क्या मौन से न्याय सम्भव है ?

न्याय में मौन का कोई उचित स्थान नहीं है । मौन से अपराध   बढता है । अपराध के सामने कभी मौन नहीं रहना चाहिए । यहीं कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते है : -
वर्तमान स्थिति को हम देखें तो आज की परिस्थिति से मुकाबला करने का यदि कोई शस्त्र है तो वह है "मौन" .....मौन से चित्त शांत रहता है एवं हमारा विवेक काम करता है.... हम बड़े बड़े मसले हल कर सकते हैं किंतु
मेरा यह मतलब नहीं है कि अन्याय और अपराध होता देख हम भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य के जैसे मौन रहकर द्रोपदी का चिर हरण होते देखें और महाभारत को आमंत्रित करें!  स्वयं भगवान कृष्ण अन्याय सहन करने के खिलाफ थे ! यदि हमारे धर्म को क्षति पहुंचती है अथवा ऐसी कोई शंका भी होती है तो हमें मौन नहीं रहना चाहिए हमें शंका का समाधान करना चाहिए! 
हाथरस पीडित  घटना में कांग्रेस ने देश भर में राज्य और जिलास्तर पर मौन धरना देने की बात कही... न्याय मिला... नहीं ! केवल राजनीति होती है !
मौन रहकर हमें अपने अधिकारों को नहीं छोड़ना चाहिए! राजनीति दांवपेंचो पर ही देश चल रहा है.... हमारी हिंदी भाषा को ही ले लो....  संयुक्त राष्ट्र की अधिकारिक भाषा बनाने की बात करते हैं पर क्या इन 74 सालों में देश की न्याय व्यवस्था नागरिकों को स्व-भाषा में न्याय  उपलब्ध करा पाई ?
नहीं ! सभी मौन है ... जब तक सरकार और प्रजा मौन नहीं तोडे़गी हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा बन ही नहीं पायेगी !
 अतः मेरा मत है मौन रहकर अपराध सहन करना बुद्धिमानी नहीं है किंतु स्थिति को देखते हुए यदि मौन से वातावरण शांत होता है तो हमें मौन रहना चाहिए ताकि हम समय दे ठण्डे दिमाग से निर्णय ले सकें! 
            - चंद्रिका व्यास
          मुंबई - महाराष्ट्र
     मानसिक और शारीरिक दो पहलू हैं और दोनों की क्रियाऐं एक जैसी ही हैं, अगर मानसिक विकृति पैदा हुई तो शरीर प्रभावित होता हैं और शारीरिक परेशानी हुई तो मन विचलित हो जाता हैं। इसलिए कहा जाता हैं, कि मन मस्तिष्क को क्रियान्वित करने में सार्वभौमिकता की आवश्यकता प्रतीत होती हैं, मन शक्तिशाली-तटस्थवान  हो तो न्याय वृहद रुप से संभव हो जाता हैं। न्याय प्रियता का प्रत्यक्ष रूप से उदाहरण राजा हरिश्चंद्र और विक्रमादित्य अन्य राजाओं-महाराजाओं का देखने में  आया हैं, किस तरह से परिदृश्यों को बदलने का प्रयास किया। वर्तमान परिदृश्य में देखने को नहीं मिलता, न्याय पाने के लिए दर-दर भटक रहें हैं,  अमूल्य समय और धन-सुख-बल व्यर्थ नष्ट हो रहा हैं। मानव शरीर मोह माया के जाल में फंसा हुआ हैं, उसे त्याग कर संकल्प लिया तो मौन से न्याय संभव हो सकता हैं।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
   बालाघाट - मध्यप्रदेश
क्या माल से न्याय संभव है मौन  से न्याय संभव नहीं है ।मौन रहकर सत्य क्या है ?वहां तक नहीं पहुंचा जा सकता। तर्क के माध्यम से ही संवाद करने से समाधान अर्थात न्याय तक पहुंचा जा सकता है मौन कोई आक्रोश घटना है या वहां विवाद पैदा हो रहा है इस स्थिति में कुछ समय के लिए मौन रह कर स्थिति को संभाला जा सकता है ।लेकिन न्याय नहीं हो सकता ।मौन  कुछ पल के लिए मौन होकर माहौल को बाद में संवाद कर न्याय तक पहुंचा जा सकता है मौन रह कर कोई न्याय होना संभव नहीं है।
 - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
मौन स्वयं में एक साधना है। मौन की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। मौन रहकर हमारे समक्ष आने वाली बहुत सी समस्याओं का समाधान हो सकता है। व्यवहारिक जीवन में मौन रहना उत्तम प्रवृत्ति होती है। 
परन्तु यह अति आवश्यक है कि... "कब मौन रहना है और कब मुखर होना है" , हमें इस बात का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। 
जब तक आप मौन रहेंगे आपकी आवश्यकता अथवा आपके साथ हो रहे किसी अन्याय को दूसरा व्यक्ति कैसे समझेगा। 
यदि हमारे आसपास कुछ ऐसा हो रहा है जो न्यायोचित नहीं है और हमें पीड़ा दे रहा है तो हमें मुखर होना ही पड़ेगा। संभवतः हमें अपने स्वर को संघर्ष की ऊंचाई तक ले जाना पड़े, परन्तु यह तो निश्चित है कि यदि हम अपनी वाणी को स्वर देंगे तो हमें न्याय प्राप्त होगा। हमारे मौन से तो यही सन्देश जायेगा कि हम अन्याय, अनुचित और अप्रिय स्थिति स्वीकार है। यह स्वीकारोक्ति भला कैसे न्याय प्रदान करेगी। 
इसीलिए कहता हूँ कि....... 
सब गुणों में मौन भला, देता सौ को मात। 
मुखरता से न्याय मिले, लेकिन सच यह बात।। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखंड
जी हाँ, मौन से न्याय पाना संभव है. न्याय केवल वही नहीं है जहाँ दो पक्षों की दलीलें सुनकर फैसला किया जाता है , जहाँ बढ़ चढ़ कर बोलना जरूरी होता है. न्याय सामने वाले की बात चुप रहते हुए सुनकर, अपने व्यवहार से उसके मन को बदलते हुए भी पाया जा सकता है.
- सरोज जैन
खण्डवा - मध्यप्रदेश
मौन से न्याय सम्भव नहीं है। मौन से न्याय केवल ईश्वर के अदालत में ही सम्भव हो सकता है,मानवीय अदालत में नहीं। जबतक कोई कहेगा नहीं कि उसे किस चीज के लिए किससे न्याय चाहिए तबतक उसे न्याय कैसे मिलेगा। बहुत जगह तो चीखने चिल्लाने से भी न्याय नहीं मिलता है तो मौन रहने से कैसे मिलेगा। वैसे अपवाद हर चीज में होता है। इसमें भी हो सकता है। पर बगैर मांगें कुछ नहीं मिलता न्याय तो दूर की बात है।
मौन से न्याय मिलता तो दादा कचहरी में दौड़ते-दौड़ते मर जाता है, बाप बुड्ढा हो जाता है तब कही पोते को न्याय मिलता है। या नहीं भी मिलता है। अगर मिलता भी है तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाता है। ऐसे में मौन रह कर न्याय की आशा करना समझ से बाहर है। कहा जाता है बच्चा रोता है तब ही माँ उसे दूध पिलाती है नहीं वह सोचती चलो खेल रहा है कुछ और काम कर लें। इस तरह मुझे नहीं लगता है कि मौन से न्याय मिल सकता है।
- दिनेश चन्द्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल
कहते हैं यदि हम चुपचाप किसी अन्याय को सहन करते हैं तो जुर्म के हम भी भागीदार हैं ।मौन से न्याय कभी संभव नहीं होता, न्याय पाने के लिए आवाज उठानी ही पड़ती है।  न्याय तभी मिलता है जब हम उसे पाने का प्रयास करते हैं, मौन रहना अन्याय का दायरा बढ़ाना है अतः जुर्म के खिलाफ आवाज अवश्य उठानी चाहिए।  विडंबना है कि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में न्याय व्यवस्था अति लचीली हैं और न्याय एकाग्र चित्त मौन अवस्था धारण किए हुए हैं। बरसों बरसों बीत जाते हैं किसी फरियादी को न्याय नहीं मिलता   न्यायालयों में भटकते भटकते उम्र बीत जाती है ,मगर अधिकतर मामले फाइलों में ही उलझे हुए विचाराधीन पड़े रहते हैं। समय पर न्याय न मिलना भी अपने आप में बहुत बड़ी सजा है जो गुनाहगार न होते हुए भी झेलनी पड़ती है । धन ,शक्ति ,सामर्थ्य के बल पर कुछ लोग समय पर न्याय पा भी लेते हैं । वहीं असमर्थ अन्याय की चक्की में पिसते रहते हैं। 
- शीला सिंह
 बिलासपुर-  हिमाचल प्रदेश
मौन से न्याय कदापि सम्भव नहीं है। जबकि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मौन रहकर स्वयं द्वारा स्वयं से अन्याय करना है और गीता के उपदेश के अनुसार अन्याय करना और सहना हर दृष्टिकोण से महापाप होता है।
        भले ही मौन से मन की शक्ति बढ़ती है और सर्वविदित है कि शक्तिशाली मन में किसी प्रकार का भय, क्रोध, चिंता और व्यग्रता टिक नहीं पाता है। क्योंकि मौन का अभ्यास करने से मानसिक शक्ति अत्याधिक बढ़ती है।
        न्याय और अन्याय में मात्र "अ" का अंतर है। परन्तु असल जीवन में "जमीन और आसमान" जितना भारी अंतर होता है। न्याय यदि अमृत है तो अन्याय विश है। जो घर, परिवार, मुहल्ला, गांव, शहर, जिला, राज्य और देश बर्बाद कर देता है। 
        मेरा निजी अनुभव है कि अन्याय किसी भी बीमारी अथवा महामारी से अधिक घातक होता है। जिसका तुरंत उपचार राष्ट्रहित में अनिवार्य है। 
        अतः मेरा सुझाव है कि न्याय के मंदिर "न्यायालय" और उसके पुजारी "न्यायमूर्ति" को चाहिए कि "न्याय और अन्याय" पर मौन रहने वालों पर "संवैधानिक धाराओं" द्वारा कड़ी से कड़ी दंडात्मक कार्रवाई करें। जिसमें यदि अधिवक्ता व न्यायाधीश भी दोषी पाए जाएं तो माननीय उच्च एवं उच्चतम न्यायालय उन्हें भी राष्ट्रहित में दंडित करें। चूंकि न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश परिवर्तनशील हैं जबकि माननीय न्यायालय हिमालय पर्वत की भांति स्थिर है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
मौन से संभव नहीं होता है कभी-कभी हमें अन्याय का सामना करना पड़ता है। जब हम मौन अवस्था में होते हैं इसी मजबूरी वंश हम खुद को खामोश करके रखते हैं ।तब हमें उस प्रक्रिया में न्याय नहीं मिलता है उनको तोड़ना ही उचित कार्यवाही होता है ।सभी प्रकार के मौन को तोड़कर जिंदगी के आगे न्याय व्यवस्था में बढ़ना चाहिए ।कभी-कभी हम अपनों के लिए मौन रहते हैं ।ताकि न्याय संभव हो सके तो खुद खुद एक न्याय की प्रक्रिया को हासिल करती है ।जब हम अपनी जुबान को खोलते हैं तो से हमें सत्य की अवस्था में न्याय भी मिलती है। जब हम मौन होते हैं तो कभी-कभी जिंदगी की विपरीत परिस्थितियों में हार का  होना संभव हो जाता है। और यथासंभव जरूरी भी होता है मौन से न्याय संभव भी नहीं हो सकता है ।मौन से हम अपने सारे इलजाम को ले सकते हैं। मौन को तोड़ने की प्रक्रिया बेहद जरूरी होनी चाहिए ।मौन नहीं हो इसलिए  क्योंकि जब सबूतों और गवाहों की प्रक्रिया चलती है तो खामोश नही होना चाहिए।बयान करती है सबूतों को इसलिए मौन से संभव नहीं न्याय होता है। आज हमारे देश में विभिन्न प्रकार की घटनाएं घटित हो रही है जिस प्रकार भिन्न है तो न्याय संगत नहीं हो सकते हैं लेकिन अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई जाए संभव हो सकता है।मौन की प्रक्रिया को तोड़ने कु भूमिका ही जीवन को निरंतर प्रयास रत करत है और न्याय का उचित मूल्य होता हैं ।खामोशियों से न्याय नही मिलता।तकलीफों का ही सामना करना पड़ता है।अतः मौन से न्याय संभव नहीं होता हैं।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर -  झारखंड
मौन व्यक्ति की सहमति व असहमति दोनों को ही प्रेषित नहीं कर पाता है। अगर आप को न्याय का साथ देना है तो मुखरित होना ही होगा। 
 मौन हमेशा से स्वीकृति का द्योतक माना गया है। विचार करने का समय चाहिए तो भी बोलना आवश्यक है। खास कर जब न्यायाधीश की कुर्सी पर विराजमान हैं। जिस प्रकार 'पंच-परमेश्वर ' में दिखाया गया है वही दर्शन यहाँ भी है। आपका वक्तव्य सच्चाई की जान बचा सकता है और मौन उसका खात्मा कर सकता है। 
 अतः सच के लिए बोलना ही पड़ेगा।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
मौन अनेक परेशानियों निजात दिला सकता है  । क्रोध के समय मौन रहना तो विनाश को रोकने की रामबाण औषधि है  । 
       मौन निष्पक्षता का भी सूचक है  । यदि हमारे समक्ष अन्याय हो रहा होता है और तब भी हम मौन रहते हैं तो ऐसे में हम अन्यायी के पक्ष में होते हैं क्योंकि मौन स्वीकृति का भी सूचक है  । 
        सिर्फ मौन रहने से न्याय संभव नहीं है  । देश, काल और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए  मौन को धारण करना चाहिए  । 
        न्याय और अन्याय में अंतर होता है यदि हम अन्याय के समय भी मौन रहेंगे तो हमारे लिए मौन का कोई औचित्य नहीं रहेगा  । 
           -  बसन्ती पंवार 
         जोधपुर -  राजस्थान 
कई जगह मौन रहना सही होता है । जैसे व्यर्थ की बहसवाजी, मूर्ख को समझाने की कोशिश आदि । लेकिन जहाँ तक न्याय की बात है तो मौन रहने से न्याय कतई संभव नहीं है । क्योंकि न्याय के लिए अपना पक्ष रखना जरूरी होता है , जो मौन से संभव नहीं है ।
  - पूनम झा
कोटा - राजस्थान 
"अन्याय के विरूद बोलना भी एक बहुत बड़ा न्याय   करना ही होता है"। न्याय हमारे जीवन का एक ऐसा हिस्सा है जिससे गरीब, कमजोर और लाचारों की रक्षा की जा सकती है जबकि सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के सा़थ समझोता करना है
लेकिन देखा गया है कुछ लोग अनयाय देख कर भी चुप्पी साध लेते हैं यहां तक की मौन की नौवत भी  आ जाती है, 
तो आईये आज बात  करते हैं कि  हमें सब कुछ सहने की आदत डालनी चाहिए, क्या मौन से न्याय संभव है? 
मेरा तर्क है कि मौन से न्याय असंभव है, 
चुप रहना समझदारी हो सकती है पर मौन रहकर अन्याय सहना बहुत बड़ा अपराध है, 
विश्व में कई वायरस हैं जिनका कोई सफल इलाज नहीं है जैसे पाखंड, अंधविश्वास, अन्याय आदि अगर हम  इनके प्रति मौन धारण कर लेंगे तो गरीब, कमजोर या वेसहारा लोगों की रक्षा करना नमुमकिन है
कहने का मतलब अच्छा समाज तभी बनेगा जब हम सब अन्याय के प्रति  चुप्पी तोड़ेंगे
अगर हम सब कुछ देखकर मौन अपनाकर वैठ जाऐंगे तो
हमें कभी भी न्याय नहीं मिल सकता
यहां तक मेरा ख्याल है अन्याय को मौन का समर्थन कहा जाता है, कहावत भी है, 
 एक चुप्पी सौ को हराय, एक चुप्पी सौ को सुख दे जाए
कई बार एक मूर्ख के सामने चुप रहना ही भला है किन्तु जीवन मैं सदैव चुप रहना हानिकारक है, 
गीता में साफ कहा है यहां पाप बल बढ़ रहा हो व छल कपट हो रहा हो वहां मौन रहना गंभीर अपराध है, 
कभी कभी हम किसी ताकतवर के आने से खामोश हो जाते हैं चाहे वो जितने मर्जी अन्याय करे सोचते हैं कि मौन रहने से हम विवाद से बच जाएंगे लेकिन ऐसा बचाव एक बड़े संघर्ष को जन्म देता है॓ और हमारा मौन रहना उस व्यक्ति का समर्थन बन जाता है और वो व्यक्ति अपने आप को शक्तिशाली समझने लगता है जिससे अन्याय में वृदि होने लगती है
ऐसे हालातो़ मेे मौन रहना हानिकारक होता है, 
अगर द्रपौदी वस्त्र हरण में यौदाओं ने चुप्पी तोड़ी होती तो महाभारत  का युद्द नहीं होता, 
अन्त में यही कहुंगा की अन्याय के खिलाफ   जब तक हम  चुप्पी नहीं तोड़ेंगे तब तक जुल्म ही जुल्म सहन करने पड़ेंगे
इसलिए हमें अन्याय का खुलकर विरोध करना चाहिए
क्योंकी अन्याय सहना अन्याय से बड़ा पाप है लेकिन आजकल समाज में लगभग यही हो रहा है यहां विरोध करना चाहिए वहां कोई नहीं बोलता  क्योंकी बलशाली व्यक्ति के आगे सभी कमजोर पड़ जाते हैं
इसी कारण हम न्याय से वंचित रह जाते हैं , 
इतिहास साक्षी है पापियों की दंडता ने इतनी हानि नहीं पहुंचाई जितनी कि सज्जनों के मौन ने
इसलिए मौन से न्याय कभी भी संभव नहीं होगा। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
मौन से न्याय संभव नहीं किन्तु मौन श्रेयस्कर है l मौन एक साधना है l मौन रहकर हम इन्द्रियों पर विजय पा सकते हैं l इन्द्रियाँ हमारी सबसे बड़ी शत्रु हैं, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया, उसने जग जीत लिया l एक चुप सौ को हरा सकती है l अधिक बोलने से मूर्खता ही जाहिर होती है l
 न्याय पाने के लिए, अपना पक्ष रखने के लिए हमें बोलना ही पड़ता है l यदि हम अपनी बात नहीं कहेंगे तो उस मौन को स्वीकृति मान लिया जाता है l अतः यह तो स्पष्ट है कि मौन से न्याय संभव नहीं है l
   - डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
नहीं ,चुप होकर बैठने से काम नहीं बनता। न्याय के लिए आवाज तो उठाना ही पड़ेगी और उसके लिए मौन तोड़ना आवश्यक है। जब तक गलत कार्य का प्रतिकार नहीं किया जाएगा तब तक न्याय संभव नहीं है। मौन तो अप्रत्यक्ष रूप से गलत कार्य का समर्थक हो जाएगा ।इसलिए चुप्पी तोड़ना आवश्यक है। खुलकर न्याय का समर्थन करना जरूरी है।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम"
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश


" मेरी दृष्टि में " न्याय के लिए मौन किसी भी स्तर पर उचित नहीं है । फिर भी मौन रहने की सलाह हर कोई देता नज़र आता है । न्याय के लिए मौन अभिशाप है । ऐसा अनुभव के आधार पर कहं रहा हूँ ।
- बीजेन्द्र जैमिनी 

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