यवहार किया है तो उससे ज्यादा वो उसके पाने का इंतजार करता है और जब यह लेन देन की प्रक्रिया में संतुलन नही हो पाता तो उसे कष्ट होता है और व्यक्ति अपना आंकलन कभी भी कम नही करता वो हमेशा ज्यादा और बहुत पाने की होड़ में लगा रहता है चाहे वो जो भी रूप में हो,कर्म ,धर्म, धन ,मर्म सामाजिक आर्थिक कुछ भी इसके कारण हो सकते हैं, जब हम किसी भी चीज की अपेक्षा और मोह मे बंध जाते है और ये सोचने लगते है कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूं और मैं ही सर्वगुण संपन्न हूं,या मेरे अलावा ये कोई कर नही सकता,या नकारात्मकता अपने जीवन में लाने लगते है कि ईश्वर ने तो सिर्फ मुझे ही दुख दिए हैं या सारे काम का जिम्मा मुझे ही सौपा है या अन्य बहुत से कारण हो सकते है।
जब हम वस्तुतः अपने आप को बहुत ज्यादा महत्व देने लगते है तो भी हमे जीवन में दुख और जीवन में कष्ट ही कष्ट है ये प्रतीत होने लगता हैं और हम अपने जीवन को कष्टों से भरा महसूस करते हैं।
कष्ट है तो उसका समाधान भी अवश्य है जरूरत है उसको पहचाने की निदान ढूढने की यदि कष्ट है तो उसका निदान कही न कही सुख और प्रशंसा भी है या ये भी कहा जा सकता हैं सब का समय पूर्वत तय है और बड़े से बड़े कष्ट से अपने आपको उबार लेना ही जीने की कला है।
अतः यह कहा जा सकता हैं दोनो का जीवन में अहम भूमिका है और इसी का नाम ही जीवन है।
- मंजुला ठाकुर
भोपाल - मध्यप्रदेश
जब बच्चा पैदा होता है तभी से ही उसके साथ कष्ट जुड जाते हैं ।कभी वो हंसता है कभी जोर जोर से रोता है । जब बडा हो कर जवान और फिर बूढ़ा हो जाता है सुख दुख उसके साथ चोली दामन की तरह चिपके रह्ते हैं ।
ये जरुरी भी है यदि दुख3नहीं होंगे तो हमें सुख का आनन्द नहीं आयेगा और हम जीवन में कुछ नहीं कर के आराम ही करेंगे ।
किन्तू दुखो के निवारण के लिये हम परिश्रम करते है और अच्छा परिणाम आने पर आनन्द प्राप्त करते हैं ।।
  - सुरेन्द्र मिन्हास 
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
हमारा जीवन  सुख- दुख  का संगम है। कष्ट  रूपी दुख भी जीवन का एक अभिन्न अंग के समान है। प्रकृति भी सब दिन  एक समान नहीं होती। सुबह के बाद  शाम,  छाँव के बाद धूप यह तो निरन्तर चलता हीं करहता है। ठीक इसी प्रकार हमारे जीवन में कष्ट आते हीं रहते हैं और  हमारी धीरता और सहनशीलता की परख तभी होती है। हम इसकी कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं यही हमारी परीक्षा होती है। इसलिए हमारे जीवन में जो भी कष्ट आए उसका सामना हमें डट कर सूझबूझ से करनी चाहिए। 
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
   जीवन में कष्टों का पुलिंदा होना बेहद जरूरी है।
कष्ट शरीरिक और मानसिक रूप से हमें  परिमार्जित करते रहते हैं। "नानक दुःखिया सब संसार","दुःख ही जीवन की कथा रही","दुःख हमें  मांजता है",विपति कसौटी जे कसे,तेही सांचे मीत"ये अमर कथोक्ति लोकप्रिय होना इस बात का सूचक है,कि कष्ट तो जीवन के पर्याय हैं  और आने ही हैं।
जहाँ तक हम बात करें, कि ये आते क्यों हैं,तो कहते हैं ना-धूप-छाँव ,रात- दिन,फूल-कंटक,श्वेत-श्याम क्रमानुसार आते जाते हैं, ये जरूरी हैं।
मान्यता है,कि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का नतीजा होते हैं ये कष्ट। ठीक तो है,कुछ सुधरने का अवसर देंगे हमें, वरना आदमियत तो अब चुकती चली जा रही है।कोरोना के अचूक कष्टों  ने सबकी हेकड़ी निकाल दी है।अब पुन:भयाक्रांत होने लगा है मानव इस दानव से।
काफी सुधरे हैं लोग।प्रकृति से जुड़ बैठे हैं। अपने आपसे बातें  करके आत्मान्वेषण कर रहे हैं।
कष्टों से जूझकर ही सृष्टि परिमार्जित हो रही है।इनका स्वागत सशक्त होकर करना होगा।
- डा.अंजु लता सिंह
नई दिल्ली

" मेरी दृष्टि में " कष्ट अपने ही कर्म का परिणाम होता है । फिर हम क्यों घबराते है ? कर्म तो अपना ही जीवन है ।कष्ट भी अपने होने चाहिए । जो इसे समझ लेता है । वह कष्ट को भी हंसी- खुशी काट लेता है यानि स्वीकार कर लेता है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी 

Comments

Popular posts from this blog

वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही हैं ?

लघुकथा - 2024 (लघुकथा संकलन) - सम्पादक ; बीजेन्द्र जैमिनी

इंसान अपनी परछाईं से क्यों डरता है ?