कर्म पर हमारा कितना नियन्त्रण होता है ?
सब से पहले कर्म , क्या होता है ? कर्म की अपनी परिभाषा होती है । हर समय सभी कर्म करते है । जब कर्म नहीं होता है । वह मौते के समान होता है । इसलिए अधिकतर कर्म पर हमारा नियन्त्रण नहीं होता है । सोते समय भी कर्म होता रहता है । ऐसे ही कर्म पर हमारा नियन्त्रण नहीं होता है । यहीं " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
कर्म पर हमारा नियंत्रण होता भी है और नही भी होता है। क्योंकि कर्म तय करता है की वो किस प्रकार का कर्म क्या कर रहा है। अच्छे कर्म करने वाले भी खुलकर कर कर्म करते है। और गलत कर्म करने वाले भी गलत कर्म करते है। कर्म का प्रतिशत तो इंसान के भाव और आचरण पर निर्धारित करता है।
- राम नारायण साहू"राज"
रायपुर - छत्तीसगढ़
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सामान्यतः हम कर्म के प्रति इतने गंभीर नहीं होते जितना कि होना चाहिए। हम सपने तो बहुत सजाते हैं ,इच्छाओं का समूह लिए रहते हैं परंतु उनको साकार और क्रियान्वयन के लिए जो महत्त्वपूर्ण और आवश्यक कार्य करना होता है, उसके लिए सच्चे मन से और पूरे मनोयोग से समर्पित नहीं हो पाते। न हम उसके लिए लगन ,रुचि और श्रद्धा से अध्ययन करते हैं, न अभ्यास। इसमें सबसे अधिक हमें जो बाधित करता है वह है हमारा आलस्य। हमारे मन का भटकाव। हमारी अस्थिरता। हमारी अनिश्चितता। हम कल से करेंगे, फिर करेंगे, अभी समय है ... ऐसी सोच बनाते हुए लापरवाह हो जाते हैं और परिणाम में पिछड़ जाते हैं और फिर शनैः-शनैः हमारी रुचि और और हमारा उस कार्य विशेष के लिए कम होने लगती है और एक समय आता है, वह समाप्त हो जाती है।
जब तक हम किसी कर्म के प्रति उत्साह पूर्वक ,सच्ची लगन, धैर्य, मेहनत और समर्पण भावना से एक ध्येय और चित्त के साथ कर्मशील नहीं होंगे। सफलता मिलना कठिन होता है। इसके विपरीत जो ऐसा करने में सफल रहते हैं, वे उनके उद्देश्य में और संबंधित कार्य में सफल भी हो जाते हैं।
सार यह है कि कर्म पर हमारा नियंत्रण 'अर्जुन की आँख' की तरह होना चाहिए। अस्तु।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
विषय व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों है गीता वेद उपनिषद तीनों में कर्म की प्रधानता बतलाई गई है
कर्म ही पूजा है कर्म के आधार पर ही पारितोषिक या परिणाम मानव जिंदगी को उपलब्ध होता है कर्म दो तरह के होते हैं एक नकारात्मक और दूसरा सकारात्मक दोनों कर्मों का फल इंसान के जीवन में किसी न किसी तरह से मिलता ही रहता है एक शब्द है प्रारब्ध जिसका अर्थ होता है आपका जीवन आपके कर्मों का परिणाम है जीवन के अंकगणित को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक वाणिज्य है कर्मों में समय का महत्व है भूतकाल वर्तमान काल और भविष्य काल इन तीनों कालों में किए गए कार्यों का परिणाम ही प्रारंभ या वाणिज्य कहलाता है
अब प्रश्न है कर्म पर हमारा कितना नियंत्रण होता है इस विषय पर व्यक्तिगत विभिन्नता है कर्म पर नियंत्रण मानव के स्वभाव पर निर्भर करता है उम्र पर निर्भर करता है परिस्थिति पर निर्भर करता है
इन तीनों के अतिरिक्त व्यक्ति का मन दिल और दिमाग यदि संतुलित अवस्था में अपनी सोच को निर्मित करता है तो कर्म पर नियंत्रण बना रहता है पर यदि उसकी सोच संवेगात्मक रूप से प्रभावित होती रहते हैं तो कर्मों पर नियंत्रण कम रहते हैं और आवेगो की प्रधानता हो जाती है इसलिए संतुलित व्यक्तित्व में कर्मों की प्रधानता बनी रहती है
कर्म के संबंध में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सफलता और उपलब्धियां कर्मों के निरंतरता पर ही संभव है इस कर्म को परिश्रम के शब्दों से परिभाषित किया गया है इंसान कल्पना हमेशा करता रहता है और कल्पना के आधार पर सफलता नहीं मिलने पर दुख होता है पर इस बात को स्वीकारने में तकलीफ होती है कि उसने परिश्रम करने में कमी कर दी है या तो परिश्रम के गुणों से परिचित नहीं है परिश्रम के तरीकों से परिचित नहीं है या तो आलस्य जिंदगी को गले लगाए हुए हैं और कल्पना की उड़ान भरता जा रहा है
जीवन का पहला नियम है सत्कर्म करिए अच्छे कर्म करिए फल की चिंता ना करें गीता में लिखा गया है कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन कहने का अर्थ है कर्म करते जाओ फल की चिंता ना करें कर्म पर नियंत्रण करने के लिए मन पर नियंत्रण करना होगा मन की डोर को अपनी ओर खींचना होगा
मन का स्वभाव है चंचल और चंचलता का मतलब है कभी यहां कभी वहां स्थिरता का अभाव इस चंचल मन के डोर को अगर आप अपनी और खींच लेंगे एक तनाव बना कर रखेंगे तो कर्मों में नियंत्रण बना रहेगा
इसलिए कर्म के नियंत्रण करने हेतु मस्तिष्क को संतुलित रखना होगा जीवन आपका है जैसा कर्म करिएगा वैसा फल मिलेगा हो सकता है वर्तमान में फल ना मिले लेकिन वह कहीं न कहीं आपके बैंक में डिपॉजिट हो रहा है और उसके आधार पर आपको कर आप फल मिलते रहेंगे
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
मानव जीवन कर्म प्रधान है। कर्म करना इन्सान की सजीवता का प्रमाण है और अपने सद्कर्मों से ही मानव समाज अथवा राष्ट्र में पहचाना जाता है।
"ऊँचा उठाते नहीं, न जाति न कोई धर्म,
पद बड़ा संसार में हासिल कराते हैं कर्म।
सद्कर्म हैं मानव जीवन की अमूल्य धरोहर,
हृदयों में वास करे वही जो होता है विनम्र।"
हमारा जीवन अनेक उतार-चढ़ाव से भरा होता है। मानवीय भूलें हमारे व्यक्तित्व का अंग होती हैं। उन भूलों का दुष्प्रभाव हमारे कर्मों पर पड़ता है। हम अपने मन के नकारात्मक भावों के दास बनकर अपने कर्मों पर नियन्त्रण खो बैठते हैं।
"बावरा मन बिखरे विचारों में खोता रहा,
अनवरत जागृत अवस्था में सोता रहा।
लोभ, अहंकार की बेड़ियाँ तोड़ न पाया,
निकृष्ट कर्मों का बोझ आयु भर ढोता रहा।।"
कर्मों की गति कभी-कभी परिस्थितियों पर भी निर्भर हो जाती है परन्तु किसी भी परिस्थिति में अपने कर्मों पर नियन्त्रण होना हमारा प्रथम कर्तव्य है।
क्योंकि.....
"सांसों की स्पष्ट लय, दिल की मधुर धड़कन,
मन का सुदृढ़ हौसला, कर्मों पर उचित नियन्त्रण।
आश्रित है सब कुछ, तेरे चिन्तन और कर्म पर,
बन पैरों की धूल, या बन माथे का उबटन।।"
कर्मों पर नियन्त्रण होना प्रत्येक मनुष्य की मानसिकता के अनुसार होता है और अपनी मानसिक स्थिति को सकारात्मक बनाये रखना भी मनुष्य पर निर्भर करता है। हमारे कर्मों पर कितना नियन्त्रण होता है यह तय करना हमारे हाथ में ही है। साथ ही यह भी निश्चित है कि प्रत्येक मनुष्य यह स्पष्ट रूप से जानता है कि सद्कर्म करने की प्रवृति यदि निरन्तर अभ्यास रूप में मनुष्य के जीवन में है तो उसका अपने कर्मों पर पूर्ण नियंत्रण संभव है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि कर्म पर हमारा कितना नियन्त्रण होता है इसकी दशा-दिशा हम स्वयं ही तय करते हैं। अपने कर्मों पर पूर्ण नियंत्रण करना असंभव नहीं है। बस इन्सान यह सदैव याद रखे कि....
"जड़ से उखड़े तो ना रहे पेड़ों की छाया भी,
छीन लेती है मृत्यु इन्सान का साया भी।
पेड़ों के मीठे फलों की यादें ही रह जाती हैं,
सद्कर्म ही शेष रहे साथ किसके गयी माया भी।"
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
कर्म से भाव क्रिया है। वो सारी क्रियाएँ जो हम शरीर,मन और वाणी से करते हैं, कर्म होता है। मनुष्य का मन बहुत चंचल होता है। शरीर ,मन की क्रिया पर ही प्रति क्रिया करता है। कर्म का दूसरा मुख्य तत्व है वाणी। वाणी पर ही प्रत्येक व्यक्ति नियन्त्रण नहीं कर सकता। इस तरह हम कह सकते हैं कि कर्म पर पूर्ण नियन्त्रण दूर की कौड़ी है।
हम कर्म पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं कर सकते लेकिन मन पर कुछ नियन्त्रण करना हमारे वश में जरूर होता है। इस के लिए हमें आत्मज्ञान, अध्यात्म ज्ञान चाहिए। इस ज्ञान के लिए बढ़िया साहित्य, विद्वान लोगों की संगति और महापुरुषों के वचन आदि।
पहले संयुक्त परिवार होते थे तो बढ़े-बूढ़ों की बातें सुनकर, और कहानियाँ सुनकर बचपन से ही अच्छे गुणों से मन और वाणी पर कुछ कंट्रोल स्वाभाविक ही हो जाता था। हमारा मन सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता था। तभी तो अकसर यह कहा जाता है कि पहले समय बहुत अच्छे थे ।हमारा मन बचपन से ही भयभीत हो जाता कि बुरा काम करने से पाप लगेगा। यमदूत और,यमलोक की बातें हमारे मन पर गहरा असर डालतीं। भयभीत होकर मन कंट्रोल में रहता है और अच्छे कर्म करने के लिए अग्रसर होता है। अब यह बातें मायने नहीं रखतीं। इस लिए सामाजिक पतन हो रहा है ।आज कल कर्म पर पूर्ण नियन्त्रण पाना अति कठिन है। लेकिन सुंदर समाज की सृजना के लिए, "पहले तोलो, फिर बोलो" और "जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान "आदि बातें मन में धारण करनी चाहिए।
- कैलाश ठाकुर
नंगल टाउनशिप - पंजाब
कर्म पर हमारा कितना नियंत्रण होता है ? इस संबंध में मेरा तो मानना है कि ९९.९९ प्रतिशत हमारा नियंत्रण होता है। क्योंकि जब हम कोई अच्छा काम करने का प्रयास करते हैं तो अंतर्रात्मा हमें ऐसा करने को प्रेरित करती है।यदि यह काम बुरा होता है तो वह उसको करने से रोकती है। हम अपने अहं और वहम में उसे अनसुना कर देते हैं और कर बैठते हैं ऐसा कर्म जिसके बाद होता है सिर्फ पछतावा।
इस नियंत्रण में ऐसा क्यों होता है कि हमारे ९९.९९ प्रतिशत पर यह .०१ प्रतिशत प्रभावी हो जाता है। इसका कारण होता है हमारा स्वार्थ,कमजोर इच्छा शक्ति, उदासीनता और भाग्य। इसमें में ही आ जाता है मन जो हमें भटकाने में कभी कोताही नहीं बरतता। जो मस्तिष्क को हमेशा अपने पक्ष में तर्क गढ़ने को प्रेरित करता रहता है।
इसके प्रभाव में ही हम "सबहिं नचावत राम गुसांईं" या होइहिं वहीं जो राम रचि राखा,कहकर अपने पक्ष में तर्क गढ़ते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,जो जस करहि सो तस फल चाखा।
भूल जाते हैं प्रभु के कथन,अवश्यमेव भोक्तव्यं शुभाशुभ कर्मफलं को। समझ ले कर्मफल हमें ही भोगना है यानि हमारे ही नियंत्रण में कर्म को माना गया है। वह ०.०१ प्रतिशत कारक भी तो हमारे ही होते हैं। तो हमें प्रयास करना चाहिए कि इस पर १०० प्रतिशत नियंत्रण हो, ऐसा करना असम्भव तो नहीं किंतु कठिन अवश्य होगा।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
कर्म पर हमारा कितना नियंत्रण होता है यह सवाल बहुत ही जटिल है ? हमारे समाज में हर व्यक्ति का यही प्रयास होता है कि वह अपने जीवन में अच्छे कर्मों की बदौलत आगे बढ़े तरक्की करें, जिससे उसको मान सम्मान मिले। हर मां बाप की प्रयास होता है कि वह अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा देकर आत्मनिर्भर बनाये। इसके लिए मां-बाप को कठिन से कठिन प्रयास करना पड़ता है। और वही बच्चा शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब अच्छी नौकरी या रोजगार प्राप्त कर लेता है तो वह और आगे बढ़ने के लिए प्रयास करने लगता है। बच्चों के पढ़ाई के लिए मां बाप ने कितना कष्ट किया। किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ा, यही बच्चा सारा कुछ तब भूल जाता है जब उसकी शादी होती है। वह अपने मां-बाप की तपस्या को भूल जाता है। आज के समाज में परिवारवाद खत्म होने के कगार पर है। जैसे ही शादी होती है पत्नी व ससुराल वालों के दबाव पर वाह अपने मां-बाप से अलग हो जाता है। आज के हालात यह हो गए हैं की लोगों के पास पैसा तो है। लेकिन उनके माता-पिता वृद्धाश्रम में पड़े हुए हैं, क्योंकि उनको देखने वाला उनका बेटा अपनी पत्नी और बच्चों के साथ दूर देश में अलग रहने के लिए बाध्य है। यह भी बात नहीं है कि हमारे समाज में सभी लोग एक तरह के हैं। आज भी लो ग अपने परिवार मां बाप भाई बहन और बच्चों के साथ मिलजुल कर रहते हैं। वह एक दूसरे के दुख सुख में शामिल होते हैं। पर इसकी संख्या बहुत कम है। समाज में भले ही आपके पास धन संपत्ति बहुत हो गई हो पर कर्म आपका अच्छा नहीं है तो लोग आपको सम्मान नहीं देंगे। आज के परिवेश में कर्म पर हमारा नियंत्रण धीरे-धीरे खोते जा रहा है। इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि मां बाप की शिक्षा को भूल गए और पत्नी के झांसे में आकर वही काम करते हैं जो वह कहती है।
- अंकिता सिन्हा साहित्यकार
जमशेदपुर - झारखंड
मनुष्य निर्धन हो या धनवान वह कर्म के आधार पर सब कुछ अर्जित कर सकता है।
कर्म प्रधान देश में निवास करते हैं। कर्म पर बल पर ही एक गरीब बच्चा भी कलेक्टर बन सकता है।
कर्म के कारण ही व्यक्ति पहाड़ को खोदकर रास्ता बना लेता है।
गीता में भी श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म करने का उपदेश दिया है हमारे धर्म ग्रंथ भी हमें यही शिक्षा देते हैं।
यह तो शाश्वत सच सच है कि जहां चाह होती है वहां राह होती है शक्ति के बल पर मनुष्य चाहे तो कुछ भी काम कर सकता है मनुष्य ने इच्छाशक्ति के बल पर ही एवरेस्ट पर विजय प्राप्त की और चांद पर पहुंचना उसके लिए संभव हो सका। औद्योगिक विकास वैज्ञानिक उन्नति सबका आधार श्रम और कर्म ही है कर्मशील मनुष्य के लिए कोई भी कार्य संभव नहीं होता कर्मशील ताहि मनुष्य को जीवों से अलग करती है दूसरे जीवो केवल पेट भरने आत्मरक्षा के लिए कर्म करते हैं पर मनुष्य केवल परहित के लिए भी कर्म करता है कर्मवीर ही मानवता के कर्णधार होते हैं उनके पसीने की सौगंध से ही हमारी संस्कृति और सभ्यता में महक है श्रम के अभाव में विश्राम या नींद का कोई महत्व नहीं होता वह जब तक अपने सोचे हुए कार्य को अर्जित नहीं कर लेते इस महामारी में भी मुसीबत कि मैं भी डॉक्टर और अन्य लोग अपने कर्म को पूरी निष्ठा से करते जा रहे हैं।
स्वस्थ रहें मस्त रहें।
- प्रीति मिश्रा
जबलपुर - मध्य प्रदेश
कर्म पर हमारा सौ प्रतिशत नियंत्रण होता है कर्म चाहे अच्छा हो या बुरा उसे करना है अथवा नहीं ये पूर्णत: हम पर निर्भर करता है क्योंकि
कर्म का सिद्धांत बताता है:-
अवश्यमेव भोताव्यम
कृतं कर्म शुभाशुभम
नाभुकतम क्षीयते कर्म कल्पकोटीश्तैरपी
“अपना किया हुआ जो भी कुछ शुभ अशुभ कर्म है, वह अवश्य ही भोगना पड़ता है. बिना भोगे तो सैंकड़ो-करोड़ो कल्पों के गुजरने पर भी कर्म नहीं टल सकता.”
सभी प्राणियों के लिए कुछ कर्म निश्चित है जो जीवन में अनिवार्य रूप से करने ही पड़ते हैं । जो प्रकृति के नियमों का पालन करता है। वह परमात्मा के करीब है, लेकिन ध्यान रहे परमात्मा भी मनुष्य के रूप में अवतरित होता है तो वह उन सारे नियमों का पालन करता है जो सामान्य मनुष्यों के लिए हैं। लौकिक और पारमार्थिक कर्मों के द्वारा उस परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, पर उन किए हुए कर्मों और संसाधनों के प्रति अपनी आसक्ति नहीं बढ़ानी चाहिए मात्र यह मानना चाहिए कि मेरे पास जो कुछ है, उस परमात्मा का दिया हुआ है। हम निमित्त मात्र हैं। कर्म को पूजा मानते हुए व्यक्ति जब राग-द्वेष को मिटा देता है तब उसके स्वभाव की शुद्धि होती है। उसके लिए समूची वसुधा एक परिवार दिखती है। उसका हर कर्म समाज के हित के लिए होता है। साधारण तौर पर हम कह सकते हैं कि कर्म किए बगैर व्यक्ति किसी भी क्षण नहीं रह सकता है। कर्म हमारे अधीन हैं, उसका फल नहीं। महापुरुष और ज्ञानी जन हमेशा से कहते रहे हैं कि अच्छे कर्मों को करने और बुरे कर्मों का परित्याग करने में ही हमारी भलाई है।
*किसी संत से एक व्यक्ति ने पूछा कि आपके जीवन में इतनी शांति, प्रसन्नता और उल्लास कैसे है? इस पर संत ने मुस्कराते हुए कहा था कि अपने कर्मों के प्रति यदि आप आज से ही सजग और सतर्क हो जाते हैं, तो यह सब आप भी पा सकते हैं। सारा खेल कर्मों का है। हम कर्म अच्छा करते नहीं और फल बहुत अच्छा चाहते हैं। यह भला कैसे संभव होगा?* उपरोक्त पंक्तियों का भाव स्पष्ट है कि कर्म करने पर हमारा पूरा अधिकार है परन्तु कर्मफल पर हमारा अधिकार नहीं होता । हमें जैसा जीवन जीने की इच्छा हो उसी के अनुरूप कर्म करने का निर्णय लेना होगा जिसके लिए हम पूरी तरह से स्वतंत्र होते हैं । अतः कर्म करने पर हमारा ही नियंत्रण होता है ।
- डॉ भूपेन्द्र कुमार धामपुर
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने, अर्जुन को वृहद स्तर पर उद्देश्य देते हुए कहा-"जिस पुरुष के इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती हैं।" जो जैसा कर्म करेगा, वैसा ही फल भोगेगा, कर्म किये जाओं, फल की चिंता मत करो, अर्थात् कर्म ही प्रधान हैं। जो भारतीय संस्कृति में धर्म को अत्यधिक महत्व दिया गया हैं। परंतु वर्तमान परिदृश्य में स्थितियां तुलनात्मक हो गई हैं। कर्मों को एक ओर रख कर इच्छा शक्ति की ओर अग्रसर है। हर कोई अत्याचार, भष्ट्राचार, परीक्षाकार और बलात्कार की ओर ध्यानाकर्षण हैं। वह चाहता हैं, प्रतिस्पर्धात्मक रुप से आगे बढ़ता चला जाऊं और कभी-कभी पीछे मुड़कर नहीं देखूं। उसे अपने कर्मों से मतलब नहीं। बस अंहकारों में मदहोश बनकर चला जा रहा हैं। कर्मों पर हमारा नियंत्रण स्थापित नहीं होने के कारण हौसले बुलंद हैं। जिस दिन हमारा कर्म जागा, उस दिन से हमारी क्रियाकलापों में सुधार होता चला जायेगा, आवश्यकता प्रतीत होती हैं, समस्त पहलुओं के चिंतन मनन-नमन करने की शक्ति दे?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
बालाघाट - मध्यप्रदेश
कर्म पर हमारा सम्पूर्ण नियन्त्रण होता है? हम सुकर्म करें या दुष्कर्म करें। यह हमारी नियति पर निर्भर है कि हम क्या कर्म करें, कैसे करें और कब करें?
हां कर्म का फल हमारे वश में नहीं होता। जबकि हमारे हिन्दू धार्मिक ग्रंथ गीता के उपदेशानुसार हम जैसा कर्म करते हैं, वैसा ही हमें फल मिलता है। किन्तु कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, किन परिस्थितियों में मिलेगा? इसका हमें ज्ञान नहीं होता।
इसलिए कर्म करने के लिए हम हमेशा स्वतंत्र होते हैं। राष्ट्रहित में कार्य करें या राष्ट्रविरोधी हमारे ही वश में है। कानून का पालन कर यश प्राप्त करें या कानून का विरोध कर दण्ड भोगें। किस रास्ते पर चलना है? यह हमीं ने तय करना। परंतु राष्ट्रद्रोह का दण्ड काल के गर्भ में छिपा है।जो ब्याज के साथ एक दिन अवश्य मिलेगा। उसी प्रकार राष्ट्रहित में किया राष्ट्रप्रेम भी व्यर्थ नहीं जाता।
परम सत्य यह है कि कर्म कभी निष्फल नहीं जाता। वह पल-पल और क्षण-क्षण ब्याज की भांति बढ़ता रहता है।
हम सृष्टि में खाली हाथ आए थे और खाली ही जाना है। प्रकृति द्वारा दिए गिनती के अनमोल श्वास समाप्त होते ही हम पंच तत्वों में विलीन हो जाएंगे। किंतु हमारे धार्मिक शास्त्रों के अनुसार कर्म ही एक मात्र ऐसी पूंजी है, जो कभी समाप्त नहीं होती।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
जहाँ तक आज की चर्चा में यह प्रश्न है कि कर्म पर हमारा कितना नियन्त्रण होता है तो इस विषय में मेरा विचार है कि यह किसी भी व्यक्ति के आत्म बल पर निर्भर करता है कि उसके कर्म पर उसका कितना नियंत्रण है और आत्मबल का विकास एक सतत प्रक्रिया है जो बहुत लंबे समय में पूरी होती है इसमें हमारा आचरण व्यवहार परिवेश और हमें मिलने वाले संस्कारों का विशेष योगदान होता है यदि हमारा आचरण और व्यवहार बिल्कुल संयमित व उन्नत है और हमें एक अच्छे परिवेश में बड़े होने का सौभाग्य मिला है तो कोई कारण नहीं है की कर्म पर हमारा नियंत्रण न हो हमारे कर्म ही हमारे भाग्य का व आने वाले अच्छे बुरे समय का निर्धारण करते हैं यह अवश्य होता है कि कभी-कभी इसमें वक्त अवश्य लगता है परंतु ऐसा नहीं है कि सत्य का पक्षधर व्यक्ति हार जाए उसकी जीत अवश्य होती है हाँ यह रास्ता मुश्किल हो सकता है इसलिए सदैव हमे हमारे कर्म पर हमारा ध्यान देना चाहिए और हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा कोई भी कर्म किसी भी प्रकार से हमारे लिए या किसी अन्य के लिए अहित कर न हो वह हमेशा परिवार समाज व देश के लिए हितकर हो यह पूर्ण सत्य है कि यदि आत्मबल है तो कर्म पर भी हमारा नियन्त्रण होता है अन्यथा नही़
- प्रमोद कुमार प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
मानव का जीवन कर्म पर ही टीका है !
गीता में कहा है ..
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
अर्थात्
कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।।
हमारे सभी सुख और दुःख के अनुभव हमारे पूर्व जन्मों में चार्ज या इकट्ठे किए गए कर्मों का परिणाम हैं।
कभी भी एक नकारात्मक क्रिया अन्य सकारात्मक क्रिया द्वारा मिटाई नहीं जा सकती| हमें इन दोनों के अलग-अलग परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
आत्मानुभव प्राप्त करने के बाद भी आप अभी की तरह ही अपना सारा व्यवहार करते हुए आनंद से रह सकते हैं| ज्ञान प्राप्त करने के बाद किसी भी प्रकार का कर्म बंधन नहीं होता और आगे चलकर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
कर्म पर बहुत अधिक और बहुत विस्तार से बात करने की जरुरत है पर मैं यह अपना संतसंगी ज्ञान के माध्यम जो मेरी दीदी अनिता जी ने बताया है ..आपको बताती हू ..
धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्रों में कहा गया है कि कर्म के बगैर गति नहीं। सनातन धर्म भाग्यवादियों का धर्म नहीं है। कर्म से ही भाग्य का जन्म होता है। वेद, उपनिषद और गीता- तीनों ही कर्म को कर्तव्य मानते हुए इसके महत्व को बताते हैं। यही पुरुषार्थ है। श्रेष्ठ और निरंतर कर्म किए जाने या सही दिशा में सक्रिय बने रहने से ही पुरुषार्थ फलित होता है। वेदों में कहा गया है कि समय तुमको बदले इससे पूर्व तुम ही स्वयं या समय को बदल लो- यही कर्म का मूल सिद्धांत है। अन्यथा फिर तुम्हें प्रकृति या दूसरों के अनुसार ही जीवन जीना होगा
व्यक्ति निरंतर कर्म करता रहता है। सोया हुआ व्यक्ति भी कर्म कर रहा है। कर्म का संबंध हमारे शरीर, मन, मस्तिष्क और चित्त की गति से है। गति कभी भी रुकती नहीं है। रुकने में भी एक गति है। इस कर्म गति से ही अगले कर्म की गति निर्मित होती है।
जिस तरह से चोर को मदद करने के जुर्म में साथी को भी सजा होती है ठीक उसी तरह काम्य कर्म और संचित कर्म में हमें अपनों के किए हुए कार्य का भी फल भोगना पड़ता है और इसीलिए कहा जाता है कि अच्छे लोगों का साथ करो ताकि कर्म की किताब साफ रहे। जिस बालक को बचपन से ही अच्छे संस्कार मिले हैं उसका कर्म भी अच्छा ही होगा और फिर उसके संचित कर्म भी अच्छे ही होंगे।
बुरे कर्र्मो पर नियंत्रण लगाना चाहिए ..,!
क्यो की कर्म हमार वर्तमान ,भविष्य और भूतकाल है ,
विषय बहुत बड़ा है संक्षेप में ज़रा मुश्किल है ,
व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार जीवन मिलता है और वह अपने कर्मों का फल भोगता रहता है। यही कर्मफल का सिद्धांत है। 'प्रारब्ध' का अर्थ ही है कि पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किए हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो।
कर्म हमेशा नेक करे अपने विचारों व कुछ बुरे या निर्थक कर्मों पर अंकुश लगा
वर्तमान ,भविष्य सुधारे ,
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
कर्मों पर हमारा परिस्थिति अनुसार तथा विषय- बुद्धि अनुरूप नियंत्रण होता है।
जीवन में हम कैसा कर्म करते हैं उसका प्रभाव बचपन से ही प डना शुरू हो जाता है।
अगर हम अच्छे कार्य करते हैं तब यही कार्य भविष्य में हमारे अच्छे संस्कार के नाम से पहचाने जाते हैं ।
और अगर गलत कार्य करते हैं तो यह ही हमारे कार्य भविष्य में गलत संस्कार या कुसंस्कार के नाम से पहचाने जाते हैं ।
एक उदाहरण के रूप में मैं बताना चाहूंगी कि जिस तरह पौधे को शुरुआत में चारों तरफ से तार या ईटो का घेरा लगाकर गाय -बकरी आदि से बचाना पड़ता है । फिर वही पौधा वृक्ष बन कर बड़ा हो जाता है तब कुछ डर नहीं रहता।
उस वृक्ष के नीचे सैकड़ों गाय- बकरियां आकर छाया लेती हैं ,आसरा लेती हैं ,उसके पत्तों से पेट भर ती हैं ।
इसी प्रकार हमें भी अपने कर्म पर नियंत्रण रखना चाहिए हमें भी बचपन से स्वयं को कुसंगति से तथा विषय बुद्धि के प्रभाव से बचाना चाहिए ।
तभी हमारा कर्म पर नियंत्रण होता है।
आपने भी बड़े बुजुर्गो को कहते सुना होगा कि तुम अपने विवेक से कार्य करो ।
जैसे नेत्रहीन आंखों का अंधा होता है ,
वैसे ही विवेक हीन व्यक्ति भी अकल का अंधा होता है ,
,और अच्छा या बुरा कार्य देख नहीं पाता ।
जब हम अपने विवेक पूर्ण व्यवहार से कार्य करते हैं तब ही कर्म पर हमारा नियंत्रण होता है।
- रंजना हरित
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
कर्म यानी हमारे खुद के हाथों से करने वाले अच्छे - बुरे काम करने । कर्म का हिन्दू धर्म का प्रतिपादन किया है । गीता में प्रभु कृष्ण ने कहा , कर्म किये जा । फल की चिंता मत करो । कर्म पर ही हमारा जन्म टिका होता है ।जो प्राणी जैसे कर्म करता है । उसको 84 लाख योनियों में कर्मों से ही योनि में जन्म लेता है ।
कर्म का संबंध हमारे मन से है । जैसे मन कहता है मनुष्य वायदे कर्म करता है । अच्छे काम का अच्छा नतीजा निकलता है और बुरे काम का बुरा नतीजा होता है ।
सदवृति प्रकृति के लोगों का कर्म पर नियंत्रण होता है ।
वे समाजहित , देश हित मानवकल्याण के लिए काम करेंगे । दुष्वृति के लोगों में कर्म पर नियंत्रण नहीं होता है । असुर वृति होने के कारण नकारात्मक , गलत काम करेंगे । गलत कामों को करना उन्हें अच्छा लगता है ।
समाज इस तरह के दोनों वृतियों के लोगों से भरा हुआ है ।
कर्मो का ही फल है कोई अमीर बनता है कोई गरीब ।जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है , वह खुद ही गड्ढे में गिर जाता है । इसलिये हम अच्छा सोचे अच्छे कर्म करें ।हम अपना परलोक सुधारें ।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
हम अपने सारे कर्म इन पांच कर्म इंद्रियों से करते हैं:- आँखें, कान,नाक,मुख और त्वचा यह हमारे पांच कर्म इंद्रिय हैं।* कर्म ही धर्म है*। कर्म से ही फल और भविष्य तय होता है।
कर्म क्या होता है ? कितने प्रकार के होते हैं? और फल कैसे मिलते हैं?
इस पॉच कर्मइंद्रियों से जो भी करते हैं ,वह सारे हमारे मेमोरी में एकत्रित हो जाते हैं ।उसी से हमारा संस्कार बनते हैं ।जैसे हमारे संस्कार होंगे उसी तरह कर्म करने के लिए हम प्रेरित होते हैं।
हमारे संस्कार कई चीज़ो पर निर्भर करता है,जैसे पिछले जन्म के कर्म हमारे माता पिता के संस्कार तथा जिन लोगों के साथ जुड़ते हैं उनके संस्कार के प्रभाव, हमारे समाज और देश के संस्कार आदि से मेरा संस्कार बनता है।यह आप के विश्वास पर की किन लोगों की कितनी ती्व्रता आप पर कितनी है ।
हमारे हर कर्म का फल निश्चित मिलता है।
फल आपके भविष्य के भुगतने को अवश्य मिलेगा।
आप पिछले जन्मों के कर्म के फल से वर्तमान काल के क्रिया करते हैं।
लेखक का विचार:- "कर्म ही है मेरा धर्म"।
कर्म से बदली जा सकती है भाग्य *मेहनत का फल मीठा होता है।*
जैसा सोचता है वैसा कर्म करता है तो वैसा ही भाग्य बनता है। मनुष्य कर्म से बदल सकता है भाग्य।
हस्तरेखा में कुछ रेखा को छोड़कर बाकी सभी रेखा है जो कर्म के अनुसार बदलती रहती है।
इसलिए आलस को त्याग कर कर्म पर लग जाए।
- विजयेंद्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
अगर सही रीति से देखा जाय तो कर्म पर हमारा कुछ भी नियंत्रण नहीं है। हम वही करते हैं जो हमसे नियति करवाती है। यदि कर्म पर हमारा नियंत्रण रहता तो हम कभी गलत कार्य कर ही नहीं सकते। क्योंकि कोई कार्य करते-करते गलत हो जाता है तो हम कहते हैं कि मुझसे यह गलती हो गई। यानी कर्म पर हमारा नियंत्रण नहीं तभी तो गलती हो गई।यदि नियंत्रण रहता तो हम गलत करते ही नहीं। कभी-कभी हम अनजाने में कोई अच्छा कार्य कर जाते हैं। कभी सावधान रहने पर भी गलती हो जाती है।
इसलिए ही तो गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म किये जाओ। नियति ये ठीक करती है कि हमें कैसा कर्म करना है। ड्राइवर गाड़ी चलता है खूब देख समझ कर फिर भी दुर्घटना हो जाती है। यदि कर्म उसके वश में रहता तो दुर्घटना होती ही नहीं।
एक और उदाहरण मैं यहाँ देना चाहूंगा।एक ही मार्बल के पहाड़ के कई टुकड़े किये जाते हैं, इसमें सभी टुकड़े का कर्म समान मगर मार्बल का एक टुकड़ा पूजा घर में लगता है तो दूसरा टुकड़ा बाथरूम में तीसरा टुकड़ा शौचालय में। इन तीनों टुकड़ों का कर्म बराबर ही था। लेकिन नियति उन्हें अलग-जगह ले गई।
कुछ कर्म है जो हम दिनरात करते हैं फिर भी उसमें हमारा नियंत्रण नहीं रहता उसमें फेरबदल होता रहता है। हम चाह कर भी वैसा नहीं कर पाते हैं जैसा हम चाहते हैं। तो फिर हमारा कर्म पर नियंत्रण कैसे रहा।
इसलिए मैं ये बात दावे से कह सकता हूँ कि कर्म पर हमारा नियंत्रण नहीं होता।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश"
कलकत्ता - प.बगाल
कर्म पर हमारा पूर्ण नियंत्रण होता है। मूलतः यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम इसे किस प्रकार उपयोग करते हैं। विवेक ज्ञान पर निर्भर है। ज्ञान से ही विवेक जाग्रत होता है। विवेक जाग्रत होने से ही हमें यह मालूम होता है कि कौन-सा कर्म अच्छा है और कौन-सा कर्म बुरा है। अज्ञानी कोई भी कर्म कर सकता है चाहे वह अविवेकपूर्ण या अनुचित कर्म ही क्यों न हो क्योंकि उसका विवेक जाग्रत नहीं होता। ज्ञानी होते हुए भी परिस्थितियों के अन्तर्गत हम अविवेकपूर्ण कर्म करने को विवश हो सकते हैं और यही एक ऐसा समय होता है जब कर्म पर हमारे नियंत्रण की परीक्षा होती है।
- सुदर्शन खन्ना
दिल्ली
कर्म पर नियंत्रण यानी किसी भी शक्ति को अपने कर्म पर हावी न होने देना अथवा उससे दूर रहना
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं "अपनी इंद्रियों पर काबू पाना "
सही मायने में यदि हम अपनी इंद्रियों पर काबू पा लेते हैं तो हमने सब पा लिया ! कठिन से कठिन परिस्थिति में भी हम संयम रखते हैं और मन पर विजय हासिल कर लेते हैं मतलब जो अपने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है वह अच्छे से अच्छा कार्य कर सकता है!
प्रकृति का नियम है जो पृथ्वी पर आया है उसे काम तो करना ही पड़ेगा ! बिना कर्म के तो जीवन ही व्यर्थ है! यह देखना है कि आप अपने कर्म की सफलता कैसे प्राप्त करते हैं!
एक कर्मठ इंसान अपने जिस उद्देश्य को लेकर चलता है उसे वह बहुत ही ईमानदारी, लगन, मेहनत, आत्म-विश्वाष, एंव सदविचारों के साथ पूर्ण करने की सोचता है! कार्य प्रारंभ करने से पहले नहीं सोचता मुझे लक्ष की प्राप्ती होगी या नहीं अर्थात फल की इच्छा नहीं रखता! प्रभु कृष्ण ने भी कहा है कर्म करते जाओ फल की इच्छा न करें! कर्म के अनुसार फल अवश्य मिलेगा!
यह तो प्रकृति का नियम है जैसा बोवोगे वैसा पाओगे! फिर हम अच्छे कर्म क्यों ना करें!
काम क्रोध,लोभ, मोह, इच्छा, चाहत को हम अपने मन को स्थिर कर काबू कर लेते हैं तो हमने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपने कर्म पर नियंत्रण पा लिया है!
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
मन आपके नियंत्रण में नहीं रह सकता लेकिन कर्म पर नियंत्रण रखकर आप मन को सही दिशा में लगा सकते हैं ।
मैंने जीवन के अनुभवों के आधार पर पाया कि कर्म पर नियंत्रण कर मन को सही दिशा में लगाया जा सकता है ।
कर्म पर नियंत्रण का सीधा संबंध कर्म के निर्धारण से शुरू होता है और उसी पर आगे बढ़ने से शुरू होता है।
कर्म क्या है ?
सोने से लेकर जागने तक और जागने से लेकर सोने तक हम अपने जीवन में जो भी करते हैं वह कर्म की संज्ञा में आता है ।कर्म का कोई मापदंड नहीं होता इसका कोई मानक भी नहीं होता बल्कि इसका ।अच्छे और बुरे की दृष्टि में बांटा गया है कर्म ।
हमारा मन हमारे तरीके से काम को करना चाहता है और हम करने भी लगते हैं लेकिन लगातार बदलाव रूपी मन हमको आगे बढ़ने से पहले ही दूसरे काम में लगा देता है ,और फिर हम भटक जाते हैं ।
मन एक अस्थिर अवस्था है। इसको सही दिशा में लगाने वाला व्यक्ति सफलता के शिखर पर पहुंच पाता है ,लेकिन संकट इस बात का है कि हमारा मन नियंत्रित ही नहीं होता ।
आदिकाल से मान्यता है कि मन सबसे तेज गति से परिवर्तित होने वाली अवस्था है ।जिसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है परंतु एक सही दिशा तो दिया जा सकता है।
अब सवाल ये उठता है कि कैसे मन को स्थिर अवस्था में लगाया जाए ?
आप कहोगे कि कर्म का निर्धारण कर देने मात्र से मन सही दिशा में नहीं लग पाता तो आप सही है। इसके लिए लक्ष्य बड़ा करना होगा एक लंबी कार्य योजना बनानी पड़ेगी, उसके छोटे छोटे हिस्से में उसे पूरा करना होगा ।सहयोगीयों का समूह बनाना होगा तब जाकर आप लक्ष्य के प्रति समर्पण भाव को जागरूक कर सकेंगे ।
तब कर्म का नियंत्रण होगा और मन सही दिशा में लग जाएगा।
- सुषमा दिक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
मनुष्य का ज़िन्दगी कर्म से ही चलता है। कर्म करने का निर्णय आत्मा(मन)करता है। कर्म आवश्यकता के आधार पर होना चाहिए। ले किन वर्तमान मे कर्म पर नियंत्रण नहीं है। मनुष्य दो तरह के कर्म करता आ रहा है। एक सुकर्म और दूसरा कुकर्म इन्ही कर्म के आधार पर मनुष्य सुख और दुःख का भागीदार होता है। वर्तमान मे अगर कर्म पर नियंत्रण हो तो आज संसार मे कोई अमीर गरीब नही होता सब समृद्धि के भाव में जीता हुआ समाज दि खाई देता। अतः इन वाक्यं से य ही कहते बनता है कि कर्म पर वर्तमान में नियंत्रण नही है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
देखिए! हम जो भी कर्म करते हैं वह अपने विवेक के अनुसार करते हैं। गुरु सत्ता जो हमारे भीतर की गुरु सत्ता है। (गुरु देह का नाम नहीं गुरु तत्व का नाम है) जब हमारे भीतर का गुरु हमें आदेश करता है अर्थात हमारी विवेक इंद्री से क्या उचित है या अनुचित है हम उसी के अनुसार कार्य करते हैं। कई बार हम कहते हैं कि जो लिखा हुआ था वही हुआ.. वही कर्म हम कर रहे हैं और लिखे के अनुसार ही करेंगे। लेकिन हम सब कुछ भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ सकते जो कर्म को भाग्य के भरोसे छोड़ते हैं वह निठल्ले लोगों का काम है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्म कर फल की चिंता मत कर। जो कर्म करते हैं उसका फल तो मिलता ही है। पुरुषार्थ करना जरूरी है। कर्म करते हुए हमारा स्वयं पर पूरा नियंत्रण होना जरूरी है।
विवेक बुद्धि से काम करेंगे, निस्वार्थ भाव से करेंगे तो उसका फल मिलेगा ही मिलेगा। प्रकृति का सिद्धांत भी है कि जो करेंगे वही लौट के आएगा।
यदि हम दृढ़ निश्चय करें कि अमुक कार्य इतने समय के भीतर मैंने समाप्त करना है तो वह काम अवश्य पूरा होगा। संकल्प में विकल्प कब आता है? जब कोई काम करते हुए स्वयं पर हमारा स्वयं का नियंत्रण नहीं होता। तब भटकाव के कारण, मन की चंचलता के कारण वह कार्य भी अधूरा रह जाता है।
इसके विपरीत जब हम जागरूक होकर कर्म करते हैं, स्वयं पर नियंत्रण होता है कोई भी विकल्प हमें उस कार्य को करते हुए रोक नहीं सकता सो कर्म करते हुए संकल्प शक्ति का दृढ़ होना आवश्यक है।
- संतोष गर्ग
मोहाली - चंडीगढ़
बड़ा मुश्किल होता है हमारा कर्म पर नियंत्रण करना। पर कर्म पर नियंत्रण करना तो पड़ता ही है। जो कार्य आवश्यक हों उनको प्राथमिकता देनी पड़ती है। हालांकि परिस्थितिवश कभी कभार यह संभव नहीं हो पाता। तात्कालिक परिस्थितियों पर भी हमें ध्यान देना होता है। उस समय हमारी प्राथमिकता वही बन जाती है।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
नरसिंहपुर -मध्य प्रदेश
हम अपने संस्कारों के अनुसार कर्म करते हैं। हमारे संस्कार कैसे होंगे यह हमारे परवरिश, सामाजिक परिवेश और जिन पर अडिग विश्वास है उन सभी के व्यवहार, विचार और गुणों से निर्मित होता है। कर्म हम अपने स्वभावानुसार करते हैं पर परिस्थितिनुसार कभी-कभी अपना नियंत्रण नहीं होता। बचपनावस्था में अभिभावकों के इच्छानुसार, बुजुर्गावस्था में बच्चों के इच्छानुसार, गृहस्थाश्रम में भी कभी-कभी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबते हुए पारिवारिक व सामाजिक इच्छानुसार कर्म करना पड़ता है।
कर्म तो हम खुद करते हैं पर कभी इच्छापूर्वक कभी अनिच्छापूर्वक। सामंजस्य बनाने हेतु कभी-कभी विचारों से समझौता करते हुए भी कर्म करना पड़ता है। फिर भी कर्म पर हमारा अपना नियंत्रण होता है। किसी भी कर्म को करते हुए हम अपने विवेक से सोच समझकर क्या उचित है? क्या अनुचित है? क्या नैतिक है? क्या अनैतिक है? तोलमोल करते हुए हम कर्म करते हैं।
कर्म का आधार विचार है। मनुष्य जैसा संकल्प करता है वैसा ही आचरण करता है और वैसा ही कर्म करता है।
- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
कर्म हमेशा ज्ञान और चंचल मन के नियंत्रण पर ही निर्भर करता है ।
क्योंकि मनुष्य को जितना अधिक ज्ञान होगा उसका कर्म उतना ही सात्विक होगा । इसमें कोई दो राय नही है । वहीं सात्विक और देश व समाज हित मे मनुषयी कर्म तभी हो सकते है जब इंसान सही और गलत में फर्क करना जनता हो । यदि मनुष्य को अपने कर्म की महत्वता ही नही पता है तो उसका कर्म नाले के उस पानी के बहाने के समान है , जिससे किसी का कोई सरोकार नही होता ।
यदि हम सामाजिक ज्ञान से अपरिचित है तो फिर हमारा कर्म करना अथवा न करना कोई मायने नही रखता । वहीं भावनाओं के अधीन होकर भी हमारा कर्म पर नियंत्रण नही रहता है । यह भी सत्य है ।।
- परीक्षीत गुप्ता
बिजनौर - उत्तरप्रदेश
आचार्य सतीश जी ने कहा कि शकल पदार्थ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म के बिना हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। किन्तु कर्म क्या है? इसको जानना बहुत जरूरी है। जब हम कर्म की बात करते हैं तो जीवन का कोई भी पल ऐसा नहीं, जब हम कर्म नहीं कर रहे होते। लेकिन कर्म की परिभाषा अलग-अलग आंकी जा सकती है। जो इस प्रकार है कि क्या हम निष्काम कर्म कर रहे हैं या स्वार्थवश?
हमारा कर्म चाहे कितना भी सूक्ष्म क्यों ना हो फलीभूत होने की क्षमता रखता है। जैसे किसी प्यासे को पानी पिला देना बहुत बड़ा कर्म है। वहीं किसी को प्यास से तड़पता देखना पाप ही नहीं अपितु अचम्भा भी है। इसलिए हमारे मन में जो भाव दूसरे के लिए उठते हैं। उसी प्रकार का कर्म जन्म ले लेता है। कहने का अर्थ यह हुआ कि जो कर्म इंद्रियों को नियंत्रण में रख कर किया जाता है। वही उत्तम कर्म कहलाता है। लेकिन कई बार कर्म बदले की भावना को भी रख कर किया जाता है। जैसे महाभारत में अर्जुन के ना चाहते हुए भी उसे अपने सगे-संबंधियों के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा। जिसके लिए श्रीकृष्ण जी को ज्ञान देना पड़ा था। बाद में वही ज्ञान गीता का ज्ञान कहलाया। जिसमें स्पष्ट बताया गया है कि कर्म ही जीवन है। जिस पर नियन्त्रण अति आवश्यक है।
इसलिए हर एक मनुष्य को इंद्रियों को नियन्त्रण में रख कर ही कर्म करना चाहिए। ऐसा कर्म ही सच्चा कर्म कहलाता है अथवा कर्म को भला व बुरा हमारे मन के भाव ही बनाते हैं। जिन पर हमारा सर्वप्रथम नियन्त्रण होता है। अर्थात बोया पेड़ बबूल का आम कहां से पाएं? जिसका अर्थ है कि बुरे काम का बुरा ही फल मिलता है। इसलिए मन को नियन्त्रण में रख कर किए गए काम को परमप्रिय कर्म कहते हैं और ऐसे कर्म पर हमारा पूर्ण नियन्त्रण होता है।
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
*कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन*
मानव कर्म योग से बंधा हुआ है, जब तक वह संसार में है तब तक उसे कर्म की प्रधानता बनी रहती है, बिना कर्म के मानव का एक क्षण भी नहीं बीतता
कर्म पर उसका अधिकार होता है परंतु उसके परिणाम क्या होगा उस पर उसका कोई अधिकार नहीं इसलिए मनुष्य का पहला कर्तव्य कि वह अपने कर्म के प्रति ईमानदार रहें । परिस्थितियां कैसी भी बने फिर भी उसको अपने कर्म से पूर्ण ईमानदारी निभानी चाहिए सत्य के मार्ग पर कभी-कभी परिणाम देर से मिलते हैं उसके दूरगामी परिणाम होते हैं।
इसलिए हमेशा उसे सत्य और न्याय और विश्वास ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए।
मानव मन से मजबूत हो किसी दूसरे से कोई अपेक्षा भाव ना रखें और अपना स्वार्थ सिद्धि की आशा ना करें तो हमारा अपने कर्म पर पूर्ण नियंत्रण होता है, अपवाद स्वरूप कभी कोई विशेष परिस्थितियों में किसी दबाव वश या किसी की रक्षा हेतु किसी के बचाव में वह अपने कर्तव्य के विपरीत ना चाहते हुए भी कभी कोई ऐसा कार्य करना पड़ जाता है जिसे वह स्वयं अपनी आत्मा की आवाज या अपने स्वयं के विचार से नहीं करना चाहता है। विवशता वश करना पड़ता है
फिर भी कर्म पर हमारा नियंत्रण होता है यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किसी भी कार्य को किस तरीके से
क्रियान्वित करते हैं। कुछ प्रतिशत समय और परिस्थिति पर भी निर्भर करता है फिर भी मानव का कर्तव्य है
कि वह अपने कर्म पथ सेअडिग या
कर्तव्य विमुख नहीं होना चाहिए।
उसे सत्य विश्वास के साथ अपना कार्य करना चाहिए परिणाम की चिंता किए बगैर आप धैर्य धीरज ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होते रहिए इसका नियंत्रण हमारे हाथ में होता है । हमेशा सत्य की जीत होती है। *सत्यमेव जयते*
- आरती तिवारी सनत
दिल्ली
" मेरी दृष्टि में " कर्म चार प्रकार के होते हैं । मानसिक कर्म वे हैं । जो दिमांग में हर समय चलते रहते है । इन पर नियन्त्रण नहीं रहता है । दूसरा वाणी कर्म पर नियंत्रण किया जा सकता है । तीसरा अपने हाथों से किया गया कर्म । चौथा वह कर्म है जो एक जगह से दूसरे जगह जा कर करते हैं । इस प्रकार चार तरह कर्म होते हैं । उन पर हमारा कितना नियन्त्रण होता है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
सम्मान पत्र
रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है" कर्म प्रधान विश्व करि राखा" अर्थात कर्म ही प्रधान है। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने भी कर्म को प्रधानता दी है। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" अर्थात कर्म करते जाओ फल की चिंता नहीं करें।
ReplyDeleteइंसान का चित्र भंवरे की तरह होता है।भटकता रहता है। संयम और विवेक के द्वारा अपने मन पर अंकुश लगाकर या कहे नियंत्रण करके जिम्मेदारी पूर्वक अपने कार्य संपादित करना चाहिए। हालांकि यह थोड़ा मुश्किल होता है परंतु असंभव नहीं होता।
मेरे ख्याल से तो अपने संपूर्ण उत्तरदायित्व का समुचित निर्वहन करना ही कर्म होता है। वह पारिवारिक भी होते हैं, सामाजिक भी, राष्ट्रीय और स्वयं के लिए भी। गीता में शरीर को क्षेत्र का नाम दिया है श्री कृष्ण ने और इसी प्रकार कर्म व्यवस्था का वर्णन किया है।
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