रामधारी सिंह ' दिनकर ' की स्मृति में कवि सम्मेलन
जैमिनी अकादमी द्वारा साप्ताहिक कवि सम्मेलन इस बार " आग " विषय पर रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के कवियों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल कविता के कवियों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है । सम्मान राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ' दिनकर ' के नाम से रखा गया है ।
रामधारी सिंह 'दिनकर' जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य किसान 'रवि सिंह' तथा उनकी पत्नी 'मनरूप देवी' के पुत्र के रूप में हुआ था। दिनकर दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहावसान हो गया। परिणामत: दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।
शिक्षा
संस्कृत के एक पंडित के पास अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभ करते हुए दिनकर जी ने गाँव के 'प्राथमिक विद्यालय' से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो नामक ग्राम में 'राष्ट्रीय मिडिल स्कूल' जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त किया। यहीं से इनके मनोमस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था। हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने 'मोकामाघाट हाई स्कूल' से प्राप्त की। इसी बीच इनका विवाह भी हो चुका था तथा ये एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। 1928 में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।
पद
बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अंग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। 4 वर्ष में 22 बार उनका तबादला किया गया। 1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए।
कृतियाँ
ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है।
इन का देहावसान 24 अप्रैल 1974 को चेन्नई में हुआ ।
सम्मान के साथ रचना भी : -
आग
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आग सीने में है,
बताओ कौन वतन को घूर रहा है,
नियंत्रित ही रहने दो,
ये ज्वालामुखी मां भारती के,
सिरमौर के खातिर पनप रहा है,
ठंडी न पड़े देशभक्ति की आग,
इसे सुलगाए रखना,
सैनिकों का जयगान करके ,
इसे तुम हमेशा जीवित रखना,
सरहदों पर पहरा निगाहों का लगा दो,
तुम अपनी धमनियों में,
आग ऐसी अब लगा लो,
जलता है दुश्मन का कलेजा,
तो भले ही जल जाने दो,
पर आंख उठे भारत माता पर,
उसके इरादे भांपकर,
उसको आग में झोंक दो,
तुम इस वतनपरस्ती की चिंगारी को,
बस आग हो जाने दो,
आग बन दुश्मन पर,
सही वक्त पर बरस जाने दो।
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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आग
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धधक रहा है देश हमारा,
आग लगी है सीने में।
किसने दी हक नामर्दों को,
दाग लगा अंधेरे में।
नोचीं जा रही हैं बेटियाँ,
चौक और चौराहे पर।
बहुत हो गया कैंडल मार्च,
लटकाओ उन्हें फाँसी पर।
यह आग जलती ही रहेगी,
क़सम यही है हम सबकी।
अबला मत समझो हम सबको,
मत समझो यह सिर्फ़ धमकी।
सख्त कानून बनाकर आओ,
क्रांति का बिगुल बजाओ।
बेटियाँ हो हर जगह सुरक्षित,
ऐसा उन्हें हक़ दिलाओ।
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
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आग
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हां मैं आग हूं..
निर्विकार निर्लिप्त
शुचिता ही मेरा धर्म
मेरी कोई जाति नहीं
मेरा कोई धर्म नहीं
मैं किसी बंधन में नहीं
कोई ऊंच-नीच का भेद नहीं
ना मैं गरीब में ना अमीर में
चूल्हे में अग्नि से पकते भोजन
मानव की क्षुधा तृप्त होती
यज्ञ कुंड में हवन आहुति से
वायुमंडल में देवता तृप्त होते
मंदिर में दिया जलता है
श्मशान में पार्थिव शरीर
शिव की भभूति बना देती
क्षण में समूचे जंगल को
श्मशान में बना देती
क्षण में अपने गुण धर्म से
भूखे के पेट में रोटी देती
छोटा सा नाम है मेरा
बड़े-बड़े काम में कर जाती
हां मैं आग हूं
ना कोई रुप ना कोई रंग
सभी भेदों को मैं मिटा देती
ताप ही मेरा गुण धर्म
अल्प मध्यम तीव्र
विकराल रूप धारण कर
कितने घर संसार जला देती
फिर भी मैं मेरा वर्चस्व
आदि से अंत तक
हां मैं आग हूं...!!!
- आरती तिवारी सनत
दिल्ली
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आग
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दिवाकर की तपिश किरणें
मुझे झुलसाती रही
धोखा दिया तूने मुझे
मैं प्रेम में जलती रही
जलती रही तपति अगन में
मैं कुंवारी कली
डरावनी थी विभावरी
फिर भी मैं अकेली रही !
मेघ का स्पर्श ले
दामिनी मचलने लगी
जानती थी आग है
प्रेम तुम्हें मैं करने लगी !
देख प्रेम पल्लवित मौसम में
आग और पानी का संगम
नयनों से अश्रु की धारा
बरखा बन बरसने लगी !
चंदा की चांदनी बन बैठी हूं
तारों संग रात बिताती हूं
भोर पुनः रवि के प्रचंड
आग में तपकर
प्रेम का शीतल लेप लगती हूं!
आग में जलकर प्रेम मेरा
भूख की भाषा कहता है
बुझा न पाता पेट की आग
तन की अग्नि में जलता है !
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
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जोश की आग
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भावनाओं को परे रख
सत्य निष्ठा भूलकर ।
चल रहा क्यों भटकते ही
द्वेष झूला झूलकर ।।
प्रकृति सुंदर सत मनोरम
दृश्य दुर्लभ मोहनी ।
बह रही नदिया सतत से
करे संगम सोहनी ।।
ताप सहते लोग फिर भी
भूलते न राग को ।
गुनगुनाते मस्त होकर
फागुनी के फाग को ।।
जोश की ज्वाला जलेगी
आग बुझने पाए न ।
कर सके हिम्मत अगर तो
व्यर्थ जीवन जाए न ।।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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ईर्ष्या की आग
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चारों ओर खड़ी दिखती मंथरा,
कैसे दें चहारदीवारी पे पहरा।
कमजोरियों का फायदा उठा,
न जाने कौन दे आपस में लड़ा।
घर की चिंगारी से ही आग लगा,
पड़ोसी तमाशबीन बन लेते मजा।
आपसी गृह-कलह से टूटता घर,
मंथरा घर में बैठ देती आग लगा।
आग लगाने वालों को चैन कहां?
टूटे घर कमजोर रिश्ते दिखे जहां?
शक की बीज से दे देते हैं वे चिंगारी,
अपने ही लगाते आग जहां देखो वहां।
आपसी सोच बूझ से ही चलता घर,
दखल अंदाजी से है टूट जाता घर।
आग लगाने वाले बैठे रिश्तेदार बन,
आंख मूंद न कर विश्वास किसी पर।
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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अग्न
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अग्न के बिना यह संसार सारा सब सूना।
सकल जग का नहीं इसके बिना है जीना।।
भास्कर इसी की रोशनी से बना है हुताशन।
जठराग्नि की संतुलित मात्रा करती है पाचन।।
मंदाग्नि बढायें वात कफ दे सीने में जलन।
सैर-सपाटा नियमित से बढे शरीर का तपन।।
तेल के दीपक में कराये सबसे भगवन पूजन।
गलती से चिंगारी कहीं पडे हो जाये सब दहन।। खुशी से जले तो सब जगमग हो जाये भवन।
नतमस्तक हो के पाये इसका रुप पवित्र पावन।
- हीरा सिंह कौशल
मंडी - हिमाचल प्रदेश
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आग
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कहीं
अमन में आग
लगी है
तो कहीं
चमन में
आग लगी है
कहीं धरा पर
अाग लगी है
तो कहीं
गगन में
आग लगी है
कहीं दुनिया में
आग लगी है
तो कहीं
वतन में
आग लगी है
कहीं तन में
आग लगी है
तो कहीं मन में
आग लगी है
तो,आओ,हम
आग और
भड़काने की जगह
बुझाएं
अपना फर्ज़
निभाएं।
--प्रो.शरद नारायण खरे
मंडला - मध्यप्रदेश
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आग
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यह आग ही तो है अंदर सबके
जो बुझी हुयी सी,
फिर भी धधकती रहती है अंदर,
फिर भी,
विद्यार्थी को बढ़ाती है,
विद्या के चरम शिखर तक,
व्यवसायी को प्रेरित करती है,
व्यवसाय की तरक्की हेतु,
नौकरी पेशा वर्ग के अंदर जगाती है,
कर्मण्यता बोध,,
अपने-अपने कर्म क्षेत्र के प्रति,
महिला के अंदर जगाती साहस और विश्वास, सैनिक में जगाती है मनोबल
और तरंगे देशभक्ति की,
वृद्धों में जगाती है आस,
कि जीवन के प्रति सकारात्मक बनें,
आशावादी बने और
यही आग संपूर्ण प्रकृति में,
जड़ में, चेतन में,
समग्रता लाती है, पूर्णता लाती है।
- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
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आग लगाती कविता
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आशा किरण दिखाती कविता,
मुझको मुझ तक लाती कविता।
दर्द की चिंगारी से पीड़ित होकर,
कभी आग लगाती है मेरी कविता।
कवि हृदय में लगन कविता की,
अन्याय की वेदना से जगती होगी।
दर्द की चिंगारियां निकलती हैं जब,
तो जरूर आग भी लगती होगी।।
यह आग कभी स्वयं को जलाती है,
कविता बनकर कोड़े बरसाती है।
झकझोरती है अन्तर्मन को मेरे,
दिखाती है मन के मैलेपन को मेरे।
जीवन की राह इसकी पंक्तियों में,
मानव की चाह इसकी पंक्तियों में।
सद्मार्ग दिखाती है मुझको कविता,
कभी आग लगाती है मेरी कविता।।
विसंगतियों पर प्रहार करे कभी,
मानव के छल पर वार करे कभी।
समुन्दर की लहरों सी मचलती है,
दिनकर की किरणों सी बिखरती है।
आग का लावा बनते शब्द कभी,
शीतल पवन से चलते शब्द कभी।
यज्ञ आहुति सी पावन है मेरी कविता,
कभी आग लगाती है मेरी कविता।।
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
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आग
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आग
कहां की
तन की
मन की
जंगल की
समुद्र की
कहां की
महत्वपूर्ण
जलने न दिया जाए
भड़कने न
दिया जाए।
कभी-कभी राजनीति की
स्वार्थ की
पदलोलुपता की
पर यह शिष्टाचार का
सफर भ्रष्टाचार तक ही
इसीलिए
गम्भीर नही
गम्भीर तो है
पेट की भूख की
जो क्या न करा दे
आदमी को
गद्दार बना दे
इसीलिए चिन्ता से
चिंतन सबसे हो
पेट की आग का
भूख का
उसके इलाज का
बाकी तो
जलती भी रहेंगी
बुझती भी
पर
सबसे पहले
बुझना जरूरी है
पेट की आग का
भूख का
जी हां भूख का ।
- शशांक मिश्र भारती
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
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आग
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आग
अच्छे-बुरे
अमीर-गरीब
दुखी-सुखी
सबको अपने
गले से लगाया करती है
नहीं करती वह
किसी तरह का
भेदभाव किसी से,
सीखना चाहिए इंसान को भी
तभी निभा सकता है
वह मानवता का धर्म
आग की तरह।
- डॉ भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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आग
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एक आग चूल्हे की
जिस पर पकते हैं दाल,चावल
जिस पर सेकी जाती है रोटी।
एक आग भावावेश की
जो बिगाड़ और बना देती है चुनाव
जिसके सहारे बिछती राजनीतिक गोटी।।
एक आग पेट की
जिसको बुझाते हुए मानव,
हो जाता है लाचार, हो जाता है मजबूर।
इस पेट की आग को
बुझाते बुझाते चुके जाता जीवन
लेकिन यह नहीं बुझती हुजूर।।
एक आग शरीर की
जो इंसान को बना देती हैवान
कर देती कामांध,बनाती दुष्चरित्र।
एक आग होती यज्ञ की
जो कर देती वातावरण शुद्ध
मन, बुद्धि निर्मल,और पवित्र।।
इससे ही होता
जन जन का कल्याण,तो श्रीमान,
नियमित करिए यज्ञ-हवन।।
जलाए रखिए यह आग,
यह अग्नि करती है निरोगी,
सुखी,हर मानव का जीवन।।
- डॉ. अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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आग
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आग के होते भिन्न भिन्न रंग
जीवन में रहते सदा ये संग
घर के चूल्हे में जब जलती आग
खुशियाँ गाती भिन्न भिन्न राग
रिशतों में जब लगती आग
कर देती प्यार मुहब्बत राख
आग दोस्ती में डाले दरार
भूल जाते किए सब इकरार
जंगल की आग बहुत डरावनी होती
बेजुबानों की मृत्यु अपने साथ लाती
भेद भाव की आग दंगे फैलाती
समाज का डरावना सरूप लाती
पेट की आग खून के आंसू रुलाये
मानव मेहनत की चक्की चलाये
क्रोध की आग सब कुछ जला देती
पलक झपकते घर राख बना देती
आग के होते भिन्न भिन्न रंग
जीवन में रहते सदा ये संग
- कैलाश ठाकुर
नंगल टाउनशिप - पंजाब
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आग
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है आग लगी चहुँ दिशि -दिशि में
है कौन जो आग बुझाता चले l
चेहरे पर चेहरा लगाकर है
खुद को ही धोखा देते चले ll
किस- किस का धर्म बदलते हो
इंसा को इंसा रहने दो
हम सबसे मिल भारत है बना
भारत को भारत रहने दो ll
बलात्कार की आग लगी
बेटी भी तुम्हारी सिसकती है l
राह चलती रही जो बेटी है
जिम्मेदारी हम सब की है ll
सामाजिक कुरीति को तोड़ो
घूंघट, दहेज को दूर करो l
दिखावा,आडंबर है हटा
शिक्षा -संस्कार प्रदान करो ll
है आग लगी भ्रूण हत्या की
न चूड़ी की खन खन- होगी l
वंशज तुम कैसे पाओगे
न पायल की रुनझुन होगी ll
घूसखोर, प्रतिशोध के दरिया में
व्यंग की हैं तलवारें चली l
आतंकी आतंक फैलायें
क्रांति की ज्वाला धधक उठी ll
बढ़वानल की ये आग नहीं
दावानल की ये आग नहीं l
जठराग्नि विरहानल है बनी
जग में है आज ठनाठनी ll
रग -रग क्रोधानल भड़क उठा
सोने की लंका भस्म हुई l
ईर्ष्या, द्वेष की आग लगी
होलिका भी जलकर राख हुई ll
- डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
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आग
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जलाकर दुर्गुणों को जो सम्पूर्ण निखारती है
ये पवित्र तत्व ही तो अग्नि कहलाती है
सूर्य औ चंद्रमा के स्वरूप में उतारे आरती है
ये पवित्र तत्व ही तो अग्नि कहलाती है।
धरती फिरे है संबंधों पर
प्रेम की ऊष्मा उसे फिराए
शरीर, मन हो या आत्मा
अग्नि ही तो उसे चलाए
माता के स्नेह की ही ऊष्मा बालक को दुलारती है
ये पवित्र तत्व ही तो अग्नि कहलाती है।
आग बाहर है,आग ही अंदर
जीवसृष्टि का ये खेल है
अग्नि, जल, वायु, धरती, आकाश
पंचतत्व का ये मेल है
प्रेम की शक्ति से जन्म हुआ, यही हमें चलाती है
ये पवित्र तत्व ही तो अग्नि कहलाती है।
जलाकर दुर्गुणों को जो सम्पूर्ण निखारती है
ये पवित्र तत्व ही तो अग्नि कहलाती है।
- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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आग जलाओ
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आग जलाओ आग जलाओ
ठंड को मिलकर दूर भगाओ
सर्दी में ठंड बड़ी डराती
कान, नाक और जम जाए छाती
जलाकर आग गर्मी लाओ
आओ दोस्तो आग जलाओ ।।
पंचतत्व का परचम लहराओ
बनकर ज्वाला लपटें बिखराओ
बनाकर भस्म धूणी रमाओ
जलकर खुद जग को जगाओ
आगे बुराई के सिर ना झुकाओ
मिटाकर बुराइयां रोशनी लाओ
आओ दोस्तो आग जलाओ
आग जलाओ आग जलाओ ।।
- मोनिका सिंह
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
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आग
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वानर जिसको कह रहे,
रावण देखे ज्यों हो नाग,
बड़ा हँसा तब रावण भी,
लगाई पूंछ में जब आग।
श्रीराम बोल के हनुमत,
दौड़ दौड़ लंका जलाय,
रावण का दर्द बढ़ गया ,
कोई नहीं रहा बचाय।
धू-धू होकर जली लंका,
सोने की लंका हुई काली,
रावण भिक्षुक आज बना,
समझा था खुद को माली।
पल में लंका,भस्म हो गई
त्राहि त्राहि करे जन आज,
त्रिलोक विजेता मानते थे,
खुला आज ताकत का राज।
कलंक लगा लंका को तो,
सुन सुनकर लोग हंसते हैं,
परंतु जब लंका जली थी,
रावण को नाग डस रहे थे।
पूंछ की ऐसी आग लगी,
लंका पल में जला डाली,
आग समक्ष सब शून्य हो,
आग से चीज बनती काली।
- होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ - हरियाणा
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अग्नि पथ
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मै जानती हूं कि जला के रख देगी ये आग मुझे
फिर भी जलती हूं इस धधक्ती आग की ज्वाला में
दुनिया मुझे सताती है इस क़दर कि खुद को झोंकना पड़ता है इस क्रोध के दहकते धधकते लावा में
क्यों आज भी हम आजाद नहीं अपने फैसले लेने को
क्यों हमे आज भी पीछे ही रखा जाता हैं
मां बाप के घर में अस्मिता की चिन्ता तो सासरे में अस्तित्व का हवाला दिया जाता है
क्या कह रही आज ये दुनिया की बेटियां स्वतंत्र जिन्दगी जी रहीं हैं
जरा सर्वेक्षण तो करो आज भी वो वैसे ही जिन्दगी जी रही है
लङकी जब तक कुंवारी है तब तक फिर भी स्वतंत्र जिन्दगी जी ही लेती है
बाद शादी के तो बलि की बकरी बन अपने अरमानों की बलि ही देती रहती है
पति से यदि आगे निकल जाएं तो पति का अहम घायल हो जाता है
और फिर बेटे को संतुष्ट करने बहु से ही सनम्झौत कराया जाता है
ससुराल में तो जैसे हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं होता
घर में सास का और कमरे में सिर्फ पति का ही राज होता
वो जैसा कहे वैसा करो अपने मन की कुछ ना कहो
गर कह दी मन की तो बस चार बात उसकी भी सुनो
खाना पीना सोना बाहर जाना पिक्चर बाजार सब
पति ही तय करता
कैसे जिए कोई क्या करे जब किसी को कोई फर्क हि नहि पड़ता
क्या बिगाड़ा था औरत जात ने हे ईश्वर दुनिया में आखिर तुम्हारा
क्यों नीचे गिराया मर्दों की दुनिया में तुमने आखिर वजूद हमारा
हम अपने मन की कुछ कर नहीं सकते परबस जिन्दगी जीते रहते
कुछ ने जिन्दगी सुकून से जी ली तो क्या सारी नारियो को सूखी समझते
नब्बे फीसदी महिलाएं आज भी घुट घुट कर जीवन जी ही रही हैं
पुरुषो के संग घर की महिलाएं भी उन पर अत्याचार कर ही रहीं हैं
आदिकाल के नियम आज भी बहुतायत में निभाए जा हाय रहे हैं हैं
पर्दा प्रथा, सती प्रथा बालविवाह जैसे कृत्य आज भी
कराए जा रहे हैं
तो फिर क्यों ना जले महिलाएं क्रोध के इस धधकते अग्नि कुण्ड में
चलते रहेंगे निरंतर इस अग्निपथ पर सदा सबका साथ ले झुंड में
शुभा शुक्ला निशा
रायपुर - छत्तीसगढ़
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आग
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आजकल
अधिकतर लोग
जल रहे है
और जला रही
है उन्हें ईर्ष्या
की आग
यह अधिक
कष्ट देती है
आग से भी क्योकि
जलने वाला
न तो मरता है
न ही ठीक से जी
पाता है
सब कुछ होते हुए
भाग्य को कोसता है
खुद को भी
रहता है अशान्त
अकारण ही
चाहता है
अहित दूसरों का
नही कर पाता
सदुपयोग
अपनी क्षमताओं का
अपने हित के लिए
नष्ट करता है
अपनी ऊर्जा
बेकार मे ही दिन रात
नही समझता
कि उसके दुख
और अवनति का
कारण
है उसकी यही
मानसिकता
ईर्ष्यालु स्वभाव
- डा. प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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आग
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आग पानी में समायी , आग है आकाश में ।
आग है हर पेट में और , आग है हर सांस में ।।
अरणी मंथन अग्नि दे , अग्नि धरा के गर्भ में ।
आग सी लपटें चलाती , हवायें भी ग्रीष्म में ।।
आग भी वाणी उगलती , यह जल रहा संसार है ।
आग से भी आग को , देखो तो कितना प्यार है ।।
आग भी दिल में लगी है , देख कोई दिल जला है ।
आज भी देखो जगत में , नर गर्म मिजाज मिला है ।।
आग लगा कर कुआ खोदना , ये सुनो अच्छा नही है ।
आग से अब खेलना न क्यों कि तू रहा बच्चा नही है ।।
आग का दरिया यहाँ है और , डूब कर जाना पड़ेगा ।
कर्म सुन्दर कर हमेशा , नही तो यह जमाना लड़ेगा ।।
- राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी - उत्तर प्रदेश
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आदरणीय बीजेंन्द्र जैमिनी सर और अकादमी के समस्त आदरणीय जनों को हमें सम्मानित करने हेतु हृदय तल से आभार 🙏🌹🙏
ReplyDeleteआदरणीय बहुत बहुत आभारी जी l मंच को नमन l इस सम्मान के लिए पूरी टीम ने चुना, बहुत शुभकामनायें l 🌹🌹🙏🙏
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