क्या श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना बड़ी चुनौती नहीं है ?
फिलहाल हर तरह के श्रमिक अपने - अपने घर जा रहें हैं । ऐसें में किसी का भी उत्पादन शुरू करना चुनौती बन गया है । बिना श्रमिकों के उत्पादन असम्भव है । यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
श्रमिकों की कमी के कारण उत्पादन शुरू करना उद्योग इकाइयों के लिए एक बड़ी चुनौती है। लेकिन, वर्तमान समय में जिस प्रकार सावधानी के लिए नियम बनाए गए हैं, उनके चलते एक साथ बड़ी संख्या में एक स्थान पर, श्रमिकों का इकट्ठा होना असंभव तो है ही, खतरनाक भी है। इसलिए कम श्रमिकों के साथ ही सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइजेशन जैसे महत्वपूर्ण नियमों का पालन करते हुए उत्पादन दर कम रखते हुए काम शुरू किया जा सकता है। इससे जहां एक और सुरक्षा बनी रहेगी वहीं दूसरी ओर उत्पादन भी शुरू हो जाएगा। पंजाब की कई उद्योग इकाइयों में इन नियमों का पालन करते हुए उत्पादन कार्य शुरू हो चुका है। पूरे देश में इसी तर्ज पर काम शुरू किया जा सकता है।श्रमिक जो अपने गांव को लौट गए हैं, उनकी पूर्ति तुरंत तो नहीं हो पाएगी। लाकडाउन खुलने के बाद भी, कमी तो बनी ही रहेगी,इसलिए अब इसी माहौल में रहकर उद्योग इकाइयों को काम चलाना होगा। श्रमिकों की कमी से निपटना ही कुशल प्रबंधन का परीक्षाकाल है।इस वैश्विक संकट के समय सबकुछ सामान्य होना मुश्किल है।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
कोरोना वायरस (कोविड 19) महामारी को नियंत्रित करने के लिए देश भर में लॉकडाउन 3 चल रहा है जो 17 मई तक है। पिछले सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मुख्यमंत्रियों की हुई बैठक हुई, जिसमें पंजाब, बिहार, बंगाल, दिल्ली सहित एक दर्जन मुख्यमंत्रियों ने कोरोना के देश भर में तेजी से बढ़ रहे मामलों को देखते हुए लॉकडाउन को बढ़ाने की बात कही। लॉकडाउन 4 को 18 से करीब 30 मई तक बढ़ना तय माना जा रहा है। हालांकि देश मे उधोग को शुरू करने पर फैसला लिया गया। जैमिनी अकादमी द्वारा पेश मंगलवार की चर्चा में सवाल उठाया गया है कि क्या श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना बड़ी चुनौती नही है ? यह सवाल बहुत ही गंभीर है। सच भी है कि श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना आसान नही बल्कि मिल मालिकों के लिए बड़ी चुनौती होगी। भारत मे 10 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं। कोरोना व लॉकडाउन के कारण काम बंद पड़ा है। देश मे बड़े-बड़े उधोग व कंपनी चलाने वाले मालिकों ने लॉकडाउन के दौरान वर्षो से उनकी कंपनी में काम करने वाले अधिकांशतः मजदूरों को दो महीने का वेतन देने की बात तो दूर उनके व परिवार को खाना तक खिलाना उचित नही समझा। कोरोना से जान बचाने व लॉकडाउन में बेरोजगारी के चलते लाखों की संख्या में मजदूर अपने राज्य व गांव लौट रहे हैं। इसके लिए देश भर में 385 ट्रेनें चलाई जा रही है। मजदूर हर हाल में अपने घर जाना चाहते हैं। उनका मानना है कि जान बची तो फिर से वो कमा लेंगे। कोरोना के मामले बहुत ही तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। एम्स दिल्ली के डायरेक्टर ने तो यहां तक कह दिया है कि कोरोना के मामले इसी तरह बढ़ते रहे तो जून जुलाई में यह महामारी चरम पर होगा। इस परिस्थिति में कोई भी श्रमिक अपना जान बचाने का प्रयास करेगा। वह अपने घर पर रहना स्वीकार करेगा पर फिर से जोखिम उठाकर दूसरे राज्य में काम करने नही जाएगा। यह बिल्कुल ही सत्य बात है कि श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना बहुत ही बड़ी चुनौती होगा।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
बेशक हम लोग मशीनरी युग मे जी रहे है , जहां सारा काम मशीनों के माध्यम से चंद मिनटों में हो जाता है परन्तु उन मशीनों को मेंटेन व तैयार माल को सप्लाई और लोड करने के लिए बेशक श्रमिको की जरूरत पड़ती है । जिनके बिना किसी भी उधोग का गति पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है । इसीलिए ये ख्याल की बिन श्रमिकों के माल तैयार कर लेना कोई चुनौती नही है ये न केवल स्वयम को संकट में डालने वाली बात होगी बल्कि मजदूर वर्ग के साथ विश्वासघात करने वाली बात होगी । जो श्रमिकों के पेट पर लात मारते हुए , उनके जीवन पर वार करती नजर आती है । जो देश मे बेरोजगारी व अराजकता का माहौल पैदा करने के लिए काफी है ।
- परीक्षीत गुप्ता
बिजनौर - उत्तरप्रदेश
कोरोना वायरस के चलतें सरकार को मानवता के रक्षार्थ लाॅकडाउन समान कठौर कदम उठाना पढ़ा अब इसके दूरगामी परिनाम सामनें आना चालु होने वाले हैं जो तुफान आना था आ चुका अब हर मन अपने अपने हिसाब से परिस्थिती के हिसाब से भविष्य की कार्य योजना बनायेगा जहा के मालिक सेठ या मेनेजमेंट ने अपने श्रमिकों का अछ्छा ध्यान रखा होगा वहा तो कोई बढ़ी मुशिबत नही आनी हैं किन्तु देश में जो लाखों लाख मजदूर भूखे प्यासे बिना पैसो के अपने घरो को चले गये हैं क्या वे अब वापस लोटेंगे ? देखने में आ रहा हैं की सम्पूर्ण देश के ओघोगिक शहरो से बढ़ी संख्या में पलायन हुवा हैं गहरे जख्म लिये ये मजदूर अपने घरो को लौटे हैं अब श्रमिकों की कमी होना भी लाजमी हैं इन कल कारखानो में पुनः अपनी पुरानी गती से काम सुरू कर पाना आज बहुत ही बढ़ी चुनोती साबित होने वाली हैं।
- कुन्दन पाटिल
देवास - मध्यप्रदेश
लाॅक डाउन में उत्पादन बिलकुल ठप हो गया था।इस कारण मजदूरों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा।पैसे की कमी के कारण खाने पीने और रहना मुश्किल हो गया था । सभी जगहों से मजदूरों का पलायन होने लगा तथा अभी भी हो रहा है । उत्पादन के शुरू होने से मजदूरों को आर्थिक सहारा मिलेगा और उनका पलायन भी रूक जायेगा ।पैसे की तंगी के कारण जो मजदूर पलायन कर चूके हो ,वह भी उत्पादन के आरम्भ होने से वापस आ सकते हैं ।अतः मजदूरों की कमी में उत्पादन शुरू करना बड़ी चुनौती नहीं है,बल्कि यह देश हित में और मजदूरों के हित में है ।
- रंजना वर्मा " उन्मुक्त "
राँची - झारखंड
मजदूर अपने घरों की ओर पलायन कर रहे हैं तो उद्योग धंधे खुल जाएंगे तो उनमें काम कौन करेगा यह तो एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी।
जब मजदूर बेचारे बेरोजगार थे तो उनके लिए उनके उद्योग धंधों के मालिकों ने कोई व्यवस्था नहीं की जिससे खाने-पीने की दिक्कतों के कारण वे अपने घर गांव की ओर पैदल ही पलायन कर गए और चले जा रहे हैं आप उन्हें अपने उद्योग धंधों का ख्याल आ रहा है जब काम करने वाला ही कोई नहीं रहेगा तो अपने मशीनों से कैसे हुए काम करेंगे मशीनों को भी चलाने के लिए तो भी इंसान चाहिए होते हैं।
अपने घर पहुंचाने के लिए ट्रेन शुरू हुई और फिर उद्योग धंधे वालों को होश आया और उन्होंने उन सब को भी बंद करा दिया जाने कितने मजदूर बेचारे मर गए कोई सड़कों पर सड़क हादसे से कोई रेल से कटकर।
एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं इसी तरह अकेले कोई भी काम नहीं कर सकता मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इस अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी मजदूर हैं जिन से ही देश राज्य का विकास होता है हम जो भी रोजमर्रा के कामों पर भी इनके ऊपर निर्भर रहते हैं उदाहरण के लिए जैसे हमें कपड़े सिलवाने हैं तो हमें दर्जी ही चाहिए होगा घरों में चाहे काम करने वाले मेड हो या छोटे-मोटे कुटीर उद्योगों में काम करने वाले लोग।
अब जब लोग खत्म हो रहा है तब उद्योग धंधों के मालिकों को
मजदूरों की चिंता हो रही है।
और रोज नए नए कानून भी बन रहे हैं मजदूरों को लेकर कि अब कोई भी उद्योग धंधों के मालिक उनसे कितने घंटे भी काम कराए सकते हैं। और सारे नियम बदल दिए गए हैं।
मजदूर पूंजी पतियों के हाथों का कल भी खिलोना था और आज भी खेलोना ही है, उसकी जान की किसी को कोई परवाह नहीं रहती है सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए चिंतित हैं।
*थके मजदूर रह-रह कर जुगत ऐसी लगरदाते हैं
कभी खैनी बनाते हैं कभी बीड़ी लगाते हैं
जहां नदियों का पानी छूने लायक़ भी नहीं लगता
हमारी आस्था है हम वहाँ डुबकी लगाते हैं
ज़रूरतमंद को दो पल कभी देना नहीं चाहा
भले हम मन्दिरों में लाइनें लम्बी लगाते हैं
यहां पर कुर्सियां बाक़ायदा नीलाम होती हैं
चलो कुछ और बढ़कर बोलियां हम भी लगाते हैं
नहीं नफ़रत को फलने-फूलने से रोकता कोई
यहां तो प्रेम पर ही लोग पाबन्दी लगाते हैं।*
- प्रीति मिश्रा
जबलपुर - मध्य प्रदेश
बिना श्रमिकों के उत्पादन की बात करना लॉक डाउन में बहुत बड़ी चुनौती है। क्योंकि श्रमिकों की हालत लॉक डाउन की बजह बहुत बुरी हो गई है। अब वे लोग अपने गांव की ओर रूख कर रहे है। कई किलोमीटर की पैदल यात्रा कर अपने घर किसी भी तरह पहुचने की कोशिश कर रहे है। जब तक श्रमिक काम पर नही पहुँचते तब तक कोई भी समान का उत्पादन करना लॉक डाउन में बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से निपटने के लिए श्रमिकों को अपने खर्च पर अपने पास रखना होगा। तभी उत्पादन संभव है।
- राम नारायण साहू "राज"
रायपुर - छत्तीसगढ़
आज की परिचर्चा में लाक डाउन के कारण उठी आर्थिक ज्वलंत समस्या के लिए सही चर्चा आमंत्रित की है।
वैश्विक कोरोना संक्रमण के चलते आज भी लाखों की संख्या में श्रमिक अपने घर के लिए पैदल सड़कों पर निकल चुके हैं जिससे उद्योगों में उत्पादन की गति धीमी पड़ेगी।
कोई सा कितना भी बड़ा उद्योग हो उसकी सबसे छोटी इकाई यह श्रमिक ही होते है ।
या नि किसी कंपनी की आधारभूत स्तंभ छोटे उद्योग व श्रमिक ही होते हैं क्योंकि कच्चा माल छोटे उद्योग तक पहुंचाना और छोटे उद्योगों से बड़े उद्योगों व कंपनी तक किसी मेटेरियल को या छोटे पार्ट्स बनाकर पहुंचाना श्रमिकों के बिना असंभव सा ही है
परंतु आजकल मशीनी युग है जिस काम को 100 मजदूर करते थे उस काम को अब एक मशीन कुछ सेकंड में कर देती है ।
वर्तमान में कृषि उद्योग में भी मशीनों ने अपने पैर पसार लिए हैं यही कारण है कि खेतों में काम करने वाले मजदूरों ने बड़े शहरों के उद्योगों में काम करने के लिए रुख किया था ।
अब लो कडाउन के कारण अधिकांश श्रमिकों का अपने घर चले जाना उत्पादन में कमी तो लाएगा ही परंतु -
श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना बड़ी चुनौती नहीं है क्योंकि कम श्रमिकों से किसी उद्योग व कंपनी में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए उत्पादन किया जा सकता है।
अतः सरकार और उद्योगपतियों का प्रयास है कि कुछ उद्योग व कंपनी में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए उत्पादन शुरु कर आर्थिकसमस्या से उबरा जाए।
- रंजना हरित
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
देश की आधारशिला रखने श्रमिकों का भारी योगदान रहता हैं, तपती धूप, ओस भरी ठंड, वर्षा ॠतु की मजधार देखिए श्रमिकों का परिवार जनों के साथ परिश्रम, उनके रहन-सहन, खान-पान, झोपड़ियों की व्यवस्था? दिल ढ़लवाने, रोंगते खड़े हो जाये। उनके परिवार के बच्चों को सुबह से ही देखिए? यह श्रमिक अपने बारे में नहीं सोचता, वह उच्च वर्गों के ऊपर निर्भर हैं? वर्तमान व्यवस्था अचानक ऐसी हो जायेगी, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी? जिसके चलते कारखाने बन्द हो गये, श्रमिकों की आजीविका चिंतनीय हो गई, उन्हें अपने भविष्य की आधारशिला
डगमगाने लगी। उद्योगपतियो को भी बिना श्रमिकों के चलते उत्पादन शुरू करना बहुत बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा? पुन: उद्योगों को प्रारंभ करने समय तो लगेगा ही, साथ ही अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करनी होगी। तब जाकर श्रमिकों का भुगतान, कच्चे माल की खरीदारी आदि की व्यवस्था बनानी होगी, तभी पूर्वोत्तर, बनकर आत्मविश्वास कायम कर सके?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
बालाघाट - मध्यप्रदेश
ये बात सच है की मजदूरो की की के कारण उत्पादन शुरू करना बड़ी चुनौती हैं। लॉक डाउन और कोरोना महामारी संकट के चलते मजदूर बड़े बड़े शहरो दिल्ली बम्बई सूरत कई बड़े शहरो से बेरोजगारी भुखमरी के कारण पलायन कर अपने घरो को चले गये जब लॉक डाउन खुलेगा और उत्पादन के लिए बड़े कारखाने फैक्ट्री मील आदि चलेगी तो काम कौन करेगा जब काम करने वाले मजदूर नही होंगे तो काम कैसे होगा बहुत बड़ी चुनौती है। ये तो वही बात होगी जैसे बिन पहिये के गाड़ी कैसे चलेगी जब गाड़ी मे घुमने वाला पहिया नही होगा तो कैसे चलेगी गाड़ी उत्पादन बिन मजदूर संभव नही है । लॉक डाउन की स्थिति में बेचारे मजदूर ना पैसा ना खाने को कहाँ जाते उन्होने कोरोना की चुनौती की स्वीकारा और अपने अपने घर पैदल चल दिये मन में यही बात लिए अब शहर नही लौटेगे।
ऐसे में बड़े बड़े उद्योगो मे उत्पादन कार्य संभव नही है बड़े बडे़ उद्योग फैक्टरी कारखाने आदी का उत्पादन कार्य बिन मजदूरो के संभव नही मजदूरो की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना चुनौती है।
- नीमा शर्मा हंसमुख
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
पिछले महीने 21 अप्रैल से ही उद्योगों को शासन द्वारा कुछ नियम शर्तों के पालन के साथ खोलने की अनुमति तो मिल गई है, लेकिन इन परेशानियों के चलते अभी तक उद्योग सही ढंग से शुरू नहीं हो पा रहे हैं। उद्योगपतियों का कहना है कि अभी तक उद्योग केवल बिजली की बढ़ती दरों और डिमांड चार्ज को लेकर परेशान थे, लेकिन उनके सामने बड़ी समस्या बनकर मजदूरों की कमी भी आ रही है। मजदूरों की कमी के साथ ही कुशल और अर्धकुशल मजदूर भी नहीं हैं, इसके चलते जो मजदूर आ रहे हैं, उन्हें ही पहले ट्रेंड करना पड़ रहा है। इसके चलते निश्चित रूप से लॉकडाउन खुलने के बाद भी उत्पादन में फर्क पड़ेगा। उद्योगपतियों का कहना है कि इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि पूरी तरह से कुशल मजदूर जिस काम को छह घंटे में कर देता है और उसी काम को अकुशल मजदूर नहीं कर पाएगा या उसे ट्रेंड करने पर करेगा भी तो समय अधिक लगेगा।
प्रवासी मजदूरों के जाने से उद्योगों में अब बड़ी संख्या में कुशल और अर्धकुशल मजदूर जा चुके हैं।
अभी जो मजदूर उद्योगों में काम पर आ रहे हैं,उन्हें अच्छे से काम की ट्रेनिंग देना उद्योगों के लिए बड़ी चुनौती है।
अलग-अलग शहरों में फंसे प्रवासी मजदूरों को अपने घर पहुंचाने के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन की शुरुआत की गई है जिसमें भर-भर कर श्रमिक वापस जा रहे हैं। उद्योग जगत का कहना है कि अगर श्रमिक चले गए तो कामकाज कैसे शुरू होगा। ऐसे में सरकार श्रमिकों से नहीं जाने की अपील कर रही है।
मैं हूँ तो आप सेठ है ...
मेरी कर्मों की लकीरें तेरा भाग्य लिखता है ।
मै हूँ तभी तू ऐशो आराम में जीता है ।।
मेरे श्रम से ही तुम आबाद रहते हो ।
मज़दूरी देते वक्त दाम कम करते हो ।।
देश की उन्नति का में भी हिस्सेदार हूँ ।
बंजर पड़ी ज़मीन का मैं भाग्य लिखता हूँ ।।
नहर बनाऊ ,पूल बनाऊ मैं ही बांध बनाता ..
सड़क बनाकर यहाँ से वहाँ जाने का रास्ता सुगम बनाता ।।
बेघर होकर भी मैं सबके घर बनाता ।
अपनी क़िस्मत नहीं गढ़ी सबकी
क़िस्मत चमकाता ।।
दिन रात खटता , सबके बिगड़े काम बनाता ।
मिले न मुझको ज़रा आराम श्रम कर सब के काज बनाता ।।
हर कर्त्तव्य निभाते ,संघर्ष से नहीं घबराते
कोई भी मौसम हमें रोक न पाये
हर हाल में धर्मनिभाते ।।
श्रम करना ही हमारी पूजा वहीं है
धर्म कर्म
श्रम से ही सर्व काम बने , सबके चेहरे पर मुस्कान खिले ।।
मैं सबके काम बना सबको धनवान बनाता ।
आया देश पर बुरा वक्त , सबने मुझ से मुख मोड़ा ।।
भूख प्यास से हो बेहाल , चल पड़ा मैं अपने गाँव ।।
आप का धंधा आप का काम आपको हो मुबारक ।
खेती कर के अपना जीवन और धरती लहराऊँगा ।।
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
बिना श्रमिक के कम्पनी में कार्य प्रारंभ करना निश्चित रूप से किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। मान लीजिए आप यदि कोई दुकान खोलते हैं और यदि ग्राहक नहीं है तो क्या दुकान चलेगा नहीं न ठीक वैसे भी बिना श्रमिक के कम्पनी नहीं चल सकता और अब तो और भी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है कम्पनियों को क्योंकि इस समय श्रमिक या मजदूर जो भी हैं।वह बहुत डरे हुए हैं। सरकार ने आम मजदूर के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं किया है। अब प्रश्न उठता है किया मजदूर सरकार के लिए काम करती है जवाब है नहीं। लेकिन जिस तरह सरकार कम्पनियों पर दबाव बना रही है कि कम्पनियां चलाएं तो निश्चित रूप से सरकार को हस्तछेप कर सकती है कुछ सहूलियतें देकर। अभी दो तीन राज्यों में श्रमिकों के लिए काम के घंटे बढ़ाकर बारह घंटे कर दिया हल। उनमें प्रमुख है उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश हालांकि मजदूर संगठन दबाव बना रही है कि यह आदेश वापस लिया जाए। वैसे भी इतनी महंगाई में एक साधारण मजदूर को इतना ही मिलता है। जिससे वे अपनी पेट भर सकें। मजदूर भी कई कैटेगरी में हैं। जो अफसर टाइप हैं उन्हें वो सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। जिसने वे अपने परिवार का भरण-पोषण अच्छे से कर सकें। पिछड़े श्रमिकों के लिए शिक्षा स्वास्थ्य के जितने उपाय किए गए हैं वे नाकाफी हैं। जो लोग काम पर से घर लौट गए हैं उन्हें वापस लाने और उनके हित के लिए जब-तक कम्पनी मालिक और सरकार जरूरी सहूलियतें नहीं देती है तब तक उद्योग धंधों को सुचारू रूप से चलाना बहुत कठिन कार्य है। अब समय है मजदूरों को प्रलोभन नहीं बल्कि सहायता हर हाल में दी जाए ताकि मजदूर भी अपने जीवन का निर्वाह अच्छे से कर सकें। तथास्तु!
- भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
गुडगांव - हरियाणा
यह कहना गलत नहीं होगा कि लॉकडाउन के चलते सभी व्यवस्थाएं अव्यवस्थित हो गईं हैं और उन्हें सुव्यवस्थित करने में समय लगेगा। समझदारी कहें या मजबूरी ,जो उपलब्ध है ,रास्ता और हल इसी से निकालना होगा अन्यथा स्थिति और बिगड़ती चली जायेगी। हम सभी के सामने चुनौतियाँ हैं, जिनसे निपटना ही हैं।इनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। उत्पादन शुरू करने वाले व्यवसाय (उद्योग) में भी यही नीति और रीति अपनानी होगी। अभी संभलना है, सँवरना बाद में होगा। अतः सहज और सरलता से, महँगे-सस्ते जिस मजदूरी दर में मिलें, हमें उन श्रमिकों को निष्ठा , उदारता एवं निश्छलता से अपनापन के साथ जोड़ना होगा। क्योंकि अभी श्रमिक भी घबराये, दुखी और अपनेआप से खीझे हुए हैं। अड़चनें बहुत हैं,गंभीर हैं। अतः अभी व्यवसाय में ज्यादा मुनाफे की सोच रखना जल्दबाजी होगी। सार यह कि उत्पादन शुरु करने में चुनौतियाँ तो हैं परंतु ऐसी और इतनी भी नहीं कि उनका निदान नहीं... नामुमकिन भी नहीं।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना एक बड़ी चुनौती है श्रमिकों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है कुशल श्रमिक और अकुशल श्रमिक । आँकड़ों की माने तो भारत में एक बड़ी संख्या अकुशल श्रमिकों की है जो शारीरिक श्रम करने के लिए जाने जाते हैं ये लोग टेक्नोलॉजी के ज्ञान की कमी के कारण रोज़गार के लिए परेशानियों से जूझते रहते हैं । दूसरा वर्ग कुशल श्रमिकों का है जो टेक्नोलॉजी साथ ही अपने आप को हमेशा अपडेट करते रहते हैं और आसानी से रोज़गार की तलाश पूरी कर लेते हैं कुशल वर्ग के श्रमिक लॉक डाउन के चलते भी काम कर रहे हैं टेक्नोलॉजी का भरपूर प्रयोग कर मीटिंग, ऑनलाइन वर्किंग कर रहे हैं अपडेट भी हो रहे हैं । उत्पादन में दोनों वर्ग अपनी अपनी अहम भूमिका निभाते हैं निर्माण से लेकर सप्लाई तक अकुशल श्रमिकों की ज़रूरत पड़ती है ये श्रमिक कम वेतन व सुविधाओं के कारण पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं और उत्पादन की यही सबसे बड़ी समस्या है लम्बी अवधि के लॉक डाउन के कारण ये श्रमिक अपने घर पलायन कर गए हैं इन्हें वापस लौटने में समय लगेगा जिसके कारण उत्पादन और वितरण के बीच सामंजस्य बना पाना एक बड़ी चुनौती है माँग बढ़ने के साथ ही पूर्ति करने में सफलतापूर्वक जो चुनौती को स्वीकार करने के लिए कदम उठाए जा सकते हैं वह श्रमिकों की कमी के चलते एक बड़ी चुनौती सिद्ध होगी ।
- डॉ भूपेन्द्र कुमार
धामपुर - उत्तर प्रदेश
श्रमिक उद्योगों के लिए रीढ़ की हड्डी के समान हैं। आधुनिक तकनीक ने उद्योगों में श्रमिकों की संख्या कुछ कम अवश्य की है परन्तु फिर भी श्रमिकों के बगैर उत्पादन संभव नहीं है, यह निर्विवाद सत्य है।
जब अधिकांश श्रमिक अपने गृह स्थान को वापिस हो चुके हैं और सरकार द्वारा धीरे-धीरे उद्योगों में कार्य शुरू करने देने की संभावना नजर आ रही है तब श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना उद्योगों के लिए निश्चित रूप से एक बड़ी चुनौती है।
कोरोना वायरस से उत्पन्न लाॅकडाउन की परिस्थितियों वश श्रमिकों की उद्योगों से वर्तमान दूरी इस बिन्दु पर भी विचार करने के लिए विवश करता है कि यही समय है जब सरकारों और उद्योगों को श्रमिकों का महत्व ज्ञात होगा और उन्हें एहसास होगा कि जिन श्रमिकों का निरन्तर शोषण किया जाता है और केवल कम आय के कारण उन्हें सामाजिक दृष्टि से तुच्छ समझा जाता है उनकी उपयोगिता कितनी प्रभावी है।
अत: कहा जा सकता है कि उद्योगों की उन्नति के लिए श्रमिकों की उपस्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण है और श्रमिकों की कमी होने पर उत्पादन पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को देखते हुए उद्योगों को उनके वर्तमान और भविष्य को संवारने हेतु निरन्तर प्रयास करने चाहिए।
- सत्येन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
आज समूचा विश्व किसी ना किसी प्रकार से कोरोना के दुष्प्रभाव को झेल रहा है। इसका दुष्प्रभाव कई रूपों में हमारे सामने आ रहा है, चाहे वह वायरस से संक्रमित होने वाला मानव शरीर हो अथवा लॉक डाउन से प्रभावित होने वाला संपूर्ण समाज हो। कहीं ना कहीं हम लोग अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। लॉक डाउन के कारण लगभग अधिकतर उद्योग धंधे बंद है जिनके कारण इनमें काम करने वाले श्रमिकों को जीवन यापन की समस्या उत्पन्न हो गई है। अपने घर से बाहर सैकड़ों किलोमीटर दूर बसे यह श्रमिक कुछ दिनों तक तो स्वयं को इस स्थिति से तालमेल बैठाने के लिए संघर्ष करते रहे,परंतु जब इनकी संघर्ष शक्ति ने जवाब दे दिया तब इन्होंने अपने अपने घरों की ओर पैदल ही रुख करना शुरू कर दिया। अब जब कुछ उद्योग धंधों को सरकार उन्हें प्रारंभ करने की सोच रही है, तो सबसे बड़ी दिक्कत जो उभर कर सामने आ रही है वह है इन श्रमिकों का काम करने के लिए उपलब्ध ना होना। विषम परिस्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह अपने परिवार के साथ हो। ऐसा ही इन श्रमिकों के द्वारा भी सोचा गया और यह अपने अपने घरों को रवाना हो गए। आज इस महामारी के दौर को देखते हुए जल्दी से इन श्रमिकों का वापस अपने काम पर लौटना संभव नहीं प्रतीत होता। अतःयह स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं, कि बिना श्रमिकों के उत्पादन शुरू करना उद्योग धंधों के लिए एवं सरकार के लिए निश्चित रूप से एक बड़ी चुनौती है। उद्योगों को उत्पादन की इस समस्या से उबरने के लिए हो सकता है कुछ महीनों अथवा कुछ वर्षों का भी इंतजार करना पड़े। भविष्य में कोरोना के दुष्प्रभाव की क्या स्थिति रहती है उद्योग धंधों में उत्पादन इस स्थिति पर पूरी तरह निर्भर करेगा। जब तक स्थिति सामान्य नहीं होती है तब तक, उद्योग धंधों के लिए श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन करना निश्चित रूप से एक बड़ी चुनौती है।
- कवि कपिल जैन
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
कोरोना महामारी ने सबकुछ बदल दिया है । सबसे अधिक प्रभावित हुआ है तो वह श्रमिक वर्ग ।
प्रारम्भ में लगा था शीघ्र ही कोरोना से मुक्ति मिल जायेगी । परन्तु ऐसा नहीं हुआ और लाॅकडाउन भी बढ़ता चला गया । ऐसी स्थिति में परिवार से दूर श्रमिकों का धैर्य भी जवाब देने लगा । अगर उद्योगपति ऐसे समय उनका पूर्ण आर्थिक सहयोग करते तो उनका पलायन न होता और
धीरे-धीरे पुनः कार्य चालू किए जा सकते थे ।
वर्तमान समय में इनके अभाव में उत्पादन शुरू करना किसी चुनौती से कम नहीं है । लेकिन स्थानीय श्रमिकों की मदद से जितना संभव हो कार्य प्रारंभ तो किया ही जा सकता है । क्योंकि वस्तुस्थिति को स्वीकार करने के अलावा अभी कोई विकल्प भी नहीं है ।
सकारात्मक सोच और धैर्य के साथ छोटे-मोटे उद्योगों से श्रीगणेश करें । परिस्थितियां सदैव एक सी नहीं रहती । जल्दी ही सकारात्मक परिणाम आएंगे ।
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान
एक हाथ से कभी ताली नहीं बजती ।ठीक इसी तरह बिना मजदूर के उद्योग नहीं चला सकते हैं। मजदूर वस्तुओं के निर्माता है।जहाँ दस मजदूर की आवश्यकता है वहाँ एक मजदूर कुछ भी निर्माण नहीं कर सकता।अगर भार दिया भी जाए तो काफी समय में निम्न गुणवत्ता के उत्पादन होंगे। मजदूरों की कमी से उत्पादन करना चुनौती है।एक गीत भी है :-
"साथी हाथ बढाना
साथी रे
एक अकेला थक जाएगा
मिलकर बोझ उठाना
साथी हाथ बढाना
साथी रे
- रीतु देवी
दरभंगा - बिहार
श्रमिकों के कारण उत्पादन शुरू करना एक चुनौती पूर्ण क़दम तो निश्चित ही है। एक कहावत है जब कुर्सी ख़ाली हो जाती है तो उस कुर्सी पर बैठने वाले की काबिलियत समझ में आती है ठीक यही स्थिति इन श्रमिकों के साथ घटित हो रही है।
जब श्रमिक मुसीबत में थी तब उधोग मालिक थोड़ा बहुत मदद कर अपना पल्ला झाड़ दी। अब अपनी जान और जीविका को सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने यह कदम उठाया है। सभी अपनी जान बचाते हुए जीविका के लिए प्रयत्नशील रहना है। स्थिति जैसे ही नियंत्रण में होगी गतिविधियां धीरे धीरे सामान्य होती जाएग। उधोग मालिक अपने व्यवसाय
में भी बदलाव कर सकते हैं यह तो समय का खेल है मानव कठपुतली बनकर रह जाता है । कभी मौसम का मार तो कभी वायरस का प्रहार ।
- कुमकुम वेदसेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
श्रमिकों की कमी उत्पादन शुरू करने में सबसे बड़ी चुनौती है l जीवन का सबसे मूलयवान सच संघर्ष है और इससे बचने की कोशिश जीवन में आने वाली चुनौतिओं में आपको पराजित कर देगी -
रात नहीं ख़्वाब बदलते है,
मंजिल नहीं कारवाँ बदलता है जज़्बा रखो संघर्ष का क्योंकि
किस्मत बदले न बदले
पर वक़्त जरूर बदलता है l
भय, भूख और कोरोना संक्रमण की त्रासदी सामना करते हुए किसी तरह से जान बचाकर श्रमिक वर्ग अपने घर पहुँच कर, चैन की रोटी खाकर जीवन बसर कर rhe है, लेकिन मजदूरों के पलायन से उद्योग धंधे, रोजगार सब चौपट हो गये हैं ऐसे परिवेश में पुनः उत्पादन शुरू करना सबसे बड़ी चुनौती है l समाज को, आमजन को यह विश्वास रखना होगा -
वक्त के हाथों जो लुट गया है
मेहनत से वो लोट आयेगा
"सब्र "हर पल यूँ ही बनाये रखना
"सफलता "फूल आखिर खिल ही जायेगा l
ऐसी विकट परिस्थिति से लड़ने के लिए और लोगों के अनमोल जीवन की रक्षा करने के लिए सरकार व समाज को भागीरथी प्रयास करने होंगे l तभी कोरोना संक्रमण के चलते इंसानियत को शर्मसार होने से बचाया जा सकता है l लेकिन कुछ लोगों द्वारा जानबूझकर या मजबूरीवश
जो लापरवाही बरती जा रही है ये स्थिति को किसी भी समय विस्फोटक बना सकती है l यदि उद्योगों के प्रारम्भ व कुशल संचालन हेतु श्रमिकों की उपलब्धता बनाये रखनी है तो पलायन रोकने के लिए तुरंत धरातल पर प्रभावी इन्तजामात जैसे बेहतर चिकित्सा सुविधा भोजन व आवास व्यवस्था गाइड लाइन अनुसार करनी होगी लेकिन लॉक डाउन से उतपन्न हालातों के चलते मजबूर हो gye l इंसानों, गरीबों, मजदूरों, भिखारियों के भोजन पानी व रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के समुचित निर्देशों व आश्वासन के बिना कामगारों का उपलब्ध होना मुश्किल होगा l
एक कुशल उद्योग पति /व्यवसायी वही है जो शत प्रतिशत सोशलडिस्टेंसिंग के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चरण बद्ध रणनीति बनाकर कम श्रमिकों की उपलब्धि होने पर भी उत्पादन प्रारम्भ कर चालू रख सके l जो समुदाय हासिये पर है उनके लिए सहानुभूति पूर्ण माहौल उपलब्ध करवाकर श्रमिकों को पुनः काम पर पुनः लौटाने के लिए सकारात्मक प्रयास करें l लेकिन इस विश्व व्यापी त्रासदी में भी संकीर्ण आरामवेशी राष्ट्रवाद के समर्थकों की रणनीति इतनी कामयाब हो रही है कि उन्होंने अपने आरोप प्रत्यारोप, दावे प्रतिदावे, हठधर्मिता तथा भाषिक, वैचारिक और शारीरिक हिंसा के दल दल में "सियाराम मय सब जग जानि, करहु प्रणाम जोरि जुग पानी तथा वसुधैव कुटुंबकम "जैसे शाश्वत मूल्यों को घसीट लिया है l ऐसा नकारात्मक वातावरण किसी भयानक त्रासदी की मार झेल रहे राष्ट्र के लिए घातक है l समाज की अंतिम पंक्ति के आखिरी आदमी तक धन और भौतिक मदद पहुँचाकर उन्हें मानसिक रूप से आश्वस्त करने पर ही उद्योगों में उत्पादन करना संभव है अन्यथा यह चुनौती बरकरार रहेगी -
उनके कर्ज को कोई उतार सके
इतनी किसी की औकात नहीं
"श्रमिक "श्रमिक होते हैं,
इंसान होते हैं
उनकी कोई जात नहीं होती l
यदि हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक कार्य योजना व्यवहारिक और सबसे बड़ा हमारा "इरादा "फौलादी, नीति नेक होने पर ही हम कोरोना महामारी के चलते हर चुनौती का मुकाबला करने में समर्थ होंगे l चलते चलते
"आशीर्वादों के मोती जुटाने का नाम है "जिंदगी "l
- डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
कोरोना संक्रमण के इस दौर में सरकार, प्रशासन और उद्योग- व्यापार जगत की वास्तविक परीक्षा अब शुरू होने वाली है। यह परीक्षा घरों में ठहर गई जिंदगी और हमारे उद्योग-धंधों को पटरी पर लाने की होगी। सिर्फ लॉकडाउन समाप्त कर देने से हालात अचानक सुधर जाएंगे, ऐसा सोचना बिल्कुल ही उचित नहीं है।
जिंदगी ठीक से पटरी पर लौटेगी तब, जब स्कूल कॉलेज, उद्योग-धंधे और बाजार सब अपनी लय में आ जाएंगे। इसके लिए जितना प्रयास सरकार को करना है, उतना ही समाज को। सरकार इस दिशा में आगे बढ़ चुकी है, लेकिन इतना भी आगे नहीं कि समूचा रास्ता आसान हो गया हो। तीसरे चरण का लॉकडाउन घोषित होने के बाद भी सरकार की आरंभिक कोशिशें उत्साह जगाने वाली हैं। कारोबारियों, उद्यमियों को भी केवल कठिनाइयां गिनाते रहने के बजाय सरकार से कदमताल करने की जरूरत है।
इसी से उद्योग-व्यापार पटरी पर लौट सकेंगे। लॉकडाउन के दो चरण ने प्रत्येक व्यक्ति को नया अनुभव दिया है। गांवों ने अपनी जीवंतता से शहरों को आईना भी दिखाया है। गांव छोड़ शहरों में आए अनेक लोगों को लॉकडाउन की परिस्थितियों के कारण पहली बार ऐसा लगने लगा है कि संकट के समय में गांव का अनुशासन ज्यादा अच्छा है। यह भी सच है कि शहरों में रहकर लोगों ने दुश्वारियों के साथ भी जीना सीखा है।
। इन उद्योगों को पूरी क्षमता से चलाने के लिए प्रशिक्षित श्रमिकों की जरूरत है, जो कोरोना संक्रमण के खौफ के चलते घर लौट चुके हैं। उनके वापस आने में तीन से लेकर छह माह तक का समय लग सकता है।
प्रवासी श्रमिकों के अपने गृह राज्यों में वापस लौट जाने पर महाराष्ट्र सरकार ने बुधवार को मजदूरों की कमी का सामना कर रहे राज्य भर के कारखानों में 30 जून तक 12 घंटे काम करने की अनुमति दे दी. हालांकि, श्रमिक संघों ने इस कदम का विरोध किया, आरोप लगाया कि इससे कई लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, राज्य के श्रम विभाग के सूत्रों ने कहा कि यह मामला एक उद्योग संघ द्वारा मजदूरों की कमी का हवाला देते हुए उठाया गया था, जिसके बाद यह फैसला लिया गया.
श्रम मंत्री दिलीप वाल्से पाटिल ने कहा, ‘मजदूरों की कमी का हवाला देकर हमें दो उद्योग निकायों से यह अनुरोध मिला था कि 12 घंटे की शिफ्टों में काम करने की अनुमति दी जाए, क्योंकि कई लोग अपने गांवों में वापस चले गए हैं. सरकार ने फैक्टरीज एक्ट में दी गई शक्ति का प्रयोग करते हुए जून तक 12 घंटे की शिफ्ट की अनुमति दी है.’
मज़दूरों के घर वापसी से उघौग धंधों को उठाना होगी परेशानी वक्त पर सेठों ने उन्हें सम्भाला नहीं पेट की भूख उन्हें घर की ओर जाने के लिएबाध्य कर गई
अब जो गये है वो छ: महिने कम से कम नहीं आयेंगे ।
- अश्विनी पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
कोविड-19 की महामारी के चलते लगा लॉक डाउन मैन्युफैक्चरिंग क्लस्टर के छोटे, मझोले एसएमई एवं बड़े उत्पादन स्रोतों पर संकट बनकर टूट पड़ा है ।लॉक डाउन की घोषणा के बाद पूरे देश के लगभग चार करोड़ प्रवासी श्रमिक अपने घर के लिए प्रस्थान कर गए थे। अब सरकार ने कुछ उद्योग इकाइयों में उत्पादन शुरू करने की अनुमति दी ,तो श्रमिकों की किल्लत सरकार के लिए बड़ा संकट बन गई है ।श्रमिकों की किल्लत को लेकर सभी इकाइयां आशंकित हैं उन्हें लग रहा है कि कितने कर्मचारी पता नहीं कब तक वापस आएंगे क्योंकि हालात तब तक सामान्य नहीं होते जब तक उनका लौटना मुश्किल लग रहा है। एक और डर है कि उनके चलते जो मजदूर चले गए उनका वापस आना मुश्किल है ,और जो नहीं अभी गए वह भी साधन मिलते ही अपने घर वापस जा रहे हैं ।
कुछ कंपनियों ने तो अपने कर्मचारियों को रखा हुआ है लेकिन ऐसी कंपनियों की संख्या बहुत कम है ,कच्चे माल की सप्लाई की चैन भी टूट गई है। उद्योग जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि हालात सामान्य होने में चार छः महीने लग सकते हैं ऐसे में बहुत सी कंपनियों के सर्वाइवल का संकट आ गया है।तमाम इंफ्रास्ट्रक्चर और कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट ठप हो गए हैं और यह सब सामान्य होने में 8 महीने लग सकते हैं या और भी ज्यादा ।90 फ़ीसदी मजदूर काम बंद होने से अपने मूल राज्य वापस जा चुके हैं ।कई फैक्ट्रियां तो यहां तक तैयार हैं कि मजदूरों को घर से वापस लाने ले जाने के खर्चा उठा कर वापस बुला लेगी, क्योंकि फैक्ट्री बंद होने के खर्चे से ज्यादा नुकसान होगा ।लाने ले जाने के खर्चे में कम ही में निपट जाएंगे ।
एक तरफ जहां प्रशासन ने मंजूरी दी वहीं श्रमिकों की कमी के कारण उत्पादन होना बेहद मुश्किल हो रहा है ।
- सुषमा दिक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
लॉकडाउन के वजह से कामकाज के पटरी पर लौटने की अनिश्चितता के कारण ज्यादातर श्रमिक अपने घरों को लौट चुके हैं और लौट रहे हैं। उद्योगपतियों के लिए उत्पादन शुरू करने में श्रमिकों की कमी बड़ी चुनौती साबित होगी।
पुराने कामगार जितने अनुभवी थे, काम में जो रफ्तार थी, नये कामगारों के आने पर कुछ दिन के लिए रफ्तार धीमी रहेगी क्योंकि नये-नये व्यक्तियों को काम सीखने में समय लगेगा।
औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमिकों की कमी से उत्पादन कार्य प्रभावित होगा। कहीं-कहीं उत्पादन कार्य को पूर्ण करने हेतु श्रम कानून में बदलाव लाकर कम श्रमिक द्वारा ही 8 घंटे की जगह 12 घंटे काम करवाने का विचार किया जा रहा है और सरकार से अनुमति लिया जा रहा है जो मजदूर के हित में नहीं होगा। पूंजीपतियों द्वारा उनका शोषण शुरू हो जाएगा।
कुछ उद्योगपतियों का मानना है कि 40-50 फ़ीसदी श्रमिक ही प्रवासी हैं जो श्रमिक यहीं बस चुके हैं या इसी क्षेत्र के रहने वाले हैं उनकी मदद से उत्पादन कार्य सुचारू ढंग से संपन्न हो सकता है। फिलहाल ग्रीन जोन में ही कार्य करने की अनुमति है। पर हकीकत में जहां प्रशासन की तरफ से मंजूरी मिली भी है वहां भी श्रमिकों की कमी के कारण उत्पादन नहीं हो पा रहा है।
सरकार ने राइस ब्रॉन ऑयल को उत्पादन के लिए लिखा पर श्रमिकों के काम पर नहीं लौटने से काम शुरू नहीं हो सका। ब्रेड उत्पादन और वितरण में 40 फ़ीसदी की कमी आ गई ।
फ्लोर मिल्स में पैकेजिंग की किल्लत के चलते ब्रांडेड कंपनियों की आपूर्ति 80 फिसदी घट गई है। हैंडलूम मैन्यूफैक्चर या दवा कंपनियां सभी ने चिंता जाहिर की है कि श्रमिकों की कमी से उत्पाद घटकर 20 फ़ीसदी रह गया है। दवा की पैकेजिंग में मुश्किल आ रही है। दूसरे अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में भी ऐसी ज्वलंत समस्या बरकरार है।
अतः मौजूदा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए मेरा मानना है कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी श्रमिकों की कमी से कई महीने तक उत्पाद सामान्य रूप से नहीं हो पाएगा। अनुभवी कामगार समय से लौट गए तब तो ठीक है अन्यथा उत्पादन में कमी आना निश्चित है।
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
फिलहाल श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना बड़ी चुनौती तो नहीं किंतु कुछ तकलीफ तो होगी हमारा विकास कहो, आर्थिक तंत्र सभी तो उद्योग धंधे पर निर्भर करता है और उद्योग उत्पादन श्रमिकों के श्रम जल पर निर्भर करता है!
श्रमिक उद्योग की रीढ़ की हड्डी है !
लॉक डाउन के चलते जो स्थिति मजदूरों की है उसे देख स्वाभाविक है उनका पलायन होना ! लॉक डाउन के चलते मालिक और मजदूर दोनों के बीच जो दूरियां आ गई है इससे उत्पादन शुरू करने में परेशानियां तो आएंगी किंतु फिलहाल मुनाफा ना देख काम चालू कर देना चाहिए नए मजदूर रखने से उन्हें ट्रेंड करना होगा मजदूरी भी शायद ज्यादा देनी पड़े समय भी लग सकता है किंतु पुनः धीरे-धीरे मजदूर भी आने लगेंगे !
केवल हमें उन का विश्वास जीतना होगा !
मजदूर भी भौतिक सुख
और अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल करने के लिए ही शहर दो पैसे कमाने आता है अतः मजदूर तो कुछ मामला ठंडा हो जाने के बाद अवश्य मिलेंगे !
जिस प्रकार भक्तों के बिना भक्ति नहीं है बिना शिष्य गुरु नहीं होता उसी तरह मजदूर के बिना उद्योग नहीं है और बिना उद्योग के मजदूर नहीं रह सकता ! दोनों एक दूसरे के आय के श्रौत हैं यानी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं !अतः कुछ समय लगेगा किंतु मजदूर पुनः लौटेंगे !
अंत में कहूंगी आर्थिक तंत्र को पटरी पर लाने के लिए उत्पादन में फिलहाल मुनाफा ना देखें !
मजदूर अवश्य आएंगे केवल हमें उनका विश्वास जीतना है !
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
कोरोना के भय से सभी श्रमिक अपने-अपने गांव की ओर पलायन कर रहे हैं पिछले 45 दिनों से बंद शहर की आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू करने के लिए पिछले सप्ताह से कई तरह के प्रयास हो रहे हैं, ऐसे में श्रमिकों का शहर से अपने गांव की ओर जाने से श्रमिकों की आर्थिक स्थिति और भी कमजोर हो जाएगी।ऐसे में उत्पादकों के पास श्रमिकों की संख्या का कम होना.. एक बड़ा सवाल है, ऐसे में वह अपना उत्पादन कैसे कर पायेगा. बड़े कारखानों में श्रमिकों के बिना कोई कार्य संभव नहीं है. कच्चे माल से लेकर पैकेजिंग तक के कार्य में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है।ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि अब आगे कैसे क्या होगा. चुनौतियां तो सभी को नजर आ रही हैं श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन में गिरावट तो नजर आएगी ही साथ में श्रमिकों की जीविका का भी बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा हो जाएगा। जैसे की श्रमिकों के बिना कोई भी उद्योग संभव नहीं है किसी भी कारखानों में श्रमिकों के बिना कोई उत्पादक बनना आसान नहीं है श्रमिकों के बिना उत्पादन में कमी तो होगी. सुचारू रूप से माल बनाने से लेकर डिलीवरी तक सभी काम श्रमिकों द्वारा ही किए जाते हैं तो यह बहुत बड़ी चुनौतियां हैं कि माल बनने से लेकर डिलीवरी तक पहुंचने में जो पहले कम समय लगता था. अब समय ज्यादा लगेगा और जितनी खपत की मार्केट में आवश्यकता है. उतनी आवश्यकता की पूर्ति करने में उत्पादकों को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है ।
- वंदना पुणतांबेकर
इंदौर - मध्यप्रदेश
ऐसा सोचना बहुत गलत बात है क्योंकि मशीन से ही हर वस्तु का उत्पादन नहीं किया जा सकता पूर्वज से श्रमिक और उद्योगपति मां मजदूर और कृषक का संबंध रहा है जबसे विज्ञान यूग अर्थात टेक्नोलॉजी का युग आया है तब से श्रमिकों के अलावा मशीनों से काम शुरू किया है ऐसा नहीं है कि मशीनों से ही काम की जाती है मजदूर की आवश्यकता नहीं पड़ती मजदूर की आवश्यकता पड़ती है कुछ ऐसी वस्तुएं हैं जिसमें कम मजदूर की आवश्यकता होती है और कुछ ऐसी वस्तुएं हैं जो मजदूरों से ही किए जाते हैं मजदूर और मशीन दोनों की आवश्यकता होती है वस्तु स्थिति के अनुसार ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मजदूर के बिना उत्पादन करना बड़ी चुनौती नहीं है मजदूर की आवश्यकता होती है अगर मशीन से ही काम होगा तो बाकी श्रमिक लोग का जीवन स्तर कैसा होगा कृषको का कार्य मजदूरों के बिना संभव नहीं है कृषि कार्य में भी छोटे-छोटे यंत्रों का प्रयोग किया जा रहा है फिर भी श्रमिकों की आवश्यकता होती है अगर श्रमिक नहीं होंगे तो उत्पादन कार्य पूरा नहीं हो पाएगा उत्पादन शुरू करना बड़ी चुनौती नहीं है ऐसा समझना भ्रम है पूरे अस्तित्व में एक दूसरे की पूरक ता से ही सभी का जीना बनता है किसान और मजदूर श्रमिक और उद्योगपति यह दोनों एक दूसरे के पूरक है और दोनों साथ मिलकर ही वस्तु का उत्पादन करते हैं अतः दोनों का होना अनिवार्य है तभी मानव की व्यवस्था बनेगी अकेला का कोई कार्यक्रम नहीं है अकेला से कोई भी वस्तु का उत्पादन नहीं होता न केवल मशीन द्वारा ही होता है मशीन को मनुष्य ने बनाया है मशीन में मनुष्य को नहीं अतः मनुष्य ही मशीन का संचालन करता है मशीन बड़ा नहीं है मशीन के आड़ में मजदूर को नगण्य मानना गलत है मजदूर के बिना कार्य संभव नहीं है अतः कहा जा सकता है कि श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन करना संभव नहीं है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
इस कोरोना महामारी मे अगर कोई वर्ग प्रभावित हुआ है तो वह है मजदूर वर्ग। लाकडाउन के वजह से सारी फैक्ट्रियाँ बंद पड़ी है । मजदूर 40 दिनों से अधिक दिनों से बेकार बैठे हैं।उनके खाने पीने और रहने का सरकार या फैक्ट्री का मालिक द्वारा कोई इंतजाम नही मिलने से लाखो मजदूर अपने परिवार के साथ अपने गाँव लौटने के लिए मजबूर हो गए हैं। लाकडाउन मे रेलगाड़ी, बसें ,सारे यातायात के साधन बंद हो गए हैं। तब मजदूर विवश होकर पैदल ही अपने गाँव के लिये लम्बी यात्रा पर निकल पड़े। पुलिस के डंडे से बचते हुये रेल की पटरी पर ही चलते गये।आखिर क्या कारण था कि मजदूर अपने गाँव की ओर पलायन कर रहे हैं? अगर इनके खाने पीने और रहने की व्यवस्था ठीक ठाक रहती तो वे क्यों पलायन करते?
क्या यह नही पता था कि सिर्फ मशीन और कच्चे माल की उपलब्धता से फैक्ट्री नही चलाई जा सकती है। सिर्फ इन दोनों से आर्थिक विकास को गति नही दी जा सकती है। कच्चा माल और मशीनी संसाधन के बावजूद मजदूर का होना उत्पादन के लिए अति आवयश्क है। जब मजदूर ही नही रहेंगे तब फैक्टरियां क्या चलेंगी? मजदूर अपने श्रम से मशीन पर काम करते हुए कच्चे माल में एक अतिरिक्त मूल्य डालते हैं जिसको मुनाफा के रूप में फैक्ट्री मालिक भुना कर पूंजीपति बन जाता है। फैक्ट्री और सरकार को मजदूर से मतलब कम उनकी मजदूरी और श्रम से मतलब ज्यादा है। कोरोना महाकाल की परिस्थिति में वापस घर लौटते मजदूरों को देखने से ऐसा लगता है कि मजदूरों का शोषण कोरोना के पहले भी हो रहा था और करोना के दौरान भी बदस्तूर जारी है तथा उनको उनकी हालत पर जीने के लिए छोड़ दिया गया है।
फैक्ट्री मलिक और सरकार को लगता है कि अगर मजदूर अपने गाँव वापस चला गया तो फैक्टिरियाँ कैसे चलेगी। शहर का निर्माण मजदूर तो करता है पर शहर में सिर छिपाने के लिए उसके पास छत नही होता है। वह बिल्डिंगे ,सड़क और बड़ी बड़ी परियोजना बनाता है परंतु शहर में वह किराये का आदमी बनकर रहता है। अब वह अपने घर लौट रहा है तो उसकी कीमत याद आ रही है। अभी भी मजदूरों पर कानूनी प्रहर करते हुए 1883 से लागू श्रम कानूनों को भी बदल दिया गया है। यह मजदूरों के साथ क्रूर मजाक नही तो और क्या है?उन्हें आठ घण्टे के बजाए बारह घंटे काम करने होंगे और मालिक जब चाहे तो काम से दूध की मक्खी की तरह निकाल देगा। मजदूर अपने ऊपर होने वाले अन्याय की कही शिकायत भी नही कर सकता है।
अगर मजदूरों के श्रम और मेहनत को फैक्ट्री मालिक तथा सरकार द्वारा उचित पारिश्रमिक के साथ सम्मान मिला होता तो उत्पादन शुरू करना इस महामारी के दौर में भी चुनौती नही बनता।
सच पूछिए तो जिस इकॉनमी का भ्रम फैलाया गया है वह इकॉनमी मजदूर और सर्वजन के हित मे नही है।बल्कि चुनिंदा 1-2 प्रतिशत लोगों के लिए है।ऐसा जान पड़ता है कि कुछ खास वर्ग के लोगों के लिए सरकार ने खास ढंग से निहित स्वार्थ के लिए इकॉनमी को डिज़ाइन किया है जिसमे गरीबों और मजदूरों का सिर्फ शोषण ही होता है।
- रंजना सिंह
पटना - बिहार
श्रमिकों की कमी के चलते उत्पादन शुरू करना बहुत बड़ी चुनौती है। क्योंकि जिस प्रकार अस्त्रों-शस्त्रों के बिना लड़ा नहीं जा सकता, ठीक उसी प्रकार श्रमिकों के बिना उत्पादन करना भीमकाय चुनौती है।
यह वह चुनौती है। जिससे निपटना अत्यंत कठिन है। क्योंकि उत्पादक पहले ही कोरोना के लाॅकडाउन के चलते आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। उस पर श्रमिकों की कमी की विकराल चुनौती का सामना प्रतिकूल परिस्थितियों को जन्म दे सकती है। जिसके दूरगामी परिणाम भयंकर हो सकते हैं।
भले ही चुनौतियों को स्वीकारना जिंदादिली का नाम है। परंतु परिस्थितियों को भांपना भी योद्धा का ही दायित्व होता है। इसलिए उत्पादकों को उत्पादन के श्रमिकों की चुनौती को स्वीकारने के अनुकूल समय की प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
जी हां , श्रमिकों की कमी से उत्पादन शुरू करना चुनोती है । लाकडाउन -3 से सरकार ने उद्योग शुरू करने की छूट दी है , लेकिन श्रमिकों की कमी से उद्योग शुरु होने पर चुनोतियों को सामना करना पड़ रहा है क्योंकि श्रमिक वर्ग अपने गाँवों की ओर पलायन कर दिया है ।जिसके कारण उद्योगों में उत्पादन शुरू नहीं हो सकता है । 25 से 30 फीसदी कर्मचारी काम करने के लिए मिल रहे हैं ।
लेबर लॉस हो रही है । नेशनल माइग्रेट लेबर पालिसी आनी चाहिए ।
उद्योग जगत के लिए यह चिंता का विषय है । कोरोना के डर से उद्योगपति उद्योग चलाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं । बॉडर सील होने से कारोबारी परेशान हैं ।
कच्चा माल भी फेक्टिरियों के लिए उपलब्ध नहीं है तो लोग फेक्टिरियों में उत्पादन नहीं कर पाएंगे ।
लेकिन सूर्या प्रकाश ट्यूब , पारले बिस्किट आदि ने उत्पादन शुरू कर दिया है । उद्योग जगत के उद्यमियों के
पेंडिंग बिल है , आफिस के रेंट हैं , श्रमिकों को वेतन नहीं मिला है ।
70 प्रतिशत प्रवासी श्रमिक सायकिल से , पैदल अपने गाँव चले गए हैं । मजदूरों का भरोसा टूटा है । अब मुश्किल लगता है कि वे पुनः वापस काम पर लौटे ।
अब उद्योग जगत को उनकी कमी उठानी पड़ेगी । उन्हें सशर्त वापिस आने 5 , 6 महीने लग सकते हैं । कोरोना के संकटकाल में मजदूर अपने घर में ही रहना पसंद करेगा ।
सरकार द्वारा 30 प्रतिशत मजदूरों के साथ काम करना असंभव ही है । कोरोना के हॉट स्पॉट में लाकडाउन रहना चाहिए । ग्रीन और ओरेंज जॉन में जो। राज्य के इलाके हैं वहाँ उद्योग जगत में उद्योग संतुलन लिए गतिविधियाँ करें । जिससे उद्योग धंधे शुरू हो । उद्योगपति और मजदूर दोनों देश की रीढ़ है ।
विषम परिस्थिति में एक दूसरे को विश्वास में लाके उद्योग खुलें । जिस उद्योगपति के उद्योग में श्रमिक काम कर रहा है , तो वे उद्योगपति उन मजदूरों का अपने परिवार का सदस्य माने । तभी ये देश एकजुट होकर पुनः उन श्रमिकों के दम पर देश नवनिर्माण कर खड़ा हो सकता है ।
-डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
आज जो वर्तमान समय में देश की स्थिति है वह बहुत ही चिंताजनक है।ये बात बिल्कुल सही है कि श्रमिकों के योगदान के बिना उत्पादन शुरू करना संभव नहीं हो पायेगा ,और अगर उत्पादन नहीं होगा फिर क्या होगा हमारे देश का ।लगभग बहुत सारे श्रमिक अपने- अपने गांव , शहरों में पलायन कर गए हैं। बेचारों के पास पलायन के अलावा कोई विकल्प भी दूर_ दूर तक नजर नहीं आ रहा था। खाने-पीने, रहने सब की कोई व्यवस्था नहीं थी ।फलत: मजबूर हो कर वे बेचारे किसी भी तरह से घर की ओर निकल पड़े ।अगर मिल मालिकों को उनसे इतना मुनाफा होता था या उन सब से हीं उनकी फैक्ट्री चलती थी तो थोड़ी उदारतापूर्वक उन बेचारों को इस बुरे समय में कुछ सहायता करनी चाहिए थी ना कि उनको इस बुरे समय में निकाल बाहर करना चाहिए।अब पुन: सब कुछ धीरे _धीरे समान्य हो रहा है ।मगर जो पलायन कर गये हैं उनको पुनः बुलाना होगा या नया विकल्प तलाशना होगा जिसमें समय लगेगा जो अच्छा नहीं है देशहित में ।पर कहा जाता है कि हर समस्या का कुछ ना कुछ समाधान होता हीं है तो इस समस्या का भी अवश्य ही कोई समाधान निकला जायेगा ।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
लॉक डाउन में सरकारें अब धीरे धीरे ढील दी रही है। और कई बड़ी कंपनियां अपने यूनिट शुरू करने जा रही है। लेकिन अब सबसे बड़ी समस्या श्रमिको की है। श्रमिक अपने अपने गाँव जा रहे है। कुछ तो पैदल ही अपने परिवार के साथ अनगिनत कठिनाई को झलते हुए चलते जा रहे हैं। अब तो सरकारें अपने श्रमिको को घर वापसी के लिए ट्रेन का भी इंतजाम कर रही है। और कल से रेल मंत्रालय ने कुछ स्पेशल ट्रेन चलाने का बड़ा फैसला लिया है ताकि इन लोगों को सुरक्षित उनके पैतृक स्थान तक पहुँचाया जा सके। तो ऐसे में राज्यो में श्रमिकों की भारी कमी होती जा रही हैं। तो ऐसे में उत्पादन कैसे शुरू हो पाएगा।अब इस समस्या से निपटने के लिए क्या सरकारों के पास कोई योजना है।शायद अभी इस पर कोई विचार ही नही करना चाहता।
एक तरफ लॉक डाउन में छूट, दूसरी ओर मज़दूरों की घर वापसी और सबसे बड़ी और गंभीर स्तिथि कोरोना के बढ़ते हुए मरीज। क्या ऐसे में सरकार का लॉक डाउन लगाना और मरीजो की बढ़ती संख्या का फैसला ठीक था। अब जब सरकारें खुद कह रही है कि इन श्रमिकों को घर भेजना बेहद जरुरी हो गया है तो क्या सरकार यह नहीं समझ पाई थी कि इन लोगों के पलायन के बाद तरक्की का पहिया कैसे घूमेगा।कौन करेगा उनकी जगह काम। क्या सरकारें फिर से इन मज़दूरों को अपने राज्य लाने का उचित प्रबंध करेंगी। और आने वाले समय में ऐसे दोबारा से हालात न हो उसके लिए केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर ठोस कदम उठाने पड़ेंगे।
- सीमा मोंगा
रोहिणी - दिल्ली
श्रमिक ,किसान और सैनिक किसी भी राष्ट्र की धुरी है । जब तक ये जीवित है उद्योग ,खेती और देश की सुरक्षा होती रहेगी । इन तीनो में सबसे कम पैसो पर काम करनेवाले मजदूर ही है । बौद्धिक बल न होने और अपने शारीरिक बल की प्रयोग यही करता है और बदले में पाता है भूख ,अभाव ,जिल्लत और उपेक्षा ।
सरकार को चाहिए कि जिस राज्य में कारखाने लगे हो उसी राज्यो के मजदूर ही रखे जाए । दूसरे राज्यो के मजदूरों की श्रम का गलत लाभ उठाया जाता है और रहन सहन का स्तर भी नही उठ पाता क्योकि उन्हें अपने परिवार की चिंता सताती रहती है । जो रोज काम करके रोटी खाते है वे भूखे पेट कैसे काम करेंगे ।
कोरोना के लॉकडाउन ने उन्हें कुछ इतर सोचने को विवश कर दिया है । सोचिये यदि वे काम पर नही लौटे तो इंडस्ट्री का क्या होगा ? भारत में अभी तक मजदूर आंदोलन नही हुआ ।यदि यह शुरू हो गया और उसने जड़ गहरी पकड़ ली तो एक नए भारत की शक्ति का उदय होगा ।जिसका परिणाम आजादी के आंदोलन से भी भयंकर होगा । सफाई कर्मचारी जब अपनी जिद पर अड़ते है तो बड़े बड़े नेता घुटनो में आ गिरते है । फिर मजदूर तो इंडस्ट्री का उत्थान है । देश की समृद्धि है ।
- सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर - उत्तर प्रदेश
" मेरी दृष्टि में " श्रमिकों के वापिस का इंतजार करना चाहिए । तभी उत्पादन के बारे में सोचना चाहिए । फिलहाल श्रमिकों से सम्पर्क सूत्र बनायें रखना चाहिए । इस में दो से तीन महीने का समय लग सकता है । इस से अधिक कुछ भी कहना उचित नहीं है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
सम्मान पत्र
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