आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की स्मृति में कवि सम्मेलन
जैमिनी अकादमी द्वारा साप्ताहिक कवि सम्मेलन इस बार " खेत " विषय पर रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के कवियों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल कविता के कवियों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है । सम्मान आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के नाम से रखा गया है ।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री हिंदी व संस्कृत के कवि, लेखक एवं आलोचक है। जिसका जन्म 5 फ़रवरी 1916 को मैगरा, औरंगाबाद, गया, बिहार में हुआ है ।उन्होने 2010 में पद्मश्री सम्मान लेने से मना कर दिया था। इसके पूर्व 1994 में भी उन्होने पद्मश्री नहीं स्वीकार की थी ।उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित किया था। कविता के क्षेत्र में उन्होंने कुछ सीमित प्रयोग भी किए और सन् ४० के दशक में कई छंदबद्ध काव्य-कथाएँ लिखीं, जो 'गाथा` नामक उनके संग्रह में संकलित हैं। इसके अलावा उन्होंने कई काव्य-नाटकों की रचना की और 'राधा` जैसा सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य रचा। परंतु शास्त्री की सृजनात्मक प्रतिभा अपने सर्वोत्तम रूप में उनके गीतों और ग़ज़लों में प्रकट होती है। उन्होंने नए-नए प्रयोग किए जिससे हिंदी गीत का दायरा काफी व्यापक हुआ। वैसे, वे न तो नवगीत जैसे किसी आंदोलन से जुड़े, न ही प्रयोग के नाम पर ताल, तुक आदि से खिलवाड़ किया। छंदों पर उनकी पकड़ इतनी जबरदस्त है और तुक इतने सहज ढंग से उनकी कविता में आती हैं कि इस दृष्टि से पूरी सदी में केवल वे ही निराला की ऊंचाई को छू पाते हैं। छायावाद के अंतिम स्तम्भ माने जाने वाले आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री का गुरुवार रात सात अप्रैल 2011 को मुजफ्फरपुर के निराला निकेतन में अंतिम सांस ली।
सम्मान के साथ रचना :-
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अन्नदाता
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हरी धरा के दाता
सुनहरे फसल के विधाता
हल ,बैल ,माटी और,
खेत ही किसान की माता।
सूर्योदय से पहले ही उठकर
स्वर्ण माटी को चूमकर
उपजाते सुनहरे फ़सल,
मोती सा बीज छींटकर।
स्वेद बहाते हमारे अन्नदाता
पेट सभी का तब भर पाता
चाहे आए आँधी या पानी,
कृषक का बस खेत से नाता।
मेहनत का फल कभी न पाता।
पास न उसके पैसा,बही खाता
सबका जीवन उनके हल बल से,
अन्नपूर्णा जग का कहलाता।
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
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खेत एक प्रयोगशाला
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खेत बनता
मिट्टी से धरती की गोद में
कहीं उपजाऊ कहीं बंजर
काली दोमट या
बलुई रेतीली मिट्टी से,
परन्तु
कृषक का श्रम
श्रम की बूंदें
बदलती रंग
परिभाषा व ढंग,
बीज का वपन
अंकुरण निराई
समय समय पर देखभाल
और सिंचाई
फसल लहलहाती
खेत की हरियाली
सीना चौड़ा करती।
वास्तव में खेत
खेत न होकर
एक प्रयोगशाला है
निवाले का आधार है,
जहाँ नितप्रति
सुबह जल्दी उठकर
देर रात तक
जाड़े पाले,सरदी गरमी
बरसात में
प्रयोग करता है किसान,
चर्चा से प्रसिद्ध तक
खेत
जी साधारण से असाधारण
बन खेत।।
- शशांक मिश्र भारती
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
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आओ भगनी आओ बंधुओं,
बारिश आने वाली है।
बीजों से नर्सरी लगाएं,
पौधे रोपण करनी है।
रसायन हाथ की छुट्टी कर,
जैविक खाद अपनाना है।
ह्रासित खेतों की मिट्टी को,
पुनः उपजाऊ बनाना है।
विषाक्त भोजन से मुक्त हो,
खेतों में शुद्ध उत्पाद उगाना है।
स्वच्छ वातावरण बना रहे,
हमें ऐसा योजना बनाना है।
विरान खेतों को पुनः हम,
श्रम दे हरियाली बनाएंगे।
पशु पक्षी आनंदित हो,
वन में मीठी तान सुनाएंगे।
कीट पतंग मंडराएंगे खुशी से,
जब डालो में कलियां खिलेंगे।
भीनी-भीनी मिट्टी की खुशबू,
जब बारिश आने से मिलेंगे।
हरी-भरी खेतों की हरियाली,
मन को मोह लेती है।
झूमती लहराती फसलों से,
खेतों की शान बढ़ जाती है।
आओ भगिनी आओ बंधुओं,
हमें पर्यावरण सजाना है।
खेतों में उर्वरा शक्ति बनी रहे,
हमें ऐसा प्रवृत्ति बनाना है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
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खेत की व्यथा
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होते किसान के यही, जीवन का आधार।
खेतों से मिलता हमें, अन्न धन का उपहार।।
अन्न धन का उपहार, जगत जीवन है पाता।
करता किसान कर्म, पसीना फसल उगाता।।
खेतों में हो स्वर्ण, कृषक तब भी हैं रोते।
मिले जो उचित दाम, किसान गरीब न होते।।
बढ़ती जनसंख्या ने, खेत दिये सब बाँट।
टुकड़ों में बँटते खेत, दिया फसल को छाँट।।
दिया फसल को छाँट, खेत मन ही मन रोते।
खत्म हुए जो खेत, परेशान मनुज होते।।
लेकर विकास नाम, आँख अमीर की गढ़ती।
संकट में हैं खेत, चुनौती जाये बढ़ती।।
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
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खेत
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मानव जाति आश्रित है खेतों पर,
खेती करना जीवन जीने की कला है,
खेतों में उत्पादन होता है,
फल, फूल,सब्जी का,
पशुधन उत्पादन भी जुड़ा हुआ है खेती से,
कृषि वानिकी भी शामिल इसमें,
खेतों में खेती करने वाले किसान,
अग्रदूत हैं आर्थिक विकास के,
खेत ग्रामीण आबादी में,
जीविकोपार्जन का माध्यम हैं,
आय का साधन हैं,
अतिवृष्टि हो या अनावृष्टि,
खेतों की फसल नष्ट होती ही है और
किसान का भविष्य डगमगा जाता,
आर्थिक स्तर पर।
पारंपरिक खेती से उत्पादन होता है कम,
उन्नत खेती के लिए,
किसान को कृषि शिक्षा देना होगा,
कृषक अपनाएंगे जब खेती के उन्नत तरीके,
तो वर्ष भर उनके खेत,
लहलहायेंगे फसलों से।
- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
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खेत
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एक दिन खेत की मेढ़ पर ,
खरपतवार के ऊंचे ढेर पर ।
एक मेंढकी-मेंढक टरर्राया ,
मनुष्य की तरह बुदबुदाया ।
सुन मेरा सिर चकराया ,
प्रभु कैसा समय आया ।
ध्यान से मैं सुनने लगा ,
जोर का झटका यूँ लगा ।
मेंढकी तो रोने लगी थी ,
बांझ हूँ कहने लगी थी ।
सब पर है ऐसा ही साया ,
मेंढक ने ढाढस बंधवाया ।
तभी खेत से आवाज आई ,
मेरी भी आँख भर है आई ।
कीटनाशक व यूरिया भाई ,
इन्होंने मेरी छाती जलाई ।
लाखों थे मित्र कीट पतंगे ,
खा गए ये अक्ल के अन्धे ।
कहते हैं भई उपज बढ़ाई ,
मैं कहता हूँ मौत है बुलाई ।
कंक्रीट जंगल अवैध खनन ,
नहीं विज्ञान- विकास मनन ।
भूतल जल सब चूस लिया,
नदी नालों को सूखा दिया ।
वही करते थे पोषित मुझे ,
वही लाते थे मनमीत तुझे ।
जैविकता गुणवत्ता थे यहां ,
नदारद सभी ये ढूंढे कहां ।
भारत की मैं पहचान था ,
खून पसीना ही ईमान था ।
अब कार्पोरेट जगत भाई ,
बीज खाद ऋण से दवाई ।
मालिक इससे दब मर रहे ,
नाहक कमाई और खा रहे ।
बैल गाय अब आते नहीं हैं ,
अब जोते नहीं रौंदे जाते हैं ।
पहले मुझ पर सो जाते थे ,
सौंधी खुशबू मुझसे पाते थे ।
प्रकृति मुझमें समाती थी ,
कृत्रिमता आत्मा कंपाती है ।
जानता हूँ खतरे में जान ,
मेरी ही नहीं तेरी इन्सान ।
जहरों से न यूँ मुझे जला ,
नहीं इसमें तेरा भी भला ।
सबकी थी मेरी कमाई ,
कैसे चंद लोगों में आई ।
घुट के हूँ अब लहलहाता ,
प्रदूषण मुझ को नहलाता ।
क्या-क्या किसे बताऊँ मैं ,
सीना चीर किसे दिखाऊँ मैं ।
हर रोज नई आफत आती है,
भाई चारे का खून बहाती है ।
यारो लग गई है बुरी नजर ,
कुछ शोषकों की खेत पर ।
आज मंडरा रहा है खतरा
मुझ खेत के अस्तित्व पर ।
किस-किस का नाम लूं मैं ,
किस-किस को ढूंढ लूं मैं ।
हाय सभी ये पगलाये हुए ,
गिद्ध की नजरें गड़ाये हुए ।।
- डॉ. रवीन्द्र कुमार ठाकुर
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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खेत
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स्वेद से माटी गीली थी
श्रम के बीज बो दिये थे
नव वर्ष की इस बेला में
खुशीयों के अंकुर फूट रहे थे!
खेतों की हरियाली देख
खुश हुआ किसान
हरे भरे खलिहानों से अब
पूरे होंगे अरमान !
अनाज की कमी न होगी
मेहरारु और बच्चे होंगे खुशहाल
ईश्वर ने चाहा तो अबकी
कर दूंगा चूकता उधार !
अरमानों की लिस्ट बड़ी थी
खेत पर था पूरा दारोमदार
खेत से मेरे सपने थे
खेत ही मेरे जीवन का आधार!
पर ,हाय री किस्मत प्रकृति भी
आगे पीछे खेल दिखाती
कभी बाढ कभी सूखा
क्षणभर में सपने भंग कर देती
दया उसे नहीं है आती !
सबका पेट भरने वाला किसान
स्वयं भूखा रह जाता है
कच्चे घर को पक्का करने का
सपना देखते रह जाता है!
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
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खेत
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गांव में बहुत थे खेत हमारे
फसलें जिनमें लहलहाती थी
दादा जी खेत में हल चलाते थे
दादी भी पीछे पीछे आती थी
बैलों की होती थी सुंदर जोड़ी
एक को बग्गा दूसरे को नीला
सब प्यार से बुलाते थे
घरवालों को आता देखकर
उनके कान खड़े हो जाते थे
सब भाई मिलकर खेत में जाते थे
सुबह से शाम तक पसीना बहाते थे
भैंसें भी तीन चार होती थी घर में
दूध दही घी मन भर कर खाते थे
सब किस्म की दालें होती थी पैदा
चावल शक्कर भी होती थी भरपूर
गरीबी ने लोग जकड़े हुए थे
साहूकारों से उधार लेने को थे मजबूर
आज की तरह टेक्नॉलोजी नहीं थी
हाथ से ही सब काम होते थे
गंदम मक्की धान की सब फसलें
बस हाथ से ही बोते थे
खेत से ही परिवार पलता था
ज़मीन को सब माता बुलाते थे
खुशियों का सैलाब आता था घर में
जब नई फसल पक कर घर ले आते थे
खेत में अब कोई कमाना नहीं चाहता
घर से बाहर अब रहते हैं सारे
खेत अब वीरान पड़े हैं
बंट गए अब सब खेत हमारे
- रवींद्र कुमार शर्मा
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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हमारे खेत
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हमारे खेत
पिता/ताऊ और चाचा
परिवार की तीन
मजबूत कड़ियाँ
अपने अथक प्रयास/स्वेद कणों से
उर्वर हुआ करते थे,
गेहूँ/चावल/दालें
सभी मौसमी सब्जियाँ/फल
खेतों की शान हुआ करते थे,
याचक कभी रिक्त हस्त न जाता
अतिथि पूर्ण आतिथ्य पा
खेतों की सौगात लिए बिना
विदा नहीं किया जाता था,
बड़ी माँ अन्नपूर्णा का भंडार
अक्षय पात्र जैसा
कभी खाली न होता था,
परिवार की
सबसे बड़ी और मजबूत कड़ी गिरी
तो पिता ने आगे बढ़ सब
सम्भाल लिया था,
पर दूसरी कड़ी के गिरते ही
सब भरभरा कर ढह गया था,
तीसरी कमजोर कड़ी
शहर से आई हवा के
झोंकों के बहकावे में
बहकने से अपने को
रोक नहीं पाई थी,
पुरखों की विरासत में
मिली धरोहर को
जिसे तीन कड़ियों ने सम्भाला था
बँटवारे में बँट कर
बटाईदारों के पेट पाल रही है
अपनी धरोहर उन्हें सौंप
झूठे मालिक के दम्भ में
शहरों में रासायनिक डले
अनाज/सब्जी खाते है
हमारे खेत अब
तेरे/मेरे/इसके बने
बटाईदारों की मिल्कियत
कहलाते हैं।
- डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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किसान और खेत
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हो रामा ,किसानों की दिशा ना समझे कोई,
चाहे राजा रंग हो फकीर।
थके मजदूर रह-रह कर जुगत ऐसी लगरदाते हैं,
कभी खैनी बनाते हैं कभी बीड़ी लगाते हैं।
हो रामा, किसानों......
जहां नदियों का पानी छूने लायक़ भी नहीं लगता,
हमारी आस्था है हम वहाँ डुबकी लगाते हैं।
हो रामा, किसानो.....
ज़रूरतमंद को दो पल कभी देना नहीं चाहा,
भले हम मन्दिरों में लाइनें लम्बी लगाते हैं।
हो रामा, किसानों......
यहां पर कुर्सियां बाक़ायदा नीलाम होती हैं,
चलो कुछ और बढ़कर बोलियां हम भी लगाते हैं।
हो रामा,किसानों......
नहीं नफ़रत को फलने-फूलने से रोकता कोई
यहां तो प्रेम पर ही लोग पाबन्दी लगाते हैं।
हो रामा,किसानों........
- उमा मिश्रा "प्रीति"
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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खेत
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खेत किसी माता के समान,
लुटाता है हम पर नेह।
इसका प्रसाद,उत्पादन ही,
पोषित करता है यह देह।।
खेत है ईश्वर की मानव को,
दी गयी,अनमोल सौगात।
खेत जब उगलता है फसलें,
बदल देता है हालात।।
जीवन को चलाने हेतु,
खाद्यान्न देता है खेत।
विभिन्न फसलों का उपहार,
उगलता है मिट्टी व रेत।।
एक एक दाने के बदले,
देता है सैंकड़ों, हजारों दाने।
खेत दानी है,दाता हैं,
कोई माने या न माने।।
खेत में फसलों के संग ही
लहलहाती हैं आशाएं।
किसान परिवार के स्वप्न,
परिवारजनों की अभिलाषाएं।।
खेतों ने किसी भी हलवाहे को
कभी निराश नहीं लौटाया।
खेतों में हल चलाते हुए ही,
राजा जनक ने,सीता को पाया।
खेतों की मिट्टी किसी भी,
तीर्थ से है अधिक पावन।
क्योंकि खेतों में उगा,
अन्न ही चलाता है जीवन।।
इसलिए खेतों की क्षमता का,
मत करो अंधाधुंध दोहन।
यदि खेत स्वस्थ रहे तो,
तभी स्वस्थ होगा जीवन।।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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खेत
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हरे भरे लहराते खेत
उगाकर अन्न हम भरते पेट
खेतों में काम करते किसान
पूरे होते सबके अरमान
दाल, चावल, मक्का, जौ
उगाते मौसम के हिसाब से वो
फल, सब्जियों के भरते भंडार
खेत हमारे चलाते संसार
खाद, सिंचाई से उपजाऊ बनाओ
फिर जो मन चाहे वो उगाओ
करो मेहनत खेतों में है उगता सोना
सच कहूं तो कभी ना पड़ेगा रोना।।
- मोनिका सिंह
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
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खेत
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लोगों ने अकसर मुझसे,
मेरे घर का पता पूछा है,
पर मैने हिसाब हमेशा ,
अपने खेतों का रखा है,
देखा है जमाने से इनमें,
अपनी पीढ़ियों को तपता,
इन्हीं की मिट्टी में,
अपने कर्मों को उलझता,
कभी खूब लहलहाती फसलें,
खेत भर दिया करती हैं,
कभी मानों लुकाछुपी का खेल भी,
हमारे ही संग खेल लिया करते हैं,
तब ये विरान से खेत हमें,
और हम इनको निहारा करते हैं,
पर सच में ये खेत,
पीढ़ी दर पीढ़ी हमें,
हमारी पीढ़ियों की याद दिलाते हैं,
शायद तभी तो खुद बचाए रखने की,
बातें हमसे किया करते हैं,
यही खेत हमारी भी,
किस्मत बदला करते हैं।
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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मूलाधार
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कृषि प्रधान देश भारत में,
खेत हैं जीवन का मूल आधार।
जिन पर ही निर्भर करता है,
कृषकों का आजीविका आधार।
जीवन के लिए आवश्यक है अन्न,
खेतों से ही उपलब्ध होता है अन्न।
दिन रात कृषक,मेहनत करते हैं,
तब कहीं ,पैदा हो पाता है अन्न।
अन्न पैदा करने के लिए खेत है जरूरी,
इसीलिए खेतों को बचाना है जरूरी।
अगर खेत खत्म हो जाएंगे "सक्षम",
भूखों मरना पड़ेगा हम सबको हरदम।
- गायत्री ठाकुर सक्षम
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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खेत
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मेरे नाना के खेत, मेरे बाबा के खेत
हरी चादर बिछी सजे माँ की साड़ी
पीली सरसों के खेत लहलहाते हँसे
कहीं गेंहूँ की बाली इठलाती रहे
कहीं फूलों के बागों में तितली डोले
कहीं कोयल की कूक है प्यारी लगे
बाजरे की है कलगी लहके चहके
नीम पत्ते झरें जैसे ताली बजे
मैं पंछी बनूँ चहुँ और डोलूँ
मैं मस्त हवा संग गगन में उडूं l
मैंने देखा है गन्ने का खेत बड़ा
मीठे रस का ये प्यारा डंडा बड़ा
खेतों की नालियों में है बहता पानी
जैसे झर झर बहता नदिया पानी l
अहा, उषा की स्वर्णिम झलक देखी
गो धूलि बेला ढले साँझ देखी
मयूरा पपीहे का गीत सुना
मन मयूरा नर्तन कर है उठा l
मेरे देश की धरती रतनों की खान
अन्नदाता कृषक का करती सम्मान
बैलों के घुँघरू मिटा तन की थकान
चेहरे पे उमंग और ख़ुशी का जूनून
- डॉo छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
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खेत
***
धरती
माँ
के आँचल
का एक
टुकडा
है खेत
जिससे है
हम सबका
जीवन
जो देता है
अन्न मेहनतकश
किसान के
पसीने की कीमत
पर इसी
उपज से पाते है
हम सब
जीवन ऊर्जा
पर सिकुड़ रहे है
खेत कम हो
रही है जोत की
जमीन तालाब
जंगल वन्य जीव
बढ रहा है ईंटों का
जंगल तेजी से
बढती जनसंख्या
के भस्मासुर
की आवश्यकता
के सामने बौना
साबित हुआ
है सदियों मे हुआ
विकास आखिर
कब समझेगें
हम मूल्य
खेत खलिहान
का प्रकृति के
संकेतो का
जीना है तो
बचाना होगा
धरती के आँचल
को छोटा होने से
तभी मिल
सकेगा सभी
को भर पेट
भोजन
उनको भी
जिन्हें आज भी
मिलता है खाना
बमुश्किल
एक ही
वक्त
- डा. प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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खेत
***
खेत में बोओ बीज महान ।
कर्मवीर है कृषक जगत में जाने सकल जहान ।
सपरिवार परिश्रम करता सोचे सर्व कल्यान ।।
युद्धवीर भी युद्ध क्षेत्र में दें देश के हित जान ।
कर्म भूमि यह क्षेत्र धरा है सुकर्म करो सम्मान ।।
धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र बीच में कृष्ण दिया है ज्ञान ।
मक्खन मन में जरा विचारो भूला क्यों नादान ।।
राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी - उत्तर प्रदेश
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खेत
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कड़ी दुपहरी किसान करे,
निज खेतों की वो तैयारी,
पसीना तड़ तड़ पड़ता है,
घनी वृक्ष छांव लगे प्यारी।
खुशबू खेत की जब आती,
किसान की मेहनत दर्शाती,
अंगड़ाई लेकर फसल उठे,
नींद किसान को नहीं आती।
खुशबू खेत की, कह रही,
कर लो बस खेत से प्यार,
अन्न उपजे भर जाये भंडार,
करो चूकता जो ली उधार।
खुशबू खेत की, यूं बुलाये,
अब तो चलकर पास आये,
काट फसल कर ले मन की,
दिल अपनों से जरा लगाये।
खुशबू खेत की सदा सुहाती,
अकाल पड़े तो उसे रुलाती,
फसल पैदावार घर में डाले,
खुशबू मन तन को इठलाती।।
- होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ - हरियाणा
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खेतों में राष्ट्र की रोटी
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किसान ! तुम भारत की आत्मा हो
अन्नदाता हो
खेतों में उगाते रोटी हो
हर चेतन , राष्ट्र की साँसों की
करते तुम हो चिंता
जिंदगी की जद्दोजद में
मेहनत का पसीना बहा कर
धूप , जाड़ा , बारिश , गर्मी की परवाह न करके
उगाते हो राष्ट्र की भूख मिटाने के लिए
अन्न फल दाल सब्जियों का भंडार
रहे न कोई भी भूखा
बने हो हर चेतन और जगजीवन के पालक
मिट्टी में तुम रचे -बसे हो
मिट्टी से बनाते सोना
लहराती हरी फसल खेतों में धानी
कहती तुम्हारे पुरुषार्थ की कहानी
पर्यावरण का प्रहरी बन
करते संरक्षण , सवंर्धन
कॄषि की बढ़ती लागत
ग्लोबलवार्मिंग , जलवायु परिवर्तन से
फसलों का चौपट होना
खेती के लिए कर्जा के चुंगल में फसना
दुखों का पहाड़ टूटता
नहीं हो पाता फिर जीवन यापन
कर्जा करता कदमताल
फिर करे आत्महत्या भारत लाल
सरकार किसानों के हित में
दे मुआवाजा और पेंशन
तभी पसीने की फसल से
मिलेगी ' मंजु 'राष्ट्र को रोटी ।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
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युवा शक्ति
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कृषि प्रधान देश हमारा हैं ।
कृषक किसानी
भारत की पहचान हैं ।
भूमण्डल सत्ता का
अधिकारी किसान हैं ।
जीवन मूलाधार बिंदु है
सारत्त्व की पहचान हैं ।किसान हैं ।
अदम्य उर्वरक धरती की
पहचान बताता किसान हैं ।
मौसम की मार झेलता
स्वयं निर्माता किसान हैं ।
अपने भाग्य रेखाओं
हाथ जोड़ पहचान हैं ।
कर बद्ध प्रार्थना करती
भारतमाता किसान पुत्र हैं ।
भारतवाशी तेरा ही गुमान हैं ।
खेतों की आड़ी तिरछी गोल चौकोर
रेखाओं में धरा का अभिमान हैं ।
सुबह की लाली देखे बिना ही ,
हल ,बैलगाड़ी लिये निकल जाता हैं ।
जीवन आधार किसान
रगो में दौड़ती लहु
की पहचान हैं ।
जहाँ शहर में युवापीढ़ी
रोज़ी रोटी की तलाश में
भटकता रहा इंसान हैं ।
स्वार्थ भय क्रोध से
विचलित हर इंसान हैं ।
अपने भाव की उच्चय झलकियाँ
दिखाते आगे खड़ा रहता इंसान हैं ।
बढ़ता हर कदम मय से पुरित
इंसान का मोहताज हैं ।
जूझ रहा भूखमरी से
बिलखते बच्चों का साथ
निकल पड़ा अपनी जन्मभूमि
अपनी मातृभूमि की ओर हैं ।
स्वभाव सादगी सेवासदन
करता कृषि रोज़गार हैं ।
बदलाव के लिए करता रोज़ इंतज़ार था
मुक़द्दर का ये कैसा खेल हैं ।
अपनी पहचान भुल बदहवास हैं ।
सहज सफल कामना होती पूरी हैं
किसान बिन सुना संसार हैं ।।
- अनिता शरद झा
रायपुर - छत्तीसगढ़
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खेत विरासत
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खेत विरासत हैं हम सबकी ,
पालन पोषण करते हैं ।
सर्दी , गर्मी, वर्षा सहकर ,
सोना रोज उगलते हैं ।
कितने युग देखे खेतों ने ,
यह पुरखों की थाती है ।
सोंधी सी माटी की खुशबू ,
इन खेतों से आती है ।
इनका मौन यही है कहता ,
बच्चों मेरी कद्र करो ।
मुझ बुजुर्ग की करो हिफाजत,
तुम भी मुझसा सब्र करो ।
फसल उगाओ धरा बचाओ ,
मुझको मत बरबाद करो ।
पीढ़ी दर पीढ़ी पाला है मैंने ,
तुम मुझको आबाद करो ।
कृषि प्रधान भारत के वासी ,
खेतों का सम्मान करो ।
खेतों से जो रत्न उगलते ,
कृषकों का भी मान करो।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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हरे भरे खेत
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हरी भरी फसलों से सुंदर
लगते हैं ये खेत हमारे .... .
पीली सरसों गेंहू वाली
मदमाते गन्ने डोलें।
तभी चने के झाड़ बहकते
अरहर मसुरी भी बोलें ।
सोने जैसे अन्न के दाने
फसलें महक रही देखो।
धरती भी मुस्का- मुस्का कर
कैसे चहक रही देखो।
खलियानों में काम चल रहा
सजता खेत अनाजो से।
त्योहारों की छटा अनोखी
बैसाखी हैं बाजों से ।
रंग बिरंगे परिधानों संग
झूम रहा है गाँव हमारा ।
मेलजोल से रहते सारे
एक दूजे के बनें सहारा ।।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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वो झूमता......वो लहराता,
जो उसे ठहर के देखें,
बस देखते रह जाता।
जो साथ में ना हो उसकी याद दिलाता
वो मिट्टी की खुशबू वो खलिहान
वो खलिहान में बैठी दादी मां
वो गांव का याद दिलाता,वो यादें बहुत सताता।
मैं कैसे जाऊं भूल? वो खेत की मिट्टी सरसों का फूल।
अभी धूप का आना कभी जाना
घर अनाजो से भरा, होली के गीत गाना
स्कूल से आते खेतों में साग खाना
घर आते ही खेलने भाग जाना
खेल के देरी से आना
घर में चुपके से जाना
मां के आंचल में छुप जाना
बाबूजी का डाट खाना,
पढ़ते समय सोने का बहाना
मां के कहने पर हो गई तेरी पढ़ाई
पहले खा लो खाना फिर सो जाना
मैं हूं गांव का कैसे जाऊं यह सब कुछ भूल?
वो मिट्टी की खुशबू वो सरसों का फूल।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
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हार्दिक धन्यवाद
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