क्या मित्र और शत्रु में समदृष्टि रखना उचित है ?

मित्र और शत्रु में हमेशा अन्तर देखा जाता है । भगवान श्री कृष्ण भी महाभारत में शुत्र को सजा देते हुए नज़र आये है ।  फिर शुत्र और मित्र एक साथ कैसे देखा जा सकता है ? यहीं कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
     इस प्रश्न के उत्तर में, मैं कहूंगा  'हां' लेकिन फिर दूसरा प्रश्न होगा कि क्या ऐसा संभव है। मैं कहूंगा- 'नहीं ।'  सामान्य व्यक्ति के लिए ऐसी दृष्टि रख पाना संभव नहीं है। हमारी दुनिया में ऐसे महापुरुष कहां होते हैं जो बुद्ध ,महावीर,ईसा या उनके समकक्ष सोच या दृष्टिकोण रखते हो। यह दुनिया सामान्य सोच-विचार के  व्यक्तियों से भरी हुई है जहां मित्र और शत्रु में समदृष्टि रख पाना बिल्कुल ही संभव नहीं है। हम मित्र के प्रति पूरी तरह मित्रता का भाव ही रखलें यही बहुत बड़ी बात होगी।  मित्र और शत्रु में समदृष्टि रखना सैद्धान्तिक रूप में अच्छी लगती है  लेकिन व्यावहारिक रूप में बिल्कुल ही संभव नहीं है ।यह दुनिया आज सिद्धांत बाली बातों पर नहीं चलती है; व्यावहारिक बातों पर चलती है । मेरा मानना यही है कि सामान्य व्यक्ति को उचित दृष्टि  ही रखना चाहिए ताकि वह हिंसा और गलत कार्यों से बचा रहे। यही उसके लिए उपयुक्त होगा ।
-  डॉ अरविंद श्रीवास्तव 'असीम'
दतिया - मध्यप्रदेश
शत्रु वह जो हमारी मान ,प्रतिष्ठा, इज्जत ,अहम , को ठेस पहुंचाए। हमारे दुखों का कारण बने , या दुख पहुंचाने की कोशिश करें । कई बार इस शत्रु मित्र की भूमिका भी निभा जाते हैं, फिर भी शत्रु शंका के घेरे में ही रहता है। सच्चा  मित्र हमारा हितेषी होता है। सुख दुख का साथी होता है। बुरे समय में हमारा साथ देता है। अचानक मुसीबत पड़ने पर सब कुछ छोड़कर हमारी मदद करता है । उसे हम सच्चा मित्र कहते हैं। मानव जीवन में मित्रता अनमोल होती है। मित्र हमारे जीवन के अच्छे बुरे हर पहलू से अवगत होते हैं । सच्चे मित्र हमें सफलता की ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। वही  धोखेबाज मित्र शत्रु से भी ज्यादा घातक सिद्ध होते हैं। ऐसे मित्र आस्तीन के सांप होते हैं । जो मित्रता का आवरण ओढ़े हुए भीतर शत्रुता का भाव रखते हैं। शत्रु के बारे में हमें पता है कि वह हमारा शत्रु है लेकिन मित्र के भीतर शत्रुता का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है। 
 शत्रुता का भाव अपने आप में विकृत भाव है जिसे बढ़ाकर शत्रु पर विजय प्राप्त करना मानवीयता का परिचायक नहीं है। ऐसे काम करने चाहिए कि शत्रु भी मित्र बन जाए ।मित्र शत्रु के प्रति समभाव कोई बुरी बात नहीं है। 
- शीला सिंह 
बिलासपुर -  हिमाचल प्रदेश
समदृष्टि तो वहीं से,उसी क्षण से नहीं रहती, जहां से किसी को शत्रु या मित्र मान लिया जाता है,तो फिर समदृष्टि कैसे रहेगी।हो ही नहीं सकती।जब संसार में एक मां बाप भी अपनी संतानों के प्रति समदृष्टि भाव न रखते हो तो मित्रो और शत्रु में समदृष्टि की बात करना ही बेमानी है। ऐसा न हुआ न होगा कभी।जब समुद्र मंथन से निकले अमृत के बंटवारे में भगवान समदृष्टि न रह सके तो सामान्य जन और वो भी इस युग में शत्रु-मित्र में समदृष्टि रखें यह दिवास्वप्न ही होगा।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
 धामपुर - उत्तर प्रदेश
 हमारे पूर्वज में ज्ञानी लोगों ने
 कहां है कि मित्र और शत्रु में
समदृष्टि रखना उचित है जो मनुष्य ज्ञानी होता है वह शत्रु और मित्र दोनों उनके लिए समान होते हैं कोई भी व्यक्ति अपराधी या गलती करता है तो अज्ञानता वास करता है जानबूझकर नहीं करता अगर जो शत्रु है उन्हें अज्ञानता से ज्ञान का बोध करा देने से वह ज्ञानी बन सकता है और कभी शत्रु का लाता था वह मित्र बनकर औरों को भी ज्ञान का प्रेरणा दे सकता है। इसका उदाहरण रामचंद्र जी इसी सिद्धांत के अनुसार अपने वस्त्र को रावण को कफ़न के रूप में मनाया था
 और उन्होंने उनकी आत्मा की सद्गति के लिए प्रार्थना करते हुए प्रणाम किया था इससे यही सिद्ध होता है कि जो ज्ञानी होते हैं उनके कोई दुश्मन नहीं होते हैं और जिसे हम दुश्मन मानते हैं उसके अंदर अज्ञानता होता है उन्हें ज्ञान का बोध हो जाए तो वहां वे अभाव त्याग कर मैत्री भाव स्वीकार कर अन्य लोगों के  लिए प्रेरणा बन जाता है अतः यही कहते बनता है कि मित्र और शत्रु में सब दृष्टि रखना उचित है।
क्योंकि सभी मनुष्य मैत्री भाव से जीना चाहते हैं शत्रु भाव से नही। 
इसीलिए मित्र और शत्रु में सम दृष्टि रखना उचित है।
-  उर्मिला सिदार
 रायगढ़ - छत्तीसगढ़
मित्र और शत्रु हमारे व्यवहार और आचरण के अनुसार बनते हैं।  अच्छा व्यवहार मित्र बनाने में और खराब व्यवहार शत्रु बनाने में भूमिका निभाता है। हम अपना व्यवहार और आचरण उत्तम रखें। समदृष्टि भी हमारे व्यवहार और आचरण को दर्शाती है। बेहतर होगा हम दोनों में समदृष्टि रखें। किन्तु यदि देश की आंतरिक या बाहरी सुरक्षा को कोई शत्रु नुकसान पहुंचाने का प्रयास करता है तो समदृष्टि नहीं रखी जा सकती।
- सुदर्शन खन्ना 
दिल्ली
मित्र और शत्रु में कभी भी समदृष्टि नहीं रखना चाहिए, क्योंकि एक बार किसी मित्र से शत्रुता हो गई तो फिर वह आपके साथ कभी भी घात कर सकता है। आचार्य कहते हैं कि ऐसे मित्रों की मित्रता रखना शत्रु से बढ़कर होता है इसलिए ऐसे लोगों से दोस्ती रखने से बचना चाहिए। आचार्य चाणक्य की नीतियों के अनुसार ऐसे लोग कभी भी धोखा नहीं देते हैं जो निस्वार्थ भाव से आपके साथ खड़े रहते हैं। आज के समय में हर किसी के जीवन में बहुत से मित्र तो होते ही हैं लेकिन दोस्त होने के साथ-साथ हर किसी के जीवन में शत्रु की कमी नहीं होती है। यह शत्रु कई बार आपके दोस्तों के बीच में आपके साथ रहकर आप को ही नुकसान पहुंचा सकते हैं। जैसे कि सही मित्र आपको सदैव सही राह दिखलाता है। ठीक वैसे ही आपका शत्रु आपको हमेशा गलत रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करता है। यहां हम बात करेंगे नीति के सबसे बड़े जानकार आचार्य के बारे में जिन्होंने शत्रु और मित्र को लेकर बहुत सी नीतियों के बारे में लोगों को अवगत कराया है। मित्र और शत्रु को पहचानने के लिए कुछ बातों के बारे में उन्होंने बताया है जिनसे हम आपको आज रूबरू करवाने जा रहे हैं। हर किसी को कामयाब होने के लिए दोस्तों की जरूरत होती है लेकिन ज्यादा कामयाबी के लिए शत्रु की जरूरत होती है। चाणक्य का कहना है कि अपने शत्रु को पहचानने के लिए उसे अपना मित्र ही बनाए रखें और फिर उसके बारे में पता करवाएं। कहते हैं जो लोग दुष्ट स्वभाव के होते हैं उनसे मित्रता रखना बहुत खतरनाक होता है। इससे अच्छा तो आप किसी शत्रु से ही मित्रता रखें।।चाणक्य के अनुसार दृष्टि रखने वाले और बुरे स्थान पर आने वाले व्यक्ति से भूल कर भी ।मित्रता नहीं करनी चाहिए
।दुनिया में अपनी शालीनता के लिए चंदन जाना जाता है लेकिन उसी चंदन के बीच पर विषैले सर्प रहते हैं। ठीक उसी तरह बाहर से बहुत मीठा बोलने वाला व्यक्ति सही साबित हो जरूरी नहीं होता है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
हर किसी के साथ समदृष्टि रखना उचित है। चाहे वो मित्र हो या शत्रु। पर ऐसा होता नहीं है और हो वही नहीं सकता। क्योंकि ऐसा करने पर जो मित्र है उसके अन्दर एक विक्षोभ पैदा हो सकता है कि मैं उसके साथ अच्छाई करता हूँ तो भी वह मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसा अपने शत्रु के साथ करता है। दूसरी तरफ शत्रु का भी कभी मन बदल सकता है कि मैं उसके साथ इतनी शत्रुता करता हूँ फिर भी वह मेरे प्रति अच्छा व्यवहार करता है। तो मैं भी उसके साथ अब अच्छा व्यवहार करूँ। तो शत्रुता मिट भी सकती है। लेकिन व्यवहारिक जीवन में ये शायद ही सम्भव हो। क्योंकि जो ऐसा कर सकता है वो महामानव या देवी देवता ही हो सकता है। आज दुनिया जैसे को तैसे की पद्धति पर चलने वाली है। शत्रु और मित्र में समदृष्टि रखने पर शत्रु समझेगा कि वो हम से डर कर ऐसा कर रहा है। आपके समदृष्टि के भाव को नहीं समझ पायेगा और आपको परेशान ही करता रहेगा। आज के जमाने में ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं है। साधारण मनुष्य तो ऐसा कर ही नहीं पायेगा।कोई-कोई विरले ही होंगे जो ऐसा कर पायेंगे।
- दिनेश चन्द्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं.बंगाल
मित्र और शत्रु हमारे खुद के व्यवहार से बनते हैं। मित्र कभी भी नुकसान नहीं पहुँचा सकता है, जबकि शत्रु केवल हानि पहुँचाने के लिए दोस्ती करते हैं।
  शत्रु के साथ थोड़ी सावधानी की जरूरत तो पड़ती है। उसकी हर गतिविधि पर ध्यान रखना चाहिए । जिससे गलत इरादे कामयाब न हो सकें। साथ ही अपने प्रेम का उसके सामने इजहार भी जरूरी है। दिल खोलने से प्रेम बढ़ता है। उम्मीद जगती है कि विश्व में प्रेम करने वालों की संख्या बढ़ेगी।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
       मित्र और शत्रु के शब्दों का उच्चारण करते ही मन में उत्पन्न मनोभावों का दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न हो जाता है। क्योंकि मित्र शब्द के उच्चारण से मानसिक शक्ति और संतुष्टि के साथ-साथ सौहार्द प्राप्त होता है। जबकि शत्रु शब्द साम्प्रदायिक तनाव, घृणा और युद्ध के भावों को जन्म देता है। इसलिए मित्र और शत्रु में समदृष्टि रखना कदापि उचित नहीं है।
       उल्लेखनीय है कि महाविद्वान चाणक्य नीति भी कहती है कि मित्रता की नींव विश्वास और समर्पण पर टिकी होती है। इसलिए कभी भी ऐसी बात नहीं होना चाहिए जो मित्रता के पवित्र एवं सशक्त रिश्ते को अशक्त अर्थात दुर्बल करे। क्योंकि सच्चा मित्र किसी बहुमूल्य रत्न से कम नहीं होता। यहां तक कि व्यक्ति के जीवन की सफलताओं और असफलताओं में मित्रों का बहुत बड़ा योगदान होता है। परम सत्य यह है कि सत्यम शिवम सुंदरम की भांति मित्रों की मित्रता की भूमिका अत्यंत उल्लेखनीय और सराहनीय होती है।
       इसलिए मेरा मानना है कि यदि मित्र स्वार्थ की दुर्भावना से ग्रस्त हों तो उनसे दूरी बनाएं। चूंकि उनकी मित्रता के होते हुए "शत्रुओं" की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। बल्कि मेरी मान्यता तो यह है कि उक्त मित्र द्वारा की गई शत्रुता "शत्रु" से कहीं अधिक घातक होती है 
       इसलिए शत्रुओं से अधिक मित्रों से मित्रता बनाते समय सावधानियों की आवश्यकता पर बल देना चाहिए और ठोक बजाकर व्यक्ति को मित्र बनाना चाहिए। परंतु मित्र मान लेने के उपरांत "मित्र और शत्रु" में समदृष्टि रखना न्याय उचित नहीं है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
मानवता के दृष्टिकोण  से तो मित्र और शत्रु पर सम दृष्टि रखना उचित है ,किंतु व्यावहारिक रूप से सम दृष्टि रखने के बावजूद भी शत्रु के साथ सावधानी रखना अत्यावश्यक है। पता नहीं वह कब कौन सा कदम उठा ले यह बात हमेशा मनोमस्तिष्क में रहना चाहिए।हर  शत्रु राजा पोरस और सिकंदर की तरह समझदार एवं व्यवहारिक नहीं होता। बहुतेरे शत्रु मोहम्मद गोरी की तरह भी होते हैं। ऐसे चालबाज शत्रुओं पर सम दृष्टि से अधिक सावधानी की जरूरत होती है। पाकिस्तान और चाइना भी इसके उदाहरण हैं। मानवीय दृष्टिकोण से भारत हमेशा ही उनके प्रति सौहार्द पूर्ण रवैया अपनाता रहा है किंतु दोनों ने ही हमेशा पीठ पर छुरा भोंका है। मेरे ख्याल से सम दृष्टि से अधिक सावधानी पूर्ण दृष्टि रखना अधिक अच्छा है। आज के बदलते माहौल में भी पांचों इंद्रियों को जागृत रखना अति आवश्यक है। जरूरत से अधिक सम दृष्टि न रखी जाए।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम" 
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
मित्र और शत्रु के लिए चाह कर भी इंसान सम दृष्टि नहीं रख पाता क्योंकि मित्र वे होते हैं जो सदा आपका भला चाहते हैं, उनके हृदय में आपके लिए बुरा भाव नहीं होता। जबकि शत्रु कभी हमारा भला नहीं चाहता।
कुछ मित्र के रुप में अपने बन कर भी शत्रुता निभाते हैं। जिनके हृदय में अंदरूनी छल कपट और ईर्ष्या भाव हो, समय बेसमय  ताना मारते हुए आपके हृदय को दुखी करते हैं वह भी शत्रु के समान ही होते हैं। ऐसे लोगों के लिए इंसान चाह कर भी सम दृष्टि नहीं रख पाता और रखना भी नहीं चाहिए। बुरे विचार वाले, शत्रु भाव रखने वाले इंसान से हमेशा सतर्क और सावधान रहें।
    अपनी तरफ से कभी किसी के लिए बुरा सोचना ठीक नहीं पर जो शत्रु भाव निभाने पर अडिग हो वैसे इंसान बहुत ही खतरनाक होते हैं। कब किस कदम पर आपको डस ले कोई भरोसा नहीं। वह हर कदम पर आप को नीचा दिखाने की ताक में ही रहता है।
 अतः ऐसे लोगों से सामना होने पर हमेशा सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है। मैंने अपने जीवन में झेला है-- दुष्ट प्रवृत्ति वाले को कितनी बार भी माफ कर दो वे अपनी दुष्टता से बाज नहीं आते। 
                        -  सुनीता रानी राठौर 
                        ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
मित्र और शत्रु दो विपरीतार्थक शब्द है । दोनों के साथ व्यावहारिक दृष्टिकोण में हमें समता रखनी चाहिए , क्योंकि शत्रु के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करना अच्छी मानसिकता नहीं है ।  लेकिन ये आम व्यवहार में ऐसा नहीं होता है ।
यदि एक अच्छा व्यवहार करता भी है तो भी अक्सर प्रत्युत्तर में इसके विपरीत व्यवहार का सामना करना पड़ता है । फिर अच्छे विचारों वाले व्यक्ति अपने मानवीय गुण के कारण और अपने बचाव में शत्रु से न तो शत्रुतापूर्ण व्यवहार करता है , न ही मित्रतापूर्ण । बल्कि दूरी बना लेता है ।
मेरे विचार से शत्रु और मित्र के प्रति समदृष्टि एक साधु-संत तो रख सकता है,  किन्तु साधारण मनुष्य के लिए ये बहुत कठिन है ।
    - पूनम झा
     कोटा - राजस्थान 
 प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कुछ मित्र होते हैं और कुछ शत्रु। आज के युग में न मित्रता स्थायी है और न ही शत्रुता। आज राजनैतिक परिपेक्ष्य सब के सामने है। जो कल तक एक दूसरे के दुश्मन थे,आज मित्र हैं और मित्र शत्रु बन गये हैं। समाजिक ताने बाने में भी यही हाल है। 
        हम यह सोचते हैं कि मित्र हमें  प्रगति की ओर ले जाते हैं और शत्रु हमारी प्रगति से जलते हैं। लेकिन हमारी सोच निरपक्ष नहीं होती।अच्छी दोस्ती जहां हमारी प्रगति और ताकत की वजह बनती है वहां शत्रुता भी ज्यादा कामयाबी हासिल करने की वजह बनती है। किसी दुष्ट व्यक्ति से दोस्ती करने से अच्छी होती है शत्रु की मित्रता। एक बुद्धिमान शत्रु ,मूर्ख मित्रों से हजार गुना अच्छा है। इस लिए शत्रु के साथ भी ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि कल को जरूरत पड़े तो वो हमारा साथ दे।मनुष्य की फितरत है कि कहीं भी दो लोगों के विचारों में भिन्नता होना लाजिमी है। किसी पथ पर दोनों के विचार एक हो सकते हैं। हर एक के अपने अपने विचार होते हैं। इस लिए न तो मित्र स्थायी हैं और न ही शत्रु।सभी में  समदृष्टि रखना चाहिए 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
मित्र, मित्र होता है और यह सबसे अच्छा रिश्ता होता है क्योंकि मित्र सुख-दुख में बहुत करीब होता है.......समान भागीदार होता है । 
       मित्र और शत्रु में समदृष्टि रखी तो जा सकती है, जो उचित भी है क्योंकि यह सामंजस्य स्थापित करने का भाव है लेकिन ऐसा करने वाले  बिरले लोग ही होते हैं । ऐसा करना साधारण लोगों के बस की बात नहीं है ।                   यदि शत्रु के प्रति भी अच्छे विचार रखे जाएं तो कभी-कभी उसका सकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है, हो सकता है ऐसा करने पर शत्रु, शत्रुता भूलकर मित्रता का हाथ बढ़ाएं, यह सब व्यक्ति के स्वभाव, सूझबूझ और व्यवहार पर निर्भर करता है । वर्तमान समय में लोगों की मानसिकता को देखते हुए जो कि जरा-जरा सी बात पर शत्रुता का भाव पनप जाता है, जो आगे चलकर दोनों पक्षों के लिए घातक सिद्ध होता है, ऐसी स्थिति में कबीर जी का यह दोहा सार्थक सिद्ध होता है- 
कबीरा खड़ा बाजार में 
सबकी मांगे खैर ।
ना काहू से दोस्ती 
ना काहू से बैर ।।
       -  बसन्ती पंवार 
    जोधपुर - राजस्थान 
हमारा जीवन, सामाजिक रिश्तों में बँटे रहकर, उन्हें निभाते हुए गुजरता है। इन रिश्तों के निभाने में मान-मर्यादाओं की नैतिक सीमाएं निहित होती हैं। जिन्हें हम जितनी निष्ठा से निभाते हैं, उतने सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से सफल रहते हैं, और यही सफलता हमारे खुशहाल जीवन के लिए सहजता, सरलता और सरसता देती है। हमारे दैनिक संघर्ष सरल या कठिन होना इन्हीं रिश्तों के अनुपालन से तय होता है। मित्र हो या शत्रु, परिचित हो या अपरिचित ये हमारे जीवन से जुड़े रिश्ते ही होते हैं। समदृष्टि से समानता और समानता से निष्पक्षता का बोध होता है। यह निष्पक्षता, हमारी चारित्रिक विशेषता को प्रदर्शित करती है। याने सार यही कि मित्र और शत्रु में समदृष्टि रखना उचित है। लेकिन इसके साथ ही हमसे जुड़े ये दोनों पारस्परिक रूप से विपरीत रिश्ते हैं, अतः उनके निभाने की शैली में भिन्नता होना स्वभाविक है, जो अनुचित नहीं होगा।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
मित्र का दर्जा हमेशा उत्तम सर्वोत्तम सर्वोपरि रहा है। सम दृष्टि दोनों के प्रति रखना तो उचित है पर व्यवहारिक जीवन में उसे प्रयोग करना बहुत मुश्किल होता है।
सम दृष्टि रखने पर एक फायदा अवश्य होता है शत्रु भी धीरे-धीरे मित्र बन जाते हैं।
विचारों और कर्मों के माध्यम से ही मित्र और शत्रु का संबंध विकसित होता है जो आपका शुभचिंतक है हितैषी है स्वार्थी नहीं है आपके लिए सोचता है वह आपका मित्र है लेकिन जो आपसे ऐसा करता है आपकी शिकायत करता है निंदा करता है कहीं ना कहीं उसमें निरादर
की भावना बनी रहती है पर एक दोहा है निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय बिन साबुन पानी बिन निर्मल करे सुभाय तो आप अपने आसपास आलोचकों का भीड़ अवश्य जमा करिए पर उन से दुश्मनी नहीं रखिए क्योंकि आलोचक ही आपके व्यक्तित्व की कमी को सही तौर पर आपके समक्ष लाते हैं
सम दृष्टि लाना मुश्किल है लेकिन शत्रुता की भावना भी नहीं रखनी है बदले की भावना नहीं रखनी है इससे संबंध बिगड़ते हैं न कि बनते हैं
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
जीवन को सरसता और आसानी से जीने के लिए मित्रता आवश्यक है l मित्रता अनमोल रत्न है l मित्र हमारे सुख दुःख का साथी तथा हमारा मार्ग दर्शक होता है l
      शत्रु के व्यवहार में बदलाव लाने के लिए हमें सम दृष्टि रखनी चाहिए पर ध्यान रखें कि वह हमारे प्रति कैसा रवैया अपना रहा है l क्योंकि बदलाव में उसका रुख प्रतिकूल नहीं अनुकूल ही करना होगा l सकारात्मक चिंतन, शत्रु में सम दृष्टि रखना वास्तव में एक नई शक्ति की योजना है जिससे असंभव कार्य भी संभव हो जाते है l सच्चा मित्र' एक और एक ग्यारह 'होते हैं l सच्चा मित्र जीवन में सफलता की कुंजी है l
    हम प्रभु से प्रार्थना करें कि जो अज्ञानी है वह अज्ञान के कारण शत्रुता भाव रखते हैं, प्रभु उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करना l
   - डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
     मित्र और शत्रु एक पर्यायवाची शब्द हैं, जो एक दूसरे के पूरक हैं। जिसके कारण जनजीवन के साथ ही साथ जीवन यापन कर जीवित अवस्था में पहुँचकर  सफलता मिलती जाती हैं। जहाँ स्वार्थों के बिना कोई भी किसी भी तरह की व्यवहारिकता नहीं होनी चाहिये और दोनों में समदृष्टि रखना उचित प्रतीत होता हैं। कहा भी यह जाता हैं, कि दोस्त से बढ़कर दोस्ती नहीं और शत्रु से बढ़कर दुश्मनी नहीं?  दोस्त ही रहता जहाँ अपनी वास्तविकता को वृहद स्तर पर क्रियान्वित करने प्रभावशाली बनाकर 
नैतिकता की ओर अग्रसर करता हैं। श्रीकृष्ण और अर्जुन, श्रीकृष्ण और सुदामा, दुर्योधन और कर्ण का वह इतिहास साक्षी हैं। लेकिन आज वर्तमान परिदृश्य में साम्राज्यवादी में तो मित्र और शत्रु की पहचान करना भी मुश्किलता महसूस कर दिया हैं, इतनी कठोरता तो पूर्व शासकों की भी नहीं रही होगी।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
हम कह नहीं सकते समय और स्थिति कब पलट जाये... जो हमारे अच्छे मित्र होते हैं वही शत्रु बन जाते हैं! हमारे अपने भाई बहन भी शत्रु बन जाते हैं! जो सगे रिश्ते बचपन से एक दूसरे पर जान छिड़कते थे वे ही आज चल अचल संपत्ति के लिए शत्रु बन जाते हैं! पर वहीं हमारी दृष्टि पहले की तरह ही उपर सहज सरल और कोमल होती है! मित्र बन बुरे वक्त पर बराबर खड़ा रहता है! सच्चा मित्र बन भटकने पर सही राह दिखाता है वगैरह वगैरह....मित्र और शत्रु दोनों स्थिति में सम ही होती है! 
हां! वैसे सच्ची मित्रता में विश्वास और पारदर्शक  होनी चाहिए  उससे कोई भी बात खुलकर करनी चाहिए ! वरना अच्छे दोस्त भी गलत फहमी का शिकार हो दुश्मन बन जाते हैं! 
द्वेष, जलन, ईष्या से भी शत्रु बनते हैं ! जन्मजात दुश्मन नहीं होते हमारा स्वभाव हमे शत्रु बनाता है! शत्रु की छुपी खूबियों की उनके सम्मुख ला मित्रता करते हैं तो वह भी मित्रता का हाथ बढ़ाता है! कहते हैं न एक मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु अच्छा ! 
शत्रु और मित्र को एक तराजू में तो तौला नहीं जा सकता किंतु समय के साथ हमें दोनों को साथ लेकर ही चलना होगा! कहावत है न...."जाने उंट कब करवट बदले"...! 
     -  चंद्रिका व्यास 
       मुंबई - महाराष्ट्र
साधारण मानव के वश में तो नहीं है कि वह मित्र और शत्रु में समदृष्टि रखे। व्यवहारिक तौर पर मैं, इसे उचित भी नहीं समझता। 
मित्र और मित्रता में जो स्नेह, विश्वास और एक दूसरे के पूरक होने का भाव समाया होता है। क्या वह शत्रु अथवा शत्रुता में हो सकता है? कदापि नहीं! 
इस विषय पर बात दो व्यक्तियों की हो या दो देशों की,  समदृष्टि उचित नहीं है। 
"चीनी-हिन्दी भाई-भाई" का हश्र किसे मालूम नहीं है। 
निष्कर्षत: यदि हम मित्र और शत्रु में समदृष्टि रखेंगे तो कभी-न-कभी यह हमारे लिए हानिकारक होगा। 
इसीलिए कहता हूँ कि...... 
"जग में हो सकते नहीं, मित्र शत्रु एकसमान।
चोट मिले मनुज न कभी, जो हो इसका ध्यान।।"
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
मित्र और शत्रु दो विपरीतार्थक शब्द हैं।यह तो हम जानते ही हैं पर आजकल सुदामा सा मित्र पाना असंभव है।जो सही अर्थ में मित्र शब्द को चरितार्थ करते थे।आज तो कब मित्र शत्रु बन जाते हैं भरोसा करना मुश्किल है।
हाँ!अपने व्यवहार से शत्रु को मित्र बनाया जा सकता है।विवेक तो यही कहता है कि शत्रु और मित्र को समदृष्टि से तो नहीं पर शत्रु को कुदृष्टि से भी नहीं देखना चाहिए क्योंकि कब शत्रु मित्र बन जाए और मित्र शत्रु।कहना मुश्किल है।
वह गाना यहाँ याद आ रहा है-“दुश्मन न करें दोस्त ने जो काम किया है ,उम्र भर का ग़म हमें इनाम दिया है।”मित्र और शत्रु की पहचान करना ही मुश्किल है तो कैसी दृष्टि?
आज के दौर में यह कटु सत्य है।
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
"दोस्तों ने इस कदर सदमे उठाए जान पर, 
दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा"। 
देखा गया है कि जीवन में,  मित्र और शत्रु भी होते हैं जबकि मित्र जीवन को खुशहाल बनाते हैं और शत्रु दुखों को बढ़ाते हैं, 
लेकिन हमारी सोच इतनी बड़ी होनी चाहिए ताकि हमारा कोई भी शत्रु न रहे, 
तो आईये बात करते हैं कि क्या हमें मित्र और शत्रु से समदृष्टिता रखनी चाहिए? 
मेरा मानना है कि अगर हमें शत्रुता को कम करना है तो हमें शत्रु के साथ भी साकारात्मक व्यवहार करना चाहिए, 
अगर सोचा जाए हमारा मन ही हमारा शत्रु व मित्र है क्योंकी मन ही हमें  सही मार्ग पर ले जाता है और मन ही हमें गल्त रास्ता दिखाता है, 
मन ही पाप करबाता है मन ही  पुन्य, 
लेकिन जब शत्रु और मित्र दोनों सा़थ हों तो हमारा मन ही जिस रूप को हावी होने देगा वोही हमारा व्यवहार बन जाएगा तो इसलिए हमें चाहिए दोनों के साथ  समदृष्टि रखी जाए ताकि शत्रुता भी मित्रता में तब्दील हो सके, 
आजकल ज्यादातौर पर मित्रता और श़त्रुता दोनों ही  अस्थायी हो गए हैं, न मित्र स्थायी है न शत्रु वास्तव वहुत कम विश्वास के पात्र होते हैं, 
मित्र कब शत्रु बन जाए और शत्रु कब मित्र अक्सर देखने को मिलता है जब बात अपने स्वार्थ की आ जाती है जैसा आमतौर पर राजनीती में देखने को मिलता है कि अपने निज स्वार्थ केलिए शत्रु को गले लगाया जाता है जबकि मित्र अपने आप को ठगा सा महसूस करता है, 
आखिरकार यही कहुंगा कि व्यक्ति को  अपने आचरण और व्यवहार के कारण ही किसी को शत्रु या मित्र बनाता है इसलिए हमें अपनी सोच को वड़ा रखने की जरूरत है ताकि हमारी किसी से भी शत्रुता न रहे इसके लिए हमैं अपने मन के शत्रु को  जिसे क्रोध कहते हैं नियंत्रण में रखना होगा ब अपने मन को वश में रखकर मित्र ब शत्रु पर समदृष्टि  ही रखनी चाहिए जिससे श़त्रुता पर कावू पाया जा सकता है इसीसे हमारी सफलता का विकास भी होगा और लक्ष्य की शीघ्रता से प्राप्ति भी, 
सच कहा है, 
"दुश्मनों के साथ  मेरे दोस्त भी आजाद हैं, 
देखना है खोंचता है मुझ पे पहला तीर कौन"। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर

" मेरी दृष्टि में " कुछ आध्यात्मिक प्रवृत्ति के विद्वान मित्र और शत्रु को समदृष्टि से देखने की वकालत करते हैं । यह सिर्फ उपदेश तक सीमित है । यह कभी भी व्यावहारिक रूप से लागू नहीं हो सकता है।
- बीजेन्द्र जैमिनी

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